18 October, 2017

मुहब्बत एक सवाल नहीं है कि मैं तुम्हें कोई जवाब दे सकूँ


तुम ये कान्फ़्लिक्ट फ़ितरतन लिए आयी हो। तुम्हारी आत्मा इस कश्मकश से ही बनी है। उसके सारे रेशे। तुम्हारा सारा दुःख।

कि महसूस लें वो सारा कुछ जो नैचुरल है। स्वाभाविक है। जी लें इतना इंटेन्स कि जैसा जीना आता है। खोल दें ख़ुद को पुर्ज़ा पुर्ज़ा। इजाज़त दे दें मुहब्बत को कि हमें नेस्तनाबूद कर दे। तोड़ दे इतने टुकड़ों में और बाँट दें इतने हज़ार पन्नों, किरदारों में कि सब मिला कर भी कभी हो नहीं पाएँ पूरे के पूरे। 

कि मिलो बहुत हज़ार साल बाद कभी। कई जन्मपार कभी। किसी और ऑल्टर्नट रीऐलिटी में। पूछ सकूँ तुमसे, माँग सकूँ उस रोज़ भी। कह सकूँ, भले हिचकते हुए ही सही। 'Can I get a hug?' तुम हँसो कि हम जानें कि वाक़ई कोई मिसिंग टुकड़ा है मेरा। तुम्हारे पास। जिगसा पज़ल का कोई हिस्सा। कि हर मुहब्बत हमें वो एक टुकड़ा लौटाती है जिसकी तलाश में हम किसी चकरघिन्नी की तरह पूरी दुनिया भटक रहे होते हैं। कि मेरे पैरों में इतनी आवारगी इसलिए बसी है कि मेरी रूह के टुकड़े पूरी दुनिया में बिखरे पड़े हैं।

या कि बंद कर दें किवाड़ और बचा ले जाएँ ख़ुद को इस तूफ़ान से। जीना सीख लें ये जानते हुए कि मेरी कहानी का कोई किरदार, abandoned, जी रहा है दुनिया के किसी और छोर पर के किसी शहर पर। कि वो जब रात को पुकारे मुझे और जिरह करे किसी ईश्वर से कि उसने मुझे थोड़ी और हिम्मत क्यूँ नहीं दी तो मेरे पास उसे देने को पन्ने भर की जगह न हो अपनी ज़िंदगी में। कि ख़त्म हो चुकी कहानी में फ़ुट्नोट की तरह कहाँ शामिल होती है मुहब्बत। ऐसे तो सिर्फ़ मौत शामिल होती है।

कि फिर लड़ लें किसी ईश्वर से, कि कुछ लोगों को इतना टूटा-फूटा क्यूँ बनाते हो। कि इतने सारे लोग जो मुझे पढ़ते हैं, और जो कुछ लोग मेरे दोस्त हैं... उनमें से कौन है जिसे बता सकें...कि कितना डर डर के जी है ज़िंदगी। कौन समझेगा इस तरह के लिखने के पीछे किस तरह का टूटना छुपाया गया है। कि कितने मौत मरता है कोई किसी एक किरदार का टूटा हुआ दिल रचने के लिए। कैसा तो बचकाना है ये सब। कितना ऊब से भरा हुआ। कितना रिपीट पर चलता हुआ। वही बिम्ब। वही किरदार। फिर से वही इन्फ़िनिट लूप।

तो फिर हम क्यूँ जीते हैं फिर भी हर बार वही एक कहानी? 

इसलिए कि अभी भी मुहब्बत बहुत रेयर है...बहुत दुर्लभ है। पूछो अपने इर्दगिर्द के लोगों से कि उन्होंने आख़िर बार कब बहुत मुहब्बत महसूस की थी। ख़ुद से ही पूछो कितने साल पहले महसूस किया था दिल का यूँ धड़कना। मिले थे किसी से कि जिसकी ख़ातिर दुनिया का मानचित्र बदल कर एक शहर खींच लेने की ख़्वाहिश हुयी थी अपने दिल के एकदम पास कभी। कि अब भी उसकी आँखों का रंग नया होता है। उसकी हँसी की नर्माहट भी। या कि उसके साथ चलते हुए जो भरोसा होता है वो एकदम ही नया है। कि ज़िंदगी के कितने लाखों शेड्स हैं और मुहब्बत के कितने कितने कितने इंद्रधनुष। कि कोई मुहब्बत कभी रिपीट नहीं होती। बस प्लॉट होता है सेम। कि कोई नहीं मिलता है उस तरह से पहली बार, ना कोई बिछड़ता ही है वैसे दुनिया की भीड़ में। कि हर अलविदा अलग इंटेन्सिटी से दुखता है सीने में।

कि फिर। मुहब्बत फिर। तुम्हारा नाम एक चीख़ है। मेरे कलेजे को चाक करती हुयी। एक चुप चीख़।

सुनी है तुमने? नहीं? तुम्हारी नींदों में नहीं चुभती कोई चीख़?

तो फिर, मेरी जान। तुमने मुझसे प्यार नहीं किया है कभी। और सुनो। ईश्वर अभी भी मेहरबान है तुम पर। अपने सपनों पर बिठा के रखो सच्चे, ईमानदार वाले दरबान कि जो ख़यालों के किसी दुःख को छूने ना दें तुम्हारी आँखें। तुम किसी की दुआ में जी रहे हो कि मेरा इश्क़ तुम्हारी आँखें चूम कर चला आया बस।

कि मेरा इश्क़ क़ातिल है। फ़ितरतन क़ातिल।
और मैं तुमसे प्यार करती हूँ। बहुत प्यार।

17 October, 2017

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?


मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो बेवजह ही क़िस्मत को कोसते और गरियाते रहते हैं। या कि ईश्वर को ही। इन दिनों अच्छा है सब। कोई ख़ास दुःख, तकलीफ़ नहीं है। बड़े बड़े दुःख हैं, जिनके साथ जीना सीख रहे हैं। दोपहर मेरे पढ़ने का समय होता है। आज धनतेरस है। मन भी जाने कहाँ, किस देस, किस शहर, किस टाइम ज़ोन में उलझा हुआ है। टेबल पर ठीक ऊपर के रैक में वो किताबें रखी हैं जो मैं इस बार की अमरीका की ट्रिप से लायी हूँ। इसके सिवा कुछ और किताबें हैं जो मैं दिन दिनों पढ़ती हूँ. अभी ब्रश करना, नहाना, पूजा, नाश्ता...सब कुछ ही बाक़ी है। आज बाज़ार जा के ख़रीददारी भी करनी है। रैक की ओर देखा और सोचा, धुंध से उठती धुन निकालती हूँ और जो पहला पन्ना खुलेगा, उसे यहाँ सहेज दूँगी। अस्तु।

***

28 सितम्बर, 1987
आज शाम पार्टी है। रामू अमेरिका जा रहे हैं - एक साल के लिए। वह दिल्ली में उन कम, बहुत कम मित्रों में से हैं, जिनसे खुल कर वार्तालाप होता था। उनके ना होने से ख़ाली शामों का सिलसिला शुरू होगा।
यह ठीक है। मैं यही चाहता हूँ। सर्दियाँ शुरू हो रही हैं। रिकार्ड है, अनपढ़ी, अधपढ़ी किताबें हैं और सबसे अधिक, अधलिखा अधूरा उपन्यास...
कहानी चल रही है। मैं इतनी अधूरी चीज़ों के बीच हूँ, कि यह सोच कर घबराहट होती है, कि उनका अंत कहाँ और कैसा होगा, मुझे कहाँ ले जाकर छोड़ेगा।
श्रीकांत की अंतिम किताब पढ़ते हुए बहुत बेचैनी होती है। वह कितने ऊँचे-नीचे स्तरों पर चढ़ते-उतरते रहते थे। कोई हिसाब है? न्यूयार्क के अस्पताल में लेटे हुए, नालियों से जुड़े हुए, सूइयों से बींधे हुए, पट्टियों से बँधे हुए...मैंने उनका नाम लिया, तो कहीं दूर-सुदूर से आए और आँखें खोल दीं। मैंने उनका हाथ दबाया, वह देखते रहे...उन्होंने मृत्यु को थका डाला, मृत्यु ने उन्हें...आख़िर दोनों ने हथियार डाल दिए - उनकी मृत्यु एक तरह का शांति समझौता था...सीज फ़ायर के अदृश्य काग़ज़ पर दोनों के हस्ताक्षर थे!
बोर्खेस की कविताएँ, एक ऋषि अंधेरे में ताकते हुए, उन सब छायाओं के समकालीन, जो इस धरती पर रेंग रही थीं, एक दृष्टिहीन द्रष्टा! एक असाधारण कवि...

3 अक्टूबर, 1987
दुःख: अंतहीन डूबने का ऐंद्रिक बोध, साँस ना ले पाने की असमर्थता, जबकि हवा चारों तरफ़ है, जीने की कोशिश में तुम्हारी मदद करती हुयी...तुम ख़तरे की निशानी के परे जा चुके हो, और अब वापसी नहीं है...
पेज संख्या - 91

***
23 अक्टूबर, 1987
ऐसे दिनों में लगता है, जीना, सिर्फ़ जीना, सिर्फ़ साँस लेना, धरती पर होना, चलना, सिर्फ़ देखना - यह कितनी बड़ी ब्लैसिंग  है : अपनी तकलीफ़ों, दुखों, अधूरे गड़बड़ कामों के बावजूद...और तब हमें उन लोगों की याद आती है, जो इतने बड़े थे और जिन्हें इतनी छोटी-सी नियामत भी प्राप्त नहीं है, जो धरती पर रेंगती हुयी च्यूँटी को उपलब्ध है! हम जीने के इतने आदी हो गए हैं, कि 'जीवन' का चमत्कार नहीं जानते। शायद इसी शोक में प्रूस्त ने कहा था, "अगर आदत जैसी कोई चीज़ नहीं होती, तब ज़िंदगी उन सबको अनिवार्यत: सुंदर जान पड़ती, जिन्हें मृत्यु कभी भी घेर सकती है - यानी उन सबको, जिन्हें हम 'मानवजाति' कहते हैं"।
पेज संख्या - 93 
~  यह मौसम नहीं आएगा फिर ॰ धुंध से उठती धुन ॰ निर्मल वर्मा 
***

धुंध से उठती धुन को पढ़ने के पहले निर्मल के लिखे कितने सारे उपन्यासों से गुज़रना होगा। कितनी कहानियों को कहानी मान कर चलना होगा सिर्फ़ इसलिए कि हम जब इस डायरी में देखें उनके लिखे हुए नोट्स तो पहचान लें कि ज़िंदगी और कहानी अलग नहीं होती।

ख़ुद को माफ़ कर सकें उन किरदारों के लिए जिनका ज़रा सा जीवन हमने चुरा कर कहानी कर दिया। कि कौन होता है इतना काइंड, इतना उदार कि दे सके पूरा हक़, कि हाँ, लिख लो मुझे। जितने रंगों में लिखना चाहो तुम। कौन हो इतना निर्भीक कि कह सके, तुम्हारे शब्दों से मुझे डर नहीं लगता। कि तुम्हारी कहानी में मेरे साथ कभी बुरा नहीं होगा, इतना यक़ीन है मुझे। या कि अगर तुम क़त्ल भी कर दो किरदार का, तो इसलिए कि असल ज़िंदगी का कोई दुःख किरदार के नाम लिख कर मिटा सको मेरी ज़िंदगी की टाइम्लायन से ही। कि निर्मल जब कहते हैं 'वे दिन' में भी तो, सिर्फ़ साँस लेना कितनी बड़ी ब्लेसिंग है। कि तुम भी तो। कितनी बड़ी ब्लेसिंग हो।

कला हमें अपने मन के भावों की सही सही शिनाख्त करना सिखाती है। हम जब अंधेरे में छू पाते हैं किसी रात का कोई दुखता लम्हा तो जानते हैं कि इससे रंगा जा सकता है antagonist का सियाह दिल। कला हमें रहमदिल होना सिखाती है। संगीत का कोई टुकड़ा मिलता है तो हम साझा करते हैं किसी के साथ और देखते हैं कि सुख का एक लम्हा हमारे बीच किसी मौसम की तरह खिला है।

दुःख गाढ़ा होता है, रह जाता है दिल पर, बैठ जाता है किसी भार की तरह काँधे पर। जैसे कई योजन चलना पड़े दिल भारी लिए हुए। आँख भरे भरे समंदर लिए हुए।

सुख हल्का होता है। फूल की तरह। तितली की तरह। क्षण भर बैठता है हथेली पर और अपने रंग का कोई भी अंश छोड़े बिना अगले ही लम्हे आँखों से ओझल हो जाता है। तितली उड़ती है तो हम भी उसकी तरह ही भारहीन महसूस करते हैं ख़ुद को। पंखों के रंगों से सजे हुए भी। सुख हमें हमेशा हल्का करता है। मन, आँख, आत्मा। सब पुराने गुनाह बहा आते हैं किसी प्राचीन नदी में और हो जाते हैं नए। अबोध। किलकते हुए।

कभी अचानक से होता है। कोई एक दिन। कोई एक शहर। कोई एक शख़्स। सुख, किसी अपरिचित की तरह मिलता है। किसी पुराने प्रेमी की तरह जिसे पहचानने में एक लम्हा लगता है और फिर बस, मन में धूप ही धूप उगती है। हम एकदम से ही शिनाख्त नहीं कर सकते सुख की...ख़ास तौर से तब, जब वो किसी दूर के शहर से लम्बा सफ़र कर के आ रहा हो। हमें वक़्त लगता है। उसे धो पोंछ कर देखते हैं हम ठीक से। छू कर। पानी का एक घूँट बाँट कर चखते हैं उसकी मिठास। सुख के होने का ऐतबार नहीं होता हमें इसलिए सड़क पार करते हुए हम चाहते हैं कि पकड़ लें एक कोना उसकी सफ़ेद शर्ट की स्लीव का। सुख को लेकिन याद होते हैं हम। वो साथ चलते हुए हाथ सहेज कर पॉकेट में नहीं रखता। सुख हमारा ख़याल रखता है। सुख हमें जीने का स्पेस देता है। सुख हमारे लिए आसमान रचता है और ज़मीन भी। सुख हमारे लिए एक शहर होता है।

सुख हमें नयी परिभाषाएँ रचने का स्पेस देता है। कि कभी कभी किसी दूसरे शहर के समय में ठहरी हुयी घड़ी होती है सुख। कभी लिली की सफ़ेद गंध। कभी मन की बर्फ़ीली झील पर स्केटिंग करने और गिर कर हँसने की कोई भविष्य की याद होता है सुख। इक छोटे से काँच के गोले में नाचते हैं नन्हें सफ़ेद कण कि जिन्हें देखकर मन सीखता है यायावरी फिर से। कौन जाने कैसी गिरती है किसी और शहर में बर्फ़। कोई किताब होती है उसके हाथों की छुअन बचाए ज़रा सी अपनी मार्जिन पर।

बहुत दूर के दो शहरों में लोग एक साथ थरथराते हैं ठंढ और अपनी बेवक़ूफ़ी के कारण। कि कोई सेंकता है महोगनी वाले कैंडिल की लौ पर अपने हाथ और भेजता है एक गर्माहट भरा सुख का लम्हा फ़ोन से कई समंदर पार। बताती है लड़की उसे कि सफ़ेद लिली सूंघ कर देखना किसी फ़्लोरिस्ट की दुकान पर। बहुत दिन बाद एक मफ़लर बुनने भर को चाह लेना है सुख। एक पीला, लेमन येलो कलर का मफ़लर। ऊन के गोले लिए रॉकिंग चेयर पर बैठी रहे और जलती रहे फ़ायरप्लेस में महोगनी की गंध लिए लकड़ियाँ।

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?

सिल्क की गहरी नीली साड़ी में मुस्कुराना उसे देख कर और उसकी हँसी को नज़र ना लगे इसलिए ज़रा सा कंगुरिया ऊँगली से पोंछ लेना आँख की कोर का काजल और लगा देना उसके कान के पीछे। इतना सा टोटका कर के हँसना उसके साथ। कि दुनिया कितनी सुंदर। कितनी उजली और रौशन है। कि प्रेम कितना भोला, कितना सुंदर और कितना उदार है। 

16 October, 2017

कि जिनकी हँसी का अत्तर मोलाया जा सके सिर्फ़ आँसू के बदले

1. 
खुदा, हमारे इश्क़ पर 
बस इतनी इनायत करना
हमारा रक़ीब सिर्फ़ 'वक़्त' हो
कोई शख़्स नहीं 
कि जो छीन ले जाए
तुमको मेरी बाँहों से कहीं दूर
तुम्हारे ख़्वाबों से बिसार दे मेरी आँखें
तुम्हारी कविताओं से मेरी देहगंध
और तुम्हारी उँगलियों से सिगरेट 
वो बेरहम, बेसबब, बेदिल
वक़्त के बीतते पहर हों
ना कि कोई मुस्कुराती आँखों वाली लड़की
कि जिसे साड़ी पहनने का सलीक़ा हो
कि जिसके गालों में पड़े हल्के गड्ढे की रियल एस्टेट वैल्यू
न्यू यॉर्क के पॉश इलाक़े से भी ज़्यादा हो,
'प्रायस्लेस'/ बेशक़ीमत
कि जिसके दिल के आगे जंग लगा, पुराना 'नो एंट्री' बोर्ड ठुका हो 
रक़ीबों के हिस्से न आएँ कभी
सफ़ेद शर्ट्स और
बेक़रीने से इस्त्रि किए हुए ब्लैक पैंट्स
कि जिनके माथे पर झूलती लट को डिसप्लिन सिखाने को
किसी का जी ना चाहे
कि जिनकी हँसी का अत्तर
मोलाया जा सके सिर्फ़ आँसू के बदले 
दिल में ख़ाली जगह रखो तो
हर कोई चाहता है करना उसपर अवैध क़ब्ज़ा
इसलिए बना दो ऊँची चहारदिवारी
दरवाज़े पर बिठा दो स्टेनगन वाले ख़तरनाक गार्ड
कोई अंदर आने ना पाए
कोई भी नहीं 
सीने के बीचों बीच एक सुरंग खुदवा दो
जिसके दरवाज़े की चाभी सिर्फ़
बूढ़े वक़्त के पास हो
कि जो अंदर आए
देखे तुम्हें
मगर चाह कर भी
ना कर पाए तुमसे प्रेम

2. 
चौराहों का दोष नहीं
कि वे प्रेम की सड़क पर पड़े हुए
भाग जाने को नए शहरों के नाम सुझाते
नयी दिल्ली। न्यू यॉर्क। 
पुराना प्रेम रह जाता पुराने शहर में
इंतज़ार की पुरानी शराब में तब्दील होता हुआ 
आख़िर को लौट कर आता पुराना प्रेमी
नए प्रेम के गहरे ज़ख़्म लिए हुए
काँच प्याली की पुरानी शराब में
डुबो कर रखता कच्चा, टूटा दिल 
जब कि उसे चाहिए
कि कच्चे दिल को कर दे
हवस की आग के हवाले
बदन की रख से भर जाते हैं सारे ज़ख़्म 
सारे ख़ानाबदोश चारागर मर गए
पुराने शहर में कोई भी तो नहीं बचा
जो दरवाज़े की कुंडी पर टांग सके रूह को
बदन जलाने से पहले 
जानां, वो अभिशप्त चौराहा था
जिसने तुम्हें उस लड़की का रेगिस्तान दिल दिखलाया
रूहों को जिस्म के खेल समझ नहीं आते
उस लड़की को चूम लेना
उसे मुक्त करना था
तुम्हें क़ैद।

13 October, 2017

तुम मेरा न्यू यॉर्क हो

तो हम कितने अलग हैं बाक़ियों से?

असल सवाल सिर्फ़ एक यही होता है। तुम्हारे जीवन में कोई था, ऐसा कि जिसके साथ कोई एक लम्हा तुमने उतनी शिद्दत से जी लिया जैसे कि मेरे साथ। कि क्या तुम ऐसे सबके ही साथ होते हो या मैं कुछ ख़ास थी। कुछ ख़ास। मैथमैटिकल टर्म में, 'डेल्टा' स्पेशल, डिफ़्रेंट। कि सब कुछ बाक़ियों जैसा ही था, लेकिन ज़रा सा अलग। कि इसी ज़रा से अलग में हमारी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत कहानियाँ हैं।

कि जैसे मेरी ज़िंदगी में तुम्हारे जैसा कोई नहीं था। कोई हो भी नहीं सकता है ना। कोई दो लोग एक जैसे नहीं होते। लेकिन फिर भी कोई एक कैटेगरी होती है जिसमें बाक़ी सारे लोग एक तरफ़ और तुम एक तरफ़ होते हो। तो वो कौन सी बात है जो तुम्हें ख़ास बनाती है?

कि जब आँख बंद करते हैं तो वो कौन सा लम्हा है जो रिपीट पर चल रहा होता है और जिसकी ख़ुशबू वजूद को गमका रही होती है। कि बहुत सालों बाद भी वो कौन सी चीज़ होगी जो तुम्हारा नाम लेते ही मुस्कान में बदल जाएगी?

कि जिसे बारिशें धुल नहीं सकती बदन से...ना आँसू आँख से...वो कौन सा स्पर्श है वो कौन सा लम्हा है जो वक़्त के इरेजर से मिट नहीं सकता।
कि वाक़ई वो कौन सी चीज़ है जो मेरे शब्दों में नहीं बंध सकती...कि जो मुझसे भी नहीं लिखी जा सकती। मेरे गुमान को तोड़ने वाला वो कौन सा लम्हा है...कौन सा अनुभव...कौन सा शख़्स...
शब्दों से परे वो क्या था जो जी लिया मैंने...हमने...

कभी फिर मिलोगे अगर तो शिनाख्त करूँगी चूम कर तुम्हारी आँखें कि याद के खारे पानी का स्वाद वही है या बदल गया है।
कि बात जब रिश्तों की आती है तो हमारे पास कितने कम शब्द होते हैं। कोई ऐसा कि जिसके लिए दोस्ती बहुत फीका और बेरंग सा शब्द लगे और प्रेम बहुत फ़्लैम्बॉयंट। कि जिसके लिए हम रचना चाहें कोई एक नया शब्द। कि जो अपूर्व और अद्भुत हो। समयातीत।

कि कभी ज़िंदगी में इस अहसास की पुनःआवृत्ति हो...तो हम उस शख़्स को...या तुम्हें ही...दुबारा भर सकें बाँहों में...गले लगाएँ कि जैसे ये पहली और आख़िरी बार हो...और शब्दों में रख दें एक नया शब्द...एक नया शहर...एक नया अहसास...हमेशा के लिए...

'तुम मेरा न्यू यॉर्क हो'।

[Photograph from the book I wrote this for you]
दस साल एक बहुत लम्बा अरसा होता है। ज़िंदगी का लगभग एक तिहाई। वो भी तब, जब पहले दो तिहाई हिस्से किसी के साथ गुज़रें हों। बचपन से लेकर लड़कपन तक।

जब तुम गयी थी मम्मी। हमको सबने कहा कि वक़्त के साथ आसान होंगी चीज़ें। भूलना आसान। तुम्हारे नहीं होने के साथ जीना आसान। हुआ कुछ नहीं, सिवाए इसके कि दुनिया को इसके बारे में कहना बंद कर दिया। एक ही उदास कहानी कोई कितनी बार सुने। यूँ भी ठहरा हुआ कुछ किसी को अच्छा नहीं लगता।

लेकिन ठहरे हुए हम हैं। बहुत साल पुराने। हर पर्म्यूटेशन कॉम्बिनेशन को परखते। कि क्या कोई और ऑल्टर्नट रीऐलिटी हो सकती थी। इस ज़िंदगी पर बेतरह अफ़सोस करते हुए। जीने की कोई और राह निकालते हुए।

इतने सालों में हुआ ये बस कि तुम्हारे बारे में किसी से ना बात कर पाते हैं अब...ना कह पाते हैं किसी को कुछ भी। दुःख को इंटर्नलायज़ करना कहते हैं इसे शायद। एक ज़िंदा टीसते दुःख के साथ जीना। बहुत मुश्किल होता है कह पाना। इस दुःख को किसी दिशा में रख पाना। साँस ले पाना ही क़रीने से।

यूँ पिछले दस सालों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ख़ास जो तुमने मिस किया। लेकिन तुम होती तो यही छोटी छोटी बातें ख़ास होतीं। तुम होती तो मेरे ज़िंदगी का कोई मतलब होता मम्मी। इतनी बड़ी दुनिया के एक छोटे से कोने में सिमट कर नहीं जीती मैं। शायद किसी आसमान पर अपना नाम लिखने की ख़्वाहिश जो हम दोनों ने पाली थी...हम उसे सींचते। मैं तुम्हारे लिए तो ख़ास थी। सबसे स्पेशल।

तुम्हारे जाने के बाद कॉन्फ़िडेन्स हर कुछ दिन में रसातल में चला जाता है और मर जाने का ख़याल मेरे इस डिप्रेशन को बार बार उकसाता है, दुलराता है। अवसाद मुझे अकेला नहीं छोड़ता माँ। मैं लड़ना नहीं छोड़ती लेकिन थक जाती हूँ अक्सर। हर लम्हे लड़ लड़ के कितना ही जिए कोई। फिर ये अकेली लड़ाई है कि इसका बोझ किसी के साथ बाँटा नहीं जा सकता। परिवार के साथ नहीं। दोस्तों के साथ तो और नहीं।

बहुत बहुत बहुत साल हो गए।
आज तुम्हारी दसवीं बरसी है।

और अब भी बहुत बहुत बहुत दुखता है।

I love you ma, and I miss you. I miss you so much. 

11 October, 2017

'वे दिन' शूट. Pack up. Fade to सुख


उसे देख कर सहसा लगा, मैं बहुत सुखी हूँ। मझे लगा, एक ख़ास हद के बाद सब लोग एक-जैसे सुखी हो जाते हैं। जब तुम टिक जाते हो। किसी चीज़ पर टिक जाना...वह अपने में सुख ना भी हो, तुम उससे सुख ले सकते हो; अगर तुम ज़्यादा लालची न हो - यह उस शाम मैंने पहली बार जाना था। यह बहुत अचानक है और तुमसे बाहर है - उस फ़ोटो की तरह, जो तुम्हारी जानकारी के बिना किसी बाज़ारू फ़ोटोग्राफ़र ने सड़क पर खींच ली थी। बाद में तुम देखते हो तो हल्का-सा विस्माय होता था कि यह तुम हो...तुम चाहो तो उसे वापस कर सकते हो। लेकिन वह कहाँ है - तुम उसे वापस भी कर दो, तो भी वह वहाँ रहेगा...एक स्थिर चौंका-सा क्षण, जब तुम सड़क पार कर रहे थे...

- वे दिन, निर्मल वर्मा

***
उस चौराहे पर दो ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग थी और दोनों ओर के सिग्नल थे। जहाँ से उन्हें ठीक नब्बे डिग्री के अलग अलग रास्तों में जाना था। ये अच्छा था कि १८० डिग्री विपरीत वाले रास्ते लड़की को पसंद नहीं थे। उनमें इस बात का हमेशा भय होता था कि किसी का आख़िरी बार मुड़ कर देखना मिस कर जाएँगे। It's a shooting nightmare, वो अक्सर अपने दोस्तों को कहा करती थी। स्क्रीनराइटिंग के बाद डिरेक्शन करने से फ़ायदा ये होता था कि हर सीन अपनी पूरी पेचीदगी में लिखा होता था। ठीक वैसा जैसे उसके मन के कैमरे में दिखता था। सिनमटॉग्रफ़र उसके साथ कई कई दिन भटकता रहता था कि ठीक वही ऐंगिल पकड़ सके जो उसकी आँखों को दिखता है।

उस बिंदु से दूर तक जाती सड़क दिखती थी। लोगों के रेलमपेल के बावजूद। बहुत ज़्यादा भीड़ में भी कैसे एकदम टेलिफ़ोटो लेंस की तरह आप ठीक उस एक शख़्स पर फ़ोकस किए रखते हैं। दुनिया का सबसे अच्छा कैमरा भी उस तरह से चीज़ों को नहीं पकड़ सकता जैसे कि आपकी आँख देखती है। कि आँख के देखने में बहुत कुछ और महसूसियत भी होती है। लोगों का आना जाना। ट्रैफ़िक का धुआँ। एक थिर चाल में आगे बढ़ती भीड़। या कि तेज़ी से स्प्रिंट दौड़ता वो एक शख़्स। कि जिसे देख कर अचानक से लगे कि बस, सारी दुनिया ही हो रही है आउट औफ़ फ़ोकस। या कि ख़त्म ही। जैसे कुछ फ़िल्मों में होता है ना, विध्वंस। कोई सूनामी लहर आ रही हो दिल को नेस्तनाबूद करने या कि भूचाल और आसपास की सारी इमारतें गिर रही हों एक दूसरे पर ही। मरते हुए आदमी को ऐसा ही लगता होगा। ज़िंदगी छूट रही हो हाथ से। जिसे हेनरी कार्टीए ब्रेस्सों कहते हैं, 'द डिफ़ाइनिंग मोमेंट'।

इसे शूट करते हुए पहले हम क्रेन से एक लौंग शॉट लेंगे, इस्टैब्लिशिंग शॉट कि जिसमें आसपास की इमारतें, लोग, सड़क, ट्रैफ़िक सिग्नल, सब कुछ ही कैप्चर हो जाए। फिर क्रेन से ही हाई ऐंगल शॉट से दिखाएँगे लड़के को दौड़ते हुए... उसे कैमरा फ़ॉलो करने के लिए ऊपर से नीचे की ओर टिल्ट होता और टिल्ट होने के साथ ही ज़ूम इन भी करेगा किरदार पर...फिर हमें चूँकि उसकी नॉट-पर्फ़ेक्ट रन दिखानी है, हमें थोड़ा शेकी इफ़ेक्ट भी डालना पड़ेगा। इस सारे दर्मयान आसपास के लोग सॉफ़्ट्ली आउट और फ़ोकस रहेंगे। कि वो भीड़ में गुम ना जो जाए, इसलिए हम चाहेंगे कि किरदार बाक़ी शहर के हिसाब से सफ़ेद नहीं, कोई रंग में डूबा शर्ट पहने, कि जो लड़की का पसंदीदा रंग भी हो - नीला। सॉलिड डार्क कलर की शर्ट। फ़ीरोज़ी और नेवी ब्लू के ठीक बीच कहीं की। लिनेन की कि जिसमें आँसू जज़्ब करने की क्षमता हो। ख़याल रहे कि क्षमता ज़रूरी है, इस्तेमाल नहीं।

लड़की देखेगी कैमरापर्सन की ओर और परेशान होगी, कि कोई भी कहाँ कैप्चर कर पता है उतनी डिटेल में जैसे कि इंसान की आँख देखती है चीज़ों को। कितना कुछ छूट रहा है कैमरा से।

कैमरा मिड शॉट पर आ के रुका है जिसमें बना है जिसमें कि किरदार को फ़ॉलो करना मुश्किल है...फिर अचानक ही हमारा लीड कैरेक्टर मुड़ कर देखता है। एकदम अचानक। उसकी नज़र खींचती है चीज़ों को अपनी ओर जादू से। जैसे कैमरे को भी। लेंस के उस पार का कैमरापर्सन ठिठक जाता है। जैसे ठहर जाता है सब कुछ। पॉज़। किसी फ़िल्म में एकदम मृत्यु के पहले का आख़िरी लम्हा। एक आख़िरी मुस्कान। ज़िंदगी अपने पूरे रंग और खुलूस के साथ बादल जाती है एक ठहरे हुए लम्हे में। महसूस होता है। दिल की ठहरी हुयी धड़कन को भी। इसे ही जीना कहते हैं। बस इसे ही।

कि ज़िंदगी ऐसे किसी लम्हे को मुट्ठी में बांधे मुस्कुराती है कई सालों बाद तक भी। 'डेज़ औफ़ बीइंग वाइल्ड' का आख़िरी दृश्य होता है। लड़का अपनी आख़िरी साँसों के साथ याद कर रहा है। जो उसने कहा था। 'ये एक मिनट मैं अपनी पूरी ज़िंदगी याद रखूँगा'।

ट्रेन की आवाज़ आ रही होती है। पुरानी पटरियों को आदत है सुख और दुःख दोनों को अपने अपने अंजाम तक पहुँचा आती हैं। शिकायत नहीं करतीं। ज़्यादा माँगती नहीं। कैमरा लड़की के चेहरे पर टिका हुआ है। वो खिड़की से बाहर अंधेरे में अपनी आँखें देख रही है। नेचुरल लाइट में शूट करने के चलते हम उसकी आँखों में भरा पानी शूट नहीं कर पाते हैं। और फिर, सेल्युलॉड वंचित रह जाता है ख़ुशी से भरी आँखें रेकर्ड करने से।

मनुष्य के बदन में 'मन' कहाँ होता है, हम नहीं जानते। शायद हृदय के आसपास कहीं। लेकिन उस तक भी लिख कर ही पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। डिरेक्टर उम्मीद करता है कि इतना सा देख कर ऑडीयन्स अपनी ज़िंदगी के हिस्से जोड़ देगी। वो टूटे हुए हज़ारों हिस्से जिनसे मिल कर एक लम्हे का सुख बनता है। एक लम्हे का मुकम्मल। सुख।

09 October, 2017

ख़्वाब के हथकरघे पर बुनी हैंडलूम सूती साड़ी


मेरे पास बहुत सी सूती साड़ियाँ हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं। पर सिर्फ़ मुझे ही। बाक़ी किसी को वे पसंद नहीं आतीं। मुझे कुछ ठीक नहीं मालूम कि मुझे वे इतनी क्यूँ पसंद हैं, एक तो उनका कॉटन बहुत अच्छा है। इन दिनों मुझे कपड़े उनकी छुअन से पसंद आते हैं। नेचुरल फैब्रिक उसपर हैंडलूम की साड़ियाँ। दो हज़ार के आसपास की फ़ैबइंडिया की हल्की, प्योर कॉटन साड़ियाँ। मुझे उनका नाम तो नहीं पता, बस ये है कि उन साड़ियों को देख कर विद्या सिन्हा की याद आती है। रजनीगंधा में कैसे अपना आँचल काँधे तक खींच रखा होता है उसने। उन साड़ियों से मुझे अपने गाँव की औरतें याद आती हैं। सिम्पल कॉटन की साड़ियाँ जो सिर्फ़ एक सेफ़्टी पिन पर पहन लेती हैं। जिनकी चूड़ियों में अक्सर कोई ना कोई आलपिन हमेशा रहता है।

वक़्त के साथ मेरा मन गाँव भागता है बहुत। इतना कि मैं समझा नहीं सकती किसी को भी।

तुमने वो घरोंदा का गाना सुना है, ‘मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है’? उसमें ज़रीना वहाब है और अमोल पालेकर। लेकिन यहाँ अमोल पालेकर बदमाशी भी करता है और शर्ट के बटन खोल कर लफुआ टाइप घूमता भी है। उसकी झालमुरी में मिर्ची डाल देता है, पानी पीते समय गिलास उढ़काता है अलग। सुनना वो गाना तुम। नहीं। माने सुनना नहीं, विडीओ देखना। बुद्धू। या उस दौर के बहुत से और गाने हैं। भले लोगों वाले। वो सुन लेना। मेरे लिए रूमान वहीं है, वैसा ही है। साड़ी में घूमती लड़की और साथ में कोई भला सा लड़का। लड़का कि जो हाथ पकड़ कर रोड क्रॉस करा दे। खो जाने पर तलाश ले भरे शहर की भीड़ में भी तुम्हें।

मैं तुमसे मिलने अपनी कोई कॉटन की साड़ी पहन कर आना चाहती हूँ। फिर हम चलेंगे साथ में छोटे छोटे सुख तलाशने कहीं। मुझे लगता है वो साड़ी पहनूँगी तो तुमको अच्छी लगेगी। तुम्हारा ध्यान भी जाएगा, शायद कोई कहानी भी हो तुम्हारे पास किसी साड़ी के मेहंदी रंग को लेकर। या की काँच की चूड़ियों की आवाज़ में घुलीमिली। हम लोग कितनी सुंदर चीज़ें भूलते जा रहे हैं, कि जैसे मैं बैठी हूँ रेलवे स्टेशन की किसी बेंच पर तुम्हारा इंतज़ार करते हुए। तुम पीछे से आकर चुपचाप से अपनी हथेलियाँ रख दो मेरी आँखों पर, मैं तुम्हारे हाथों की छुअन से तुम्हारी एक नयी पहचान चीन्हूँ कि जो मैं बंद आँखों से भी याद रख सकूँ। कि तुम कहो कि चाँदी के झुमके बहुत सुंदर लगते हैं मुझपर। या कि मैंने जो अँगूठी पहन रखी है दाएँ हाथ की सबसे छोटी ऊँगली में। लव लिखा हुआ है जिसमें। वो सुंदर है। कि तुम्हारे सामने मैं रहूँ तो तुम मुझे देखो। नज़र भर के। नज़रा देने की हद तक। आँख के काजल से लेकर माथे की बिंदी तक ध्यान जाए तुम्हारा। आँख के पनियाने से लेकर ठहाके के शोर तक भी तो।

मैंने तुम्हें अपने गाँव के बारे में बताया है कभी? नहीं ना। लेकिन अभी का गाँव नहीं। ख़्वाब ही बुन रहे हैं तो मेरे बचपन के गाँव में बुनेंगे। उन दिनों मासूमगंज से गाँव जाने के लिए रिक्शा लेना पड़ता था या फिर खेत की मेड़ मेड़ पैदल चलना होता था। धान की रोपनी का समय होता हो या कि आम के मंज़र का। यही दो चीज़ हमको बहुत ज़्यादा याद है गाँव का। मेड़ पर चलने में जूता चप्पल पहन कर चलना मुश्किल होता तो दोनों प्राणी चप्पल खोल कर झोले में डाल देते हैं और ख़ाली पैर चलते हैं। मुझे मिट्टी में चलना बहुत ना तो अच्छा लगता है। और मुझे कैसे तो लगता है कि तुमको मिट्टी में ख़ाली पैर चलने में कोई दिक़्क़त नहीं होगा। चलते हुए मैं तुमको अपना खेत दिखाऊँगी जहाँ ख़ुशबूदार धान उगाया जाता है जिसको हमारे ओर कतरनी कहते हैं। वहाँ से आगे आओगे तो एक बड़ा सा आम का पेड़ है नहर किनारे। उसपर हम बचपन में ख़ूब दिन टंगे रहे हैं। उसके नीचे बैठने का जगह बना हुआ है। हम वहाँ बैठ कर कुछ देर बतिया सकते हैं। आसपास किसी का शादी बियाह हो रहा होता हो तो देखना दस पंद्रह लोग जा रहा होगा साथ में और शादी के गीत का आवाज़ बहुत दूर से हल्का हल्का आएगा और फिर पास आते आते सब बुझा जाएगा।

हम उनके जाने के बाद जाएँगे, उसी दिशा में जहाँ वे लोग गए थे। तुमको हम अपने ग्रामदेवता दिखाएँगे। एक बड़े से बरगद पेड़ के नीचे उनको स्थापित किया गया है। उनका बहुत सा ग़ज़ब ग़ज़ब कहानी है, वो सुनाएँगे तुमको। वहाँ जो कुआँ है उसका पानी ग़ज़ब मीठा है। इतने देर में प्यास तो लग ही गया होगा तुमको। सो वहाँ जो बालटी धरा रहता है उसी से पानी भर के निकालना होगा। तुम लड़ना हमसे कि तुम बालटी से पानी निकालने में गिर गयी कुइय्यां में तो तुमको निकालेगा कौन। हम कहेंगे कि हमारे बचपन का गाँव है। बाप दादा परदादा। सवाल ही नहीं उठता कि तुमको ये कुआँ छूने भी दें। तुम बाहर के आदमी हो।

किसी से साइकिल माँगें। आगे बिठा कर तुम चलाओ। लड़ो बीच में कि बाबू ऐसा घूमना है तो वेट कम करो तुम अपना। हम समझाएँ तुमको कि पैदल भी जा सकते हैं। तुम नहीं ही मानो। साइकिल दुनिया की सबसे रोमांटिक सवारी है। हैंडिल पकड़ कर बैठें हम और तुम्हारी बाँहों का घेरा हो इर्द गिर्द। थोड़ा सकचाएँ, थोड़ा लजाएँ। ग़ौरतलब है कि साड़ी पहन कर अदाएँ ख़ुद आ जाती हैं। जीन्स में हम कुछ और होते हैं, साड़ी में कुछ और।

हम जल्दी ही शिवालय पहुँच जाएँ। शिवालय में इस वक़्त और कोई नहीं होता, शंकर भगवान के सिवा। हम वहीं मत्था टेकें और शिवलाय के सामने बैठें, गप्पें मारते हुए। हल्का गरमी का मौसम हो तो हवाएँ गरम चलें। हवा के साथ फूलों की महक आए कनेर, जंगली गुलाब। तुम मेरे माथे पर की थोड़ी खिसक आयी बिंदी ठीक कर दो। मैं आँचल से थोड़ा तुम्हारा पसीना पोंछ दूँ।

हम बातें करें कि आज से दस साल पहले हम कहाँ थे और क्या कर रहे थे। कितने कितने शहर हम साथ में थे, आसपास क़रीब।

एक से दोस्तों के बीच भुतलाए हुए।
तलाशते हुए एक दूसरे को ही।

कर लो शिकायत वहीं डिरेक्ट बैठे हुए भगवान से
हम तुमसे पहले क्यूँ नहीं मिले।

और फिर सोचें। ये भी क्या कम है कि अब मिल गए हैं। 

05 October, 2017

'वे दिन', न्यू यॉर्क


मुझे कम महसूसना नहीं आता। रात के ढाई बजे मैं काग़ज़ क़लम उठा कर तुम्हें एक ख़त लिखना चाहती हूँ। फ़ीरोज़ी। लैवेंडर और पीले रंग से। मैं लिखना चाहती हूँ कि तुम कोई ऐसी दुआ हो जो मैंने कभी माँगी ही नहीं। माँग के पूरी होने वाली ख़्वाहिशें होती हैं। दुआएँ होती हैं। मन्नतें होती हैं। जो ईश्वर की तरफ़ से भेजी जाएँ…बोनस…वो फ़रिश्ते होते हैं। हमें ज़िंदगी के किसी कमज़ोर लम्हे में उबार लेने वाले। 

जितना लॉजिक मुझे समझ आता है, उस हिसाब से तुम्हें मैंने नहीं माँगा, तुम्हें ईश्वर ने भेजा है। जैसे मेरे हिस्से के कर्मों का फल रखने वाला कोई चित्रगुप्त का असिस्टेंट अचानक जागा और उसने देखा कि बहुत से अच्छे करम इकट्ठा हो गए हैं। या कि उसके पास जो दुनिया की भलाई का कोटा था उसमें एक नाम मेरा भी किसी ने सिफ़ारिश से डाल दिया। या कि उसे प्रमोशन चाहिए था और इसके लिए सिर्फ़ यही उपाय था कि धरती पर जो जीव उसे ऐलकेटेड है, वो उसके काम से बहुत ख़ुश हो। 

मैं कभी कभी बहुत तकलीफ़ में होती हूँ कि मुझे कम प्यार करना नहीं आता। ऐसे में कोई उम्मीद नहीं करती मैं किसी से, लेकिन कभी कभी होता है कि किसी की छोटी सी ही बात से मेरा दिल बहुत दुःख जाता है। बहुत ज़्यादा। ये तकलीफ़ इतनी जानलेवा हो जाती है कि रोते रोते शामें बीतती हैं और क़रार नहीं आता। कि कोई मेरे साथ बुरा क्यूँ करता है। मैं तो किसी का बुरा नहीं करने जाती कभी। इसमें ही पापा कहते हैं कि इंसान अच्छा इसलिए थोड़े करता है कि दुनिया उसके साथ अच्छा करे…इंसान अच्छा इसलिए करता है कि उसकी अंतरात्मा उसे कचोटे नहीं…उसकी अंतरात्मा चैन से रहे। सुकून से। हमको ये बात बहुत अच्छी लगी। उस दिन से हम और भी जो दुनिया से थोड़ा बहुत माँगना चाहते थे, सो भी अपनी हथेली बंद कर ली। 

इस बीच जैसे अचानक से कोई चित्रगुप्त होश में आया और उसे लगा कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छा होना चाहिए। मेरी लिखी किताब, ‘तीन रोज़ इश्क़’ दैनिक जागरण के कराए हिंदी किताबों की नील्सन बेस्टसेलर सर्वे में आठवें नम्बर पर आयी। मैंने ऐसा ना सोचा था, ना ऐसा चाहा था, ना ऐसा माँगा था। ये बोनस था। मुझे तो ये भी नहीं मालूम था कि इस देश में कितने लोग चुपके चुपके मेरी किताब पढ़ रहे हैं, बिना मुझे बताए, बिना पेंग्विन को बताए भी, शायद। बहुत दिन ख़ुमार में बीते। बौराए बौराए। 

पिछले साल ऑक्टोबर में स्वीडन गयी थी, उसके बाद फिर अपने ही शहर में थी। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में व्यस्त। मुझे घर बहुत अच्छे से रखना नहीं आता। लोगों का ख़याल भी नहीं। बस इतना है कि मेरे घर में रहते हुए किसी को परायापन नहीं लगता। मेरे दिल में बहुत जगह रहती है, सबके लिए। शायद मैं एक समय डिनर बनाना भूल जाऊँ या शाम के नाश्ते की जगह कहानी लिखती रह जाऊँ मगर इसके सिवा घर में किसी को कभी कुछ बुरा नहीं लगता। मेरे घर और मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं(figuratively, यू नो, दिल कोई मकान थोड़े है)। इतनी व्यस्त रही की नोवेल पर काम एकदम ही छूट गया। ह्यूस्टन जाने की बात हुयी। वहाँ पर हरिकेन हारवे चला आया। जाने का प्लान दस दिन आगे खिसकाना पड़ा। 

ह्यूस्टन में एक सबर्ब है, वुडलैंड्स। वहाँ रुकी। ऐसे रिज़ॉर्ट में जहाँ पर वाइफ़ाई के थ्रू कहीं कॉल ही नहीं जा रहे थे। बिना बात किए अकबका जाती हूँ, सो अलग। पब्लिक ट्रांस्पोर्ट कुछ भी नहीं तो कहीं आना जाना नामुमकिन। इंडिया और अमेरिका के टाइम में ऐसा अंतर होता है कि किसी से बात करना इम्पॉसिबल होता है। जब तक मैं फ़्री होती, इंडिया में सब लोग सो चुके होते। रिज़ॉर्ट की शटल सिर्फ़ एक मॉल तक जाती थी। वहाँ लेकिन मुझे किताबों की दुकान मिल गयी, barnes एंड नोबल। चूँकि वहाँ से कहीं और नहीं जाना था तो मैं अक्सर किताबें पढ़ने चली जाती थी। वहीं ऐलिस मुनरो की कहानी डिस्कवर की। ऐसे में अधूरी कहानी सुनने के लिए भी तुम थे। इस भागती दौड़ती दुनिया में ज़रा सा कौन निकालता है किसी के लिए वक़्त। 

आज रात मन विह्वल हो गया। जब ईश्वर प्रार्थना मानना शुरू कर दे तो डर लगता है। मगर इस बार सुकून था। न्यू यॉर्क जाने का प्रोग्राम जिस तरह कैंसिल हो कर फिर से बना, वो किसी अलग कहानी के हिस्से है पूरी पूरी कहानी। दो हफ़्ते हो गए। आज टेबल पर कुछ तो देख रही थी कि घड़ी पर ध्यान चला गया। आँख के लेवल पर घड़ी थी। यही वाली पहन कर न्यू यॉर्क गयी थी और तब से इसका टाइम ज़ोन वापस से बदला ही नहीं है। उसमें पाँच बज रहे थे। कुछ दुखा। गहरे। मन में। अभी से दो हफ़्ते पहले इस वक़्त मैं ह्यूस्टन एयरपोर्ट पर थी और एक घंटे में मेरी फ़्लाइट का टाइम था। 

जो बहुत सारे दिन हम सबका अच्छा करते चलते हैं, उसका कोई कारण नहीं होता। लेकिन यूँ होता है कभी फिर,  कि एक दिन ज़िंदगी अचानक से हमारे नाम एक शहर लिख दे। भटकना और रंग लिख दे। सड़कें लिख दे और कॉफ़ी का ज़ायक़ा लिख दे। स्टेशनों के नाम और खो कर फिर मिल जाना लिख दे।

अतीत के बारे में सबसे ख़ूबसूरत चीज़ यही है कि उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता। कोई भी हमारे पास्ट में जा के उन दिनों की एक चीज़ भी बदल नहीं सकता। ना मेरी चिट्ठियों का रंग। ना वो मेरी आँखों की चमक। ना वो संतोष वाली, सुख वाली मुस्कुराहट। 

ऐसी कोई एक भी घटना होती है ज़िंदगी में तो कई कई दिनों तक अच्छाई पर यक़ीन बना रहता है। मैं रात तक जगे यही सोचती हूँ कि मेरे साथ इतना अच्छा कैसे हो रहा है। कि मुझे अच्छाई की आदत ही नहीं है। लेकिन होना ऐसा ही चाहिए। छोटे छोटे सुख हों। एक कोई किताब हो कि जिसे ले जाना पड़े सात समंदर पार किसी के लिए। कहानियाँ हों। शब्द हों। 

तुम जितने से थे, बहुत थे। जैसे पानी को जहाँ रख दो, कोने दरारों में भर आता है। कोई मरहम जैसे। पता है, तुम्हारी सबसे अच्छी बात क्या थी? तुम्हारा होना बहुत आसान था। 

कभी कभी छोटे छोटे सुख, बड़े बड़े सुखों से ज़्यादा ज़रूरी होते हैं।
मेरी इस छोटी सी ज़िंदगी में, ये इतना छोटा सा सुख होने का शुक्रिया न्यू यॉर्क।
मैं तुमसे हमेशा प्यार करूँगी। 
हमेशा। 

01 October, 2017

पर्फ़ेक्ट अलविदा


बिछोह के दो हिस्से होते हैं। एक जो ठहर जाता है और एक जो दूर चलता जाता है। हम कई बार डिस्कस करते हैं कि अलग कैसे होना है। अक्सर मिलने के लम्हे ही।

इक बार किसी से मिली थी दिल्ली में तो उसने कहा था कि जाते हुए लौट कर नहीं आना, मैं फिर जा नहीं सकूँगा। वो मेट्रो की सीढ़ियों पर ऊपर खड़ा रहा। मैं नीचे उतरते हुए मुड़ कर देखती रही। एक आख़िरी बार मुड़ कर देखा। बहुत दिल किया कि दौड़ कर वो पचास सीढ़ियाँ चढ़ आऊँ, एक बार और मिल लूँ उससे गले। लेकिन उसने मना किया था। यूँ तो मैं किसी की बात नहीं मानती, मगर उस बार उसकी मान ली। इसके बाद जब हमारी बात हुयी तो उसने कहा, तू लौट कर आयी क्यूँ नहीं...जब मेरी कोई बात नहीं मानती है तो मेरी ये वाली बात क्यूँ मानी...मुझे आज भी मालूम नहीं कि क्यूँ मानी। शायद मुझे अपने दिल की सुननी चाहिए थी।

मैं किसी को छोड़ कर जा नहीं सकती। अक्सर मुलाक़ातों के आख़िरी दिन मेरी ख़्वाहिश रहती है कि कोई दूर होते हुए गुम हो जाए और मैं उसके गुम हो जाने को आँखों में सहेज के रखूँ। ट्रेन के दूर जाते हुए। सड़क पर दूर जाते हुए। कहीं से भी दूर जाते हुए। मैं ठहरी रहती हूँ जब तक कि कोई दिखना बंद ना हो जाए। यूँ ही तो सूरज डुबाना अच्छा लगता है मुझे। मैं एकदम से उसकी आख़िरी किरण तक ठहरी रहती हूँ। तसल्ली से।

अलग होते हुए कुछ लोग मुड़ कर नहीं देखते। दो लोग अलग अलग दिशाओं में जा रहे हों तो ऐसा भी होता है कि जब आप मुड़ के देख रहे हों तो दूसरे ने मुड़ कर नहीं देखा हो मगर वो किसी और वक़्त मुड़ कर देखेगा और यही सोचेगा कि आपने जाते हुए एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा।

दूर जाते हुए इक आख़िरी बार मुड़ कर क्या देखते हैं हम?

हम मुड़ कर ये देखते हैं कि जो हमारा था, वो वहीं है या लम्हे में गुम हो गया। कोई दूर जा रहा हो तो उस स्पॉट पर खड़े रहने की आदत मेरी है। मुझे लगता है दूर होते हुए हर कोई एक बार और लौट कर आना चाहता है। एक आख़िरी हग के बाद के आख़िरी हग के लिए शायद। पर हम लौट कर नहीं आते। दूर से देखते हैं और सोचते हैं...आदत दिलाते हैं ख़ुद को, उसके बग़ैर जीने की, उस लम्हे से ही।

ये मुड़ के देखना कुछ ऐसा है कि हर बार अलग होता है। कोई दो बार अलग होना एक जैसा नहीं होता। कोई दो शख़्स एक जैसे नहीं होते। हम भी तो बदल जाते हैं अपनी ही ज़िंदगी के दो बिंदुओं पर।

इस फ़िल्म में दूर जाती हुयी सेजल है। यहाँ सोचता हुआ ठिठका हैरी है कि वो क्या ढूँढ रहा है...और ठीक जैसे उसे लगता है कि जिसे वो ढूँढ रहा है, वो सेजल तो नहीं...वो उसका नाम लेता है, 'सेजल', ठीक उसी लम्हे वो मुड़ती है। एकदम हड़बड़ायी, आँख डबडबायी...कितनी ही ज़्यादा वल्नरेबल...उसकी आँखें रोयी हुयी आँखें हैं। उदास। नाउम्मीद। वो मुड़ती है कि उसे अचानक से लगा कि किसी ने उसे पुकारा है। उसका यूँ मुड़ के देखना, उसका जवाब है, कि मैंने सुन लिया अपना नाम जो तुमने पुकारा नहीं...लिया है बस...ठहर कर। कि आत्मा की पुकार पहुँच जाती है आत्मा तक। कि दो इंसानों को जो जोड़े रखता है, उस फ़ोर्स का कोई इक्वेज़न हमें ठीक ठीक समझ नहीं आता।

मैं उस बेहद भीड़भरे चौराहे पर खड़ी थी कि जब वो मेरे आसमान से टूटते तारे जैसा टूटा था और भीड़ में बुझ गया था एक बार तेज़ी से चमक कर। मैं खड़ी थी कि उसे आसमान में गुम होता देख लूँ आख़िर तक।

मुझे मालूम नहीं था, पर उम्मीद थी कि जाते हुए वो एक आख़िर बार मुड़ के देखेगा ज़रूर। अलग हो जाने के पहले के वो आख़िरी लम्हे को देखना उसे। ये जानते हुए कि इस इत्ति बड़ी दुनिया में, जाने कब ही आ पाऊँगी उसके शहर फिर कभी।
कि जिसके पास रहते कभी नज़र भर देखा नहीं उसे बहुत दूर से एक आख़िर बार यूँ भरी भरी आँख से देखना कि जैसे उम्र भर को काफ़ी हो, बस वो एक नज़र देखना। बस वो आख़िर नज़र देखना।

सुख में होना उस लम्हे। ये जानते हुए कि सुख, दुःख का हरकारा है। कि बाद बहुत साल तक दुखेगा उसका यूँ आख़िरी बार मुड़ कर देखना। उस लम्हे, ख़ुश हो लेना एक आख़िरी बार देख कर उसकी आँखें।

यूँ, हुए जाना, एक पर्फ़ेक्ट अलविदा।
यूँ, हुए जानां, एक पर्फ़ेक्ट अलविदा।

30 September, 2017

पुराने, उदार शहरों के नाम

शहरों के हिस्से
सिर्फ़ लावारिस प्रेम आता है
नियति की नाजायज़ औलाद
जिसका कोई पिता नहीं होता 
याद के अनाथ क़िस्सों को
कोई कवि अपनी कविता में पनाह नहीं देता
कोई लेखक छद्म नाम से नहीं छपवाता
कोई अखबारी रिपोर्टर भी उन्हें दुलराता नहीं 
इसलिए मेरी जान,
आत्महत्या हमेशा अपने पैतृक शहर में करना
वहाँ तुम्हारी लाश को ठिकाना लगाने वाले भी
तुम्हें अपना समझेंगे 
***
बाँझ औरत
दुःख अडॉप्ट करती है
और करती है उन्हें अपने बच्चों से ज़्यादा प्यार 
लिखती है प्रेम भरे पत्र
पुराने, उदार शहरों के नाम
कि कुछ शहर बच्चों से उनके पिता का नाम नहीं पूछते 
***
असफल प्रेमी
मरने के लिए जगह नहीं तलाशते
जगहें उन्हें ख़ुद तलाश लेती हैं
दुनिया की सबसे ऊँची बिल्डिंग के टॉप फ़्लोर पर
उसके दिल में एक यही ख़याल आया 
***
उस शहर को भूल जाने का श्राप
तुम्हारे दिल ने दिया था
इसलिए, सिर्फ़ इसलिए,
मैंने इतना टूट कर चाहा
हफ़्ते भर में हो चुकी है कितनी बारिश
तुम्हें याद है जानां, सड़कों के नाम?
स्टेशनों के नाम? कॉफ़ी शाप, व्हिस्की, सिगरेट की ब्राण्ड?
तो फिर उस लड़की का क्या ही तो याद होगा तुमको
भूल जाना कभी कभी श्राप नहीं, वरदान होता है 
***
बंद मुट्ठी से भी छीजती रही
तुम्हारी हथेली की गरमी
दिल के बंद दरवाज़े से
रिस रिस बह गया कितना प्रेम
कैलेंडेर के निशान को कहाँ याद
बाइस सितम्बर किस शहर में थी मैं
रूह को याद है मगर एक वादा
अब इस महीने को, 'सितम' बर कभी ना कहूँगी

27 September, 2017

New York Diaries - 1


दो दिन पहले न्यूयॉर्क गयी थी। कुछ यूँ कि एक अधूरी नॉवल अटकी पड़ी है और कुछ ऐसे ही क़िस्से कि जिन्हें कोई ठहार नहीं मिलता। गयी थी तो ठीक थी मालूम नहीं था कि क्यूँ गयी हूँ, लेकिन लौटी हूँ तो मालूम है कि क्यूँ गयी थी। 
मुराकामी के लिखना शुरू करने के बारे में एक घटना का ज़िक्र आता है। अंग्रेज़ी के शब्द, 'epiphany' के साथ। मुराकामी एक बार कोई बेस्बॉल मैच देखने गए थे। नोर्मल सा दिन था। उनकी उम्र उनतीस साल थी। ठीक प्लेयर ने एक बॉल को हिट किया, वो क्रैक पूरे म्यूज़ीयम में गूँज गया और ठीक उसी लम्हे मुराकामी के हृदय में इच्छा जागी, 'मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'। वे उस रात घर जाने के पहले काग़ज़ और कलम ख़रीद के ले गए, और इसके बाद उन्होंने कई नॉवल लिखे। 
मैं न्यू यॉर्क से ह्यूस्टन लौटने के लिए ट्रेन में बैठी थी कि अचानक से कई सारे दृश्य मौंटाज़ बनाने लगे। कितना सारा कुछ ख़ुद में जुड़ने और खुलने लगा और मुझे महसूस हुआ। मैं न्यू यॉर्क अपने अटके हुए नॉवल के लिए एक नया शहर तलाशने गयी थी। कि लिखने के लिए बेस मटीरीयल बहुत सारा कल्पना से आता है लेकिन कल्पना के शहरों में सड़कों के नाम असली होते हैं। 
न्यू यॉर्क की सबसे कमाल की याद एक थरथराहट है। जैसे किसी के सीने पर हाथ रख कर उसकी तेज़ धड़कन को सुनना। न्यू यॉर्क का सबवे सिस्टम बहुत बहुत साल पुराना है। मेन शहर के ठीक कुछ फ़ीट नीचे अंडर्ग्राउंड पटरियों का जाल बिछा है जहाँ ट्रेनें आती जाती रहती हैं। मुझे ये मालूम नहीं था और मैं टाइम्ज़ स्क्वेयर पर चल रही थी कि सड़क के नीचे थरथराहट महसूस हुयी। ज़मीन के नीचे चलती ट्रेन की रफ़्तार को सड़क पर महसूस करना एक कमाल का अहसास था। नब्ज़ पकड़ कर ख़ून की रफ़्तार देखने जैसा। एकदम अलहदा। मैंने ऐसा कुछ कभी महसूस नहीं किया था। टाइम्ज़ स्क्वेयर पर ही ट्रेन की थरथराहट को सड़क पर महसूसने से लगा, कि ये न्यू यॉर्क का दिल है और ये कुछ यूँ धड़कता है। रात के बारह बजे वहाँ अकेली गयी थी। हज़ारों नीआन लाइट्स में दुनिया के कैपिटलिस्ट शहर का मोलतोल देखने। अपना हिसाब लगा कर। कि म्यूज़ीयम देखने हैं। पेंटिंग्स के रंग देखने हैं। देखना है कि शहर में क्या कुछ बिकता है और क्या कुछ ख़रीदा जा सकता है...इश्क़ इतना लॉजिकल थोड़े होता है। वो तो बस हो जाता है। 
मुहब्बत का यक़ीन दिल के तेज़ धड़कने से दिलाया जा सकता है ख़ुद को। या कि दिल के रुक जाने से ही। वो जो बहुत सारे " I ❤️ NY " के टीशर्ट या भतेरी चीज़ें बिकती हैं, वो वाक़ई इसलिए कि इस शहर को आप पसंद नहीं कर सकते, इश्क़ कर सकते हैं इससे बस। बेवजह। छोटी छोटी चीज़ों में सुख तलाशते हुए। 
दिल्ली मेरी जान, नाराज़ मत होना। बहुत साल बाद कोई शहर यूँ पसंद आया है। साँस लेने की रफ़्तार में तेज़ भागता। और ठहर जाता। याद में। 
किसी इन्फ़िनिट लूप में। हमेशा। 

18 September, 2017

छोटी है ज़िंदगी, मिल लिया करो


वो बहुत ख़ूबसूरत लड़की नहीं थी। ख़ूबसूरत थी। इतनी कि बहुत देर तक उसके साथ बैठो और कोई बात ना भी करें तो सिर्फ़ उसको देखते रहना भी बुरा नहीं लगता। भला सा लगता। जैसे किसी अनजान देश में बैठे हुए वहाँ के स्थानीय संगीत को सुन रहे हों और आँख बंद कर लें कि सिर्फ़ संगीत पर ध्यान दिया जा सके। चुप रहते हुए उसे देखना बिना उसकी बातों से डिस्ट्रैक्ट हुए उसको डिटेल में संजोना था। अगली बार की याद के लिए। बारिश में खिड़की पर खड़े होकर फुहार में भीगना था। ज़रा ज़रा। 

उससे पहली बार मिल के लगता था, ये मुलाक़ात कभी भूली नहीं जा सकेगी। उसे देखते हुए कई सारी चीज़ों पर ध्यान जाता था। उसकी क़रीने से बंधी हुयी सिल्क की साड़ी जिसके रंग को शहर में सोबर/पेस्टल और गाँव में फीका/उदास कहा जाता था। जूड़े में लगा हुआ बड़ा सा लकड़ी का जूड़ा पिन कि जिसे देख कर चायनीज़ चॉप स्टिक की याद आती थी। एक आध बदमाश लट हमेशा उसके माथे पर झूलती ही रहती थी। छोटी सी बिंदी, अक्सर साड़ी के रंग से मैचिंग या फिर काली। कानों में चाँदी के झुमके कि जिन्हें देख कर हमेशा आपको अपनी ज़िंदगी में मौजूद उस लड़की की याद आ जाती थी जिसने कभी 'दिल्ली में मेरे लिए झुमके ख़रीदवा देना' का उलाहना दिया था। झुमके कि जिनमें छोटे छोटे घुँघरू होते थे। जब वो हँसती थी तो झुमके और बदमाश लटें सब झूल झूल जातीं और उन घुँघरुओं से बहुत महीन आवाज़ आती थी। आप उसके होने को अगर थोड़े थोड़े सिप में पी रहे हों तो ये आवाज़ आपको सुनायी भी पड़ती और सहेज भी दी जाती। ऐसे में उस किसी ख़ास लड़की की याद आने लगती कि जिसका जन्मदिन पास हो, आप उसके साथ जा कर किसी और के लिए एक जोड़ी झुमके ख़रीदना चाहते। एकदम वैसे ही, जैसे तुमने पहने हैं। आप कह नहीं सकते, लेकिन आप ठीक उसके जैसा कुछ रखना चाहते थे अपनी ज़िंदगी के क़िस्से में। चूँकि वो आपकी हो नहीं सकती तो आप कुछ ऐसा चुनते कि जो लोकाचार के ख़िलाफ़ नहीं होता। 

मौसम बदलने लगता उसके साथ चलते हुए। आप जिस भी शहर में होते, वो दिल्ली हुआ जाता। उसकी पसंद का शहर। महबूब शहर दिल्ली। वो इसलिए कि दिल्ली में वो खुल कर साँस लेती थी। मौसम इतना ख़ूबसूरत होता कि आप उसे अपने साथ किसी छोटी सी इत्र की डिब्बी में बंद कर के रखना चाहते। मौसम को, लड़की तो क्या ही बंद होगी शीशी में। फ़ैबइंडिया जैसी दुकान में जाने का फ़ायदा ये होता है कि कुछ चीज़ें बिना कहे भी हो जाती हैं। कि वो अचानक से पूछ ले, 'कुर्ता पहनते हो तुम?' और आप उसका दिल रखने के लिए झूठ नहीं बोल पाएँ, सच निकल जाए मुँह से, कि नहीं। कुर्ता नहीं पहनते। वो ऊपर से नीचे देखे एक ऐसी पूरी नज़र आपको कि भरसक लजा जाएँ आप। 'हाइट इतनी अच्छी है, कुर्ता बहुत अच्छा लगेगा तुम पर। मैं एक ले दूँ, प्लीज़, मेरी ख़ुशी के लिए ले लो। कभी पहन लेना। ना भी पहनो तो चलेगा'। ट्रायल रूम में काला कुर्ता पहनते हुए आप सोचते हो। 'तुम ज़हर ख़रीद के दे दो तो खा लें तुम्हारी ख़ुशी के लिए। तुम क्या तो कुर्ते की बात करती हो'। आप बाहर निकलते हो तो आइना नहीं देखते हो, उसका चेहरा देखते हो कि जो वसंत हो रखा है। 'ओह, कितने सुंदर लग रहे हो तुम। प्लीज़, मुझसे मिलने कुर्ता ही पहन कर आना अब से'। आप उसकी नज़र से देखते हैं ख़ुद को। 'मिरर मिरर ऑन द वाल, हू इज दी फ़ेयरेस्ट औफ़ देम ऑल?'। किन लंगूरों के साथ रह रहे थे आप इतने दिन? किसी ने कहा क्यूँ नहीं कभी कुर्ता पहनने को। आप कि जो हर जगह सिर्फ़ वेस्टर्न फ़ॉर्मल पहन कर जाते हो। कोट पैंट सूट वाले आप एकदम से कुर्ता पहन कर उसके साथ चलना चाहते हो। क्या साड़ी पहनने वाली हर औरत ऐसे ही कह सकती है कॉन्फ़िडेन्स के साथ, 'हिंदुस्तानियों पर हिंदुस्तानी कपड़े जितने अच्छे लगते हैं, और कुछ नहीं लगता'। 

बिलिंग के पहले वो लौट कर एक बार फिर झुमकों की जगह आती है। पूछती है आपसे, कोई छोटी बहन नहीं है तुम्हारी? ये छोटे वाले झुमके बहुत ट्रेंडी हैं, टीनएजर्स पर बहुत फबते हैं। मैंने अपनी उम्र में ख़ूब पहने थे ऐसे झुमके। आप कहते हैं उससे कि आपने अपनी छोटी बहन के लिए ही झुमके ख़रीदे हैं तो वो हँस देती है, कि उसने समझा था आपने अपनी गर्लफ़्रेंड या बीवी के लिए ख़रीदे हैं। लेकिन झुमके तो झुमके होते हैं। क्या फ़र्क़ पड़ता है उसे पहनने वाली का आपसे रिश्ता क्या है। या कि झुमके ख़रीदवाने वाली का आपसे कोई रिश्ता नहीं है।

झुमकों के रैक के पास ही रोल ऑन पर्फ़्यूम्ज़ हैं। वो उनमें से एक उठाती है। 'मस्क'। कहती है आपसे, सिगरेट पीने के बाद कलाइयों पर अक्सर यही रोल ऑन लगती है वो। धुएँ और मस्क की मिली जुली गंध उसे बहुत ज़्यादा पसंद है। वो अपनी कलाइयाँ बढ़ा देती है आपकी ओर, सूंघ के देखो ना। आपने अपने लिए एक रोल ऑन ख़रीदा है, जानते हुए कि आपकी कलाइयों से वैसी तिलिस्मी गंध कभी नहीं आ सकती। 

यहाँ से निकल कर आप दोनों यूँ ही टहल रहे हैं। एक रिहायशी इलाक़ा है कि जहाँ कुछ दूर में आपका घर है। ज़रा सी दूर चलना है। एक कॉफ़ी शॉप में कड़वी कॉफ़ी पीनी है। बस। उम्र ख़त्म। 

शाम अपने उतार पर है। वो अचानक आपका घर देखने की इच्छा ज़ाहिर करती है। आप कहते हैं उससे, 'मेरा घर बहुत बोरिंग है। कुछ नहीं है वहाँ देखने को'। पर वो कहती है कि दुनिया में बोरिंग कुछ नहीं होता। नयी चीज़ तो ख़ास तौर से कभी नहीं। हमें जो लोग पसंद आते हैं, उनका सब कुछ ही अच्छा लगता है। उनसे जुड़ी हर चीज़ में हमें इंट्रेस्ट होता है। कुछ भी चीज़ें ऐब्स्ट्रैक्ट इंट्रेस्टिंग नहीं होती हैं। जैसे मुझे पेंटिंग्स पसंद हैं, किसी को वो बहुत बोरिंग लगेंगी। किसी को इमारतें, शहर का इंफ़्रास्ट्रक्चर बहुत इंट्रेस्टिंग लग सकता है। 

उसके हिसाब से चलिए तो आपका घर बहुत कमाल की जगह है। वाइन की बॉटल में लगे हुए मनी प्लांट। अधूरा रखा हुआ सर्किट बोर्ड। बैगनी परदे, कि जो बदसूरत हैं, इसलिए इंट्रेस्टिंग हैं। वो कहती है कि आपके लिए परदे भेज देगी नए। आपका बुकरैक। क़रीने से रखी किताबें। बुक्मार्क्स। दीवाल का रंग। जिन खिड़कियों से आप बाहर देखते हैं वो। छत पर अटक गया आधा टुकड़ा चाँद। किचन में बनी दो कप कॉफ़ी। सब कुछ इंट्रेस्टिंग है उसके लिए। 

साड़ी पहने हुए कोई लड़की आपके साथ एनफ़ील्ड पर कभी बैठी नहीं है। तो आप पूछते भी नहीं हैं उससे। वो भूलती नहीं लेकिन, पार्किंग लौट में आप दिखा देते हैं। नीले रंग की अपनी नीलपरी को। घर से निकल कर आप टैक्सी करते हैं और शहर के फ़ेवरिट पाँच सितारा होटल की कॉफ़ी शॉप में जाते हैं। ये चौबीसों घंटे खुला रहता है और आप दोनों को यहाँ से कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं है। ब्लैक कॉफ़ी सिप करते हुए आप दोनों एक ही दिशा में देख रहे हैं। उधर एक पानी का फ़व्वारा चल रहा है। उसकी आवाज़ भली सी लग रही है। यहाँ कोई और आवाज़ें नहीं हैं। वो किसी कविता की किताब से दो लाइनें पढ़ती है और बेतरह उदास हो जाती है। कविता के पीछे की, कवि के जीवन की कोई घटना सुना रही होती है आपको। 

आप बहुत ग़ौर से देखते हैं उसको। उसकी साड़ी, बिंदी, झुमके...उसकी आँखें...काजल और उँगलियों पर लगी हुयी नेलपोलिश भी। फिर अचानक से आप जानते हैं कि वो क्या बात है जो उसको ख़ास बनाती है। उससे मिल कर भले ही आपका ध्यान बहुत देर तक इस चीज़ पर जाए कि वो दिखती कैसी है...लेकिन उसके साथ वक़्त बिताने के बाद आप भूल जाते हैं कि वो दिखती कैसी है...आपको बस ये याद रहता है कि उसके साथ होते हुए आप कैसा महसूस करते हैं। दिखना मैटर नहीं करता, होना मैटर करता है। उसके साथ रहते हुए आप ज़िंदगी से मुहब्बत में होते हैं। उसी जगह। उसी लम्हे। आप कहीं और नहीं होते। किसी और के साथ नहीं होते, ख़यालों में भी। 

दुनिया में ख़ूबसूरत लड़कियाँ बहुत हैं। उन्हें देख कर ख़ुशी होती है। मगर इस लड़की के साथ होने से ख़ुशी होती है। यही होना सुख है। ठीक तभी आपको डर लगता है कि अगले लम्हे लड़की चली जाएगी, तो फिर? आप तभी पहली बार जानते हैं कि किसी के साथ होते हुए उसी लम्हे इस बात का दुःख क्या होता है कि वो लम्हा जल्दी ही बीत जाएगा। कि अगली रोज़ भी शहर होगा। साँस होगी। ज़िंदगी होगी। उसके बग़ैर। 

और इसी डर से, आप उस लड़की से कभी भी नहीं मिलते। कभी नहीं जानते कि ऐसा भी कोई होता है जिसका साथ होना सुख है। कि जो ख़ूबसूरत दिखती नहीं, महसूस होती है। कि अफ़सोस ऐसी किसी हसीन लड़की के नाम लिखे जाने चाहिए। आपको अफ़सोस पसंद हैं। आप ख़ुश हैं अपनी मर्ज़ी का एक अफ़सोस पा कर। 

जब वो चली जाती है ज़िंदगी से बहुत दूर। उसने किसी को कह रखा है, आप तक ख़बर पहुँचा दे कि वो अब दुनिया में नहीं रही।  आप तब पहली बार चाहते हैं कि उससे एक बार मिल लेना चाहिए था। 

10 September, 2017

लौट आने को अफ़सोस के घर में कमरा ख़ाली रखना

बहुत साल पहले की बात है। उन दिनों मेरी उम्र कम ही थी और दुनियादारी की समझ और भी कम। चीज़ें जितनी दिखती थीं, उतनी ही समझ में आती थीं।

एक दोस्त की शादी को ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था। कोई साल भर या उससे भी कम। उस दिन उसके घर में किसी चीज़ की तो पार्टी थी। याद नहीं अब ठीक से। शायद पति के प्रमोशन या ऐसी ही कोई चीज़। वजह याद नहीं है। बहुत कम लोग आए थे, बहुत हुए तो दस। उसका छोटा सा घर था। जैसा कि इन दिनों हर महानगर में होता है। २BHK फ़्लैट। डाइनिंग टेबल पर क़रीने से सारा सामान लगा हुआ था।

वो मेरी बचपन की दोस्त थी। उसने खाना बनाना सीखने के समय जो कच्ची पक्की जली रोटियाँ बनायी थीं, वो मैंने खायी थीं और मैंने जब पहली बार आलू छीलते हुए अपनी ऊँगली काट ली थी तो सबसे पहले वो ही भाग के डिटौल लायी थी। मुझे उसके हाथ की बनी खीर बहुत पसंद थी। उसे मेरे हाथ का बना कुछ भी नहीं। उसके हिसाब से चलें तो मुझे मैगी बनाना भी नहीं आता ढंग से और मेरे जैसा नालायक लड़का जिस लड़की के मत्थे पड़ने वाला है उसकी तो क़िस्मत फूटी ही समझो।

मैं उसके और उसके पति के साथ किचन में हाथ बँटा रहा था थोड़ा बहुत। मेहमानों के जाने के बाद हम तीनों खाने बैठे। खाने का स्वाद आज लेकिन ग़ज़ब बेहतरीन था। हर चीज़ एकदम जैसे स्वर्ग के किसी केटरर ने बना के भेजी थी। मैंने उतने अच्छे कटहल के कोफ्ते ज़िंदगी में नहीं खाए थे, ना कभी उसकी खीर में वैसी आत्मा को तृप्त कर देने वाली मिठास थी। खाने की तारीफ़ करते हुए मैंने उसके चेहरे को ग़ौर से देखा। बड़ी सी गोल, लाल बिंदी, आधा इंच लाल सिंदूर, आँख में काजल। शादीशुदा होना कितना फबता था उसपर। अच्छा लगा उसका सुखी होना।

हमेशा की तरह वो मुझे कार में घर छोड़ने आयी थी। हमेशा की तरह हम चलने के पहले पाँच मिनट बात कर रहे थे।
'आज खाना कमाल अच्छा बनाया तूने। क्या मिलाया ऐसा खाने में। पहले तो कभी इस तरह का खाना नहीं बना तूने। बता बता?'
मैंने छेड़ में पूछा था, कि मुझे मालूम था उसके बारे में सब कुछ। बचपन का पुराना डाइयलोग मारती, 'प्यार, खाने में प्यार मिलाया था'। लेकिन कितना कुछ सबसे क़रीबी दोस्तों की नज़र से छूट सकता है। बहुत देर चुप रही। और चुप्पी में घुले घुले कहा उसने, 'उदासी'।

***
मैं बचपन से उसकी आदत से वाक़िफ़ था। जब भी परेशान होती, हाथों को कहीं उलझा देती। कभी पॉटरी सीखने चल देती, कभी बुनाई, कभी तकली उठा लेती तो कभी छत पर पहुँच जाती पतंग उड़ाने। उसके हाथ बहुत ख़तरनाक थे, ऐसा वो कहती थी। उन्हें हमेशा काम चाहिए होता था। ख़ास तौर से उदास दिनों में, वरना वो ख़ुद का गला दबा के मार देती ख़ुद को।

'उदासी'। कहते हुए उसकी आँखें ठहर गयी थीं। कि जैसे एक शाम की नहीं, एक उम्र की उदासी हो। हँसते खेलते लोगों की आँखों में इतनी उदासी कैसे जा के रहने लगती है।

उसके बाद मैं कई दिन मिला उससे। उसके घर में खाना पीना। मेरी शादी के बाद मेरी बीवी के हाथ का खाना उसके घर पहुँचाना जैसी कई हरकतें कीं मैंने कि हमारी दोस्ती पर इससे कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन उस दिन मैं उससे पूछ नहीं पाया कि तू उदास क्यूँ है। आते हुए मैंने उसकी आँखों में देखा और बस इतना कहा, 'you know I love you, right?'। बचपन की दोस्ती का इतना अधिकार बनता था। वो मुझे बता सकती। अपनी तन्हाई में मेरे होने को तसल्ली की तरह रख सकती अपने पास। एक शादीशुदा औरत, आपकी कितनी भी अच्छी दोस्त हो, इससे ज़्यादा हक़ नहीं जता सकते उसपर।

***
कितने साल बीत गए। मैं जाने कितने घरों में खाना खाने गया हूँ उस दिन के बाद से भी। लेकिन आज भी, अगर कहीं खाना ख़राब बना है तो मैं ये सोच के ख़ुश हो लेता हूँ कि बनाने वाले ने अपने आँसू तो नहीं मिलाए इसमें। कि अच्छा खाना सिर्फ़ प्यार और ख़ुशी से ही नहीं, उदासी से भी बनता है।

।। ।। ।।

उसे पागलपन के दौरे पड़ने लगे तो सबसे पहली ख़बर मुझे ही आयी। माइल्ड सिजोफ़्रेनिया कहा डॉक्टर ने। उसे जाने कौन से तो लोग दिखते थे। लोग कि जो उसका क़त्ल कर देना चाहते थे। मैंने पहली बार उसकी कलाइयों पर ब्लेड के काटे हुए निशान देखे तो ऐसा लगा था किसी ने मेरी जान लेने को ब्लेड से मेरी कलाई काटी थी। पता नहीं उसे किस चीज़ से डर लगता था। महीने भर बाद जब वो घर लौटी तो जाने कितनी दवाइयाँ खाती थी सुबह शाम।

उसके घर गया तो खाना बना रही थी। मैं भी साइड में एक कटिंग बोर्ड लेकर सब्ज़ी काटना चालू रखा। चाक़ू में एकदम धार नहीं थी। यही नहीं बाक़ी चाकुओं में भी धार नहीं थी। मैंने कहा उससे तो हँसती हुयी बोली, 'हाँ घर में जो भी आते हैं यही कम्प्लेन करते हैं कि चाक़ू ख़राब है। तू भी छोड़ ये सब नौटंकी। जा बैठ मैं आती हूँ।' उस पागल ने कब निभायी है दोस्ती जो उसे मालूम चलेगा कि मैं कितनी दूर तक का सोचता हूँ।

'अच्छा है जो चाक़ू में धार नहीं है। ख़बरदार जो चाक़ू में धार लगवाया! सबसे पहले मैं ही गला कटूँगा चाक़ू से तेरा'।

इन दिनों में कहीं भी बिना धार के चाक़ू देखता हूँ तो मुझे यक़ीन पक्का होता है कि अभी अभी किसी लड़की ने मरना टाला होगा कि उसके चाक़ू में धार नहीं थी। इन दिनों मुझे बिना धार के चाक़ू बहुत पसंद आते हैं। 

02 September, 2017

बारिश का भोलापन हमें मर जाने से बचा लेता है

बारिश बहुत भोली है। इत्ति भोली कि अपने भोलेपन में बचा ले जाती है हमें कई बार। जैसे आप किसी ऊँची बिल्डिंग से नीचे कूद कर आत्महत्या करने वाले हों और कोई छोटा बच्चा आपसे पूछ दे कि आप क्या करने वाले हो। कैसे समझाएँगे एक पाँच साल के बच्चे को कि आप जान देना क्यूँ चाहते हैं। उसकी दुनिया के सवाल कितने सिम्पल हैं। ‘क्यूँ, आपको कोई प्यार नहीं करता?’। मरने के बाद क्या होगा? क्या मरे हुए लोगों से सब ज़्यादा प्यार करते हैं। कि उसे भी कोई प्यार नहीं करता। आपके जाने के बाद वो भी कूद के देखेगा कि क्या होगा। आप उसे समझाने की कोशिश करते हैं कि यहाँ से लौटना नहीं होगा, लेकिन उसे बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आतीं। उसे समझाने के क्रम में आपको लगता है कि ज़िंदगी के सवाल उतने उलझे हुए नहीं हैं जितने आपको लगते थे।

सॉलिटेरी कन्फ़ायन्मेंट सिर्फ़ ईंट की दीवारों से नहीं होता। कभी कभी हम ख़ुद अपने इर्द गिर्द इतने रिश्तों की क़ब्रें बना लेते हैं कि उनकी भूलभुलैय्या से गुज़र कर कोई ज़िंदा आदमी हम तक नहीं पहुँचता कभी। बारिश भी नहीं।

***

पागलपन का कोई स्कूल नहीं होता। इसलिए कि पागलपन सबके लिए अलग अलग होता है। जो मेरे लिए पागलपन की सीमा पर है, वो किसी और के रोज़मर्रा के जीवन का यथार्थ हो सकता है। हमें अपने क़िस्म का पागलपन तलाशना चाहिए। कोई पागलपन ना ऐब्सलूट हो सकता है ना अंतिम। इसकी परिभाषा अस्थायी होती है। क्षणभंगुर। आज का पागलपन कल के लिए काफ़ी नहीं होता हो, ऐसा भी हो सकता है।

***

बारिश हमें बचा लेती है। या ईश्वर ही।
लड़की ने बहुत सी चिट्ठियाँ लिखी हैं अपने जीवन में। कॉलेज में दोस्तों के लिए बहुत प्रेम-पत्र लिखे। इन दिनों किरदारों के आख़िरी ख़त लिखा करती है। किरदारों के हिस्से की मौत जी कर वो अपने आप को बचा लेती है। लेकिन ये ख़ुशफ़हमी कब तक चलेगी? ऐसा तो नहीं कि मलकुल मौत नाराज़ हो रही है उससे? मौत अनुभव करने के लिए मरना पड़ता है, या क़त्ल करना पड़ता है। मौत को काग़ज़ पसंद नहीं।
वो चाहती तो कई सारी चिट्ठियों में अपने पसंद की कोई चिट्ठी चुन सकती थी, बस आख़िर में अपना नाम ही तो लिखना था। सारे ख़त उसने ही तो लिखे थे। मुहब्बत से लबरेज़। ज़िंदगी के प्रति अफ़सोस और उम्मीद से भरे हुए। लेकिन पहली बार लड़की को महसूस हुआ कि ज़िंदगी की तरह ही मौत भी अनूठी होती है। किसी एक की मौत को दूसरे के नाम नहीं लिखा जा सकता, ना ही उसकी आख़िरी चिट्ठी पर अपना नाम लिखा जा सकता है। लड़की के लिखे किरदार उस लड़की से कहीं ज़्यादा ज़िंदा थे।

***
लड़की उस कमरे को क़िस्साघर कहती थी। जानते हो क्यूँ? क्यूँकि घर तो कहीं था ही नहीं, कहानियों के सिवा। सब कुछ तो वो ही रचती जाती थी कहानी में। दोस्त, प्रेमी, दुश्मन, परिवार…माँ। अनाथ बच्चे। बाँझ औरतें। किलकरियाँ। कोहराम। लेकिन घर तो इंसानों से बनता है। प्रेम से बनता है। कल्पना से नहीं।

रातें ख़तरनाक होती हैं। लड़की जानती थी। हफ़्ते भर के इंतज़ार को चुपचाप जीती लड़की इतनी चुप हो जाती थी कि उसके किरदारों को डर लगता था कि वो मर जाएगी। लड़की को मालूम था, पहले उसके शब्द ख़त्म होंगे, तब वो ख़ुद। उसके किरदार उससे बहुत प्यार करते थे। वे उसके लिए कई तरह के शब्द खोज लाते। क़िस्से। कहानियाँ। कविताएँ।

कभी कभी सवाल भी। उससे मत पूछना कि रातें किसलिए होती हैं। वो नाउम्मीदी की नदी में डूबते उतराती जी रही है। तुम सुबह के उजास को उसकी स्याह आँखों में नहीं ढूँढ सकते। उसकी थरथराहट में और थकान में नहीं। उसके गीले और ठंढे बदन में नहीं। कहीं नहीं। कहीं नहीं। वो कह देगी तुम्हें। रातें मर जाने के लिए होती हैं।
उसकी ज़िंदगी बहुत सुंदर थी। सुंदर और उदास। तन्हा भी अक्सर। इसलिए उसे हर जगह उदासी दिख जाती थी। अमलतास में भी। कोई एक फूल पत्तों से छुपा लेता था ख़ुद को। हवा के दुलार को महसूस नहीं करना चाहता।

कोई अमलतास का पेड़ रात में पूरा फूल कर चीख़ना चाहता कि वसंत आ गया है। लेकिन लड़की के दिल का दुःख कम नहीं होता।

***

कोई नहीं जानता कि वे उसे इतना प्यार क्यूँ करते थे। सड़क। बारिश। पौधे। फूल। शायद हम हर मिट जाने वाली चीज़ के नाम कुछ ज़्यादा प्यार रखते हैं। कि चीज़ों की उम्र भले कम हो, प्रेम की कमी महसूस ना हो उसे कभी। लड़की ने एक छोटे से पीले रंग के पोस्ट इट पर इतना ही लिखा, ‘कि अगर मैं मर गयी तो ग़लती ईश्वर की है, उसने मुझे इस टूटे फूटे दिल के साथ बनाया’। ईश्वर उसकी शिकायत सुन रहा था। यूँ भी रात के साढ़े चार बजे अधिकतर लोग या तो सो रहे होते हैं या दारू पी कर इतने आउट कि कुछ भी माँगने का होश नहीं रहता।

लड़की हड़बड़ में निकल जाना चाहती थी। बहुत दूर। एनफ़ील्ड चलाना चाहती थी, बहुत तेज़। उदासी और तन्हाई का मेल जानलेवा हो सकता है। नय्यरा नूर गा रही थी। बस वो आवाज़ ही सच लग रही थी, बाक़ी किसी कहानी का हिस्सा। और लड़की को कहानी में मर जाने से डर नहीं लगता था।

सारी चीज़ें लेकिन उलट पलट थीं। उसने जो पैंट पहनी वो हल्की गीली थी। उसे बदल कर जीन्स पहनी। आख़िर में जैकेट पहना तो देखा वो भी थोड़ी थोड़ी गीली थी। कुछ दिन पहले जबकि एक टपकते हुए टेंट में रात भर गीले रहते हुए ठिठुर कर रात बितायी थी उसने, तब से उसे गीले कपड़े बिलकुल पसंद नहीं। वरना तो एक मिनट में वो घर से बाहर थी। दूसरी वाली जैकेटें बहुत तलाशने पर मिली नहीं। इतनी देर में उसका ध्यान बाक़ी चीज़ों पर जा रहा था। वो किसी से बात करना चाहती थी। किसी से भी। इस वक़्त तो कोई जगा नहीं होता है इस देश में। हाँ, दूसरे देश में था कोई। लेकिन उससे कहती क्या। मुझसे थोड़ी देर बात कर लो। रात जानलेवा है और मेरे इरादे ख़तरनाक होते जा रहे हैं। किसी से बात करनी की इच्छा होना कोई गुनाह तो नहीं है। लेकिन मेसेज का कोई रिप्लाई नहीं आया।

कहानी से बाहर जाने को तेज़ रफ़्तार चाहिए कि ज़िंदगी में वापस लौटा जा सके। ऐसी तेज़ रफ़्तार सिर्फ़ एनफ़ील्ड की होती है। ५००सीसी का इंजन। टॉर्क क्या था इसका, सो याद नहीं आ रहा। चुभ रहा था कहीं। हेल्मट में भी दो चोटियाँ चुभ रही थीं। लड़की ने आधी रात को सोचा था, अब कहीं जाना नहीं है, और नींद आ रही थी, तो चोटियाँ गूँथ लीं। हेल्मट ठीक से फ़िट होना ज़रूरी है, वरना कोई फ़ायदा नहीं। लड़की ने एक एक करके अपनी दोनों चोटियाँ खोलीं। वो जानती थी, ईश्वर उसके साथ गेम खेल रहा है। कि ईश्वर को लगता है थोड़ी देर में वो बाहर जाने का प्रोग्राम भूल जाएगी।

लेकिन लड़की घर में नहीं रहना चाहती थी। अकेले नहीं।

उसने बूट्स पहने। घड़ी पहनी, गाड़ी के काग़ज़ात लिए। नीचे पहुँची तो देखती है बिल्डिंग की पानी की टंकी से पूरा पूरा पानी बाहर आ रहा है और बेसमेंट पूरा नदी बन चुका है। लड़की जान रही थी ईश्वर सिर्फ़ देर करना चाह रहा है। उसने दरबान को उठाया और कहा कि टंकी का पानी बंद करे। एनफ़ील्ड ठीक अपर्टमेंट से बाहर निकलने ही वाली थी कि लड़की ने देखा कि बारिश शुरू हो गयी है। रात की बारिश के साथ दिक़्क़त ये है कि आप इसे आते हुए नहीं देख सकते। ऐसे में कहीं दूर जाना नामुमकिन था। लड़की मुस्कुरायी। ये प्रकृति का कहने का तरीक़ा था कि वो लड़की से प्यार करती है। बहुत।
भोली बारिश लड़की के साथ साथ एनफ़ील्ड पर चलती रही। उसकी जान की चिंता में लड़की ने एनफ़ील्ड बिलकुल भी तेज़ नहीं चलायी। हेल्मट के विजर के कारण बहुत कम बारिश लड़की के चेहरे तक पहुँच पा रही थी पर पूरा बदन भीग रहा था। पूरा शहर भी। सड़कें सुनसान थीं। कभी कभी एक आध गाड़ी दिख जाती थी। लड़की को ऐसा लग रहा था वो किसी छोड़े हुए शहर में आ गयी है। किसी एक शहर में उसे अकेला छोड़ दिया गया है। खुली सड़कों पर के लैम्पपोस्ट से पीली रोशनी नाचते हुए गिर रही थी। खुली सड़कों पर। मुहल्ले में। लड़की देर तक एनफ़ील्ड चलती रही। बारिश का शोर और एनफ़ील्ड की डुगडुगडुग। इस लम्हे वो कुछ और नहीं सोच रही थी। वो सिर्फ़ एक राइडर थी। बस।

बारिश का मीठा पानी होठों तक आ गया था। होंठों को भींच कर लड़की ने महसूसा कि पानी का स्वाद दुनिया में कहीं भी एक जैसा नहीं होता। बारिश में भी नहीं। वो काफ़ी देर घूमती रही लेकिन बारिश ज़िद्दी थी। लड़की उससे खुले में लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी। गुलमोहर के पेड़ों के नीचे बारिश और लड़की बराबर से हैं। लौट आने के पहले उसने लैंप - पोस्ट के नीचे एनफ़ील्ड खड़ी की और जैसे कोई बिछड़ते हुए महबूब की तस्वीर लेता है, बारिश में भीगे रूद्र की तस्वीर उतार ली।

कमरे पर लौट कर उसने किरदार बदले। कपड़े भी। एक कप चाय बनायी। दुनिया में कितनी उदासी है, अगर आँखों में पानी भरा हो तो। एक कप चाय कितनी अकेली होती है बारिश वाली रात किसी ख़ूबसूरत लड़की की स्टडी टेबल पर।

उसे पुराने क़िस्से याद आए जो वो लड़का सुनाया करता था जिसे वो दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार करती है। रामकृष्ण परमहंस को गुलाबजामुन बहुत पसंद थे। विवेकानंद ने पूछा एक बार। कि आपने तो दुनिया की हर इच्छा पर विजय पा ली है फिर ये गलबजमुन के प्रति इतना मोह। तो परमहंस ने बताया, माया की इस दुनिया में रहने के लिए किसी ना किसी चीज़ से जुड़ाव होना ज़रूरी है, चाहे वो कोई एक छोटी चीज़ ही क्यूँ ना हो। ये इतना सा मोह उन्हें धरती से बांधे रखता है।

पिछले कई सालों से लड़की को सिर्फ एक ही चीज़ से मोह रहा था। इक वो साँवला सा लड़का जिसके बड़े ख़ूबसूरत डिम्पल पड़ते थे। टौल, डार्क, हैंडसम - उसका हमसफ़र। लड़की को हमेशा लगता है कि सिर्फ़ यही मोह है जो उसे दुनिया से जोड़े रखता है। मगर लड़की ने कभी ना अपना हक़ माँगा ना कोई ज़िद की…समझदार होने के अपने खमियाजे होते हैं। लड़की कहना चाहती बहुत सी चीज़ें लेकिन उसके पास शब्द सिर जंग लगे हुए बचे थे। इन खुरदरे शब्दों से मौत की तारीफ़ कैसे करती। उसके पास कुछ छोटी छोटी शिकायतें थीं। बहुत ही छोटीं। लेकिन ये सवाल पूछने का हक़ किसी को नहीं था।
***

तुमसे कोई जवाब नहीं माँगेगा कि तुम मुझे तन्हा छोड़ कर क्यूँ जाते रहे।
और यही बात एक दिन तुम्हें बहुत सालेगी।

***
लेकिन वो चाहती है कि दुनिया में कोई उपाय हो तो ये एक रात कोई उसे लौटा दे। कि ये रात जो उसने ये सोचने में बितायी थी कि उसे मर जाना चाहिए।

31 August, 2017

कच्चा सपना। सच्चा सपना।

सुबह का कच्चा सपना। टूटा है और दुखता है।

पटना के उस किराए के मकान में कुल पाँच परिवार रहते थे। तीन तल्ला मकान था और पड़ोसी सब घरों में लगभग हमउम्र लोग थे। शाम को घरों के आगे की ज़मीन पर ख़ाली जगह में हम लोग टहला करते थे। अधिकतर लड़कियाँ ही। पर कभी कभी बाक़ी लोग भी टहल लेते थे। ये टहलते हुए बातें करने का वक़्त, मेरा सबसे पसंदीदा समय हुआ करता था।

नीचे वाले दोनों फ़्लैट के आगे बाड़ों में जंगली गुलाब के फूल लगे हुए थे। उनके खिलने पर उनकी गंध पैदल टहलते हुए भी आती थी। एक ओर रातरानी की झाड़ी थी।

आज सपने में देखा कि मैं लौट कर वही घर गयी हूँ। वैसे ही कुर्सियाँ लगा कर लोग बैठे हैं आगे के धूप वाले हिस्से में। मम्मी के साथ बात करते हुए आंटी घर के अंदर चली गयी है। कुछ खाने पीने का देखने।

मैं उनके बेटे को देखती हूँ वहाँ। वे बहुत आत्मीयता से मुझसे बात करते हैं। जैसे बहुत पुरानी, बहुत गहरी दोस्ती हो। हम वहीं आगे की जगह पर टहल रहे हैं। वे बहुत से क़िस्से सुना रहे हैं मुझे। हम हँस रहे हैं साथ में। जिस मकान में में रहती थी पहले, वहाँ दूसरे किरायेदार आ गए हैं और घर के एक हिस्से की ग्रिल पूरी खुली हुयी है, मेन गेट जैसी। मैं वहाँ अंदर जाती हूँ। वहाँ जो रहती हैं, उनकी एक छोटी सी बेटी है, उससे बात करती हूँ। वो बहुत रो रही है तो उसे चुप कराने की कोशिश करती हूँ। वहाँ की खिड़की पर मेरी विंडचाइम टंगी है जो हम उस घर में भूल गए थे। मैं उन आंटी से कहती हूँ कि ये हमारी विंडचाइम है और मैं इसे खोल के ले जा रही हूँ। और भी कोई एक चीज़ थी उस घर में जो मैं लाती हूँ लेकिन अभी मुझे याद नहीं। उस घर में मेरा कमरा बीच का था। मैं उसी कमरे में खड़ी होकर अजीब महसूस रही हूँ। जैसे वक़्त कई कई साल पीछे जा कर २००५ में ठहर गया है।

मैं बाहर आ के वापस आंटी के घर गयी हूँ। एक आध कढ़ाई की चीज़ों में वो और मम्मी व्यस्त है। कुछ खाने को बन रहा है। उनकी बेटी किचन में है। मैं बाहर आती हूँ तो उनके बेटे बाहर खड़े हैं। मैं बग़ल वाले घर की ओर देखती हूँ। वहाँ छत पर कोई खड़ी है। मैं उनसे पूछती हूँ, ये बग़ल वाले घर में जो भैय्या थे आर्मी में, मैं कई साल उनको खोजना चाहती थी, लेकिन पूरा नाम ही पता नहीं था कभी। मैं बहुत सोच रही हूँ कि जा के उनका पूरा नाम पूछ लूँ क्या। बाद में गूगल कर लूँगी। मैं सपने में ही सोच रही हूँ कि कोई किसी को कैसे बिना जाने इतने साल याद रख सकता है।

हम फिर से टहल रहे हैं और वे हँसते हुए मेरे काँधे पर हाथ धरे मेरे कान में कुछ फुसफुसा के बोल रहे हैं। मुझे लगता है कि कोई तो हमें डाँटेगा। कि उनकी मेरे से इतनी गहरी दोस्ती, इतने साल बाद अलाउड नहीं होगी। मगर वे अपनी कहानी कहते ही रहते हैं। हम हँसते रहते हैं साथ में। वो मुझे अपने बच्चों के बारे में बताते हैं। अपने शहर। अपनी नौकरी। अपनी बाइक। पटना में बाढ़ का पानी भरा हुआ है। पैर में भी पिचपिच लग रहा है। लेकिन मैं सुकून से हूँ। बेहद सुकून से। घर की बाउंड्री पर लगे हुए कनेल के पेड़ों में पीले फूल खिले हैं। सपने में कनेल, गुलाब और पानी की मिलीजुली गंध है। हम बचपन के बिछड़े दोस्तों की तरह बातें कर रहे हैं। उन्होंने काँधे पर हाथ रख कर मुझे पास खींचा हुआ है कि एकदम धीमी आवाज़ में वे बात कर सकें मुझसे। मेरी आँखें पनिया रही हैं। किसी दोस्त के साथ इतना वक़्त बिताए बहुत दिन हो गए हैं। वहाँ रहते हुए ऐसा लग रहा है जैसे ज़िंदगी में सब कुछ ठीक है।

***
सपने का स्पर्श मेरे होश से क्यूँ नहीं बिसरता? मैं उठी हूँ तो पैरों को वो मिट्टी और वो काँधे पर हाथ धरे हुए चलना याद है। उनसे बात हुए कई साल हुए। आज सोच रही हूँ, उन्हें तलाश कर एक बार उनसे बात करनी चाहिए क्या। जिन बिना लॉजिक के चीज़ों को मैं मानती हूँ, उनमें से एक ये है कि किसी को सपने में देखा यानी उसने याद किया होगा। मैंने याद किया नहीं, उसने याद किया होगा। अब सोच ये रही हूँ कि जो लोग अपनी ख़ुद की मर्ज़ी से ज़िंदगी से उठ कर चले गए हैं, उन्हें फिर से तलाश कर के क्या ही हासिल होगा।

और ये सपने इतने सच जैसे क्यूँ होते हैं। मम्मी की याद इतनी दुखती थी कि उसके साथ के सारे सारे वक़्त को याद से एकमुश्त मिटाना पड़ा है। ना मुझे बचपन का कुछ याद है, ना कॉलेज ना बाद का कुछ भी। मगर कभी कभी सपना आता है तो सब कितना साफ़ दिखता है। कनेल का पीला रंग भी।

और वो जो हँसी सपने से जाग के होठों तक आ के ठहर गयी है, उसका क्या? पूछ ही लूँ उस डिम्पल वाले लड़के को तलाश कर। तुमने याद किया था क्या...कितना याद किया था?

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...