07 December, 2008

मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी

देश में होने वाले अनगिन ब्लास्ट में

अगर मैं मर जाऊं

मुझे कविता में ढूंढ़ना...

गुलमोहर रो रहे होंगे

हर साल वसंत में

आक्रोश भी उभरेगा दहकते फूलों में

मैं नहीं रहूंगी लेकिन...

बारिशें भी, गाहे बगाहे

कभी जनवरी में भी

भिगा जायेंगी

दिल्ली की सड़कें

जहाँ खून गिरा होगा मेरा...

नाराज होकर घर से मत जाओ

एक दिन भी

जाने तुम्हारे लौट आने तक

जो surprise गिफ्ट खरीदने निकली थी

चिथड़े हो चुका हो...

किसी आतंकवादी को कहाँ मालूम होगा

मेरा जन्मदिन, या वर्षगांठ

उनके प्लान्स तो बहुत पहले से बनते हैं

३०० लोग में किसी न किसी का तो हो ही सकता है

तारीखों से क्या फर्क पड़ता है...

शब्दों में समेट देती हूँ

ढेर सारा प्यार

इन्हें खोल के देख लेना

मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी...

PS: कृपया इसे कविता समझ कर न पढ़ें, आजकल बहुत परेशान हूँ, कुछ तारतम्य नहीं है शब्दों में। लिख रही हूँ क्योंकि लिखे बिना रह नहीं सकती। जी रही हूँ क्योंकि अभी तक माँ का हाथ है सर पर.

22 comments:

  1. आपकी भावनाए समझ सकता हूँ ! आक्रोश को निकल जाने दो ! अन्दर मत रखिये !

    रामराम !

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  2. sach kaha aaj kal kisi ki mansikta thik nahi,sab kaam kar rahe hai magar ek khauf ek aakrosh ek jwala hai dil mein,na shabd saath dete hai magar bhawanae aati rehti hai.

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  3. ये आक्रोश और उसके बाद भी शब्दों में जिन्दा रहने की आकांक्षा
    यही तो संबल है हर कठिन हालत में आगे बढ़ते जाने के लिए

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  4. कोमल भाव के शब्दों के साथ तीब्र आक्रोश .. बढ़िया लिखा है आपने.........

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  5. बहुत सुंदर कविता है पूजा जी. कौन कहता है तारतम्य नहीं. इतना बड़ा ब्लॉगजगत क्या साथ नहीं आपके ?
    सब अच्छा है लिखते रहिये. माँ का हाथ है सर पर बड़ी बात है. है ना ?

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  6. तमाम तारतम्य तो मौजूद हैं

    शब्द संयोजन और भावनाओं का मिलाप ही तो कविता का तारतम्य है..

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  7. आपके जज्बात समझ सकते हूँ मैं। काश कि ऐसे ही जज्बात हर जहन में हो। और इस दर्द से निकलने के लिए लिखना बहुत जरुरी मानता हूँ मैं, इसलिए लिखते रहिए आप।

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  8. बहुत ही सुंदर

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  9. प्राया छन्द बद्ध कवितायें मेरे आकर्षण का केन्द्र रही हैं पर अनभूति की तीव्रतम अछान्दस कवितायें भी बरबस अपनी ओर खीचती हैं ऐसा ही आपकी रचना पढ़ते वख्त हुआ.
    ये हाल घर से बाहर जाने वाले का तो है ही घर में रहने वाले क्या सोचते हैं मैने अपनी एक रचना में इस प्रकार व्यक्त किया था.
    लौटे न क्यों परिन्दे, अब शाम हो रही है,
    है डाल डाल सहमी,हर पत्ती सोचती है.
    रहबर ने रहज़नो से अब कर ली दोस्ती है.
    ये कैसी ज़िन्दगी है, ये कैसी ज़िन्दगी है.
    आतंकी हमलों के बाद ख़ासकर हमारे गुजरात में ख़ौफ़ का आलम तो ये है कि डाल के रूप में पत्नी मोबाइल करे और पत्ती के रूप में बेटी मोबाइल करे कि परिन्दा सही सलामत है या नहीं.
    ट्राफिक में बाइक चलाते समय या प्राया कम आवाज़ में रखे जाने के बाद में अटेन्ड न कर पाने के कारण मुझे अपने खुलासे देने पड़ते हैं.अरे भाई मैने जान कर ऐसा नहीं किया आपकी कसम.
    पर उनका गुस्सा कम नहीं होता.एक भय रहा त है कि घर से जाने वाला लौटेगा या नहीं. कमज़र्फ़ शासको ने ऐसे मुल्क के हालात कर रक्खे हैं.
    आपकी बैचैनी भी समझता हूँ पर हमारे जैसे उन तमाम का क्या करूँ जिन्हें दाना पानी लेने बाहर निकलने की मज़बूरी है जो घर से निकलते तो हैं पर वापिस नहीं पहुँचते उन्हें कविता में तो क्या मुर्दाखाने में कोई पहिचान नहीं पाता शरीर के इतने टुकड़े होते है.
    आपकी अत्यंत मार्मिक रचना ने काफी देर तक रोक लिया.

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  10. हम सब की मनःस्थिति एक जैसी है। शब्द अलग अलग हैं पर हम कहना यही चाहते हैंं कि भय का ये कारोबार बंद होना चाहिए।

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  11. कहीं पढा था -
    "दर्द के हाँथ बिक गयीं खुशियाँ और हम बहुत रोये
    जैसे कोई दिया बुझा तो दे, पर रात भर नहीं सोये."

    पूरा तो नहीं, पर हल्का ही सही ताल्लुक है इन पंक्तियों का आपसे.
    प्रविष्टि के लिए धन्यवाद.

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  12. viyogi hoga pahla kavi, aah se upja hoga gaan......wah viyog,vilap apke shabdo me jhalkta hai,isliye apke shabd man ko chune wali kavita sahaj hi ban pade hain.
    -dr.jaya

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  13. AMRITA PRITAM KI EK KAVITA
    MEIN TENU PHER MILENGEA
    KI YAAAD AA GAYE
    AISE H HAMARE SHAB.BHAVNAIE,SOCH EK DIN KRANTI KI BHUMIKA TEYYAR KARTI HA

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  14. bahut achcha aur bhavana pradhaan likha hai.

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  15. कभी कभी शब्द ही आगे बढ़ते है भागीदारी करने को ........

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  16. बहुत अच्छा लिखा है।

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  17. लग रहा है कि मेरी भावनाओं को अभिव्यक्त आपने किया है,,,,,
    शुभकामनाएं.....

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  18. This comment has been removed by the author.

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  19. आप बस लिखती चलो ना....इसी में कुछ अच्छा हो जाएगा....!!

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  20. aapki kavita ka har lafz bilkul sahi hai ,

    ham sab ko deshbhakti par dobara sochna honga.

    umeed hai ,ki aapki ye koshish rang layengi

    badhai

    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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  21. Behad asardaar rachna.... pravishti ke liye dhanywaad !

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  22. behatareen jazbaat liye behatareen rachna...

    aakrosh ko sahi disha di jaaye...sirf hungama khadaa karna mera maksad nahi,shart ye hai ki tasveer badalni chahiye

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