20 September, 2011

कुछ अच्छे लोग जो मेरी जिंदगी में हैं...

बुखार देहरी पर खड़ा उचक रहा है. आजकल बड़ा तमीजदार हो गया है, पूछ कर आएगा. ऑफिस का काम कैसा है, अभी बीमार पड़ने से कुछ ज्यादा नुकसान तो नहीं होगा, काम कुछ दिन टाला जा सकता है या नहीं. उम्र के साथ शरीर समझने लगता है आपको...कई बार आपके हिसाब से भी चलने लगता है. किसी रात खुद को बिलख कर कह दो, अब आंसू निकलेंगे तो आँखें जलन देंगी तो आँखें समझती हैं, आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुप हो जाती हैं. 

एक दिन फुर्सत जैसे इसलिए मिली थी की थकान तारी है. थकान किस चीज़ की है आप पूछेंगे तो नब्ज़ पर हाथ रख कर मर्ज़ बतला नहीं सकती. अलबत्ता इतना जरूर पता है कि जब किताबों की दुकान में जा के भी चैन न पड़े तो इसका मतलब है कि समस्या बेहद गंभीर होती जा रही है. 

सोचती हूँ इधर लिखना कम हो गया है. बीते सालों की डायरी उठती हूँ तो बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है. तितली के पंखों की तरह रंगीन. इत्तिफ़ाक़न ऐसा हुआ है कि कुछ पुराने दोस्त मिल गए हैं. यही नहीं उनके अल्फाज़ भी हैं जो किसी भटकी राह में हाथ पकड़ के चलते हैं...कि खोये ही सही, साथ तो हैं. विवेक ने नया ब्लॉग शुरू किया, हालाँकि उसने कुछ नया काफी दिन से नहीं लिखा. पर मुझे उम्मीद है कि वो जल्दी ही कुछ लिखेगा.

इधर कुछ दिनों से पंकज से बहुत सी बात हो रही है. पंकज को पहली बार पढ़ा था तो अजीब कौतुहल जागा था...समंदर की ओर बैठा ये लड़का दुनिया से मुंह क्यूँ फेरे हुए है? आखिर चेहरे पर कौन सा भाव है, आँखें क्या कह रही होंगी. उस वक़्त की एक टिपण्णी ने इस सुसुप्तावस्था के ज्वालामुखी को जगा दिया और वापस ब्लॉग्गिंग शुरू हुयी. मुझे हमेशा लगता था कि एकदम सीरियस, गंभीर टाइप का लड़का है...पता नहीं क्यूँ. वैसे लोगों को मैं इस तरह खाकों में नहीं बांटती पर ये केस थोड़ा अलग था. इधर पंकज का एक नया रूप सामने आया है, PJs झेलने वाला, इसकी क्षमता अद्भुत है. कई बार हम 'missing yahoo' से 'ROFL, ROFLMAO' और आखिर में पेट में दर्द होने के कारण सीरियस बात करते हैं. जहर मारने और जहर बर्दाश्त करने की अपराजित क्षमता है लड़के में. कितनी दिनों से अवसाद से पंकज ने मेरी जान बचाई है...यहाँ बस शुक्रिया नहीं कहूँगी उसका...कहते हैं शुक्रिया कहने से किसी के अहसानों का बोझ उतर जाता है. काश पंकज...तुम थोड़ा और लिखते. 

आज ऐसे ही मूड हो रहा है तो सोच रही हूँ दर्पण को भी लपेटे में ले ही लिया जाए. दर्पण मुझे हर बार चकित कर देता है, खास तौर से अपनी ग़ज़लों से. मुझे सबसे पसंद आता है उसकी गज़लें पढ़कर अपने अन्दर का विरोधाभास...ग़ज़ल एकदम ताजगी से भरी हुयी होती हैं पर लगता है जैसे कुछ शाश्वत कहा हो उसने. अनहद नाद सा अन्तरिक्ष में घूमता कुछ. कभी कभार बात हुयी है तो इतना सीधा, सादा और भला लड़का लगा मुझे कि यकीन नहीं आता कि लिखता है तो आत्मा के तार झकझोर देता है. पहली बार बात हुयी तो बोला...पूजा प्लीज आपको बुरा नहीं लगेगा...मुझे कुछ बर्तन धोने हैं, मैं बर्तन धोते धोते आपसे बात कर लूं? दर्पण तुम्हारी सादगी पर निसार जाएँ. 

ज्यादा बातें हो गयीं...बस आँखें जल रही हैं तो लिखा हुआ अब पढूंगी नहीं...इसे पढ़ के किसी को झगड़ा करना है तो बुखार उतरने के बाद करना प्लीज...

18 September, 2011

किस्सा नए लैपटॉप का- 2

इस भाग में आप पायेंगे की हमने कैसे वायो और डेल में पसंदीदा लैपटॉप चुना. इसके पहले का भाग यहाँ है. इसमें आप ये भी पायेंगे की एक लड़की का और एक लड़के का किसी भी तरह के सामान खरीदने के पीछे एकदम अलग मनोविज्ञान होता है. 

वायो VPCCB14FG/B के इस मॉडल में १५.५ इंच फुल हाई डेफिनिशन स्क्रीन थी और मैक के स्क्रीन की तुलना में सबसे अच्छी स्क्रीन लगी थी मुझे. लैपटॉप की प्रोसेसिंग स्पीड के अलावा जिस छोटे से फीचर के कारण मेरा चुनाव टिका हुआ था वो था बैकलिट कीबोर्ड. अक्सर मैं और कुणाल अलग अलग टाइम पर काम करना पसंद करते हैं तो कई बार होता है कि उसे सोना होता है और मुझे काम भी करना होता है. रात को कभी कभार लिविंग रूम में मुझे ३ बजे डर सा लगता है...अब लाईट जला के काम करती हूँ उसे सोने में दिक्कत होती है और बिना लाईट के लिखने में मुझे परेशानी. बैक लिट कीबोर्ड किसी लो-एंड मॉडल में नहीं था...तो ये मॉडल ५४ हज़ार का पड़ रहा था मुझे. बहुत दिन सोचा कि १० हज़ार के लगभग ओवर बजट हो रहा है मगर कोई और मॉडल पसंद ही नहीं आ रहा था और फिर लगा कि लंबे अरसे तक की चीज़ है...और कुणाल ने कहा...अच्छा लग रहा है ना, ले लो...इतना मत सोचो :)

मेरे लिए लैपटॉप का भी सुन्दर होना अनिवार्य था...मैं बोरिंग सा डब्बा लेकर नहीं घूम सकती...लैपटॉप सिर्फ क्रियात्मक(functional) होने से नहीं चलेगा. उसे मेरे स्टाइल के मानकों पर भी खरा उतरना होगा. मैं डेल के शोरूम गयी, डेल के मॉडल ने मुझे प्रभावित नहीं किया. मेरे लिए लैपटॉप भी पहली नज़र का प्यार जैसा होना जरूरी था...यहाँ के लैपटॉप मुझे अरेंज मैरिज जैसे लगे. उसपर डेल की जो सबसे बड़ी खासियत है, वो आपकी पसंद के फीचर्स के हिसाब से लैपटॉप कस्टमाईज कर के देंगे, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा. लगा की गोलगप्पा या चाट बनवा के खा रही हूँ...थोडा मिर्ची ज्यादा देना...ना न नमक तेज लग रहा है. मेरी ये बात सुन के टेकिस(Techies/Geeks) अपना सर फोड़ सकते हैं इसलिए उनको यहीं चेता रही हूँ की कृपया आगे न पढ़ें. मेरे लैपटॉप खरीदने के कारण यहाँ से होरोर मोड में आगे बढ़ेंगे. डेल के लैपटॉप थोड़े ज्यादा भारी(read bulky) लगे, किसी लड़के के लिए ठीक हैं पर मेरे लिए...उनमें नज़ाकत नहीं थी(आप कहेंगे होनी भी नहीं चाहिए, खैर). कुणाल के लिए, या मेरे भाई के लिए परफेक्ट हैं (पापा के पास भी डेल ही है) पर मेरे लिए...एकदम न...ऐसा लैपटॉप लेकर मैं नहीं घूम सकती. 

तो फिर सोनी का VPCCB14FG/B चुना...बुक करवा दिया था और जब खरीदने पहुंची तो उन्होंने बताया की ये मॉडल स्टॉक में ही नहीं है सिर्फ नारंगी और हरे रंग में है. मुझे एकदम रोना आ गया...मैं वहीं बैठ के आंसू बहाने वाली थी की क्रोमा के फाइनांस वालों ने तुरंत्बुद्धि का परिचय देते हुए मुझे बगल में ही सोनी शोरूम चलने को कहा. वहां भी बहुत देर तलाशने के बाद मॉडल नहीं मिला...तब तक मेरी नज़र इस लैपटॉप पर जा चुकी थी VPCCA15FG/R...गहरे लाल रंग का ये लैपटॉप उसी दिन आया था शोरूम में...और इससे प्यार हो चुका था. इसके सारे फीचर्स पहले वाले के ही थे बस स्क्रीन १४ इंच थी और फुल हाई डेफिनिशन नहीं थी. मुझे पहले भी १५.५ थोडा ज्यादा बड़ा लग रहा था  क्यूंकि मैं लैपटॉप लेकर अक्सर घूमती फिरती रहती हूँ. फुल HD नहीं होने का थोडा चिंता हुयी पर मैं वैसे भी लैपटॉप पर फिल्में नहीं देखती...तो लगा की छोटे साइज़ में और इस रंग के लिए ये कॉम्प्रोमाइज चलेगा. 

वैसे भी सोनी के लाल रंग के लैपटॉप पर मेरा सदियों पहले से दिल आया हुआ था. लैपटॉप बेहद अच्छा चल रहा है...बहुत ही फास्ट है, हल्का है २.४ किलो और रंग ऐसा की जिस मीटिंग में जाती हूँ नज़रें लैपटॉप पर :) ये रंग मार्केट में सबसे तेज़ी से बिकता भी है...जब भी ढूंढिए आउट ऑफ़ स्टोक मिलता है. 

पिछले कुछ दिनों में प्रवीण जी और अनुराग जी ने भी लैपटॉप ख़रीदे. प्रवीण जी का मैक एयर है और अनुराग जी ने डेल इन्स्पिरोन(लाल रंग में) ख़रीदा. प्रवीण जी अपने लैपटॉप को पहली नज़र का प्यार कहते हैं जबकि अनुराग जी उसे 'मेरा प्यार शालीमार'. इन दोनों की और मेरी खुद की पूरी प्रक्रिया पर नज़र डालती हूँ तो एक बात साफ़ दिखती है...हम चाहे जो सोच कर, दिमाग लगा कर, लोजिक बिठा कर खरीदने जाएँ...लैपटॉप जैसे मशीन भी हम प्यार होने पर ही खरीदते हैं. :) दिल हमेशा दिमाग से जीतता है. 

किस्सा नए लैपटॉप का- १

 इधर कुछ दिनों में हमारे कई ब्लॉग मित्रों के लैपटॉप वृद्धावस्था को प्राप्त होकर शनैः शनैः स्वर्गवासी हो गए...न न सच में किसी ने उन्हें स्वर्ग में इश्वर के इस्तेमाल के लिए नहीं भेजा...वे घर में ही कोमा में पड़े हुए हैं. 

चार-पाँच साल ही एक लैपटॉप की उम्र होती है अक्सर, तो हम कह सकते हैं ये की ये लैपटॉप अपने कर्तव्य का निर्वाह करके रिटायर हुए हैं...सालों तक ये हमारे साथी रहे...सुख-दुःख में साथ निभाया...झगड़े टंटे में डटकर साथ दिया. मेरे लैपटॉप का जाना तो एकदम मानवीय था...पहले एक अक्षर ने साथ छोड़ा 'O' ने...हमने इसे कॉपी पेस्ट करके कुछ दिन काम चलाया...मगर ब्लॉग लिखने में घोर असुविधा होने लगी तो लिखना काफी कम भी हो गया...फिर हमने एक नया कीबोर्ड ख़रीदा...अब लैपटॉप डेस्कटॉप की तरह काम करने लगा था. पर जैसा की आप जानते हैं, उम्र बढ़ने पर रफ़्तार कम होते जाती है, तो नए कीबोर्ड में कुछ टाईप करके उसके स्क्रीन पर उगने का वैसा ही इंतजार होता था जैसे सदियों १६ की उम्र में उस मोहल्ले के खूबसूरत लड़के के बालकनी पर आने का. 

इस बीच हमें उधर के मैक पर काम करने का मौका मिला...हम एकदम बुरी तरह उसपर फ़िदा हो गए. उसकी स्क्रीन रिसोलुशन का वाकई कोई लैपटॉप बराबरी नहीं कर सकता...और प्रोसस्सिंग स्पीड भी बेहतरीन थी. कुछ दिन ही इस्तेमाल करते हुए कई परेशानियाँ आयीं...हमेशा से विंडोस का ऑपरेटिंग सिस्टम इस्तेमाल करने पर आप अपने लैपटॉप से कुछ चीज़ों की उम्मीद रखेंगे...यहाँ हर चीज़ को फिर से सीखना पड़ रहा था. हिंदी टाइपिंग के लिए मैं गूगल ट्रांसलिट्रेट डाउनलोड करके रखती हूँ...पर मैक के लिए वो उपलब्ध नहीं था. गूगल चैट भी मैक के लिए नहीं बना था...ये तो दो छोटी परेशानियाँ आयीं मगर इनका निकट भविष्य में कोई समाधान नहीं दिख रहा था. मैक में हिंदी टाइपिंग का अपना कीय्बोर्ड है...और कुछ अभ्यास के बाद शायद उसमें टाईप करना आसान हो ये सोच के हमने कोशिश भी की, लेकिन उसमें अक्सर दो की(Key) एक साथ दबानी पड़ती थी. इससे हमारी नाज़ुक उँगलियों को परेशानी होती थी. इन दो बड़ी परेशानियों के अलावा भी कई छोटी मोटी दिक्कतें हुयी मुझे. तो मैंने अपने लिए मैक लेने का इरादा स्थगित कर दिया. 

एक नयी कॉफ़ी टेबल बुक लिख रही हूँ आजकल...कर्नाटक बस परिवहन के लिए. इस सिलसिले में उनके लाल बाग़ स्थित ऑफिस पर रोज जाना पड़ रहा था...अब बिना लैपटॉप काम कैसे करें. मेरे लैपटॉप ने मेरे मैक इस्तेमाल करने से सदमे में आ गया था. अब उसका 'A' भी काम करना बंद कर चुका था. एक दिन किसी तरह ctrl+v करके काम चलाया पर शाम होते होते ctrl भी बंद हो गया. इस तरह तीन चरण में मेरे लैपटॉप को पूरा लकवा मार गया. 

अब मैंने तीन लैपटॉप फाइनल किये...Sony Vaio, Dell Inspiron and Mac...सबसे पसंद मैक था लेकिन पहले वाली समस्या के कारण उसे आउट किया...हालाँकि कई बार कनखियों से उसे देख लेती थी. सोनी वायो पर मेरा दिल बहुत साल पहले आया हुआ था...जब पहली बार सोनी ने लाल रंग के लैपटॉप मार्केट में उतारे थे. खैर...फिर डिटेल जानकारी जुटाई.

३०-४० का बजट सोचा था. उसमें एक सोनी का लैपटॉप भी पसंद आया पर उसका प्रोसेसर इंटेल-३ था...और आजकल इंटेल ५ और ७ आ चुके हैं. फिर पुराने प्रोसेसर लेने का कोई फायदा नहीं लगा. तो अब बेसिक चाहिए था इंटेल ५, ४ जीबी रैम और ५०० जीबी हार्ड डिस्क. मुझे मेरे लैपटॉप में हमेशा मेरे पसंद की फिल्में, बहुत से गाने और बहुत सी तसवीरें चाहिए होती हैं, और साल दर साल ये स्टोक बढ़ता ही जाता है. तो ३२० से मेरा काम नहीं चलता. 

इन स्पेसिफिकेशन पर जो फाइनल किया वो था सोनी वायो VPCCB15FG/B और डेल इन्स्पिरोन. पोस्ट काफी लम्बी हो गयी है इसलिए दो पार्ट में बाँट रही हूँ...अगला पार्ट यहाँ है. 

07 September, 2011

धत, प्यार क्या होता है जी? हम नहीं जानते

अजीब लड़की थी, खिलखिलाती थी तो आँखें छलक आती थीं...मुस्कुराती थी तो हरसिंगार गमक उठते थे...गुनगुनाती थी तो सारे गृह अपने कक्षा में घूमने के बजाये रुक कर उसके हिलते होठ निहारा करते थे...कितनी बार तो उसे टोका की यूँ दुआओं की मुस्कुराहटें अजनबियों को मत दिया करो...तुम क्या जानो तुम्हारी एक दुआ से जिंदगी भर प्यार किया जा सकता है. पर लड़की एकदम ही अल्हड़ हुआ करती थी. सलीके से बस उसे चोटियाँ गूंथनी आती थीं जो उसने बचपन में नानी से सीखी थी...वरना तो उसे कुछ भी काम काज नहीं आता...सलीके का. 

लड़का भी थोड़ा दीवाना सा था...बाबूजी से दिन भर खेत खलिहान के तौर तरीके सीखता...जब बड़े भैय्या शहर जाते आगे की पढ़ाई करने के लिए उन्हें पाँच किलोमीटर दूर पैदल चलकर बस स्टैंड छोड़ने जाता...और फिर हर हफ्ते एक दिन जा के उस नीली बस को देख आता...उसके मन में बस के लिए भी वैसा ही आदर था जैसा भैय्या के लिए. मुंह अंधरे उठता, गुहाल में झाडू लगाता, कटिया चला के नरुआ(पुआल) काटता...कुएं से बाल्टी भरता और गाय को सानी पानी देता. इस समय लड़की भी उठती और गुहाल की कच्ची मिटटी वाली दीवाल पर दोनों बैठ कर सूरज उगना देखते...देवता को प्रणाम करते और दिन के काम में लगते. 

लड़की कोई गीत गाती रहती जिसका भावार्थ रहता की हे सूर्य देवता मेरे घर पर कृपा करो, गाँव पर कृपा करो, दूर परदेस में बैठे घर वालों को सुखी रखो...और कभी कभी कनखी से झाँक लेती की लड़का आसपास तो नहीं है...ऐसे में अपने मन से गीत में एक पंक्ति और जोड़ देती की लड़के पर भी किरपा करो...लड़का दूर कहीं धान के खेत में आम गाछ के नीचे बैठा हवा पर तैरता अपना नाम सुनता...इतने लाड़ से कोई भी तो नहीं बुलाता था उसे. 

लड़की ने नया नया दुपट्टा ओढ़ना सीखा था, कभी पुआल के टाल पर भूल आती, कभी कुएं की मुंडेर पर...लड़का ऐसे में उसकी ओढ़नी को छू कर देखता...ऐसा करने में उसे बड़ा अच्छा लगता...जैसे नए बछड़े के सर पर हाथ फेरने में लगता था, बिलकुल वैसा ही...कभी ऐसे में लड़की उधर पहुँच जाती तो दोनों सकपका जाते...घबरा के नज़रें  मिलाते और लड़की...धत...या ऐसा ही कुछ कहते हुए भाग जाती. शर्माना भी सीख रही थी आजकल...लड़का राहत की सांस लेता था. 

उसे भी आजकल लड़की के लिए कुछ छोटा मोटा करना अच्छा लगता...कुएं पर रहता तो पानी भर देता...कभी खेत से कच्ची छीमी ला देता कभी मूलियाँ...और अबकी उसने सोच रखा था की सावन में उसके लिए झूले लगाएगा...इस हफ्ते जब बस स्टैंड गया था तो सन ले आया था, बटाई करके रस्सी भी बुन रहा था रोज थोड़ी थोड़ी...और इधर सावन जो आने वाला था, गाँव की मिटटी में प्यार जैसा कुछ पनप रहा था...बारिश के आने पर सोंधी मिटटी की गंध आती है...पता चल जाता है की बारिश हुयी है.

उन्हें कब पता चला की उनमें जो हरी दूब जैसा नाज़ुक उग रहा है उसे प्यार कहते हैं...न लड़की को झूला झूलते वक़्त...न लड़के को झूला को धक्का देते वक़्त...हाँ जब उसकी मांग में सिन्दूर भर रहा था तो कुछ सात कसमें खिलायीं थी पंडित जी ने...पर उसमें ये कहाँ था की उस लड़की से प्यार करना है. 

आप आज भी उनसे पूछेंगे तो लड़की कहेगी...धत, प्यार क्या होता है जी? हम नहीं जानते...और लड़का भी ऐसा ही कुछ कहेगा...आप ही कहिये...और कैसे होता है प्यार?

तुम झूठ बोलते हो...सच्ची में

ना ना, तुम नहीं समझोगे मेरी जान...भरी दुपहरिया तपती देह बुखार में याद का कैसा पारा चढ़ता है...जैसे दिमाग की सारी नसें तड़तड़ा उठती हों और एक एक चित्र का सूक्ष्म विवेचन कर लेती हों. तुम्हें याद है कैसे नंगे पाँव धूप पर गंगा बालू में दौड़ती चली आती थी मैं, मुझे भी धूप से भ्रम होता था तुम्हारे आने का. तुम कहते थे कि तुम आये नहीं थे मगर दिल जो पागल हो रखा था, कभी तेज़ धड़कता भी था तो लगता था पुरवाई पर उड़कर तुम्हारी महक आ गयी है आँगन तक...और फिर चप्पल उतार कर चलना होता था न...अरे ऐसे कैसे, कोई सुन लेता तो...और नहीं तुम जानते नहीं मैंने पायल पहनना क्यूँ बंद कर दिया था...दो ही घुँघरू थे पर चुप्पी दोपहरी अपनी महीन नींद से जाग जाती थी और फिर कोयल पूरे मोहल्ले हल्ला करती फिरती थी कि मैं चुपके जाके तुम्हारी खिड़की से तुम्हें सोते हुए झाँक आई हूँ. 


वो पड़ोसी की बिल्ली जैसे मेरे ही रास्ता काटने के इंतज़ार में बैठी रहती थी, मुटल्ली...एक मैं हर बार तुम्हारी याद में गुम किचन का दरवाजा खुला भूल आती थी और उसके वारे न्यारे...वो तो बचपन में कजरी बिल्ली का किस्सा सुन रखा था वरना सच्ची किसी दिन उसको बेलन ऐसा फ़ेंक मारती कि मरिये जाती...अरे इसमें हिंसा का कौन बात हुआ जी...तुम भी बौरा गए हो...कल को जो मच्छर भी मारूंगी तो कहोगे उसमें जान होती है...बड़े आये नरम दिल वाले...नरम दिल मेरा सर...हुंह. जो रोज शाम को एक बिल्ली के कारण डांट खाना पड़े न तब जानोगे...कोई तुमको लेकर कुछ कहे तो फिर भी सुन लूँ, उस बिल्ली के लिए भला क्यूँ सुनु मैं...मेरी क्या लगती है...मौसी...मेरी बला से!

तुम तो रहने ही दो...फर्क पड़ता है तुम्हें मेरा सर...हफ्ते भर से बीमार हुयी बैठी हूँ और एक बार चुपके से झाँकने भी नहीं आये...और नहीं किसी के हाथ चिट्टी ही भिजवा दी होती, न सही कमसे कम गोल-घर के आगे से खाजा ही खरीद के ला देते...चलो कमसे कम हनुमान मंदिर ही चले जाते, प्रसाद देने कौन मना करेगा तुमको...लेकिन हाय रे मेरे बुद्धू तुमको इतनी बुद्धि होती तो फिर सोचना ही क्या था. तुम तो मजे से रोज क्रिकेट खेलने जा रहे होगे आजकल कि भले बीमार हुए पड़ी है...फुर्सत मिल गयी...अरे मर जाउंगी न तो तुम्हारा सचिन नहीं आएगा तुम्हारे आंसू पोंछने...पगलाए हुए हो उसके लिए...और मान लो आ भी गया तो बोलोगे क्या...क्या लगते हैं जी तुमरे हम? 
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बहुत साल हुए...लड़की का बचपना चला गया, बात बात में तुनकना भी चला गया...बुखार आये भी बहुत बरस बीते...लड़का भी परदेस से वापस नहीं लौटा...पर आज भी जब वो लड़का फोन पर उसे यकीन दिलाने की कोशिश करता है की उसने कभी उससे प्यार नहीं किया था...तो लड़की के अन्दर का समंदर सर पटक पटक के जान दे देता है. 

20 August, 2011

इन्द्रधनुष के उस पार

दीदी बडबडा रही है...'रे टुनकी पगला गयी है क्या रे(हलकी हंसी)...आँखें बंद करके जाने किसके साथ तो नाच रही है, रे लड़की'...नाचने से दिक्कत नहीं है, दिक्कत है की वो आँख बंद किये हुए है और हाथों में किसी को तो पकड़े है. इसका पूरा मतलब है लड़की को कोई  पसंद आया है और उसके बारे में ही सोच रही होगी...और नहीं बिना गाना बजाये ऐसे पूरे घर में नाचते देखा है. 

घर के अहाता में अच्छा हुआ अभी कोई है नहीं...और वो पड़ोसी का लड़का भी ट्यूशन पर गया है तो फिर भी थोड़ा राहत का सांस है इसलिए दीदी परेशान तो हो रही है लेकिन टुनकी को ऐसे नाचते हुए देख कर उसको अच्छा लग रहा है. चिंता यही है की आखिर हुआ क्या है ऐसा...आजकल तो कॉलेज में पढ़ाई से ज्यादा बाकि खटकरम होता है, दीदी को टुनकी का चिंता होता है, उसके हिसाब से टुनकी एकदम भोली है. हालाँकि कई बार लगता है दीदी को की टुनकी को दीन दुनिया का समझ उससे ज्यादा है. उमर में भले छोटी है लेकिन दुनिया तो दीदी से बहुत ज्यादा देखी है...उसका क्या इंटर पास करने के अन्दर शादी हो गया और कितना तो अच्छा हुआ. लड़की सब का शादी बियाह जल्दी हो जाए तो अच्छे रहता है नहीं तो ई लड़की के तरह कभी पूरा अहाता नाचे तो नहीं. 

उ पड़ोसी का लड़का हमेशा इधरे घुरियाते रहता है, एकदम बेसरम है लुच्चा...घर में लड़की रहती है तो क्या दिन भर दीवाले पे लटके रहोगे चमगादड़ जैसन...घर में जवान लड़की बहुत बड़ा जिम्मेदारी होता है, इसका पूरा अहसास होता है दीदी को..लेकिन ये टुनकी तो पता नहीं कौन मिटटी की बनी हुयी है...वैसे तो किसी लड़के के साथ नहीं देखा...इतना भरोसा है दीदी को की टुनकी कोई लड़के उड़के के साथ नहीं घुमती होगी, लेकिन मन में थोड़ा शंका बने रहता है...जमाना ख़राब है न. उसपर टुनकी है भी तो कितनी सुन्दर, दीदी का रंग तो फिर भी थोड़ा गेंहुआ है लेकिन टुनकी तो एकदम जैसे दूध वाले आइसक्रीम रंग की है...दूरे से भकभकाती है...पता नहीं कैसे भगवान इसको इतना रंग दे दिए हैं...कोईयो रंग पहनती है फब जाता है. दीदी परेशान है की कॉलेज में कोई लड़का पीछे न पड़ा हो टुनकी के. वैसे टुनकी बहुत मानती है दीदी को, सब राज भी बतलाती है...लेकिन इधर कुछ दिन से थोड़ा चुप है...दीदी समझी की शायद एक्जाम आ रहा हो कौनो या फिर कोई प्रोग्राम होगा गीत संगीत का...पर आज का ड्रामेबाजी से थोड़ा परेशान हो गयी है दीदी. 

एक तो टुनकी का अंग्रेजी गाना...दीदी को कभी एक्को अक्षर नहीं बुझाता है लेकिन ये तो जनरल नोलेज है की अंग्रेजी गाना बिगड़ने का पहला लच्छन है, लेकिन दीदी का कलेजा नहीं होता है की टुनकी को मना करे...कित्ती तो खुश दिखती है न टुनकी...आँख बोलती है एकदम...गीत भी गाती है शादी बियाह में तो कैसे हुमक के उठाती है कि उसके गले का लोच पर सब्बे ताज्जुब करता है...कैसा गूंजता है. दीदी बहुत सोच रही है आज...ऐसे ही हुलस कर वो भी तो गाती थी, पिंकी फुआ के शादी में तब्बे तो ई देखे थे उसको...कैसे हाथ पकड़ लिया था अकेले में...की पायल तो बड़ी सुन्दर है तुमरा, कहाँ से खरीदी...कैसे भागी थी दीदी वहां से, कोइयो देख लेता तो बड़का बवाल हो जाता. उसके बाद तो ऐसे फटाफट मंगनी हुआ और फिर शादी की किसी को सोचने का भी टाइम नहीं मिला...सब्बे कहता था की उसका लगन बड़ी तेज है...बाउजी ऐसा लड़का कैसे जाने देते. 

दीदी जानती है ये उमर में टुनकी को खुद से प्यार हो रहा है...अपना आवाज, रंग, रूप...सब आँख में बस रहा है...दीदी उसे छुपा के रखना चाहती है, सात परदे में की एक दिन टुनकी को बाहर जा के दुनिया देखनी है, खूब सारा पढ़ना है...वो सब करना है जो दीदी नहीं कर पायी. 

वो हँसते हुए टुनकी का हाथ पकड़ लेती है और दोनों बहनें उस लिपे हुए अहाते में किसी अनहद नाद को सुनते हुए एक ताल में नाचने लगती हैं. इस समय दोनों में कौन ज्यादा सुन्दर है बताना बहुत मुश्किल है.

19 August, 2011

शोर...

जिंदगी के सबसे खुशहाल दिनों में
कहीं, एक नदी सी खिलखिलाती है
सुनहरी धूपों में 

गिरती रहती है मन के किसी गहरे ताल में
झूमती है अपने साथ लेकर सब
नयी पायल की तरह 

कहीं तुम्हारी आँखों में संवरती हूँ तो  
मन का रीता कोना भरने लगता है 
धान के खेत की गंध से 

पल याद बहती है, माँ की लोरी जैसी
पोंछ दिया करती है गीली कोर
टूटता है एक बूँद आँसू

उलीचती हूँ अंजुली भर भर उदासियाँ 
मन का ताल मगर खाली नहीं होता 
मेरी हथेलियाँ छोटी हैं 

लिखने को कितनी तो कहानियां 
सुनाने को कितनी खामोशियाँ
पर, मेरी आवाज़ अच्छी नहीं है 

11 August, 2011

निर्मोही रे

निर्मोही रे
तन जोगी रे
मन का आँगन 
अँधियारा

निर्मोही रे
लहरों डूबे 
सागर ढूंढें 
हरकारा 

निर्मोही रे
आस जगाये
सांस बुझाए 
इकतारा 

निर्मोही रे
रीत निभाए
प्रीत भुलाए
आवारा 

निर्मोही रे
गंगा तीरे  
बहता जाए 
बंजारा

देर रात की कोरी चिट्ठी

बावरा मन
बावरा बन
ढूंढें किसको
जाने कैसे 

रात बाकी
दर्द हल्का
चुप कहानी
गुन रहा 

नींद छपके
चाँद बनके
आँख झीलें
डूब जा

याद लौटी
अंजुरी भर
आचमन कर
हीर गा 

भोर टटका 
राह भटका
रे मुसाफिर
लौट आ 

05 August, 2011

आवारगी...

Lake Geneva, Lausanne
किसी शहर को आप कैसे पहचानते हैं? 
अगर किसी की शहर की आत्मा से मिलना हो तो उसे कैसे ढूँढा जाए...तलाश कहाँ से शुरू की जाए? सड़कों, भीड़-बाजार, रेलवे स्टेशन...इमारतों से...या फिर वहां के लोगों से? किसी नए शहर में आते साथ कभी लगा है की बरसों से बिछड़े किसी दोस्त से मिले हों...या कि बरसों से बिछड़े किसी दुश्मन से. शहर में वो क्या होता है जो पहली सांस में अपना बना लेता है. 

मैं हमेशा शहरों के मिलने को प्यार से कम्पेयर करती हूँ...दिल्ली मेरे लिए पहले प्यार जैसा है...और बंगलोर अरेंज मैरेज के प्यार जैसा. इधर पिछले पंद्रह दिनों में बहुत से और शहर घूमी...कुछ से दोस्ती की...कुछ से इश्क तो कुछ से सदियों पुराना बैर मिटाया...कभी भागते भागते मिली तो कभी ठहर कर उसकी आत्मा को महसूस किया. 

मैंने कभी नहीं सोचा था की इतने कम अंतराल में मैं इतने शहर घूम जाउंगी...पिछले दो हफ़्तों से स्विट्जरलैंड में हूँ. जैसे अचानक से मेरे अन्दर के भटकते यायावर को पंख लग गए हों...एक शहर से दूसरे शहर...से गाँव से बस्ती से पहाड़ से जंगल से नदी से नाव...झील...बर्फ...क्या क्या नहीं घूमी हूँ...यहाँ एक बेहतरीन सी चीज़ होती है...स्विस पास...ये ट्रेन स्टेशन पर मिलने वाला एक जादुई पन्ना होता है...एक बार ये हाथ में आया तो पूरे देश के अन्दर चलने वाली हर चीज़ पर आप मुफ्त सफ़र कर सकते हैं. 

मेरे पास घूमने के लिए बहुत सा समय और मीलों बिछते रास्ते थे...आई-पॉड पर कुछ सबसे पसंदीदा धुनें/गीत/गजलें. लिस्ट में हमेशा पहला गाना होता था 'devil's highway' ये गीत अपूर्व के रस्ते मुझ तक पहुंचा था...तब कहाँ पता था कि कितने हाइवे से गुजरूंगी इस गीत को सुनते हुए और कितने शहरों की हवा में इस गीत के बोल घुल जायेंगे. सुबह कुणाल का ऑफिस शुरू और साथ शुरू मेरी आवारगी...

अनगिन किस्से इकट्ठे हो गए हैं...आज ज्यूरिक में आखिरी दिन है...शाम ढल रही है और चौराहों पर लोग इकठ्ठा हो रहे हैं...मैं जरा अलविदा कह कर आती हूँ. फिर फुर्सत में आपको किस्से सुनाउंगी. 

14 July, 2011

गुज़र जायें करार आते आते

मेरा एक काम करोगे? बस आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपनी आँखों में आँखें डाल कर कह दो कि मुझे दुःख पहुँचाने पर तुम्हारी आत्मा तुम्हें नहीं कचोटती है...क्यूंकि मुझे अब भी यकीन है कि दुनिया में अगर कुछ लोगों के अंदर आत्मा बची हुयी है तो तुम हो उनमें से एक...मेरे इस विश्वास को बार बार झुठला कर तुम्हीं क्या मिलता है?

पता है...अच्छा बनना बहुत मुश्किल है, दुनिया के हिसाब से तो बाद में चला जाए सबसे पहले हमें अपने खुद के हिसाब से चलना होता है. क्यूंकि अभी भी वो वक्त नहीं आया है कि हम अपने अंदर के इंसान को गला घोंट कर मार सकें...बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं. लोग आते हैं चोट देकर चले जाते हैं और हम कुछ कर नहीं पाते...इसलिए नहीं कि हम चोट पहुँचाने के काबिल नहीं है...लेकिन इसलिए क्यूंकि हम चाह कर भी किसी को उस तरह से तोड़ नहीं सकते. अपनी अपनी फितरत होती है.

कितना अच्छा लगता है न कि तुम इस काबिल हो कि किसी को चोट पहुंचा सको...बहुत पॉवरफुल महसूस होता है...कि किसी को कुछ बोल दिया और लड़की रो पड़ी...तोड़ना सबसे आसान काम है...मुश्किल तो बनाना होता है. किसी रिश्ते को खून के आंसू सींच कर भी जिलाए रखना...सहना होता है...धरती की तरह तपना, जलना और फिर भी जीवन देना. सिर्फ इसलिए कि तुम जानते हो कि किसी को तुम्हारी जरुरत है...भले छोटी सी ही सही तुम उसकी जिंदगी का हिस्सा हो...उसे इस बात का और भी शिद्दत से अहसास दिलाना. अरे जी तो लोग भगवान से भी नाराज़ होकर लेते हैं...क्या फर्क पड़ता है किसी के होने न होने से.

बुरा बनना आसान है...कोई कुछ भी कहे तो कह दो कि हम ऐसे ही हैं...तुम्हें पता होना चाहिए था  कि हम बुरे हैं. बुरा होना कुछ नहीं होता...बस अपनी गलतियों के लिए बहाना होता है. कुछ लोग राशि को ब्लेम करते हैं और कुछ फितरत को. वाकई अच्छा बुरा कुछ नहीं होता...होती है बस जिद- दिखने की कि तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो. अंग्रेजी में कुछ शब्द वाकई बड़े सटीक हैं जैसे Status-Quo यानि पलड़ा बराबर का रखना. कुछ देना तो बदले में कुछ लेना भी. पता नहीं हमारे संस्कार ही कुछ ऐसे हो जाते हैं कि रिश्तों में इतना मोलतोल नहीं कर पाते.

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पता नहीं क्यूँ आज शाम बारिश ने कई पुराने ज़ख्म धुला कर नए कर दिए. कितने शिकवे गीले हुए तार पर पड़े हैं...आज दुपहर ही सुखाने डाला था...बस ऐसे ही.
होता है न जब आप सबसे खुश होते हो...तभी आप सबसे ज्यादा उदास होने का स्कोप रखते हो.

11 July, 2011

खोये हुए मौसम

तुमने जो दिन गुमा दिए
उनमें कई खोये हुए मौसम थे
जिनका कसूर सिर्फ इतना था कि
उन्हें लौट आने के रास्ते मालूम नहीं थे

हवा टाँके हुए है...
किसी और शहर की बारिश का गीलापन
और शाम...टूटे वादों की तरह दिलफरेब
ऐसे किसी खोये हुए मौसम में
तुमसे मिलने का दिवास्वप्न. उफ़...

यादों की सारी फाइलें...
रिसाइकिल बिन में हैं बहुत दिनों से
परमानेंटली डिलीट करने में डरती हूँ
तुम कभी जो सर्च करने लगो किसी किस्से को
और नया कंप्यूटर भी इसलिए नहीं लेती...

तुमसे मिलने के लिए...
मंदिर का बहाना पहली गलती थी
भगवान को कमसेकम अपनी साइड रखते हम
उसका गुस्सा...इत्तिफकों का स्टॉक भी
इतने दिनों में कभी हमारे फेवर में नहीं होने देता..

सिर्फ इसलिए कि कुछ टूट गया...
सब कुछ खत्म तो नहीं हो जाता ना
ये कितना बड़ा हक है कि किसी वक्त तुमसे कह सकूँ
'बस तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था'
और तुम कहो 'I love you too'.



08 July, 2011

दुआ की उम्र

'एक बात बतलाइए बड़े पापा, दुआ की उम्र कितनी होती है?'
छोटी सी सिम्मी अपने बड़े पापा की ऊँगली पकड़े कच्ची पगडण्डी पर चल रही थी. घर से पार्क जाने का शोर्टकट था जिसमें लंबे लंबे पेड़ थे और बच्चों को ये एक बहुत बड़ा जंगल लगता था. शाम को घर के सब बच्चे पार्क जाते थे हमेशा कोई एक बड़ा सदस्य उनके साथ रहता था. सिम्मी अपनी चाल में फुदकती हुयी रुक गयी थी. कल उसका एक्जाम था और वो थोड़ी परेशान थी...पहला एक्जाम था उसका. बड़े भैय्या ने कहा था भगवान से मांगो पेपर अच्छा जायेगा...वैसे भी तुम कितनी तो तेज हो पढ़ने में. छोटी सी सिम्मी के छोटे से कपार पर चिंता की रेखाएं पड़ रही थीं...कभी कभी वो अपनी उम्र से बड़ा सवाल पूछ जाती थी. अभी उसने नया नया शब्द सीखा था 'दुआ'.

बड़े पापा उसको दोनों हाथों से उठा कर गोल घुमा दिए...और फिर एकदम गंभीरता से गोद में लेकर समझाने लगे जैसे कि उसको सब बात अच्छे से समझ आएगी. 'बेटा दुआ की उम्र उतनी होती है जितनी आप मांगो...कभी कभी एक लम्हा और कभी कभी तो पूरी जिंदगी'. सिम्मी को बड़ा अच्छा लगता था जब बड़े पापा उससे 'आप' करके बात करते थे...उसे लगता था वो एकदम जल्दी जल्दी बड़ी हो गयी है.

'तो बड़े पापा आप हमेशा इस जंगल में मेरे साथ आयेंगे...हमको अकेले आने में डर लगता है. पर आप नहीं आयेंगे तो हम पार्क भी नहीं जा पायेंगे.'

'हाँ बेटा हम हमेशा आपके साथ आयेंगे'
'हर शाम!'
'हाँ, हर शाम'

उसके बाद उनका रोज का वादा था...शाम को सिम्मी के साथ पार्क जाना...उसको कहानियां सुनाना...बाकी बच्चों के साथ फुटबाल खेलने के लिए भेजना. सिम्मी के शब्दों में बड़े पापा उसके बेस्ट फ्रेंड थे.
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उस दुआ की उम्र कितनी थी?
नन्ही सिम्मी को कहाँ पता था कि दुआओं की उम्र सारी जिंदगी थोड़े होती है...वो बस एक लम्हा ही मांग कर आती हैं. बिहार के उस छोटे से शहर दुमका में उसकी जिंदगी, उसकी दुनिया बस थोड़े से लोग थे...पर सिम्मी की आँखों से देखा जाता तो उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी...और ढेर सारी खुशियों से भरी भी. जैसे पार्क का वो झूला...ससरुआ...कुछ लोहे के ऊँचे खम्बे और सीढियां जिनसे सब कुछ बेहद छोटा दिखता था. घर से सौ मीटर पर का चापाकल...जिसमें सब बच्चे लाइन लगा कर सुबह नहाते थे. घर का बड़ा सा हौज...काली वाली बिल्ली जिसे सिम्मी अपने हिस्से का दूध पिला देती थी. बाहर के दरवाजे का हुड़का- जिसे कोई भी बंद नहीं करता था...बडोदादा का स्कूटर...गाय सब...पुआल और चारों तरफ बहुत सारे पेड़.

छुटकी सी सिम्मी...खूब गोरी, लाल सेब से गाल और बड़े बड़ी आँखें, काली बरौनियाँ...एकदम गोलमटोल  गुड़िया सी लगती थी. उसपर मम्मी उसको जब शाम को तैयार करती थी रिबन और रंग बिरंगी क्लिप लगा कर सब उसे घुमाने के लिए मारा-मारी करते थे. मगर वो शैतान थी एकदम...सिर्फ बड़े पापा के गोदी जाती थी...बाकी सब के साथ बस हाथ पकड़ के चलती थी...अब बच्ची थोड़े है वो...पूरे ३ साल की हो गयी है. अभी बर्थडे पर कितनी सुन्दर परी वाला ड्रेस पहना था उसने. बड़े पापा उसको ले जा के स्टूडियो में फोटो भी खिंचवाए थे.

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दुमका से पटना, दिल्ली और फिर शिकागो...एकदम होशियार सिम्मी खूब पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गयी...रिसर्च के लिए विदेश आये उसे कुछ डेढ़ साल हुआ है. सोचती है अब डिग्री लेकर घर जायेगी एक बार दुमका का भी जरुर प्रोग्राम बनाएगी. हर बार वक्त इतना कम मिलता है कि बड़े पापा से मिलना बस खास शादी त्यौहार पर भी हो पाया है. घर से पार्क के रास्ते में अब भी जंगल है...उसने पूछा है. बड़े पापा अब रिटायर हो गए हैं और शाम को टहलने जाते हैं अपने पोते के साथ. इस बार दुमका जायेगी तो शाम को पक्का बड़े पापा के साथ पार्क जायेगी और इत्मीनान से बहुत सारी बातें करेगी. कितनी सारी कहानियां इकठ्ठी हो गयी हैं इस बार वो कहानियां सुनाएगी और कुछ और कहानियां सुनेगी भी. इस बार जब इण्डिया आना होगा तो बड़े पापा के लिए एक अच्छा सा सिल्क का कुरता ले जायेगी...मक्खन रंग का. उन्हें हल्का पीला बहुत पसंद है और उनपर कितना अच्छा लगेगा.

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उसने सुना था कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं...पर जिंदगी ऐसे दगा दे जायेगी उसने कहाँ सोचा था...जब भाई का फोन आया तो ऐसा अचानक था कि रो भी नहीं पायी...घर से दूर...एकदम अकेले. एक एक साँस गिनते हुए उसे यकीं नहीं हो रहा था कि बड़े पापा जा सकते हैं...ऐसे अचानक.

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याद के गाँव में एक पुराने घर का सांकल खटखटाती है...बड़े पापा उसे गोद में उठा कर एक चक्कर घुमा देते हैं और कहते हैं...दुआ की उम्र उतनी जितनी तुम मांगो बेटा...है न?

आँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है...
'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'

04 July, 2011

एक टुकड़ा जिंदगी (A slice of life )

पात्र: मैं, Anupam Giri (जिसे मैं अपना friend philosopher guide मानती हूँ)

वक़्त: कुछ रात के लगभग बारह बजे...कुणाल को आज देर तक काम है और मुझे फुर्सत है...अनुपम को फुर्सत रात के ११ बजे के पहले नहीं होती है. 

Context: discussing a film script i am working on nowdays


कुछ आधे एक घंटे से मैं उसको कहानी सुना रही हूँ....बिट्स एंड पीसेस में...जैसे की मेरे दिमाग में कुछ चीज़ें हैं...कुछ घटनाएं...कुछ पंक्तियाँ...कुछ चेहरे जो अटके हुए हैं. किरदारों के साथ घुलते मिलते कुछ मेरे जिंदगी के लोग...कुछ गीत....और तेज़ हवा में सालसा करती विंडचाइम...अच्छा सा मूड.
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मैं: और पता है अनुपम...ये जो कहानी है न ...पहली बार ऐसा हुआ है कि मुझे कुछ पसंद आया है और मैंने उसे २४ घंटों के अंदर कचरे के डब्बे में नहीं डाला है...और तुम ही कहते थे न...The best way to judge your work is to read it the next morning...if you still like it...its a good idea.'

अनुपम: हाँ...but you really have to know this girl inside out...her every single trait...her sun-sign...her dressing habits, her fears...dressing sense...her background...तुम उसे जितना अच्छे से जान सकती हो. 

मैं: हाँ मगर अभी मैं बाकी लड़कों का character sketch कर रही हूँ....उसे बाद में लिखूंगी.

अनुपम: What are you afraid of?...तुम्हें डर लग रहा है that in finding this girl you might accidentally  discover who you truly are?

मैं: (बिलकुल ही यूरेका टाइप मोमेंट में कुछ बुदबुदाते हुए) How well do you know me Anupam...gosh...how can you read me like this...(some intelligible sounds) yeah...i mean...no...मतलब...हाँ...उहूँ...ह्म्म्म...ok you win yar!!

(Still astounded)

01 July, 2011

आवाज़ की गुमशुदा गलियों में


देर रात स्टूडियो में...ऑडियो कंसोल पर तुम्हारे आवाज़ की खुरदुरी नोकें हटा रहा हूँ...ये पिनक ऐसी है जिसे मैं चहकना कहता हूँ पर तुम्हारे सुनने वालों को तुम्हारी ठहरी हुयी आवाज़ पसंद आती है...गहरी नदी की तरह. ये काँट छाँट  इलीगल(illegal) कर देनी चाहिए.

यूँ लग रहा है जैसे पहाड़ी नदी पर बाँध बना रहा हूँ...उसकी उर्जा को किसी 'सही' दिशा में इस्तेमाल करने के लिए...गोया कि सब कुछ बहुतमत की भलाई (पसंद!) के लिए होना चाहिए. साउंड वेव देखता हूँ और बचपन में तुम्हारा झूला झूलना याद आता है कि तुम पींग बढ़ाते जाती थी...और जब तुम्हारे पैर शीशम के पेड़ की उस फुनगी को छू जाते थे तुम किलकारियां मार के हँसती थी...और फिर अगली बार में वहां से छलांग...तुम क्या जानो पहले बार तुम्हें वैसे कूदते देखा था तो कैसे कलेजा मुंह को आ गया था मेरा...मुझे लगा कि तुम गिर गयी हो...अब भी डर लगता है...तुम्हें खो देने का. मैं अपने कमरे की खिड़की से तुम्हें कभी देखता था, कभी सुनता था और कभी डरता था कि तुम्हारे पापा का ट्रांसफर मेरे पापा से पहले हो गया तो?

इतनी बार मेरी जिंदगी में आती जाती रही हो कि अब आदत लग जानी चाहिए...फिर भी तुम्हारे जाने की आदत कभी नहीं लगती. जाने कैसे तुम्हारा दिल्ली आना हुआ...और मेरा भी आल इण्डिया रेडियो ज्वाइन करना  हुआ. वैसे तो सब कहते थे तुम्हारी दिन रात के बकबक से कि तुम्हें रेडियो में होना चाहिए...तुम्हें यहाँ देख कर आश्चर्य नहीं होना चाहिए...उस हिसाब से तो मैं यहाँ एकदम अनफिट हूँ...हमेशा से पढ़ाकू, चश्मिश...शांत, शर्मीला...पर जिंदगी ऐसी ही है. हमें मिलाना था...मगर तुम ठहरी जिद्दी...तुम्हारा रास्ता नहीं बदल सकी तो मेरा बदल दिया...और हम ऐसे ही स्टूडियो के आड़े तिरछे रास्तों में टकरा गए.

सोचता हूँ तुम्हारे ऑडियोग्राफ के मुताल्लिक एक मेरा ईसीजी भी निकला जाए...शायद ऐसा ही कुछ आएगा...जिगजैग...कि दिल की धड़कनें कहाँ कतार में चलती हैं...तुम्हारा नाम आया नहीं कि सब डिसिप्लिन ही ख़त्म हुआ जाता है...तुम्हारी आवाज़ का एको(echo) हो जाती हैं बस. 

सोच रहा हूँ तुम्हारा आवाज़ में 'आई लव यू' सुनना कैसा लगेगा.
शायद. परफेक्ट!

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