31 March, 2009
वो...
वो लिखना चाहती है बहुत सारा कुछ, क्यों या किसके लिए ये मालूम नहीं...शायद आने वाली पीढ़ियों के लिए, शायद सिर्फ़ तुम्हारे लिए...तुमसे उसकी जिंदगी शुरू होती है और तुम पर ही आकर ख़त्म हो जाती है।
वो एक अजीब सी लड़की है, जिसे कविता लिखना पसंद है, सूर्यास्त देखना अच्छा लगता है, और किसी ऊँची पहाडी पर खड़े होकर बादलों को देखना भी।
वो लिखना चाहती है उन सारे दिनों के बारे में जब शब्द ख़त्म हो जाते हैं उसके पास से, जब वह बड़ी मुश्किल से तुम्हारी आंखों में तलाशती है जाने किन किन बिम्बों को...और उसे पूरा जहाँ नज़र आता है क्यों आता है ये भी मालूम नहीं।
उसे लिखना ही क्यों चाहिए कौन है जो उसका लिखा पढ़ेगा, वक्त की बर्बादी क्यों करना चाहती है वो. पर फ़िर भी वो लिखती है, इतना लिखती है कि एक दिन उसके सारे कागज ख़तम हो जाते हैं, कलमें टूट जाती हैं, दवात में स्याही नहीं बचती। उसे फ़िर भी लिखना होता है...वह आकाश बिछा कर लिखती रहती है, वो कहानियाँ जो कोई भी नहीं सुनता।
वो लिखती रहती है उन खामोश रातों के बारे में जब उसे अपनी माँ की बहुत याद आती है और उसकी आत्मा चीख उठती है...पर कोई आवाज नहीं आती। वह अपनी माँ को पुकारती रहती है और ये पुकार खामोशी से उसके शरीर के हर पोर से टकरा कर वापस लौटती रहती है। इतने सारे शब्द उसे अन्दर से बिल्कुल खोखला कर देते हैं और इन दरारों में दर्द आके बस जाता है।
वो लिखती रहती है जिंदगी के उन पन्नो के बारे में जो अब धुल कर कोरे हो गए हैं, जिनमें अब कोई याद नहीं है। एक बचपन जो माँ के साथ ही गुजर गया...कुछ सड़कें जो दिल्ली में ही छूट गयीं...कुछ चेहरे जो अब तस्वीरों में भी नहीं मुस्कुराते हैं।
वो लिखती रहती है चिट्ठियां जो कभी किसी लाल बक्से में नहीं गिरेंगी, खरीदती रहती है तोहफे जो कभी भेज नहीं सकती...इंतज़ार करती है राखी पर उस भाई का जिसका एक्साम चल रहा है और आ नहीं सकता। शब्द कभी मरहम होते हैं, कभी जख्म...तो कभी श्रोता भी।
वो लिखना चाहती है नशे के बारे में...पर उसने कभी शराब नहीं पी, वो चाहती है उस हद तक बहके जब उसे मालूम न हो की वो कितना रो रही है...शायद लोग ध्यान न दें क्योंकि नशे में होने का बहाना हो उसके पास। पर उसे कभी ऐसा करने की हिम्मत नहीं होती। वो चाहती है की सिगरेट दर सिगरेट धुएं में गुम होती जाए पर नहीं कर पाती।
वो चाहती है कि उसे कोई ऐसी बीमारी हो जाए जिसका कोई इलाज न हो...वो जीना ऐसे चाहती है जैसे कि मालूम हो कि मौत कुछ ही कदम दूर खड़ी है...और उससे चोर सिपाही खेल रही हो।
वो एक लड़की है...सब उससे पूछते हैं कि उसे इतनी शिकायत क्यों है, किससे है। क्यों है? शायद इसलिए कि वो लड़की है...सिर्फ़ इसलिए। और सबसे है...उन सबसे जो कभी न कभी किसी न किसी रूप में उसकी जिंदगी का हिस्सा बने थे।
उसे शिकायत है उस इश्वर से...और वह रोज उनके खिलाफ फरमान निकलना चाहती है...क्योंकि वह अपना विश्वास ऐसे खो चुकी है कि डर में भी उसे इश्वर याद नहीं आता।
उसका लिखना किसी कारण से नहीं हो सकता...किसी बंधन में नहीं बंध सकता.
वो लिखती है क्योंकि जिन्दा है...और वो जिन्दा है क्योंकि तुम हो।
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जिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं
मौत आई हमें पता भी ना चला...
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खून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...
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aap abhi tak jaag rahi hai? pata hai vakt kya ho raha hai? apane office me baithe yahi soch raha tha ki itanae dino se aapane blog par koi post kyu nahi dala?
ReplyDeleteaap soch rahi hongi ye kya baat hui? mai jaagu ya sou isase mukhe kya? bhai blog par coment coment post karane ki bajaye mere jaagane par hi saval khada kar diya? khair isaka javab mai fir kabhi dunga filahal aap mere blog par amantrit hain. www.delhiseyogeshgulati.blogspot.com aap jaise blog pandit ki coment meri post par ho jaye to ye gareeb bhi dhany ho jae!
ReplyDeletevaise agar aap anyatha na len to ........vo ki udasi ka kaaran jaan sakta hun? vo ko apane man men jhank kar dekhana chahiye ek baar..! usaki saari shikaate door ho jaayegi.
ReplyDeletemeri comments post kyu nahi ho rahi hai?
ReplyDeleteu dont wanna approve my comments? ok! but plz do make coments on my blog.
ReplyDelete"जिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं" - बहुत सुन्दर रचना. आभार,.
ReplyDeleteपढ़कर सोच रहे हैं कि अगर अभिव्यक्ति के लिये लिखाई-पढाई की खोज न हुई होती तो क्या करती वह!
ReplyDeleteक्या कमेंट करुँ समझ नही आ रहा। कई बार लगता है जैसे सब कुछ तो पोस्ट में कहा जा चुका है और बाकी क्या बचा। "लिखना है क्योंकि हर दर्द और खुशी का अहसास करना है।" फिलहाल तो यही दिमाग में आया।
ReplyDeleteजिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं
ReplyDeleteमौत आई हमें पता भी ना चला...
वाह शानदार . शुभकामनाएं.
रामराम.
क्योंकि वो लिखती है ....दिल की हलचल को बहुत अच्छे से लिखा है ...
ReplyDeleteख़ास तौर पर अंतिम पंक्तियाँ ....
जिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं
मौत आई हमें पता भी ना चला...
और
खून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
वो एक अजीब सी लड़की है, जिसे कविता लिखना पसंद है, सूर्यास्त देखना अच्छा लगता है, और किसी ऊँची पहाडी पर खड़े होकर बादलों को देखना भी।
ReplyDeleteएक लड्की की कलम से वो जो लड्की बाहर आयी है वह लडकी पुरी की पुरी मै ही हुँ ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी की रचना मे मै पुरी की पुरी दिखती हुँ, मनोदशा भी सच दिखती है ,चलो कोई तो है मेरे जैसा .........
वो लिखती है क्योंकि जिन्दा है...और वो जिन्दा है क्योंकि तुम हो।
दर्दभरा एहसास... पूजा....शायद शब्द नहीं मेरे पास....बिल्कुल ऐसी ही मेरी ज़िंदगी.. हूं...इसलिए शब्द दर शब्द महसूस कर पा रीह हूं....सिर्फ एक दो लफ्जों का फर्क....मेरा बचपन शायद मेरे फादर के जाने के साथ ही खो गया...(पापा नहीं बोलना आता मुझे...)...और बाकी दिल्ली की सड़कों ने छीन लिया....
ReplyDeleteइतनी निराशा?
ReplyDeleteऐसा लगा एक एक शब्द एक अलग कहानी बयान कर रहा है.. उलझी हुई मगर सुलझी हुई बात कह गयी इस बार..
ReplyDeleteपता नहीं उदासी का सबब ..पर लफ्ज़ कभी कभी कभी उदासी को अपने आगोश में ले लेते है ..बस उन्हें पुकारना पड़ता है .उनकी छांह के नीचे बैठना ...एक नज़्म भेज रहा हूँ गुलज़ार की......
ReplyDeleteतारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियाँ
मैंने कैनवास में बिख़ेरी थीं मगर
क्या करूँ लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!
मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूँ
और उस गिरजे की ख़िदमत में गुजारूँ
मैं शबोरोज जहाँ-
रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफ़र!
उनको माद्दे की हक़ीकत तो नज़र आती नहीं
मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तख़य्युल है
ये सब वाहमा हैं!
मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफ़सील तो देखो
मेरी तख़लीक ख़ुदाबंद के उस पेड़ से
कुछ कम तो नहीं है!
उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था,
और नुमायाँ भी हुआ
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर ज़र्द हुआ
उस मुसव्विर ने कहीं दख़ल दिया था,
जो हुआ, सो हुआ-
मैंने हर शाख़ पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,
उस हक़ीकत को बयाँ करने में
जो हुस्ने हक़ीकत है असल में
उन दरख़्तों का ये संभला हुआ क़द तो देखो
कैसे ख़ुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मग़रूर नहीं
इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूँ!
देखो तांबे की तरह कैसे दहकते हैं ख़िजां के पत्ते,
कोयला खदानों में झौंके हुए मज़दूरों की शक्लें
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं
आलुओं पर जो गुज़र करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!
मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी
अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-
रोलां वह चिट्ठीरसां
और वो स्कूल में पढ़ता लड़का
ज़र्द खातून पड़ोसन थी मेरी-
फ़ानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें
कैनवास पे तवारीख़ की उम्रें दी हैं!
सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने
मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-
उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कानों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख़-पुकार
कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!
मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमाँ उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!
मैं यहाँ रेमी में हूं
सेंटरेमी के दवाख़ाने में थोड़ी-सी
मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूँ!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-
मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!
एक उदास मन की व्यथा या एक लेखक की कल्पना या वास्तविकता किन्तु जो भी सत्य है , कभी कभी ऐसे ख्याल हर जेहन में आते है .
ReplyDeleteखून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...
शब्द कभी मरहम होते हैं, कभी जख्म...तो कभी श्रोता भी।..........
ReplyDeleteखून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...
उदासी को बहुत सुंदर तरीके से अभिव्यक्त किया है। बहुत बढ़िया............और क्या कहूं शब्द ही नहीं मिल रहे।
वो लिखना चाहती है नशे के बारे में...पर उसने कभी शराब नहीं पी, वो चाहती है उस हद तक बहके जब उसे मालूम न हो की वो कितना रो रही है...शायद लोग ध्यान न दें क्योंकि नशे में होने का बहाना हो उसके पास। पर उसे कभी ऐसा करने की हिम्मत नहीं होती।
ReplyDeleteवो लिखती है क्योंकि जिन्दा है...और वो जिन्दा है क्योंकि तुम हो।
खून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...
bas man me ye sab doharaane ka man hai...aur kuchh kahane ka man nahi.
बेहद सुंदर ... पता नहीं कितनो की आवाज़ बनी हो यहाँ...
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