19 November, 2011

जिंदगी, आई लव यू!

बंगलौर में सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं...यहाँ के साढ़े तीन साल में ये पहले बार है जब मौसम वाकई ठंढा सा हो रहा है. अख़बारों में भी आया है कि इस बार बंगलोर हर बार से थोड़ा ज्यादा ठंढा है. प्यार के बारे में मेरे अनगिनत थ्योरम में एक ये भी है कि 'Winter is the season to fall in love'. ठंढ का मौसम प्यार करने के लिए ही होता है.

सोचिये अच्छा सा कोहरा पड़ रहा हो, आप एकदम अच्छे से जैकेट, टोपी, दस्ताने, जींस और अच्छे वाले जूते पहन कर सड़क पर चल रहे हों...कोई गाना बज रहा हो बैकग्राउंड में...मन में या फिर हेडफोन्स में...कोई भी...जैसे कि मान लीजिये आजकल हमको ताज़ा ताज़ा कर्ट कोबेन से प्यार हुआ है तो दिन भर निर्वाणा के गाने सुनती रहती हूँ. तो मान लीजिये कि दिल्ली(हाय दिलरुबा दिल्ली, ठंढी आह भर लूँ!) की सड़कें हैं और गीत के बोल कुछ ऐसे हैं 'Come as you are' तो आपका दिल नहीं करेगा कि आपके हाथों को दस्तानों में नहीं किसी नर्म नाज़ुक लड़की के हाथों में होना चाहिए...फिर गर्म कॉफ़ी के कप के इर्द गिर्द उँगलियाँ लपेट कर आप किन्ही खाली रास्तों पर टहलते रहते...बोलते तो मुंह से भाप निकलती और ठंढ की गहरी रातों की ख़ामोशी में उसकी हंसी कुछ ऐसे खनकती कि आपको मालूम भी नहीं चलता कि आपको उससे प्यार हो रहा है...और जब तक आपको ये डर लगता कि शायद आपको उससे प्यार हो जाएगा, आपको आलरेडी प्यार हो चुका होता. फिर कभी उसे ज्यादा ठंढ लगती तो कंधे पर हाथ रखते और उसे थोड़ा अपने करीब खींच लाते...And on one of these days while sauntering on lonesome roads you could whisper 'I love you' in her ear ever so lightly that the poor girl might be totally confused...कि आपने वाकई उसे 'आई लव यू' कहा है or the wind is playing tricks with her mind.

मेरे तरफ कहते थे कि जाड़ों का वक़्त अच्छा खाना खाने का होता है...तो जाड़ों में मस्त पकोड़े खाइए, सड़क किनारे ठेले से मैगी या चाउमीन या फिर वो बांस की टोकरियों में बने मोमो खाइए...गर्म भाप उठती हो तभी फटाफट खा लेना पड़ेगा क्यूंकि ठंढी हो जाने पर इनका मज़ा नहीं आता. आपको कभी न कभी तो आइसक्रीम से प्यार हुआ होगा...न हुआ हो तो अब कर लीजिये कौन सी देर हो गयी है. जाड़ों में आइसक्रीम पिघलती भी देर से है तो लुत्फ़ उठा कर खायी जा सकती है, प्यार अगर ज्यादा उमड़ रहा हो तो बाँट के भी खायी जा सकती है...पर प्लीज किसी लड़की से उसके हिस्से की आइसक्रीम मत मांगिएगा...हम लड़कियां शेयर करने में थोड़ी कंजूस होती हैं. हाँ जिंदगी में कुछ नए रंग ट्राय करने हैं तो बर्फ का गोला खाइए...काला खट्टा गोला. थोड़ा खट्टा, थोड़ा मीठा रस में डूबा हुआ...प्यार की तरह. प्यार उस सफ़ेद बर्फ के चूरे की तरह होता है, उसे थोड़ी थोड़ी देर में जिंदगी के रंग बिरंगे अनुभवों में डुबाना पड़ता है...तब ही साथ रहना जादू सा होता है.

 ओह प्यार! मैं कितना भी लिख लूँ, मेरे पास लिखने को चीज़ें कभी ख़त्म नहीं होतीं...मेरे अन्दर के कवि को हमेशा किसी न किसी से प्यार हुआ रहता है...आप प्यार में होते हो तो खुश होते हो. कभी कर्ट से प्यार हो गया तो दिन भर उसके गाने सुन रही हूँ...उसकी आँखों में देख रही हूँ और बेतरह उदास हो रही हूँ कि वो इस दुनिया में नहीं है वरना एक बेहद खूबसूरत चिट्ठी उसके नाम भी लिखती...डूब के...कभी किसी पेंटर के रंगों पर मर मिटे कि कैनवास में जिंदगी नज़र आने लगी. वैन गोग के बारे में कहते हैं कि वो ऐसे पेंट करते थे जैसी चीज़ें उन्हें दिखती थीं...अपने समय में वो भी गरीब रहे, उदास रहे और जीते जी सफलता नहीं देखी. मॉने की पेंटिंग के धुंधले रंग जाड़ों की सुबहें जैसी लगेंगी. दुनिया में कितना कुछ है प्यार हो जाने को.

मुझे जब भी कुछ नया मिलता है तो एक बार प्यार हो जाता है...कभी कवि से, कभी चित्रकार से, कभी गिटार से...किसी की आँखों से, कभी रूह में घुलती आवाज़ से...फिर ' La vie en rose' या कि दुनिया गुलाबी चश्मे से दिखती है...खूबसूरत, बेइन्तहा. दिल टूटता भी है...सब बिखरने सा बिखर जाता है पर फिर कलम टाँके लगा देती है और मैं फिर प्यार करने, टूटने और फिर प्यार में गिरने को तैयार हो जाती हूँ.

A poet is continually in love.

नवम्बर आखिरी चल रहा है...आज सोच रही हूँ लम्बी ड्राइव पर जाऊं, मैसूर रोड पर वाले कॉफ़ी डे में गरम कॉफ़ी...ब्राउनी विद चोकलेट सौस...रात को डिनर में कुछ अच्छा खाना बनाऊं...और फाइनली रॉकस्टार देख लूँ.

मेरी जिंदगी के खास लोगों के लिए ये फुटनोट...बस मुझे याद रहे इसलिए...प्यारे आकाश को उसके जन्मदिन पर मेरा ढेर सारा आशीर्वाद...और ढेर सी खुशियों की दुआएं...तुम मेरे सबसे सबसे फेवरिट हो.

And a shout out to Anupam Giri...You are superawesome...THANKS A TON Sir!!!

La vie, Je t'aime!

17 November, 2011

कैन यू हीयर मी?


तुम्हारे लिए कितना आसान है यूँ खुली किताब की तरह मुझे पढ़ लेना, वो भी तब जब मुझे न झूठ बोलना आता है न तुमसे कुछ भी छिपा सकती हूँ कभी. तुमने जब जो पूछा हमेशा सच बोल गयी बिना सोचे कि सच के भी अपने सलीब होते हैं जिनपर दिन भर तिल तिल मरना होता है.

मैं तो इसी में खुश थी कि तुमसे प्यार करती हूँ, कब तुमसे कुछ माँगा जो तुम मुझसे पूछने लगे कि किस हक से मैं तुमसे सवाल कर रही हूँ. मेरा कौन सा हक है तुमपर. कभी भी कब रहा था. बस ये ही ना पूछा था कि ऐसे तुम सभी को पढ़ लेते हो या ख़ास मुझे पढ़ पाते हो. तुम एक सवाल का भी सीधा जवाब नहीं होगे, दिप्लोमटिक वहां भी हो जाते हो 'चाहूँ तो पढ़ सकता हूँ'. इससे बेहतर तो जवाब ही नहीं देते तुम.

ऐसे कैसे नरम, मासूम से ख्वाब थे कि सुनकर आँखें रोना बंद ही नहीं करतीं...दिल रो रहा है ऐसे कि लगता है मर जाउंगी. प्यार हमेशा ऐसा डर लेकर क्यूँ आता है कि लगता है गहरे पानी में डूब रही हूँ. सांस सीने में अटकी हुयी है. लोग माने न पाने प्यार का फिजिकल इफेक्ट होता है, आखिर पूरी दुनिया में किसी को भी प्यार होता है तो सबको ऐसा ही लगता है न कि जैसे सांस अटकी हुयी है सीने में. न खाना खा पा रही हूँ न किसी काम में मन लग रहा है. कॉपीचेक के लिए किताब कब से रखी हुयी है, इग्नोर मोड में डाल रखा है.


हाँ मेरा दिल करता है कि दोनों हाथों में एक बार तुम्हारा चेहरा लेकर देखूं कि तुम्हारी आँखों का रंग वाकई कैसा है. तुम्हें देखे इतने दिन हो गए कि तुम्हारा चेहरा याद में धुंधलाने लगा है...और तुम कहते हो कि तुमसे कभी न मिलूं...यूँ जैसे कि तुम बगल वाली बालकनी में रहते हो और हम रोज शाम अपने चाय और कॉफ़ी के कप उठा कर चियर्स करते हैं. बात तो यूँ करते हो जैसे दिल्ली बंगलोर में दूरी ही न हो, जैसे मैं जब चाहूँ ट्रांसपोर्ट होकर तुम्हारे ऑफिस के बाहर छोले कुलचे वाली साइकिल के पास तुम्हारा इंतज़ार कर सकती हूँ.

मुझे कभी भी प्यार हुआ तो मैंने छुपाया नहीं था...कोई कारण होगा न कि सिर्फ तुम एक्सेप्शन थे इस रूल के...कल जाने क्या मिल गया तुम्हें मेरे मुंह से कुबूल करवा के...हाँ मैं करती हूँ तुमसे प्यार...अब मैं क्या करूँ...अब मैं क्या करूँ. ये शाम जैसे हवा ज्यादा डेंस हो गयी है और सांस नहीं ली जा रही है, तुमसे बात करने का मन कर रहा है. पागल हो रही हूँ धीरे धीरे...उठा के फ़ेंक दो वो सारी चिट्ठियां कि जिनसे तुमने चीट questions बना लिए मुझे समझने के लिए.

तुम्हें लगा है कभी. डर. ऐसा. क्या करते हो ऐसे में? तुम्हारी आवाज़ के सिक्के ढलवा लूँ? जब दिल करे मुट्ठी में भर के खनखना लूँ. दिल करता है कहीं बहुत बहुत तेज़ बाईक चलाऊं और किसी दूर झील के किनारे जब कोई भी न देखे...जी भर के चिल्ला लूँ...आई लव यू...आई लव यू...कैन यू हियर मी?

12 November, 2011

बाल्टी भर पानी की कहानी

बहुत साल पहले घर में कुआँ होता था...पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लो. घर में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक गुहाल में होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के लिए, गाय के सानी पानी के लिए और जो थोड़ा बहुत सब्जी लगाया गया है उसमें पानी पटाने के लिए. मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.

कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी. पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था. बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी. उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है. इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे. मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी...मैं वहां भी खोयी हुयी सी कुएं में झुक कर देखने लगी थी कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है. उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा. जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे. सोचे ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से. फिर तो मैं और दीदी(जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची. एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय...बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना...उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है...रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें. हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें. उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है. कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही...कभी घर जाउंगी तो वहां से फोटो खींच कर लेती आउंगी. एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे...उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था...एक से सबका काम चल जाता था. अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे. वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे बबलू दा, उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था. मेरे पापा तो कभी घर पर बाथरूम में नहाते ही नहीं थे...हमेशा कुएं पर...भर भर बाल्टी नहाए भी, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के. हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे...या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी. हाँ अब मैं बड़ी दीदी हो गयी हूँ तो अब मैं भी सिखाती हूँ कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

जब पटना में रहने आये तो कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है...हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही...हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा. उस वक़्त हम कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ. नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में...बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे दीदी सुनाती थी कि कैसे वो गिर गयी, फिर कैसे बाहर निकली और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे. दीदी जब गिरी थी तो बरसात आई हुयी थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था...तो लोटे से पानी निकलते टाइम दीदी गिर गयी...कुआँ के आसपास पिच्छड़(फिसलन) था तो पैसे फिसला और सट्ट से कुएं में. फिर एक बार मूड़ी(सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पायी, दोबारा भी नहीं पकड़ पायी, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली दीदी और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गयी. फिर बाहर बैठ के रो रही थी. भैय्या गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुयी है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

कितना थ्रिल था...कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था...गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमहुआ आम का खट्टा मीठा स्वाद. जिसको जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये :)

09 November, 2011

सियाही

निब का आगे का नुकीला हिस्सा टूटता है और धारदार स्टील उसकी ऊँगली में धंस जाता है. बेहद तेजी से खून बहता है और लड़की अचंभित सी गहरे लाल रंग के खून में मिलती काली स्याही देखती रह जाती है. सफ़ेद कागज़ पर एक तरफ से खून की धारा बहती है और दूसरी तरफ काली सियाही की...दोनों मिलकर  ऐबस्ट्राक्ट सा कुछ रच रहे हैं...अमूर्त जिसमें देखो तो सब कुछ दिख जाए. लड़की गहरी उसांस लेती है जैसे खुद को समझा रही हो कि ये तो होना ही था एक दिन. तुम्हें भी पता था, मुझे भी. सादे कागज़ पर अब बहुत सारी कहानियां रची जा चुकी हैं पर लड़की जैसे स्लो मोशन में स्टेच्यु हो गयी है. देख रही है...खून बह रहा है, दर्द हो रहा है, स्याही गिर रही है, टेबल पर बिखर रही है...उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा. ऊँगली में निब धंसा हुआ है, गहरे.
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उसकी आँखें काली थीं...एकदम गहरी, रात की तरह...उसे जान पाना बहुत मुश्किल था. ब्लैक होल में से रौशनी भी बाहर नहीं आती. उसकी आँखें सब कुछ सोख लेती थीं, पर वापस कुछ नहीं करतीं. शायद उन्होंने स्वार्थी होना दुनिया से सीखा हो...लड़कों से भी सीख सकती हैं...बुराइयाँ बहुत तेजी से फैलती हैं. (स्याही भी तो गिर रही है, पैरेरल स्टोरी में जहाँ लड़की खिड़की किनारे वाली टेबल पर धूप में अमूर्त में आकार ढूंढ रही है).
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उसके पास दुनिया भर की तन्हाई थी...जैसे दवात को अक्षयपात्र होने का वरदान मिला हो. कलम, निब, स्याही और सफ़ेद कागज़...इतने भर दुनिया थी उसकी. उसके पात्र पैदा होते और पन्नों में ही मर जाते...वो स्टेच्यु ही बनी रहती. जब पहला अबोर्शन कराया था कितना खून बहा था...और दर्द...दर्द तो पन्नों से उभर आता है. उसकी चीखों जैसा जो कि मुंह पर हाथ रखने से बंद नहीं होतीं थी, न कमरे का दरवाजा बंद करने से. यकीन करना कहाँ मुमकिन था कि इस शताब्दी में भी लड़कियों को जन्म लेने की इजाजत नहीं थी. या शायद यकीन करना बहुत आसान था...समाज के कुछ सियाह हिस्से उसके हिस्से में नहीं आये थे कभी. उसके हिस्से बस खुला आसमान था और सादे कागज़. आज उसे देर रात तक रोना था...बिलख बिलख कर उस बेटी के लिए जिसकी रक्षा नहीं कर पायी वो.
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उसे बहुत से सवालों का जवाब देना था जिसमें प्रमुख ये था कि वो कलमुंही सिर्फ बेटियां क्यूँ पैदा करना चाहती है...ये सवाल सिर्फ उसकी सास ही नहीं उसके पन्नो से उभर कर किरदार भी पूछते थे. वो इतनी बेबस हो जाती कि किरदारों का गला घोंट देती, कुछ को खाने में जहर मिला के मार देती और कुछ किरदार उसे इतना तड़पाते कि वो इंतज़ार करती और उनके बेटों के हिस्से में उम्र भर का अकेलापन लिख देती...ये अभिशप्त बेटे थे जिन्हें कभी उनका प्यार नहीं मिला...वो किसी लड़की की एक नज़र के लिए तरस तरस कर मर जाते थे. उसकी कहानियां दिन चढ़ते वीभत्स होती जा रहीं थी...जैसे उसके पाँव भारी होते किसी किरदार की जिंदगी में भयानक उथल पुथल मच जाती. वो किरदार जो उसकी खुली हंसी और खिली धूप में जीते थे उनकी जिंदगी में कभी सुनामी आता कभी भूचाल...और मरना...वो तो नियति बनती जा रही थी. 
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नियति के खेल अनोखे होते हैं...सास ने पता लगते ही उसका खास ख्याल रखना शुरू कर दिया था...इस बार खानदान का चिराग आने वाला था घर में. आखिर उसका वंश आगे बेटे से ही तो बढेगा...लड़की राजरानी की तरह रहती थी, खुली खिड़की में धूप तापती थी, सबको लगा था कि इस बार उसकी आँखों में कोई रौशनी की किरण चमकेगी. 
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ऊँगली में निब धंसा हुआ था...गहरे...और बहुत देर धंसा रहा...बहुत देर खून बहने के कारण लड़की टेबल पर बेहोश हो गयी...होश आया तो उसने खुद को अस्पताल में पाया...मोनिटर पर सिर्फ एक ही दिल की धड़कन सुनाई पड़ रही थी...बेड के इर्द गिर्द मुखोटा लगाये किरदार खड़े थे, पति, सास, ननद और पूरा कुनबा...उसे समझ नहीं आया कि उनके दुःख का कारण उसका जिन्दा बचना है या घर के चिराग का बुझ जाना. लड़की पागलों की तरह हंस उठी और इतनी देर हंसती रही कि उसे सेडेट करना पड़ा...ऑपरेशन के टाँके खुल गए और इन्टरनल ब्लीडिंग के कारण डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए. 
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लड़की के पति की दूसरी शादी करा दी गयी...हफ्ते भर में ही नयी दुल्हन ने चीख चीख कर पूरे मोहल्ले को बता दिया कि उसका पति 'नामर्द' है. 

02 November, 2011

बारिशों से, बारिशों में लिखे खत

इकतरफा प्यार भी इकतरफे खतों की तरह होता है...किसी लेखक की बेहद खूबसूरत कवितायें पढ़ कर हो जाने वाले मासूम प्यार जैसा. किसी नाज़ुक लड़की के नर्म हाथों से लिखे मुलायम, खुशबूदार ख़त जब किसी लेखक तक पहुँचते हैं तो उसे कैसा लगता होगा? घुमावदार लेखनी में क्या लड़की के चेहरे का कटीलापन नज़र आता है? क्या सियाही के रंग से पता चलता है की उसकी आँखें कैसी है? काली, नीली या हरी.

हाथ के लिखे खतों में जिंदगी होती है...लड़की को मालूम भी नहीं होता की कब उसके दुपट्टे का एक धागा साथ चला गया है ख़त के तो कभी पुलाव बनाते हुए इलायची की खुशबू. लेखक सोचता की लड़की कभी अपना पता तो लिखती की जवाब देता उसे...कि कैसे उसके ख़त रातों की रौशनी बन जाते हैं. पर लड़की बड़ी शर्मीली थी, दुनिया का लिहाज करती थी...घर की इज्ज़त का ध्यान रखती थी...और आप तो जानते ही हैं कि जिन लड़कियों के ख़त आते है उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. 

तो हम बात कर रहे थे इकतरफी मुहब्बत की...या कि इकतरफी चिट्ठियों की भी. ऐसी चिट्ठी लिखना खुदा के साथ बात करने जैसा होता है...वो कभी सीधा जवाब नहीं देता. आप बस इसी में खुश हो जाते हैं कि आपकी चिट्ठियां उस तक पहुँच रही हैं...कभी जो आपको पक्का पता चल जाए कि खुदा आपके ख़त यानि कि दुआएं सच में खोल के पढ़ता है तो आप इतने परेशान हो जायेंगे कि अगली दुआ मांगने के पहले सोचेंगे. गोया कि जैसे आपने पिछली शाम बस इतना माँगा था कि वो गहरी काली आँखों वाली लड़की एक बार बस आँख उठा कर आपकी सलामी का जवाब दे दे. आप जानते कि दुआ कबूल होने वाली है तो खुदा से ये न पूछ लेते कि लड़की से आगे बात कैसे की जाए...भरी बारिश...टपकती दुकान की छत के नीचे अचकचाए खड़ा तो नहीं रहना पड़ता...और लड़की भी बिना छतरी के भीगते घर को न निकलती. न ये क़यामत होती न आपको उससे प्यार होता. आप तो बस एक बार नज़र उठा कर 'वालेकुम अस्सलाम' से ही खुश थे. 

यूँ कि बारिशों में किसी ख़ास का नाम न घुला तो तब भी तो बारिशें खूबसूरत होती हैं...अबकी बारिश में यादें यूँ घुल गयीं कि हर शख्स उसके रंग में रंग नज़र आता है. जिधर नज़र फेरें कहीं उसकी आँखें, कहीं भीगी जुल्फें तो कहीं उसी भीगी मेहंदी दुपट्टे का रंग नज़र आता है. हाय मुहब्बत भी क्या क्या खेल किया करती है आशिकों से! घर पर बिरयानी बन रही है और मन जोगी हो चला है, लेखक अब शायर हो ही जाए शायद, यूँ भी उसके चाहने वाले कब से मिन्नत कर रहे हैं उर्दू की चाशनी जुबान में लिखने को. कब सुनी है लेखक ने उनकी बात भला कितने को किस्से लिए चलता है अपने संग, हसीं ठहाके, दर्द, तन्हाई, मुफलिसी, जलालत...लय के लिए फुर्सत कहाँ लेखक की जिंदगी में. 

कौन यकीन करे कि लेखक साहब आजकल बारिश में ताल ढूंढ लेते हैं, मीटर बिना सेट किये सब बंध जाता है कि जैसे जिंदगी खातून की आँखों में बंध गयी है. आजकल लेखक ने खुदा को बैरंग चिट्ठियां भेजनी शुरू कर दी हैं...पहले तो सारे वादे दुआ कबूल होने के पहले पूरे कर दिए जाते थे...पर आजकल लेखक ने उधारी खाता भी शुरू करवा लिया है खुदा के यहाँ. दुआएं क़ुबूल होती जा रहीं हैं और खुदा मेहरबान. 

कुछ रिश्ते एक तरफ से ही पूरी शिद्दत से निभाए जा सकते हैं. जहाँ दूसरी तरफ से जवाब आने लगे, खतों की खुशबू ख़त्म हो जाती है. वो नर्म, नाज़ुक हाथों वाली लड़की याद तो है आपको, जो लेखक को ख़त लिखा करती थी? जी...जैसा कि आपने सोचा...और खुदा ने चाहा...लेखक को अनजाने उसी से प्यार हुआ. दोनों ने एक दुसरे को क़ुबूल कर लिया. 

मियां बीवी भला एक दुसरे को ख़त लिखते हैं कभी? नहीं न...तो बस एक खूबसूरत सिलसिले का अंत हो गया. तभी न कहती हूँ...सबसे खूबसूरत प्रेम कहानियां वो होती हैं जहाँ लोग बिछड़ जाते हैं. 

आप किसी को ख़त लिखते हैं तो उनमें अपना नाम कभी न लिखा कीजिए.

31 October, 2011

रा.वन (RA.ONE) एक बार देखने लायक फिल्म है

इस शनिवार मैंने रा.वन देखी. कुछ कारणों से दिन का शो नहीं जा पाए तो लेट नाईट नौ से बारह का थ्री डी शो देखने गए...कुछ दोस्तों के साथ. बंगलौर में फेम शंकरनाग मुझे खास तौर से पसंद है क्यूंकि इसमें बहुत ही बड़ा पर्दा है. थ्री डी फिल्म के चश्मे इस बार बाकी सभी थ्री डी फिल्मों से बेहतर मिले और पहनने में बिलकुल आरामदायक थे. 

फिल्म को काफी नेगेटिव रिव्यू मिले हैं...जाने के पहले कुछ मित्रों ने भी नहीं देखने की सलाह दी...मगर हमने ख़राब से ख़राब फिल्म थियेटर में देखी है, फिल्म देखना हम अपना फ़र्ज़ समझते हैं. थोड़ी सी भी गुंजाईश लगती है तो हम जरूर जाते हैं. मुझे लगा कि इस फिल्म को लेकर मेरा नजरिया यहाँ जरूरी है. 

पहले फिल्म का नकारात्मक पक्ष, क्यूंकि मेरे हिसाब से काफी कम है. रा.वन का सबसे बड़ा विरोधाभास है इसके दर्शक वर्ग का चुनाव. फिल्म बच्चों के लिए बनाई गयी है...मगर कई जगह बेहद अश्लील है. हिंदी फिल्मों में आजकल द्विअर्थी डायलोग आम बन गए हैं पर चूँकि ये फिल्म बच्चों पर केन्द्रित है ऐसे सीन या डायलोग इस फिल्म में नहीं होने चाहिए थे. किसी भी परिवार को फिल्म देखने में आपत्ति हो सकती है. कुंजम की जगह कंडोम का प्रयोग या फिर शारीरिक हावभाव जबरदस्ती ठूंसे गए लगते हैं. फिल्म अपने मकसद में एक छोटी भूल से चूक जाती है. अगर आप इसे इग्नोर कर सकते हैं तो आगे पढ़ें...और आगे फिल्म भी देखें. 

दूसरा नकारात्मक पक्ष paairecy या फिर नक़ल कह सकते हैं...जैसे रा.वन का हार्ट सीधे आयरन मैन फिल्म से उड़ाया गया है. चंद छोटे टुकड़ों में और भी चीज़ें इधर उधर से ली गयी हैं...मैं इसे भी इग्नोर करने के मूड में हूँ...क्यूंकि कमसे कम कहानी का आइडिया असली है.

फिल्म की सबसे अच्छी चीज लगी इसका मूल कांसेप्ट या अवधारणा जिसके इर्द गिर्द कहानी घूमती है- कि सच की हमेशा जीत होती है और इस चीज़ को ऐसे दिखाना कि बीइंग गुड इज आल्सो 'कूल'. हमारे आज के बच्चे वाकई फिल्म के प्रतीक की तरह हैं, उन्हें लगता है कि अच्छा होने से क्या मिलता है. बुरे लोग ज्यादा सफल होते हैं. ऐसे में ऐसे 'अच्छे' के मूल विषय पर फिल्म बनाना हिम्मत की बात है और इस लिए मैं शाहरुख़ खान को बधाई देती हूँ कि उसने ऐसा विषय चुना. ऐसे में लगता है कि काश फिल्म में जबरदस्ती के अश्लील डाइलोग नहीं होते तो फिल्म बहुत ही ज्यादा बेहतरीन होती. 

रा.वन और भी कई जगह अच्छी लगी है. जैसे स्मोकिंग के बारे में स्क्रिप्ट में मिले हुए डायलोग. एक जगह जब छत पर जी.वन और प्रतीक बातें कर रहे हैं तो जी.वन पहली बार सिगरेट पीता है...और प्रतीक से कहता है 'तुम्हें पता है हर साल २० प्रतिशत(या ऐसा ही कुछ, ठीक से याद नहीं है मुझे) लोग सिगरेट हमेशा के लिए छोड़ देते हैं' तो इसपर प्रतीक पूछता है कि कैसे तो जी.वन जवाब देता है 'कि वो लोग मर जाते हैं'. स्मोकिंग के लिए सिर्फ एक लाइन की खानापूर्ति से बढ़ कर इस फिल्म में ऐसे एक दो और जगह पर बताया गया है कि सिगरेट अच्छी नहीं है. 

फिल्म हिंदी में बनी पहली थ्री डी फिल्म है, सिर्फ इसी एक कारण के लिए फिल्म देखने जाना जरूरी है. हिंदी को जब तक नयी तकनीक, नए दर्शक नहीं मिलेंगे पुराने लोगों के साथ ही भाषा ख़त्म हो जायेगी. आपने आखिरी कौन सी हिंदी फिल्म देखी थी जो आपके बच्चों को अच्छी लगी थी? इस फिल्म को देखने का सबसे अच्छा कारण है इसके थ्री डी इफेक्ट. आजतक किसी हिंदी फिल्म में इस तरह के इफेक्ट नहीं देखने को मिले हैं. लगभग उतने ही अच्छे शोट्स हैं जैसे हॉलीवुड/अंग्रेजी फिल्मों में होते हैं. हिंदी फिल्म में ऐसी तकनीकी उत्कृष्टता देख कर वाकई गर्व महसूस होता है. मुझे बेहद अच्छा लगा इसका तकनीकी पक्ष. चाहे फाईट सीन हों या गेम का थ्री डी माहौल, फिल्म हर जगह खरी उतरती है. खास तौर से विक्टोरिया टर्मिनस के टूटने का शोट भव्य है. सिनेमाटोग्राफी बेहद अच्छी है, लन्दन की खूबसूरती हो या डांस के स्टेप्स...सब कुछ एकदम रियल लगता है. 

हमारे बच्चे हिंदी फिल्में नहीं देखते...हिंदी फिल्में इस लायक होती ही नहीं कि बच्चे देख सकें. रा.वन में भी कुछ गलतियाँ है जिसके कारण मैं इसे पूरी तरह सही नहीं कहूँगी...पर ये कमसे कम एक शुरुआत तो है. इसे पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता. 

किसी चीज़ में बुराइयाँ देखना बहुत आसान है...पर अच्छाइयों पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाए...फिल्म यही कहने की कोशिश करती है. एक बार फिल्म को खुले दिमाग से मौका दीजिये...रा.वन इतनी बुरी नहीं है कि आप देख न सकें. फिल्म में एक अच्छी कहानी है, अच्छे स्टार हैं जो अभिनय करते हैं. चाहे हमारा सुपरहीरो जी.वन हो या प्रतीक. एक आखिरी बात और...१०० करोड़ रुपये लगा कर हिंदी की सबसे महँगी फिल्म बनी थी 'ब्लू' अगर आपने देखी है तो आपको ये १५० करोड़ रुपये बिलकुल सही जगह खर्च किये हुए लगेंगे. 

मेरी तरफ से फिल्म को ४ स्टार(पांच में से)...एक अच्छी मसाला, टाईमपास, सुपर एफ्फेक्ट्स वाली सुपरहीरो वाली बोलीवुड फिल्म. 

फुटनोट: इससे पहले कि कोई पूछ ले...शाहरुख़ खान ने इस रिव्यू को लिखने के लिए मुझे कोई पैसे नहीं दिए हैं 

27 October, 2011

वो सारे शब्द तुम्हारे हैं

लिखना,
कागजों के ख़त्म हो जाने तक
आत्मा के उजालों को
जिस्म की सियाही में डुबो कर

चुप आँखों को ज़बान देना
मौन को कलम के चलने का शोर
लड़ना शब्दों से

लिखना अतीत के लिए
ताकि वो याद रख सके
कलम से घायल होने का स्वाद
.
वो सारे शब्द तुम्हारे हैं
जो युद्ध में शहीद नहीं हुए
तुम्हें उगानी हैं मुस्कानें

तुम्हें जिन्दा रखना है प्रेम
मौत की वादियों तक
मुट्ठी में भिंचे प्रेमपत्र की तरह

लिखना,
रद्दी कागजों पर
उलटे लिफाफों पर
नर्म ख्वाबों पर

लिखना...क्यूंकि
लिखना और जीना
अलग नहीं हैं.

24 October, 2011

लिखना...

इधर कुछ दिनों से फाउन्टेन पेन से लिख रही हूँ. कहानियां, डायरी, चिट्ठियां...कुछ से कुछ, हर दिन लगभग. आज सुबह अख़बार पढ़ने के बाद कुछ लिखने बैठी थी. आजकल एक सवाल अक्सर परेशां कर रहा था मुझे...सवाल ये कि लिख कर भी चैन क्यूँकर नहीं मिलता. मेरे लिए लिखना हमेशा से अपने तनाव, दर्द, घुटन या किसी भी नकारात्मक विचार से मुक्ति पाना रहा है. इधर जब यंत्रणा हद से बढ़ जाती तो कोई रास्ता ही नहीं मिलता. शांति नहीं मिल रही थी...मन में असंख्य लहरें उठ रही थीं और समंदर पर सर पटक के जान दे देती थीं.

आज सुबह एक अद्भुत चीज़ हुयी. उठी तो मन बहुत व्यथित था, कारण ज्ञात नहीं, शायद कोई बुरा सपना देखा होगा या ऐसा ही कुछ...मैंने लिखना शुरू किया, मन में कुछ खास था नहीं. जो था लिखती गयी...जब तीसरे पन्ने पर पहुंची तो अचानक इस बात पर ध्यान गया कि मेरी सांसें धीमी चल रहीं थी और मन एकदम शांत हो गया था. पहले जैसा उद्वेलन नहीं था...खिड़की से सूरज की किरनें अन्दर गिर रहीं थी और सब कुछ अच्छा था. एक लम्हा जैसे जब ठहर गया था. ये वैसा ही था जैसे बहुत पहले हुआ करता था...लिखने पर मन का शांत हो जाना. 

कीबोर्ड पर लिखना और फाउन्टेन पेन से लिखने का अंतर तब समझ आया...सोच रही हूँ आपसे भी बाँट लूँ. कीबोर्ड पर लिखने की गति बेहद तेज़ होती है...लगभग सोचने की गति इतनी ही या उससे थोड़ी कम. मैं यहाँ अपनी बात कर रही हूँ...जितनी देर में एक वाक्य या एक सोच उभरती है उसी गति से हम उसे लिख पाते हैं. तो अगर मन अशांत है तो कई विचार आयेंगे और आप लगभग उन सभी विचारों को लिख पायेंगे बिना मनन किये. ये वैसे ही होता है जैसे बिना सोचे बोलना...जैसा कि मैं अक्सर करती हूँ...ठेठ हिंदी में कहें तो इसे 'जो मन में आये बकना'. ब्लॉग लिखना मेरे लिए अक्सर ऐसा ही है. अक्सर पोस्ट्स यूँ ही लिखती हूँ...और पिछले कुछ सालों से कागज़ पर लिखना बहुत कम हो गया है. मैं यहाँ निजी लेखन की बात कर रही हूँ...ब्लॉग होने के बाद से डायरी में लिखना, या कहीं लिखना कम हो गया था. बंद नहीं पर नाम मात्र को ही था. 

कुछ दिन पहले एक बेहद खूबसूरत फाउन्टेन पेन ख़रीदा था. कुछ दिन बाद कैटरिज मिल गए जिससे कलम में इंक भरने की समस्या न निदान हो गया. ये पेन बहुत ही अच्छा लिखता है. मैंने कई बार पेन से लिखने की कोशिश भी की थी पर कोई पेन ऐसा मिला ही नहीं था जिससे लिखने में मज़ा आये. पेन के बाद दो तीन अच्छी कॉपी भी खरीदी...हालाँकि घर में अनगिन कापियों की भरमार है पर मेरी आदत है नया कुछ लिखना शुरू करुँगी तो नयी कॉपी में करुँगी..पुरानी में फालतू काम किया करती हूँ. 

पेन अच्छा आया तो हर कुछ दिन पर लिखना भी शुरू हुआ...चिट्ठियां लिखी, कहानियां लिखी और कुछ बिना प्रारूप के भी लिखा. फाउन्टेन पेन से लिखना एकाग्र करता है. पूरे मन से एक एक शब्द सोचते हुए लिखना क्यूंकि लिखे हुए को काटना पसंद नहीं है तो एक बार में एक पूरा वाक्य लिखा जाने तक कुछ और नहीं सोचना...फिर कलम के चलने में अपना सौंदर्य होता है. कुशल तैराक सी कलम की निब सफ़ेद कागज़ पर फिसलती जाती है...और मैं कुछ खोयी सी कभी उसकी खूबसूरती देखती कभी एक शब्द पर अपना ध्यान टिकाती...फाउन्टेन पेन धीमा लिखता है, जेल पेन या बॉल पेन के मुकाबले. तो हर शब्द लिखने के साथ मन रमता जाता है...कभी लिखे हुए के झुकाव/कोण को देखती कभी पूरे पन्ने पर बिखर कर भी सिमटते अपने वजूद को...हर वाक्य जैसे सबूत होता जाता है कुछ होने का. लिखने के बाद कम्प्यूटर के जैसा डिलीट बटन नहों होता उसमें इसलिए गलतियाँ करने की गुंजाईश कम करती हूँ. 
कागज़ पर निब वाली कलम से लिखना यानी पूरे एकाग्रचित्त होकर किसी ख्याल को उतारना...ऐसा करना सुकून देता है...सब शांत होता जाता है...अंग्रेजी में एक शब्द है - Catharsis मन के शब्दों को उल्था करना जैसा कुछ होता है. लिखना फिर से मेरे लिए खूबसूरत और दिलकश हो गया है. 

आपको यकीन नहीं होता? कुछ दिन फाउन्टेन पेन से लिख कर देखिये...कुछ खास खोएंगे नहीं ऐसा कर के. दोस्त आपके भी होंगे, चिट्ठियां लिखिए. 

आपके शहर में लाल डिब्बा बचा है  या नहीं?

19 October, 2011

खुराफातें

कल  कुणाल कलकत्ता से वापस आ रहा था, चार दिन के लिए ऑफिस का काम था. कह के तो सिर्फ दो दिन के लिए गया था, पर जैसा की अक्सर होता है, काम थोड़ा लम्बा खिंच गया और रविवार की रात की जगह मंगल की रात को वापस आ रहा था.

मैंने कार वैसे तो पिछले साल जनवरी में सीखी थी, पर ठीक से चलाना इस साल शुरू किया. अक्सर कार से ही ऑफिस जा रही हूँ. इसके पीछे दो कारण रहे हैं, एक तो मेरा ऑफिस १० किलोमीटर से दूर जाने वाली जगह हो जा रहा है, और दूसरा स्पोंडीलैटिस का दर्द जो बाइक चलाने से उभर आता है. बंगलोर की सडकें बड़ी अजीब हैं...ये नहीं की पूरी ख़राब है, एकदम अच्छी सड़क के बीचो बीच गड्ढा हो सकता है. ऐसा गड्ढा किसी भी दिन उग आता है सड़क में. तो आपकी जानी पहचानी सड़क भी है तो भी आप निश्चिंत हो कर बाइक तो चला ही नहीं सकते हैं. अब मैं कार अच्छे से चला लेती हूँ. हालाँकि ये सर्टिफिकेट खुद को मैंने ही दिया है...और कोई  मेरे साथ बैठने को तैयार ही नहीं होता. कुणाल के साथ जब भी कहीं जाती हूँ तो वही ड्राइव करता है. उसका कहना है कि हफ्ते भर ऑफिस की बहुत परेशानी रहती है उसे, फिर वीकेंड पर टेंशन नहीं ले सकता है. मैं कभी देर रात चलाती भी हूँ तो सारे वक़्त टेंशन में रहता है. 

वर्तमान में लौटते हैं...सवाल था एअरपोर्ट जाने का...वैसे मेरे ममेरे भाई भी इसी शहर में रहते हैं तो पहले सोचा था उनके साथ चली जाउंगी. फिर पता चला उन्हें ऑफिस में बहुत काम है...और कुणाल की फ्लाईट ८ बजे पहुँच रही थी. इस समय ट्रैफिक भी इतना रहता है कि जाने में कम से कम दो घंटे लगते. आने के पहले कुणाल से पूछा था की क्या करूँ, बस से आ जाऊं तो उसने मना कर दिया था. बंगलौर में एअरपोर्ट जाने के लिए अच्छी वोल्वो बसें चलती हैं, जिनसे जाना सुविधाजनक है. अब जैसे ही कुणाल ने फ्लाईट बोर्ड की हमारा मन डगमग होने लगा कि जाना तो है. पहले तो सब्जी वगैरह बनाने की तैयारी कर रही थी, दूध फाड़ के पनीर निकाल लिया था और उसे  टांग कर छोड़ दिया था. ताज़े पनीर से सब्जी में बहुत अच्छा स्वाद आता है. 

अब मैं दुविधा में थी...या तो खाना बना सकती थी क्यूंकि पता था कुणाल और साकिब(उसका टीममेट) ने सुबह से कुछ ढंग का खाया नहीं था...तो एकदम भूखे आ रहे थे...या फिर मैं अकेले एअरपोर्ट जा सकती थी...जो कि कुणाल ने खास तौर से मना किया था. अब अगर आप मुझे जरा भी जानते हैं तो समझ गए होंगे की मैंने क्या किया होगा. रॉकस्टार के गाने सीडी पर बर्न किये और जो कपड़े सामने मिले एक मिनट में तैयार हो गयी...साथ में हैरी पोटर की किताब भी...की अगर इंतजार करना पड़े तो बोर न होऊं. 

मैंने कभी इतनी लम्बी दूर तक गाड़ी नहीं चलाई थी...और तो और हाईवे पर सबके साथ होने पर भी नहीं चलाई थी...एअरपोर्ट नैशनल हाईवे नंबर सात से होते हुए जाना होता है. इस रास्ते पर जाने का कई बार मेरा दिल किया है...पर हमने खुद को समझा कर कहानी लिखने में संतोष कर लिया था. खैर...इतना किन्तु परन्तु हम करते तो इस दर्जे के मूडी थोड़े न कहलाते. 

रास्ते में बहुत ट्रैफिक था...पर गाने सुनते हुए कुछ खास महसूस नहीं हुआ. रोज की आदत भी है सुबह ऑफिस जाने की. मज़ेदार बात ये हुयी की आजकल मेट्रो के लिए या फ़्लाइओवेर बनाने के लिए सड़कें खुदी हुयी हैं. पहले जब भी इस रास्ते पर गयी हूँ एकदम अच्छी सड़कें हैं. रेस कोर्स रोड तक तो सही थी, गोल्फ ग्राउंड भी आया था, उसके बाद विंडसर मैनर का ब्रिज भी आया था...आगे एक फ़्लाइओवेर आया, यहाँ मैं पूरा कंफ्यूज थी कि मैं कोई गलत रास्ता लेकर आउटर रिंग रोड पर आ गयी हूँ. रास्ता इतना ख़राब मैंने कभी नहीं देखा था इधर. 

अब चिंता होने लगी...इतने ट्रैफिक में अगर गलत रस्ते पर आ गयी हूँ तो वापस जाने में देर हो जाएगी और कुणाल की फ्लाईट लैंड कर जायेगी...तब क्या कहूँगी कि मैं कहीं खोयी हुयी हूँ. फ़्लाइओवर पर ही गाड़ी रोकी और बाहर निकल कर पीछे वाली कार वाले से पूछा 'ये एयरपोर्ट रोड तो नहीं है न?' पूरा यकीन था कि बोलेगा तुम कहीं टिम्बकटू में हो...पर उसने कहा कि ये एयरपोर्ट रोड ही है. जान में जान आई. 

उसके बाद अच्छा लगा चलाने में...डर तो खैर एकदम नहीं लगा. ७० के आसपास चलायी...गड़बड़ बस ये हुयी कि कभी पांचवे गियर में चलने की नौबत ही नहीं आई शहर में तो मुझे लगा था कि वो गियर ८० के बाद लगाते हैं. आकाश को फोन भी किया पूछने के लिए तो उसने उठाया नहीं. खैर...मैं दो घंटे में पहुँच गयी थी एअरपोर्ट. आराम से वहां काटी रोल खाया और मिल्कशेक पिया. 

कुणाल जब लैंड किया तो मैंने कहा की मैं एअरपोर्ट में हूँ. एकदम दुखी होके बोलता है 'अरे यार!'. और फिर जब बाहर आया तो मैंने कहा ...कुणाल वाक्य पूरा करो...मैं एअरपोर्ट... और उसने कहा कार से आई हूँ. मैंने कहा हाँ...अब तो बस...उसकी शकल, क्या कहें...बाकी लोगों के सामने डांटा भी नहीं. बस बोला की ये गलत बात है यार....ऐसे भागा मत करो. 

बस...अच्छी रही मेरी लौंग ड्राइव...और अब मैं उस झील किनारे जाउंगी किसी दिन. जब जाउंगी फिर एक कहानी बनेगी....देखते हैं कब आता है वो दिन.

13 October, 2011

किस. तरह. छीनेगा. मुझसे. ये. जहाँ. तुम्हें.

बुझती शाम, टीले पर तनहा चाँद का इंतज़ार कर रहा हूँ. कहीं से खबर आई है की मौत का दिन मुक़र्रर हुआ है कल सुबह. जिंदगी की एक आखिरी शाम है, वैसी ही तो है तुम्हारे जाने के पहले वाली शाम जैसी. चाँद उस दिन जैसा खूबसूरत कब निकला फिर. दिल की जगह बड़ी खाली सी जगह है...तुम्हारी और तुम्हारी यादों की सारी जगह खाली है. जैसे एक वृत्त है और उसकी परिधि से घुलता जा रहा है जिस्म...हौले हौले वृत्त का आकर बढ़ता जा रहा है. 

ख़ामोशी में एक गीत बजता है और ज़ख्म में टाँके लगने लगते हैं...आवाज़ का एक दरिया है जो खालीपन में उतरने लगता है और समंदर भरने लगता है. वही सदियों पुराने पत्थर हैं और तुम्हारी गोद में सर रख कर लेटा हुआ हूँ, तुम माथे पर हाथ फिर रही हो, बीच बीच में मद्धम थपकियाँ भी दे देती हो...चांदनी आँखों में चुभ रही है, तुम्हारा चेहरा ठीक से नहीं दिख पाता है...तुमने जूड़े से पिन निकाला है और चाँद का पर्दा कर दिया है...तुम्हारे बालों में ये कौन सी खुशबू बसती है...तुम पास होती हो तो सब शांत होता जाता है. मन का गहरा समंदर भी हिलोर नहीं मारता, चुप किनारों पर आता है और वापस लौट जाता है. 

ऐसे शांति में मर जाना कितना सुकूनदेह होगा...तुम फरिश्तों के देश से आई हो क्या...तो फिर तुम्हारे आंसुओं में कौन सी दुआ होती है कि ज़ख्म भर जाते हैं...तुम वोही लड़की हो न कहानियों वाली की जिसके आंसू में अमृत होता है...मरने वाले लौट आते हैं. तुम मेरे माथे पर अपने होठ रखती हो तो सारी चिंता ख़त्म हो जाती है...मेरी आँखों को चूम लो तो शायद ये फिर कभी जिंदगी में न रोयें...जिंदगी आज भर की ही है...जिंदगी भर मेरे पास रुक जाओगी क्या...तुम हो...बस इतना काफी होगा. 

मेरी खुशियों की किताब खो गयी है. तुम्हारे जाने के बाद जितनी किताबें पढ़ी सबमें बहुत दर्द था...मिलते मिलते लोग बिछड़ जाते थे...कभी नहीं मिलते थे. तुम्हारे जाने के बाद दुनिया में गरीबी थी, फाके थे, भुखमरी थी, दीवारों में ख़त्म होती सड़कें थी...चुप रोती आँखें थीं. तुम थी तो मेरी उंचाई आसमान थी...तुम्हारी आँखों में पनाह मांगता हूँ...मेरी जान, ये दुनिया तुम बिन मेरी जान ले लेगी. 




09 October, 2011

जो लफ़्ज़ों में नहीं बंधता


जितना छोटा हो सकता था, उतना छोटा सा लम्हा है
अगर गौर से देखो समय के इस छोटे से टुकड़े से पूरी दुनिया की स्थिरता(बैलेंस समझते हैं न आप, वही) भंग हो सकती थी.
ज्वालामुखी फट सकते थे, ऊपर आसमान में राख उछलती और एक पूरा शहर नेस्तनाबूद हो जाता. ये पृष्ठभूमि में कोई तो शहर है जिसे आप नहीं जानते. राख में हम ऐसे ही अमूर्त हो जाते, सदियों के लिए...तुम्हारी बाहों में मैं, हवा में उड़ती हुयी...आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे गुनगुनाते हुए. 

हो ये भी सकता था की सूनामी लहरें उठती और इतने ऊँचे छत से भी हमें बहा ले जाती, फिर कहीं नहीं लौट के आने के लिए...या फिर भूकंप आता, ये जो हलकी दरार पड़ रही है और चौड़ी हो जाती और हम किसी हलके गुलाबी पंख की तरह हवा में गिरते, गुरुत्वाकर्षण का हमपर पूरा असर नहीं होता. 

इस एक लम्हे में दुनिया ख़त्म हो सकती थी...पर हमें परवाह नहीं...हमने इस लम्हे में जिंदगी जी ली है. हमने जितना छोटा सा हो सकता है, लम्हा...हमने इश्क किया है.

picture courtesy: Deviantart

01 October, 2011

क्या कहते हो दोस्त, कुछ उम्मीद बाकी है क्या?

मंदिर का गर्भ-गृह है...मैं एक चुप दिए की लौ की तलाश में बहुत अँधेरे से आई हूँ, उम्मीद की एक नासमझ चिंगारी लिए. कैसा लगे कि अन्दर देवता की मूरत नहीं हो और उजास की आखिरी उम्मीद भी बुझ जाए. वाकई जिसे मंदिर समझा था, सुबह की धूप में कसाईघर निकले और जिस जमीन पर गंगाजल से पवित्र होने के लिए आये थे वहां रक्त से लाल फर्श दिखे. पैर जल्दी से उठाएं भी तो रखने की कहीं जगह न हो. जैसे एक सफ़ेद मकबरे(जिसे प्यार का सबूत कहते हैं लोग) के संगमरमरी फर्श पर भरी दुपहरी का हुस्न नापने निकले लोग पाँव जलने से बचने के लिए जल्दी जल्दी कदम रखते रहते हैं फिर भी पाँव झुलस ही जाते हैं. 

मैं सारी रात सो नहीं पायी और उलझे हुए ख्यालों में अपनी पसंद का धागा अलगाने की कोशिश करती रही. देखती हूँ कि मेरी आँखें कांच की हो गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में किसी लुप्त हुयी प्रजाति की खाल में भूसा भर कर रख दिया गया हो. कैसा लगे कि आखिर पूरी जिंदगी जिस मन और आत्मा के होने का सबूत लिए कागज़ काले करते रहे, मौत के कुछ पहले बता दिया जाए कि आत्मा कुछ नहीं होती...अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो बस ये तुम्हारा शरीर, कि जिसकी खाल उतारकर दुनिया तुम्हारे होने को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देगी. कांच की आँखों में तुम्हारा अक्स बेहद खूबसूरत दिखता है, और तुम इस ख्याल पर खुश हो लोगे. एक पूरी जिंदगी जीने से सिर्फ इसलिए रोक देना कहाँ का न्याय है कि तुम्हें मेरा शरीर चाहिए...ना ना, मांस भी नहीं कि जिसे खा के तुम्हारी क्षुधा तृप्त हो सके(तुम कितने सदियों के भूखे हो ओ मनुष्य)...ओह मनुष्य तुम कितने निष्ठुर हो. तुम क्या जानो जब ऐसे मेरे पूरे होने को ही नकार देते हो तो फिर मेरे शब्द किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाते. 

मर जाने पर भी मरने क्यूँ नहीं देते...मुझे नहीं चाहिए अमरत्व...प्राणहीन...शुष्क...मत बचाओ मेरी आँखों की रौशनी, मुझे नहीं देखनी है ये दुनिया...बिना आँखों के ये दुनिया कहीं खूबसूरत लगती है. एक बात बताओ, मृत शरीर भी तुम्हें जीवंत क्यूँ दिखना जरुरी हो...मेरे प्राण लेने पर तुम्हें संतोष नहीं होता? 

कैथेड्रल, बर्न
बहुत जगह सुबह हो चुकी होगी...मेरा गाँव भी ऐसी जगह में से ही एक है. मगर तुम मेरे गाँव से चित्र चुराने आये हो, क्यूँ? मुझे नींद आ रही है अब...कल पूरी रात सो नहीं पायी हूँ. शाम को ही सुना था, कसाई नाप ले गया है...बकरा कटने के लिए तैयार हो गया है. 

मौत के बाद अँधेरे से आगे कुछ होगा? रौशनी होगी?

अगर मरने के पहले तुम्हें इस बात का यकीन दिला दिया जाए कि जिस्म के इस घर में एक दिल भी है... तो छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता 


30 September, 2011

फाउंटेन पेन से निकले अजीबो गरीब किस्से

'तुम खो गए हो,' नयी कलम से लिखा पहला वाक्य काटने में बड़ा दुःख होता है, वैसे ही जैसे किसी से पहली मुलाकात में प्यार हो जाए और अगले ही दिन उसके पिताजी के तबादले की खबर आये. 

'तुम खोते जा रहे हो.' तथ्य की कसौटी पर ये वाक्य ज्यादा सही उतरता है मगर पिछले वाक्य का सरकटा भूत पीछा भी तो नहीं छोड़ रहा. तुम्हारे बिना अब रोया भी नहीं जाता, कई बार तो ये भी लगता है की मेरा दुःख महज एक स्वांग तो नहीं, जिसे किसी दर्शक की जरूरत आन पड़ती हो, समय समय पर. इस वाक्य को लिखने के लिए खुद को धिक्कारती हूँ, मन के अंधियारे कोने तलाशती भी हूँ तो दुःख में कोई मिलावट नज़र नहीं आती. एकदम खालिस दुःख, जिसका न कोई आदि है न अंत. 

स्याही की नयी बोतल खोलनी थी, उसके कब्जे सदियों बंद रहने के कारण मजबूती से जकड़ गए थे. मैंने आखिरी बार किसी को दवात खरीदते कब देखा याद नहीं. आज भी 'चेलपार्क' की पूरी बोतल १५ रुपये में आ जाती है. बताओ इससे सस्ता प्यार का इज़हार और किसी माध्यम से मुमकिन है? अर्चिस का ढंग का कार्ड अब ५० रुपये से कम में नहीं आता. गरीब के पास उपाय क्या है कविता करने के सिवा. तुम्हें शर्म नहीं आती उसकी कविता में रस ढूँढ़ते हुए. दरअसल जिसे तुम श्रृंगार रस समझ रहे हो वो मजबूरी और दर्द में निकला वीभत्स रस है. अगर हर कवि अपनी कविता के पीछे की कहानी भी लिख दे तो लोग कविता पढना बंद कर देंगे. इतना गहन अंधकार, दर्द की ऐसी भीषण ज्वाला सहने की शक्ति सब में नहीं है.

सरस्वती जब लेखनी को आशीर्वाद देती हैं तो उसके साथ दर्द की कभी न ख़त्म होने वाली पूँजी भी देती हैं और उसे महसूस करके लिखने की हिम्मत भी. बहुत जरूरी है इन दो पायदानों के बीच संतुलन बनाये रखना वरना तो कवि पागल होके मर जाए...या मर के पागल हो जाए. बस उतनी भर की दूरी बनाये रखना जितने में लिखा जा सके. इस नज़रिए से देखोगे तो कवि किसी ब्रेन सर्जन से कम नहीं होता. ये जानते हुए भी की हर बार मरीज के मर जाने की सम्भावना होती है वो पूरी तन्मयता से शल्य-क्रिया करता है. कवि(जो कि अपनी कविता के पीछे की कहानी नहीं बताता) जानते हुए कि पढने वाला शायद अनदेखी कर आगे बढ़ ले, या फिर निराशा के गर्त में चले जाए दर्द को शब्द देता है. वैसे कवि का लिखना उस यंत्रणा से निकलने की छटपटाहट मात्र है. इस अर्थ में कहा नहीं जा सकता कि सरस्वती का वरदान है या अभिशाप.

ये पेन किसी को चाहिए?
तुम किसी अनजान रास्ते पर चल निकले हो ऐसा भी नहीं है(शायद दुःख इस बात का ही ज्यादा है) तुम यहीं चल रहे हो, समानांतर सड़क पर. गाहे बगाहे तुम्हारा हँसना इधर सुनाई देता है, कभी कभार तो ऐसा भी लगता है जैसे तुम्हें देखा हो- आँख भर भीगती चांदनी में तुम्हें देखा हो. एक कदम के फासले पर. लिखते हुए पन्ना पूरा भर गया है, देखती हूँ तो पाती हूँ कि लिखा चाहे जो भी है, चेहरा तुम्हारा ही उभरकर आता है. बड़े दिनों बाद ख़त लिखा है तुम्हें, सोच रही हूँ गिराऊं या नहीं. 


हमेशा की तरह, तुम्हारे लिए कलम खरीदी है और तुम्हें देने के पहले खुद उससे काफी देर बहुत कुछ लिखा है. कल तुम्हें डाक से भेज दूँगी. तुम आजकल निब वाली पेन से लिखते हो क्या?


26 September, 2011

इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक

आवाजों का एक शोर भरा समंदर है जिसमें हलके भीगती हूँ...कुछ ठहरा हुआ है और सुनहली धूप में भीगा हुआ भी. पाँव कश्ती से नीचे झुला रही हूँ...लहरें पांवों को चूमती हैं तो गुदगुदी सी लगती है. हवा किसी गीत की धुन पर थिरक रही है और उसके साथ ही मेरी कश्ती भी हौले हौले डोल रही है.

आसमान को चिढ़ाता, बेहद ऊँचा, चाँद वाली बुढ़िया के बालों सा सफ़ेद पाल है जो किसी अनजान देश की ओर लिए जा रहा है. नीला आसमान मेरी आँखों में परावर्तित होता है और नज्मों सा पिघलने लगता है...मैं ओक भर नज़्म इकठ्ठा करती हूँ और सपनों में उड़ेल देती हूँ...जागी आँखों का सपना भी साथ है कश्ती में. 

शीशे के गिलासों के टकराने की मद्धम सी आवाज़ आती है जिसमें एक स्टील का गिलास हुआ करता है. मुझे अचानक से याद आता है कि मेरे दोस्त मेरे नाम से जाम उठा रहे होंगे. बेतरतीब सी दुनिया है उनकी जिसमें किताबें, अनगिन सिगरेटें और अजनबी लेकिन अपने शायरों के किस्से हैं...मैं नाव का पाल मोड़ना चाहती हूँ, फिर किसी जमीन पर उतरने की हूक उठती है. जबकि अभी ही तो नयी आँखों से दूसरी दुनिया देखने निकली थी. उनकी एक शाम का शोर किसी शीशी में भर कर लायी तो थी, गलती से शीशी टूट गयी और अब समंदर उनके सारे किस्से जानता है. 

जमीन पर चलते हुए छालों से बचने के लिए इंसान ने जूते बनाये. नयी तकनीकें इजाद हुयी और एक से बढ़कर एक रंगों में, बेहद सुविधाजनक जूते मिलने लगे. जिनसे आपके पैर सुरक्षित रहते हैं...हाँ मगर ऐसे में पैर क्या सीख पाते हैं? दुनिया देख आओ, हर शहर से गले मिल लो, नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों भटक आओ...मगर पैर क्या मांगते हैं...मिट्टी. तुम्हारे घर की मिट्टी, भूरी, खुरदरी कि जिसमें पहली बार खेल कर बड़े हुए. आज समंदर में यूँ पैर भीग रहे हैं तो समंदर उन्हें मिट्टियों की कहानी सुना रहा है. समंदर के दिल में पूरी दुनिया की मिट्टी के किस्से हैं.

शोर में कुछ बेलौस ठहाके हैं, कि जिनसे जीने का सलीका सीखा जाए और अगर गौर से सुना जाए तो चवन्नी मुस्कान की खनक भी है. इतनी हंसी आँखों में भर ली जाए तो यक़ीनन जिंदगी बड़े सुकून से कट जाए. तो आवाजों के इस समंदर में एक ख़त मैं भी फेंकती हूँ, महीन शीशी में बंद करके. कौन जाने कभी मेरा भी जवाब आये...कि क़यामत का दिन कोई बहुत दूर तो नहीं. 



इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक 
कोई हमें फुसला के वापस घर ले जाए

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