देश में होने वाले अनगिन ब्लास्ट में
अगर मैं मर जाऊं
मुझे कविता में ढूंढ़ना...
गुलमोहर रो रहे होंगे
हर साल वसंत में
आक्रोश भी उभरेगा दहकते फूलों में
मैं नहीं रहूंगी लेकिन...
बारिशें भी, गाहे बगाहे
कभी जनवरी में भी
भिगा जायेंगी
दिल्ली की सड़कें
जहाँ खून गिरा होगा मेरा...
नाराज होकर घर से मत जाओ
एक दिन भी
जाने तुम्हारे लौट आने तक
जो surprise गिफ्ट खरीदने निकली थी
चिथड़े हो चुका हो...
किसी आतंकवादी को कहाँ मालूम होगा
मेरा जन्मदिन, या वर्षगांठ
उनके प्लान्स तो बहुत पहले से बनते हैं
३०० लोग में किसी न किसी का तो हो ही सकता है
तारीखों से क्या फर्क पड़ता है...
शब्दों में समेट देती हूँ
ढेर सारा प्यार
इन्हें खोल के देख लेना
मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी...
PS: कृपया इसे कविता समझ कर न पढ़ें, आजकल बहुत परेशान हूँ, कुछ तारतम्य नहीं है शब्दों में। लिख रही हूँ क्योंकि लिखे बिना रह नहीं सकती। जी रही हूँ क्योंकि अभी तक माँ का हाथ है सर पर.
आपकी भावनाए समझ सकता हूँ ! आक्रोश को निकल जाने दो ! अन्दर मत रखिये !
ReplyDeleteरामराम !
sach kaha aaj kal kisi ki mansikta thik nahi,sab kaam kar rahe hai magar ek khauf ek aakrosh ek jwala hai dil mein,na shabd saath dete hai magar bhawanae aati rehti hai.
ReplyDeleteये आक्रोश और उसके बाद भी शब्दों में जिन्दा रहने की आकांक्षा
ReplyDeleteयही तो संबल है हर कठिन हालत में आगे बढ़ते जाने के लिए
कोमल भाव के शब्दों के साथ तीब्र आक्रोश .. बढ़िया लिखा है आपने.........
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता है पूजा जी. कौन कहता है तारतम्य नहीं. इतना बड़ा ब्लॉगजगत क्या साथ नहीं आपके ?
ReplyDeleteसब अच्छा है लिखते रहिये. माँ का हाथ है सर पर बड़ी बात है. है ना ?
तमाम तारतम्य तो मौजूद हैं
ReplyDeleteशब्द संयोजन और भावनाओं का मिलाप ही तो कविता का तारतम्य है..
आपके जज्बात समझ सकते हूँ मैं। काश कि ऐसे ही जज्बात हर जहन में हो। और इस दर्द से निकलने के लिए लिखना बहुत जरुरी मानता हूँ मैं, इसलिए लिखते रहिए आप।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteप्राया छन्द बद्ध कवितायें मेरे आकर्षण का केन्द्र रही हैं पर अनभूति की तीव्रतम अछान्दस कवितायें भी बरबस अपनी ओर खीचती हैं ऐसा ही आपकी रचना पढ़ते वख्त हुआ.
ReplyDeleteये हाल घर से बाहर जाने वाले का तो है ही घर में रहने वाले क्या सोचते हैं मैने अपनी एक रचना में इस प्रकार व्यक्त किया था.
लौटे न क्यों परिन्दे, अब शाम हो रही है,
है डाल डाल सहमी,हर पत्ती सोचती है.
रहबर ने रहज़नो से अब कर ली दोस्ती है.
ये कैसी ज़िन्दगी है, ये कैसी ज़िन्दगी है.
आतंकी हमलों के बाद ख़ासकर हमारे गुजरात में ख़ौफ़ का आलम तो ये है कि डाल के रूप में पत्नी मोबाइल करे और पत्ती के रूप में बेटी मोबाइल करे कि परिन्दा सही सलामत है या नहीं.
ट्राफिक में बाइक चलाते समय या प्राया कम आवाज़ में रखे जाने के बाद में अटेन्ड न कर पाने के कारण मुझे अपने खुलासे देने पड़ते हैं.अरे भाई मैने जान कर ऐसा नहीं किया आपकी कसम.
पर उनका गुस्सा कम नहीं होता.एक भय रहा त है कि घर से जाने वाला लौटेगा या नहीं. कमज़र्फ़ शासको ने ऐसे मुल्क के हालात कर रक्खे हैं.
आपकी बैचैनी भी समझता हूँ पर हमारे जैसे उन तमाम का क्या करूँ जिन्हें दाना पानी लेने बाहर निकलने की मज़बूरी है जो घर से निकलते तो हैं पर वापिस नहीं पहुँचते उन्हें कविता में तो क्या मुर्दाखाने में कोई पहिचान नहीं पाता शरीर के इतने टुकड़े होते है.
आपकी अत्यंत मार्मिक रचना ने काफी देर तक रोक लिया.
हम सब की मनःस्थिति एक जैसी है। शब्द अलग अलग हैं पर हम कहना यही चाहते हैंं कि भय का ये कारोबार बंद होना चाहिए।
ReplyDeleteकहीं पढा था -
ReplyDelete"दर्द के हाँथ बिक गयीं खुशियाँ और हम बहुत रोये
जैसे कोई दिया बुझा तो दे, पर रात भर नहीं सोये."
पूरा तो नहीं, पर हल्का ही सही ताल्लुक है इन पंक्तियों का आपसे.
प्रविष्टि के लिए धन्यवाद.
viyogi hoga pahla kavi, aah se upja hoga gaan......wah viyog,vilap apke shabdo me jhalkta hai,isliye apke shabd man ko chune wali kavita sahaj hi ban pade hain.
ReplyDelete-dr.jaya
AMRITA PRITAM KI EK KAVITA
ReplyDeleteMEIN TENU PHER MILENGEA
KI YAAAD AA GAYE
AISE H HAMARE SHAB.BHAVNAIE,SOCH EK DIN KRANTI KI BHUMIKA TEYYAR KARTI HA
bahut achcha aur bhavana pradhaan likha hai.
ReplyDeleteकभी कभी शब्द ही आगे बढ़ते है भागीदारी करने को ........
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteलग रहा है कि मेरी भावनाओं को अभिव्यक्त आपने किया है,,,,,
ReplyDeleteशुभकामनाएं.....
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ReplyDeleteआप बस लिखती चलो ना....इसी में कुछ अच्छा हो जाएगा....!!
ReplyDeleteaapki kavita ka har lafz bilkul sahi hai ,
ReplyDeleteham sab ko deshbhakti par dobara sochna honga.
umeed hai ,ki aapki ye koshish rang layengi
badhai
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
Behad asardaar rachna.... pravishti ke liye dhanywaad !
ReplyDeletebehatareen jazbaat liye behatareen rachna...
ReplyDeleteaakrosh ko sahi disha di jaaye...sirf hungama khadaa karna mera maksad nahi,shart ye hai ki tasveer badalni chahiye