आज अखबार देख कर मन कसैला हो गया, मालपुओं की सारी मिठास ख़त्म हो गई। क्या हम एक ही भारत में रहते हैं? बंगलोर में भगवान महावीर कॉलेज के छात्रों की पुलिस ने डंडो से खूब पिटाई की और फ़िर थाने भी लेकर गए...उनका जुर्म(?), वो होली खेल रहे थे। वहीँ आरवी इंजीनियरिंग कॉलेज में वार्डेन ने होली खेलने वाले छात्रों को हॉस्टल से बाहर निकाल दिया और फ़िर कॉलेज के गेट भी बंद कर दिए गए।छात्रों का कहना है कि पुलिस उन्हें रंग खेलने से मना कर रही थी और उनके घर भेजना चाह रही थी, पुलिस ने उनके साथ बदतमीजी भी की...हालाँकि छात्रों को कुछ देर पुलिस थाने में रखने के बाद छोड़ दिया गया।
समझ नहीं आता कि ये पढ़ कर गुस्सा होऊं, दुखी होऊं या फ़िर मैं भी कुछ महसूस करना बंद कर दूँ...
एक वक्त होता था जब स्कूल में जम कर होली खेली जाती थी और होली के हुडदंग में ये बिल्कुल नहीं देखा जाता था कि जिसपर रंग डाल रहे हैं वो किस धर्म का है, या किस जगह का रहने वाला है। हमें याद है कि हम होली खेलते थे तो हमारा यही मानना होता था कि होली सबके लिए है। देवघर में पापा के दोस्त थे, मुकीम अंकल वो तो हर बार होली पर हमारे घर भी आते थे, और हम भी उनके घर जाते थे...उनके बच्चे मुहल्ले के बाकी बच्चों के साथ मिलकर लाल हरे पीले हुए रहते थे। मुझे याद है मुकीम अंकल कहते थे कि बच्चे जब पूछेंगे कि हम होली क्यों नहीं खेल सकते तो क्या जवाब देंगे? कि तुम अलग हो, कि तुम मुसलमान हो...ऐसा तो नहीं कर सकते न सर। हमारे टीचर्स साउथ इंडियन थे पर वो भी हमारे साथ होली खेलने में शरीक होते थे।
होली के दिन किसी को भी रंग लगाने की इजाजत होती थी, चाहे वो पड़ोसी हों, राह चलते लोग हों, दूधवाले भैय्या हो, या उनकी भैंस हो ;) हालाँकि भैंस कि काली कमरिया पर दूजा रंग नहीं चढ़ता था। होली के दिन रंग भरी बाल्टी और पिचकारी लेकर हम रोड पर खड़े रहते थे और हर आने जाने वाले को रंगते थे। दस बजते बजते मम्मी लोग का किचेन में खाना बनाना बंद और टोली निकल पड़ती थी, कितना हल्ला होता था। लोगो को जबरदस्ती घर से निकाल निकाल के रंगा जाता था।
एक वो दिन था और एक आज का दिन है...कल होली आई और चली गई, पता भी नहीं चला...कोई भी नहीं आया रंग खेलने, कई जगह तो ऑफिस में छुट्टी भी नहीं थी...और मुझे लगता था कि होली पूरे भारत में खेलने वाला पर्व है। पर क्या पूरा भारत जैसी कोई जगह है भी? क्या हम सब अपने अपने प्रान्त में नहीं सिमट गए हैं?
कभी मुंबई में हल्ला होता है कि बिहारी लोग छठ मनाते हैं, और आज बंगलोर में हल्ला हो रहा है होली मनाने पर। और हल्ला क्या बाकायदा पुलिस ने होली खेलने नहीं दिया...शक्ति का ग़लत प्रयोग इसी को कहते हैं। और किसी भी बड़े अखबार में इसकी ख़बर तक नहीं छपी है...हम किस मुंह से एकता और भाईचारे की बात करते हैं
असहिष्णुता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि हम अपने से अलग कुछ भी बर्दाश्त ही नहीं कर पाते...चाहे वो धर्म हो, मान्यताएं हो, त्यौहार हों, या फ़िर जीने का ढंग हो। ये क्यों भूल जाते हैं हम कि हम एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं और ये चुनने की आजादी हर एक का मौलिक अधिकार है।
होली तो सारे भेद भाव मिटाने का त्यौहार है, जिसमें सब रंग जाते हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं, कोई जात पांत नहीं...कम से कम इस त्यौहार को तो प्यार से खेलने दिया जाए। वैलेंटाइन डे अच्छे से मनाया जा सके इसलिए ये पुलिस तैनात रहती है ताकि कोई भी परेशान न करने पाए, और हमारा अपना त्यौहार होली जो प्यार और मेलजोल का प्रतीक है, उसी में रंग में भंग डालने पुलिस पहुँच जाती है...ये कौन सा भेद भाव है?
मुझे बंगलोर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता...अपने ही देश में पराये हो गए लगते हैं, कहाँ तो लोग विदेशों में रह कर होली मना लेते हैं...और कहाँ अपने ही देश में लोगो की पिटाई के बारे में अखबार में पढ़ रही हूँ...
रहना नहीं देश बिराना रे...