10 February, 2009

साहस और पिंक चड्डी

परीक्षा में सवाल आया..."साहस किसे कहते हैं?"
छात्र ने पूरा पेपर खाली छोड़ दिया...आखिरी पन्ने पर लिखा
"इसे कहते हैं साहस

हमारा तो मन किया कि हम भी साहसी हो जाएँ और एक ब्लॉग पोस्ट ब्लैंक कर दें...अगर लोगो ने इस (दु:)साहस की बधाई दी तो सिद्ध हो जायेगा कि उपरोक्त उदहारण सही है...या सत्य घटना है। पर फ़िर आख़िर में हिम्मत नहीं हुयी...या यूँ कहिये कि ये लगा कि अगर कमेन्ट पन्ना भी ऐसा ही कुछ खाली खाली आया तो? वैसे भी आजकल ब्लॉगजगत में रीशेशन की मार पड़ी हुयी है, लगता है सबने लिखना पढ़ना छोड़कर काम में दिल लगा लिया है, बस हम जैसे निठल्ले रोज रोज पोस्ट डाले जा रहे हैं।

अगले हफ्ते से वॉयलिन क्लास ज्वाइन कर रही हूँ। बहुत दिन से सीखने का मन था पर किसी ना किसी कारण हो ही नहीं पाता था, कभी घर के पास कोई स्कूल ही नहीं मिला...कभी तेअचेर हमारे घर के पास आने को तैयार नहीं। वॉयलिन हमेशा से बड़े अचम्भे की चीज रही है मेरे लिए...तो अच्छा लग रहा है कि चलो एक नाम कटा लिस्ट से।

आजकल विषयों की कमी हो गई है...और वैलेंटाइन के पहले लोगो ने इतना हल्ला मचाया कि सारा रोमांस काफूर हो गया...बरहाल मैं तो पिंक चड्डी भेजने वाली हूँ राम सेने के ऑफिस और १४थ को पब भी जाउंगी। आपमें से भी किसी को चड्डी भेजनी है तो लिंक पर क्लिक करें।

मेरे ख्याल से saahas इसे कहते हैं...चुप चाप बैठे रहने के बजाई कुछ करना...कुछ भी।

09 February, 2009

बिदारी तेरी जय हो

कहीं कोई कुछ ग़लत करता है तो हम सब मूसल ले के दौड़ पड़ते हैं उसका सर फोड़ने के लिए...पर कोई अच्छा करे तो एक शब्द नहीं कहते उसकी तारीफ़ में...ग़लत बात, बहुत ग़लत बात।

तो आज की ये पोस्ट बंगलोर के पुलिस कमिश्नर शंकर बिदारी के लिए...sir, i salute you। जब हर कोई पोलिटिकली करेक्ट होने के लिए भूल जाता है कि सही आचरण क्या है...अपने वोट बैंक पॉलिटिक्स और फूट डालने की राजनीति करने वाले लोग, किसी भी सही ग़लत उपाय के माध्यम से नाम हासिल करते लोग...ऐसे में चाहे पल भर के लिए ही सही किसी को तो याद आया कि भारत का एक संविधान भी है और इसने हमारे अधिकार दिए हैं जिनकी रक्षा करना पुलिस का काम है।

बिदारी ने प्रेस मीट में कहा "the constitution has guaranteed `the right to every individual to observe their cultural norms, speak their language and practice their religion subject to the condition that such observance will not violate any provisions of the law of the land।" मैं अनुवाद इसलिए नहीं कर रही कि किसी चूक से कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाए। ऐसी बातें बहुत दिन बाद सुनने को मिली हैं...हमारे नेता तो भूल ही गए हैं कि उनके व्यवहार के लिए कोई आचार संहिता है, कोई संविधान है।

मैं बिदारी कि कोई प्रशंशक नहीं हूँ, कई बार मेरे मतभेद भी रहे हैं उनके उठाये क़दमों से, पर इस बार मैं उनकी तहे दिल से प्रशंशा करती हूँ...for once, somebody is doing their job...and doing it the way it should be done। एक स्वस्थ समाज में अपने निर्णय लेने कि आजादी बहुत जरूरी है...इससे आपसी सद्भाव और मिल जुल कर रहने की भावना को बल मिलता है। tolerance बहुत जरूरी है...खास तौर पर तेज़ी से बदलते समाज में. अगर हम सिर्फ़ अपना कर्तव्य ठीक से करें तो हम इस समाज को एक बेहतर जगह बनाने की सबसे जरूरी कोशिश कर रहे हैं।

अधिकार के साथ साथ कर्तव्य भी आते हैं, rights and duties go together hand in hand.
अगले शनिवार प्यार को मानाने का दिन है...इस आजादी में थोड़ा प्यार हमारे देश के लिए भी...आख़िर हम स्वतंत्र हैं, निर्भय है, और सबसे जरूरी...जागरूक हैं.

जाने कहाँ ये पंक्तियाँ पढ़ी थी मन पर बड़ा गहरे असर करती हैं.
तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित...चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ.

08 February, 2009

८० किमी/घंटा से भागता चाँद...आपने देखा है?

आपने कभी ८०km प्रतिघंटा की रफ़्तार से चाँद को भागते देखा है?
मैंने देखा है...पर उसके लिए आपको पूरी कहानी सुननी पड़ेगी...वैसे ज्यादा लम्बी नहीं है :) तो किस्सा यूँ शुरू होता है...

अब रात भर अगर जाग के गप्पें करेंगे तो भूख तो लगेगी न? ११ बजे पिज्जा खा चुके थे हम...और वो पच चुका था, घर में चिप्स, बिस्कुट, मैगी, मिक्सचर जैसी जितनी चीज़ें थी, सब खा चुके थे...और भूख थी कि शांत होने का नाम नहीं लेती...तो ऐसे में बेचारा मजबूर क्या करेगा...बंगलोर में कुछ भी रात भर खुला नहीं रहता। कुछ देर तो हम बैठ कर दिल्ली के गुणगान करते रहे...convergys के पराठों के बारे में सोच कर पेट तो भरेगा नहीं न। तो हम दुखी आत्मा लीला पैलेस में फ़ोन किए(घर के सबसे पास में वही था)...कि भइया खाने को कुछ मिलेगा...उनका रेस्तौरांत खुला था...हम खुसी खुशी तैयार हो गए। हाँ जी रात के तीन बज रहे हैं तो क्या...फाइव स्टार में जाना है तैयार तो होएँगे ही।

अब निकलने की बारी आई तो जनाब को वक्त सूझा...रात के तीन बजे तेरे लिए जाना सेफ होगा कि नहीं, मैं जा के ले आता हूँ। और मैं रात के तीन बजे घर में अकेली तो खूब सेफ रहूंगी न...मैं नहीं रुक रही घर में अकेले। खूब झगडे के बाद डिसाइड हुआ कि भूखे मरो...नहीं ले के जायेंगे लीला।

हमारे लिए भूखे रहना प्रॉब्लम नहीं था...प्रॉब्लम थी कि हम तैयार हो गए थे, और एक लड़की जब तैयार हो जाती है और उसे घूमने जाने नहीं मिलता तो उसे बहुत गुस्सा आता है...तो जाहिर है हमें भी आया...तो हमने फरमान सुनाया कि नहीं लीला गए तो क्या हुआ...बाईक से एक राउंड लगाऊँगी चलो...

अब मैं आप लोगो को बताना भूल गई थी कि मैंने kinetic flyte खरीदी, एप्पल ग्रीन कलर में, और इतने दिन में कभी खाली सड़क पर चलने का मौका नहीं मिला था...और न ही उसके १२५ सीसी इंजन को टेस्ट करने का। तो हम घर से निकले...
मैं अपनी नई flyte पर और कुणाल पल्सर १५० सीसी पर, वैसे तो बात बस २५ सीसी की थी :) मैंने बहुत अरसे बाद इतनी खाली सड़कें देखी थी...और फ्लाईट का पिक उप इतना कमाल का था कि बयां नहीं कर सकती...स्टार्ट होते ही यह जा वह जा वाली बात हो गई...कुणाल जाने कितनी दूर रह गया था।

८० की स्पीड पर लगभग १० साल बाद कुछ चलाया था...लगा हवा से बातें कर रही हूँ। बंगलोर का हल्का ठंढ वाला मौसम...सड़क के दोनों ओर बड़े घने पेड़ और ऊपर चाँद...भागता हुआ, आश्चर्य कि ८५ पर भी चाँद मेरे से आगे ही भाग रहा था, टहनियों के ऊपर से तेज़ी में जैसे हम दोनों के अलावा कहीं कुछ है ही नहीं बस स्पीडोमीटर पर हौले हौले बढती सुई। शायद गाड़ी चलाते हुए चाँद को बहुत कम लोगो ने देखा हो...मैं लड़की हूँ शायद इसलिए....या शायद कवि हूँ इसलिए...पर यकीं मानिए वो चाँद मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत चाँद था। और मैंने उसे हरा नहीं सकी...इतना खूबसूरत नारंगी पीलापन लिए हुए उसका रंग...आधे से थोड़ा बड़ा...मुझे तो कोई खाने की मिठाई लग रही थी(जाहिर सी बात है भूख में घर से निकली थी न)।

अच्छा इसलिए भी लगा कि बहुत दिन बाद एक लम्हे के लिए जिंदगी को जिया था...यूँ लगा हम बेहोश पड़े थे और अभी अभी होश में आए हैं. बहुत दिनों बाद लगा कि बिना डरे जीना क्या होता है...thrill नाम की भी कोई चीज़ होती है मैं बिल्कुल भूल गई थी. फ़िर से लगा कि रगों में खून बह नहीं रहा, दौड़ रहा है.

कुछ देर बाद गाड़ी धीमी की...तब तक जनाब भी पहुँच गए थे :) बाप रे क्या मस्त पिक अप है इसका यार और कित्ते पे गाड़ी चला रही थी तू? मैंने कहा ८५ पर...उसका कहना था, गाड़ी की औकात से ज्यादा स्पीड में चला रही थी मैं. खैर मैंने उसे बहुत चिढाया कि एक लड़की से हार गया...वो भी स्कूटी से छि छि :D
मैंने उससे पूछा कि तूने चाँद देखा...कितना खूबसूरत लगता है भागते हुए...और उसने कहाँ कि नहीं, वो गाड़ी चलाते हुए सड़क देखता है. :) तो मैंने सोचा आप लोगो को भी बता दूँ...आपने भी शायद नहीं देखा हो चाँद कभी.
पर यकीं मानिए...८० की स्पीड पर भागता हुआ चाँद जितना खूबसूरत लगता है...खिड़की में अलसाया हुआ चाँद कभी लग ही नहीं सकता, या झील में नहाता हुआ भी नहीं।

आप में से किसी को try करना है तो कीजिये ...फ़िर हम बातें करेंगे :)
PS: गाड़ी की फोटो जल्दी ही लगाउंगी :)

06 February, 2009

लव मैरेज करनी है? बंगलोर आ जाईये

जी हाँ! ये है राम सेने का धमाकेदार ऑफर...जो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक दिन के लिए है...जी हाँ, १४ फरवरी यानि वैलेंटाइन डे के लिएअगर आप प्रेम विवाह करना चाहते हैं, और आपके रास्ते में समाज रोड़ा अटका रहा है, परिवार वाले राजी नहीं हो रहे...तो आपके लिए ये स्पेशल ऑफर...१४ तारीख को अपने पसंदीदा जोडीदार को ले कर बंगलोर आईये...करना कुछ नहीं है, बस साथ घूमना हैहाँ अगर आप चाहते हैं की आप ये ऑफर किसी भी तरह मिस करें तो पब में बैठें, राम सेने की सबसे पसंदीदा जगह है...अरे आपने टीवी पर देखा तो होगा।


अब सुनिए ऑफर के बारे में विस्तृत जानकारी, श्री राम सेने ने घोषणा की है की उनके दस्ते १४ तारीख को बंगलोर me घूमेंगे और जो भी जोडियाँ उन्हें मिलेंगी उनकी शादी करा देंगे। उनके साथ में एक पंडित रहेगा और यही नहीं वो शादी को रजिस्ट्री भी करवाएंगे.


अपनी मर्जी से शादी करने में कितने झंझट है ये वही जान सकता जो इन लफड़ों में पड़ा हो या जिनके दोस्त इस इश्क के दरिया में उतर गए हों...अजी हुजूर अगर आप कायदे से रजिस्ट्री करके शादी करना चाहते हैं तो भूल जाइए क्योंकि पहले तो आप दोनों के नाम की लिस्ट टंग जायेगी कोर्ट में वो भी एक दो दिन नहीं, पूरे एक महीने...खुदा न खस्ता इस बीच अगर घर में ख़बर पहुँची तो बस लड़की तो सीधे शहर से ही एक्सपोर्ट ho जायेगी...फ़िर करते रहिये किससे शादी करते हैं। अगर आर्य समाज में शादी करनी है तो भी लंबा चौडा चक्कर लगता है...खूब सारे पैसे भी खिलाने पड़ते हैं. इसके बाद बहुत सारा भाषण सुनना पड़ता है. तब जाके शादी होती है.


और राम सेने वाले आपकी मुफ्त में शादी करा रहे हैं, भगवान उनका भला करे...उन्हें दुनिया के इश्क करने वालों की दुआएं लगेंगी...मैं तो सोच रही हूँ उनपर एक कविता भी लिख दूँ(इससे ज्यादा और मैं कर भी क्या सकती हूँ). उनका ये क्रांतिकारी अभियान उन्हें इश्क के इतिहास में अमर कर देगा...ये तो संत वैलेंटाइन से भी महान आत्मा हैं.

ये ऑफर लड़कियों के लिए खास तौर से डिजाईन किया गया है...श्री राम सेने से बड़ा हमारा शुभ चिन्तक आज धरती पर कोई नहीं है. लड़कियों सुनो...अगर तुम्हारे बोय्फ्रेंड्स शादी के लिए आनाकानी कर रहे हैं सीधा इलाज है, किसी भी बहने उनके साथ इस दिन पब चली जाओ...तुम्हारी शादी होने को कोई नहीं रोक सकता...न तो लड़का न उसका बाप :)

यही नहीं इनके पास दूसरा ऑफर भी है...राखी ऑफर...इससे पता चलता है की वो हम लड़कियों की कितनी फ़िक्र करते हैं...मान लो आपको कोई मनचला तंग करता है, ऑफिस या कॉलेज में कोई आप पर ज्यादा ही ध्यान देता है, और आपके साफ़ साफ़ कहने के बाद भी आपका पीछा नहीं छोड़ रहा है। आप इस नमूने को लेकर पब चले जाइए. राम सेने के रक्षक आयेंगे और आप आराम से उन्हें राखी बाँध देना. समस्या से हमेशा के लिए छुट्टी. ये राखी या मंगलसूत्र वाला ऑफर सिद्ध करता है कि भारत में अभी भी लड़कियां आजाद हैं और अपनी मर्जी से चुनाव कर सकती हैं.


देखिये मौका छूट न जाए...आज ही अपनी टिकेट बुक कराइये...जल्दी कीजिये जी, और देखिये अब तो हवाई जहाज की टिकेट भी सस्ती हो गई है...तो आप इंतज़ार किस चीज़ का कर रहे हैं? बंगलोर में एयर शो के कारण होटल जल्दी ही फुल हो जायेंगे...पर आप फ़िक्र मत कीजिये चाहे उसी शाम रिटर्न फ्लाईट से वापस जाना पड़े आइये जरूर.


राम सेने जिंदाबाद...हमारी स्वतंत्रता जिंदाबाद

हमारा रक्षक कैसा हो...राम सेने जैसा हो

आज के लिए इतना ही...बाकी तारीफ़ बाद में करेंगे :)


तो आप बंगलोर रहे हैं ?

05 February, 2009

गीत का वसंत


सिर्फ़ शाम के होने भर से कैसे सब कुछ बदला बदला सा लगने लगता है...ठंढी हवा गालों को दुलराने लगती है...और उसी हलकी सी हवा में पेड़ों पर पत्ते झूमने लगते हैं...पगडण्डी जैसे बाहें पसार देती है, गिरते हुए पत्तों को आलिंगन में लेने के लिए।

सूखे पत्तों का कालीन बिछ जाता है, जैसे वापस धरती के गोद में जाने के सुकून से...चाँद कालीन पर रेशमी डोरियों से कशीदाकारी करता है...छन कर आती चांदनी थिरकती रहती है हवा के झोंके के साथ ताल में।

ऐसी किसी रात को जब सड़क पर थोडी चांदनी हो, और थोडी स्ट्रीट लाईट की पीली रौशनी...टीले के नीचे किसी सीढ़ी पर बैठ ईंट के टुकड़े से तुम्हारा नाम लिखने का मन करता है। इत्मीनान से किसी पुरानी याद को जीने का मन करता है...पूरी बारीकियों के साथ, कपडों के रंग से लेकर घड़ी की सुइयां तक देखना चाहती हूँ फ़िर से। चाँद की वो कौन सी रात थी...शायद चौदहवी...पूर्णिमा नहीं थी वो मुझे याद है।


और ऐसी एक रात में एक गीत जन्म लेता है...जो शायद कहीं रूह से निकलता है, ये गीत होठों पर नहीं होता...जैसे मैं एक पूरा का पूरा गीत बन जाती हूँ। धड़कनें थिरकने लगती हैं, पैर ताल देने लगते हैं उसपर...कुछ पल, जैसे जिंदगी से चुरा लेती हूँ मैं और बांस के झुरमुट में झूमने लगती हूँ, बरगद में झूला डाल देती हूँ


ऐसी ही एक लड़की लोकगीतों में गायी जाती है...जाने क्या है उन बोलों में कि सुनकर लगता है...वसंत आ गया है.

04 February, 2009

दोपहर के पलाश



उदास दुपहरें
ठिठके खड़े हुए से पेड़

हौले हौले गिरते पत्ते

जाने क्यों यादों जैसे लगते हैं

जैसे कोई ठौर न हो

यूँ चलती हुयी हवाएं

बिना राग के चहचहाते पंछी

सड़कों पर चुप चाप

मेरे साथ चलती परछाई

कहीं दूर से आता हुआ

गाड़ियों का शोर

कुछ ठहरा नहीं है...

रीत गया है

इस बेजान दोपहर में

धड़कनें गा रही हैं विदाई

धूप चिता की गर्मी सी लग रही है

झुलसाती, तड़पाती...और बेबस

फाग के मौसम में

इस शहर में पलाश नहीं दिखे

शायद मैं बहुत दूर आ गयी हूँ

यहाँ तक वसंत नहीं आता...

और मैंने तुमसे फूल मांग लिए थे

होली का रंग बनाने के लिए

लगता है तुम बहुत दूर चले गए हो

सुनो, फूल ना भी मिले तो

तुम लौट आना...

तुमसे ही मेरा वसंत है

03 February, 2009

यूँ ही

वो कौन सा सच होता है जो सामने होते हुए भी नहीं होता?

जैसे तुम हो...मगर तुमसे बात नहीं कर सकती, टोक भी नहीं सकती...सामने से गुजर जाओ और कुछ कह भी नहीं सकती...मेरे शहर में आओ मगर तुमसे मिलने की ख्वाहिश नहीं कर सकती।

तुम्हारा शहर किसी हादसे से गुजर जाए और मैं तुम्हारी खैरियत के बारे में नहीं जान सकती...तुम्हें सोच नहीं सकती, तुम्हें भूल नहीं सकती...

तुम्हारी राहों पर चल नहीं सकती, अपनी राहों पर तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर सकती...चौराहों पर पूछ नहीं सकती कि तुमने कौन से राह ली है...अंदाजन चलती जाती हूँ।

वो रिश्ते भी तो होते हैं न जो बस एक तरफ़ के होते हैं, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह नहीं होने से मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह मैं किसी और को तो नहीं दे सकती न...

क्या पुल जला देने से पुल के पार वालो का होना ख़त्म हो जाता है...नहीं न?

ठीक है गुनाहों कि माफ़ी नहीं होती...सज़ा तो होती है...मेरी सज़ा ही मुक़र्रर कर दो...या उसके लिए भी क़यामत का इंतज़ार करना होगा?

02 February, 2009

ख़त

एक ख़त लिखा

जिसमें वो सारी बातें लिखी

जो तुमसे कहना चाहती थी

उस मुलाकात के दरम्यान अधूरी रही कुछ बातें

कुछ अपने दिल के गहरे राज़

कुछ अतीत के किस्से

कुछ भविष्य के ख्वाब

पर मुझे तुम्हारे नाम के अलावा कुछ नहीं पता

इंतज़ार कर रही हूँ

वक़्त के डाकिये का

उसके पास तो सभी का पता रहता है

उससे पूछ कर तुम्हारा ख़त डाल दूँगी

तुमने तो मेरा नाम नहीं पूछा था

पर एक मुलाकात के रिश्ते भर को

किसी अजनबी का ख़त पढोगे?

30 January, 2009

बेतरतीब ख्याल

मुझे अँधेरा पेंट करना है, रौशनी तो अब तक कितने लोगो ने पेंट की है, कितने मौसमों की तरह...सूर्यास्त और चाँद रातों की तरह...

तुम ये क्यों नहीं कहती की मुझे खुशबू पेंट करनी है?

मैं क्यों कहूं और तुम मुझे क्यूँ बता रहे हो?

और तुम शोर पेंट क्यों नहीं करती?

जब मैं कह रही हूँ की मुझे क्या पेंट करना है तो तुम ये बाकी नाम गिनने की कोशिश क्यों कर रहे हो? तुम मेरी तरफ़ हो या अंधेरे की तरफ़...

मैं पेंटिंग हूँ, मुझे किसी की तरफ़ होने की क्या जरूरत है।

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क्या लेखक का कुछ भी अपना नहीं होता? इतना अपना की उसे किसी के साथ बांटने की इच्छा न हो ? जब तक ख्यालों को शब्द नहीं मिले हैं वह लेखक के हैं। शब्द क्या हैं? एक समाज से मान्य अर्थ की पुष्टि के यंत्र ...शब्दों से परे जो सोच है वही सत्य है। होना क्या है...existence?

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वो कौन से लोग होते hain जो माचिस की डिब्बियों पर साइन करते हैं, या १० रुपये के नोट पर अपना नाम और नम्बर छोड़ देते हैं।

मैं भी किसी पत्थर पर तुम्हारा नाम लिखना चाहती थी, बताओ न अगर मैंने लिखा होता तो क्या तुम पढ़ते? और अगर तुम पढ़ते तो क्या तुम्हें मालूम होता कि मैंने लिखा है?

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कल रात ऐसे ही कागज पर कलम घिस रही थी...बहुत दिन बाद कलम पकड़ी थी, अच्छा लग रहा था लिखना, हालाँकि लिखा हुआ खास पसंद नहीं आया. ऐसे कि बेतरतीब ख्यालों के टुकड़े हैं. कभी कभी यूँ ही ख्याल समेटना अच्छा लगता है.
PS: आज वेबदुनिया पर एक आर्टिकल आई है मेरे बारे में...आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं

29 January, 2009

एक झगडा रोजाना...

"मैं बाईक तुमसे अच्छा चलाती हूँ"

"जानता हूँ"

"तो मुझे ही चलाने दो न, मैं नहीं बैठूंगी तुम्हारे पीछे...तुम्हें क्या पीछे बैठने में शर्म आती है"

"हाँ आती है, मैं किसी लड़की के पीछे नहीं बैठ सकता"

"और ये जो लड़कियों की बाईक चलते हो, उससे तुम्हारी शान नहीं घटती...कोई भी देख कर कहेगा की मेरी ही गाड़ी में मुझे भगाए ले जा रहे हो...भला ६ फुट का होते हुए ये पिद्दी सी गाड़ी क्यों चलाते हो...तुमपर बिल्कुल सूट नहीं करता।"

"तुम्हारे साथ पीछे बैठूं, मेरा दिमाग ख़राब हुआ है क्या...आख़िर एक्सपेरिएंस भी कोई चीज़ होती है, सिर्फ़ जानने से क्या होता है, कितने दिन हुए हैं तुम्हें अभी सड़क पर उतरे हुए, एक बिल्ली रस्ते में आ जाए तो ऐसे ब्रेक मरती हो की भगवान् बचाए"

"वाह वाह तुम्हें भगवन बचाए और बेचारी बिल्ली को...उसको तो भगवान बचने नहीं आएगा न उस बेचारी के लिए तो मुझे ही ब्रेक मारने पड़ेंगे। पता है बिल्ली को मरना ब्रह्महत्या के इतना बड़ा पाप है...घोर कुम्भीपाक नरक मिलता है उससे, और तो और सोने की बिल्ली बनवा कर दान करनी पड़ती है, वो भी बिल्ली के वजन जितनी"

"तुम्हें ये बातें कहाँ से सूझती हैं, दिमाग के अन्दर डायलोग फैक्ट्री फिट करा रखी है...बातें सुनूँ तुम्हारी की सड़क पर ध्यान दूँ...फ़िर पटक दूँगा तो बोलोगी सबको"

"वाह वाह उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, एक तो गिराओगे और फ़िर हल्ला करोगे की किसी को बोलना नहीं...मेरे जैसी बेवकूफ लड़की मिल गई है न, अपनी नई नई गर्ल्फ़्रेन्ड को बाईक से गिरा दे, ऐसे लड़के के साथ कौन घूमेगी बताओ। तू बैठ एक दिन पीछे, मैं तुझे गिरूंगी...हद होती है, कभी मुझे चलने ही नहीं देता...अगर हर बार तू ही चलाएगा तो मैं सीखूंगी कैसे...डरपोक कहीं का"

"कुछ दिन रुक जा...इलेक्शन आ रहे हैं, कोई न कोई पार्टी चक्का जाम कराएगी ही , उस दिन पूरी सड़क खली रहेगी...तू आराम से चला लेना तब"

"हाँ हाँ तू तो चाहता ही यही है ऐसा कुछ हो और मेरी गाड़ी का कचूमर बन जाए...न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...पर ये मत भूल मेरा ड्राइविंग लाइसेंस मुझे तेरी बाईक चलने की पेर्मिस्सिओं देता है...देखना एक दिन फुर्र्र हो जाउंगी, तेरी बाईक उठा के...फ़िर ढूंढते रहना"

"मैं भला क्यों ढूँढने लगा...तू और बाईक दोनों आफत से एक साथ छुटकारा...वैसे बता के भागना वरना मैं सोचूंगा ट्रैफिक वाले उठा कर ले गए।"

"हवा पियो...एक दिन मैं तुम्हें पक्का गिरा दूंगी....देख लेना"

(dialog लिखने की practice कर रही हूँ...स्क्रिप्ट के लिए...यहाँ छापने का मन किया...डाल दिया...आपको गरियाने का मन कर रहा है :) गरिया लीजिये)

कभी कभी हम कुछ चीज़ों को बड़ी सीरियसली लेने लगते हैं, ऐसे में उसे तोड़ने के लिए कुछ उट पटांग तो करना ही पड़ता है...इसलिए ये पोस्ट

सवालों के दरमियाँ

I believe freedom is my right to make a few mistakes of my own and learn from them।


मंगलौर में जो हुआ, शर्मनाक है...अख़बारों ने चीख चीख कर कहा ये तालिबान का राज है वगैरह वगैरह...और इतने हो हंगामे के बाद कुछ गिरफ्तारियां हुयी हैं।
हम कहने को तो आजाद हवा में साँस लेते हैं, मगर क्या ये सच में आजादी है? जरा सा भी लीक से अलग हट कर चलिए तो दिखेगा कि सारी दुनिया विरोध में खड़ी है हर कोशिश की जायेगी आपको रास्ते पर लाने की, खास तौर से अगर आप एक महिला हैं तो।

एक लड़की पर हज़ार बंदिशें पहले तो उसके परिवार के तरफ़ से लगती हैं, उसके बाद खड़ा हो जाता है समाज और इन सब बंधनों को ठुकरा के अगर कोई अपने हिसाब से जीना चाहता है तो ये स्वयंसिद्ध ठेकेदार हैं जो जिम्मेदारी उठा लेते हैं। नैतिकता और सभ्यता के नाम पर गुंडागर्दी होती है सरेआम...और ऐसे माहौल में हम कुछ महीनो में वोट देने वाले हैं।


आज सुबह पेपर में ख़बर आई कि एक बच्चे कि बलि दी जाने वाली थी पर ऍन मौके पर वहां से गुजरते कुछ लोगो ने आवाजें सुनी और उसे बचा लिया गया...और बलि भी क्यों, गड़ा हुआ खजाना पाने के लिए! कभी कभी तो लगता है जाने हम किस सदी में जी रहे हैं. आज भी कई पुरानी मान्यताएं हैं जिनका कोई आधार नहीं है, सिर्फ़ इसलिए जीवित है कि सवाल उठाने की जहमत कोई नहीं करता.
मुझे आज एक आर्टिकल बड़ी पसंद आई...उसमें सिर्फ़ सवाल पूछे गए थे...सरकार से, पुलिस से, और उस संगठन से...जानती हूँ इन सवालों का जवाब कभी नहीं आएगा फ़िर भी देख कर सुकून मिलता है कि कोई सवाल तो कर रहा है। हमारे लिए जरूरी है कि जो जैसा होता है उसे वैसे ही स्वीकारें नहीं, सवाल हमारी असहमति का पहला कदम है.


पर हम बच्चो से तक इसलिए चिढ जाते हैं कि वो सवाल बहुत करते हैं...क्यों कैसे किसलिए कब तक ... RTI एक्ट एक ऐसे ही सवाल करने वाले लोगों को राहत देता है। कुछ सवाल बाकियों से और एक हमारा ख़ुद से...

हम इस बदलाव के लिए क्या कर रहे हैं?

27 January, 2009

ख्वाहिशों का आँगन

ख्वाहिशों के आँगन में
एक पौधा मेरा भी...

दूसरे महले पर तुम्हारा कमरा है
उसकी खिड़की तक पहुंचना है
रात को तुम्हारे ख्वाबों में
खुशबू बन आने के लिए...

सूरज से झगडा कर
तुम्हारी आंखों पर
एक भीना परदा डालने को
उस खिड़की पर फूलना है मुझे...

बारिश की फुहार
मुझे छू कर ही तुम तक पहुंचे
उस हलकी बहती हवा में
यूँ ही झूमना है मुझे...

जाडों में तुम्हारे साथ
थोडी धूप तापनी है मुझको भी
गर्मियों में तुम्हारे लिए
वो चाँद बुलाना है...
ये ख्वाहिशों का आँगन क्या
तुम्हें जीने का बहाना है...

25 January, 2009

मुकम्मल


कोई तो बात होगी तुममें

जो तुमसे मिलकर...

जिंदगी मुकम्मल लगने लगी


हाशिये पर बिखरे पड़े अल्फाज़

खतों की मानिंद सुकून देने लगे

जिस रोज़ तुमने इन पन्नो को हाथ में उठाया


वो आधी नींद की बेहोशी में खटके से उठना

रुक गया है...

मैं पुरसुकून ख्वाबों के आगोश में ही जागती हूँ


वो लब जिनपर आंसू थामे रहते थे

तेरे नाम की सरगोशी से

मुस्कुराने लगे हैं...


तुममें ऐसी कितनी बातें हैं जान...

कि तुमसे मिलकर

जिंदगी मुकम्मल लगने लगी है।






24 January, 2009

किसी मोड़ पर



बहुत जरूरी है कि हमें याद रहे

भूलना...

ताकि वक़्त वक़्त पर

हम एक दूसरे को उलाहना दे सकें

पैमानों में नाप सकें प्यार को

और हिसाब लगा कर कह सकें

कि किसका प्यार ज्यादा है...


बहुत जरूरी है

किसी मोड़ पर बिछड़ना

ताकि फ़िर किसी राह पर

मिलने कि उम्मीद बरक़रार रहे

और हम अपने कदम दर कदम बढ़ते रहे

चाहे उन क़दमों से फासले ही क्यों न बढें


बहुत जरूरी है

अपने दरमयान एक दूरी रखना

अपने वजूद को जिन्दा रखने के लिए

क्योंकि अगर जिन्दा रहेंगे हम दोनों

तभी to रहेगा प्यार...हमारे बीच

अगर ये बीच की दूरी ही न रहे

प्यार का वजूद भी नहीं होगा...


इसलिए मेरे हमसफ़र
आज दो नई राहें चुनते हैं
और उनपर बढ़ते हैं

ताकि अगर कहीं हम आगे जा कर मिले

तो हमारे पास दो कहानियाँ होंगी

और अगर हम बहुत दूर चले गए

तो वापस आ जायेंगे

बस हमें अपने प्यार पर भरोसा रखना होगा

कि हम लौट कर आ सकें

और अगर कोई पहले पहुँच जाए

तो इंतज़ार करे

प्यार में सबसे खूबसूरत

इंतज़ार ही तो होता है...नहीं?

22 January, 2009

बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल...और हम :)


कल बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल का समापन था .कुछ अपरिहार्य कारणों ने मुझे रोक दिया...वरना मैं जरूर जाती। गुलाबी टाकीस देखने का मेरा बड़ा मन था। और कुछ और भी अच्छी फिल्में आ रही थी ।

बरहाल...वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। लालबाग के पास विज़न सिनेमा में फेस्टिवल चल रहा था। रजिस्ट्रेशन फी ५०० रुपये थी रजिस्टर होने के बाद एक आई कार्ड और एक बुकलेट मिली जिसमें प्रर्दशित होने वाली सभी फिल्मो के बारे में जानकारी थी...खास तौर से कौन से अवार्ड्स मिले वगैरह और कहानी के बारे में थोड़ा आईडिया...ये काफ़ी अच्छी था क्योंकि एक साथ दो फिल्में प्रर्दशित हो रही थी, तो ये निश्चय करना की कौन सी देखूँ आसान हो जाता था।


मुझे आश्चर्य लगा ये देखकर कि हॉल लगभग हाउसफुल था, मुश्किल से कुछ ही सीट खाली होंगी। मैंने नहीं सोचा था कि बंगलोर में ऐसे फिल्मों के लिए भी दर्शक मौजूद हैं। ये मेरा किसी फ़िल्म फेस्टिवल का पहला अनुभव था, और पहली बार अकेले फ़िल्म देखने का भी। दोनों अनुभव अच्छे रहे मेरे :) तो मैं निश्चिंत हूँ, कि फ़िर से कहीं ऐसा हो तो मैं जा सकती हूँ। फ़िल्म देखने वाले लोगों में महिलाएं भी बहुत थी और बाकी की भीड़ में कॉलेज स्टुडेंट से लेकर वयोवृद्ध पुरूष और महिलाएं भी दिखी। इतने सारे लोगों के बीच होना भी अच्छा लगा। बहुत दिन बाद फ़िर से लगा कि IIMC के दिन लौट आए हैं, जैसे इस वक्त कोई फ़िल्म देख कर निकलते थे तो लगता था कि कुछ तो अलग है...ये सोच कर भी मज़ा आता था कि इन लोगो के दिमाग में क्या चल रहा होगा।

आज एक फिल की चर्चा करना चाहूंगी...फ़िल्म बंगलादेश की थी...नाम था रुपान्तर. फ़िल्म में एक डाइरेक्टर एकलव्य पर एक फ़िल्म बना रहा है, गुरुदक्षिणा, कहानी जैसा कि हम सभी जानते हैं महाभारत काल की है और द्रोणाचार्य के एकलव्य के अंगूठे को गुरुदक्षिणा के रूप में मांगने की है. डायरेक्टर शूट करने एक संथाल गाँव के पास की लोकेशन पर जाता है, वहां शूटिंग देखने गाँव से कई लोग आए हुए हैं. पर जब शूटिंग शुरू होती है और एकलव्य तीर चलाता है तो लोग प्रतिरोध करते हैं और कहते हैं कि उसका तीर पकड़ने का तरीका ग़लत है, तीर को अंगूठे और पहली अंगुली नहीं, पहली ऊँगली और बीच की ऊँगली से पकड़ते हैं. यह सुनकर डायरेक्टर चकित होता है और इस बारे में रिसर्च करता है. वह पाता है कि वाकई तीरंदाजी में अंगूठे का कोई काम ही नहीं है. इससे उसकी पूरी कहानी ही गडबडाने लगती है...और शूटिंग रुकने वाली होती है.

शाम को इसी समस्या पर यूनिट के लोग भी मिल कर चर्चा करते हैं , पुराने ग्रंथों में भी कहीं भी तीर को कैसे पकड़ते हैं के बारे में जानकारी नहीं है. इस चर्चा के दौरान एक लड़की सुझाव देती है कि हो सकता है समय के साथ तीरंदाजी करने के तरीकों में बदलाव आया हो, उसकी ये बात निर्देशक को ठीक लगती है और वह उसपर सोचने लगता है. और आख़िर में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हो सकता है तीरंदाजी वक्त के साथ बदली हो. इसी बदलाव को वह फ़िल्म का हिस्सा बनाता है...कहानी ऐसे बढती है...

जब एकलव्य के बाकी साथियों को पता चला कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में लिया है और अब एकलव्य तीर नहीं चला सकता तो वो निर्णय लेते हैं कि वो भी तीर धनुष नहीं उठाएंगे. इस बात पर एकलव्य उन्हीं रोकता है और वो वचन देते हैं कि वो उसकी आज्ञा का पालन करेंगे. यहीं पर बाकी के भील निर्णय लेते हैं कि वो भी बिना अंगूठे का इस्तेमाल किए तीर चलाएंगे. उनके लिए ये बहुत मुश्किल होता है, वो बार बार असफल होते हैं...पर उनका कहना है कि अगर हम असफल हुए तो हमारे बेटे कोशिश करेंगे अगर वो भी असफल हुए तो भी आने वाली पीढियां इसी तरह से तीरंदाजी करेंगी, अंगूठे का प्रयोग वर्जित होगा.

इतिहास में कहीं भी दर्ज नहीं है कि पहली बार सफलता किसे मिली, पर उनकी कोशिशों के कारण आज एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बदला ले लिया गया है. और तीरंदाजी में कहीं भी अंगूठे का इस्तेमाल नहीं होता.

कहानी बहुत अलग सी लगी इसमें निर्देशक कहता भी है...कि वास्तव में क्या हुआ ये पता करना इतिहासकारों का काम है...पर मैं एक कल्पना तो दिखा ही सकता हूँ. यह एक फ़िल्म में फ़िल्म की शूटिंग है. पात्र और उनकी एक्टिंग बिल्कुल वास्तविक लगती है. कहानी की रफ़्तार थोडी धीमी है पर इसे बहुत बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.

बॉलीवुड फिल्मो की चमक दमक के बाद ऐसी यथार्थपरक फ़िल्म देखना एक बेहद सुखद अनुभव रहा. अगर आपको भी ये फ़िल्म किसी स्टोर पर मिलती है तो देखें, वाकई अच्छी है.

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