18 February, 2009
जिंदगी का तिमिरपाश
खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुस्काने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
-दुष्यंत कुमार
कल मन बहुत व्यथित था...रात के दस बज रहे थे पर मन के शांत होने का कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था। मैं अपनी बाईक लेकर चल पड़ी...फ़िर से सड़कों पर निरुद्देश्य घूमने। थोड़ा डर भी लगा...आजकल बंगलोर का माहौल अच्छा नहीं है, हमेशा किसी न किसी मर्डर की ख़बर आती रहती है। पर लगा कि दम घुट जायेगा अगर थोडी देर और घर पर रुकी।
सड़कें बिल्कुल सुनसान...यहाँ लोग जल्दी सो जाते हैं साढ़े नौ बजते बजते दुकानें बंद हो जाती हैं फ़िर मुख्य सड़कों पर भले लोग नज़र आ जाएँ कालोनी की सड़कें बिल्कुल खाली। पार्क के इर्द गिर्द कुछ लोग शायद पोस्ट डिनर वाक् कर रहे थे...मुझे मालूम नहीं था कौन सी सड़क लूँ, तेज़ी से चलूँ या ठहरूं थोडी देर। किन्ही सीढियों पर बैठ जाऊं।
पर मैं रुकी नहीं...आज बहुत तेज चलाने का मन नहीं था, न धीरे तो लगभग ५० पर चला रही थी। रात के सुनसान अंधेरे में उतना भी काफ़ी होता है...ठंढ से आंखों में हल्का पानी आ रहा था। चलने के थोडी देर पहले ही नहाई थी, बाल गीले ही थे थोड़े थोड़े शायद इसलिए भी ठंढ लग रही थी। उसपर जैकेट भी नहीं डाली जो मैं अक्सर ठंढ और सुरक्षा दोनों के कारण पहनती हूँ।
कुछ कुछ असुरक्षित महसूस किया ख़ुद को मैंने, किसी को बता के भी तो नहीं आई थी कि कहाँ जा रही हूँ...और मुझे ख़ुद भी कहाँ पता था कि किधर जाउंगी। शायद इसी तरह महसूस करना चाहती थी ख़ुद को...थोडी देर में हवा जैसे काट डालने वाली ठंढी हो गई, गाड़ी की रफ़्तार भी खतरनाक ढंग से बढती जा रही थी, और मैंने स्पीडोमीटर की तरफ़ भी नहीं देखा, जो मैं अमूमन करती हूँ ताकि कहीं ज्यादा तेज़ न चलाऊँ...पर आज जाने क्या देखने का मन कर रहा था...
शायद डर को प्रत्यक्ष देख कर ही उससे दूर जाया जा सकता है। जिंदगी के कुछ हादसों से आगे जाने के लिए उन हादसों को एक बार फ़िर जीना पड़ता है। मृत्यु एक ऐसा तथ्य है जिसे करीब से छूने पर एक सर्द अहसास जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता है। जलती हुयी चिता की लपटें भी उस सर्द अहसास को पिघला नहीं सकती हैं...भले बाहर से जला दें।
ये कौन सा तांडव मेरी आंखों में नाच रहा था मुझे मालूम नहीं...मैं किसे छूना चाहती थी मुझे मालूम नहीं था...मैंने चश्मा उतार दिया...आँखों में -२ पॉवर होने के कारण मुझे धुंधला दीखता है...और मैं बिना चश्मे के गाड़ी कभी नहीं चलाती हूँ पर जाने क्या हो रहा था मुझे। विशाल हवा में झूमते पेड़, रौशनी बिखेरते स्ट्रीट लैंप, काली स्याह सड़क...मैं क्या मृत्यु का पीछा करने ही निकल पड़ी थी?
एक विचारशून्यता घेर रही थी मुझे...सामने की चीज़ें दिख नहीं रही थी, ठंढ के कारण कुछ महसूस नहीं हो रहा था, और सन सन निकलती हवा में कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था...जिंदगी का एक क्षण ऐसा आता है जब शरीर होता है पर आत्मा नहीं...मौत के सबसे करीब यही क्षण होता है। हर अहसास से परे...हर बंधन से अलग...रिश्ते, मोह, दर्द, खुशी, कुछ भी महसूस नहीं होता। एक क्षण जब कुछ भी होना नहीं होता है...जब सब ख़त्म हो जाता है।
मैं इस क्षण को छू चुकी थी...अचानक से ठंढ महसूस हुयी और लगा कि सब धुंधला क्यों है...चश्मा पहना और स्पीडोमीटर पर नज़र दौडाई...सब कुछ जैसे स्थिर हो गया था वक़्त रुक गया था...और मैं कहीं स्पेस टाइम लाइन पर फ्रीज़ हो गई थी।
इससे आगे जाना सम्भव नहीं था...मैं लौट आई।
17 February, 2009
अजनबी शख्स
वो शख्स जो अब अजनबी है
जाने कब हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गया
और हम हर मोड़ पर पशोपेश में पड़ जाते हैं
किधर जायें...जाने किधर का रुख किया होगा उसने
वो शख्स अब भी अनजाने चेहरों से झाँकता है
कई बार भीड़ में लगा है कि वोही है
और हम तेज़ी से चल कर उसे करीब से देखना चाहते हैं
मगर वो तो जैसे जिंदगी की तरह...भागता जाता है
किसी रोज मिलेगा तो पूछूंगी उससे
थकते नहीं हो? यूँ भागते भागते
भला मंजिल से भी यूँ पीछा छुड़ाता है कोई!
16 February, 2009
बंगलोर एयर शो
ये देखने के बाद लगा की अब वापस होना चाहिए...साढ़े चार बज चुके थे, थोडी देर में ट्रैफिक में फंस जाते...तो हम वहां से चल दिए...हमने पैराजम्पिंग मिस किया...पर खैर कुछ अगली बार के लिए भी सही.
ड्राईवर अभी भी नहीं आया था...और आख़िर में वो गाड़ी लेकर नहीं ही आया...हमें फ़िर से लगभग आधा किलोमीटर पैदल चल कर पार्किंग में जाना पड़ा. और फ़िर हम वापस आ गए...सबसे ज्यादा गुस्सा तो तब आया जब हमने देखा कि कुल दूरी ७४ किलोमीटर है...इंदिरानगर से येल्लाहंका कि दूरी बीस किलोमीटर है...ये किसी भी तरह से ७४ किलोमीटर नहीं हो सकता था आना जाना. हमें पूरा यकीं था कि जब हम वहां उतर गए थे, वो किसी और सवारी को लेकर गया होगा इसलिए बार बार बुलाने पर भी आने को तैयार नहीं था. पर हम कर भी क्या सकते थे...हमने शुरुआत में तो मीटर देखा था पर वहां पहुँच कर नहीं देखा था...हमने सोचा ही नहीं कि कोई ऐसा भी कर सकता है...लगभग १००० रुपये देने पड़े...अब से उस टैक्सी वाले से कभी नहीं लेंगे यही सोचकर वापस घर आये.
15 February, 2009
हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू

और अक्सर जाने अनजाने चाय की चुस्कियों में
तुम कह देते हो कि तुम्हें मुझसे कितना प्यार है...
प्यार बस कहने भर को तो नहीं होता...
वो भी तो प्यार है जब जली हुयी सब्जी चुप चाप खा लेते हो
या कपड़े इस्तरी नहीं होने पर ऑफिस जाने की जल्दी नहीं मचाते
या मोजे खो जाने पर मेरे साथ मिल कर ढूंढ लेते हो...
वो भी तो प्यार है न...
मेरी कोई फ़िल्म आ रही होती है तो ख़ुद से मैगी बना लेते हो
भूत वाली फिल्मों के बाद कुछ हलकी फुलकी बातें करते हो
मेरे साथ कभी कभी बाईक पर पीछे भी बैठ लेते हो...
मुझे नींद आती रहे तो कभी नहीं उठाते हो
रात के teen बजे मेरी कवितायेँ सुनते हो
मेरी पसंद के कपड़े पहनते हो...
हर दिन के कुछ नन्हे नन्हे लम्हों में
हम मिल कर वैलेंटाइन मनाते हैं
फगुआ की मीठी मस्ती सी तुम
और होली के रंगों रंगों सी मैं
फ़िर भी अच्छा लगता है...
जब तुम बिना याद दिलाये
एक लाल गुलाब और क्यूट टेडी लाते हो...
I am still a hopeless romantic...euphoric to get a teddy and a rose :)
14 February, 2009
वैलेंटाइन
वो कौन सी मेमोरी डिस्क है
जिसमें रिकॉर्ड हो जाता है
एक ही बार कहने के बाद
कि घर में किसे कौन सी सब्जी पसंद है
कौन भिन्डी या तोरई बनने पर
एक ही रोटी में उठ जाता है
किसे पसंद हैं काढे हुए रूमाल
या अपनी चोटी उससे गुन्थ्वाना
कलफ लगी साडियां
चौराहे वाले समोसे
उसे सब पता है
वो पत्नी है, माँ है, बेटी है, बहन है, बहू है
हाँ शायद उसे वैलेंटाइन का मतलब नहीं पता
पर क्या सिर्फ़ न कहने भर से प्यार होता नहीं?
13 February, 2009
एक खुशी का दिन :)
आज बहुत दिन बाद सुबह सुबह अखबार देखकर मन खुश हो गया...सारी खबरें अच्छी...ये कहीं वैलेंटाइन के पहले का गिफ्ट तो नहीं है?
एक तरफ़ पकिस्तान ने ये मान लिया कि मुंबई हमले कि सारी पृष्ठभूमि पकिस्तान कि सरजमी पर तैयार की गई थी। दूसरी तरफ़ कोर्ट ने निठारी मामले में पंधेर और कोली दोनों को अपराधी माना है...और सेने ने बंगलोर से अपना हाथ खींच लिया।
ये तीनो खबरें हमारी डेमोक्रेसी की जीत हैं...एक तरफ़ हम पाते हैं कि विश्व समुदाय के दिन ब दिन बढ़ते दबाव और ओबामा के कथन तथा भारत के दिए सुबूतों ने पकिस्तान को मजबूर कर दिया सच्चाई कुबूल करने के लिए। ये हमारी लोकतान्त्रिक जीत है...क्योंकि ऐसे माहौल में जंग या कोई भी ऐसा कदम हमारे लिए सही नहीं होता।
निठारी मामले ने रूह कंप थी थी, उसके बाद सीबीअई की नाकामी से एक तरह से उम्मीद टूट गई थी, लगा ही नहीं था इन कभी उन मृत बच्चों को इन्साफ भी मिलेगा। इतना जघन्य काम करने के बावजूद अगर मुजरिम छूट जाते तो न्यायिक व्यवस्था से विश्वास ही उठ जाता...justice delayed is justice denied.
और ये तीसरा कारन तो मुझे सबसे ज्यादा खुश कर रहा है...आख़िर श्री राम सेने ने बंगलोर में अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया है...अब ये पिंक चड्डी का असर था या फ़िर एक और चुनावी हथकंडा ये मालूम नहीं। उन्होंने अपने बयां में कहा है की उन्हीं डर है की बाकी असामाजिक तत्व लोगो को पीटेंगे और राम सेने का नाम बदनाम होगा। पर वो बाकी जगहों पर अपने अजेंडा को फोलो करेंगे...बंगलोर में मुतालिक और उनकी मोरल पोलिसिंग का जोर शोर सेना विरोध हो रहा था...और सब शांतिपूर्ण तरीके सेना, कहीं मानव श्रृंखला बना कर, तो कहीं उन्हें वैलेंटाइन डे पर ग्रीटिंग वार्ड भेज कर...और पिंक चड्डी के बारे में तो कहना ही क्या।
मैं इसे अपनी और अपने जैसी हजारों और लड़कियों की जीत के रूप में देखती हूँ...किसी को भी ये अधिकार नहीं की हमें बताये की हमारी संकृति क्या है और वो भी बलपूर्वक।
मैं एक ऐसी लड़की हूँ जिसे पता है की मेरी जड़ें कहाँ हैं...अपनी संस्कृति का सम्मान करना हम बखूबी जानते हैं, पर इसके लिए कोई और आके हमारे अधिकारों का हनन नहीं कर सकता है।
तो आज बहुत बहुत दिनों बाद मैं सुबह सुबह अखबार देख कर अपने देश में रहने के लिए गौरवान्वित महसूस करती हूँ। इस दिन को इतना खूबसूरत बनाने के लिए बहुतों ने कार्य किया है...उन सबका हार्दिक धन्यवाद।
12 February, 2009
बागी हुयी लड़की...
तोड़कर रिश्ते पुरानी व्यस्त राहों से
चल रही बचकर जमाने की निगाहों से
जिंदगी है आजकल भागी हुयी लड़की...
छोड़कर अपनी पुरानी रूढियों के घर
आस्था, अनुशाषणों के बांधकर बिस्तर
फ़िर बढ़ा नाखून लंबे खोल कर निज केश
आ गई जो ख़ुद बगावत की नदी के देश
जिंदगी है आजकल बागी हुयी लड़की...
आज है जिस ठांव उसका नाम है जंगल
रह गए जिसके तिमिर में दस्युओं के दल
क्रूर भूखे भेड़ियों के चीखते स्वर से
चोर डाकू और लुटेरों के बढे डर से
जिंदगी है रात भर जागी हुयी लड़की...
एक दिन पूछा अचानक जबकि मैंने नाम
बहुत धीरे से बताया जिंदगी ने "शाम"
कर लिए हैं दांत तब से मौत ने पैने
और तब से नाम उस का रख दिया मैंने
वक्त की बन्दूक से दागी हुयी लड़की...
ये कविता बहुत बचपन में पढ़ी थी...और जाने इसमें कैसा आकर्षण है...कई बार पढ़ती थी...कुछ अपनी सी लगती थी ये लड़की, ये जिंदगी...ये बागी शब्द, शायद उस उम्र का असर हो। पर अब भी ये कविता अच्छी लगती है...सोचा आपसे भी बाँट लूँ, शायद आपमें से किन्ही को इसके लेखक का नाम पता हो.
परेशानियाँ
मुझे कोहरा बड़ा अच्छा लगता है, वो भी साल के इस वक्त जब हलकी ठंढ हो और हवाएं चल रही हों, सड़कों पर सूखे पत्तों का ढेर लगा हो...और स्ट्रीट लैंप अपनी पीली रौशनी से भिगो रहे हों...उसपर अभी हाल में पूर्णिमा थी तो चाँद शाम को बड़ा खूबसूरत लग रहा था...वही आधे से थोड़ा बड़ा...थोड़ा नारंगी पीला रंग का, पेड़ों के पीछे लुका छिपी खेलता हुआ। हमने सोचा घर जाने के पहले एक दो चक्कर लगा लेते हैं, थोडी देर पार्क में बैठेंगे फ़िर घर जायेंगे...सोच में पहला ही राउंड मारा था की लगा की कोई पीछे हैं बाईक पर, हमने अपनी स्पीड और कम कर ली...की भैय्या जाओ आगे, हमें तो कोई शौक नहीं है तेज़ चलाने का अभी...फ़िर अचानक से ध्यान आया की हम जूस खरीदना भूल गए हैं...और कई बार भूख लगने पर वही आखिरी सहारा होता है...
दुकान की और बढे तो फ़िर से लगा वही गाड़ी पीछे है...हम रुके...जूस ख़रीदा और वापस...सोचा पार्क में बैठेंगे...पर वही बाईक फ़िर से पीछे...मरियल सा कोई लड़का था, एक झापड़ मार देती तो पानी नहीं मांगता...पर लगा खामखा के पंगा लेने का क्या फायदा...दिल में जितनी गालियाँ आती थी सब दे डाली...और खुन्नस में घर आई। उस गधे ने मेरी शाम ख़राब कर दी थी ...मूड उखड गया। दिल्ली में इसी टेंशन के करण कभी गाड़ी नहीं ली थी, वहां पर ऐसा बहुत होता है कि लड़कियों के आगे पीछे लड़के रेस लगा रहे हैं। बंगलोर इस मामले में सेफ है यही सोच कर हाल में ही खरीदी है...पर ऐसे लड़कों का क्या करें...जाने कौन सा भूसा भरा रहता है इनके दिमाग में।
क्या मिल जाता है किसी को परेशान कर के...उसपर मैं कोई बहुत तेज़ गाड़ी भी नहीं चलती हूँ कि रेस लगाने का मन करे...मुहल्ले में तो कभी ४० से ऊपर जाती ही नहीं, नॉर्मली ३० के आसपास ही रहती है। ऐसे कुछ बेवकूफों के कारन सारे लड़कों पर गुस्सा आने लगता है...इसी चक्कर में कल कुणाल से लड़ गई :( उसकी कोई गलती भी नहीं थी.
अब सोच रही हूँ कि फ़िर से दिखेगा तो क्या करुँगी?
11 February, 2009
तुम मुझसे इतने दिन गुस्सा कैसे रह सकती हो?
खैर...नाम के असाधारण होने की कमी अक्सर मेरी आवाज पूरी कर देती है...मुझे मालूम नहीं क्यों, पर अक्सर लोग मेरी आवाज नहीं भूलते...शायद इसलिए क्योंकि लगातार देर तक बिना नाम बताये एकालाप कम ही लोग करते होंगे :) और लगभग इतनी देर में मुझे पहचानना कोई मुश्किल बात नहीं है। मुझसे वो खैरियत पूछने वाली २ मिनट की बातें होती ही नहीं हैं...जब तक आधा घंटा बतिया न लूँ, मन ही नहीं भरता...इसलिए मेरे फ़ोन से बात करने वालों कि संख्या बहुत कम है...खैर इस संख्या में एक नाम उसका भी था...जिससे घंटों बात करते पता ही नहीं चलता था।
वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त हुआ करता था एक ज़माने में...फ़िर कुछ गलतफहमियां आ गई बीच में, और ये दीवार ऐसी खड़ी हुयी कि हममें बातचीत बिल्कुल बंद हो गई...वो कहीं और पढने चला गया, मैं अपने कॉलेज में बिजी हो गई...जिंदगी चलती रही, साल दर साल गुजरते रहे। आख़िर वो दिन भी आ गया जब हमेशा के लिए पटना छोड़ कर दिल्ली आना था। पापा का ट्रान्सफर हो गया था इसलिए ये मालूम था कि अब कभी लौट कर आना शायद सम्भव न हो।
उस वक्त गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं, मुझे मालूम था कि वो भी घर आया होगा. बहुत दिन सोचा उसे फ़ोन करूँ या न करूँ, कई बार ख़ुद को बहलाने की कोशिश भी की कि उसका नम्बर खो गया है...पर उसके फ़ोन नम्बर को कभी लिख के कहाँ रखा था, वो तो ऐसे याद था जैसे उसका नाम...आँख बंद कर के फ़ोन पर उँगलियाँ चला दूँ तो उसके घर लग जायेगा ऐसी आदत थी.
बोरिंग रोड पर अभी भी दोनों तरफ़ के गुलमोहर और अमलतास थे...जाने कितनी बातें रोज याद आ रही थी, जैसे जैसे जाने का दिन करीब आ रहा था...फ़िर लगा कि फ़ोन कर ही लेना चाहिए...खा थोड़े न जायेगा...यही होगा कि एक बार और फ़ोन पटक देगा...मुझे तुमसे बात नहीं करनी...तुम मेरी क्या लगती हो जो तुमसे बात करूँ...मैं इसके लिए तैयार थी.
फ़ोन लगाया...उस तरफ़ उसका वही खिलखिलाता हुआ चेहरा घूम गया मेरी नज़र में...मैंने बस एक लाइन कही...मैं आज हमेशा के लिए शहर से जा रही हूँ, तुम्हें परेशां करने का मन नहीं था, पर बिना बताये जाने का मन नहीं किया. वैसे तो आई प्रोमिस कि तुम्हें कभी मेल नहीं करुँगी...पर अपनी ईमेल आईडी दोगे? और उसने बड़ी सहजता से अपनी आईडी दे दी. दिल्ली में कई बार सोचा मगर कभी मेल नहीं किया उसको.
दिल इस बात को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था कि अगर मैंने मेल किया और उसने जवाब में झगडा किया तो...सोचती थी कि जाने लोग किसी से ताउम्र जैसे नाराज रह पाते हैं. फ़िर एक दिन उसका नम्बर ढूँढा...और कॉल किया.
उस वक्त थोडी देर बातें हुयी...ऑफिस में हम दोनों बिजी थे...फ़िर रात को फ़ोन आया उसका...शायद तीन चार घंटे बात हुयी होगी हम दोनों की...मैं तो खाना खाना भूल गई...पता नहीं कितने किस्से...कितनी बातें...जब बहुत देर हो गई तो लगा कि अब सोना चाहिए, कल ऑफिस भी तो जाना है.
उस दिन फ़ोन रखने के पहले उसने पूछा..."पूजा एक बात बताओ, तुम जब मेरा ईमेल आईडी ली थी तो कभी मेल क्यों नहीं की? तुमको पता है हम रोज इंतज़ार करते थे...कि आज मेल आएगा...इतने दिन कैसे गुस्सा रह पायी हमसे?"
मेरे पास कोई जवाब नहीं था...आज भी नहीं है...जाने लोग अपनों से कैसे खफा हो जाते हैं...और अक्सर साल गुजर जाते हैं...बस एक पहल के इंतज़ार में...साल साल के जाने कितने दिन, कितने लम्हे.
जाने कोई कैसे खफा हो के रह पाता है किसी से ताउम्र?
10 February, 2009
साहस और पिंक चड्डी
छात्र ने पूरा पेपर खाली छोड़ दिया...आखिरी पन्ने पर लिखा
"इसे कहते हैं साहस
हमारा तो मन किया कि हम भी साहसी हो जाएँ और एक ब्लॉग पोस्ट ब्लैंक कर दें...अगर लोगो ने इस (दु:)साहस की बधाई दी तो सिद्ध हो जायेगा कि उपरोक्त उदहारण सही है...या सत्य घटना है। पर फ़िर आख़िर में हिम्मत नहीं हुयी...या यूँ कहिये कि ये लगा कि अगर कमेन्ट पन्ना भी ऐसा ही कुछ खाली खाली आया तो? वैसे भी आजकल ब्लॉगजगत में रीशेशन की मार पड़ी हुयी है, लगता है सबने लिखना पढ़ना छोड़कर काम में दिल लगा लिया है, बस हम जैसे निठल्ले रोज रोज पोस्ट डाले जा रहे हैं।
अगले हफ्ते से वॉयलिन क्लास ज्वाइन कर रही हूँ। बहुत दिन से सीखने का मन था पर किसी ना किसी कारण हो ही नहीं पाता था, कभी घर के पास कोई स्कूल ही नहीं मिला...कभी तेअचेर हमारे घर के पास आने को तैयार नहीं। वॉयलिन हमेशा से बड़े अचम्भे की चीज रही है मेरे लिए...तो अच्छा लग रहा है कि चलो एक नाम कटा लिस्ट से।
आजकल विषयों की कमी हो गई है...और वैलेंटाइन के पहले लोगो ने इतना हल्ला मचाया कि सारा रोमांस काफूर हो गया...बरहाल मैं तो पिंक चड्डी भेजने वाली हूँ राम सेने के ऑफिस और १४थ को पब भी जाउंगी। आपमें से भी किसी को चड्डी भेजनी है तो लिंक पर क्लिक करें।
मेरे ख्याल से saahas इसे कहते हैं...चुप चाप बैठे रहने के बजाई कुछ करना...कुछ भी।
09 February, 2009
बिदारी तेरी जय हो
तो आज की ये पोस्ट बंगलोर के पुलिस कमिश्नर शंकर बिदारी के लिए...sir, i salute you। जब हर कोई पोलिटिकली करेक्ट होने के लिए भूल जाता है कि सही आचरण क्या है...अपने वोट बैंक पॉलिटिक्स और फूट डालने की राजनीति करने वाले लोग, किसी भी सही ग़लत उपाय के माध्यम से नाम हासिल करते लोग...ऐसे में चाहे पल भर के लिए ही सही किसी को तो याद आया कि भारत का एक संविधान भी है और इसने हमारे अधिकार दिए हैं जिनकी रक्षा करना पुलिस का काम है।
बिदारी ने प्रेस मीट में कहा "the constitution has guaranteed `the right to every individual to observe their cultural norms, speak their language and practice their religion subject to the condition that such observance will not violate any provisions of the law of the land।" मैं अनुवाद इसलिए नहीं कर रही कि किसी चूक से कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाए। ऐसी बातें बहुत दिन बाद सुनने को मिली हैं...हमारे नेता तो भूल ही गए हैं कि उनके व्यवहार के लिए कोई आचार संहिता है, कोई संविधान है।
मैं बिदारी कि कोई प्रशंशक नहीं हूँ, कई बार मेरे मतभेद भी रहे हैं उनके उठाये क़दमों से, पर इस बार मैं उनकी तहे दिल से प्रशंशा करती हूँ...for once, somebody is doing their job...and doing it the way it should be done। एक स्वस्थ समाज में अपने निर्णय लेने कि आजादी बहुत जरूरी है...इससे आपसी सद्भाव और मिल जुल कर रहने की भावना को बल मिलता है। tolerance बहुत जरूरी है...खास तौर पर तेज़ी से बदलते समाज में. अगर हम सिर्फ़ अपना कर्तव्य ठीक से करें तो हम इस समाज को एक बेहतर जगह बनाने की सबसे जरूरी कोशिश कर रहे हैं।
अधिकार के साथ साथ कर्तव्य भी आते हैं, rights and duties go together hand in hand.
अगले शनिवार प्यार को मानाने का दिन है...इस आजादी में थोड़ा प्यार हमारे देश के लिए भी...आख़िर हम स्वतंत्र हैं, निर्भय है, और सबसे जरूरी...जागरूक हैं.
जाने कहाँ ये पंक्तियाँ पढ़ी थी मन पर बड़ा गहरे असर करती हैं.
तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित...चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ.
08 February, 2009
८० किमी/घंटा से भागता चाँद...आपने देखा है?
मैंने देखा है...पर उसके लिए आपको पूरी कहानी सुननी पड़ेगी...वैसे ज्यादा लम्बी नहीं है :) तो किस्सा यूँ शुरू होता है...
अब रात भर अगर जाग के गप्पें करेंगे तो भूख तो लगेगी न? ११ बजे पिज्जा खा चुके थे हम...और वो पच चुका था, घर में चिप्स, बिस्कुट, मैगी, मिक्सचर जैसी जितनी चीज़ें थी, सब खा चुके थे...और भूख थी कि शांत होने का नाम नहीं लेती...तो ऐसे में बेचारा मजबूर क्या करेगा...बंगलोर में कुछ भी रात भर खुला नहीं रहता। कुछ देर तो हम बैठ कर दिल्ली के गुणगान करते रहे...convergys के पराठों के बारे में सोच कर पेट तो भरेगा नहीं न। तो हम दुखी आत्मा लीला पैलेस में फ़ोन किए(घर के सबसे पास में वही था)...कि भइया खाने को कुछ मिलेगा...उनका रेस्तौरांत खुला था...हम खुसी खुशी तैयार हो गए। हाँ जी रात के तीन बज रहे हैं तो क्या...फाइव स्टार में जाना है तैयार तो होएँगे ही।
अब निकलने की बारी आई तो जनाब को वक्त सूझा...रात के तीन बजे तेरे लिए जाना सेफ होगा कि नहीं, मैं जा के ले आता हूँ। और मैं रात के तीन बजे घर में अकेली तो खूब सेफ रहूंगी न...मैं नहीं रुक रही घर में अकेले। खूब झगडे के बाद डिसाइड हुआ कि भूखे मरो...नहीं ले के जायेंगे लीला।
हमारे लिए भूखे रहना प्रॉब्लम नहीं था...प्रॉब्लम थी कि हम तैयार हो गए थे, और एक लड़की जब तैयार हो जाती है और उसे घूमने जाने नहीं मिलता तो उसे बहुत गुस्सा आता है...तो जाहिर है हमें भी आया...तो हमने फरमान सुनाया कि नहीं लीला गए तो क्या हुआ...बाईक से एक राउंड लगाऊँगी चलो...
अब मैं आप लोगो को बताना भूल गई थी कि मैंने kinetic flyte खरीदी, एप्पल ग्रीन कलर में, और इतने दिन में कभी खाली सड़क पर चलने का मौका नहीं मिला था...और न ही उसके १२५ सीसी इंजन को टेस्ट करने का। तो हम घर से निकले...
मैं अपनी नई flyte पर और कुणाल पल्सर १५० सीसी पर, वैसे तो बात बस २५ सीसी की थी :) मैंने बहुत अरसे बाद इतनी खाली सड़कें देखी थी...और फ्लाईट का पिक उप इतना कमाल का था कि बयां नहीं कर सकती...स्टार्ट होते ही यह जा वह जा वाली बात हो गई...कुणाल जाने कितनी दूर रह गया था।
८० की स्पीड पर लगभग १० साल बाद कुछ चलाया था...लगा हवा से बातें कर रही हूँ। बंगलोर का हल्का ठंढ वाला मौसम...सड़क के दोनों ओर बड़े घने पेड़ और ऊपर चाँद...भागता हुआ, आश्चर्य कि ८५ पर भी चाँद मेरे से आगे ही भाग रहा था, टहनियों के ऊपर से तेज़ी में जैसे हम दोनों के अलावा कहीं कुछ है ही नहीं बस स्पीडोमीटर पर हौले हौले बढती सुई। शायद गाड़ी चलाते हुए चाँद को बहुत कम लोगो ने देखा हो...मैं लड़की हूँ शायद इसलिए....या शायद कवि हूँ इसलिए...पर यकीं मानिए वो चाँद मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत चाँद था। और मैंने उसे हरा नहीं सकी...इतना खूबसूरत नारंगी पीलापन लिए हुए उसका रंग...आधे से थोड़ा बड़ा...मुझे तो कोई खाने की मिठाई लग रही थी(जाहिर सी बात है भूख में घर से निकली थी न)।
अच्छा इसलिए भी लगा कि बहुत दिन बाद एक लम्हे के लिए जिंदगी को जिया था...यूँ लगा हम बेहोश पड़े थे और अभी अभी होश में आए हैं. बहुत दिनों बाद लगा कि बिना डरे जीना क्या होता है...thrill नाम की भी कोई चीज़ होती है मैं बिल्कुल भूल गई थी. फ़िर से लगा कि रगों में खून बह नहीं रहा, दौड़ रहा है.
कुछ देर बाद गाड़ी धीमी की...तब तक जनाब भी पहुँच गए थे :) बाप रे क्या मस्त पिक अप है इसका यार और कित्ते पे गाड़ी चला रही थी तू? मैंने कहा ८५ पर...उसका कहना था, गाड़ी की औकात से ज्यादा स्पीड में चला रही थी मैं. खैर मैंने उसे बहुत चिढाया कि एक लड़की से हार गया...वो भी स्कूटी से छि छि :D
मैंने उससे पूछा कि तूने चाँद देखा...कितना खूबसूरत लगता है भागते हुए...और उसने कहाँ कि नहीं, वो गाड़ी चलाते हुए सड़क देखता है. :) तो मैंने सोचा आप लोगो को भी बता दूँ...आपने भी शायद नहीं देखा हो चाँद कभी.
पर यकीं मानिए...८० की स्पीड पर भागता हुआ चाँद जितना खूबसूरत लगता है...खिड़की में अलसाया हुआ चाँद कभी लग ही नहीं सकता, या झील में नहाता हुआ भी नहीं।
आप में से किसी को try करना है तो कीजिये ...फ़िर हम बातें करेंगे :)
PS: गाड़ी की फोटो जल्दी ही लगाउंगी :)
06 February, 2009
लव मैरेज करनी है? बंगलोर आ जाईये
राम सेने जिंदाबाद...हमारी स्वतंत्रता जिंदाबाद
05 February, 2009
गीत का वसंत

04 February, 2009
दोपहर के पलाश

उदास दुपहरें
ठिठके खड़े हुए से पेड़
हौले हौले गिरते पत्ते
जाने क्यों यादों जैसे लगते हैं
जैसे कोई ठौर न हो
यूँ चलती हुयी हवाएं
बिना राग के चहचहाते पंछी
सड़कों पर चुप चाप
मेरे साथ चलती परछाई
कहीं दूर से आता हुआ
गाड़ियों का शोर
कुछ ठहरा नहीं है...
रीत गया है
इस बेजान दोपहर में
धड़कनें गा रही हैं विदाई
धूप चिता की गर्मी सी लग रही है
झुलसाती, तड़पाती...और बेबस
फाग के मौसम में
इस शहर में पलाश नहीं दिखे
शायद मैं बहुत दूर आ गयी हूँ
यहाँ तक वसंत नहीं आता...
और मैंने तुमसे फूल मांग लिए थे
होली का रंग बनाने के लिए
लगता है तुम बहुत दूर चले गए हो
सुनो, फूल ना भी मिले तो
तुम लौट आना...
तुमसे ही मेरा वसंत है