ए खुदा!
सुना है तेरे गाँव में
एक ऐसा फ़रिश्ता है
जो मरहम से गीत गाता है
कि जिसके क़दमों की आहट से
वसंत बागों में उतर आता है
ए खुदा!
क्या कहीं कोई दरख़्त है
जिससे गले लग कर
तन्हाई ख़त्म सी हो जाती हो
कि जिसकी छाँव तले
इश्क फिर से पनपता है
ए खुदा!
कहते हैं तेरा दिल बड़ा है
तेरे दिल में मेरे लिए
बस थोड़ी सी रहमत नहीं हो सकती
जिंदगी जब मौत से मिलती हो
उस वक़्त मुझे थोड़ी सी खुशियाँ दे सकेगा
ए खुदा!
सब्र करने को, जज़्ब करने को
पल जीने, पल पल मरने को
बहुत लम्बी उम्र दिखती है
मेरे लिए दुआ मांगने
किसी को नहीं भेजा तूने
ए खुदा!
सुना है तुझे वो फ़रिश्ता
बहुत अजीज़ है
मेरी फरियाद सुन...
उससे कह कि वो गीत गाये
उससे कह कभी मेरे गाँव भी आये...
28 January, 2010
22 January, 2010
जिंदगी का एक दिन
मेरा आज का शेड्यूल
१२ बजे इंटरव्यू (जिसमें सवा बारह बजे पहुंची, कर्टसी एक लोकल नेता जो फुल लाल बत्ती में चिल्ला चिल्ला के जा रहा था, सोचती हूँ, ऐसे किसी अमबुलंस के किये ट्राफिक क्यों नहीं रुकता कभी)
एक बजे घर पहुंची, दो ब्रेड टोस्ट कर के चोखा के साथ खायी(जिनको चोखा का मतलब मालूम नहीं हैं, मेरा ब्लॉग पढ़ना अभी बंद करें, किसी बिहारी दोस्त के यहाँ धावा बोलें और लिट्टी चोखा, या खिचड़ी और चोखा बनवा के खाएं, खिचड़ी खाने के लिए शनिवार शुभ दिन है, गृह कटता है पर लिट्टी चोखा कभी भी चलेगा और वैसे भी वीकेंड है)
२:०० ड्राइविंग क्लास्सेस मारुती ड्राईविंग स्कूल में(वो कमबख्त बिल्ली जिसने दो बार मेरा कार सीखते समय रास्ता काटा, कहीं मिल जाए तो कार से चीप ही देंगे अबरी पक्का...या उसका मालिक अगर हो और अगर हमको मिल जाए तो पांच हज़ार दो सो पचास रुपये उससे वसूल लेंगे)
पहुंचे सवा दो के लगभग और बिल्ली की तरह दबे पांव घुसे क्लास में, प्रेजेन्टेशन के लिए किये गए अँधेरे का भरपूर फायदा उठाते हुए सीट पर विराजमान हुए। एयर कंडिशनर से आती मंद मंद पवन, अँधेरा और पेट में हाल फिलहाल पहुंचा खाना, ऐसी नींद आ रही थी की क्या बताएं। बमुश्किल क्लास पर ध्यान दिए, थ्योरी क्लास बहुत दिन बाद कर रहे थे।
साढ़े चार में क्लास ख़त्म हुआ और simulator पर आधे घंटे का क्लास करने गए। simulator एक डब्बेनुमा डब्बा होता है जिसमें कार का इंजन फिट होता है और बाकी कंट्रोल्स कार के ही होते हैं, सामने विडियो स्क्रीन होती है जिसपर रास्ता आता है। विडियो गेम की तरह...बस ये गेम मज़ेदार नहीं होके बड़ा पेनफुल एक्सपेरिएंस होता है...क्लच गियर वगैरह बदलने में इतनी मेहनत करो और डब्बा वहीं का वहीं। (उसमें पहिये नहीं होते)
सवा पाँच में घर पहुंची, भूख के बारे पेट में चूहे और बिल्ली दोनों दौड़ रहे थे फटाफट आलू पराठा बनाये तो देखे फ़ोन में पीडी का मिस कॉल था...भूख ऐसी लगी थी की पहले एक पराठा खाए साथ में पीडी से बतियाये भी, फिर फ़ोन पर ही दूसरा पराठा बनाये.(मतलब पराठा बनाते टाइम भी बात कर रहे थे) वो भला इंसान मेरे लिए परेशान हो रहा था, और हम खाने के लिए हलकान हो रहे थे...तो दोनों काम एक साथ कर लिए।
६ बजे से गिटार क्लास थी, आज दिन भर में टाइम ही नहीं मिला प्रक्टिस करने का, दुखी आत्मा टाईप निकल लिए की आज तो धोपन खायेंगे ही सर से...और खाए भी। कल का होमेवोर्क नहीं किये थे...कुछ बजा ही नहीं ठीक से। पर धीरे धीरे बजेगा ऐसा मुझे भरोसा है :)
दिन भर आना जाना लगा रहा...अभी हवा पी रहे हैं।
इसी दिन भर में सागर को PR के बारे में ज्ञान भी दे दिए, उस ज्ञान का उपयोग करते हुए वो हमको एक लिंक भी भेज मारा, तो पोस्ट भी पढ़ लिए...गज़ब लिखता है लड़का, एकदम्मे गज़ब।
कुल मिला के आज बहुत काम किये हैं हम। शाब्बाश!
१२ बजे इंटरव्यू (जिसमें सवा बारह बजे पहुंची, कर्टसी एक लोकल नेता जो फुल लाल बत्ती में चिल्ला चिल्ला के जा रहा था, सोचती हूँ, ऐसे किसी अमबुलंस के किये ट्राफिक क्यों नहीं रुकता कभी)
एक बजे घर पहुंची, दो ब्रेड टोस्ट कर के चोखा के साथ खायी(जिनको चोखा का मतलब मालूम नहीं हैं, मेरा ब्लॉग पढ़ना अभी बंद करें, किसी बिहारी दोस्त के यहाँ धावा बोलें और लिट्टी चोखा, या खिचड़ी और चोखा बनवा के खाएं, खिचड़ी खाने के लिए शनिवार शुभ दिन है, गृह कटता है पर लिट्टी चोखा कभी भी चलेगा और वैसे भी वीकेंड है)
२:०० ड्राइविंग क्लास्सेस मारुती ड्राईविंग स्कूल में(वो कमबख्त बिल्ली जिसने दो बार मेरा कार सीखते समय रास्ता काटा, कहीं मिल जाए तो कार से चीप ही देंगे अबरी पक्का...या उसका मालिक अगर हो और अगर हमको मिल जाए तो पांच हज़ार दो सो पचास रुपये उससे वसूल लेंगे)
पहुंचे सवा दो के लगभग और बिल्ली की तरह दबे पांव घुसे क्लास में, प्रेजेन्टेशन के लिए किये गए अँधेरे का भरपूर फायदा उठाते हुए सीट पर विराजमान हुए। एयर कंडिशनर से आती मंद मंद पवन, अँधेरा और पेट में हाल फिलहाल पहुंचा खाना, ऐसी नींद आ रही थी की क्या बताएं। बमुश्किल क्लास पर ध्यान दिए, थ्योरी क्लास बहुत दिन बाद कर रहे थे।
साढ़े चार में क्लास ख़त्म हुआ और simulator पर आधे घंटे का क्लास करने गए। simulator एक डब्बेनुमा डब्बा होता है जिसमें कार का इंजन फिट होता है और बाकी कंट्रोल्स कार के ही होते हैं, सामने विडियो स्क्रीन होती है जिसपर रास्ता आता है। विडियो गेम की तरह...बस ये गेम मज़ेदार नहीं होके बड़ा पेनफुल एक्सपेरिएंस होता है...क्लच गियर वगैरह बदलने में इतनी मेहनत करो और डब्बा वहीं का वहीं। (उसमें पहिये नहीं होते)
सवा पाँच में घर पहुंची, भूख के बारे पेट में चूहे और बिल्ली दोनों दौड़ रहे थे फटाफट आलू पराठा बनाये तो देखे फ़ोन में पीडी का मिस कॉल था...भूख ऐसी लगी थी की पहले एक पराठा खाए साथ में पीडी से बतियाये भी, फिर फ़ोन पर ही दूसरा पराठा बनाये.(मतलब पराठा बनाते टाइम भी बात कर रहे थे) वो भला इंसान मेरे लिए परेशान हो रहा था, और हम खाने के लिए हलकान हो रहे थे...तो दोनों काम एक साथ कर लिए।
६ बजे से गिटार क्लास थी, आज दिन भर में टाइम ही नहीं मिला प्रक्टिस करने का, दुखी आत्मा टाईप निकल लिए की आज तो धोपन खायेंगे ही सर से...और खाए भी। कल का होमेवोर्क नहीं किये थे...कुछ बजा ही नहीं ठीक से। पर धीरे धीरे बजेगा ऐसा मुझे भरोसा है :)
दिन भर आना जाना लगा रहा...अभी हवा पी रहे हैं।
इसी दिन भर में सागर को PR के बारे में ज्ञान भी दे दिए, उस ज्ञान का उपयोग करते हुए वो हमको एक लिंक भी भेज मारा, तो पोस्ट भी पढ़ लिए...गज़ब लिखता है लड़का, एकदम्मे गज़ब।
कुल मिला के आज बहुत काम किये हैं हम। शाब्बाश!
20 January, 2010
उलझनें
जिंदगी बेतरह लम्बी फिल्म है
जिसके पात्र अचानक से कहीं चले गए हैं
और मैं स्टेज पर मौन हूँ
अकेली भी हूँ, और कहने को कुछ ढूंढ रही हूँ
फिल्म विथिन अ फिल्म
जब शब्द ना हों तो मुझे बहुत परेशानी होती है
ये शब्द ही इस दुनिया से जुड़े तंतु हैं
अचानक से माईम आर्टिस्ट कैसे बन जाऊं मैं
मैं चाहती हूँ कोई समझे
कि मैं क्यों बाईक ८० पर चलाती हूँ
कभी कभी
और गाने क्यों सुनती हूँ अँधेरे कमरे में
क्यों साफ़ करने लगती हूँ अलमारियां
क्यों बाल्टी भर कपड़े धो डालती हूँ
क्या ये मौन पात्र नहीं हैं
जिंदगी की फिल्म के फ्रेम का हिस्सा
जब बोलती नहीं हूँ
कलम भी नहीं चलती है
जब सोच में शब्द नहीं होते हैं
कोहरे में छिपे दृश्य होते हैं बस
इन्हें किसी कैनवास पर उतार दूं शायद
क्या मुझसे पेंटिंग हो पाएगी?
रंगों को देखती हूँ तो अचानक से
सब ब्लैक वाईट और ग्रे में बदल जाते हैं
अचानक से मैं खो देती हूँ अपनी आँखें
क्या रंगों को छू कर अलग रंगों का पता चल सकता है?
संगीत अपनी लय खो देता है
मुझे वक़्त का आभास होना बंद हो जाता है
इसलिए ताल नहीं दे सकती मैं
तीनताल, दादरा, कहरवा, दुगुन, तिगुन
सब अनजान हो जाते हैं मेरे लिए
खोयी हुयी दुनिया के खोये शब्द
मैं सृजन करना चाहती हूँ
शायद माँ बनना भी चाहती हूँ
ताकि अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ कर
मैं अपनी दुनिया वापस पा सकूँ
जब कोई किरदार नहीं रहे मेरी फिल्म में
मैं एक किरदार पैदा करना चाहती हूँ
औरत हूँ मैं, जिंदगी जन्म दे सकती हूँ
और उसके इर्द गिर्द काट सकती हूँ बाकी समय
बिना गिने हुए, बिना देखे हुए
सिर्फ छू कर...
राधा का भी प्रेम था, यशोदा का भी
कृष्ण ने दोनों को बिछोह दिया
मैं अपने कृष्ण को कहाँ ढूंढ रही हूँ...
---------------------------------------------------------
मुझे लगता है मैं पागल हो जाउंगी बहुत जल्दी।
जिसके पात्र अचानक से कहीं चले गए हैं
और मैं स्टेज पर मौन हूँ
अकेली भी हूँ, और कहने को कुछ ढूंढ रही हूँ
फिल्म विथिन अ फिल्म
जब शब्द ना हों तो मुझे बहुत परेशानी होती है
ये शब्द ही इस दुनिया से जुड़े तंतु हैं
अचानक से माईम आर्टिस्ट कैसे बन जाऊं मैं
मैं चाहती हूँ कोई समझे
कि मैं क्यों बाईक ८० पर चलाती हूँ
कभी कभी
और गाने क्यों सुनती हूँ अँधेरे कमरे में
क्यों साफ़ करने लगती हूँ अलमारियां
क्यों बाल्टी भर कपड़े धो डालती हूँ
क्या ये मौन पात्र नहीं हैं
जिंदगी की फिल्म के फ्रेम का हिस्सा
जब बोलती नहीं हूँ
कलम भी नहीं चलती है
जब सोच में शब्द नहीं होते हैं
कोहरे में छिपे दृश्य होते हैं बस
इन्हें किसी कैनवास पर उतार दूं शायद
क्या मुझसे पेंटिंग हो पाएगी?
रंगों को देखती हूँ तो अचानक से
सब ब्लैक वाईट और ग्रे में बदल जाते हैं
अचानक से मैं खो देती हूँ अपनी आँखें
क्या रंगों को छू कर अलग रंगों का पता चल सकता है?
संगीत अपनी लय खो देता है
मुझे वक़्त का आभास होना बंद हो जाता है
इसलिए ताल नहीं दे सकती मैं
तीनताल, दादरा, कहरवा, दुगुन, तिगुन
सब अनजान हो जाते हैं मेरे लिए
खोयी हुयी दुनिया के खोये शब्द
मैं सृजन करना चाहती हूँ
शायद माँ बनना भी चाहती हूँ
ताकि अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ कर
मैं अपनी दुनिया वापस पा सकूँ
जब कोई किरदार नहीं रहे मेरी फिल्म में
मैं एक किरदार पैदा करना चाहती हूँ
औरत हूँ मैं, जिंदगी जन्म दे सकती हूँ
और उसके इर्द गिर्द काट सकती हूँ बाकी समय
बिना गिने हुए, बिना देखे हुए
सिर्फ छू कर...
राधा का भी प्रेम था, यशोदा का भी
कृष्ण ने दोनों को बिछोह दिया
मैं अपने कृष्ण को कहाँ ढूंढ रही हूँ...
---------------------------------------------------------
मुझे लगता है मैं पागल हो जाउंगी बहुत जल्दी।
18 January, 2010
यूँ जिंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
मुझे मालूम भी नहीं चला कब बाइक चलाना मेरे लिए बोलने या बात करने का पर्याय हो गया। जब मेरे शब्द मुझे बहुत परेशान करने लगते हैं, जब मुझे किसी से बात करने का बहुत मन होने लगता है मैं बाइक लेकर घर से बाहर निकल जाती हूँ...हाथ ऑटो pilot पर चला जाता है...टाइम पर अक्सेलेरटर देना, ब्रेक लेना, इन्डीकेटर देना...सब होता है...पर ऐसे में बहुत सी बातें दिमाग में घूमती रहती हैं, बहुत सी बातें जो मैं शायद किसी और से करना चाहती हूँ। सोचती हूँ इतना अकेले होना कितना दर्द देता है।
ऐसे में अचानक से, बस ऐसे ही सिगरेट पीना चाहती हूँ। मुझे अब इस बात पर यकीन होने लगा है की लोग सिगरेट सबसे ज्यादा बोरियत में पीते होंगे। शायद ऐसा भी लगता है की सिगरेट पीना कहीं ना कहीं खुद को किसी बात के लिए सजा देने के लिए भी पी जाती है। जहर पी के जिन्दा रहना मुमकिन नहीं है ना, इसलिए...धीमा जहर। जो एकदम से मौत नहीं देता, पर इस बात की गारंटी देता है की एक ना एक दिन मौत चुपचाप आके अपने आगोश में ले लेगी।
मुझे शब्द शोर सा लगने लगे हैं, नाकाबिले बर्दाश्त...पढ़ना मुश्किल हो रहा है। एक अजीब सा निर्वात है जिसे किसी चीज़ से भरने में खुद को असफल पा रही हूँ। पहले संगीत या किताबें बिलकुल से ऐसे अजीब विचार मुझे से दूर रखती थीं पर अब नहीं हो पा रहा है। कोई ब्रेक चाहिए मगर किस चीज़ से...क्या अपनेआप से?
कितना आसान होता अगर कभी हम किसी और की जिंदगी जी सकते किसी से यादें स्वैप कर सकते। मैं कुछ पल कुछ और सोच सकती, कोई और सपने देख सकती...
मार्लबोरो लाईट्स का नया डब्बा रखा हुआ है मेज की दराज में कई कागजों के नीचे...उस भरी दराज में बहुत कुछ है, तसवीरें, बिल्स, atm की रसीदें, खुदरा सिक्के, और ढेरों आलतू फालतू चीज़ें। जिस दिन मैं अपने आलस को दूर कर सकुंगी, वो डिब्बा ढूंढ सकुंगी...मगर उसके बाद शायद मेरे बिखरे पड़े घर में लाईटर या माचिस ढूंढना आसान नहीं होगा। बहुत साल हुए उस दिन को...जब लाईटर ख़रीदा था और सिगरेट सुलगाई थी, उसी दिन ये वादा भी तो किया था की इस लाईटर के ख़त्म होने के बाद कभी कोई सिगरेट नहीं पियूंगी। तभी घर के किसी कोने में फेंका था उसे...
पुरानी डायरियों में ये भी देखा था की मुझे भगवान पे बहुत विश्वास था...और बहुत सपने भी थे।
पैक में २० सिगरेट हैं जो पी नहीं, पर साथ में लाये १० चुईंग गम कब के ख़त्म हो चुके हैं, चलूँ कुछ चिल्गम खरीद के रखती हूँ, अगली बार जब सिगरेट पीने की इच्छा जागे उसके लिए।
ये एक शेर, जाने किसका है...उस बेतरह आती याद के लिए जो मुझे जीने नहीं देती।
यूँ जिंदगी गुजार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं।
ऐसे में अचानक से, बस ऐसे ही सिगरेट पीना चाहती हूँ। मुझे अब इस बात पर यकीन होने लगा है की लोग सिगरेट सबसे ज्यादा बोरियत में पीते होंगे। शायद ऐसा भी लगता है की सिगरेट पीना कहीं ना कहीं खुद को किसी बात के लिए सजा देने के लिए भी पी जाती है। जहर पी के जिन्दा रहना मुमकिन नहीं है ना, इसलिए...धीमा जहर। जो एकदम से मौत नहीं देता, पर इस बात की गारंटी देता है की एक ना एक दिन मौत चुपचाप आके अपने आगोश में ले लेगी।
मुझे शब्द शोर सा लगने लगे हैं, नाकाबिले बर्दाश्त...पढ़ना मुश्किल हो रहा है। एक अजीब सा निर्वात है जिसे किसी चीज़ से भरने में खुद को असफल पा रही हूँ। पहले संगीत या किताबें बिलकुल से ऐसे अजीब विचार मुझे से दूर रखती थीं पर अब नहीं हो पा रहा है। कोई ब्रेक चाहिए मगर किस चीज़ से...क्या अपनेआप से?
कितना आसान होता अगर कभी हम किसी और की जिंदगी जी सकते किसी से यादें स्वैप कर सकते। मैं कुछ पल कुछ और सोच सकती, कोई और सपने देख सकती...
मार्लबोरो लाईट्स का नया डब्बा रखा हुआ है मेज की दराज में कई कागजों के नीचे...उस भरी दराज में बहुत कुछ है, तसवीरें, बिल्स, atm की रसीदें, खुदरा सिक्के, और ढेरों आलतू फालतू चीज़ें। जिस दिन मैं अपने आलस को दूर कर सकुंगी, वो डिब्बा ढूंढ सकुंगी...मगर उसके बाद शायद मेरे बिखरे पड़े घर में लाईटर या माचिस ढूंढना आसान नहीं होगा। बहुत साल हुए उस दिन को...जब लाईटर ख़रीदा था और सिगरेट सुलगाई थी, उसी दिन ये वादा भी तो किया था की इस लाईटर के ख़त्म होने के बाद कभी कोई सिगरेट नहीं पियूंगी। तभी घर के किसी कोने में फेंका था उसे...
पुरानी डायरियों में ये भी देखा था की मुझे भगवान पे बहुत विश्वास था...और बहुत सपने भी थे।
पैक में २० सिगरेट हैं जो पी नहीं, पर साथ में लाये १० चुईंग गम कब के ख़त्म हो चुके हैं, चलूँ कुछ चिल्गम खरीद के रखती हूँ, अगली बार जब सिगरेट पीने की इच्छा जागे उसके लिए।
ये एक शेर, जाने किसका है...उस बेतरह आती याद के लिए जो मुझे जीने नहीं देती।
यूँ जिंदगी गुजार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं।
15 January, 2010
उसका नाम पम्मी था
मेरे घर वाले मुझे "पम्मी" बुलाते थे...विविध भारती पर या पाकिस्तान रेडियो पर एक अन्नौंसर या शायरा थी पंजाबी, पम्मी कौर...पापा को उसकी आवाज बहुत अच्छी लगती थी तो बेटी का नाम रख दिया पम्मी...मैं भी शायद आवाज के इसी प्रभाव से बहुत बोलती हूँ। मुझे अगर एक घंटे चुप रहने को बोल दिया जाए तो परेशान हो जाती हूँ।
अब इस नाम को सुने इतने दिन बीत जाते हैं की आश्चर्य होता है, शायद कुछ दिन बाद मैं भूल ही जाऊं की मेरा कोई और नाम भी है...कोई अपना सा नाम...जिससे शीशम के पेड़ों की याद आती है, झूले की भी। पर इस नाम से सबसे ज्यादा याद आती है मम्मी की। मैं मम्मी को increasing आर्डर में अगर चिल्ला के बुला रही होती थी तो शुरू होता था मम्मीS , माँSS और आखिर में बस मीSSSS . और ये चिल्लाना हल्ला करना लगभग एक बार रोज तो हो ही जाता था।
दिल्ली आने के बाद रोज आधा घंटा सुबह, और लगभग एक घंटा रात को बात करते ही थे मम्मी से। जब से मम्मी नहीं है, रोज रात को छटपटा जाते हैं बात करने के लिए। कितना भी चाहूँ किसी और बात पर ध्यान लगाना, नहीं कर पाती। कई बार सोते वक़्त लगता है बहुत दिन हो गए मम्मी से बात नहीं किये हैं। फिर अचानक से याद आता है की अब जहाँ मम्मी है वहां तक कोई नेटवर्क नहीं जाता है।
जो लोग कहते हैं की वक़्त के साथ जख्म भर जाते हैं, झूठ कहते हैं...कुछ जख्म कभी नहीं भरते वक़्त के साथ और गहरे हो जाते हैं, हलकी सी चोट पहले से कहीं ज्यादा दर्द देती है। और दर्द की कोई दवा मुझे मालूम नहीं है। मुझे नहीं पता की ये पहाड़ सी दिखती जिंदगी मैं मम्मी के बिना कैसे काटूँगी...हर चीज़ में उसकी याद आती है।
मुझे ना तो उसके जैसी बादाम की चटनी बनानी आई इतने दिनों में, ना बादाम की चटनी के बिना आलू पराठा खाना आया...ना मुझे सांभर पसंद आता है ना कढ़ी...ना भुजिया ना मूढ़ी। परेशान हो गयी हूँ, खाने में से स्वाद आखिर कहाँ चला गया है?
किसी को खूबसूरत सा स्वेटर पहने देखती हूँ तो टीस उठती है की अभी मम्मी होती तो बस दिखाना भर था और स्वेटर बन के आ जाता। हर ठंढ में कितने स्वेटर, मोज़े, स्कार्फ सब बना देती थी। अब जबसे मम्मी नहीं है, ठंढ ही लगनी बंद हो गयी है। ठंढ का मौसम भी कितना रूखा सा हो गया है। पहले ठंढ का मतलब होता था मम्मी से जिद करके ऐसा कुछ बनवाना जो किसी के पास ना होता हो।
कोई परेशानी, दुःख, ख़ुशी...सब कुछ तो बात कर सकती थी माँ से। अब जैसे अचानक से कुछ नहीं रहा। सब टूट के बिखर गया है।
जो लोग कहते हैं की प्यार सब कुछ होता है जिंदगी में, झूठ कहते हैं। जिंदगी में सब कुछ बस माँ होती है। बस।
तुम्हारी बहुत याद आती है मम्मी।
अब इस नाम को सुने इतने दिन बीत जाते हैं की आश्चर्य होता है, शायद कुछ दिन बाद मैं भूल ही जाऊं की मेरा कोई और नाम भी है...कोई अपना सा नाम...जिससे शीशम के पेड़ों की याद आती है, झूले की भी। पर इस नाम से सबसे ज्यादा याद आती है मम्मी की। मैं मम्मी को increasing आर्डर में अगर चिल्ला के बुला रही होती थी तो शुरू होता था मम्मीS , माँSS और आखिर में बस मीSSSS . और ये चिल्लाना हल्ला करना लगभग एक बार रोज तो हो ही जाता था।
दिल्ली आने के बाद रोज आधा घंटा सुबह, और लगभग एक घंटा रात को बात करते ही थे मम्मी से। जब से मम्मी नहीं है, रोज रात को छटपटा जाते हैं बात करने के लिए। कितना भी चाहूँ किसी और बात पर ध्यान लगाना, नहीं कर पाती। कई बार सोते वक़्त लगता है बहुत दिन हो गए मम्मी से बात नहीं किये हैं। फिर अचानक से याद आता है की अब जहाँ मम्मी है वहां तक कोई नेटवर्क नहीं जाता है।
जो लोग कहते हैं की वक़्त के साथ जख्म भर जाते हैं, झूठ कहते हैं...कुछ जख्म कभी नहीं भरते वक़्त के साथ और गहरे हो जाते हैं, हलकी सी चोट पहले से कहीं ज्यादा दर्द देती है। और दर्द की कोई दवा मुझे मालूम नहीं है। मुझे नहीं पता की ये पहाड़ सी दिखती जिंदगी मैं मम्मी के बिना कैसे काटूँगी...हर चीज़ में उसकी याद आती है।
मुझे ना तो उसके जैसी बादाम की चटनी बनानी आई इतने दिनों में, ना बादाम की चटनी के बिना आलू पराठा खाना आया...ना मुझे सांभर पसंद आता है ना कढ़ी...ना भुजिया ना मूढ़ी। परेशान हो गयी हूँ, खाने में से स्वाद आखिर कहाँ चला गया है?
किसी को खूबसूरत सा स्वेटर पहने देखती हूँ तो टीस उठती है की अभी मम्मी होती तो बस दिखाना भर था और स्वेटर बन के आ जाता। हर ठंढ में कितने स्वेटर, मोज़े, स्कार्फ सब बना देती थी। अब जबसे मम्मी नहीं है, ठंढ ही लगनी बंद हो गयी है। ठंढ का मौसम भी कितना रूखा सा हो गया है। पहले ठंढ का मतलब होता था मम्मी से जिद करके ऐसा कुछ बनवाना जो किसी के पास ना होता हो।
कोई परेशानी, दुःख, ख़ुशी...सब कुछ तो बात कर सकती थी माँ से। अब जैसे अचानक से कुछ नहीं रहा। सब टूट के बिखर गया है।
जो लोग कहते हैं की प्यार सब कुछ होता है जिंदगी में, झूठ कहते हैं। जिंदगी में सब कुछ बस माँ होती है। बस।
तुम्हारी बहुत याद आती है मम्मी।
11 January, 2010
बस इक उस के जैसा दूसरा चाहता है
ए खुदाया दिल मेरा ये क्या चाहता है
बस इक उस के जैसा दूसरा चाहता है
जख्म कितने मिलें मुझको परवा नहीं
उसके होठों पे मेरी दुआ चाहता है
कब रही जिंदगी अपने अरमानों सी
मौत वो एक हसीं ख्वाब सा चाहता है
हर शख्स से कुछ मिलता है उसका तसव्वुर
वो अपनी आँखों में पर्दा नया चाहता है
बहुत दिन हुए तेरा नाम होठों पे आये
बीता अरसा अब धड़कनें सुनना चाहता है
कल खोले थे मैंने डायरी के पन्ने
हर लफ्ज़ अब ग़ज़ल बनना चाहता है
तुम पुकारो नहीं फिर भी लौट आऊं मैं
कोई ऐसी वजह ढूंढना चाहता है
कतरे कतरे में बिखरा हुआ इश्क है
दिल्ली में वैसे ही बिखरना चाहता है
बस इक उस के जैसा दूसरा चाहता है
जख्म कितने मिलें मुझको परवा नहीं
उसके होठों पे मेरी दुआ चाहता है
कब रही जिंदगी अपने अरमानों सी
मौत वो एक हसीं ख्वाब सा चाहता है
हर शख्स से कुछ मिलता है उसका तसव्वुर
वो अपनी आँखों में पर्दा नया चाहता है
बहुत दिन हुए तेरा नाम होठों पे आये
बीता अरसा अब धड़कनें सुनना चाहता है
कल खोले थे मैंने डायरी के पन्ने
हर लफ्ज़ अब ग़ज़ल बनना चाहता है
तुम पुकारो नहीं फिर भी लौट आऊं मैं
कोई ऐसी वजह ढूंढना चाहता है
कतरे कतरे में बिखरा हुआ इश्क है
दिल्ली में वैसे ही बिखरना चाहता है
07 January, 2010
सोचिये तो लगता है भीड़ में हैं सब तनहा
देर रात तक तनहा चाँद से गुफ्तगू की मैंने
फ्लाईट पर खिड़की से कोहनी टिका के
कमबख्त चाँद भी तुम्हारी तरह पास होने का धोखा देता है
---------------
हवाईजहाज से आसमान भी space जैसा दिखता है रात को
चांदनी में लिपटे बादल शनि के छल्लों जैसे
और अचानक जैसे हवाईजहाज टाईम मशीन हो जाता है
लगता है स्वर्ग यहाँ से कुछ ज्यादा नज़दीक होगा
सोचती हूँ भगवान के हाथ एक मेसेज भिजवा दूं
"तुम बहुत याद आती हो मम्मी, इतने दिनों बाद भी उतनी ही"
------------------------
मेरे बचपन के भी किस्से रहे होंगे
कुछ खूबसूरती के, कुछ शैतानियों वाले
कुछ कपड़े लत्तों के, पसंदीदा मिठाइयों के
घूमने फिरने के, रोने धोने के
माँ के जाने के साथ बचपन के सारे किस्से चले जाते हैं।
-------------------------
आज मैंने भी डायरी के कुछ पुराने पन्ने पढ़े, और जी भर के उन सारे लोगों को एक सिरे से कोसा जो कहीं खो गए हैं, गुमशुदा से कुछ लम्हे मिले आँखें नाम करने वाले। dairy मिल्क के कुछ rappers, कुछ स्टिकर्स, एक सूखा हुआ फूल...कुछ मरे कॉकरोच।
और मिली माँ की ढेर सी चिट्ठियां, हिम्मत नहीं हुयी उन्हें खोल कर पढने की...बस लिखावट को देखा और टीसते दर्द को डायरी के साथ बंद कर दिया।
-------------------
किसी ज़माने में एक सीरियल आता था, तनहा...उसका टाइटल गाना बहुत ढूँढा और आज मिल ही गया...मुझे बेहद पसंद है, शायद आपको भी हो...
देखिये तो लगता है, जिंदगी की राहों में,
एक भीड़ चलती है...
सोचिये तो लगता है, भीड़ में है सब तनहा...
फ्लाईट पर खिड़की से कोहनी टिका के
कमबख्त चाँद भी तुम्हारी तरह पास होने का धोखा देता है
---------------
हवाईजहाज से आसमान भी space जैसा दिखता है रात को
चांदनी में लिपटे बादल शनि के छल्लों जैसे
और अचानक जैसे हवाईजहाज टाईम मशीन हो जाता है
लगता है स्वर्ग यहाँ से कुछ ज्यादा नज़दीक होगा
सोचती हूँ भगवान के हाथ एक मेसेज भिजवा दूं
"तुम बहुत याद आती हो मम्मी, इतने दिनों बाद भी उतनी ही"
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मेरे बचपन के भी किस्से रहे होंगे
कुछ खूबसूरती के, कुछ शैतानियों वाले
कुछ कपड़े लत्तों के, पसंदीदा मिठाइयों के
घूमने फिरने के, रोने धोने के
माँ के जाने के साथ बचपन के सारे किस्से चले जाते हैं।
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आज मैंने भी डायरी के कुछ पुराने पन्ने पढ़े, और जी भर के उन सारे लोगों को एक सिरे से कोसा जो कहीं खो गए हैं, गुमशुदा से कुछ लम्हे मिले आँखें नाम करने वाले। dairy मिल्क के कुछ rappers, कुछ स्टिकर्स, एक सूखा हुआ फूल...कुछ मरे कॉकरोच।
और मिली माँ की ढेर सी चिट्ठियां, हिम्मत नहीं हुयी उन्हें खोल कर पढने की...बस लिखावट को देखा और टीसते दर्द को डायरी के साथ बंद कर दिया।
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किसी ज़माने में एक सीरियल आता था, तनहा...उसका टाइटल गाना बहुत ढूँढा और आज मिल ही गया...मुझे बेहद पसंद है, शायद आपको भी हो...
देखिये तो लगता है, जिंदगी की राहों में,
एक भीड़ चलती है...
सोचिये तो लगता है, भीड़ में है सब तनहा...
06 January, 2010
नया साल नयी किताबें
ऐसा ही कुछ नज़ारा देवघर में भी हुआ, टावर के पास, नवयुग पुस्तक भण्डार में, एक आध बार तो हमने इशारे से किताब मांगी, फिर खुद ही चले गए...कितनी धूल खाती किताबें हमने निकाली वहां से, जाने किस किस कोने में पड़ी थी, उपेक्षित...नए साल में हमने उन्हें हवा खिलाने की ठानी थी। साथ खरीददारी करने वाले ने सोचा की इनमें से अब हम अपने काम की छांटेंगे पर हम तो पूरा झोला में भर दिए और थमा दिए...की ढो के ले चलो। आखिर छोटे भाई के रहते हम झोला काहे उठाएं। इस पूरे प्रकरण का इनाम मात्र एक समोसा था :) बेचारा पुरु हमको नहीं लगता है अब कभी मेरे साथ बाजार निकलेगा।
ट्रेन में तो चलो कोई टेंशन नहीं है, कितनो बोरा लाद लें, ठूंस ठंस के धर दें...की घरे तो जाना है, पहुन्च्चे जायेंगे...पर अबरी आना था हवाई जहाज से, मारे डर के धुकधुकी लगा था की निकलवाया हमारा किताब सब तो वही धरना दे देंगे, एक तो हम अकेले नन्ही सी जान हिंदी, हमारी राष्ट्रभाषा का का पूरा वजन अपने कंधे पर उठाये हैं, इसपर हमको कोई मेडल उडल देना तो छोड़ो सामान ले जाने से रोक रहे हैं, घोर राष्ट्रविरोधी ताकतें हैं...इनका धूर्त मंसूबा हम पूरा होने नहीं देंगे। खैर, एयरलाईन वालों को मेरे क्रन्तिकारी तेवर दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी...सारा सामान उतना वजनी नहीं था जितना हमको लग रहा था। तो हम आराम से निकल आये।
हफ्ते भर ठंढ खा के, अलाव ताप के और कोहरे का भरपूर मज़ा उठा के वापस आ गए। इतने दिनों बाद लौट कर सब की इकठ्ठा पोस्ट्स पढने में इतना मज़ा आया की सोच रही हूँ, कुछ अंतराल पर ही पढ़ा करूँ ब्लोग्स, एक साथ पढने का मज़ा ही कुछ और होता है।
बाकी किताबों की लिस्ट नीचे है, इसमें से बिश्रामपुर का संत पढ़ना शुरू किया है अभी...पचपन खम्भे पहले भी पढ़ी है और कमसे कम चार बार खरीद चुकी हूँ, हर बार जाने कैसे यही एक किताब खो जाती है हमसे। कोई मांग के ले जाता है और लौटता नहीं(एक के साथ एक फ्री की तर्ज पर किताबें गायब करने के साथ ही आदमी भी गायब हो जाता है)। चूँकि किताबों का पचा जाना कोई ख़राब बात नहीं है, तो हम माफ़ कर देते हैं। कितनी नावों में कितनी बार के कुछ ही पन्ने पलटाये पर एक एक कविता जैसे दिल में उतरती चली गयी। मेरे ख्याल से ये भी साए में धूप की तरह मेरी पसंदीदा किताब बनने वाली है :)
इसे कहते हैं "हैप्पी न्यू इयर" :)
और ये रही लिस्ट :)
सूरज का सातवाँ घोडा, कुछ लम्बी कविताएँ- धर्मवीर भारती
ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद
उर्वशी, हुंकार- दिनकर
एक वायलिन समंदर किनारे- कृश्नचंदर
देवी चौधरानी- बंकिम चन्द्र
सुहाग के नूपुर- अमृत लाल नागर
प्रतिनिधि कविताएँ- मुक्तिबोध
चित्रलेखा- भगवतीचरण वर्मा
मरकतद्वीप की नीलमणि- कुंवर बेचैन
परती परिकथा- फणीश्वर नाथ रेणु
बादशाही अंगूठी- सत्यजित राय
बिश्रामपुर का संत- श्रीलाल शुक्ल
कागजी है पैरहन- इस्मत चुगतई (आत्मकथा)
नीम का पेड़- राही मासूम रजा
तरकश- जावेद अख्तर
नयी पौध- नागार्जुन
छोटे छोटे सवाल- दुष्यंत कुमार
आपका बन्टी- मन्नू भंडारी
मेरा जीवन ए वन- काका हाथरसी (आत्मकथा)
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो- कर्तुल ऐन हैदर
पचपन खम्भे लाल दीवारें , भया कबीर उदास - उषा प्रियंवदा
आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार- अज्ञेय
बिराज बहू, चन्द्रनाथ- शरतचंद्र
ख़ामोशी से पहले , हरे धागे का रिश्ता - अमृता प्रीतम
लज्जा, French Lover - तसलीमा नसरीन
मंटो की चुनिन्दा कहानियां- मंटो
16 December, 2009
मेरे गिटार का इतिहास :)
तकरीबन सात आठ साल के खुराफाती हुआ करते थे हम उन दिनों...मेरी मम्मी का गिटार जब पहली बार हाथ में आया था। मम्मी ने बड़े शौक से गिटार सीखा था, बहुत अच्छा बजाती थी, पर मेरा जन्म होने के बाद गिटार बेचारा किसी कोने में उपेक्षित हो गया था। अब घर पर हमारी डफली पर कोई और ही राग चल रहा होता तो मम्मी को क्या बजाने का टाइम मिलता होगा ये हम सोच ही सकते हैं, लिख नहीं सकते। खैर...जब घर वालों को लगा कि हम थोड़े समझदार हो गए होंगे तो बेचारा गिटार अपने खोल से बाहर आया। बस उसका दिखना था कि हम टूट पड़े, पिछले जनम का बचा हुआ शायद एक ही दिन बजाने का भूत चढ़ा होगा। दिन में कुछ पांच छह घंटे टिन्गटिन्गा दिए। मन में तो जरूर सोचा होगा की हमसे अच्छा कोई बजा ही नहीं सकता। खैर...अगली सुबह इस अकस्मात् गिटार अतिक्रमण/आक्रमण के कारण हमारा हाथ सूज गया।
चढ़ी नस नकचढ़ी होती है ये किस्सा तो आप हमसे सुन ही चुके हैं...कुछ कुछ उसी मर्ज पर ये हुआ था। उस वक़्त हम देवघर में रहते थे और दो दिनों में एक्साम था, वहां जो डॉक्टर थे उनको दिखाया गया, सिकाई और iodex तो चल ही रहा था, पर सूजन उतरने का नाम ना ले...और ना दर्द गया। वो मेरी जिंदगी का एकलौता एक्साम था जो मैंने किसी और से लिखवाया था...दर दिन भर होता ही रहता था हल्का हल्का। बहुत दिन में जब दर्द नहीं उतरा तो मेरी क्लास टीचर ने एक नस उतारने वाले के पास भेजा। देवघर बस स्टैंड के पास था वो, और शायद यही एकलौता काम करता था...उसने हाथ पकड़ के थोड़ा सा दबाया कुछ दो मिनट तक और दर्द रुक गया। सूजन भी रात भर में दूर हो गयी।
हाथ कि मुसीबत से तो छुटकारा मिल गया पर गिटार फिर दोबारा नहीं मिला कई सालों तक। पटना में जिस स्कूल में पढ़ती थी उसके रास्ते पर एक गिटार की दुकान थी, दो साल तक रोज स्कूल आते जाते मैं देखा करती थी, एक खूबसूरत सा काला गिटार टंगा हुआ था वहां। कॉलेज फर्स्ट इयर में वो गिटार पापा ने खरीद दिया था...उस वक़्त फिर इतना काम रहता था कॉलेज का कि सीखने का टाइम ही नहीं मिला। दिल्ली में भी यहीं हाल रहा।
अब जब बंगलोर में जिंदगी थोड़ी धीमी रफ़्तार से गुजर रही है, हमने सोचा कि अब नहीं तो कभी नहीं। और जा के गिटार स्कूल ज्वाइन किया। दो महीने होने को आये...थोड़ा बहुत समझ में आ रहा है अब। पर इस बुढ़ापे में कुछ सीखने में बड़ी आफत होती है। कुछ भीं आया सीखना बड़ी मेहनत का काम होता है, और कोई शोर्ट कट तो होता नहीं। इतने दिनों में क्या सीखा?
शोर के नए नए आयाम समझ में आये पहली बार। एक छोटे से कमरे में तकरीबन २५ लोग, पच्चीस तरह की चीज़ें बजा रहे हैं अपने अपने गिटार पर। क्लास ख़त्म होने के बाद भी दिमागमें सुरों की उथल पुथल जारी रहती है। कई बार लगता है कि मेरी तथाकथित लम्बी उँगलियाँ सच में बहुत छोटी हैं, तभी तो तारों को बजाने में हालत ख़राब हो जाती है।
गिटार सीखने से ज्यादा मज़ा फोकस मारने में आता है :) तभी तो दुनिया तो बता दिए हैं, कि सीख रहे हैं। यही बोलते हैं कि इस उम्र में क्या सूझी , वैसे भी अब किसी को पटाना तो है नहीं ;) तो हम अपने मन की शांति के लिए अपने जीवन की शांति भंग कर रहे हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आजकल मेरे पडोसी मुझे कुछ अजीब निगाहों से देखते हैं...पर हम बिलकुल आम इंसानों टाइप उनको देख कर मुस्कुराते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। मुझे लगता है जल्दी ही कुछ आस पड़ोस के लोग घर खाली करने वाले हैं। किसी को इधर घर चाहिए तो बता दें :) पड़ोसी का म्यूजिक फ्री मिलेगा इधर :)
कुछ छह महीनों में काम चलाऊ बजने लायक आ जाएगा ऐसा अंदेशा है :) तब तक आप लोग आराम से बिना लैपटॉप को म्यूट किये मेरा ब्लॉग खोल सकते हैं :)
उत्साह बढ़ने वाली टिप्पणियों का स्वागत है :) कृपया डराने वाली टिप्पणी ना करें :D
चढ़ी नस नकचढ़ी होती है ये किस्सा तो आप हमसे सुन ही चुके हैं...कुछ कुछ उसी मर्ज पर ये हुआ था। उस वक़्त हम देवघर में रहते थे और दो दिनों में एक्साम था, वहां जो डॉक्टर थे उनको दिखाया गया, सिकाई और iodex तो चल ही रहा था, पर सूजन उतरने का नाम ना ले...और ना दर्द गया। वो मेरी जिंदगी का एकलौता एक्साम था जो मैंने किसी और से लिखवाया था...दर दिन भर होता ही रहता था हल्का हल्का। बहुत दिन में जब दर्द नहीं उतरा तो मेरी क्लास टीचर ने एक नस उतारने वाले के पास भेजा। देवघर बस स्टैंड के पास था वो, और शायद यही एकलौता काम करता था...उसने हाथ पकड़ के थोड़ा सा दबाया कुछ दो मिनट तक और दर्द रुक गया। सूजन भी रात भर में दूर हो गयी।
हाथ कि मुसीबत से तो छुटकारा मिल गया पर गिटार फिर दोबारा नहीं मिला कई सालों तक। पटना में जिस स्कूल में पढ़ती थी उसके रास्ते पर एक गिटार की दुकान थी, दो साल तक रोज स्कूल आते जाते मैं देखा करती थी, एक खूबसूरत सा काला गिटार टंगा हुआ था वहां। कॉलेज फर्स्ट इयर में वो गिटार पापा ने खरीद दिया था...उस वक़्त फिर इतना काम रहता था कॉलेज का कि सीखने का टाइम ही नहीं मिला। दिल्ली में भी यहीं हाल रहा।
अब जब बंगलोर में जिंदगी थोड़ी धीमी रफ़्तार से गुजर रही है, हमने सोचा कि अब नहीं तो कभी नहीं। और जा के गिटार स्कूल ज्वाइन किया। दो महीने होने को आये...थोड़ा बहुत समझ में आ रहा है अब। पर इस बुढ़ापे में कुछ सीखने में बड़ी आफत होती है। कुछ भीं आया सीखना बड़ी मेहनत का काम होता है, और कोई शोर्ट कट तो होता नहीं। इतने दिनों में क्या सीखा?
शोर के नए नए आयाम समझ में आये पहली बार। एक छोटे से कमरे में तकरीबन २५ लोग, पच्चीस तरह की चीज़ें बजा रहे हैं अपने अपने गिटार पर। क्लास ख़त्म होने के बाद भी दिमागमें सुरों की उथल पुथल जारी रहती है। कई बार लगता है कि मेरी तथाकथित लम्बी उँगलियाँ सच में बहुत छोटी हैं, तभी तो तारों को बजाने में हालत ख़राब हो जाती है।
गिटार सीखने से ज्यादा मज़ा फोकस मारने में आता है :) तभी तो दुनिया तो बता दिए हैं, कि सीख रहे हैं। यही बोलते हैं कि इस उम्र में क्या सूझी , वैसे भी अब किसी को पटाना तो है नहीं ;) तो हम अपने मन की शांति के लिए अपने जीवन की शांति भंग कर रहे हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आजकल मेरे पडोसी मुझे कुछ अजीब निगाहों से देखते हैं...पर हम बिलकुल आम इंसानों टाइप उनको देख कर मुस्कुराते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। मुझे लगता है जल्दी ही कुछ आस पड़ोस के लोग घर खाली करने वाले हैं। किसी को इधर घर चाहिए तो बता दें :) पड़ोसी का म्यूजिक फ्री मिलेगा इधर :)
कुछ छह महीनों में काम चलाऊ बजने लायक आ जाएगा ऐसा अंदेशा है :) तब तक आप लोग आराम से बिना लैपटॉप को म्यूट किये मेरा ब्लॉग खोल सकते हैं :)
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13 December, 2009
लौट के आ जाएँ कुछ दिन बीते
बंगलौर में पढ़ने लगी है हलकी सी ठंढ
कोहरे को तलाशती हैं आँखें
मेरी दिल्ली, तुम बड़ी याद आती हो
पुरानी हो गई सड़कों पर भी
नहीं मिलता है कोई ठौर
नहीं टकराती है अचानक से
कोई भटकी हुयी कविता
किसी पहाड़ी पर से नहीं डूबता है सूरज
पार्थसारथी एक जगह का नाम नहीं
इश्क पर लिखी एक किताब है
जिसका एक एक वाक्य जबानी याद है
जिन्होंने कभी भी उसे पढ़ा हो
धुले और तह किए गर्म कपड़ों के साथ रखी
नैप्थालीन है दिल्ली की याद
सहेजे हुयी हूँ मैं, फ़िर जाने पर काम आने के लिए
जेएनयू पर लिखे सारे ब्लॉग
इत्तिफाकन पढ़ जाती हूँ
और सोचती हूँ की उनके लेखकों को
क्या मैंने कभी सच में देखा था
किसी ढाबे पर, लाइब्रेरी में...
मुझे चाहिए बहुत से कान के झुमके
कुरते बहुत से रंगों में, चूड़ियाँ कांच की
सरोजिनी नगर में वही पुरानी सहेलियां
वही सदियों पुरानी बावली के वीरान पत्थर
इंडिया गेट के सामने मिलता बर्फ का गोला
टेफ्ला की वेज बिरयानी और कोल्ड कॉफ़ी
बहुत बहुत कुछ और...पन्नो में सहेजा हुआ
शायद इतना न हो सके...
ए खुदा, कमसे कम एक हफ्ते का दिल्ली जाने का प्रोग्राम ही बनवा दे!
कोहरे को तलाशती हैं आँखें
मेरी दिल्ली, तुम बड़ी याद आती हो
पुरानी हो गई सड़कों पर भी
नहीं मिलता है कोई ठौर
नहीं टकराती है अचानक से
कोई भटकी हुयी कविता
किसी पहाड़ी पर से नहीं डूबता है सूरज
पार्थसारथी एक जगह का नाम नहीं
इश्क पर लिखी एक किताब है
जिसका एक एक वाक्य जबानी याद है
जिन्होंने कभी भी उसे पढ़ा हो
धुले और तह किए गर्म कपड़ों के साथ रखी
नैप्थालीन है दिल्ली की याद
सहेजे हुयी हूँ मैं, फ़िर जाने पर काम आने के लिए
जेएनयू पर लिखे सारे ब्लॉग
इत्तिफाकन पढ़ जाती हूँ
और सोचती हूँ की उनके लेखकों को
क्या मैंने कभी सच में देखा था
किसी ढाबे पर, लाइब्रेरी में...
मुझे चाहिए बहुत से कान के झुमके
कुरते बहुत से रंगों में, चूड़ियाँ कांच की
सरोजिनी नगर में वही पुरानी सहेलियां
वही सदियों पुरानी बावली के वीरान पत्थर
इंडिया गेट के सामने मिलता बर्फ का गोला
टेफ्ला की वेज बिरयानी और कोल्ड कॉफ़ी
बहुत बहुत कुछ और...पन्नो में सहेजा हुआ
शायद इतना न हो सके...
ए खुदा, कमसे कम एक हफ्ते का दिल्ली जाने का प्रोग्राम ही बनवा दे!
03 December, 2009
इश्क की सालगिरह
"मुझे भी"
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"तू रोज रोज और सुंदर कैसे होती जाती है, बहुत प्यारी लग रही है, नज़र लग जायेगी, इधर आ दाँत काटने दे"
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"मैं मोटी हो गई हूँ क्या?"
"नहीं रे कितनी क्यूट है, टेडी बेअर जैसी, खरगोश क्यूट गालों वाली"
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"सब्जी में नमक ज्यादा है न? हमको लगता है दो बार डाल दिए हैं"
"नहीं रे, झोर में ज्यादा है थोड़ा, पर आलू ठीक है, आलू निकाल के खा रहा हूँ न पराठा के साथ, बहुत अच्छी बनी है"
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"रबड़ी जल गई है रे थोड़ी सी"
"नहीं रे, सोन्हा लग रहा है बहुत अच्छा स्वाद आया है।
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मैंने सीखा:
उसे सबसे ज्यादा प्यार तब उमड़ता है जब मैं अच्छा खाना बनाती हूँ...लोग ऐसे ही नहीं कहते कि दिल तक का रास्ता पेट से होकर जाता है :) [मेरे दिल का रास्ता शायद किसी शौपिंग माल से होकर जाता है]
रात को बालकनी में खड़े होना और कुछ न कहना एक ऐसा अहसास होता है जो शायद बिना महसूस किए समझाया नहीं जा सकता।
रात को झगड़ा करके, रूठ के कभी सोना नहीं चाहिए :) भले देर हो जाए, खूब सारा मन भर झगड़ लेना चाहिए, नींद अच्छी आती है।
खाने में राहर की डाल, भात और आलू की भुजिया से अच्छी चीज़ अभी तक इजाद नहीं हुयी है।
पीने का मजा तभी आता है जब सारे लोग टल्ली होने की औकात रखते हों...जो बेचारा होश में है उसकी हालत अगली सुबह पीने वालों से ख़राब होती है :)
हालांकि सिगरेट से बहुत सी यादें जुड़ी हैं, पर सिगरेट नहीं पीनी चाहिए।
घर में कपड़ों का बटवारा नहीं होना चाहिए, जिसकी इच्छा हो दूसरे की धुली हुयी टी शर्ट मार के पहन सकता है।
जब भी रात को बारिश हो, ड्राईव पर जरूर जाना चाहिए।
कभी कभी ऑफिस बंक कर पिक्चर देखने का मजा ही कुछ और होता है।
नौ से बारह हिन्दी फ़िल्म देखना जाना बेकार है...गोल्ड क्लास में हमेशा नींद आ जाती है :)
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वक्त बहुत जल्दी गुजर जाता है, कभी तो लगता है जैसे जाने कितने दिनों से जानती हूँ तुम्हें, और कभी लगता है कि अभी कल ही तो मिली थी और इतना वक्त गुजर गया मालूम भी नहीं चला।
पहली नज़र का प्यार वाकई होता है, aaj भी सब सुबह सुबह तुम्हें देखती हूँ सबसे पहले, तुमसे प्यार हो जाता है। :)
"हर इंसान को जिंदगी में एक बार प्यार जरूर करना चाहिए, प्यार इंसान को बहुत खूबसूरत बना देता है"
02 December, 2009
बौराए ख्याल

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लड़की
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आजादी हमेशा छलावा ही होती हैं...कितना अजीब सा शब्द होता है उसके लिए...आजाद वो शायद सिर्फ़ मर के ही हो सकती है।
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शादी में बस ownership change होती है, parents की जगह पति होता है। ससुराल के बहुत से लोग होते हैं।
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शादी एक लड़की को किस बेतरह से अकेला कर देती है की वो किसी से कह भी नहीं सकती है। सारे दोस्त पीछे छूट जाते हैं उस एक रिश्ते को बनाने के लिए।
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वो बहुत दिन झगड़ा करती है, बहस करती है अपनी बात रखने की कोशिश करती है...पर एक न एक दिन थक जाती है...चुप हो जाती है...फ़िर शायद मर भी जाती हो...किसे पता।
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एक सोच को जिन्दा रखने के लिए बहुत मेहनत लगती है, बहुत दर्द सहना पड़ता है, फ़िर भी कई ख्याल हमेशा के लिए दफ़न करने पड़ते हैं...उनका खर्चा पानी उसके बस की बात नहीं।
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तुम्हारा सच मेरा दर्द हो जाता है...मेरा सच मेरी जिद के सिवा कुछ नहीं लगता तुम्हें।
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बहुत दिन चलने वाली लड़ाई के बाद किसी की जीत हार से फर्क नहीं पड़ता।
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मेरी हार तुम्हारी जीत कैसे हो सकती है?
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हम थक जाते हैं, एक न एक दिन लड़ते लड़ते...उस दिन एक घर की चाह बच जाती है बस, जहाँ किसी चीज़ को पाने के लिए लड़ना न पड़े, सब कुछ बिना मांगे मिल जाए।
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उससे घर होता है...पर उसका घर नहीं होता...पिता का होता है या पति का।
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जब कभी बहुत लिखने का मन करता है, अक्सर लगता है मैं पागल हो गई हूँ। मेरे हाथों से कलम छीन कर फ़ेंक दी जाए और इन ख्यालों को किसी शोर में गले तक डुबा दिया जाए. मैं अपनी कहानी की नायिका को झकझोर कर उठती हूँ...पर वो महज कुछ वाक्य मेरी तरफ़ फ़ेंक कर चुप हो जाती है...इससे तो बेहतर होता की सवाल होते, कमसे कम कोई जवाब ढूँढने की उम्मीद तो रहती।
लड़की
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आजादी हमेशा छलावा ही होती हैं...कितना अजीब सा शब्द होता है उसके लिए...आजाद वो शायद सिर्फ़ मर के ही हो सकती है।
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शादी में बस ownership change होती है, parents की जगह पति होता है। ससुराल के बहुत से लोग होते हैं।
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शादी एक लड़की को किस बेतरह से अकेला कर देती है की वो किसी से कह भी नहीं सकती है। सारे दोस्त पीछे छूट जाते हैं उस एक रिश्ते को बनाने के लिए।
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वो बहुत दिन झगड़ा करती है, बहस करती है अपनी बात रखने की कोशिश करती है...पर एक न एक दिन थक जाती है...चुप हो जाती है...फ़िर शायद मर भी जाती हो...किसे पता।
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एक सोच को जिन्दा रखने के लिए बहुत मेहनत लगती है, बहुत दर्द सहना पड़ता है, फ़िर भी कई ख्याल हमेशा के लिए दफ़न करने पड़ते हैं...उनका खर्चा पानी उसके बस की बात नहीं।
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तुम्हारा सच मेरा दर्द हो जाता है...मेरा सच मेरी जिद के सिवा कुछ नहीं लगता तुम्हें।
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बहुत दिन चलने वाली लड़ाई के बाद किसी की जीत हार से फर्क नहीं पड़ता।
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मेरी हार तुम्हारी जीत कैसे हो सकती है?
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हम थक जाते हैं, एक न एक दिन लड़ते लड़ते...उस दिन एक घर की चाह बच जाती है बस, जहाँ किसी चीज़ को पाने के लिए लड़ना न पड़े, सब कुछ बिना मांगे मिल जाए।
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उससे घर होता है...पर उसका घर नहीं होता...पिता का होता है या पति का।
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जब कभी बहुत लिखने का मन करता है, अक्सर लगता है मैं पागल हो गई हूँ। मेरे हाथों से कलम छीन कर फ़ेंक दी जाए और इन ख्यालों को किसी शोर में गले तक डुबा दिया जाए. मैं अपनी कहानी की नायिका को झकझोर कर उठती हूँ...पर वो महज कुछ वाक्य मेरी तरफ़ फ़ेंक कर चुप हो जाती है...इससे तो बेहतर होता की सवाल होते, कमसे कम कोई जवाब ढूँढने की उम्मीद तो रहती।
01 December, 2009
तुम बिन जीना
बहुत सी नई पुरानी किताबों में
इन्टरनेट पर बिखरे हजारों पन्नो में
घर की कुछ धूल भरी अलमारियों में
गिटार के बेसुरे बजते तारों में
तुम्हारे पहने हुए कुछ कपड़ों में
अटक अटक के गुजरती रात में
गुजर के ठहरे हुए पिछले तीन साल में
पिछले कुछ दिनों से ढूंढ रही हूँ तुम्हारे हिस्से
सबको एक जगह शब्दों में समेट दूँ
शायद फ़िर चैन से रह सकूं तुम्हारे बगैर कुछ पल
वो लम्हे जब तुम मुझसे दूर होते हो
मुझे सबसे शिद्दत से इस बात का अहसास होता है
कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ
मगर मैं इस अहसास के बगैर ही जीना चाहती हूँ
मुझे अकेली छोड़ के मत जाया करो...
आज ये गीत बहुत दिनों बात सुना...बचपन में सुना था कई बार...पापा के टीवी के रिकार्डेड प्रोग्राम से शायद, या फ़िर रेडियो से...यहाँ डाल रही हूँ की फ़िर खोजने की जरूरत न पड़े...ताहिरा sayed का वो बातें तेरी वो फ़साने तेरे...
इन्टरनेट पर बिखरे हजारों पन्नो में
घर की कुछ धूल भरी अलमारियों में
गिटार के बेसुरे बजते तारों में
तुम्हारे पहने हुए कुछ कपड़ों में
अटक अटक के गुजरती रात में
गुजर के ठहरे हुए पिछले तीन साल में
पिछले कुछ दिनों से ढूंढ रही हूँ तुम्हारे हिस्से
सबको एक जगह शब्दों में समेट दूँ
शायद फ़िर चैन से रह सकूं तुम्हारे बगैर कुछ पल
वो लम्हे जब तुम मुझसे दूर होते हो
मुझे सबसे शिद्दत से इस बात का अहसास होता है
कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ
मगर मैं इस अहसास के बगैर ही जीना चाहती हूँ
मुझे अकेली छोड़ के मत जाया करो...
आज ये गीत बहुत दिनों बात सुना...बचपन में सुना था कई बार...पापा के टीवी के रिकार्डेड प्रोग्राम से शायद, या फ़िर रेडियो से...यहाँ डाल रही हूँ की फ़िर खोजने की जरूरत न पड़े...ताहिरा sayed का वो बातें तेरी वो फ़साने तेरे...
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21 November, 2009
आउट ऑफ़ बॉडी एक्सपीरिएंस
रात के किसी अनगिने पहर
तुम्हारी साँसों की लय को सुनते हुए
अचानक से ख्याल आता है
कि सारी घर गृहस्थी छोड़ कर चल दूँ...
शब्द, ताल, चित्र, गंध
तुम्हारे हाथों का स्पर्श
तुम्हारे होने का अवलंबन
तोड़ के कहीं आगे बढ़ जाऊं
किसी अन्धकार भरी खाई में
चुप चाप उतर जाऊं
जहाँ भय इतना मूर्त हो जाए
कि दीवार सा छू सकूं उसको
अहसासों के परे जा सकूँ
शब्दों के बगैर संवाद कर सकूँ
किसी और आयाम को तलाश लूँ
जहाँ ख़ुद को स्वीकार कर सकूँ फ़िर से
इस शरीर से बाहर रह कर देख सकूँ
अपनी अभी तक की जिंदगी को
तटस्थ भाव से
एक लम्हे में गुजर जाए एक नया जन्म
मेरी आत्मा फ़िर से लौट आए इसी शरीर में
शायद जीवन के किसी उद्देश्य के लिए
भटकाव बंद हो जाए, कोई रास्ता खुले
छोर पर नज़र आए रौशनी की किरण
एक पल की मृत्यु शायद सुलझा दे
जिंदगी की ये बेहद उलझी हुयी गुत्थी
तुमसे पूछूं जाने के लिए
मुझे जाने दोगे क्या?
तुम्हारी साँसों की लय को सुनते हुए
अचानक से ख्याल आता है
कि सारी घर गृहस्थी छोड़ कर चल दूँ...
शब्द, ताल, चित्र, गंध
तुम्हारे हाथों का स्पर्श
तुम्हारे होने का अवलंबन
तोड़ के कहीं आगे बढ़ जाऊं
किसी अन्धकार भरी खाई में
चुप चाप उतर जाऊं
जहाँ भय इतना मूर्त हो जाए
कि दीवार सा छू सकूं उसको
अहसासों के परे जा सकूँ
शब्दों के बगैर संवाद कर सकूँ
किसी और आयाम को तलाश लूँ
जहाँ ख़ुद को स्वीकार कर सकूँ फ़िर से
इस शरीर से बाहर रह कर देख सकूँ
अपनी अभी तक की जिंदगी को
तटस्थ भाव से
एक लम्हे में गुजर जाए एक नया जन्म
मेरी आत्मा फ़िर से लौट आए इसी शरीर में
शायद जीवन के किसी उद्देश्य के लिए
भटकाव बंद हो जाए, कोई रास्ता खुले
छोर पर नज़र आए रौशनी की किरण
एक पल की मृत्यु शायद सुलझा दे
जिंदगी की ये बेहद उलझी हुयी गुत्थी
तुमसे पूछूं जाने के लिए
मुझे जाने दोगे क्या?
20 November, 2009
मेरी खोयी हुयी सुबह
कहीं खो गई थी एक सुबह
उसकी तलाश में जाना पड़ा मुझे
रात के ठहरे हुए पहर में उठ कर
ध्रुव तारा डूबने को तैयार नहीं था
खींच कर लाना पड़ा क्षितिज से सूरज
ताकि सुबह मेरी उनींदी पलकों से उग सके
ये वो खोयी हुयी सुबह नहीं थी लेकिन
जिससे होकर मैं तुम्हारे घर तक पहुँच सकती
और खोल सकती बिना सांकल वाला दरवाजा
तुमने आँखें खोलने से इनकार कर दिया
लावारिस हो गई मेरी लायी हुयी सुबह
और अजनबी हो गया मुझमें पलता हुआ शहर
रात खफा होके दूर चली गई मुझसे
थक गई आँखें चुंधियाती रौशनी में
सपना नहीं रहा...तुम मेरे कोई नहीं रहे
भोर, सांझ, बीच दिन...थोड़ी रात
एक अबोला तुम बिन
मैं तुम्हारी कुछ नहीं रही...तुम मेरे कोई नहीं रहे
ताकि सुबह मेरी उनींदी पलकों से उग सके
ये वो खोयी हुयी सुबह नहीं थी लेकिन
जिससे होकर मैं तुम्हारे घर तक पहुँच सकती
और खोल सकती बिना सांकल वाला दरवाजा
तुमने आँखें खोलने से इनकार कर दिया
लावारिस हो गई मेरी लायी हुयी सुबह
और अजनबी हो गया मुझमें पलता हुआ शहर
रात खफा होके दूर चली गई मुझसे
थक गई आँखें चुंधियाती रौशनी में
सपना नहीं रहा...तुम मेरे कोई नहीं रहे
भोर, सांझ, बीच दिन...थोड़ी रात
एक अबोला तुम बिन
मैं तुम्हारी कुछ नहीं रही...तुम मेरे कोई नहीं रहे
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