२०० पोस्ट हो गए। सोचा था कुछ अच्छा लिखूंगी...कुछ खूबसूरत, बिल्कुल अलग सा अहसास लिए हुए।
मगर अब लगता है शायद खूबसूरत अहसास ख़त्म हो गए हैं। मुझे नहीं मालूम कि मुंबई धमाकों से इतना ज्यादा परेशान क्यों हूँ, शायद तीन दिन तक एक हादसे के ख़त्म होने का इंतज़ार करना एक अलग तरह की दहशत को जन्म देता है। असुरक्षा की भावना इतने गहरे बैठ गई है कि जिंदगी पटरी पर आने का नाम ही नहीं लेती। एक मित्र से बात कर रही थी इसी मुद्दे को लेकर...आश्चर्य लगा जब उसने कहा कि तू इतनी परेशान हो रही है, for an event that has not even directly affected you। तो क्या अगर मेरा कोई अपना उस ब्लास्ट में मरता तो ही किसी घटना को मुझे अफ्फेक्ट करना चाहिए...शायद ऐसा होता है...शायद ऐसा हर बार हुआ हो। पर इस बार मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ है।
जब दिल्ली में थी तो जैसे आदत सी पड़ गई थी, यहाँ बंगलोर आई तो आने के एक हफ्ते बाद ही यहाँ भी ब्लास्ट हो गया। लगा कि अपने ही देश में हम निश्चिंत क्यों नहीं रह सकते। अब यहाँ ६ महीने के पहले वोटर id कार्ड तो बनेगा नहीं, तो इंतज़ार कर रही हूँ, जनवरी में नाम के लिए अप्लाय करुँगी। आज इलेक्शंस हुए और कहीं भाजपा तो कहीं कांग्रेस जीती, हालाँकि इससे ये नहीं कहा जा सकता कि आने वाले लोकसभा चुनावों का क्या हाल रहेगा...पर मुझे सच में आश्चर्य होता है कि लोगों ने अभी भी कांग्रेस को वोट कैसे दिया। यही तो तरीका है जताने का कि हम खुश नहीं हैं, अपने आसपास के हालातों से, हमारे जीने के तरीके से। एक बेसिक सुरक्षा का हक तो है हमें...जिन्दा रहने का हक।क्या ऐसा इसलिए हो रहा है कि वाकई परवाह नही है बन धमाकों कई, कि एक आम आदमी को चिंता नहीं है, और ये जो इतना हल्ला हो रहा है, थम जायेगा रुक जायेगा। पब्लिक की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है। वक़्त आने पर ये भी भूल जायेगी कि हमें वोट देने जाना है।
पिछले हफ्ते मैंने एक फ़िल्म डायरेक्शन पर वर्कशॉप में हिस्सा लिया था। अब हमें एक फ़िल्म बनानी है ३-५ मिनट की, मैं सोच रही हूँ कि कुछ ऐसा बनाउँ जिसे देखकर लोग घर से निकलने पर मजबूर हो जाएँ। देखें कैसी होती है कहानी और कितना असरदार होता है...जल्दी ही पोस्ट करुँगी।
"वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए "
- दुष्यंत कुमार
२००वीं पोस्ट मेरे देश तुझको समर्पित
hamare yaha ki reet hai mutmain ho jana, aaj halla macha, kal sab fir se wahi. Aaj ka election result mujhe bhi jhinjhor raha hai.
ReplyDeleteयही तो विडंबना है पूजा जी, हम सब बरसाती मेंढक बने बैठे हैं..............
ReplyDeleteपरेशान तो सब ही थे....सारा ही देश......कोई अपने आपे में ना था.....देश के एक-एक नागरिक को पता है कि क्या करना चाहिए....बस हमारे नेतृत्व को नहीं पता.... अब कोई क्या करे....परेशाँ होने के सिवा......!!
ReplyDeleteडबल-सेंचुरी की बधाई और आपकी अतिलघु-फ़िल्म के लिए शुभकामनाएं!
ReplyDeleteक्या करे पूजा जी.. लोग कहने को कुछ भी कह लें और किसी भी पार्टी को गाली दे दें.. मगर वोट तो उसे ही करेंगे जो उनकी जाती का होगा या ऐसा ही कुछ और समीकरण होगा.. पता नहीं लोग कब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे..?
ReplyDeleteDOHRAA SHATAK HONE PAR MUBARAK BAAD.....YEH SILSILA YH H CHALTA RAHE
ReplyDeleteद्विशतकिय पोस्ट की अनंत शुभकामनाए और बधाईयाँ ! मैं तीन तीन घंटो की फिल्मे बना चुका हूँ और आपका मिजाज ( लेखन द्वारा ) देखते हुए ग्यारंटी देता हूँ की आप इसमे सफल रहेंगी ! अग्रिम बधाई !
ReplyDeleteरामराम !
हम में ही शायद कुछ कमियाँ हैं जिसके कारण हर बार ऐसी घटनाएं घट जाती हैं। और हम दो मिनट का शौक बनाकर फिर से वैसे ही हो जाते हैं। हम ही अपने आप को नही बदल पाते तो इन नेताओ को कैसे बदल पाऐंगे। खैर.....।
ReplyDeleteआपकी ३-५ मिनट की फिल्म के लिए शुभकामनाएं और इंतजार रहेगा उसका।
पूजा कभी कभी सोचता हूँ सवेंदनशील होना शायद कभी गुण रहा होगा ,आजकल ये कमजोरी माना जाने लगा है..एक उम्र के बाद जब आप इस दुनिया में कदम रखते है है तो एक गली से आपको गुजरना होता है जिसके एक कोने पर बड़ा सा बोर्ड लगा देखते है ,जिस पर बड़ा बड़ा लिखा होता है "प्रेकटीकलटी" जिसका मतलब है अब आपको आत्मकेंद्रित होना है अगर जीवन में सफलता पानी है.....यानी जो कुछ आपने इस उम्र तक अपने भीतर संजोया है .उससे आहिस्ता आहिस्ता अपने से अलग करना है......तुम उस गली में अभी दाखिल हुई हो ओर मै कुछ कदम चल चुका हूँ....कुछ पीछे छोड़ चुंका हूँ कुछ साथ ले चला हूँ....तुम कहाँ तक ओर कितना साथ ले चलोगी ....ये तुम पर है......निदा फाजिल की एक नज़्म है...इसे पढो..लोग तो बरसो से समझदारी की बात करते आए है ...ये ज़माना मगर सुनता नही....
ReplyDeleteमस्जिदों मंदिरों की दुनिया में
मुझको कहाँ पहचानते है लोग
रोज मै चाँद बनके आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हंसाता रहता हूँ छुप के बहनो में
मै ही मजदूर के पसीने में
मै ही बरसात के महीने में
मेरी तस्वीर आँख का आंसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू
मस्जिदों मंदिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नही जब लोग
मै जमीनों को बेजिया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
मै खुदा बनके कहर ढहाता हूँ
काश लोग बड़े मुद्दों को देखकर वोट देते... अपनी जाति, धर्म से ऊपर कहाँ सोच पाते हैं लोग ! और क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर राष्ट्रिय मुद्दों पर वोट देने की बात अभी तो नहीं दिखती मुझे.
ReplyDeleteदोसौवीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई. लिखते रहिये, बहुत शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपको डबल सैन्चुरी की बहुत-बहुत बधाई.
ReplyDeleteपूजा जी, मेरा तो मानना है कि सच्चा दोषी समाज है, हम खुद हैं। क्योंकि हम खुद ही इन हमलों और मौतों के प्रति इतनी असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें ये ज़्यादा समय तक विचलित नहीं करतीं।
शानदार दोहरे शतक के लिये बधाई! आगे के लिये मंगलकामनायें!
ReplyDeleteआपने दुष्यंत के शेर से बात खत्म ही है। आपके लिए दुष्यंत का एक शेर प्रस्तुत है..
ReplyDeleteकौन कहता है आकाश में छेद नहीं हो सकता।
एक पत्थर तो जरा दम से उछालों यारों।
ये दो शतक दो सहस्त्र हो जाय, शीथ्र ही - बधाई। आपकी शार्ट फिल्म भी शीघ्र आए और सब को भाए-इसी कामना के साथ शुभकामनाऎं
ReplyDelete