अक्सर लगता है कि देर रात जब नींद न आ रही हो...या आधी आ रही हो पर बची खुची ग़ायब हो तो दिमाग़ में जो फ़िल्म चलती है...वो सबसे सच्ची होती है।
जैसे अभी कोई दो घंटे से नींद आ नहीं रही, जबकि बहुत देर हो चुकी है...तब से ही पानी के रंगों से पेंट करने का मन कर रहा है। छोटे छोटे नीले पहाड़, एक आधी सुनहरी ज़मीन पर पेड़ और ज़रा सी घास। क़ायदे से ऐसी तस्वीर में हमेशा एक नदी होती थी और चाँद...एक नाव होती थी पाल वाली और उसमें अकेली बैठी एक लड़की, जाने क्या सोचती हुयी। मैं छोटी थी तो ये वाली पेंटिंग ख़ूब बनाती थी। मेरे घर के पीछे एक पोखर था और पूर्णिमा में चाँद बड़ा सा दिखता था पोखर के पाने के ऊपर से। मैं बड़ी सी झील की कल्पना करती थी और उसमें किसी नाव में देर रात तक अकेले जा रही होती थी। उन दिनों ऐसे अकेले अकेले चले जाने में या रात को इस तरह झील पर नाव में बैठे होने में डर नहीं लगता था। मैं छोटी थी। डर मेरे लिए कोई किताब की चीज़ थी। टैंजिबल नहीं। काल्पनिक।
मेरे लिए चीज़ों के सच होने की शर्त इतनी ही है कि मैं उसे छू सकूँ। पहली बार उससे मिली थी तो हाथ मिलाया था। उसने मेरा हाथ थामे रखा था जितनी देर, वो सच लगा था। फिर हम जब उस हॉल से बाहर निकल आए और उसका हाथ छूट गया...वो फिर से किसी कहानी का किरदार लगने लगा।
मैं रंग घोल कर उनमें उँगलियाँ डुबो कर पेंट किया करती थी। पहले मुझे रंग बहुत पसंद थे। अब भी उँगलियों में इंक लगी ही रहती है अक्सर। इतनी देर रात अब पेंट करने जाऊँगी तो नहीं... लेकिन मन कर रहा है। कुछ ऐब्स्ट्रैक्ट बनाने का इस बार। कुछ रंग हों जो उसके शहर की याद दिलाएँ...थोड़ा सलेटी, सिगरेट के धुएँ की तरह, काले रंग से कुछ आउट्लायन बनाऊँ कि जैसे उसके जानने में कुछ हिस्से प्रतिबंधित कर देना चाहती हूँ...बहुत ईमानदार नहीं होना चाहिए। थोड़े से फ़रेब से बचा रहता है जीवन का उत्साह। उल्लास।
आज दोस्त से बात कर रही थी। बहुत दिन बाद। मैंने समझदार की तरह कहा, 'वैसे भी, सब कुछ कहाँ मिलता है किसी को ज़िंदगी में'। उसने कहा, 'मिलना चाहिए...तुम्हें तो वाक़ई सब कुछ मिलना चाहिए'। मैंने नहीं पूछा कि क्यूँ। ऐसा क्या ख़ास है मुझमें, कि मुझे ही सब कुछ मिलना चाहिए। मैं बस ख़ुश थी कि कितने दिन बाद उससे बात कर रही हूँ। चैट पर ख़ूब ख़ूब बतियाए बहुत दिन बीत जाते हैं। हमने बाक़ी दोस्तों की बात की। मैंने कहा, कि मैं उसे बहुत मिस करती हूँ। बस, एक उस दोस्त के जाने के बाद मन एकदम ही दुःख गया। अब किसी नए व्यक्ति से दूरी बना के रखती हूँ, जो लोग अच्छे लगते हैं, उनसे तो ख़ास तौर पर।
कम कम लोग रहे ज़िंदगी में, जिनसे बहुत बहुत प्यार किया। अब उनके जाने के बाद के वे ख़ाली हिस्से भी मेरे हैं...वहाँ थोड़े ना नए किरायेदार रख लूँगी। ये जो ज़िंदगी का दस्तूर है, आने जाने वाला...वो अब नहीं पसंद। कोई न आए, सो भी बेहतर।
और मुहब्बत...उसने पूछा नहीं, लेकिन मैंने ख़ुद ही कह दिया। यार, ७०% पर उपन्यास अटका है, एक छोटी सी लव स्टोरी नहीं लिखा रही...कि जैसी कहानी एक समय में आधी नींद में लिख दिया करती थी...हम बदल गए हैं। वाक़ई। उसने उदास होकर पूछा, किसने तोड़ा तुम्हारा दिल, दोस्त... हम क्या ही तुम्हारा नाम लेते, सो कह दिया, ज़िंदगी। लेकिन देखो। झूठ नहीं कहा ना?
जैसे अभी कोई दो घंटे से नींद आ नहीं रही, जबकि बहुत देर हो चुकी है...तब से ही पानी के रंगों से पेंट करने का मन कर रहा है। छोटे छोटे नीले पहाड़, एक आधी सुनहरी ज़मीन पर पेड़ और ज़रा सी घास। क़ायदे से ऐसी तस्वीर में हमेशा एक नदी होती थी और चाँद...एक नाव होती थी पाल वाली और उसमें अकेली बैठी एक लड़की, जाने क्या सोचती हुयी। मैं छोटी थी तो ये वाली पेंटिंग ख़ूब बनाती थी। मेरे घर के पीछे एक पोखर था और पूर्णिमा में चाँद बड़ा सा दिखता था पोखर के पाने के ऊपर से। मैं बड़ी सी झील की कल्पना करती थी और उसमें किसी नाव में देर रात तक अकेले जा रही होती थी। उन दिनों ऐसे अकेले अकेले चले जाने में या रात को इस तरह झील पर नाव में बैठे होने में डर नहीं लगता था। मैं छोटी थी। डर मेरे लिए कोई किताब की चीज़ थी। टैंजिबल नहीं। काल्पनिक।
मेरे लिए चीज़ों के सच होने की शर्त इतनी ही है कि मैं उसे छू सकूँ। पहली बार उससे मिली थी तो हाथ मिलाया था। उसने मेरा हाथ थामे रखा था जितनी देर, वो सच लगा था। फिर हम जब उस हॉल से बाहर निकल आए और उसका हाथ छूट गया...वो फिर से किसी कहानी का किरदार लगने लगा।
मैं रंग घोल कर उनमें उँगलियाँ डुबो कर पेंट किया करती थी। पहले मुझे रंग बहुत पसंद थे। अब भी उँगलियों में इंक लगी ही रहती है अक्सर। इतनी देर रात अब पेंट करने जाऊँगी तो नहीं... लेकिन मन कर रहा है। कुछ ऐब्स्ट्रैक्ट बनाने का इस बार। कुछ रंग हों जो उसके शहर की याद दिलाएँ...थोड़ा सलेटी, सिगरेट के धुएँ की तरह, काले रंग से कुछ आउट्लायन बनाऊँ कि जैसे उसके जानने में कुछ हिस्से प्रतिबंधित कर देना चाहती हूँ...बहुत ईमानदार नहीं होना चाहिए। थोड़े से फ़रेब से बचा रहता है जीवन का उत्साह। उल्लास।
आज दोस्त से बात कर रही थी। बहुत दिन बाद। मैंने समझदार की तरह कहा, 'वैसे भी, सब कुछ कहाँ मिलता है किसी को ज़िंदगी में'। उसने कहा, 'मिलना चाहिए...तुम्हें तो वाक़ई सब कुछ मिलना चाहिए'। मैंने नहीं पूछा कि क्यूँ। ऐसा क्या ख़ास है मुझमें, कि मुझे ही सब कुछ मिलना चाहिए। मैं बस ख़ुश थी कि कितने दिन बाद उससे बात कर रही हूँ। चैट पर ख़ूब ख़ूब बतियाए बहुत दिन बीत जाते हैं। हमने बाक़ी दोस्तों की बात की। मैंने कहा, कि मैं उसे बहुत मिस करती हूँ। बस, एक उस दोस्त के जाने के बाद मन एकदम ही दुःख गया। अब किसी नए व्यक्ति से दूरी बना के रखती हूँ, जो लोग अच्छे लगते हैं, उनसे तो ख़ास तौर पर।
कम कम लोग रहे ज़िंदगी में, जिनसे बहुत बहुत प्यार किया। अब उनके जाने के बाद के वे ख़ाली हिस्से भी मेरे हैं...वहाँ थोड़े ना नए किरायेदार रख लूँगी। ये जो ज़िंदगी का दस्तूर है, आने जाने वाला...वो अब नहीं पसंद। कोई न आए, सो भी बेहतर।
और मुहब्बत...उसने पूछा नहीं, लेकिन मैंने ख़ुद ही कह दिया। यार, ७०% पर उपन्यास अटका है, एक छोटी सी लव स्टोरी नहीं लिखा रही...कि जैसी कहानी एक समय में आधी नींद में लिख दिया करती थी...हम बदल गए हैं। वाक़ई। उसने उदास होकर पूछा, किसने तोड़ा तुम्हारा दिल, दोस्त... हम क्या ही तुम्हारा नाम लेते, सो कह दिया, ज़िंदगी। लेकिन देखो। झूठ नहीं कहा ना?
टैंजिबल नहीं। काल्पनिक।
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