23 October, 2012

स्ट्राबेरी आफ्टरनून्स

Love is temporary madness.
-Louis de Bernieres
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'डेज ऑफ़ बीइंग वाइल्ड'. एक मिनट के लिए ऐसे ही रहना बस...सिर्फ एक मिनट. कहना न होगा कि जब से इस फिल्म को देखा है उस आखिर के लम्हे का इंतज़ार बेतरह बढ़ गया है. क्या नज़र आता है उस आखिरी लम्हे में...क्या वाकई ऐसी छोटी छोटी चीज़ें, छोटे छोटे वादे याद रहते हैं?

तो क्या लगता है...उस एक लम्हे की उम्र कितनी होगी? एक लम्हे...उसका चेहरा भी नहीं था सामने. आँखें देख नहीं सकती थीं मगर उसे छू कर महसूस कर सकती थी. वक़्त को भांग का नशा हो रखा था और वो धीमे गुज़र रहा था. जादू की तरह सारे लोग कहीं गायब हो गए...लम्हे भर को सूरज निकला और बहुत सारी रौशनी कमरे में भर गयी...मैं देख नहीं सकती थी इसलिए धूप दिखी नहीं वरना शायद पार्टिकल्स का डांस देख पाती कि कैसे धूल का एक एक कण मुझे देख कर मुस्कुरा रहा है...आती हुयी धूप हथेलियों में भर गयी और एक पूरे लम्हे की गर्माहट मैंने मुट्ठी में बंद कर ली. इश्वर के तथास्तु कहने के बाद का लम्हा था वो...जिसमें और कुछ भी मांगने की गुंजाईश ही नहीं बचती थी.

कभी कभी कितना जरूरी होता है ये अहसास कि कोई खो भी सकता है. फेसबुक के जमाने में किसी का खो जाना ही ख़त्म हो गया है...किसी से आखिरी बार मिलना. किसी से दूर जाते हुए उस आखिरी नज़र को किताब में बुकमार्क की तरह इस्तेमाल करना. खो जाना कभी कभी अच्छा होता है. खो जाने में उम्मीद होती है कभी तलाश लिए जाने की...कभी अचानक से मिल जाने की. वो दिन अच्छे थे जब बिछड़ना होता था. कीप इन टच एक जुमला नहीं होता था बस. किसी के चले जाने पर दिल में एक जगह खाली हो जाती थी और उसके कभी वापस आने का इंतज़ार करते हुए हम वो जगह हमेशा खाली रखते थे. ट्रेन में छेकी गयी सीट की तरह. कि यहाँ कोई अगले स्टेशन पर आ कर बैठने वाला है. कहने को जगह खाली होती थी पर यादें परमानेंट किरायेदार होती थीं. इस लिए कभी कभी जरूरी हो जाता है कि हम खुद खो जाएँ, ऐसी जगह कहाँ कोई और तलाश न सके.

वो बड़ी मीठी गंध थी. गाँव के लोग जैसी मीठी. अच्छे लोगों जैसी अच्छी. ताज़ी रोटियों की गंध जैसी अतुलनीय...मैं उसकी हथेली की एक लकीर माँगना चाहती थी, मेरे शब्दों के ऊपर की रेखा खींचनी थी...फिलहाल सारे अक्षर अलग अलग थे. उस एक लकीर से जोड़ना चाहती थी. उसकी हथेली में बहुत सी रेखाएं थीं मगर सिर्फ एक कविता कहने के लिए कैसे मैं एक लकीर मांग लेती. इकतारा बजाता एक फकीर गुज़रता है दरवाज़े से...उसकी फैली हुयी झोली में वो मेरे हाथ से एक रेखा मांगता है...मैं उसे अपनी हार्ट लाइन देती हूँ...फकीर उसे अपने झोले में रख लेता है...फिर अचानक से कहता है...उसे हार्ट लाइन नहीं लाइफ लाइन चाहिए थी. वो मेरी लकीर वापस करता है मुझे. मैं उसे कहना चाहती हूँ, ये मेरी हार्ट लाइन नहीं, किसी और की है...मगर मेरी लाइफ लाइन के बदले मुझे वही तुम्हारी एक रेखा मिलती है. उस रेखा को अपने अक्षरों के ऊपर रख कर मैं कविता पूरी करती हूँ. तब तक जिंदगी पूरी हो गयी है...मुझे सिर्फ एक ही कविता लिखने का वक़्त मिला है. मैं हैरान हूँ कि मुझे कोई शिकायत नहीं है.

The aftertaste of strawberry afternoons is you.

मेरी दोपहरों में रंग नहीं हैं इसलिए मुझे खुशबुएँ याद रह जाती है...तुम्हें पता है...इंसान सबसे जल्दी सेन्स ऑफ़ स्मेल एडजस्ट कर लेता है. मुझे तुम्हारे ब्रांड का परफ्यूम चाहिए...तुम जो परफ्यूम लगाते हो उसका ब्रांड नहीं. बताओ...है कोई जो तुम्हारा इत्र एक शीशी में बंद कर मुझे गिफ्ट कर सके. मैं तुम्हें छूने में डरती हूँ...मेरी उँगलियाँ तुम्हारी आँखों की याद दिलाती हैं...उन आँखों की जो मैंने देखी नहीं हैं. कोई गीत गुनगुनाते हुए तुम्हारी आदत है कुर्सी पर आगे पीछे झूलने की...मेरी आँखों पर रौशनी और परछाई के परदे बदलते रहते हैं. तुम्हें नहीं देख पाना एक अजीब किस्म की घबराहट है.

शायद एक दिन मैं फिर से देख पाउंगी...दुनिया शायद तब तक वैसी ही रहेगी. सूरज तब भी गुलाबी रंग का होगा...सड़क किनारे पेड़ों पर गुलाबी पत्ते होंगे...मेरे गाँव में बर्फ पिघल चुकी होगी और स्ट्राबेरी के छोटे पेड़ों पर पके लाल स्ट्राबेरी तोड़ने के लिए मैं एक छोटी डोलची लेकर घर से चलूंगी...तुम किसी सराय में रुके होगे और मैं तुम्हें देख कर पहचान नहीं पाउंगी क्यूंकि मेरी यादों में तुम्हारा कोई चेहरा ही नहीं है.

मैं हर बार भूल जाउंगी कि किसकी तलाश में गाँव के एकलौते बस स्टॉप पर बैठी हूँ...वहीं किसी पैरलल दुनिया में मेरी आँखों की रौशनी सलामत होगी और मैं तुम्हें देखते ही पहचान जाउंगी...तुम गाँव के मुखिया को रीति रिवाज के अनुसार मेरी चुनी हुयी स्ट्राबेरी की डोलची दोगे और बदले में मेरा हाथ मांग लोगे. जब इतना कुछ हो रहा होगा...किसी और पैरलल दुनिया में मैं ऐसा कुछ लिख रही होउंगी.

तो ये कौन सी वाली दुनिया है?

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


17 October, 2012

...and the world comes crashing down

इधर कुछ दिन पहले मेरा लैपटॉप क्रैश कर गया...कोई खबर नहीं...कोई अंदेशा नहीं...कोई भनक नहीं...बस ऐसे ही चलते फिरते...अचानक से क्रैश. ऑफिस की सारी फाइल्स उसमें हैं...पिछले तीन महीने का सारा काम वहीं है...अभी परफोर्मेंस रिव्यू का टाइम है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

दूसरी तकलीफ है कि मैंने फोटोग्राफ्स के बैकअप नहीं लिए थे. हर बार ऐसा होता है कि जब मैं अपने फोटोग्राफ्स मेमोरी कार्ड से लैपटॉप पर ट्रांसफर करती हूँ तो साथ ही हार्ड डिस्क में भी सेव कर लेती हूँ. पुरानी आदत है. इस बार के यूरोप ट्रिप पर हार्ड डिस्क लेकर गयी नहीं थी तो सारे फोटो सिर्फ लैपटॉप में थे. डीएसएलआर मेमोरी भी ज्यादा खाता है उसपर पहली बार अच्छा कैमरा लेकर गयी थी तो बहुत सी फोटो भी खींची थी. छुट्टी से वापस आते ही सीधे ऑफिस...और ऑफिस से फुर्सत मिली नहीं कभी बैकअप करने की. लैपटॉप क्रैश भी कर सकता है ऐसा सोचा ही नहीं था कभी. कुछ स्लो हो गया हो...पुराना हो गया हो या ऐसी कोई और तकलीफ हो तो फिर भी समझ में आता है...चलते फिरते क्रैश. इंसानों की तरह अनप्रेडिक्टेबल हो गए हैं आजकल डिजिटल उपकरण भी.

लैपटॉप की आदत हो गई थी. इधर एक साल में कितना तो म्यूजिक इकठ्ठा किया था. कुछ यूट्यूब से डाउनलोड किया कुछ इधर उधर की सीडीज से कॉपी किया. अभी आई-फोन में सारा म्यूजिक पड़ा है लेकिन जैसे ही उसे किसी लैपटॉप से कनेक्ट करूंगी सारा म्यूजिक इरेज हो जाएगा. एप्पल की ये बंद/क्लोज्ड प्रणाली मुझे नहीं पसंद है...अभी कितना आसान होता अगर बाकी फोन्स की तरह आईफोन भी एक युएसबी ड्राईव की तरह काम करता...मैं सारी म्यूजिक फाइल्स किसी और लैपटॉप पर कॉपी कर सकती थी.

ऑफिस का आधा काम गूगल ड्राइव पर बैकअप में डाल रखा है लेकिन पर्सनल फाइल्स कहीं भी बैकअप नहीं की हैं. लगता है इसी को डिवाइन सिग्नल की तरह लेना चाहिए कि कुछ डेटा हमेशा क्लाउड में बैक अप करके रखना चाहिए. मुझे क्लाउड कभी पसंद नहीं आया...ऑनलाइन जितना कम हो सके चीज़ें डालती हूँ...पहले तो पिकासा पर फोटोज अपलोड कर देती थी मगर अब उसकी भी जरूरत नहीं महसूस होती. ऑफिस से दूसरा लैपटॉप अलोट हो गया है. नया डेल वोस्त्रो. इसका वजन काफी कम है तो ऑफिस से घर इसे लेकर आने जाने में भी तकलीफ नहीं होती है. जब पुराने लैपटॉप का बैकअप आ जाएगा तो ऑफिस की फाइल्स गूगल ड्राइव में शिफ्ट कर दूँगी और रोज रोज ऑफिस लैपटॉप ले कर नहीं जाउंगी. घर का लैपटॉप अलग...ऑफिस का अलग.

आज जितनी फाइल्स रिकवर हो सकती हैं...होकर आ जायेंगी. वायो मैंने काफी तमीज से इस्तेमाल किया था. सारी फाइल्स अच्छे से आर्डर में सेव की थीं. जाने कितना कुछ वापस आएगा कितना कुछ बिट्स और बाइट्स की मेट्रिक्स में हमेशा के लिए खो जाएगा. मुझे कभी लिखे हुए के जाने का अफ़सोस नहीं होता. उसमें बहुत सारे वर्ड ड्राफ्ट्स थे, आधी कहानियां. दो आधी कहानियां मिल कर एक पूरी कहानी नहीं बनाती...दो आधी कहानियां ही रहती हैं. अपने लैपटॉप को काफी मिस कर रही हूँ. मेरी म्यूजिक फाइल्स...मेरी पसंद की फिल्में...तसवीरें.

लिखने का काम इधर कुछ दिनों से कॉपी पर डाल रखा है फिर से. आजकल ग्रीन इंक में थोड़ा ब्लैक  मिक्स करके लिख रही हूँ. दो रंग के इंक्स से लिखने में बहुत अच्छा लगता है. पन्ने भरते जा रहे हैं. ऑफिस में एक आध लोगों ने कभी कभार मांग कर मेरे पेन से लिखा है...पेन बहुत अच्छा है. नेहा गोवा गयी थी तो वहां से मेरे लिए एक बेहतरीन नोटबुक लायी थी...डायरी ऑफ अ डायरी...बहुत अलग तरह के पन्ने हैं उसमें और ज्यादा जीएसएम पेपर है तो फाउन्टेन पेन से लिखा हुआ दूसरी ओर नहीं दीखता. आइवरी पन्ने पर किसी भी रंग की इंक अच्छी लगती है. ऑफिस में टीम के अधिकतर लोग अपनी पेन को लेकर सेंटी हैं. मेरा और जोर्ज का एक ही पेन है...लैमी...हाँ उसका काले रंग का है और मेरे पास सफ़ेद, हरा और पर्पल कलर का है. कल घर की सफाई में कुछ इरेजर मिले...अब सोच रही हूँ थोड़ा सा पेन्सिल से लिखूं...सिर्फ इरेजर से मिटाने के सुख के लिए.

लगता है इस साल में जितना लिखना था आलरेडी लिख चुकी हूँ. अब कुछ खास लिखने का मन नहीं करता. नॉर्मली साल का ये समय ऐसे ही ब्लैंक जाता है...फिर नवम्बर आते आते जैसे जैसे शाखों से पत्ते गिरेंगे और सड़क पर कतार में बिछेंगे मुझे भी कागज़ की पैरलल लाइनें याद आएँगी और लिखने का मन करेगा.

फिलहाल बहुत सा अलग अलग संगीत सुन रही हूँ...कर्टसी तृश. बात कुछ ऐसे होती है...पूजा हैव यू हर्ड दिस सोंग....और सुने बिना जवाब होता है...नो तृश आई हैव हर्ड वैरी फ्यू इंग्लिश सोंग्स...प्ले इट प्लीज. अंग्रेजी संगीत सुनते हुए सोनिया को मिर्ज़ा ग़ालिब सुना रही थी...

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 

यूट्यूब के अलावा विमेयो, एटट्रैक्स और ऐसा ही बहुत कुछ और सुन रही हूँ...अपने एक्सपेरिमेंट. विएना में ओपेरा सुनने के बाद कुछ क्लासिक वेस्टर्न म्यूजिक भी सुनना शुरू किया है. शोपें...मोजार्ट...खैर बहुत ज्यादा नहीं सुना है इसलिए नाम नहीं लूंगी. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं. क्लासिक. उनपर लिखने का मन नहीं कर रहा...जैसे मन के तल में वो कहीं सिंक हो रही हैं तो मैं उनको वक़्त दे रही हूँ.

कभी कभी बहुत शोर होता है...कभी कभी बहुत सन्नाटा. शांति कहीं नहीं है. मन अशांत है. कुछ दिन में पोंडिचेरी जाने का प्लान है. वहां समंदर किनारे बहुत अच्छा लगता है. उम्मीदें हैं. जिंदगी है. आज बस ऐसे ही कुछ लिख जाने का मन किया...खास नहीं.
कहीं किसी पैरलल दुनिया में सब अच्छा होगा. अपनी जगह पर होगा.


12 October, 2012

गुजारिशें...


चलो,
हथेलियों से उगायेंगे बारिशें 
किसी शहर में 
जहाँ होंगी गलियां
खुरदुरी चट्टानों से बनी हुयीं 

सुनो,
चौराहे पर आती है 
अनगिन वाद्ययंत्रों की आवाज़ 
बहती हवा के साथ बह कर 
संतूर की धुन चुनते हैं 
बारिश के बैकड्रॉप में 

देखो,
नदी पर पाल वाली नावों को
नक़्शे में ढूंढो हमारा घर 
गुलाबी हाइलाईटर से मार्क करो 
दिल से दिमाग के रास्ते को
भटक जाती हूँ कितनी बार 

लिखो,
एक ख़त मुझे 
ऐसी भाषा में जो मुझे नहीं आती 
समझाओ एक एक शब्द का अर्थ 
पन्ने पर करना वाटरमार्क 
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर 

रचो,
एक दुनिया 
कि जिसमें मेरी पसंद के सारे लोग हों
ढूंढ के लाओ खोये हुए किस्से 
टहकते ज़ख्म, अधूरी कवितायें
सीले कागज़ और टूटी निब वाले पेन 

जियो 
इस लम्हे को मेरे साथ
कि छोटी है उम्र की रेखा 
ह्रदय रेखा से 
जैसे प्यार होता है बड़ा
जिंदगी और मौत से

10 October, 2012

चाबी वाली लड़की

खुदा ने इन्द्रधनुष में डुबायी अपनी उँगलियाँ और उसके गालों पर एक छोटा सा गड्ढा बना दिया... और वो मुस्कुराने के पहले रोने के लिए अभिशप्त हो गयी. 
किसी गाँव में चूल्हे से उठती होगी लकड़ियों की गंध. कहीं कोई लड़की पहली बार बैठी होगी बैलगाड़ी पर. किसी दादी ने बच्चे की करधनी में लगाए होंगे चांदी के चार घुँघरू...किसी लड़की ने पहली बार कलाई में पहनी होंगी हरे कांच की चूड़ियाँ. कवि ने पेन्सिल को दबाया होगा दांतों में. टीचर ने चाक फ़ेंक कर मारा होगा क्लास की सबसे बातूनी लड़की को. 

कहीं कोई विवाहिता कड़ाही में छोड़ती है बैगन के बचके. कहीं एक बहन बचाती है अपने भाई को माँ की डांट से. कोई उड़ाता है धूप में सूखते गेहूं के ऊपर से गौरैय्या. कहीं माँ रोटी में गुड़ लपेट कर देती है तुतरू खाने को. कुएं में तैरना सीखता है एक चाँद. पीपल के पेड़ पर घर बनाता है एक कोमल दिल वाला भूत. शिवाले में प्रसाद में मिलते हैं पांच बताशे. हनुमान जी की ध्वजा बताती है बारिश का पता. चन्दन घिसने का पत्थर कुटाई वाली की छैनी से कुटाता है. रात को कोई बजाता है मंदिर की सबसे ऊंची वाली घंटी. 

दुनिया का बहुत सा कारोबार बेखटके चलता रहता है. एक लड़की बैठी होती है गंगा किनारे...नदी उफान पर है और इंच इंच करके खतरे के निशान को छूने की जिद में लड़की से कहीं और चले जाने की मिन्नत करती है. 

विजयादशमी के लिए रावण का पुतला तैयार करने वाले कारगर की बेटी बैठी है पटाखों के पिरामिड पर. माचिस के डब्बों से बनाती है मीनारें. 

कहीं एक परफेक्ट दुनिया मौजूद है...शायद आईने के उस पार.

पोसम्पा भाई पोसम्पा...लाल किले में कितने सिपाही? कतार लगा कर सारे बच्चे जल्दी जल्दी भागते हैं. आखिर गीत ख़त्म होने तक एक बच्चा दो जोड़ी हाथों में कैद हो जाता है और किले का एक पहरेदार बदल दिया जाता है. 

कोई बताता नहीं कि खट्टी इमली क्यों नहीं खानी चाहिए या फिर जो चटख गुलाबी रंग का लस्सा लपेटे आदमी आता है उसकी मिठाई खराब क्यूँ है. सवालों के चैप्टर के अंत में जवाब लिखने के लिए जगह नहीं है. एक लड़की टीचर से पूछती है कि दुनिया में सारे लोग क्या सिर्फ नीली और लाल इंक से लिखते हैं. लड़की को हरा रंग पसंद है. टिकोले की कच्ची फांक सा हरा।
धान की रोपनी में लगे किसान और जौन मजदूर एक लय में काम करते हैं. घर आया मजदूर मुझसे मुट्ठी भर गमकौउआ चूड़ा मांगता है. मैं फ्राक के खजाने से उसे एक मुट्ठी चूड़ा देती हूँ. उसकी फैली हथेली में मेरी छोटी सी मुट्ठी से गिरा चूड़ा बुहत कम लगता है लेकिन वो सौंफ की तरह उसे फांक कर एक लोटा पानी गटक जाता है. 
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एक दुनिया है जिसमें लड़की खो जाती है जंगल में तो उस जंगल में खिल आते हैं असंख्य अमलतास...जंगल से बाहर आती है तो शुरू होते हैं सूरजमुखी के खेत...सूरजमुखी के खेतों से जाती है एक अनंत सड़क जिसके दोनों ओर हैं सफ़ेद यूकेलिप्टस...उस रास्ते में आता है सतरंगी तितलियों का घोसला...वहां के झींगुरों ने बनाए हैं नए गीत...वहां बारिश से आती है दालचीनी की हलकी खुशबू...दुआओं के ख़त पर लगती है रिसीव्ड की मुहर...एक तीखे मोड़ पर है एक कलमकार की दूकान जो बेचता है गुलाबी रंग की स्याही...उसी दुनिया में होती है छह महीने की रात...मगर वहीं दीखता है औरोरा बोरेआलिस...उसी दुनिया में रुक गयी है मेरे हाथ की घड़ी. उस दुनिया में कोई नहीं लिखता है कहानियां कि कहानियों से चले आते हैं खतरनाक किस्म के लोग और पैन्डोरा के बक्से की तरह वापस जाने को तैयार नहीं होते.

दुनिया में ताली के लिए ताला होता है...लड़की की उँगलियों में उग आते हैं खांचे और उसकी आँखों में उग आता है ताला..लड़की अपनी हथेलियाँ रखती है आँखों पर और अपनी पलकों को लौक कर देती है. 

07 October, 2012

बोस के हेडफोन्स...न ना...मेरे हेडफोन्स :) :)


बारिशें आजकल मूडी हो गयी हैं बैंगलोर में...मेरा असर पड़ा है मौसम पर लगता है. आज सुबह सूरज गायब है...कोहरे कोहरे वाली दिल्ली सा मौसम लग रहा है. ठंढ बिलकुल वैसी ही है...खिड़की खुली है और हलकी हवा चल रही है. जाड़ों के आने की पहली आहट है.

लिखने-पढ़ने के बाद जो चीज़ मुझे सबसे अच्छी लगती है वो है म्यूजिक...कुछ अच्छा सुनना...अपनी पसंद का. कुछ दिन पहले कुणाल ने मेरे लिए बोस के हेडफोन खरीद दिए. अभी से कोई तीन साल पहले नए हेडफोन्स खरीदने का मन हुआ था तो ऐसे ही बोस के शोरूम चले गए थे हम...सोचा था कितना महंगा होगा...पाँच हज़ार टाइप भी होगा तो खरीद लेंगे. जब बात संगीत की आती है तो बोस सबसे अच्छा है. वहाँ हेडफोन की कीमतें देखीं तो हँसी आ गयी. दो मॉडल थे...एक सत्रह हज़ार का और एक बाईस हज़ार का. हम डिस्कस करते हुए निकले कि ये लोग पागल हैं क्या, कौन खरीदेगा सत्रह हज़ार का हेडफोन. ऐसा क्या कर देंगे हेडफोन में कि सत्रह हज़ार लगायेगा कोई. चुपचाप सेनहैजर का दो हज़ार वाला नोर्मल हेडफोन ख़रीदे और अभी तक वही इस्तेमाल कर रहे थे. 

फुल-टाइम ऑफिस मेरे जैसे लोगों के बस का नहीं है ऐसा डिसाइड कर चुके थे. फ्रीलांसिंग में अच्छे प्रोजेक्ट्स आ रहे थे. एक किताब लिखनी खत्म की थी कि एक अच्छे साड़ी के ब्रांड के लिए फिर से कॉफी टेबल बुक का ओफ्फर पास में था. क्लायंट को मेरा काम पसंद आया था. किताब लिखने में कोई छः महीने टाइप लग जाते हैं लगभग. सब अच्छा चल रहा था कि इस वाले ऑफिस के लिए इंटरव्यू में चले गए. सब अच्छा रहा तो ज्वायन भी कर लिए. अब ऑफिस ज्वायन करते ही जो चीज़ सबसे पहले चाहिए होती है वो है हेडफोन...मुझे काम करते हुए किसी भी तरह का डिस्टर्बेंस पसंद नहीं है. ध्यान भंग होता है तो सोच की लड़ी टूट जाती है फिर वापस उसी जगह जा कर लिखना या सोचना हो नहीं पाता है. 

जहाँ बैठती हूँ पहली बार ऐसा हुआ है कि और भी कंटेंट के लोग हैं. टीम जहाँ बैठती है वो बेसमेंट में है और ऊपर सड़क को खिड़की खुलती है. हम उसे डंजयंस (Dungeons) कहते हैं. मुझे लगता है इस टीम का हिस्सा होने के लिए पागलपन एक जरूरी क्वालिफिकेशन है. हम जोर्ज को पूछते भी हैं कि कंटेंट टीम में लोग लेने के पहले क्या पागलपन मीटर चेक भी होता है. सब एक दूसरे की खिंचाई का एक भी मौका नहीं जाने देते. शब्द तो ऐसे पकड़ते हैं कि कोलेज का जमाना याद आ जाता है. जरा सा जुबान फिसली नहीं कि लपेटे में आ जाते हैं. तो अधिकतर काफी हल्ला-गुल्ला-मस्ती का माहौल रहता है. ऊपर डिजाइन टीम के लोग अगर कभी कभार आ जाते हैं तो घंटे आधे घंटे में ही सर पकड़ लेते हैं. 

मैंने जितने कॉपीराइटर्स या लिखने वाले लोगों को देखा है सब अधिकतर एक ही खाके से निकल कर आये होते हैं. कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर...बेहद आउटगोइंग...बिंदास और बहुत ज्यादा बोलने वाले. अधिकतर एक ऑफिस में एक ही काफी होता है पर यहाँ तो हम चार चार हैं. मैं अभी नयी आई हूँ तो अभी डिजाइन टीम के साथ ज्यादा काम नहीं किया था मगर अभी हाल में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में एक दिन ऊपर बैठना पड़ा. लोग परेशान कि आज तुमको हो क्या गया है...तुम तो ऐसी नहीं थी...और मैं कि नहीं रे बाबा मैं हमेशा से ऐसी ही थी तुम लोग जानते नहीं थे हमको. सब कहते हैं कि जोर्ज के पास सबसे 'हैपनिंग' टीम है. यहाँ पर तृश का म्यूजिक चोईस मुझे अक्सर पसंद आता है...तो जब मेरे पास मेरे अपने सुनने के कुछ खास पसंद के गाने नहीं होते तो तृश से पूछ लेती हूँ...आज क्या सुन रहे हो...और अधिकतर वो कुछ ऐसा सुन रहा होता है जो मैंने पहले कभी  नहीं सुना है. इंग्लिश में मैंने बहुत कम गाने सुने भी हैं तो हमेशा कुछ नया सुनने का स्कोप रहता है. कुछेक और दोस्त हैं मेरे जो मुझे म्यूजिक भेजते रहते हैं...musically on the same page. :)

खैर...इतने शोर में लोचा ये है कि या तो बहुत लाउड म्यूजिक प्ले करना पड़ता था या फिर काम करने में हज़ार दिक्कत होती थी. मैं काम करते हुए अधिकतर इन्स्ट्रुमेन्टल सुनती हूँ...लूप पर या फिर कोई ऐसा गाना जो मैंने इतनी हज़ार बार सुना है कि उसके शब्द वैसे ही बहते हैं जैसे रगों में खून...अब ऐसा कुछ लाउड वोल्यूम में प्ले करना का मन नहीं करता है. फिर लगा कि शायद अच्छे हेडफोन खरीदने होंगे. जिनमें नोइज कैंसिलेशन अच्छा होता हो. हम फिर बोस के शोरूम गए...देखने के लिए कि वाकई हेडफोन अच्छे हैं क्या. यहाँ फोरम मॉल में संडे के लिए मेला लगा रहता है...आधा बैंगलोर शायद वहीं पहुँच जाता है. हमने शोरूम में अटेंडेंट से पूछा कि इसका नोइज कैंसिलेशन कैसा है...उसने कहा कि बता नहीं सकती...आपको अनुभव करना होगा. हम शोव्रूम के बाहर आये...वहाँ दुनिया भर का शोर था. हेडफोन्स ऑन किये और दुनिया का शोर जैसे फेड कर गया...जैसे संगीत के अलावा कहीं और कुछ था ही नहीं. वो एक अद्भुत अनुभव था...एकदम जादू जैसा. वोल्यूम बहुत तेज भी  नहीं था...मीडियम था. मेरे चेहरे पर मेरा आश्चर्य दिख रहा होगा...

बस...मूड तो वहीं बन गया कि हेडफोन्स चाहिए. अब बात थी बैक कैलकुलेशन की.१७ हज़ार के हेडफोन्स...घर पे बताएँगे तो सबसे पिटेंगे कि दिमाग खराब हो गया है. इतना महंगा कोई हेडफोन खरीदता है...इतने में कुछ और कुछ अच्छा खरीद लो. बस कुणाल है कि हमेशा कहता है कि अगर अच्छी चीज़ है तो दाम का मत सोचो. लेकिन हम हैं कि गिल्ट से मरे जा रहे हैं...फिर हाँ ना करते करते...खुद को समझाते. हमको अच्छा म्यूजिक पसंद है...अच्छा म्यूजिक सुनने के लिए अच्छे हेडफोन्स चाहिए...फिर ऑफिस में हल्ला कितना होता है. अच्छा हेडफोन जरूरी है. बोस के नोइज कैंसिलेशन की तकनीक के कारण हल्का सा वैक्यूम सा बनता है...और हेडफोन की फिटिंग भी बहुत सही आती है. 

कोई महीने से ऊपर हुआ बोस के हेडफोन्स इस्तेमाल करते हुए. लगता तो ये है कि अभी तक मैंने जितना कुछ भी ख़रीदा है ये सबसे अच्छी चीज़ खरीदी है. चाहे फिल्म देख रहे हों या कि अपनी पसंद का कोई गाना सुन रहे हों. इन हेडफोन्स से पूरी डिटेल साफ़ सुनाई पड़ती है. अगर म्यूजिक का थोड़ा ज्यादा शौक़ है और अफोर्ड कर सकते हैं तो इन हेडफोन्स से बेहतर कुछ भी नहीं हैं. खास तौर से इन्स्ट्रुमेन्टल...क्लासिक सुनने का मज़ा ही और है. लगता ही नहीं है कि आसपास की दुनिया एक्जिस्ट भी करती है. वोकल सुनती हूँ तो लगता है कोई मेरे लिए ही गा रहा है...खास मेरे लिए...बिलकुल करीब आ कर. संगीत से रोमांस की शुरुआत है...और उफ़...कितना खूबसूरत है ये. 

मुझे नैट किंग कोल काफी पसंद हैं...बीटल्स को भी बहुत सुनती हूँ...आज की सुबह जेरी वेल के नाम रही...कुछ अच्छे लोगों के कारण कुछ बेहद अच्छा संगीत सुना है मैंने. इन अच्छी चीज़ों के लिए शुक्रिया नहीं होता...बार्टर सिस्टम होता है...तुम मुझे संगीत दो...बदले में हम भी तुमको कुछ अच्छा भेजेंगे :) :) 

आप ये सुनिए...Innamorata...Sweetheart in Italian. 

06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
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लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

03 October, 2012

चुप का शोर...


When I look at my shadow
I often wonder
Amongst us,
which one is darker?


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ग्रे...उजले रंग में थोड़ा सा भी काला रंग मिलाने से ग्रे बन जाता है मगर काले रंग को थोड़ा सा भी हल्का करने के लिए उसमें बहुत सारा सफ़ेद रंग मिलाना पड़ता है. किरदार भी ऐसे ही होते हैं. थोड़ा सी सियाही और हीरो एंटी-हीरो में तब्दील हो जाता है मगर विलेन को थोड़ा सा भी अच्छा बनने के लिए अपनी पूरी जीवन शैली ही बदलनी पड़ती है.

कहानी का श्याम पक्ष लिखना मुश्किल है...इसलिए नहीं कि ऐसे किरदार रचने मुश्किल हैं बल्कि अपने अंदर के अँधेरे का डर इतना ज्यादा है कि सूरज पर ग्रहण लग सकता है. लंबे समय तक कोई किरदार साथ रह जाए तो सच और कहानी के बीच का फासला मिटने लगता है. कहानी सिर्फ अच्छे लोगों की नहीं होती। वो तो कहानी का सिर्फ एक हिस्सा होता है...प्रतिनायक, कहानी को उसके नज़रिए से भी देखना होता है. लंबी कहानी लिखना खुदके साथ शतरंज खेलने जैसा है. जब आप पाले बदल कर दुश्मन के खेमे से खेलते हो तब आप खुद के दुश्मन हो जाते हो...तब कई बार ये भी लगता है कि काले सफ़ेद प्यादे कुछ नहीं...जीतने की रणनीति एक जैसी ही होती है. खून उतने ही करने होते हैं...चालें वैसी ही खतरनाक चलनी होती हैं।
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आजकल लाल फूलों के खिलने का मौसम है। मुझे उनका नाम नहीं पता। सड़क के दोनों ओर सूखे हुए पत्तों और धूल के साथ लाल-नारंगी-धूसर फूल भी दिखते हैं। मैं मुराकामी की एक किताब पढ़ रही थी. IQ84. सच और सपने की बारीक रेखा के इस पार उस पार डांस करती हुयी कहानी है. रात को जब साइकिल चलाने निकलती हूँ दुनिया स्लो मोशन में चलने लगती है. पैदल चलते हुए भी ऐसा कभी नहीं लगा था. फेंस-सिटर्स. ऐसे लोग जो निर्णय नहीं ले सकते. आर या पार की बात आती है तो उस फेंस/बाउंडरी/चारदीवारी पर ही घर बना लेते हैं. मैं जब साइकिल पर होती हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी दुनिया और मेरी कहानियों के बीच एक दीवार बनती जा रही है...बहुत लंबी और ऊंची...चीन की दीवार की तरह और मैं कहीं जाना नहीं चाहती...उसी दीवार पर घंटों रहना चाहती हूँ.
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'काला रे सैय्याँ काला रे...काली जबां की काली गारी...काले दिन की काली शामें...'
-गैंग्स ऑफ वासीपुर के गीत से

प्रतिनायक के बारे में लिखते हुए उसके नज़रिए से दुनिया देखती हूँ...लगता है सब सही तो है. वहाँ फिर खून भी माफ होता है, गालियाँ माफ होती हैं, प्यार न कर पाने की क्षमता, विध्वंस करने की उसकी प्रवित्ति...सब सही है क्यूंकि उसकी दुनिया में वो नायक है...प्रतिनायक नहीं...उसके नियमों से वो सही है. नीत्ज़े की कही एक पंक्ति है 'He who fights with monsters might take care lest he thereby become a monster.' अक्षरशः अनुवाद ये होगा कि 'जो दानव से लड़ता है उसे इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वो खुद ही दानव न बन जाए'. प्रतिनायक को लिखते हुए एक दूरी बना के रखनी पड़ती है. कहानी में सबसे महत्वपूर्ण रोल उसका ही होता है. सबसे जरूरी होता है कंट्रास्ट बनाना...जितनी तेज रौशनी होती है, परछाई उतनी ही काली होती है...फीकी रौशनी की परछाई फीकी ही होती है.
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Our deepest fear is not that we are inadequate. Our deepest fear is that we are powerful beyond measure. It is our light, not our darkness that most frightens us.
(Not sure about the sources)
हमें डर अपने अंधेरों से नहीं...अपने उजालों से लगता है...हम अपनी कमजोरियों से नहीं...अपनी अकूत क्षमताओं से डरते हैं. 
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मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं खामोश जहाँ हूँ मुझे वहाँ से पढ़ो 
-निदा फाजली 

इधर कुछ बहुत अलग अलग चीज़ें पढ़ी...विन्सेंट वैन गोग की जीवनी...लस्ट फॉर लाइफ...एक कलाकार के जीवन की छटपटाहट का सबसे बेहतरीन उदहारण मिला है मुझे. किसी से डिस्कस कर रही थी तो उसने कहा कि लस्ट फॉर लाइफ बहुत डार्क है...उदास कर देने वाला. मैंने मुस्कुरा कर कहा...मुझे पता है...मैं भी कुछ कुछ वैसी ही हूँ. मुझे भी सियाह और उदास कर देने वाली चीज़ें पसंद हैं. 

कितना ज्यादा विरोधाभास है जीवन में...मैं जितना बोलती हूँ उतना ही चुप रहती जाती हूँ. बहुत गहरा कुआँ होता है मन...सीली सीढ़ियाँ...अँधेरा...कितनी ही बार उतरती हूँ...कितना भी नीचे उतरती हूँ काई लगी दीवारें उतनी ही डरावनी लगती हैं. जैसे काला गाढ़ा पानी रिस रिस कर भर रहा है. मन की तलछट पर से ऊपर देखती हूँ...किसी बहुत गहरे पथार के कुएं की तरह ऊपर एक गोल खिड़की दिखती है जिससे दिन में भी तारे नज़र आते हैं. आसमान काला होता है...बीच सावन बरसते परदेस में भिगाने वाला काला. 

कोई सवालों का झग्गड़ झुलाता है नीचे...अनगिन प्रश्चिन्हों के हुक...पानी में जवाबी बाल्टियाँ गिरी हुयी हैं. कुएं में लोहे के टकराने की आवाजें होती हैं और गोल दीवारों से टकराती हुयी अजीब धुन पैदा होती है...दिल की धड़कन के जैसी...अनियमित. 
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Interrobang=?! or ?!

शब्दों/संकेतों की दुनिया लाजवाब है. कुछ कुछ चीज़ें पढ़ते हुए पहली बार इन्टेरोबैंग से सामना हुआ था. इंटेरोगेशन मार्क और क्वेस्चन मार्क को मिला कर बना ये चिन्ह बहुत से फोंट्स में पाया जाता है. ये ऐसी मानसिक अवस्था को दर्शाता है जब आप चकित हैं और मन में अनेकों सवाल भी हैं. बहुत दिन बाद मैंने अपना फैवआइकन बदला है. मज़े की बात ये है कि ये चिन्ह अंग्रेजी के P अक्षर जैसा लगता है...तो ब्लॉग के लिए परफेक्ट है. 
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पहेली जिंदगी नहीं होती...हम हो जाते हैं. खुद से मिलते रहना जरूरी है. थोड़ा भाषण देना जरूरी है. बहुत दिन बाद लिखो तो बेहद फालतू चीज़ें लिखती हूँ...मगर बहुत दिन पहले एक दोस्त को कहा था...लिखने से मोह करना...लिखे हुए से नहीं. तो लिखने की आदत को बरकरार रखने के लिए इतना सारा कुछ.
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आँख से सुबुक गिर पड़ता है पांचवां आँसू...पगली नमक से मर जायेंगे चिरामिरा के पौधे. घबराती हूँ, आँचल बारिश में तानती हूँ आसमान पर. रोकती हूँ गाँव पर आने वाले फ्लैश फ्लड को...डूब जाती हूँ...कोई जाल में छांक लेता है लाश को.

कांच का गुलदान उठा कर सामने फेंका है दीवार पर...किरिच किरिच चेहरा गिरा है फर्श पर.

27 September, 2012

अ-तीत

साइकिल एक टाइम मशीन है...पैडल पर पाँव पड़ते हैं तो आसपास का सारा दृश्य भूतकाल में परिवर्तित होने लगता है. जैसे जैसे उसके पहिये घूमते हैं समय का चक्र भी उल्टा घूमने लगता है. साइकिल चलाते हुए अचानक से दुनिया एकदम खामोश पड़ने लगती है और कुछ आवाजें ज्यादा स्पष्ट सुनाई देने लगती हैं. बचपन के नाम याद आने लगते हैं. देर रात साइकिल चलाते हुए हमेशा घर पहुँच कर पड़ने वाली डांट का शुबहा साइकिल कैरियर में बंध जाता है. शहर में हवा तेज़ी से चलती है...लड़की को अपना घर याद आता है जहाँ उसने बचपन में साइकिल सीखी थी. ऐसी ही तीखी ढलान वाली सड़क हुआ करती थी.

लगभग दस साल हो गए हैं जबसे उसने आखिरी बार साइकिल को हाथ लगाया है. नयी साइकिल है, शुरू शुरू में चलाने में दिक्कत हुयी है मगर फिर आदत सी पड़ने लगी है. साइकिल चलाना आप एक बार सीख कर कभी नहीं भूल सकते हैं ऐसा किसी ने कहा था. उसे ठीक ठीक याद नहीं कि साइकिल खरीदने का मन क्यूँ किया...शायद ऑफिस जाने के लिए या फिर ऐसे ही. रोज़ रात का रूटीन सा बन गया है...ऑफिस से घर जाना...कार पार्क करना...ऊपर जा कर लैपटॉप और बाकी सामान रखना. स्पोर्ट्स शूज पहनना और सब्जी लाने के लिए निकलना. सब्जियां फ्रिज में रख कर बोतल में पानी भरना. एक ऊँची पोनीटेल बनाना...डियो स्प्रे करना, घड़ी बदलना. आईने में खुद को देखना. आईने में हर बार कोई १२ साल की लड़की क्यूँ दिखती है?

मोहल्ले में एक तीखी ढलान वाली सड़क है. रिहाइशी इलाका है तो रात को बहुत कम गाड़ियां आती जाती हैं, कभी कभार कोई कार या मोटरसाइकिल गुज़रती है. लोग नौ बजे तक तो टहलते दिख जाते हैं मगर उसके बाद सड़कें सुनसान होने लगती हैं...घरों का शोर भी म्यूट पर चला जाता है. जैसा कि देश के हर मोहल्ले में होता है, कुछ स्ट्रीटलैम्प्स फ्यूज रहते हैं तो उन टुकड़ों पर अँधेरा रहता है. माहौल को अलग अलग तरीके से इंटरप्रेट किया जा सकता है मनोदशा के मुताबिक. कुछ लोगों को डर भी लग सकता है. लेकिन जैसा कि मेरी कहानी के किरदारों के साथ अक्सर होता है...लड़की को डर नहीं लगता है.

कमोबेश हर घर के आगे एक दरबान ऊँघता दिखता है. देर रात कुछ लोग कुत्तों को टहलाते हुए भी दिख जाते हैं. लड़की को कुत्ते कभी पसंद नहीं आते. यही वक्त सड़क के आवारा कुत्तों के जमीनी संघर्ष का भी होता है. वे अपना अपना इलाका निर्धारित करते रहते हैं. ऐसे में अक्सर किसी एक कुत्ते के खदेड़े जाने की गवाह भी  बनना होता है लड़की को. कुछ कुत्ते सड़क पर निर्विकार पड़े रहते हैं...दुनिया से दया की आखिरी उम्मीद उन्हें ही है.

रात की अपनी गंध होती है. अलग अलग फूलों की गंध झोंके के साथ आती है जब वो उन घरों के आसपास से गुज़रती है. इतने दिनों में उसे याद हो आया है कि किस घर के पास से रातरानी की गंध आती है, कहाँ गंधराज खिलता है और कहाँ मालती की उदास गंध उसे छूने को पीछे भागती है. साइकिल के हर चक्कर के साथ खुशबुएं बदलती रहती है...हर बार जब लड़की उन खुशबूदार घरों के आसपास से गुज़रती है तो खुशबू की एक तह उसके ऊपर लगती जाती है...गंध का अपना मनोविज्ञान और रसायनशास्त्र होता है. वो जब घर से चलती है कोई और होती है मगर कोई घंटे डेढ़ घंटे बाद वो कोई और होने लगती है. लड़की का इत्र हवाओं में बिखरने लगता है...वो थोड़ी थोड़ी घुलने लगती है...साइकिल के हर राउंड के साथ.

तीखी ढलान पर उतरते हुए लड़की साइकिल लहराती हुयी चलती है...हैंडिल को तीखे झटके देती है...जैसे साइकिल न चलाती है नृत्य कर रही हो...यक़ीनन गुज़रते हर सेकण्ड के साथ वो रिदम में होती है. साइकिल के हैंडल के दो लेवल हैं...ऊपर का लेवल वो ऐसे थामती है जैसे बॉल डांसिंग करने के लिए अपने पार्टनर के कंधे पर हाथ रखा हो...बेहद हलके. आधी ढलान आते वो दोनों हाथ छोड़ देती है जैसे लड़के ने ट्वर्ल किया हो उसे और वो एक पूरा गोल चक्कर काट कर वापस उसकी बाँहों में आएगी. ढलान की आखिर में एक स्पीडब्रेकर है जहाँ से वो दायें मुड़ती है और जाहिर तौर से मुड़ने के पहले ब्रेक नहीं लगाती है. अगर आपने बॉल डांस देखा है तो जानते होंगे कि उसके एक स्टेप में लड़का अपनी पार्टनर को लगभग जमीन तक झुका कर वापस खींचता है...ये कुछ वैसा ही होता है...मुड़ते हुए वो पैंतालीस डिग्री का कोण बना कर झुकती है...साइकिल का कलेजा मुंह को आता है कि नहीं मालूम नहीं पर सड़क जरूर उसके सरफिरेपन पर परेशान हो जाती है.

चढ़ाई के अंत में दो लैम्पपोस्ट हैं. एक की लाईट किसी उदास दिन बारिश की मार खा कर ऐसे उदास हुयी कि फिर नहीं जली...दूसरे छोर पर उसे मुंह चिढ़ाता सौतेला लैम्पपोस्ट है. लड़की बारी बारी से इन दोनों के नीचे रुकती है. साइकिल के कैरियर से पानी की बोतल को आज़ाद करती है और सांसों को काबू में करती हुयी घूँट घूँट पानी पीती है. पसीने से भीगा उसका चेहरा लैम्प की पीली रौशनी में अजीब खूबसूरत दिखता है. देखने वाले को ऐसा लग सकता है कि लैम्प से हुस्न की बारिश हो रही है, इस लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी कोई भी लड़की सुन्दर लगेगी...मगर ऐसे देर रात तीखी ढलान पर साइकिल चलाने वाली लड़की पहले आये तो सही...फिर वहाँ लैम्पपोस्ट के नीचे रुके तो सही. ऐसे हसीन वाकये जिंदगी में कम होते जा रहे हैं.
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एक खुशनुमा सी रात थी. चाँद का पहला कतरा आसमान में हाजिरी लगा रहा था. लैम्पोस्ट की रौशनी थी...चार लड़के खाना खाने के बाद सिगरेट खरीदने निकले थे. तेरा मेरा करके सिगरेट का स्टॉक खत्म हो गया था, वीकेंड की बची हुयी बियर भी खत्म थी. चलते हुए डिसाइड हुआ कि बियर भी खरीद ली जाए. ऑफिस में साथ काम करती लड़कियों के नाम से एक दूसरे को चिढ़ाते वो बीच सड़क पर चल रहे थे कि घंटी की आवाज़ से  अचानक साइड होना पड़ा. गाली देने के लिए मुंह खोला ही था कि सन्न से वो साइकिल आगे निकल गयी. साइकिल पर एक लड़की थी...टी शर्ट के ऊपर झूलती पोनीटेल और जींस. उम्र का अंदाजा करना मुश्किल था मगर पीछे से अच्छी लगी. चारों की बातों का रुख लड़की की ओर मुड़ गया. पहले कभी तो नहीं दिखी थी इधर...शायद नयी आई है मोहल्ले में. जाने शहर में भी.

जितनी देर में वे टहलते हुए सड़क के मोड़ पर पहुंचे लड़की चार बार राउंड लगा चुकी थी जिसमें तीन बार लैम्प पोस्ट के नीचे रुक कर उसने पानी पिया था. बातों बातों में लड़कों में शर्त लग गयी कि लड़की से बात करके दिखाओ. तीन बार रुकी है, चौथी बार भी रुकेगी ही...जिसने बात कर ली उसके बियर के पैसे बाकी लोग देंगे. फिर लगा कि चारों लड़के अगर उसी मोड़ पर खड़े रहे तो शायद वो रुके न...इसलिए दो लड़कों ने हिम्मत की. ऊपर ऊपर वे दिखा रहे थे जैसे बहुत साधारण सी बात है मगर ऐसे लड़की को टोक कर कुछ बोलने में उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए. हीरो बनकर आगे तो आ गए थे पर लेकिन लड़की अगर एक बार तेज आवाज़ में डांट भी देती तो इज्ज़त में पलीता लग जाना था.
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'एक्सक्यूज मी'
'यस'
'कैन यू टेल अस व्हेयर सेवंथ मेन इज?'
'सेवंथ मेन....अम्म्म्म....'
लड़की ने पानी का पहला ही घूँट लिया था...चढ़ाई में साइकिल चलाने के कारण उसकी सांसें तेज चल रही थीं...गला सूख रहा था...उसने एक घूंट पानी पिया...अपने दायीं ओर दिखाते हुयी बोली....
'सेवंथ मेन इज पैरलल टू दिस रोड.'
उसे संयत होने का वक्त नहीं मिला था, बोलना भी मुश्किल हो रहा था.
'रिलैक्स...रिलैक्स' लड़के को लगा शायद उनके सवाल पूछने से वो हडबड़ा गयी है...
'अपहिल साइक्लिंग' और लड़की ने थोड़ा और पानी पिया.
'हिंदी...इंग्लिश?'
'हिंदी चलेगा'
'कहाँ से हो?'
'बिहार से' लड़की कुछ और जोड़ना चाहती थी जैसे कि इतनी रात गए ऐसे काम बिहारी ही करते हैं या ऐसा कुछ...मगर उसके कहने का टोन अक्खड़ सा था और वैसा ही कुछ कह चुका था.
'यहाँ कैसे आई?'
'उड़ कर' लड़की हँस पड़ी...
'उड़ कर क्यूँ?'
'बिहार बहुत दूर है न...साइकिल से तो आ नहीं सकती थी'
'सेवेंथ मेन इधर से पैरलल वाली सड़क है, दायें से बाएं दिसेंडिंग आर्डर में...ट्वेलफ्थ मेन और इधर सिक्स्थ मेन' लड़की हाथ के इशारे से समझा रही थी.
'यहाँ क्या कर रही हो?'
'तुमने आखिरी बार किसी लड़की से ऐसे टोक कर बात कब की थी?'
'याद नहीं'
'पता है, बिहार में होते तो अभी तक थप्पड़ खा चुके होते, जनता अलग आ जाती पीटने के लिए, सरे राह लड़की छेड़ रहे हो'
'लेकिन बिहार में हैं नहीं न', लड़का थोड़ा सा झेंप गया था.
'तुम्हें डर नहीं लगा?'
'किस चीज़ का डर?'
'भूत होती तो? मम्मी ने बचपन में सिखाया नहीं कि रात-बेरात अकेली लड़की देख कर टोकना नहीं चाहिए'
लड़का एक मिनट चुप...नीचे सर करके सोच रहा है कि जवाब क्या दे...लड़की अपने जूते दिखाते हुए कहती है 'स्पोर्ट्स शूज हैं...पैर उलटे हुए तो पता भी नहीं चलेंगे[बिहार की किम्वदंतियों के हिसाब से चुड़ैल के पैर उलटे होते हैं]
लड़का अब भी सकपकाया हुआ खड़ा था. लड़की ने ही हँसते हुए शुरुआत की...
'घबराओ नहीं, भूत हूँ...चुड़ैल नहीं. खून नहीं पियूंगी तुम्हारा'
इतने में दोनों लड़के एक दूसरे की शक्ल देख रहे थे कि अब चलने का वक्त आ गया कि इससे थोड़ी देर और बात की जा सकती है...लड़की या भूत जो भी थी...उसके पास रहते हुए डर तो एकदम नहीं लग रहा था. अच्छा लग रहा था. जैसे अपनी हमउम्र लड़की से बात करते हुए लगता.
'अच्छा चलो जाने दो, ये बताओ कि इधर क्या कर रहे थे. हम सेवेंथ मेन में खड़े हैं, ऑन सेकण्ड थौट्स तुम लोग ठीक सेवेंथ मेन के बोर्ड से टहलते हुए यहाँ आये हो मुझसे सेवेंथ मेन का पता पूछने. रात के ग्यारह बजे पैदल रास्ता भटके हुए तो लगते नहीं हो, कहाँ जा रहे थे?'
'दूध खत्म हो गया था, चाय पीने निकले थे' सफ़ेद झूठ बोल गया लड़का.
'सिगरेट पीते हो?'
'हाँ'
'दो...'
'अभी नहीं है...दरअसल सिगरेट ही लेने निकले थे, घर पर भी खत्म हो गयी है, बाकी दोस्त पनवाड़ी की दुकान पर इन्तेज़ार कर रहे हैं'
'कितने की शर्त लगायी थी?'
'कैफे कॉफी डे में कॉफी की'
'झूठ अच्छा नहीं बोलते हो...लड़की के सामने तो और भी बुरा'
'हाँ मेरी माँ...बीयर की शर्त लगी थी, तुम तो पीछे ही पड़ गयी'
'रास्ता रोक कर रास्ता पूछो तुम...और पीछे पड़ गयी मैं, कमाल करते हो!'
किसी ने ध्यान नहीं दिया था पर बात करते करते वे चलने लगे थे और अब दूसरा मोड़ सामने खड़ा था...यहाँ से दायें परचून की दूकान थी और बाएं लड़की का नोर्मल रास्ता जिस पर वो शाम से साइकिल चला रही थी.
'अनन्या' लड़की ने हाथ बढाते हुए कहा...
'क्या?'
'अनन्या...मेरा नाम है'
'ओह...अच्छा...मेरा नाम तरुण है और ये मेरा दोस्त है विकास, आगे परचून की दूकान पर दो और नमूने खड़े हैं सुनील और अमित, आज मिलोगी या अगले इंस्टालमेंट में?'
'तुम्हारे घर क्या रोज रोज सिगरेट खतम होती है?'
'अक्सर हो जाती है फिर इधर ही रहते हैं तो कभी न कभी तो मिलोगी ही...उनसे भी आज न कल टकराना ही है...तो आज ही निपटा दें क्या?'
'नहीं रहने दो...आज के लिए तुम काफी हो'
फिर वो उड़नपरी अपनी साइकिल पर उड़नछू हो गयी.
कहना न होगा कि शर्त जीतने की खुशी में उस रात फ्लैट में बीयर की नदियाँ बह रही थीं...तरुण को कंधे पर उठा कर नारे लगाए गए और आखिर में नशे में डूबे बाकी तीनो लड़कों ने कागज़ पर लिख कर क़ुबूल किया कि तू सबमें सबसे बड़ा हीरो है...या ऐसा ही कुछ.
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इसके बाद लगभग रोज का नियम हो गया...रात का खाना खा कर तरुण को रोज बाहर टहलने जाना ही होता था. साथ में कभी विकास तो कभी सुनील या अमित होते और कोई आधा घंटा बतियाते हुए परचून की दूकान तक जाते और वहाँ से फिर अनन्या अपनी साइकिल पर वापस चली जाती. वो तेरी भाभी है जैसे मजाक होने शुरू हो गए थे और तरुण जाने अनजाने थोड़ा अपने कपड़ों पर ध्यान देने लगा था. शाम को घर से बाहर निकलते हुए कोई फोर्मल कपड़े तो नहीं पहन सकता मगर पहले जहाँ कोई भी मुड़ीतुड़ी टीशर्ट चल जाती थी अब कपड़े बकायदा आयरन करके रखे जाने लगे थे. इस छोटी चीज़ के अलावा कोई बड़ा बदलाव आया हो ऐसा नहीं था.

अनन्या के तीन चार शौक़ थे...घूमना, पढ़ना, गप्पें मारना इनमें सबसे जरूरी थे. तरुण और बाकी जो भी उसके हत्थे चढ़ जाता उसके किस्से सुनते चलता. कितनी तो जगहें घूम रखी थीं लड़की ने. एक दिन जाने कैसे बातों बातों में भूतों का किस्सा चल पड़ा...विकास तरुण की खिंचाई कर रहा था कि उसे भूतों से बहुत डर लगता है. कहीं भी अकेले नहीं जाता. अनन्या को रात में अकेले डर कैसे नहीं लगता. उस दिन सबको थोड़ा आश्चर्य हुआ कि अधिकतर अनन्या किसी की खिंचाई करने का कोई मौक़ा नहीं जाने देती थी मगर उस दिन कुछ नहीं बोली. दूसरी बातों की ओर ध्यान भटका दिया सबका.

अब रोज रात को किसी लड़की से बात करोगे तो जाहिर है कि दिन में भी कभी कभार उसका ख्याल आयेगा ही. उसपर अनन्या ऐसी दिलचस्प लड़की थी कि तरुण अक्सर दिन में सोचता रहता कि आज क्या बात करेगा उससे या फिर आज वो कौन सी कहानी सुनाएगी. इसी सिलसिले में एक दिन ऐसे ही गूगल पर अनन्या टाइप कर के खोज रहा था कि फेसबुक या कहीं और वो आती है कि नहीं. अनन्या बहुत ज्यादा कोमन नाम तो था नहीं. तीसरे चौथे पन्ने पर जो तस्वीर अनन्या की थी...टाइम्स ऑफ इण्डिया में खबर रिपोर्टेड थी...रोड एक्सीडेंट केस. क्रिटिकल कंडीशन में अस्पताल लायी गयी लड़की तीन चार घंटों में ही ब्रेन डेड डिक्लेयर कर दी गयी. उसके पर्स में एक ओरगन डोनेशन कार्ड था...अस्पताल ने उसकी आँखें, दिल, लिवर और दोनों गुर्दे ट्रांसप्लांटेशन के लिए ओरगन बैंक भेज दिए थे. घर वालों को इत्तला दी गयी थी. एक बड़ा भाई था उसका, बॉडी पिक करने वही आया था.

तरुण को ऐसा सदमा लगा था कि उसे कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि क्या करे, किससे बात करे जो उसे पागल नहीं समझे. मगर अनन्या सिर्फ उससे तो मिलती नहीं थी...बाकी सारे दोस्तों से भी तो मिली है. गूगल पर उसका पूरा नाम डाल के खोजा...दो साल पुराना उसका ब्लॉग मिला, वहाँ उसकी लिखी अनगिनत कहानियां. कमेंट्स में उसके दोस्तों के बहुत सारे सन्देश. किसी के चले जाने के बाद भी कितना कुछ बाकी रह जाता है इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में भी. तरुण सोच रहा था कि अगर वो कमेन्ट करे कि अनन्या से रोज उसकी बात होती है तो कोई उसकी बात पर यकीन करेगा.

एक और समस्या थी...शाम को घर से बाहर कैसे जाये. ये जानने पर भी कि अनन्या को गए दो साल से ऊपर बीत चुके हैं, तरुण को विश्वास ही नहीं हो रहा था. हर डर के बावजूद वो जानता था कि उसे अनन्या से बात करनी ही होगी. आज चारों लड़के ऑफिस से जल्दी घर आ गए थे, पूरी बात जान कर सब एक अजीब से सन्नाटे में डूब गए थे. जाने क्यूँ तरुण को लगता था कि अब अनन्या से कभी मिल नहीं सकेगा. जाने वो आज रात आएगी भी कि नहीं. शाम की घड़ियाँ सिगरेट फूंकते बीतीं.

साढ़े नौ बजते बजते बेचनी हद तक बढ़ गयी थी...कमरे में ताला लगा कर चारों लड़के बाहर सड़क पर आ गए. आधा घंटा जाने किन किन भगवानों को याद करते कटा. अनन्या समय की पक्की थी...ठीक दस बजे सन्न से लहराती हुयी उसकी साइकिल उनके आगे से निकली...पर आज किसी ने कोई कमेन्ट नहीं किया कि मरेगी लड़की या जान प्यारी नहीं है तुझे. मोड़ पर लैम्पपोस्ट चुप खड़ा था.

अनन्या ने सबको इतने गंभीर मूड में देखा तो हौले से तरुण के पास आके पूछा...'कोई मर गया क्या?' तरुण चुप रहा मगर बाकी तीनो एक साथ चीख पड़े 'अनन्या'. तरुण कुछ देर चुप रहा...मगर सवाल बिना पूछे वापस भी तो नहीं जा सकता था.
'तुम मर चुकी हो?'
'हाँ'
एकदम फैक्चुअल जवाब...सीधा, सपाट...कोई मेलोड्रामा नहीं.
'मुझे बताया नहीं'
'दो साल पुरानी खबर थी, क्या बताती.' और वो खिलखिला के हँस पड़ी.
'मुझसे मिलने मत आया करो'

चुप्पी....

बहुत सारी चुप्पी....

'क्यूँ, मैं मर गयी तो मुझसे दोस्ती नहीं कर सकते?'
'नहीं.'
....
.........
'तुम कब तक ऐसे भटकती रहोगी? कोई तो उपाय होगा...तुम्हारा तर्पण नहीं हुआ होगा शायद, कोई अधूरी इच्छा रही होगी...मुझे बताओ'
'मेरा तर्पण हो गया है...बिलकुल सारे रीति रिवाजों के साथ...लेकिन मेरा केस कुछ अलग था इसलिए मुझे स्पेशल परमिशन मिली है'
'किस चीज़ की?'
'ऐसे भटकते हुए रहने की'
'क्या बांधे रखता है तुम्हें अनन्या?'
'जिंदगी...मुझे जिंदगी से प्यार है'
......
.................
'तुम हमेशा ऐसी ही रहोगी?'
'हाँ'
'तुम हमेशा यहीं रहोगी?'
'पता नहीं'

'मैं यहाँ से जाना चाहता हूँ'
'ठीक है'
'और तुम?'
'और मैं क्या?'
'कुछ नहीं'
.......
..............
'सुनो तरुण, आगे से किसी लड़की को ऐसे रात में अकेले देखोगे तो टोकना मत. सारे भूत मेरे तरह अच्छे नहीं होते. किसी और का दिल आ गया तुम पर तो तुम्हें अपने साथ ले जायेगी. तुम्हें जाने देना बहुत मुश्किल है. मरने से भी ज्यादा मुश्किल.'
........
.................
उस दिन के बाद अनन्या वहाँ कभी नहीं दिखी. सालों साल बाद भी कई बार तरुण गाड़ी चला रहा होता है और कोई लड़की साइकिल पर रिव्यू मिरर में दिखती है तो उसे अनन्या याद आ जाती है. अनन्या की कही आखिरी बात...जा रहे हो...कभी भी...मुड़ कर वापस नहीं देखना. वरना मैं कहीं जा नहीं पाउंगी और तुम कभी वापस नहीं आओगे. अनन्या ये नहीं जानती कि कई बार लोग कहीं जाते नहीं. ठहर जाते हैं. उसी मोड़ पर. उसी वक्त में.
......
..............
उफ़...जिंदगी कितनी लंबी है. तरुण अपने आखिरी दिनों में अपनी पसंद की साइकिल खरीदते हुए सोचता है...जिंदगी के पार...उस मोड़ पर...अनन्या होगी न?

26 September, 2012

अनलहक!

बहुत दूर ऊपर निर्जन हिमालय में एक गुफा है...साल भर बर्फ के ग्लेशियर का पानी पिघल कर बूँद बूँद गिरता  है. नीचे पहुँच कर पानी फिर बर्फ हो जाता है...एक वृत्त पूरा हो जाता है...बर्फ...पानी...बर्फ. मगर इस वृत्त के पूरा होने में कुछ रच जाता है...शिवलिंग...अमरनाथ की गुफा में...हर साल सावन पूर्णिमा को एक दिन के लिए गुफा का दरवाजा खुलता है.
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लिखना...जैसे प्याला रखा हो और शब्द वैसे ही बूँद बूँद गिरते हों...निर्वात से उगते हैं शब्द...कुछ रच जाता है और फिर निर्वात में ही खो जाते हैं शब्द...मैं काफी दिनों से इस प्याले को देख रही हूँ...जाने शब्द आने बंद हो गए हैं कि प्याला टूट गया है. पहर पहर प्याले को देखते गुज़रता है...शब्द की परछाई भी नहीं दिखती...प्याले की तलछट में पिछला बकाया भी कुछ नहीं.

मुझे हमेशा लगता था कि लिखना कभी खुद से नहीं होता है...सब कुछ हमारे इर्द गिर्द ही रहता है...मैं बस माध्यम हूँ जिसके द्वारा कुछ लिखा जाता है. लिखना बहुत हद तक इन्वोलंटरी रहा है हमेशा से मेरे लिए.
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मैं कुछ कुछ सिजोफ्रेनिक भी होती जा रही हूँ...मन के अंदर हमेशा से बहुत सारी स्याही थी...लिखने से थोड़ा अँधेरा कम होता था...आजकल नहीं लिखती हूँ तो वही अँधेरा जैसे कौर बना कर मुझे खा लेना चाहता है...ग्रस लेता है...रात दर रात दर रात. कलमें शिकायत में डूबी हैं...घर में बेजा चीज़ें बढ़ती जा रही हैं. केओस बहुत सारा है. हालत कुछ कुछ वैसी लगती है जैसे शिव का तांडव चल रहा हो और चारों तरफ सिर्फ विनाश...सारी चीज़ें अपनी जगह से अलग-विलग. शब्द अजनबी...कोई तारतम्य नहीं. जैसे इस क्षण कोई शिव के पैरों पर गिर कर कहे...कि बस. अब बस.

मुझे नहीं मालूम ये कौन से लोग हैं जो मुझे दिखते हैं...और क्यूँ दिखते हैं...ये मेरे पीछे पीछे चलते हैं. साइकिल चलाती हूँ, हवा तेज़ी से गुज़रती है...और लगता है कि मोड़ पर कोई था...उसका होना इतना सच है कि मुझे कपड़ों के रंग दिखते हैं...मैं साइकिल वापस मोड़ती हूँ मन में मनाते हुए कि कोई हो वहाँ पर...न कुछ सही कोई जानवर ही...कुत्ता, बिल्ली...कोई जीवित चीज़ कि मुझे लगे कि मुझे धोखा हो गया था. पर वहाँ कोई भी नहीं होता. आगे पीछे दायें बाएं...सब ओर लोगों की परछाइयाँ...मैं जितना ही खुद को कमरे में बंद करना चाहती हूँ उतना ही परछाइयाँ नज़र आती हैं...इकलौता उपाय है लाईट बुझा कर अँधेरा कर देना...अँधेरे में परछाइयाँ नहीं दिखतीं...मगर अँधेरे के अपने डर हैं.

अँधेरा जब तक कलम में बंद है उससे दिन के आसमान पर लिखा जा सकता है...पर जब अँधेरा चारों ओर फ़ैल जाए तो उसपर रौशनी से नहीं लिख सकती मैं. मेरा कुछ तोड़ने का मन भी नहीं करता...कुछ जलाने का...कुछ फ़ेंक देने का...कुछ नहीं.

अँधेरा एक ब्लैक होल है...धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ता है...मैं चुप होती जाती हूँ...मैं कुछ नहीं सुनती...कुछ नहीं कहती...सारे लोग किसी दुनिया में थे ही नहीं...डॉक्टर डायग्नोज करता है...और बताता है कि कोई नहीं है...मैं डॉक्टर को देखती हूँ...जानती हूँ...वो भी एक्जिस्ट नहीं करता है.

ये सब मेरी कल्पना है...मेरी रची दुनिया...कहीं कुछ सच नहीं...तो फिर मैं कौन...खुदा?

14 September, 2012

क्राकोव डायरीज-७-ये खिड़की जिस आसमान में खुलती है, वहाँ कोई खुदा रहता है?

'I see dead people.'
-from the film-Sixth Sense
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आज ऑफिस से घर लौटते हुए एक मोड़ पर ऐसा लगा कि कोई बुढ़िया है, कमर तक झुकी हुयी. मैंने रिव्यू मिरर में देखा...वहाँ कोई नहीं था. मैं उस बारे में सोचना नहीं चाहती. जो वाक्य दिमाग में अटक गया वो सिक्स्थ सेन्स फिल्म का था...मुझे कोई अंदाजा नहीं कि क्यूँ. आज रात बैंगलोर में अचानक बारिश शुरू हो गयी. मुझे मालूम नहीं क्यूँ. जिंदगी में जब 'मालूम नहीं क्यूँ' की संख्या ज्यादा हो जाती है तो मैं चुप हो जाती हूँ और जवाब तलाशने लगती हूँ. 
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औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ की आखिरी कड़ी लिखने बैठी हूँ...दिल की धड़कनें बेहद तेज रफ्तार हैं...जैसे मृत्यु के पहले के आखिरी क्षण से खींच कर लाया गया है मुझे. 
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बिर्केनाऊ एक श्रम शिविर था...इन शिविरों को यातना शिविर या मृत्यु शिविर कहने से शायद लोगों में शक पैदा हो जाता कि इन शिविरों का मूल उद्देश्य क्या है. होलोकास्ट इतने योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वित किया गया था कि सबसे नयी तकनीक...पंचिंग कार्ड का इस्तेमाल करके हर शिविर में आने, रहने और मरने वाले लोगों का पूरा बहीखाता तैयार किया गया था. उन्नत तकनीक के कारण हिटलर की फ़ौज के लिए ज्यु आबादी को ढूँढना भी आसान हुआ था. 

बिर्केनाऊ में काम करने के लिए आये कैदियों को पहले शावर कमरे में भेजा जाता था. उनके बाल उतारे जाते थे और उन्हें पहनने को कपड़े और जूते दिए जाते थे. बिना ऊनी मोजों के लकड़ी के जूते जो अक्सर सही फिटिंग के भी नहीं होते थे और उनमें चलना बेहद तकलीफदेह होता था. बिर्केनाऊ में हर कदम इतना सोचा समझा था कि व्यक्ति जल्द से जल्द मर जाए. 

तीन लेवल के बंक बैरक
बिर्केनाऊ में औरतों के बैरक अभी तक सही सलामत हैं क्यूंकि ये ईंटों के बने हैं. बैरक में लोगों के सोने की जगह होती थी. ईंटों और लकड़ियों से बाड़ जैसे बंक बेड्स बनाये गए थे. लगभग छः फीट बाय चार फीट का एक सेक्शन होता था. एक सेक्शन में पाँच से सात औरतों को सोना पड़ता था. बैरक में तीन लेवेल्स होते थे...और उनपर पुआल बिछी रहती थी. बेहद ठंढी जगह होने के बावजूद ईमारत को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं था. अक्सर बारिशें होती रहती थीं और छत टपकती रहती थी. चूँकि फर्श भी कच्चा होता था इसलिए कीचड़ बन जाता था. निचले तले पर सोने वाली औरतों को चूहों का खौफ रहता था. बिर्केनाऊ के चूहे बेहद बड़े और माँसाहारी थे. वे सोती हुयी औरतों को कुतर खाते थे...कभी हाथ का मांस नुचा होता था कभी पैर का...कभी चेहरे का.

इन बैरकों के साथ कोई छेड़खानी नहीं की गयी है. वे अभी भी वैसे के वैसे हैं. ऊपर वाले लेवल पर एक खिड़की होती थी. मैं वहाँ खड़ी सोच रही थी...कि यहाँ जो औरतें सोती हैं वो रात को खिड़की से ऊपर देख कर क्या सोचती होंगी...क्या उनके मन में भगवान या किसी ऐसी शक्ति का ख्याल आता होगा. अपने बच्चों को कौन सी कहानियां सुनाती होंगी...क्या बच्चे परियों पर यकीन करते होंगे? क्या कोई माँ अपने बच्चे को झूठे ख्वाब दिखाती होगी कि ये सब कुछ दिनों की बात है फिर सब कुछ नोर्मल हो जाएगा. नोर्मल क्या होता है? बिर्क्नाऊ में पैदा हुए बच्चे और अन्य छोटे बच्चे जो इन कैम्पस में रहते थे उन्हें मालूम ही नहीं था कि लोगों का 'नाम' भी होता है. जन्म के समय से दागे गए ये बच्चे सिर्फ संख्या को पहचानते थे. 

बिर्केनाऊ के निर्माण के एक साल तक वहाँ किसी तरह के शौचालय या नहाने की व्यवस्था नहीं थी. बारिश होती थी तो लोग नहा लेते थे. एक आम दिन ३ बजे शुरू होता था. ठीक समय के बारे में लोग एकमत नहीं हैं. तीन बजे लोग उठते थे और नित्य कर्म निपटाते थे. हर कैदी को आधा घंटा निर्धारित किया गया था. इससे ज्यादा समय लगने पर वे सजा के हक़दार होते थे. तीन बजे से सात बजे तक रोल कॉल चलती थी. ये सबसे अमानवीय अत्याचारों का वक्त होता था. एसएस गार्ड्स कैदियों को अक्सर घंटों खड़े रहने बोल देते थे...तो कभी उकडूं बैठ कर दोनों हाथ ऊपर उठाये रखने का निर्देश जारी कर दिया जाता था. अगर किसी कैदी की मृत्यु हो गयी है तो भी उसे रोल कॉल में माजूद होना होता था. मृत कैदी बिना कपड़ों के होता था और उसे दो कैदी कन्धों पर उठाये रखते थे. अगर रोल कॉल में कोई एक कैदी भी नहीं मिल रहा होता था तो बाकी सारे कैदी तब तक खड़े रहते थे जब तक खोया हुआ कैदी मिल नहीं जाता. 

रोल कॉल के बाद खाना मिलता था और लोग काम पर लग जाते थे. खेतों में दिन भर काम किया करते थे. हर कैदी का अपना काम का कोटा होता था. शाम को सजाएं दी जाती थीं. अगर किसी ने अपने कोटे से कम काम किया है...या साथी कैदी की मदद करने की कोशिश की है...या दिन में एक बार और बाथरूम गया है तो कैदियों को सजा मिलती थी. सजा अक्सर मृत्युदंड ही होती थी. इसके अलावा कैदियों को भूखे मारना जैसी भी सजाएं थीं. लोगों को दिन में ७०० कैलोरी से अधिक का खाना  नहीं मिलता था. एक आम इंसान की खाने की कम से कम १००० कैलोरी की जरूरत होती है. जर्मन ज्यु आबादी को बिना ढंग का खाना दिए और दिन भर काम करवा कर थकान और भूख से मारना चाहते थे और उसमें वे बेहद सफल हुए थे. श्रम शिविर में आने के तीन से चार महीनों के अंदर लोग मर जाते थे. 

बहुत लोग आत्महत्या करने की कोशिश में बाड़ पर खुद को फ़ेंक देना चाहते थे पर अक्सर गार्ड अपने वाच टावर से पहले ही उन्हें गोली मार दिया करते थे. बिर्नेकाऊ के इन्सिनेरेटर में जब लोगों को जलाने की जगह नहीं बचती थी तो लोगों को खुले में जलाया जाता था. कैदियों और आसपास के कई गाँव वाले दुर्गन्ध से जान जाते थे कि इन शिविरों में क्या चल रहा है मगर किसी के पास कोई उपाय नहीं था. जब कुछ कैदियों ने बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि बिर्केनाऊ जैसे कैम्पस में हज़ारों की संख्या में यहूदियों की हत्या हो रही है तो बाहरी दुनिया ने इसे अतिशयोक्ति कह कर नकार दिया. 

बिर्केनाऊ और लगभग चालीस अन्य छोटे कैम्पस का उद्देश्य था कि कैदी वाकई जानवरों जैसे हो जाएँ, हर इंसानियत से परे. बिर्केनाऊ में जिन्दा रहने के सबसे बेसिक इंस्टिंक्ट्स की जरूरत थी. सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट. इन शिविरों में रहने वाले लोगों में किसी तरह की मानवीय भावना नहीं बचती थी. कुछ दिन बाद वे किसी भी तरह जिन्दा रहना चाहते थे...अपने साथी का सामान झपट लेना, लोगों का खाना छीन कर खा लेना, किसी की मदद नहीं करना. छः महीने तक जिन्दा रहते कैदियों में बेहद हताशा और फिर उदासीनता भर जाती थी. उनकी आँखों में जिंदगी की कोई चमक नहीं रहती थी. 

जब सोवियत सैनिकों ने बिर्केनाऊ में प्रवेश किया तो उन्हें लगा कि वे कैदियों को आजाद कर रहे हैं तो कैदी खुश होंगे...मगर वहाँ रहने वाले लोग किसी भी भावना को महसूस करने लायक बचे ही नहीं थे. उनमें कोई उम्मीद नहीं थी...न जीने का कोई उद्देश्य था. वे पूरी तरह हारे हुए लोग थे. 

बिर्केनाऊ कैम्प से छुड़ाए गए अधिकतर लोग कुछ महीनों के अंदर मर गए थे. मगर जो बाकी बचे सिर्फ और सिर्फ अपनी जिजीविषा के कारण. साहस...उम्मीद के खिलाफ जा कर भी जीने का साहस... जीवन की अदम्य लालसा...ये एक बीज की तरह होती है...शायद आत्मा के अंश में गुंथी हुयी...कि सब हार जाने के बाद भी खुद को जोड़ लेती है. अंग्रेजी में एक बड़ा खूबसूरत फ्रेज है...The indomitable human spirit.

शिविर के बैरक्स में घूमते हुए हालात वैसे ही थे जैसे उन दिनों रहे होंगे जब यहाँ अनगिन कैदी काम करते होंगे...आसमान काले बादलों से पूरा घिर गया था...दिन में अँधेरा था और उदासी थी. हम अपनी गाइड के पीछे चुप चाप चल रहे थे. बहुत तेज बारिशों के कारण अधिकतर लोग भीग गए थे...भीगने की शिकायत बेहद तुच्छ  लग रही थी...किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा. जिस रास्ते हम अंदर गए थे...उसी रास्ते वापस आ रहे थे. वो एक लंबा रास्ता था जिसके आखिरी छोर पर मृत्यु द्वार था...डेथ गेट. आखिरी कहानियां कुछ उन लोगों की थी जिन्होंने इतने मुश्किल हालातों में अपना आत्म-सम्मान और इंसानियत नहीं खोयी...अपने छोटे छोटे तरीकों से लोगों ने मौत और बदतर जीने के हालातों में भी दुनिया को औस्वित्ज़ के बारे में बताने की कवायद जारी रखी. 

हम जब बिर्केनाऊ के दरवाजे से बाहर आ रहे थे तो बादल छंट गए थे और धूप निकल आई थी. जैसे वाकई सब कुछ अतीत था और पीछे छूट गया था. मुझे इतिहास कभी पसंद नहीं रहा...मुझे समझ ही नहीं आता था कि जो बीत गया उसमें लोगों को इतना इंटरेस्ट क्यूँ रहता है. अब मैं समझती हूँ कि इतिहास को पढ़ना इसलिए जरूरी है कि हम उन गलियों से सबक ले सकें और उसे दोहराने से बच सकें. 

मैं नहीं जानती कि वो लोग कैसे थे...हाँ उनका दर्द जरूर समझ आता था...और सिर्फ समझ नहीं आता...घुल आता है जिंदगी में. औस्वित्ज़ जाना मेरे लिए जिंदगी को बदल देने वाला अनुभव है. कुछ चीज़ें उपरी सतह पर नज़र आ रही हैं...कुछ बवंडर लहरों के नीचे कहीं फॉल्ट लाइन्स में उठ रहे हैं. मुझे लगता था कि मनुष्य की डिफाइनिंग क्वालिटी होती है उसकी प्यार करने की क्षमता मगर मैंने जितना कुछ नया देखा उससे ये सीखा कि प्यार से भी ऊपर और सबसे जरूरी भाव है 'करुणा'. आज के दौर में बेहद नज़र अंदाज़ कर देने वाला भाव है...लेकिन Kindness is the most important of all human values. 
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शब्द कभी पूरे नहीं पड़ते...भाषा का दोष है या भाव का...या शायद कोई भाषा बनी ही नहीं है जिसमें बयान किया जा सके...इसलिए...चुप. चुप. चुप. इस जगह की हवा में. मिट्टी में. पानी में. रूहें हैं. दर्द है. पोलैंड कहता है...यहाँ आओ...इतने कम लोग कैसे उठाएंगे दुःख का इतना बोझ. हम सब थोड़ा थोड़ा दर्द समेट लाते हैं उस मिट्टी से...फिर टुकड़ा टुकड़ा बांटते हैं उसे. दर्द की फितरत है. बांटने से घटता है.




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मैंने औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ में ज्यादा तसवीरें नहीं खींची...ये एक आधे मिनट का विडीयो है...बिर्केनाऊ का विस्तार देखने के लिए.  
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09 August, 2012

क्राकोव डायरीज-६-अंतिम छलावे की ओर

You gotta hold on to something.
- from the film...Blue
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मुझे मालूम नहीं कि ऐसा सबके साथ होता है या सिर्फ मेरे साथ हो रहा है मगर ये सीरीज लिखना एक बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया है...सर में भयानक दर्द शुरू हो जाता है और चक्कर आने लगते हैं. थकान होने लगती है...आँखें दर्द करने लगती हैं. मेरे लिए लिखना अधिकतर दर्द को कहीं दफना देने जैसा है मगर इस बार लिखना कुछ ऐसा है जैसे बदन में चुभी किसी कील को ओपरेट करके निकालना...उसे बाहर करना भी जरूरी है. थोड़ा इसलिए भी लिख रही हूँ कि मालूम नहीं कैसे पर बहुत से लोगों को होलोकास्ट के बारे में उतना मालूम नहीं है जितना मैं सोचती थी.
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औस्वित्ज़ म्यूजियम से निकल कर हम बिर्केनाऊ जा रहे थे. बिर्केनाऊ को औस्वित्ज़-२ के नाम से भी जाना जाता है. बिर्केनाऊ मृत्यु शिविर की शुरुआत अक्टूबर १९४१ में हुयी थी...औस्वित्ज़ में जब कैदियों की भीड़ बहुत बढ़ गयी तो बिर्केनाऊ में एक नया और बड़ा कैम्प बनाने का निर्णय लिया गया. हिटलर के निर्देशानुसार यहाँ 'फाइनल सोल्यूशन' यानि कि ज्यू आबादी का जड़ से खात्मा किया जाना था. बिर्केनाऊ कैम्प अधिक से अधिक संख्या में लोगों की एक साथ हत्या के लिए बनाया गया था.

एक्स्टर्मीनेशन/उन्मूलन के लिए औस्वित्ज़ का चुनाव दो मुख्य कारणों से किया गया था...दो तरफ से नदियों से घिरा होने के कारण इसे छुपाये रखना आसान था और यहाँ तक रेल लाइन आती थी जिसके कारण जर्मन अधिकृत क्षेत्रों से ज्यु अधिकाधिक संख्या में यहाँ लाये जा सकते थे. 'फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रोब्लम' के तहत हिटलर का उद्देश्य पूरी ज्यु रेस का खात्मा करना था. ज्यु को सबह्यूमन कहा गया यानि कि मनुष्य से कमतर...किसी जानवर सरीखे...इसलिए धरती से उनका उन्मूलन जरूरी था. सिलसिलेवार तरीके से पहले ज्यू आबादी को शहरों से निकाल कर घेट्टो में ठूंस दिया गया जहाँ से उन्हें औस्वित्ज़ और दूसरे कोंसेंट्रेशन कैम्प भेज दिया जाता था. अमानवीय स्थिति में घेट्टो में रहने वाली ज्यु आबादी को कहा जाता था कि उन्हें नौकरी और दूसरे कार्यों के लिए भेजा जा रहा है और वे वापस अपने घर आयेंगे या फिर वहीं बस सकते हैं.

बिर्केनाऊ तक ट्रेन लाइन आती थी. मालगाड़ी जैसे डब्बों में लगातार दस दिन तक सफ़र करके दूर देश जैसे फ़्रांस से ज्यु आबादी आती थी. इन डब्बों में जानवरों की तरह लोगों को डाल दिया जाता था...ट्रेनें कहीं भी रूकती नहीं थीं. डब्बे में सिर्फ एक छोटी सी रोशनदान नुमा खिड़की होती थी...इन स्थितियों में बहुत सी बीमारियाँ भी फ़ैल जाती थीं.

जब हम बिर्केनाऊ पहुंचे तो बारिश शुरू हो गयी थी. अधिकतर लोग इस मौसम के लिए तैयार नहीं थे...हम में से कुछ के पास छतरियां थीं...औस्वित्ज़ में चार मिलियन लोगों की हत्या की गयी थी...आंकड़े तस्वीर नहीं बनाते...लेकिन जब मैं बिर्केनाऊ के उस गेट से अंदर गयी तो जहाँ तक नज़र जाती थी काँटों की दोहरी बाड़ थी...जैसे कि मरना भी एक बार नहीं दो बार होता हो. इन बाड़ों में बिजली दौड़ती थी और इतना हाई वोल्ट हुआ करता था कि इनसे 'हूहू' की भयावह आवाज़ आती थी. बिर्केनाऊ एक फ़्लैट जगह है इसलिए दूर क्षितिज तक फैले शिविर के चिन्ह दिख रहे थे. हमारे दायें तरफ ईटों की बनी इमारतें थीं जिनमें औरतें काम करती थीं और दायें तरफ लकड़ी की इमारतों के अवशेष थे...जो साफ़ दिखता था वे चिमनियां था...ठंढ के दिनों में बैरक को गर्म रखने के लिए चिमनियां होती हैं मगर यहाँ ये सिर्फ बाहरी आडम्बर था लोगों को दिखने के लिए. इन चिमनियों का इस्तेमाल नहीं होता था. उस जमीन पर खड़े होकर पहली बार महसूस हुआ कि ये कितना बड़ा ऑपरेशन था और कितने सारे लोग यहाँ मारे गए थे. हमारी गाइड ने बताया कि अगर जरा सी भी बिजली चमकी तो हमें वापस लौटना होगा क्यूंकि इतनी सारी लोहे की बाड़ों के कारण ये जगह घातक हो जाती है.

Death-door at Birkenau
बिर्केनाऊ के प्रवेशद्वार से ट्रेन ट्रैक बिछे हुए हैं...इस आखिरी ट्रैक पर जर्मन कब्जे के अंतर्गत देशों से ज्यु आबादी ट्रेनों में भर कर लायी जाती थी. वहाँ एक रेल का डिब्बा अभी भी मौजूद था...हम चलते हुए मेन गेट से कोई तीन सौ मीटर दूर पहुंचे जहाँ पर 'सेलेक्शन' होते थे. ट्रेन से उतरे लोगों को अपना सारा सामान छोड़ कर एक कतार बनानी होती थी. सेलेक्शन अर्था
त जीवन या मृत्यु का चुनाव...जो कि एक डॉक्टर करता था. दस दिन के थके...अमानवीय स्थिति में आये लोगों को सिर्फ एक नज़र देख कर डॉक्टर निर्णय लेता था कि वे जीने के काबिल हैं या मरने के. लोगों को दायें या बांयें भेजा जाता था. दायें यानी श्रम शिविर...जहाँ लोगों को बंधुआ मजदूरी कराई जाती थी जहाँ अधिकतर लोग तीन से चार महीने में ही दम तोड़ देते थे. बायीं ओर भेजे गए लोग सीधे गैस चेंबर में मरने के लिए भेज दिए जाते थे.

कमजोर व्यक्ति, बच्चे, बूढ़े, माएं जिनके छोटे बच्चे थे और जो पुरुष बायीं ओर भेजे जाते थे उन्हें गैस चैंबर भेजा जाता था. बिर्केनाऊ में पहले दो गैस चेंबर थे...लिटिल रेड हाउस और लिटिल वाईट हाउस...मगर फिर बाद में सिलसिलेवार ढंग से और बेहतर तरीके से अधिक लोगों को मारने और जलाने के लिए और गैस चेम्बरों का निर्माण किया गया. गैस चेम्बर्स में ही मृत शरीरों को जलाने के लिए भट्टियां भी थीं...इन्सिनेरेटर. लोगों को कहा जाता था कि ये शावर लेने के कमरे हैं और धोखे की ये प्रक्रिया इतनी सम्पूर्ण थी कि गैस चेम्बरों में शावरहेड भी लगे हुए थे. जिस वक्त लोग गैस चेम्बर्स की ओर जाते थे एक बैंड संगीत बजाता रहता था.

लोगों को कहा जाता था कि अब आप नहाने के लिए शावरहाल में जायेंगे. अपने कपड़ों का स्थान और नंबर अच्छे से याद कर लें. कपड़े टांगने के लिए खूँटी या कहीं कहीं लोकर होते थे. दस दिन सफ़र करने के बाद जिस चीज़ की वाकई जरूरत महसूस होती थी वो था अच्छे से पानी से नहाना...लोगों को कहा जाता था कि शावर के बाद आपको गर्म कॉफी या सूप मिलेगा और फिर उनकी योग्यताओं के हिसाब से उन्हें काम दिया जाएगा. शावर के बाद उनके प्रियजन उनका इंतज़ार कर रहे हैं. किसी को अनुमान भी नहीं होता था कि वे दरअसल गैस चेंबर में जा रहे हैं. कहीं से कोई भी प्रतिरोध नहीं होता था और लोग खुद चलकर उस बड़े हॉल में चले जाते थे. जब हॉल पूरा भर जाता था तो बाहर से दरवाजा बंद कर कर कुंडियां लगा दी जातीं थीं और चिमनी में से ज़ैक्लोन बी के पेल्लेट्स अंदर डाल दिए जाते थे. इनसे जहरीली हायड्रोजेन सायनाइड गैस निकलती थी. गैस चेंबर की मोटी दीवारों के बाहर तक भी लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाजें आती थीं...इन आवाजों को बाकियों तक पहुँचने से रोकने के लिए दो मोटरसाईकिल स्टार्ट कर के छोड़ दिए जाते थे कि इंजन के शोर में चीखों की आवाज़ दब जाए लेकिन चीखों का शोर दबता नहीं था.

गैस चेंबर के भग्नावशेष 
लगभग पन्द्रह से बीस मिनट में सब शांत हो जाता था. मृत लोगों के शरीर को जलाने के लिए भट्ठियां वहीं मौजूद होती थीं. सौंडरकमांडो जो कि कैदियों में से ही चुने जाते थे...उनका काम होता था मरे हुए लोगों के बाल उतारना और दांतों में मौजूद सोने की तलाश करना. इसके बाद मृत शरीर को भट्टियों में जलाया जाता था. मृत शरीर जलाने में कम वक्त लगे इसलिए रेलें बनी हुयी थीं जिनसे शरीर को भट्ठी में डालने में आसानी हो. भट्ठी से निकलने वाली राख को खाद की तरह इस्तेमाल किया जाता था. कई बार गैस चेंबर  में मरने वाले लोगों की तादाद इतनी हो जाती थी कि डेडबॉडी खुले में जलानी पड़ती थी. जलने की गंध दूर दूर तक फैलती जाती थी. सौंडरकमांडो में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा थी, उनके बाद बैंड मेम्बर्स सबसे ज्यादा आत्महत्या करते थे. हर कुछ महीनों में सौंडरकमांडो की पूरी फ़ोर्स को गैस चेंबर भेज दिया जाता था. हर नए बैच को पहला काम मिलता था अपने से पहले बैच के सौंडरकमांडो के मृत शरीरों को इनसिनेरेटर में डालना.

औस्वित्ज़ में पाँच गैस चैम्बर थे. एक बार में लगभग २ हज़ार लोग मारे जा सकते थे. गैस चेम्बरों की क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन मृत शरीर को जलाने में बहुत वक्त लगता था इसलिए लोगों के मरने की दर कम थी. एक ट्रेन में आये लगभग तीन चौथाई लोग सीधे गैस चेंबर भेज दिए जाते थे. जब जर्मनी की हार होने लगी तो गैस चेम्बर्स की हकीकत को दुनिया से छुपाने के लिए गैस चेम्बर्स को बम से उड़ा दिया गया इसके बावजूद गिरी हुयी इमारत का हिस्सा मौजूद है...गैस चेंबर के बाहर राख का ढेर है. उस पूरे क्षेत्र को कब्रिस्तान का दर्जा दिया जाता है.
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लगातार बारिशें हो रहीं थीं...अँधेरा घिर आया था...लोग भीगते हुए गाइड के साथ चल रहे थे जो हमें सिलसिलेवार ढंग से वहाँ हुयी घटनाओं के बारे  में बताती जा रही थी. बहुत ही हौलनाक किस्से थे...जलती भट्ठियों में जिन्दा फेंके गए लोगों की...बाड़ों से सट कर आत्महत्या करते लोगों की...ठंढ में ठिठुरते हुए हम वक्त में बहुत पीछे चले गए थे. बिर्केनाऊ में किसी भी जगह पर खड़े होकर देखने से दूर दूर तक सिर्फ बाड़ों की दो कतार दिखती है...जमीन आसमान जब कटा हुआ.

औस्वित्ज़ बिर्केनाऊ में चलते हुए ऐसा बार बार लगता है कि वहाँ घटी हुयी घटनाएं आपकी आँखों के सामने दुबारा घट रही हैं. लोगों की चीखें...उनका धोखे से मारे जाना...जर्मन SS...सब दिखते हैं. वहाँ जाना किसी कैदखाने में जाने जैसा है. कितना भी चाह लेने पर वो तसवीरें कहीं नहीं जातीं. एक पुराने गिरे हुए काली ईटों के मलबे से दहशत होती है...राख का ढेर देखते हुए सोचती हूँ कि यहाँ जो खाना खा रही हूँ...जमीं में जाने किसके शरीर के अवशेष बाकी होंगे.

हम जिंदगी को कितना टेकेन फॉर ग्रांटेड लेते हैं...और प्यार को...दोस्ती को? एक एक सांस को तरसते लोगों की चीखें वहाँ की बारिश में घुल गयी हैं. मेरा मन शांत नहीं होता. अंदर इतना कुछ भरा हुआ है...जाने कितनी किस्तों में बाहर आएगा. ऐसा लिखना हर बार मुझे अंदर से तोड़ता है. मैं वहाँ भटकती अनेक आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करती हूँ. 

07 August, 2012

क्राकोव डायरीज-५-मृत्यु के अँधेरे एकांत से

पिछले काफी दिनों से कुछ लिखने की कोशिश कर रही हूँ...मगर कुछ तसवीरें ज़हन में इतने गहरे बैठ गयी हैं कि उन्हें निकालना नामुमकिन लग रहा है. उपाय लेकिन कोई है नहीं...सिवाए इसके कि लिखा जाए. मेरी डायरी के पन्ने बहुत तेज़ी से भरते जा रहे हैं...मैं किसी भी हाल में अकेले नहीं रहना चाहती. इस पोस्ट को लिखने के पहले शुक्रिया उन सभी दोस्तों का मेरी कहानियों को सुनने के लिए कि अगर उनसे बात न की होती तो जाने और कैसी मानसिक स्थिति में रहती.
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क्राकोव में गर्मियां चल रही थीं...तापमान कोई ३० डिग्री के आसपास था. खिली हुयी धूप और नीला आसमान और कुछ बेहद अच्छे लोग थे. वहाँ एक साल्ट माईन है जो जमीन से लगभग तीन सौ मीटर नीचे है और वहाँ १२ डिग्री का तापमान रहता है इसलिए हिदायत दी जाती है कि वहाँ जाने के लिए गर्म कपड़े जरूर रखें. मैं सुबह साल्ट माईन जाने के लिए चली थी इसलिए गर्म जैकेट थी साथ में. टूर ऑफिस पर गयी तो पता चला कि साल्ट माईन का टूर साढ़े चार बजे है जबकि औस्वित्ज़ का टूर साढ़े बारह बजे है जिसमें छः घंटे लगते हैं. टिकट १०० ज्लोटी की थी. 

मुझे ठीक ठीक अंदाज़ नहीं था कि औस्वित्ज़ क्राकोव से कितनी दूरी पर है...बस की यात्रा डेढ़ घंटे की थी जिसमें हमें एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी जिसमें मुख्यतः इस बात का वर्णन था कि औस्वित्ज़ से रिहा हुए लोगों को डॉक्टर्स ने जब इक्जामिन किया तो उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति क्या थी. इसके अलावा कुछ ऐसी फुटेज भी थी जो औस्वित्ज़ में शूट की गयी थी जर्मन ऑफिसर्स द्वारा. द्वितीय विश्व युद्ध में औस्व्तिज़ सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. 'फाइनल सोलुशन टू द जुविश प्रॉब्लम' के तहत ५ मिलियन ज्यूस (यहूदी) यहाँ मारे गए थे. 

जैसे जैसे बस क्राकोव से औस्वित्ज़ की ओर बढ़ती जा रही थी आसमान गहरे काले बादलों से घिरता जा रहा था...जैसे कि अँधेरा हमारा पीछा कर रहा हो. औस्वित्ज़ पहुँच कर जब मैं बस से उतरी तो मैंने अपना जैकेट अंदर रख दिया था क्योंकि मेरे हिसाब से बाहर मौसम गर्म था...बस से उतरते ही बेहद सर्द हवा के थपेड़े महसूस हुए...मैंने तुरंत जा के अपनी जैकेट पहनी. धूप जा चुकी थी और आसमान पर काले बादल छा गए थे. औस्वित्ज़ म्यूजियम में जाने के लिए गाइड अनिवार्य है...हर गाइड के पास एक माइक होता है और उसे सुनने के लिए हमें हेडफोन दिए जाते हैं. 


औस्वित्ज़ की शुरुआत एक पोलिश राजनैतिक अपराधियों के लिए श्रम शिविर की तरह हुयी थी. काम्प्लेक्स के पहले वो लोहे का दरवाज़ा होता है जिसकी आर्च पर जर्मन में लिखा हुआ है 'Arbeit mach frei' इसका अनुवाद होता है 'काम तुम्हें आज़ाद करेगा' यहाँ आज़ादी का मतलब मृत्यु है. शिविर अलग अलग ब्लोक्स में बंटा हुआ है और जहाँ तक नज़र जाती है कंटीली बाड़ है जिनमें पहले बिजली दौड़ती थी. 

पहले ब्लाक में ग्राउंड फ्लोर पर बाथरूम हैं जिनमें कुछ तसवीरें बनी हुयी हैं जो कैम्प में कैद लोगों ने बनायी थीं. एक लंबा गलियारा है जिसके दोनों तरफ तसवीरें लगी हुयी हैं. बायीं तरफ महिलाओं की और दायीं तरफ पुरुषों की...हर तस्वीर में उनकी जन्म तिथि और कितने अंतराल तक वे शिविर में रहे अंकित है. अधिकतर कैदी छः महीने के अंदर मर जाते थे. मैंने आज तक बहुत तसवीरें, पेंटिंग्स देखी हैं मगर मैंने आजतक वैसी जीवंत आँखें कभी नहीं देखीं. यकीन ही नहीं होता था कि ये मर चुके लोग हैं...एक एक तस्वीर जैसे आपकी रूह में झांकती हुयी प्रतीत होती है...जैसे उस गलियारे के सारे लोग मरने के बावजूद अपनी आखिरी निशानी उस तस्वीर में आ कर रहने लगे हैं. गुजरते हुए लगता था उनकी आँखें पीछा कर रही हैं. उनमें से कुछ तसवीरें ऐसी भी थीं जहाँ मुस्कराहट का एक कतरा मिलता था...कैदियों की आँखों में, होठों पर...अनगिन साल पहले मरे हुए लोगों की तस्वीरों को सीने से लगा कर फूट फूट कर रोने का मन करता था. 

पहले तल्ले को जाती हुयी सीढ़ियाँ घिसी हुयी थीं...सोच कर आत्मा सिहरती थी कि इन्ही सीढ़ियों पर कितनी बार लोग कितनी पीड़ा में गुज़रे होंगे...वे क्या सोचते होंगे सुबह शाम यहाँ से काम को जाते और आते हुए. पहले तल्ले पर पहुँचने के पहले हमारी गाइड ने अनुरोध किया कि इस तल पर तसवीरें न लें. औस्वित्ज़ के बारे में मैंने जितना, पढ़ा, सुना और डॉक्यूमेंट्री देखी है कि मुझे तैयार होना चाहिए था...मगर सामने लगभग सौ फीट लंबे उस ऊंचे से शीशे के पीछे लोगों के बाल थे...उन्हें देखते ही जैसे फिजिकल धक्का लगा...जैसे किसी ने वाकई कोई खंजर उतार दिया हो सीने में...मुझे हल्का चक्कर आ गया और उलटी आने लगी...मैंने खम्बे का सहारा लिया...मृत लोगों के अवशेषों को देखना किसी सदमे जैसा था...वो जगह इतनी डिस्टर्बिंग थी कि जान दे देने का मन कर रहा था. हमारी गाइड ने अपना माइक बंद किया और पास आ कर मेरी पीठ सहलाई...पूछा कि मैं ठीक हूँ. मैं ठीक नहीं थी...मैं बहुत रोना चाहती थी...मैं किसी का हाथ पकड़ना चाहती थी...मगर खुद को संयत करने की कोशिश की. गाइड ने हमें बताया कि ये एक बेहद छोटा हिस्सा है...जिन लोगों को गैस चेम्बर्स में मारा जाता था उनके बाल उतार लिए जाते थे और जर्मनी भेजे जाते थे. वहाँ इन बालों से कपड़े बनाए जाते थे. वहाँ उस कपड़े से बना एक कोट और एक दरी मौजूद थी. 

मुझे नहीं मालूम युद्ध और उसकी मजबूरियां क्या होती हैं मगर ऐसा क्या होता होगा कि कोई मनुष्य मृत लोगों के बालों से बने कपड़े को पहनने को राजी हो जाता होगा. अगले कमरे में जूतों का संग्रह था...दायीं और पुरुषों और बायीं ओर महिलाओं के जूते थे. हमारी गाइड हमें बताती जा रही थी कि ये सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है उन चीज़ों का जो औस्वित्ज़ से बरामद हुए थे. आगे के कमरों में बक्से थे...जिनपर लोगों के नाम, उनके रहने का स्थान और कई बार कुछ धार्मिक चिन्ह भी बने हुए थे. एक कमरे में चश्मे के फ्रेम...जूते साफ़ करने के ब्रश और क्रीम...और आगे खाना पकाने के बर्तन थे. लोग चुप चाप सर झुकाए हुए इन चीज़ों को देखते चल रहे थे. बच्चों के दूध के डिब्बे, उनके बिब और बाकी सामान. टेबल पर जर्मन गार्ड द्वारा बनाये गए मृत लोगों की लिस्ट्स भी थी कि एक दिन में कितने लोग पहुंचे. 


जुविश लोगों को ये बोल कर यहाँ लाया गया था कि उन्हें यहाँ काम करना होगा और जर्मन उनके काम के लिए उन्हें पैसे भी देंगे. ऐसा कोई भी नहीं सोच सकता था कि जर्मन उन्हें सिर्फ मार देना चाहते हैं. ऊपर के फ्लोर पर उनकी वस्तुएं देखने के बाद हम बेसमेंट की ओर बढ़े. बेस्मेंट्स इन शिविर के जेलों का कार्य करते थे...अपराधियों को सजाएं यहाँ दी जाती थीं. नीचे की ओर जाती सीढ़ियों में एक मृत्युगंध बसी हुयी थी जो जैसे इतने सालों में भी डाइल्यूट नहीं हुयी है...उतनी ही सान्द्र जैसे अभी भी नीचे चीखते और धीरे धीरे मरते लोग मौजूद है. बेसमेंट में वैसे कमरे थे जिनमें लोगों को भूखा मारा जाता था. स्टारवेशन सेल्स...छोटे इन कमरों में कोई खिड़की नहीं थी और एक बार यहाँ किसी कैदी को बंद किया जाता था तो फिर कमरा उसकी मौत के बाद ही खुलता था. बेहद छोटे और सीलन से भरे इन कमरों में न हवा आती थी, न धूप न रौशनी.  

बेसमेंट में ही पहली बार जाय्क्लोन बी के एक्सपेरिमेंट भी हुए थे. बेसमेंट में पहली बार जाय्क्लोन बी गैस से कैदियों को मारा गया था...सही मात्रा का अनुमान करने में बहुत वक्त लगा था...शुरु के एक्सपेरिमेंट में लोगों को मरने में अक्सर बीस दिन तक लग जाते थे. (तथ्य मेरी याददाश्त पर है...इन्टरनेट पर अवधि २० घंटे बतायी गयी है). हायड्रोजेन साइनाइड के असर से लंग्स फूल जाते थे और इंसान सांस नहीं ले पाता था.

इनके साथ थे स्टैंडिंग सेल्स. लगभग डेढ़ मीटर बाय डेढ़ मीटर के ईटों के बने कमरे. फोन बूथ की तरह छोटे और बंद...उनमें प्रवेश करने के लिए लगभग दो फुट बाय दो फुट की का एक दरवाजा होता था नीचे की ओर. कैदी को इसमें बैठ कर घुसना होता था और फिर कमरे में खड़े होना होता था. ऐसे छोटे कमरे में अक्सर चार कैदी एक साथ बंद किये जाते थे. बेहद घुटन भरे इन ताबूतनुमा कमरों में कैदी जल्द ही मर जाते थे. दिन भर हाड़तोड़ मेहनत और रात को स्टैंडिंग सेल्स में खड़े रहना...अँधेरे में...बिना हवा के. एक तो बेसमेंट एरिया होने के कारण वैसे भी हवा का आवागमन नहीं रहता था उसपर बेहद संकरे गलियारों और कमरों से भरी जगह थी. अमानवीयता की हद बनाती इन सेल्स को देख कर वाकई मृत्यु ज्यादा आसान प्रतीत होती थी. वहाँ खड़े होकर सोच रही थी कि एक रेस से अगर नफरत है तो उसे गैस चेम्बर भेज कर मार देना फिर भी समझ आता है मगर क्रूरता के ऐसे कमरे बनाना...ऐसा किस मनुष्य के अंदर ख्याल आया होगा...क्यूँ आया होगा. उन सारे गलियारों में मौत आज भी दबे पांव घूमती दिखती है. मन के अंदर ऐसा भय तह लगाता जाता है कि उससे निकलने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रहती. 

दीवार जहाँ कैदियों को गोली मारी जाती थी 
औस्वित्ज़ में अलग अलग ब्लोक्स हैं...इसमें से एक ब्लोक है जहाँ पर जजमेंट होती थी...पोलिश लोग जो अलग अलग अपराध के लिए पकड़े जाते थे उनपर मुकदमा चलता था और अधिकतर केस में सजा एक ही होती थी...मौत. दीवार का एक हिस्सा है जिसकी ओर मुंह करके कैदी हो खड़ा होना होता था ताकि उसके सर में पीछे गोली मारी जाए. इसके आलावा लोगों को फाँसी देने के हुक भी वहीं मौजूद हैं. 

ब्लोक नंबर २१ इनका मेडिकल ब्लोक था जिसके यहाँ के कैदी स्टॉप टू एक्स्टर्मीनेशन कहते थे.बीमार कैदी जो यहाँ लाये जाते थे, वापस स्वस्थ होकर कभी अपने बैरक में नहीं लौटते थे बल्कि सीधे इन्सिनेरेटर में जाते थे. इन्सिनेरेटर मृत शरीर को जलाने के लिए गैस चेंबर में मौजूद होता था. यहाँ पर अनेक मेडिकल एक्सपेरिमेंट भी हुए. जर्मन डॉक्टर बेहद क्रूर और खतरनाक मेडिकल एक्सपेरिमेंट करते थे. इनमें से कुछ थे पेशेंट्स में गैंग्रीन  डाल देना...बच्चों की आँखों में केमिकल डाल कर देखना कि आँखों का रंग बदला जा सकता है कि नहीं...औरतों के यूट्रस में केमिकल डाल कर उन्हें सील करना. 

औस्वित्ज़ में एक गैस चेंबर भी था. गाइड ने इसके बारे में हमें बाहर ही जानकारी दे दी ताकि अंदर किसी को कोई सवाल न पूछना पड़े. वो एक छोटी सी ईमारत थी, एक तल्ले की जिसमें एक चिमनी दिख रही थी. अंदर गहरी काली दीवारें थीं और वही गंध...मौत की...दहशत की...सन्नाटा कैसे चीखता है ऐसी जगहों पर पता चलता है. वहाँ कोई कुछ नहीं कह रहा था मगर आवाज़ में कई साल पहले की चीखें मौजूद थीं...आवाजें कहीं नहीं जातीं...लोग कहीं नहीं जाते...वहीं ठहरे रहते हैं. गैस चेंबर में एक इन्सिनेरेटर भी था. मरे हुए लोगों को उसी में जलाया जाता था. 

मैंने बहुत पढ़ा था नाजी अत्याचारों के बारे में, ज्यूस की सिलसिलेवार हत्या के बारे में, होलोकॉस्ट और कोंसेंट्रेशन कैम्प के बारे में मगर कोई भी जानकारी उस भयावह अनुभव के लिए तैयार नहीं कर सकती थी. आखिर ऐसा क्या होता है कि इतने सारे लोग एक साथ अमानवीय बर्ताव करने लगते हैं. औस्वित्ज़ के उन ब्लोक्स में मौजूद खिड़की से दिखते एक टुकड़ा आसमान और दूर तक जाती कंटीली बाड़ों को देखते लोग क्या सोचते होंगे...वहाँ चलते हुए हर उम्मीद से भरोसा उठ जाता है...किसी धर्म में विश्वास नहीं रहता. जिंदगी...लोग...सूरज की रौशनी...जैसे जिंदगी से सब कुछ चला जाता है. साधारण सी दिखती इन लाल ईंट की इन इमारतों में कितनी रूहें कैद हैं. 

मैंने खुद को बेहद बेहद तनहा, असहाय और नाउम्मीद महसूस किया...जैसे जिंदगी में खुशी अब कभी नहीं लौटेगी. बारिशें शुरू हो गयीं थी. वहाँ से थोड़ी दूर पर बिर्केनाऊ था जहाँ पर मुख्य एक्स्टर्मीनेशन शिविर और गैस चेंबर थे. बस के सारे यात्री वापस आ के बैठ गए. कहीं कोई कुछ बात नहीं कर रहा था...सब चुप थे...उदास...अपने में अकेले...मौत की परछाई बादलों सी सियाह थी. 

23 July, 2012

वक्त कम है...मुहब्बत ज्यादा

'कवितायें पढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं मिल रही'
'और मुझे?'
'तुम्हें पढ़ने के लिए तो एक लम्हा काफी होगा'
'तो?'
'तो, क्या?'
'कब आ रही हो मुझसे मिलने?'
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लड़की हाथ में उम्र की छोटी सी रेखा को ऊँगली से ट्रेस करती हुयी सोचती...कमबख्त जिंदगी इतनी छोटी क्यूँ है...रोज थोड़ी थोड़ी खींचती उम्र की रेखा को...सोचती शायद कुछ दिन...कुछ लम्हे और बढ़ जाएँ. कि जैसे किसी से बिछड़ते हुए उनका हाथ छूटे तो उसे तुरंत कोट की गर्म जेब में रख दिया जाए...उन हाथों की गर्मी फिर एकाकीपन के पूरे रास्ते साथ रहती है...कभी कभी तो पूरी जिंदगी भी. 
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जब वो बहुत छोटी सी थी...उसके नन्हे से हाथ की रेखाएं उभरनीं शुरू भी नहीं हुयी थीं कि एक बंजारे जिप्सी ने कह दिया था कि आपकी बच्ची बहुत कम साल जियेगी. घर में उस दिन जो कोहराम मचा उसके अलावा भी माँ बाप ने वाकई उसे इस तरह पाला था जैसे जाने कौन सा दिन आखिरी हो. उस पर दुःख की हलकी सी परछाई भी नहीं पड़ने दी थी...परीकथाओं की राजकुमारी जैसी पली बढ़ी थी वो. उसने तो क्लास में भी कॉज इफेक्ट नहीं पढ़ा था...न्यूटन के तीनो नियम उसे प्रैक्टिकली समझ नहीं आते थे. 
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उसे किसी से प्यार हो जाना था ये तो उस ओरेकल में नहीं दिखा था...लड़की को बस ये मालूम था कि उसकी  जिंदगी बहुत छोटी सी है...मगर किसी दिन क्लासिकल म्यूजिक सुनते हुए उसे लगता था कि वो किसी रौशनी जैसी चीज़ से पूरी भर गयी है और चाइनीज लैंटर्नस् की तरह हवा में फ्लोट करते हुए किसी अनजान देश की ओर निकल जायेगी. एक दिन कोलेज ट्रिप पर गयी हुयी थी जब उसने पहली बार उस कवि की कवितायें सुनीं. वो एक लैंग्वेज क्लब था जहाँ पिछले कई सालों से लोग मिलते थे और अपने अपने प्रान्त की कहानियां और कवितायें सुनाते थे...अंग्रेजी का ये क्लब उनके ट्रिप का हाईलाईट था. मंच पर हलकी रौशनी थी...कवि की रचनायें उसकी मातृभाषा में थीं...वो पहले मूल कविता पढ़ता और फिर उनके अनुवाद समझाता जाता. उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं थी...पर शायद अच्छी कवितायें किसी भाषा की मोहताज़ नहीं होतीं...उनका संसार व्यापक होता है. 
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उन्हें समझ नहीं आता कि वे एक दूसरे की भाषा सीख रहे थे या एक दूसरे को...अनगिन चिट्ठियां आतीं...वे एक दूसरे को अपने भाषा का सबसे खूबसूरत काव्य पढ़ने को देते...लोक संगीत की सीडीज बर्न करके भेजते...फिल्मों के लिए सब टाइटल्स लिखते...फ़ाइल बनाते और भेजते. कविता, संगीत, फिल्में...इसके अलावा नीला आसमान तो एक ही था. लड़की को तब तक मालूम नहीं था कि प्यार आम इंसानों के जीवन में भी बेतरह उलझनें पैदा कर देता है...फिर उसके पास तो वक्त भी कम था...वो कैसे जान पाती कि उसका कवि अब उसकी टूटी हिंदी की कच्ची कवितायें ठीक करके उसे वापस क्यूँ नहीं भेजता...क्यूँ उसके अनगिन खतों के चंद जवाब भी नहीं आते...क्यूँ इन्तेज़ार की चौदह चाँद रातें उसके नाम लिख दी गयी हैं...उसे समझ नहीं आता था कि प्यार सबके लिए अलग अलग रंग लेकर आता है. तकलीफ भी पहली बार हुयी थी...पहले तो उसे लगा कि उस बंजारे की भविष्यवाणी सच होने वाली है...वो वाकई मरने वाली है...फिर धीरे धीरे दिन बीते तो उसे लगा कि तकलीफ में होने से जिंदगी लंबी लगती है. चंद दिनों में ही उसे लगा कि उसने एक लंबी और भरपूर जिंदगी जी है. 
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एक छोटी सी जिंदगी में अफ़सोस के लिए जगह नहीं होती. उसे भारत जाना था...बस एक बार उस मिट्टी को छूने...उस हवा में सांस लेने...उस आसमान के नीचे एक लंबी ख्वाबों भरी नींद के लिए. उसकी हिंदी बहुत अच्छी हो गयी थी और उसके शहर में हिंदुस्तान से बहुत टूरिस्ट आते थे. उसने लोगों को हिंदी में टूर कराने का एक छोटा सा ग्रुप बनाया. शुरुआत के दिन से उसका एक भी दिन खाली नहीं जाता...हमेशा बहुत से लोग हो जाते हैं. टूर शुरू करने के पहले वो सबसे हाथ मिलाती है...कभी गले लगती है...और मुस्कुराते हुए कहानी सुनाती है...एक छोटी सी जिंदगी की...इस बड़े से शहर में.

यूरोप की बेतरह खूबसूरत इमारतों के बारे में बताते हुए उसकी नीली आँखों में कभी कभी कोई आवारा सफ़ेद बादल चुभ जाता था...फिर बिन मौसम बरसातों को उसके स्कार्फ का रेशमी बाँध थाम लेता था...कल तनहा डेन्यूब नदी के किनारे बैठ कर तीसरी कसम का गाना सुना रही थी लोगों को...दुनिया बनाने वाले...कहानी के बीच में पूछती है...अनजान लोगों से...हैव यू एवर बीन इन लव...डज इट एवर फेड अवे?
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बारिश में इन्द्रधनुष के रंग ही तो बरसते हैं...वरना तो सब फीका ही रहता धरती पर...वैसे ही...प्यार जिंदगी में घुलता है और खुशबू के रंग से पेंट करता है...फिर आँखों में मुस्कराहट की सफ़ेद रौशनी चमकती है...पहले प्यार सी मासूम...पहले प्यार सी सदाबहार...और पहले प्यार सी पहली. 

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