27 August, 2019

तुम धूप में कुम्हलाना मत

धूप से कुम्हलाता पौधा देखा है? जो कहीं थोड़ी सी छाँव तलाशता दिखे? कैसे पता होता है पौधे को कि छाँव किधर होगी... उधर से आती हवा में थोड़ी रौशनी कम होगी, थोड़ी ठंड ज़्यादा? किसी लता के टेंड्रिल हवा में से माप लेंगे थोड़ी छाँव?

भरी दुनिया की तन्हाई और उदासी में में तुम्हें कैसे तलाशती हूँ? ज़रा तुम्हारी आवाज़ का क़तरा? सालों से उतने की ही दरकार है।

हम ख़ुद को समझाते हैं, कि हमें आदत हो गयी है। कि हम नहीं चाहेंगे ज़रा कोई हमारा हाल पूछ ले। कि नहीं माँगेंगे किसी के शहर का आसमान। लेकिन मेरे सपनों में उसके शहर का समंदर होता है। मैं नमक पानी के गंध की कमी महसूस करती हूँ। बहुत बहुत दिन हो गए समंदर देखे हुए।

आज बहुत दिन बाद एक नाम लिया। किसी से मिली जिसने तुम्हें वाक़ई देखा था कभी। ऐसा लगा कि तुम्हारा नाम कहीं अब भी ज़िंदा है मुझमें। हमें मिले अब तो बारह साल से ऊपर होने को आए। बहुत साल तक whatsapp में तुम्हारी फ़ोटो नहीं दिखती थी, अब दिखने लगी है। मैं कभी कभी सोचती हूँ कि तुमने शायद अपने फ़ोन में मेरा नम्बर इसलिए सेव करके रखा होगा कि ग़लती से उठा न लो। तुम मेरे शहर में हो, या कि तुम्हारे होने से शहर मेरा अपना लगने लगा है? मुझे ज़िंदगी पर ऐतबार है...कभी अचानक से सामने होगे तुम। शायद हम कुछ कह नहीं पाएँगे एक दूसरे से। मैंने बोल कर तक़रीबन बारह साल बाद तुम्हारा नाम लिया था...पहली बार महसूस किया। हम किस तरह किसी का नाम लेना भूल जाते हैं।

ईश्वर ने कितनी गहरी उदासी की स्याही से मेरा मन रचा है। धूप से नज़र फेर लेने वाला मिज़ाज। बारिश में छाता भूल जाने की उम्र बीत गयी अब। आज एक दोस्त अपने किसी दोस्त के बारे में बता रहा था जिसकी उम्र 38 साल थी, मुझे लगा उसका दोस्त कितना उम्रदराज़ है। फिर अपनी उम्र याद करके हँसी आयी। मैंने कहा उससे, अभी कुछ ही साल पहले 40s वाले लोग हमसे दस साल बड़े हुआ करते थे। हम अब उस उम्र में आ गए हैं जब दोस्तों के हार्ट अटैक जैसी बातें सुनें... उन्हें चीनी कम खाने की और नियमित एक्सर्सायज़ करने की सलाह दें। जो कहना चाहते हैं ठीक ठीक, वो ही कहाँ कह पाते हैं। कि तुम्हारे होने से मेरी ज़िंदगी में काफ़ी कुछ अपनी जगह पर रहता है। कि खोना मत। कि मैं प्यार करती हूँ तुमसे।

अब वो उम्र आ गयी है कि कम उम्र में मर जाने वाले लोगों से जलन होने लगे। मेरे सबसे प्यारे किरदार मेरी ज़िंदगी के सबसे प्यारे लोगों की तरह रूठ कर चले गए हैं, बेवजह। अतीत तक जाने वाली कोई ट्रेन, बस भी तो नहीं होती।

क़िस्से कहानियों के दिन बहुत ख़ूबसूरत थे। हर दुःख रंग बदल कर उभरता था किसी किरदार में। मैं भी तलाशती हूँ दुआएँ बुनने वाले उस उदास जुलाहे को। अपने आत्मा के धागे से कर दे मेरे दिल की तुरपाई भी। लिखना हमेशा दुःख के गहरे स्याह से होता था। लेकिन मेरे पास हमेशा कोरे पन्ने हुआ करते थे। धूप से उजले। इन दिनों इतना दुःख है कि अंधेरे में मॉर्फ़ कर जाता है। देर रात अंधेरे में भी ठीक ठीक लिखने की आदत अब भी बरक़रार है। लेकिन अब सुबह उठ कर भी कुछ पढ़ नहीं पाती। स्याह पन्ने पर स्याह लिखाई दिखती नहीं।

नींद फिर से ग़ायब है। इन रातों को जागे रहने का अपराध बोध भी होता है। कि जैसे आदत बनती चली गयी है। बारह से एक से दो से तीन से चार से पाँच से छह बजने लगते हैं। मैं सो नहीं पाती। इन दिनों कार्पल टनल सिंड्रोम फिर से परेशान कर रहा है। सही तरीके से लिखना ज़रूरी है। पीठ सीधी रख के, ताकि नस न दबे। spondilytis के दर्द वाले बहुत भयानक दिन देखे हैं मैंने। सब उँगलियों की झनझनाहट से शुरू होता है।

पिछले कई महीनों से बहुत ख़ूबसूरत काग़ज़ देखा था ऐमज़ान पर। लेकिन इंपोर्ट ड्यूटी के कारण महँगा था काफ़ी। सोच रहे थे अमरीका जाएँगे तो ख़रीद लेंगे। फिर ये भी लगता रहा, इतने ख़ूबसूरत काग़ज़ पर किसे ख़त लिखेंगे। आइवरी रंग में दो फ़िरोज़ी ड्रैगनफ़्लाई बनी हुई हैं। आज ख़रीद लिया। फिर चेरी ब्लॉसम के रंग की जापानी स्याही ख़रीदी, गुलाबी। जब काग़ज़ आएगा तो शायद कोई इजाज़त दे भी दे, कि लिख लो ख़त मुझे। तुम्हें इतना अधिकार तो दे ही सकते हैं।

मेरी चिट्ठियों से प्यार हो जाता है किसी को भी...क्या ही कहूँ, मनहूस भी नहीं कह सकती उन्हें...बेइमानी होगी।

आज फ़राज़ का शेर पढ़ा कहीं। लगा जान चली ही जाएगी अब।
"दिल को तेरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझसे बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता"

मुझे प्यार मुहब्बत यारी दोस्ती कुछ नहीं चाहिए। जब ऑर्डर वाला काग़ज़ आ जाए, मुझे ख़त लिखने की इजाज़त दे देना, बस।
प्यार।

19 August, 2019

प्रेम की भाषा के सारे शब्द प्रेम के पर्यायवाची ही होते हैं।

देर रात तक बारिश हुयी। अभी थोड़ी देर पहले बंद हुयी है। मैं घर की सीढ़ियों पर बैठी बारिश देखती रही। मरहम होती है बारिश। कुछ देर तक सब दुःख बिसरने लगता है। तेज़ बारिश में सामने की सड़क पर बहुत सा पानी बहने लगा। काग़ज़ की नाव तैराने का जी चाहा। नंगे पाँव पानी में छपछप करने का भी। आज फिर निर्मल वर्मा की एक चिथड़ा सुख याद आयी कि उसमें पानी के चहबच्चों का बहुत ज़िक्र है।

आधी रात लगभग बाहर टहल रही थी। जमे हुए पानी में औंधे मुँह लैम्पपोस्ट्स आधे डूबे हुए दिखे ... उनकी परछाईं वाली दुनिया में सब कुछ थोड़ी देर भर का था। मुहब्बत कोई भरम हो जैसे।

आज किसी से बात करते हुए चाहा कि मुनव्वर राना का वो शेर कहूँ, 'तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तको ... तमाम खेल मोहब्बत में इंतिज़ार का है'। लेकिन कहा नहीं। कि उनसे बात करते हुए अपने शब्द मिलते ही नहीं। जी चाहता है कि पूरे पूरे दिन बारिश होती रहे और मैं खिड़की पर हल्की फुहार में भीगती उनसे बात करती रहूँ। इन दिनों मुहब्बत बारिश हुयी जाती है।

मुझे सिगरेट की कभी लत नहीं लगी। मैंने सिगरेट हमेशा शौक़िया पी। कभी मौसम, कभी साथी, कभी किसी कविता का ख़ुमार रहा...बस तभी। आज बारिश ने बेतरह सब कुछ एक साथ याद दिला दिया। वोही शहर, वो मौसम, वो जो कि ब्लैक में जिस बेतरह का क़ातिल दिखता है...सफ़ेद में उतना ही सलीक़ेदार... कि हम हर रंग में उसके हाथों मर जाना चाहते हैं। उसकी इतनी याद आयी कि देर तक उसे पढ़ा। फिर अपनी कई कई साल पुरानी चिट्ठियाँ पढ़ीं। मैं उसके होने में ज़रा सा होना चाहती हूँ। उसके शहर, उसकी सुबह, उसकी कॉफ़ी, उसकी क़लम में... ना कुछ तो उसके ऐबसेंस में ही। वो कब सोचता है मुझे? उसके जैसी मुहब्बत आसान होती, काश, मेरे लिए भी।

कैमरा स्टडी में रखा है और मैं नीचे टहल रही हूँ। अब तीन तल्ले चढ़ के कौन कैमरा लाए और रात बारह बजे सड़क पर जमे पानी में रेफ़्लेक्ट होते लैम्प पोस्ट को शूट करे... मैं जानती हूँ, मैं ख़ुद को ये कह कर बहलाती हूँ। सच सिर्फ़ इतना है कि इस साल उनकी तस्वीरें खींचने के बाद कोई सबजेक्ट पसंद ही नहीं आता। मैं कैमरा के व्यू फ़ाइंडर से देखती हूँ तो उन्हें देखना चाहती हूँ। बस। इक बार जो फ़ुर्सत से कोई शहर मुकम्मल हो...उन्हें जी भर के हर नज़र से देख लूँ, कैमरा के बहाने, कैमरा के थ्रू... मुहब्बत की इतनी सी तस्वीर है, ब्लैक एंड वाइट।

लकड़ी के जलने की महक आयी और जाने कैसे टर्पंटायन की भी। हमारे यहाँ कहते हैं कि रात को अगर ऐसी ख़ुशबुएँ आएँ तो उनके पीछे नहीं जाना चाहिए। वे मायावी होती हैं। इस दुनिया की नहीं। आसपास के सभी घरों की बत्तियाँ बंद थीं। टर्पंटायन की गंध से मुझे दो चीज़ें याद आती हैं। दार्जीलिंग के जंगल में स्याह तने वाले पेड़। विस्की कि जिसमें जंगल की वही गंध घुली मिली थी। कई हज़ार पहले के सालों का कोई इश्क़ कि जिसके पहले सिप में लगा था कि रूह का एक हिस्सा स्याह है और मैं उससे कहानियाँ लिखूँगी। दूसरी चीज़ कैनवस और ओईल पेंटिंग। इतनी रात कौन अपने घर में क्या पेंट कर रहा होगा। इजल के सामने खड़ा रंगों के बारे में सोचता, वो किन ख़यालों में उलझा होगा। बदन के कैनवास पर कविता लिखी जाए या रंगी जाए? उसके काँधे से इंतज़ार की ख़ुशबू आती है...मुहब्बत ख़त्म हो जाए तो उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आएगी?

मैंने कहा। शुभ रात्रि। मुझे कहना था। मैं आपसे प्यार करती हूँ। आपके शब्दों से। आपकी ख़ामोशी से। आपकी तस्वीरों से। आपके शहर के मौसम से। उस हवा से जो आपको छू कर गुज़रती है। उस आसमान से जिसके सितारे आपकी ड्रिंक में रिफ़्लेक्ट होते हैं। लेकिन नहीं कह पायी ऐसी बेसिरपैर की बातें। मैंने कहा। शुभ रात्रि।

प्रेम की भाषा के सारे शब्द प्रेम के पर्यायवाची ही होते हैं।
फिर भी, je t'aime, ज़िंदगी।

14 August, 2019

सपना। बर्फ़। तुम।

सुबह उठी थी तो भोर का टटका सपना था। बहुत साल पहले पूजा के लिए फूल तोड़ने जाती थी, दशहरा के समय तो फूल ऐसे लगते थे। रात की ओस में भीगे हुए। थोड़ी नींद में कुनमनाए तो कभी एकदम ताज़गी लिए मासूम आँखों से टुकुर टुकुर ताकते। सफ़ेद पाँच पत्तों वाले फूल। कई बार चम्पा। कभी कभी गंधराज भी। मुझे सफ़ेद पत्तों वाले फूल बहुत पसंद रहे। ख़ास तौर से अगर ख़ुशबू तो तो और भी ज़्यादा। आक, धतूरा... रजनीगंधा, हरसिंगार...

सपने में तुम्हारा शहर था। मैं पापा और कुछ परिवार के लोगों के साथ अचानक ही घूमने निकल गयी थी। तुम्हारा शहर मेरे सपने में थोड़ा क़रीब था, वहाँ बिना प्लान के जा सकते थे। तुम समंदर किनारे थे। तुमने चेहरे पर कोई तो फ़ेस पेंटिंग करा रखी थी...चमकीले नीले रंग की। या फिर कोई फ़ेस मास्क जैसा कुछ था। तुम्हारी बीवी भी थी साथ में। हम वहाँ तुमसे मिले या नहीं, वो याद नहीं है।

मेट्रो के दायीं तरफ़ एक बहुत बड़ा सा म्यूज़ीयम था। आर्ट म्यूज़ीयम। घर के सारे लोग जाने कहाँ गए, मैं अकेली वहाँ अंदर चली गयी। वहाँ अद्भुत पेंटिंग्स थीं। आकार में भी काफ़ी बड़ीं और बेहद ख़ूबसूरत थीम्ज़ पर। मैं म्यूज़ीयम के सबसे ऊपर वाले फ़्लोर पर थी और फिर जाने कैसे छत पर। इसी बीच कोई बदमाश बच्चा छत पर के टाइल्ज़ उखाड़ने लगा एक एक कर के। छत पर भगदड़ सी मच गयी क्यूँकि बाक़ी टाइल्स उखड़ने लगी थीं और लोग फिसल कर गिर सकते थे। तभी पुलिस आती है और लोगों को स्थिर होने को कहती है। लोग डिसप्लिन में एक दूसरे के पीछे क़तार में लग जाते हैं। पुलिस उस बच्चे को पकड़ लेती है और नीचे उतार देती है। सब लोग भी अलग अलग तरफ़ से छत से उतर आते हैं। मैं नीचे उतरती हूँ तो ध्यान जाता है कि मैंने इस गेट से एंटर नहीं किया था और इतने बड़े म्यूज़ीयम में कितने गेट हैं मुझे मालूम नहीं, न ही ये मालूम है कि उनमें से मेरा गेट कौन सा है कि उसी गेट पर मैंने अपनी जैकेट और बूट्स जमा किए हैं। आसपास भीड़ बहुत है। तब तक तुम कहीं से आते हो, मैं बताती हूँ कि मेट्रो के पास वो गेट है जिससे मैं अंदर गयी थी। तुम मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ उस भीड़ में से लिए चलते हो। साथ में हमारे हाथ गर्म हैं, दस्ताने की ज़रूरत नहीं है। हम उस गेट से मेरे जूते और कोट लेते हैं। तुम कोट पहनने में मेरी मदद करते हो।

हम वहाँ से किसी इमारत की छत पर जाते हैं। हल्की ढलान वाली छत है। बर्फ़ पड़ी हुयी है लेकिन ठंड नहीं लग रही है। हम उस बहुत ऊँची इमारत की छत पर बैठे बैठे बहुत देर तक बातें करते हैं। मेरे पास एक दो मीठे टाको हैं जो मैंने एक कुकिंग शो में देखे थे। उनके अंदर फेरेरो रोचेर भरे हुए हैं। हम बहुत ख़ुश होकर वो खाते हैं। थक जाने पर हम दोनों ही उस छत पर पीठ के बल लेट जाते हैं, एक दूसरे के एकदम पास और आसमान देखते हैं। हमारे मुँह से भाप निकल रही होती है। हम फिर किसी चिमनी के पास थोड़ा टिक कर बैठते हैं। इस बार हम कुछ कह नहीं रहे हैं। हमने एक दूसरे को बाँहों में भरा हुआ है। हम अलविदा के लिए ख़ुद को तैय्यार कर रहे हैं। हम सपने में भी जानते हैं कि अब जाना है। तुम मुझे वहाँ से अपना घर दिखाते हो। बहुत ऊँचे फ़्लोर पर है, जहाँ लाइट जल रही है...कहते हो कि वहाँ से पूरा शहर दिखता है। मैं पूछती हूँ, ये छत और हम तुम भी... तुम कहते हो हाँ।

हम दोनों रुकना चाहते हैं एक दूसरे के पास, एक दूसरे के साथ... लेकिन सपने के किनारे धुँधलाने लगे हैं। हम थोड़ी और ज़ोर से पकड़ लेते हैं एक दूसरे का हाथ... आसपास सब कुछ फ़ेड हो रहा है। तुम भी धुँधला जाते हो और फिर सफ़ेद धुँध में घुल जाते हो। मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट मेरे धुँध में घुलते घुलते भी बाक़ी रहती है।

***
मैं जागती हूँ तो मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट और ज़ुबान पर चोक्लेट का हल्का मीठा स्वाद है। मैं पिछले काफ़ी दिनों से ख़ुद को कह और समझा रही हूँ कि मुझे तुम्हारी याद नहीं आती। कि न भी मिले तुमसे, तो कोई बात नहीं। लेकिन मेरे सपनों को इतनी समझ नहीं। तुमसे मिलना बेतरह ख़ुशी और बर्दाश्त से बाहर की उदासी लिए आता है। मैं जागती हूँ तो तुम्हें इतना मिस करने लगती हूँ कि दुखने लगता है सब कुछ। हूक उठती है और तुम्हें याद करने के सिवा और कोई ख़याल बाक़ी नहीं रहता।

जिनसे मन आत्मा का जुड़ाव रहता है, ऐसे लोग जीवन में बहुत कम मिलते हैं। ऐसा बार बार क्यूँ लगता है कि तुम किसी पार जन्म से आए हो? ऐसा मुझे सिर्फ़ बर्न जा के लगा था कि कोई ऐसी याद है जो इस जन्म के शरीर की नहीं, हर जन्म में एक, आत्मा की है।

मैं अब भी नहीं जानती कि तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो... क्या किसी सुबह तुम भी यूँ ही परेशान होते हो कि जिससे एक बार ही मिले हों, सिर्फ़, उसकी याद थोड़ी कम आनी चाहिए, नहीं?

***
Let's see each other again. Then, if you think we shouldn't be together, tell me so frankly... That day, six years ago, a rainbow appeared in my heart. It's still there, like a flame burning inside me. But what are your real feelings for me? Are they like a rainbow after the rain? Or did that rainbow fade away long ago?
-2046

01 August, 2019

My happy place

नसों में कोई कहानी उमगती है। मैं बारिश में गंगा किनारे बैठी हूँ। तुम्हारी आवाज़ में एक ठंडापन है जो मुझे समझ नहीं आता। बाढ़ में खोयी चप्पल की बात हो कि महबूब के दिल तोड़ने का क़िस्सा। तुम तो इतनी दूर कभी नहीं थे? 

फिर? कोई तो बात हुयी होगी। हम वाक़ई एक दूसरे से एकदम कट गए हैं ना? पता है, तुम्हें सुनाए बिना मेरी कोई कहानी पूरी ही नहीं महसूस होती। जब से तुमने मुझे पढ़ना छोड़ा है, मैंने ठीक ठीक लिखना छोड़ दिया है।

एक अमेरिकन टीवी सीरीज़ है, सूट्स। वकीलों की कहानी है। इसमें लीड में एक बहुत ख़ूबसूरत सा बंदा है... उसका नाम है हार्वी स्पेक्टर। वैसे लोग जिन्हें लोग इमोशनली अनवेलबल कहते हैं। इसके पीछे की कहानी ये है कि वो जब ग्यारह साल का था, तब उसने एक बार अपनी माँ को किसी और के साथ अपने घर में देख लिया था और उसकी माँ ने उसे ये बात उसके पिता को बताने से मना की थी। उसने माँ की बात तो रख ली लेकिन उस बात का ज़ख़्म उसे कितना गहरा लगा था ये सीरीज़ में उसके सभी रिश्तों में दिखती थी। उसके ऑफ़िस में एक बेहद बदसूरत सी बत्तख़ की पेंटिंग लगी थी। इक एपिसोड में कुछ ऐसी घटना घटी कि एक विरोधी ने उसे हर्ट करने के लिए उसका कुछ छीनना चाहा... वो जानता था कि पैसों से उसे कोई दुःख नहीं पहुँचेगा, तो इसलिए वो उस पेंटिंग को उतार ले गया।


आगे पता चलता है कि हार्वी की माँ एक पेंटर थी... उस हादसे के पहले की एक दोपहर वो पेंट कर रही थी और हार्वी उन्हें देख रहा था... उसकी माँ के साथ ये उसकी आख़िरी ख़ुशहाल याद थी। इसलिए ये पेंटिंग उसे इतनी अज़ीज़ थी।

सीरीज़ में सबसे ज़्यादा मुझे एक यही चीज़ ध्यान आती रही जबकि उसमें कई अच्छे केस और कई अच्छे किरदार थे। हम हमेशा लौट के किसी ख़ुश जगह पर जाना चाहते हैं। जहाँ कोई दुःख न था। कुछ लोग ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि उनके लिए ऐसी तमाम जगहें होती हैं। उनके जीवन में कोई all encompassing दुःख नहीं होता जो कि हर ख़ुशी को फीका कर दे।

कुछ लोग हमारे लिए ऐसे ही ख़ुश वाली जगह होते हैं। मैं इक बार ऐसे ही किसी लड़के से मिली थी। he was my happy place। मैं याद करना चाहती हूँ कि ज़िंदगी में आख़िरी बार सबसे ज़्यादा ख़ुश कब थी तो उससे वो मुलाक़ात याद आती है। ये बात मुझे बेतरह उदास करती है कि मेरे पास लौट के जाने के लिए बहुत कम जगहें हैं। दिल्ली मेरे लिए यही शहर है। मैं अपनी माँ के साथ पहली बार पिज़्ज़ा खाने गयी थी, अपने ख़ुद के पैसों से। मैंने अपने दोस्तों के साथ अपनी पसंद की किताबों की ख़रीददारी की। अपने सबसे फ़ेवरिट लेखक के हाथ चूमे। मुझे बेतरह एक स्टेशन और उसे अलविदा कहना याद आता रहता है। एक ग्लास विस्की और एक ग्लास वोदका...और एक सिगरेट। मैं ज़िंदगी में एक ही बार किसी की जैकेट की गर्माहट और ख़ुशबू में घिरी बैठी थी और ख़याल सिर्फ़ इतना था कि वो चला जाएगा। इतनी गहरी उदासी भी बहुत कम आती है ज़िंदगी में।

पता नहीं तुम कभी लिखना शुरू करोगे या नहीं। अब अधिकार नहीं जताती लोगों पर, तुम पर भी नहीं।

इन दिनों बारिश का धोखा होता है। नए पुराने लोग याद आते हैं। मैं कहना चाहती हूँ कि मेरे मरने के बाद अगर किसी बात को न कह पाने का अफ़सोस होगा तुम्हें, तो वो बात मेरे जीते जी कह देना।

कॉफ़ी का एक उदास और फीका कप

कैफ़े कॉफ़ी डे हमारे लिए एक सपने जैसी जगह थी। वहाँ कॉफ़ी महँगी मिलती थी लेकिन वहाँ बैठे हुए इर्द गिर्द लोग आपको घूर घूर के ऐसे नहीं देखते थे जैसे कि आप जेल से भागे हुए अपराधी हों। अभी से दस पंद्रह साल पहले देश में ऐसी किसी जगह का होना कल्पनातीत था। यहाँ चोरी छिपे नहीं, सुकून से बैठ सकते थे। हम में से कई लोग सीसीडी डेट पर गए हैं, किसी के साथ अकेले, बिना डरे हुए। CCD जाने के लिए डबल डेट की ज़रूरत नहीं पड़ती थी…कि साथ में किसी सहेली और उसके ही किसी दोस्त को लेकर जाना पड़ा हो। ये एक नए क़िस्म का कॉन्फ़िडेन्स था, जो इस बात से भी आता था कि हम इतने पैसे कमा रहे हैं कि इतनी महँगी कॉफ़ी अफ़ॉर्ड कर सकते हैं। ये अभी भी ऐसा था कि घर बताने पर डाँट पड़ सकती थी कि तुम लोग को पैसा बर्बाद करने में मन लगता है। हमारे लिए कैफ़े कॉफ़ी डे हमारी व्यक्तिगत आज़ादी का पहला पड़ाव था। हमारी पसंद की ड्रिंक थी, एक ड्रिंक से जुड़ी यादें थीं और बहुत कुछ था जो कि क़िस्से कहानियों जैसा था। 

बहुत साल पहले मैंने कैफ़े कॉफ़ी डे में कॉर्प्रॉट कम्यूनिकेशन डिपार्टमेंट में काम किया था। वहाँ जा कर नयी बातें पता चलीं कि जैसे हर नए एम्प्लॉई को, चाहे वो किसी भी लेवल पर नौकरी शुरू करे… एक हफ़्ते तक किसी कॉफ़ी डे के कैफ़े में काम करना होता है। वहाँ आपको कॉफ़ी बनाने की बेसिक ट्रेनिंग, लोगों को सर्व करने की ट्रेनिंग और थोड़ा बहुत बिलिंग के बारे में भी बताया जाता है। ये चीज़ अच्छी लगी कि नौकरी शुरू करने के पहले ठीक ठीक मालूम चला कि हम असल में क्या बनाने/बेचने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोगों के बीच एक तरह के लेवल डिफ़्रेन्स को भी ख़त्म करता था। दिल्ली तरफ नॉर्मली CCD कहते हैं लेकिन साउथ में अधिकतर लोग इन्हें कॉफ़ी डे कहते हैं। ऑफ़िस क़ब्बन पार्क के पास एक बड़ी ख़ूबसूरत सी काँच की बिल्डिंग में था। यहाँ रह कर ये भी पता चला कि कॉफ़ी डे की कॉफ़ी उनके अपने कॉफ़ी एस्टेट से आती है। इनका फ़र्नीचर बनाने की भी अपनी सिस्टर कम्पनी थी। इसके अलावा इन कॉफ़ी डे के एस्टेट्स में इनके लक्ज़री रीसॉर्ट्स भी थे। The Serai Resorts. बाक़ी चीज़ों के अलावा वहाँ काम करने की सबसे अच्छी बात लगती थी कि उन दिनों ऑफ़िस में कैफ़े कॉफ़ी डे की ही मशीन थी और हम जितना मर्ज़ी चाहे कैपचीनो पी सकते थे। ऑफ़िस कैंटीन में सब कुछ चालीस प्रतिशत डिस्काउंट पे मिलता था। मेरी पसंदीदा थी ब्राउनी… जिसे हम तक़रीबन रोज़ खारीदते थे और दो तीन लोग मिल कर खाते थे। फिर उस कैलोरी को जलाने के लिए आठवें तल्ले के ऑफ़िस तक सीढ़ियाँ चढ़ के जाते थे। मैंने वहाँ काम करते हुए शाम पर ख़ूब सारी कविताएँ लिखी थीं। 

वीजी सुरेश को बस एक बार पास से देखने का मौक़ा लगा था। ऑफ़िस के ही किसी मीटिंग में, बाक़ी लोग थे, मैं काफ़ी जूनियर थी तो मैं बस सुनने गयी थी। एक आध बार लिफ़्ट तक आते जाते या ग्राउंड फ़्लोर पर भी वे दिखे थे। पर्सनली तो बस, इतना सा ही देखना-सुनना था। 

परसों जब उनके लापता होने की ख़बर आयी थी तो उनके सकुशल मिल जाने की प्रार्थना बेमानी होते हुए भी की थी। नेत्रावती नदी के पुल पर उन्होंने गाड़ी रुकवायी और ड्राइवर को बोला कि वे टहल कर आते हैं। आज उनका शव मिला है। सूचना के इस दौर में किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि जिनकी हँसती हुयी तस्वीरें हमेशा देखी हैं उनका मृत शरीर नहीं देखना चाहेंगे। लेकिन पानी से निकाले उनके शव की वीडियो स्क्रोल करने पर भी फ़ीड में दिख गयी। मुझे बार बार मीडिया एथिक्स का क्लास याद आता है। वहाँ सीखी हुयी छोटी छोटी बातें हमारी ज़िंदगी को थोड़ा सुंदर बनाए रख सकती हैं। जैसे कि उन दिनों किसी भी अख़बार में मृत लोगों की तस्वीरें फ़्रंट पेज पर नहीं छापते थे। या जिन तस्वीरों में बहुत ख़ून हो, वे नहीं छापते थे। जिसने भी विडीओ बनाया, ज़ाहिर है, उसने कभी मीडिया एथिक्स का कोई क्लास नहीं किया था। 

कैफ़े कॉफ़ी डे हमारा अपना ब्रैंड है। इसे देख कर गर्व महसूस होता था। अच्छा लगता था। कुछ सालों में दुनिया के कई देश में अलग अलग क़िस्म की कॉफ़ी पीने के बाद मेरा टेस्ट भी बदला… स्टारबक्स की कॉफ़ी और वहाँ का डेकोर भी अच्छा लगा। वहाँ का जैज़। फिर कैफ़े कॉफ़ी डे में हमेशा भीड़ रहती थी और मुझे एक शांत जगह चाहिए थी… इसलिए भी स्टारबक्स में ज़्यादा आने लगी। फिर भी कभी कभार जाना हो ही जाता था, किसी न किसी दोस्त से मिलने। CCD की आइरिश कॉफ़ी मुझे सबसे ज़्यादा पसंद थी। पेरिस में आइरिश कॉफ़ी ऑर्डर की … दिखने में यहाँ जैसे ही थी… क्रीम और स्ट्रॉ के साथ… एक सिप में मुँह जला लेने के बाद मैंने जाना कि CCD में जो कोल्ड आइरिश कॉफ़ी मिलती है, उससे इतर तरीक़े से दुनिया में आइरिश कॉफ़ी सर्व होती है। नॉर्मली आइरिश कॉफ़ी में ऐल्कहाल होता है। कॉफ़ी डे का लक्ज़री ब्राण्ड कॉफ़ी डे लाउंज जब लॉंच हुआ था तो मैं CCD में ही काम कर रही थी। इसके बने नए नए स्टोर में जा कर वहाँ के डेकोर वग़ैरह को देखना और मेन्यू के आइटम को चखने का इंतज़ार करना सब कुछ नया था। साउथ इंडिया में हम में से जितने लोग इधर लम्बी रोड ट्रिप पर जाते हैं, वे जानते हैं कि रास्ते में कॉफ़ी डे का लोगो दिखना कितना सुकूनदेह है… क्यूँकि वहाँ साफ़ बाथरूम होते हैं। अच्छी कॉफ़ी होती है और थोड़ी देर इतन्मीनान से रुकने की जगह होती है। 

बहुत ज़्यादा रिपोर्ट्स नहीं पढ़ी और फ़ायनैन्सेज़ की बहुत ज़्यादा समझ नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर लगता है कि कोई एक व्यक्ति बहुत मेहनत से एक भारतीय ब्रैंड बनाने की, उसे इस्टैब्लिश करने की कोशिश कर रहा था। जिस दौर में सारे ब्रैंड्ज़ इम्पोर्टेड हैं, जींस से लेकर पिज़्ज़ा तक, वहाँ कॉफ़ी डे हमारा अपना था। हमें बहुत उम्मीद थी। हो सकता है बैलेन्स शीट पर वे प्रोफ़िट में नहीं रहे हों… लेकिन उन्होंने कई भारतीयों की ज़िंदगी में एक ख़ास जगह बानायी है। हम अपने कॉफ़ी डे अनुभव को कभी भूल नहीं सकते। काश कि इन फ़ायनैन्शल मुसीबतों का कोई हल निकाला जा सकता। ऐसे किसी उद्यमी का आत्महत्या करना हम में से कई लोगों को निराश करता है। ख़ास तौर से उन लोगों को जो किसी ना किसी क्षेत्र में अपना कुछ बनाने की कोशिश कर रहे हों। कोई अपनी पहचान बना रहे हों। ट्विटर पर #taxterrorism भी देखा लेकिन मीडिया के पास उछालने वाली बातें हैं लेकिन ठीक से एक्सप्लेन करता हुआ आर्टिकल नहीं है कि असल में क्या हुआ था। क्या वाक़ई इस ब्राण्ड को बचाने का कोई तरीक़ा नहीं था। 

इसका दूसरा हिस्सा पर्सनल है। इतने साल एक सफल उद्यमी होने के बाद भी अगर वीजी सुरेश को अपने अंतिम दिनों में लगा कि वे असफल रहे हैं तो इसके पीछे क्या कारण रहे हैं। क्या उनके फ़ायनैन्शल सलाहकार अच्छे नहीं थे… क्या उनके मित्र या परिवार में ऐसे लोग नहीं थे जो ऐसी परिस्थिति से लड़ने और बाहर निकल आने का कोई रास्ता सुझाते। It’s lonely at the top. वाक़ई इतनी ऊँचाई पर इतना अकेलापन था कि किसी पुल से कूद कर जान देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।

मेरे पास बहुत से सवाल हैं और इनका कोई जवाब नहीं। बस एक गहरी उदासी है। इस पोस्ट को लिखते हुए कई बार आँख भर आयी। कि कैफ़े कॉफ़ी डे सिर्फ़ एक कॉफ़ी बेचने वाली दुकान नहीं है… यहाँ बहुत मुहब्बत और कई सपने थे… रहेंगे। 

वीजी सुरेश… हमारी ज़िंदगी में इस एक कप कॉफ़ी की मिठास को लाने का शुक्रिया। ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे और आपके परिजनों को इस मुश्किल वक़्त में हिम्मत दे।

29 July, 2019

इंतज़ार की कूची वाला जादूगर

इक उसी जादूगर के पास है, इंतज़ार का रंग। उसके पास हुनर है कि जिसे चाहे, उसे अपनी कूची से छू कर रंग दे इंतज़ार रंग में। शाम, शहर, मौसम… या कि लड़की का दिल ही।

एकदम पक्का होता है इंतज़ार का रंग। बारिश से नहीं धुलता, आँसुओं से भी नहीं। गाँव के बड़े बूढ़े कहते हैं कि बहुत दूर देश में एक विस्मृति की नदी बहती है। उसके घाट पर लगातार सोलह चाँद रात जा कर डुबकियाँ लगाने से थोड़ा सा फीका पड़ता है इंतज़ार का रंग। लेकिन ये इस पर भी निर्भर करता है कि जादूगर की कूची का रंग कितना गहरा था उस वक़्त। अगर इंतज़ार का रंग गहरा है तो कभी कभी दिन, महीने, साल बीत जाते है। चाँद, नदी और आह से घुली मिली रातों के लेकिन इंतज़ार का रंग फीका नहीं पड़ता।
एक दूसरी किमवदंति ये है कि दुनिया के आख़िर छोर पर भरम का समंदर है। वहाँ का रास्ता इतना मुश्किल है और बीच के शहरों में इतनी बरसातें कि जाते जाते लगभग सारे रंग धुल जाते हैं बदन से। प्रेम, उलाहना, विरह…सब, बस आत्मा के भीतरतम हिस्से में बचा रह जाता है इंतज़ार का रंग। भरम के समंदर का खारा पानी सबको बर्दाश्त नहीं होता। लोगों के पागल हो जाने के क़िस्से भी कई हैं। कुछ लोग उल्टियाँ करते करते मर जाते हैं। कुछ लोग समंदर में डूब कर जान दे देते हैं। लेकिन जो सख़्तज़ान पचा जाते हैं भरम के खारे पानी को, उनके इंतज़ार पर भरम के पानी का नमक चढ़ जाता है। वे फिर इंतज़ार भूल जाते हैं। लेकिन इसके साथ वे इश्क़ करना भी भूल जाते हैं। फिर किसी जादूगर का जादू उन पर नहीं चलता। किसी लड़की का जादू भी नहीं। 

तुमने कभी जादूगर की बनायी तस्वीरें देखी हैं? वे तिलिस्म होती हैं जिनमें जा के लौटना नहीं होता। कोई आधा खुला दरवाज़ा। पेड़ की टहनियों में उलझा चाँद। पाल वाली नाव। बारिश। उसके सारे रंग जादू के हैं। तुमसे मिले कभी तो कहना, तुम्हारी कलाई पर एक सतरंगी तितली बना दे… फिर तुम दुनिया में कहीं भी हो, जब चाहो लौट कर अपने महबूब तक आ सकोगे। हाँ लेकिन याद रखना, तितलियों की उम्र बहुत कम होती है। कभी कभी इश्क़ से भी कम। 

अधूरेपन से डर न लगे, तब ही मिलना उससे। कि उसके पास तुम्हारा आधा हिस्सा रह जाएगा, हमेशा के लिए। उसके रंग लोगों को घुला कर बनते हैं। आधे से तुम रहोगे, आधा सा ही इश्क़। लेकिन ख़ूबसूरत। चमकीले रंगों वाला। ऐब्सलूट प्योर। शुद्ध। ऐसा जिसमें अफ़सोस का ज़रा भी पानी न मिला हो। 

हाँ, मिलोगे इक उलाहना दे देना, उसे मेरी शामों को इतने गहरे रंग के इंतज़ार से रंगने की ज़रूरत नहीं थी।

16 July, 2019

Songs in loop

इंटर्नेट पर फ़ेक न्यूज़ बनने के पहले के ज़माने में मिथक बनते थे। झूठी कहानियाँ जिनमें लेशमात्र सच होता था...या फिर कुछ ऐसा होता था जो लोग आसानी से मान लेना चाहते थे। अंग्रेज़ी में इस तरह के क़िस्सों को अर्बन लेजेंड भी कहते हैं। इनमें भूतों के क़िस्से ख़ूब होते थे। अक्सर कोई बहुत अच्छा किस्सागो कुछ यूँ सुनाता था कि जैसे उसके ख़ुद के ही किसी दूर के रिश्तेदार के साथ ऐसी कोई घटना घटी हो। हमने बचपन में ऐसी एक कहानी ख़ूब सुनी है, 'यही हाथ था क्या?' वाली कहानी... उसमें कोई एक व्यक्ति हाथ में कड़ा या चूड़ी या बड़ी सी अँगूठी पहना होता है और क़िस्से का जो भी सबजेक्ट होता है, उससे अलग अलग लोग अलग अलग समय पर कहानी सुना सुना कर आख़िर में हाथ दिखा कर सवाल पूछते हैं, 'यही हाथ था क्या?'। बचपन में ये कहानी सुनाने वाला अक्सर आख़िर को ड्रमैटिक करने के लिए अपनी पहनी हुयी किसी अँगूठी या घड़ी या कड़े का विवरण देता था। मुझे आज भी जाड़े की रात के अलाव और गरमी के रात में आसमान से झरती चाँदनी के साथ वे क़िस्से याद आते हैं।

The ring फ़िल्म जब आयी थी तो ये हल्ला ख़ूब हुआ था कि फ़िल्म देखने से लोग मर जाते हैं। आफ़त तो उन प्रेमियों की थी, जिनके लिए फ़ोन का एक रिंग इशारा होता था घर से बाहर निकलने का... या कॉल बैक करने का। टीवी और फ़ोन से डर उस वक़्त हर घर में फैला हुआ था। मैंने रामगोपाल वर्मा की फ़िल्म 'भूत' आज तक इसलिए नहीं देखी कि उसे देख कर मेरी बेस्ट फ़्रेंड ने कहा था कि फ्रिज खोलने में डर लगता है।

ये गीत इधर कुछ दिनों से मेरे दिमाग़ में अटका हुआ है। मैं इसके बोल नहीं जानती, जबकि यही गीत अंग्रेज़ी में भी गाया गया है, gloomy sunday के नाम से, पर मैं उसे नहीं सुनती... इसे ही सुनती हूँ। इसके शुरू के दो शब्द याद रहते हैं और फिर धुन बजती रहती है दिमाग़ में। आज सुबह भी जब यही गीत दिमाग़ में था उठते हुए तो लगा कि इसे लिखना पड़ेगा।

रूमी की एक पंक्ति, What you seek is seeking you... ज़िंदगी में एकदम सही साबित होती है। मुझ तक दुनिया भर की बेहद उदास और ख़ूबसूरत चीज़ें पहुँचती हैं। ख़ुद ही। कई साल पहले पोलैंड गयी थी पहली बार, उसके बाद गूगल का अल्गोरिथ्म जानता है कि मुझे holocaust के बारे में जानना होता है... पता नहीं क्यूँ। क्या मैं वहाँ किसी पिछले जन्म में मर गयी थी?

Ostania Niedziela - इस गाने को कई अलग अलग नाम से जाना गया - सूयसायड टैंगो, हंगेरीयन सूयसायड सोंग और लास्ट संडे। पोलिश में लिखे इस गीत को अंग्रेज़ी और रूसी में भी गाया गया। मिथक ये है कि लोग इस गीत को सुनते हुए सूयसायड कर लेते थे। मिथक ये भी है कि कई रेडीओ स्टेशन ने इस गाने को प्ले करने पर बैन लगा दिया था। बिली हॉलिडे का अंग्रेज़ी वर्ज़न ग्लूमी संडे पर BBC ने यह कह कर बैन लगाया था कि विश्व युद्ध के समय में ऐसे उदास गीत जनता का मनोबल गिराएँगे। 2002 में इस बैन को वापस ले लिया गया।

सच्चाई ये है कि श्रम शिविरों में यह गीत उस समय बजाया जाता था जब कि वे यहूदियों को गैस चेम्बर की ओर ले जा रहे होते थे। उनमें से किसी को मालूम नहीं होता था कि वे गैस चेम्बर जा रहे हैं, वे ऐसा सोचते हुए जाते थे कि वे हॉल में शॉवर लेने के लिए जा रहे हैं।

जिन दिनों यह गीत लिखा और बनाया गया था वे ख़तरनाक दिन थे। हत्या, आत्महत्या, युद्ध, भुखमरी और अकाल के दिन। ऐसे वक़्त में ऐसे ही डार्क क़िस्से कहे और सुनाए जाते हैं। मृत्यु के बारे में लिखना उससे आज़ाद हो जाना है। इस लिखने से डरना उसे अपने अंदर पनपते हुए देख कर बारिश और मेघ से घबराना है। मैं लिख लेती हूँ तो फिर से नयी हो जाती है नज़र। धूप और बारिश को देख कर गुनगुना सकती हूँ।

हफ़्ते का दूसरा दिन है। धूप खिली हुयी है। हल्की, ठंडी हवा चल रही है जिसमें खुनक है। मैं हल्का नाश्ता करके फिर से सो जाना चाहती हूँ कि रंग नीचे के फ़्लोर पर हैं और स्टडी ऊपर के फ़्लोर पर। फिर मुझे पेंटिंग भी जैक्सन पौलक जैसी करनी है, लेकिन वो तो बस एक ही था, अपने जैसा अनोखा। हर बार जब मैं कुछ लिखने का सोच रही हूँ, सारे ख़याल सिर्फ़ चिट्ठी लिखने पर अटक जा रहे हैं। आज कुछ पेंडिंग चिट्ठियाँ लिख ली लेती हूँ। कुछ नहीं, एक।


13 July, 2019

Što Te Nema ॰ कभी न पिए जा सकने वाले कॉफ़ी कप्स का इंतज़ार

मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
[साभार कविता कोश]

बहुत साल पहले कभी पहली बार पढ़ी होगी ये कविता। लेकिन कितना पहले और ज़िंदगी के किस पड़ाव पर, याद नहीं। इसकी आख़िरी पंक्ति मेरी कुछ सबसे पसंदीदा पंक्तियों में से एक है। ‘अक्सर एक व्यथा, यात्रा बन जाती है’। इसके सबके अपने अपने इंटर्प्रेटेशन होंगे, क्लास में किए गए भावानुवाद या कि संदर्भ सहित व्याख्या से इतर। 

मेरे लिए औस्वित्ज जाना एक ऐसी यात्रा थी। हमें स्कूल में जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें जीनोसाइड जैसे ख़तरनाक कॉन्सेप्ट नहीं होते हैं। शायद इसलिए कि हमारी किताब लिखने वालों को लगता हो कि बच्चों की समझ से कहीं ज़्यादा क्रूर है ऐसी घटनाएँ। घर पर कई साहित्यिक किताबें थीं लेकिन कथेतर साहित्य कम था, जो था भी वो कभी पसंद नहीं आया। मैंने नौकरी 2006 में शुरू की… ऑफ़िस के काम के दौरान रिसर्च करने के लिए विकिपीडिया तक पहुँची। फिर तो लगभग कई कई महीनों तक मैं जो सुबह पहना पन्ना खोलती थी, वो विकिपीडिया होता था। मैंने कई सारी चीज़ें जानी, समझीं… कि जैसे गॉन विथ द विंड में जिस लड़ाई की बात कर रहे हैं, वो अमरीका का गृहयुद्ध है और उसका पहले या दूसरे विश्वयुद्द से कोई रिश्ता नहीं है। किताब कॉलेज में किसी साल पढ़ी थी और उस वक़्त हमारे समझ से युद्ध मतलब यही दो युद्ध होते थे।
हमें जितनी सी हिस्ट्री पढ़ायी गयी थी उसमें याद रखने लायक़ एक दो ही नाम रहे थे। हिटलर के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पहली बार विश्व युद्ध का एक और पक्ष पता चला। यहूदियों के जेनॉसायड का। पढ़ते हुए यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि अभी से कुछ ही साल पहले ऐसा कुछ इसी दुनिया में घटा है। विकिपीडिया पर हाइपरलिंक हुआ करते थे और मैंने काफ़ी डिटेल में कॉन्सेंट्रेशन कैम्प/श्रम शिविरों के बारे में, वहाँ के लोगों की दिनचर्या के बारे में, वहाँ हुए अत्याचारों के बारे में पढ़ा।
विकिपीडिया का होना मेरे जीवन की एक अद्भुत घटना थी। कुछ वैसे ही जैसे पहली बार बड़ी लाइब्रेरी देख कर लगा था कि इतनी बड़ी लाइब्रेरी है जिसकी सारी किताबें पूरे जीवन में भी पढ़ नहीं पाऊँगी। रैंडम चीज़ें पढ़ जाने की हमेशा से आदत रही और नेट पर कुछ ना कुछ पढ़ना सीखना उस आदत में शुमार होता चला गया। मैं जो हज़ार चीज़ों की बनी हूँ वो इसलिए भी कि मैं बहुत ज़्यादा विकिपीडिया पर पायी जाती थी। उसमें एक सेक्शन हुआ करता था जिसमें रोज़ एक रोचक तस्वीर और उसके बारे में कुछ ना कुछ जानकारी होती थी। 

मुझे उन दिनों बीस हज़ार रुपए मिलते थे, सारे टैक्स वग़ैरह कट कटा के…अमीर हुआ करती थी मैं। अभी से कई साल पहले ये बहुत सारे पैसे हुआ करते थे। पैसों का एक ही काम होता, किताबें ख़रीदना। कि मैं किसी भी दुकान में जा के दो सौ रुपए की किताब ख़रीद सकती हूँ, बिना दुबारा सोचे… मैंने वाक़ई उन शुरुआती दिनों के बाद ख़ुद को उतना अमीर कभी नहीं महसूस किया। बहुत कुछ ख़रीद के पढ़ा उन दिनों। हॉरर भी। द रिंग फ़िल्म दरसल तीन किताबों की ट्रिलॉजी पर बनी है - The Ring, Spiral, The loop. ये किताबें इतनी डरावनी थीं कि बुक रैक पर रखी होती थीं तो लगता था घूर रही हैं। मैंने फिर कभी हॉरर नावल्ज़ नहीं पढ़े। इतनी रात को उन किताबों के बारे में सोचने में भी डर लग रहा है… जबकि मुझे उन्हें पढ़े लगभग बारह साल बीत गए हैं। 

आज के दिन 2012 में मैं पोलैंड के क्रैको में थी। मेरी पहले दिन की टूर-गाइड ने पोलैंड के हौलनाक इतिहास को ऐसी कहानी की तरह सुनाया कि तकलीफ़ उतनी नहीं हुयी, जितनी हो सकती थी। लेकिन ये सिर्फ़ पहले दिन की बात थी। इसके बाद के जो वॉकिंग टूर किए मैंने उसमें दुःख को ढकने का कोई प्रयास नहीं था। सब कुछ सामने था, जैसे कल ही घटा हो सब कुछ। मैं औस्वित्ज़ अकेले गयी थी। जाने के पहले मुझे बिलकुल नहीं पता था कि कोई जगह इस तरह उम्र भर असर भी छोड़ सकती है। फ़िज़िक्ली इम्पैक्ट कर सकती है। या कि मृत्यु और दुःख के प्रति इतना संवेदनशील बना सकती है। वहाँ जा कर पहली बार देखा कि पंद्रह लाख लोग कितनी जगह घेरते हैं। इतने लोगों की मृत्यु के बाद की राख अभी भी मौजूद है। गैस चेम्बर में नाखूनों से खरोंची गयी दीवार जस की तस है। स्टैंडिंग सेल्स अब भी मौजूद है। वहाँ से आते हुए आख़िरी चीज़ जो गाइड ने कही थी मुझे इतने सालों में नहीं भूली। “औस्वित्ज़ में इतना दुःख है कि दुनिया भर के लोगों का यहाँ आना ज़रूरी है ताकि वे इस दुःख को महसूस कर सकें। दुःख, बाँटने से कम होता है”। 

मृत्यु पर राजनीति सबसे ज़्यादा होती है। ख़ास तौर से किसी ऐसे देश के बारे में हम पढ़ रहे हों जिसका पूरा इतिहास न पता हो तो हो सकता है हम अपनी भावुकता में किसी ग़लत पक्ष को सपोर्ट कर दें। लेकिन युद्ध में भी सिविलीयन मृत्यु पर हमेशा विरोध दर्ज किया जाता है। क्रूरता किसी के भी प्रति हो, उसे जस्टिफ़ाई नहीं कर सकते। मंटो की कहानियाँ एक निरपेक्ष दृष्टि से विभाजन के वक़्त की घटनाओं को किरदारों के माध्यम से दर्ज करती हैं। वे किसी के पक्ष में खड़ी नहीं होतीं, वे अपनी बात कहती हैं। 
Što Te Nema.   Venice 2019 pic Srdjan Sremac

आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्ट प्रोजेक्ट की तस्वीरें शेयर कीं… इसमें दुनिया के कई बड़े बड़े शहरों के स्क्वेयर पर हर साल एक मॉन्युमेंट बनाया जाता है। इसका नाम है Što Te Nema. 

Bosnia and Herzegovina में 1995 में यूनाइटेड नेशंस के सेफ़ ज़ोन सरेब्रेनिका में ठहरे हुए शरणार्थियों में से सभी (लगभग 8000) मुसलमान पुरुषों की ले जा कर हत्या कर दी गयी थी। इन पुरुषों की पत्नियों से पूछा गया कि वे अपने पतियों की कौन सी बात सबसे ज़्यादा मिस करती हैं, तो उन्होंने कहा 'साथ में कॉफ़ी पीना'। हर साल ग्यारह जुलाई को Što Te Nema एक नए शहर में जाता है। बोस्निया में कॉफ़ी छोटे पॉर्सेलन के कप में पी जाती है जिन्हें fildžani कहते हैं। इस इवेंट के लिए पूरी दुनिया में रहने वाले बोस्निया के लोगों से ये कॉफ़ी कप्स इकट्ठा किए जाते हैं। वालंटीर्ज़ दिन भर बाज़्नीयन कॉफ़ी बनाते हैं और राहगीर इन ख़ास कॉफ़ी कप्स को पूरा भर कर रख देते हैं, उन लोगों की याद में जो लौटे नहीं। Što Te Nema का अर्थ है ‘तुम यहाँ क्यूँ नहीं हो/कहाँ हो तुम?’। इस साल ये मॉन्युमेंट वेनिस में बना था जिसमें 8,373 कप्स में कॉफ़ी भर के रखी गयी। 

पहली नज़र में तस्वीर ने आकर्षित किया और फिर कहानी पढ़ी... क्या हर ख़ूबसूरत चीज़ के पीछे कोई इतनी ही उदास कहानी होगी? इतनी बड़ी दुनिया में कितना सारा दुःख है और इस दुःख को क्या इतने कॉफ़ी कप्स में नाप के रख सकते हैं? वो हर व्यक्ति जिसने इनमें से किसी एक ख़ूबसूरत चीनी मिट्टी के बाज़्नीयन कॉफ़ी कप को बाज़्नीयन कॉफ़ी से भरा होगा, वो ख़ुद कितने दुःख से भर गया होगा ऐसा करते हुए। क्या वह किसी दुःख से ख़ाली हो पाया होगा ऐसा करते हुए?

ऐसी घटनाओं के कई पौलिटिकल ऐंगल होंगे जो मेरे जैसे किसी बाहरी को नहीं समझ आएँगे… लेकिन इसका मानवीय पक्ष समझने के लिए मुझे राजनीति समझनी ज़रूरी नहीं है। कला दुःख को कम करने के लिए एक पुल का काम करती है। जोड़ती है। दिखाती है कि हमारे दुःख एक से हैं…और इस दुःख की इकाई हमेशा कोई एक व्यक्ति ही होगा कि जिसका दुःख हमेशा पर्सनल होगा…

ये सच किसी भी संख्या में सही होता है…दुःख बाँटने से घटता है।

01 July, 2019

कच्चा रंग धुला पानी

अक्सर लगता है कि देर रात जब नींद न आ रही हो...या आधी आ रही हो पर बची खुची ग़ायब हो तो दिमाग़ में जो फ़िल्म चलती है...वो सबसे सच्ची होती है।

जैसे अभी कोई दो घंटे से नींद आ नहीं रही, जबकि बहुत देर हो चुकी है...तब से ही पानी के रंगों से पेंट करने का मन कर रहा है। छोटे छोटे नीले पहाड़, एक आधी सुनहरी ज़मीन पर पेड़ और ज़रा सी घास। क़ायदे से ऐसी तस्वीर में हमेशा एक नदी होती थी और चाँद...एक नाव होती थी पाल वाली और उसमें अकेली बैठी एक लड़की, जाने क्या सोचती हुयी। मैं छोटी थी तो ये वाली पेंटिंग ख़ूब बनाती थी। मेरे घर के पीछे एक पोखर था और पूर्णिमा में चाँद बड़ा सा दिखता था पोखर के पाने के ऊपर से। मैं बड़ी सी झील की कल्पना करती थी और उसमें किसी नाव में देर रात तक अकेले जा रही होती थी। उन दिनों ऐसे अकेले अकेले चले जाने में या रात को इस तरह झील पर नाव में बैठे होने में डर नहीं लगता था। मैं छोटी थी। डर मेरे लिए कोई किताब की चीज़ थी। टैंजिबल नहीं। काल्पनिक।

मेरे लिए चीज़ों के सच होने की शर्त इतनी ही है कि मैं उसे छू सकूँ। पहली बार उससे मिली थी तो हाथ मिलाया था। उसने मेरा हाथ थामे रखा था जितनी देर, वो सच लगा था। फिर हम जब उस हॉल से बाहर निकल आए और उसका हाथ छूट गया...वो फिर से किसी कहानी का किरदार लगने लगा।

मैं रंग घोल कर उनमें उँगलियाँ डुबो कर पेंट किया करती थी। पहले मुझे रंग बहुत पसंद थे। अब भी उँगलियों में इंक लगी ही रहती है अक्सर। इतनी देर रात अब पेंट करने जाऊँगी तो नहीं... लेकिन मन कर रहा है। कुछ ऐब्स्ट्रैक्ट बनाने का इस बार। कुछ रंग हों जो उसके शहर की याद दिलाएँ...थोड़ा सलेटी, सिगरेट के धुएँ की तरह, काले रंग से कुछ आउट्लायन बनाऊँ कि जैसे उसके जानने में कुछ हिस्से प्रतिबंधित कर देना चाहती हूँ...बहुत ईमानदार नहीं होना चाहिए। थोड़े से फ़रेब से बचा रहता है जीवन का उत्साह। उल्लास।

आज दोस्त से बात कर रही थी। बहुत दिन बाद। मैंने समझदार की तरह कहा, 'वैसे भी, सब कुछ कहाँ मिलता है किसी को ज़िंदगी में'। उसने कहा, 'मिलना चाहिए...तुम्हें तो वाक़ई सब कुछ मिलना चाहिए'। मैंने नहीं पूछा कि क्यूँ। ऐसा क्या ख़ास है मुझमें, कि मुझे ही सब कुछ मिलना चाहिए। मैं बस ख़ुश थी कि कितने दिन बाद उससे बात कर रही हूँ। चैट पर ख़ूब ख़ूब बतियाए बहुत दिन बीत जाते हैं। हमने बाक़ी दोस्तों की बात की। मैंने कहा, कि मैं उसे बहुत मिस करती हूँ। बस, एक उस दोस्त के जाने के बाद मन एकदम ही दुःख गया। अब किसी नए व्यक्ति से दूरी बना के रखती हूँ, जो लोग अच्छे लगते हैं, उनसे तो ख़ास तौर पर।

कम कम लोग रहे ज़िंदगी में, जिनसे बहुत बहुत प्यार किया। अब उनके जाने के बाद के वे ख़ाली हिस्से भी मेरे हैं...वहाँ थोड़े ना नए किरायेदार रख लूँगी। ये जो ज़िंदगी का दस्तूर है, आने जाने वाला...वो अब नहीं पसंद। कोई न आए, सो भी बेहतर।

और मुहब्बत...उसने पूछा नहीं, लेकिन मैंने ख़ुद ही कह दिया। यार, ७०% पर उपन्यास अटका है, एक छोटी सी लव स्टोरी नहीं लिखा रही...कि जैसी कहानी एक समय में आधी नींद में लिख दिया करती थी...हम बदल गए हैं। वाक़ई। उसने उदास होकर पूछा, किसने तोड़ा तुम्हारा दिल, दोस्त... हम क्या ही तुम्हारा नाम लेते, सो कह दिया, ज़िंदगी। लेकिन देखो। झूठ नहीं कहा ना?

15 June, 2019

त्रासदी के प्रति अधिकतर लोगों के मन में एक सहज (या असहज) आकर्षण होता है। ड्रामा पढ़ते हुए हम इसे पेथॉस के रूप में पढ़ते हैं। मृत्यु, दुःख, विरह… हमारी सम्वेदना को जागृत करते हैं और हमें उल्लास या ख़ुशी की तुलना में ज़्यादा प्रभावित करते हैं। मीडिया भी हमें अधिकतर नेगेटिव चीज़ें ज़्यादा दिखाता है - हत्या, बलात्कार, आगज़नी, आत्महत्या, भीड़ द्वारा घेर कर मारना। ख़बरों में अच्छी ख़बरें बहुत कम देखने पढ़ने को मिलती हैं। इस लिहाज़ से अगर देखें तो दुनिया में सबसे ज़्यादा ख़ुशी अगर कहीं है तो वो बॉलीवुड फ़िल्मों में है। 

इंटर्नेट और मोबाइल रिकॉर्डिंग के इन दिनों में हम पाते हैं कि क्रूरता का बेख़ौफ़ और निर्लज्ज प्रदर्शन बहुत ज़्यादा बढ़ रहा है। कई क़िस्म के वाइरल विडीओ में हिंसा और एक तरह की निष्ठुरता है। इस सिलसिले में कुछ दिन पहले नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुयी फ़िल्म द हाईवेमेन याद आती है। फ़िल्म में टेक्सस रेंजर्स के दो पुराने रेंजर्स को बुलाया जाता है एक ख़ास केस के लिए। उन्हें कुख्यात हत्यारी जोड़ी बॉनी ऐंड क्लाइड को खोजना और ख़त्म करना है। इस जोड़ी ने नृशंस हत्याएँ की हैं लेकिन जनता में इनका पागलों की तरह क्रेज़ है। लोग उनसे बहुत प्यार करते हैं, उनकी तरह कपड़े पहनना चाहते हैं, उनकी तरह बाल कटाना चाहते हैं। लोगों का हत्यारों के प्रति ऐसा आकर्षण ख़तरनाक और समझ से परे है। बॉनी एक कमसिन लड़की है और क्लाइड भी उससे उम्र में थोड़ा ही बड़ा है। हत्या करने में बरती क्रूरता के कारण लोग उन्हें साहसिक मानते हैं। बॉनी और क्लाइड को आख़िर में उनकी कार में घेर कर मार दिया जाता है। रेंजर्स बिना किसी चेतावनी के लगभग 150 राउंड फ़ायर करते हैं। ख़बर फैलती है और लोग उनकी कोई ना कोई निशानी अपने पास रखने के लिए उस फ़ोर्ड ऐंजेला को चारों तरफ़ से घेर लेते हैं…कोई ख़ून सने कपड़ों के टुकड़े काट कर ले जा रहा है…कोई गोलियाँ… कुछ औरतों ने बालों की लट काट कर रखी और एक पुलिस अफ़सर ने देखा कि एक व्यक्ति चाक़ू से क्लाइड की ऊँगली काटने जा रहा था। 

इस तरह के आकर्षण को Hybristophilia कहा जाता है…और इसकी गिनती एक तरह का मानसिक विकार में होती है जहाँ आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों के प्रति आकर्षण होता है। इसे बॉनी और क्लाइड सिंड्रोम भी कहते हैं। कई औरतें इस तरह के सीरियल किलर्स से प्रेम करती हैं…जेल में चिट्ठियाँ लिखना या ऐसे केस की सुनवायी में आना और किलर्स के प्रति दीवानगी प्रदर्शित करने के क़िस्से अक्सर मीडिया में देखने को मिलते हैं। ऐसे पुरूषों का क़िस्सा थोड़ा कम सुनने को मिला है, शायद इसलिए भी आँकड़ों के अनुसार ९०% हत्यायें पुरुष करते हैं(इंटर्नेट पर मिला आँकड़ा) और सीरियल किलर औरतें बहुत कम हुयी हैं।

इन दिनों चर्नोबल की बहुत चर्चा है। मैंने देखने की कोशिश की, लेकिन ज़्यादा देर देख नहीं पायी। पहले एपिसोड में 15 मिनट बचा हुआ था कि आगे देख नहीं पायी। वहाँ कहता है कि शहर से किसी को बाहर जाने नहीं दिया जाएगा। फ़ोन लाइंस कट कर दो। मिलिटेरी बुला लो। apathy is something I have a lot of trouble coming to terms with. ऐसा अपने देश में भी कई बार देखते हैं कि सिर्फ़ इसलिए कि कुछ लोगों को किसी चीज़ से फ़र्क़ नहीं पड़ता, कितने लोगों की जान चली जाती है। उतने देर का एपिसोड देखना ही बुरी तरह परेशान कर गया। क्रिमिनल नेग्लिजेन्स। कि लोगों को बताया तक नहीं गया था कि नूक्लीअर पावर प्लांट है जिससे रेडीएशन निकलता है जो ख़तरनाक है। कितने सारे फ़ायरफ़ाईटर मर गए। खुले में रेडीओ ऐक्टिव पार्ट्स थे। कितना डरावना है ये सब। 

मैंने फिर विकिपीडिया पर डिटेल में चर्नोबल के बारे में पढ़ा। सेफ़्टी रेग्युलेशंज़ का ख़याल नहीं रखा गया। कितने स्तर पर लोगों ने ग़लतियाँ की और ख़ामियाज़ा कितने निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ा। जो बात मुझे बिलकुल दहला गयी वो ये कि चर्नोबल के रेडीएशन के ख़तरे के डर से 150,000 अबॉर्शन कराए गए। आख़िर ऐसे आँकड़े क्यूँ पहुँच जाते हैं मुझ तक। मैं कहाँ जाऊँ कि कुछ सुंदर मिले…जीने लायक़…सादा…उदास, फीकी शाम सही…तन्हा…चुप्पी शाम सही। 

इन दिनों नेटफ़्लिक्स पर हर तरह के सीरियल हैं। वायलेंट टीवी ड्रामा का एक पूरा अलग सेक्शन है। ज़ाहिर सी बात है, सबके अलग अलग पसंद की चीज़ें होती हैं और फ़िल्में सिर्फ़ फ़िल्में होती हैं। लेकिन हिंसा देखने के कारण हम उसके प्रति धीरे धीरे उदासीन होते चले जाते हैं। मुझे अब भी याद आता है कि हमने एथिक्स इन जर्नलिज़म में पढ़ा था कि अख़बार चूँकि बच्चे बूढ़े सभी देखते हैं इसलिए ख़ास तौर से मुखपृष्ठ पर ख़ून से सने या विचलित करने वाले फ़ोटो न पब्लिश करें। मगर ये २००५ की बात है। इन दिनों टीवी, अख़बार, मोबाइल…हर जगह हिंसा दिखती है। लोग इतने ग़ुस्से से भरे और क्रूर हैं कि जेबकतरे को पीट पीट कर जान से मार देते हैं। आग लगी बिल्डिंग से कूदते बच्चों की विडीओ शूट करते हैं। ऐसे असंवेदनशील समय में हम क्या कर सकते हैं कि दुनिया में थोड़ी कोमलता बाक़ी रहे। अगर इन दिनों के पौराणिक किरदारों के नए रूप देखें तो उन्हें कई क़िस्म के हथियारों से लैस दिखाया जाता है…जबकि हमारे बचपन के राम … श्री राम चन्द्र कृपालु भजमन हरण भवमय दारुनम हुआ करते थे…पूरा भजन समझ नहीं आता था लेकिन इतना था कि राम की छवि बहुत सुंदर है…उसी तरह कृष्ण के बारे में था कि उनकी मुस्कान दुनिया में सबसे सुंदर मुस्कान है…हम ग़ज़ब सुंदर सुंदर उपमाओं और बिंबों को पढ़ते सुनते हुए बड़े हुए थे। इन दिनों क्या हमारे हाथ में जो किताबें हैं या जो विडीओ हैं वे हमें थोड़ा सा मानवीय बना रही हैं? सुंदरता और कोमलता या मानवीयता कैसे बची रहे… किसी अजनबी को देख कर मुस्कुराना… किसी सुंदर कविता को बहुत से और लोगों तक पहुँचाना… कोई बहुत सुंदर कहानी लिख सकना…

जब हम हर कुछ रच सकते हैं…तो हम क्या करें कि दुनिया थोड़ी सी ज़्यादा सुंदर रहे…

08 June, 2019

मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

तुमसे मुहब्बत... खुदा ख़ैर करे... जानां, मुझे तो तुम्हारे बारे में लिखने में भी डर लगता है। कुछ अजीब जादू है हमारे बीच कि जब भी कुछ लिखती हूँ तुम्हारे बारे में, हमेशा सच हो जाता है। कोई ऑल्टर्नट दुनिया जो उलझ गयी है तुम्हारे नाम पर आ कर...डर लगता है, लिखते लिखते लिख दिया कि तुम मेरे हो गए हो तो... या कि लो, आज की रात तुम्हारे नाम… या कि किसी शहर अचानक मिल गए हैं हम…क्या करोगे फिर?

यूँ ही ख़्वाहिश हुयी दिल में कि हर बार मुझे ही इश्क़ ज़्यादा क्यूँ हो... कभी तो हो कि चाँदभीगे फ़र्श पर तड़पो तुम और ख़्वाब में बहती नदी के पानी के प्यास से जाग में जान जाती रहे…

के बदन कहानियों का बना है और रूह कविताओं से … मैं तुम्हारे शब्दों की बनी हूँ जानां… तुम्हारी उँगलियों की छुअन ने मुझमें जीवन भरा है…किसी रोज़ जान तुम्हारे हाथों ही जाएगी… इतना तो ऐतबार है मुझे…

तुम इश्क़ की दरकार न करो…बाँधो अपना जिरहबख़्तर… भूल जाओ मेरे शहर का रास्ता…भूल जाओ मेरे दिल का रास्ता। लिखती हूँ और ख़ुद को कोसने भेजती हूँ। कि ऐसा क्यूँ। तुम्हारी ख़ातिर…इश्क़ में थोड़ा तुम भी तड़प लो तो क्या हर्ज है। मगर तुम्हारी तड़प मुझे ही चुभती है…कि मेरे हिस्से की नींद तुम्हारे शहर चली गयी है और उन ख़्वाबों में मुझे भी तो जाना था… तुम जाने किस मोड़ पर इंतज़ार कर रहे होगे…

मेरी हथेलियों में प्यास भर आती है। ऐसा इनके साथ कभी नहीं होता… कभी भी नहीं, सिवाए तब कि जब बात तुम्हारी हो। मेरे हाथों को वरना सिर्फ़ काग़ज़ क़लम की दरकार होती है… छुअन की नहीं… किसी भी और बदन की नहीं। तो फिर कौन सा दरिया बहता है तुम्हारे बदन में जानां कि जिसे ओक में भर पीने को रतजगे लिखाते हैं मेरे शहर में। मैं डरती हूँ इस ख़याल से कि तुम्हें छूने को जी चाहता है… तुम्हें छू लेना तुम्हें काग़ज़ के पन्नों से ज़िंदा कर कमरे में उतार लाना है…तुम ख़यालों में हो फिर भी तुम्हारे इश्क़ में साँस रुक जाती है…तुम मूर्त रूप में आ जाओगे तो जाने क्या ही हो… मैं सोच नहीं पाती… मैं सोचने से डरती हूँ। तुम समझ रहे हो मेरा डर, जानां?

तुम्हें चूमना पहाड़ी नदी हुए जाना है कि जिसका ठहराव तुम्हारी बाँहों के बाँध में है…मगर फिर लगता है, तुम्हें तोड़ न डालूँ अपने आवेग में… बहा न लूँ… मिटा न दूँ… कि जाने तुम क्या चाहते हो… कि जाने मैं क्या लिखती हूँ… 

कि देर रात अमलतास के पीछे झाँकता है चाँद… मैं सपने में में तलाश रही होती हूँ तुम्हारी ख़ुशबू…हम यूँ ही नहीं जीते इश्क़ में बौराए हुए।

के जानां, मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

20 May, 2019

कहते हैं, change is the only constant. इस दुनिया में कुछ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता। चीज़ें बदलती रहती हैं। जो हमारे लिए ज़रूरी है…वो भी ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ पर बदलता रहता है। हम भी किन्हीं दो वक़्त में एक जैसे कहाँ होते हैं। फिर बदलाव हमें पसंद भी हैं…वे ज़िंदगी को मायना देते हैं। एक थ्रिल है कि कुछ भी पहले जैसा कभी दुबारा नहीं होगा।

लेकिन फिर भी। हम चाहते हैं कि कुछ चीज़ें न बदलें। कुछ रिश्ते, कुछ लोग हमारे बने रहें। कुछ चीज़ों के कभी न बदलने का भरोसा हमें राहत देता है। घर, परिवार, कुछ पुराने दोस्त, बचपन की कुछ यादें… जैसे मेरा बचपन देवघर में बीता। मैं वहाँ तक़रीबन ११ साल रही। पूरी स्कूलिंग वहीं से की। वहाँ मिठाई की एक दुकान है - अवंतिका। इतने सालों में भी वहाँ मिलने वाले रसगुल्लों का स्वाद जस का तस है। इसी तरह कभी कभार बस से गाँव जा रहे होते थे तो बेलहर नाम की जगह आती थी जहाँ पलाश के पत्ते के दोने में रसमलाई मिलती थी। सालों साल उसका स्वाद याद रहा और उस स्वाद को फिर तलाशते भी रहे। वहाँ हमारे एक दूर के रिश्ते के भाई रहते थे… मुन्ना भैय्या। बिना मोबाइल फ़ोन वाले उस ज़माने में हम जब भी वहाँ से गुज़रे… वो हमेशा वहाँ रहते थे। एक दोना रसमलाई लिए हुए। मुझे उनकी सिर्फ़ एक यही बात सबसे ज़्यादा याद रही। अब भी कभी गाँव जाने के राते बेलहर आता है लेकिन अब भैय्या वहाँ नहीं रहते और कौन जाने किस दुकान की रसमलाई थी वो। देवघर से दुमका जाने के रास्ते में ऐसे ही एक जगह आती है घोरमारा/घोड़मारा… वहाँ सुखाड़ी साव पेड़ा भंडार था जिसके जैसा पेड़ा का स्वाद कहीं नहीं आता था। जब सुखाड़ी साव नहीं रहे तो उनकी दुकान दो हिस्से में बँट गयी - उन के दोनों बेटों ने एक एक हिस्सा ले लिया। लेकिन वो पेड़े का स्वाद बाँटने के बाद खो गया और फिर कभी नहीं मिला।

मेरी स्मृति में खाने की बहुत सी जगहें हैं। हर जगह के साथ एक क़िस्सा। हम लौट कर उसी स्वाद तक जाना चाहते हैं… कि माँ के जाने के बाद ज़िंदगी में एक बड़ी ख़ाली सी जगह है… माँ के हाथ के खाने के स्वाद की… या बचपन की… कभी कभी घर जाती हूँ और दीदियाँ कुछ बनाती हैं तो लगता है, शायद… ऐसा ही कुछ था… या कि चाची के हाथ का कुछ खाते हैं तो। लेकिन कभी कह नहीं पाते उनसे… कि कुछ दिन हमको मेरे पसंद का खाना बना के खिला दीजिए।

मेरा एक क़रीबी और बहुत प्यारा दोस्त था। जैसा कि सब दोस्तों के बीच होता है इस टेक्नॉलजी की दुनिया में… हमारे दिन की पूरी खोज ख़बर एक दूसरे को रहती थी। हम किसी शहर में हैं… हम किसी ख़ूबसूरत आसमान के नीचे हैं… हम किसी समंदर के पास हैं। सोशल मीडिया पर जाने के पहले वे तस्वीरें पर्सनल whatsapp में जाती थीं। मेरी भी, उसकी भी। आज उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखीं। ये किसी ब्रेक ऑफ़ से ज़्यादा दुखा।

हम नहीं जानते कि कब हम किसी से दूर होते चले जाएँगे। किसी की ज़िंदगी में हमारी प्रासंगिकता कम हो जाएगी, हमारी ज़रूरत कम हो जाएगी और हमसे लगाव कम हो जाएगा। ये नॉर्मल है। इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जो चाहिए, वो हो पाए…इतनी आसान कब रही है ज़िंदगी। हमें मोह हुआ रहता है। हम कुछ चीजों को यथासम्भव एक जैसा रखना चाहते हैं। कुछ चीज़ों को। कुछ रिश्तों को।

अक्सर जब हम सबसे ज़्यादा अकेला महसूस करते हैं तो हम सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति को याद कर रहे होते हैं। सिर्फ़ किसी एक को। बस उसके न होने से पूरी दुनिया वाक़ई ख़ाली लगती है। किसी और के होने न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ऐसा अक्सर उन लोगों के साथ होता है जिनकी ज़िंदगी में लोग थोड़े कम हों… ऐसे में किसी के होने की विशिष्टता इतनी ज़्यादा बढ़ जाती है कि उसके जैसा कोई भी महसूस नहीं होता। उसके आसपास तक का भी नहीं। हम उस रिश्ते को निष्पक्ष भाव से देख कर उसका आकलन नहीं कर पाते हैं। हम बाइयस्ड होते हैं।

इस ख़ाली जगह को सिर्फ़ किताबों या सफ़र से भरा जा सकता है। थोड़ा सा खुला आसमान कि जो किसी पुरानी इमारत पर जा कर ख़त्म होता हो। थोड़ा सा किसी खंडहर का एकांत। कुछ चुप्पे किरदार जो दिमाग़ में ज़्यादा हलचल न मचाएँ। हम पुराने शहरों में ही पुराने लोगों को भूल सकते हैं। पुराने रिश्ते जब पुरानी इमारतों के इर्द गिर्द टूटते हैं तो उनका टूटना थोड़ा ज़्यादा स्थाई भी होता है और दुखता भी कम है। इसलिए पुरानी दिल्ली से आ कर मुझे साँस थोड़ी बेहतर आती है।

सोचती हूँ…तुम्हें भुलाने के लिए किस शहर का रूख करूँ… फिर शायद वहाँ की तस्वीरें कहीं पर भी पोस्ट न करूँ… क्या ही फ़र्क़ पड़ता है कि आसमान का रंग कैसा था या कि पत्थर में कितनी धूप रहती थी।

मैं भी तो बदल रही हूँ तुम्हारे बग़ैर। चीज़ों को सहेजने की ख़्वाहिश मिटती जा रही है। कि तुम मेरी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा क़ीमती थे। पता नहीं, तुम्हें भी क्या ही सूझी होगी जो किसी रोज़ यूँ ही चले आए मेरी ज़िंदगी में। अब जब इसी तरह यूँ ही चले भी गए हो तो तुम्हारे बिना सब चीज़ें फ़ालतू और बेकार लगती हैं। क्या ही रखें कहीं। क्या लिखें। क्यूँ। किसके लिए?

अगर सब कुछ खो ही जाता है…खो ही जाना है इक रोज़ तो मैं भी चुप्पे चली जाऊँ न…
अलविदा कहना शायद तुम्हें भी नहीं आता है।

18 May, 2019

जिन शामों में मुझे कोई भी दुःख नहीं होता और फिर भी मेरी आँख भर भर आती है… मैं जानती हूँ कि मैं बहुत प्राचीन दुखों पर रो रही हूँ… कि मेरी आँखें रडार की तरह आसमान में देख लेती हैं कई जन्म पुराने दुःख… युद्ध की विभीषिका… मृत्यु… भय और फिर वे उन लोगों के हिस्से के आँसू रोती हैं जो असमय मर गए थे। 

मेरे भीतर एक दुःख का मर्तबान है जो कभी ख़ाली नहीं होता। मेरे अंदर एक सुख का मर्तबान है जिसमें तली नहीं है।
दुःख जीवन की गर्मी पा कर सांद्र होता चला जाता है। दुःख के रहने की जगह आँखों में है। मैं किसी को अपनी आँखें चूमने नहीं देती हूँ, इसलिए। 

मैं जिन शहरों की जिन गलियों से चली हूँ वहाँ युद्धबंदी चले थे अपनी अंतिम यात्राओं पर…उनकी निराशा ने मेरी आत्मा पर कुछ अक्षर अंकित कर दिए हैं जो गाहे बगाहे मेरे लिखे में दिखने लगते हैं। मैं लिखती हूँ तो मेरी आत्मा जाने किन अदृश्य शवयात्राओं में चल रही होती है… सफ़ेद कपड़े पहने… सिर झुकाए… शोक संतृप्त। मेरी हथेलियों में धूप की नहीं चिताओं की आग की गर्मी होती है जिसे लिखने में सरकण्डे की क़लम में आग लग जाती है। मैं कभी कभी स्याही में उँगलियाँ डुबो कर प्रायश्चित्त की कविताएँ लिखती हूँ… छोटे छोटे शब्दों की। हमारे यहाँ स्त्रियाँ शवयात्रा में शामिल नहीं होतीं इसलिए उन्हें उम्र भर कभी यक़ीन नहीं होता कि राम नाम सत्य है… वे अपना सत्य तलाशती रहती हैं। मैं भी अपना सत्य तलाश रही हूँ। ईश्वर के आख़िरी नाम में जो कि प्रेमी के नाम से मिलता जुलता हो। जीवन की सारी कहानियों और रामायण के जितने हिस्से याद हैं उसके बावजूद राम का सबसे गहरा असर जो मेरे मन पर होता है वो इसी वाक्य का क्यूँ है… मैं कोई किरदार लिख सकूँगी कभी कि जिसका नाम राम हो? कि दुनिया तो अब ऐसी नहीं रही कि जिसमें मैं ये कल्पना कर सकूँ कि मेरा कोई बेटा हो तो उसका नाम राम रखूँ। 

आज शाम निर्मल वर्मा को पढ़ रही थी - दूसरी दुनिया। उसमें वे बोर्खेस की बात करते हुए बताते हैं कि बोर्खेस के एक वक्तव्य के बाद एक श्रोता ने पूछा कि “आप अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस करते हैं?”… बोर्खेस ने अपनी थकी आँखों से हमारी ओर देखा, “हमेशा लगता है कि मैं कहीं भटक गया हूँ, हमेशा यही लगता है।”। 

इत्तिफ़ाक़ से दो तीन दिन पहले ही घर पर कुछ लोग आए हुए थे और हम विदेश यात्रा के अपने अनुभवों पर बात कर रहे थे। मैं कह रही थी कि मुझे सबसे अच्छी बात ये लगती है कि मैं कहीं भी खो नहीं सकती। दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी शहर में, कितने भी कॉम्प्लिकेटेड सब्वे सिस्टम्ज़ या कि नाव चल रही हो… मुझे हमेशा मालूम होता है मैं कहाँ हों कि मैं हमेशा लौट सकती हूँ जहाँ चाहूँ… जब चाहूँ… कि मैं कहीं भटक नहीं सकती। 

बोर्खेस के इस हिस्से को पढ़ते हुए लगा कि ये वक्तव्य तब का है जब वे अपने आँखों की रोशनी पूरी तरह खो चुके थे। उस अंधेरे में कैसे आते होंगे शब्द… रंगों की कैसी स्मृति रही होगी और रौशनी की… इस भटकने में कितना आध्यात्मिक था और कितना शुद्ध सत्य। मैं जो कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकती… मैं कहाँ जाना चाहती हूँ। क्या मेरे पास कोई मंज़िल है … मैं इस रास्ते पर रहते हुए संतुष्ट हूँ या मुझे किसी मंज़िल की तलाश है...

ये कितना सुंदर सवाल है न? मैं भी शायद कुछ लोगों से पूछना चाहूँगी… ख़ास तौर से मेरे सबसे पसंद के लेखकों से… कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस की है। कि मुझसे पूछा जाए तो शायद मैं कहूँगी सफ़र में होने की ख़ुशी। या कि एक शब्द में कहें तो… प्रेम। मैंने सबसे ज़्यादा प्रेम महसूस किया है। और उससे थोड़ा ही कम प्रेम से उपजी पीड़ा। मेरे पास सबसे ज़्यादा का कोई ठीक ठीक जवाब नहीं है। 

मेरी कैलीग्राफ़ी वाली क़लम खो गयी है और मैं कई दिनों से जो लिखना चाहती हूँ वो लिख नहीं पा रही हूँ क्यूँकि दिमाग़ में शब्द नहीं बस क़लम का चलना दिख रहा है। कल शायद जा कर नयी क़लम ख़रीदनी पड़े। मैं इस बार कुछ गहरे दुखों को लिखना चाहती हूँ जो ऊपर से देखने पर काफ़ी सादे से दिखते हैं लेकिन दुखते बहुत ज़्यादा हैं। जैसे कि मैं अपने घर में खाने का प्रबंधन ठीक से नहीं देख पाती। मुझे समझ नहीं आता कि कुक को क्या बनाने बोलूँ या कि उसको खाना बनाना कैसे सिखाऊँ… मुझे ख़ुद से बनाना तो आता है लेकिन सिखा नहीं सकती किसी को… तो मेरे घर के सारे लोगों को खाने के वक़्त से डर लगता है कि आज जाने कितना बुरा खाना बना होगा… हम कितने महीने से ऐसा ही खाना खा रहे हैं जो बेहद बेस्वाद होता है। मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ… ये भी नहीं कर पा रही। लेकिन एक नॉर्मल सी ज़िंदगी में ये दुःख कितना बड़ा है कि आपको तीन वक़्त का अपनी पसंद का खाना खाने को नहीं मिले। ये दुःख उपन्यास पूरा न कर पाने या कि कहानियाँ न लिख पाने से भारी लगता है। कि लिखते पढ़ते हुए सब कुछ पर्सनल हो जाता है और जानती हूँ कि भूख दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है।

… तुम्हारा घर होना है।

'मुझे अभी ख़ून करने की भी फ़ुर्सत नहीं है'।

उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया... कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं... उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता।  फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।

प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ। 

वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…

उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो। 

कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है। 

वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव… 

एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’ 

काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो।

कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।

15 May, 2019

ख़्वाब गली

सपने ठीक ठीक किस चीज़ के बने होते हैं, मालूम नहीं। हमें जो चाहिए होता है...इस दुनिया में बिखरी जो तमाम ख़्वाहिशें हैं... मेरी नहीं, किसी और की, किसी और वक़्त में किसी की माँगी हुयी कोई दुआ...सच की... कि हम जो महसूसना चाहते हैं, भले ही वो हमारी ज़िंदगी में कभी न घटे लेकिन वैसा होने से हम कैसा महसूसते, ये हमें सपने में दिख जाता है। एक थ्योरी तो यह भी कहती है कि अगर आपने सपने में किसी को देखा है तो इसका मतलब वो व्यक्ति आपको याद कर रहा था, बेतरह।

जानां। आज पूरी रात कई सारे सपनों में बीती। हर सपना टूटने के बाद दूसरा शुरू हो जाता था। इन सारे सपनों में बस तुम ही कॉमन रहे। क्यूँ देखा तुम्हें पूरी रात मालूम नहीं। सुबह को दो सपने याद हैं।

मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो खाना बना रही है और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर बरामदे से भीतर आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।

मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो बड़े से पतीले पर चढ़ा भात देख रही है...जो कि खदबद कर रहा है...और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर से आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।

बस से हम ठीक अपने देवघर वाले घर के सामने उतरे हैं। मैं और तुम, घर के बाक़ी लोग आगे चले गए हैं। मेरे तुम्हारे, दोनों के घर वाले। मेरे घर के पहले तल्ले पर जाने के लिए पीछे का छोटा वाला दरवाज़ा है और वहाँ तक जाने वाली छोटी सी गली है... सामने से पड़ोसी और उसके साथ एक और लड़का आता हुआ दिख रहा है। मैं गली की दूसरी साइड चली गयी हूँ ... वैसे तो हमारी बात नहीं होती, लेकिन कोई दूसरा लड़का है उनके साथ और मैं नहीं चाहती वो मुझे टोके।

लोहे का गेट खोल कर हम अंदर घुसते हैं और फिर लकड़ी वाला दरवाज़ा मैं चाबी से खोलती हूँ... इतनी देर में तुमने जूते उतार के बाहर रख दिए हैं। तुम जब अंदर आते तो तो मैं देखती हूँ, जूते बाहर हैं। मैं उन्हें उठा लेती हूँ... कि हमारे यहाँ कोई बाहर नहीं खोलता जूते। लेदर के पुराने ओल्ड फ़ैशन जूते... मेरे पापा पहनते हैं ऐसे ही...बाटा वाले। मैं आगे बढ़ती हूँ, तुम्हें चाबी दी है...दरवाज़ा लॉक करने के लिए। सीढ़ियों से ऊपर चढ़े हैं। दायीं तरफ़ पहला कमरा मेरा है। मेरी स्कूल की किताबें लगी हुयी हैं। लंच बॉक्स और पेंसिल बॉक्स रखा हुआ है। खिड़की के पास मेरा सिंगल बेड है। तकिए के पास कुछ किताबें पसरी हुयी हैं... एक आधी नोट्बुक और पेन पेंसिल भी।

तुम्हें पीठ में दर्द हो रहा है। दाएँ कंधे के थोड़े नीचे। शायद बस में चोट लगी थी या ऐसा ही कुछ। मैं कहती हूँ कि विक्स लगा देती हूँ। तुम कहते हो कि कोई ज़रूरत नहीं है, थोड़ा सा दर्द है... ऐसे ही ठीक हो जाएगा। मैं ज़िद करती हूँ कि थोड़ा सा लगा के पीठ दबा ही दूँगी तो दिक्कत क्या है... ऐसे दर्द में रहने की क्या ज़रूरत है। तुम अपनी शर्ट के बटन खोलते हो और आधी शर्ट उतार कर बेड पर लेट जाते हो... मैं विक्स लगा रही हूँ... मेरी हथेली गर्म लग रही है... तुम्हें शायद चोट लगी है कि वहाँ कत्थई निशान है, लगभग मेरी हथेली जितना। मैं हल्के हल्के विक्स लगाती सोच रही हूँ... मैंने पहले कभी इतने intimately तुम्हें छुआ नहीं है। कभी कभी सिर्फ़ तुम्हारा हाथ पकड़ा है और सिर्फ़ एक बार तुम्हारे बाल ठीक किए हैं। मैं पहली बार जान रही हूँ तुम्हें छूना कैसा है। तुम्हारा कंधा साँवला है और त्वचा एकदम चिकनी जिसमें थोड़ी सी चमक है। मुझे नेरुदा याद आते हैं... the moon lives in the lining of your skin...क्या गोरखधंधा हो तुम खुदा जाने...

तुम उठ कर बैठते हो...शर्ट के बटन लगा रहे हो...काली चेक शर्ट है... कॉटन की... मैं पहली बार तुमसे मिली थी तो तुमने यही शर्ट पहनी हुयी थी। खिड़की वाली दीवार पर टेक लगा कर बैठते हो... मैं तुम्हारी लेफ़्ट ओर बैठी हूँ तुम मुझे गले लगाते हो... मैं तुम्हारे सीने पर सर रख कर बैठी हूँ... तुमने बाँहों में घेर कर माथे पर हथेली रखी हुयी है...और हल्के से मेरा सर थपथपा रहे हो...बाल सहला रहे हो...

मैं आँख बंद करती हूँ कि जान जाती हूँ ये सपना है और सब कुछ एक हूक की तरह सीने में हौल करता है... तुम मुझे चूमते हो... सपने और जाग के बीच बने बारीक पुल पर...

मैं जागती हूँ तो मेरी हथेलियों में इक गर्माहट की याद है। पहली चीज़ मन किया कि तुमसे पूछ लूँ, तुम्हें कोई चोट तो नहीं लगी है... फिर अमृता प्रीतम याद आती हैं... जब वे साहिर के सीने पर विक्स लगा रही होती हैं। फिर मैं भूल जाती हूँ दोनों को। मुझे तुम्हारी बेइंतहा याद आयी है। रुला देने वाली। कि वाक़ई होना चाहिए इस दुनिया में ऐसा कि किसी को ऐसे याद करने के बजाए, हम जा सकें उससे मिलने। फ़्लाइट पकड़ कर उतर सकें उसके शहर। मिल सकें, पी सकें एक कॉफ़ी...कह सकें, इस याद से तो मर जाना बेहतर था।

ऐसी किसी सुबह लगता है कि शायद तुमने भी मुझे याद किया हो... इतना नहीं, थोड़ा कम सही।

लव यू।

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