सच्चा सच्चा दर्द हुआ बस ज़ख्म पुराने झूठे थे
तुमसे मिलने आने के वो सभी बहाने झूठे थे
पीछा करते गली गली और खाते कसमें इश्क इश्क
सब कहते दिल कुछ न सुनता वो दीवाने झूठे थे
गुड्डा-गुड़िया, राजा-रानी, कित-कित, खो-खो, तुमसे प्यार
बचपन के सारे के सारे खेल सुहाने झूठे थे
कैस भी था और लैला भी थी, शीरीं भी फरहाद वही
मेरे मुहल्लों में बनते वो सारे फ़साने झूठे थे
लाश मिली जब उन दोनों की लाल नहर में पिछली रात
कोई न माना चुगली करते सब वीराने झूठे थे
बाँट इश्क को आधा आधा दफना दो और फूँक आओ
रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे
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बहुत घबराहट वाला सपना था. समंदर किनारे किसी छुट्टी पर गयी थी. नौ नौ फीट की ऊंची लहरें उठ रही थीं. याद आता है सोचना, कि गहरी सांस लेना है ठीक जैसे ही लहर आकर टूटे. कि लहर वापस लौटने तक पानी होगा पर घबराना नहीं है. मैं होटल के पहले फ्लोर पर हूँ, यहीं कमरा भी मिला है. यूँ सामान कुछ ज्यादा नहीं है. पर उतनी ऊंची लहरें देख कर बहुत डर लगता है. गहरे नीले-काले रंग की अनगिनत लहरें हैं, एक के बाद एक. मैं रिसोर्ट में पीछे की ओर चलती जाती हूँ. समझ नहीं आता कि लहरें कितनी दूर तक आएँगी. एक रजिस्टर होता है जिसमें लिखवाना है कि समंदर में जो नाव जायेगी उसमें आपका कौन सा सामान छांक कर लाना है. मैं अपना वालेट लिखवा देती हूँ बस. उसके अलावा तो कुछ लेकर चलने की आदत नहीं है.
इस रिजोर्ट और ऐसे अचानक आने वाली सुनामी लहरों का सपना मैं कई बार देख चुकी हूँ. हर बार ऐसे ही मेरा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर होता है. लहर के आने के वक़्त बहुत पानी होता है पर समंदर मुझे वापस खींच के नहीं ले जा पाता है. हर बार इस सपने में मैं अकेली गयी होती हूँ. ठीक ऐसी लहर आने के पहले मेरा समंदर में नाव लेकर जाने का मूड हुआ होता है मगर मैं जाती नहीं...या तो मेरा खाना आने में देर हो जाती है या ऐसे ही किसी कारण से. मैं हर बार यही सोचती हूँ कि अगर अभी समंदर में होती तो क्या होता. पक्का डूब जाती.
उठी हूँ अजीब घबराहट में. बहुत दिन बाद कुछ कविता या ग़ज़लनुमा दिमाग में आ रहा था. वैसे ही बहर वगैरह के मामले में थोड़ी कच्ची हूँ तो अक्सर नहीं ही लिखती हूँ. आज भी कई बार सोचा कि डिलीट कर दूं. फिर रहने दे रही हूँ. छुट्टियों में सारी किताबें तमीज से रखीं. हॉल में टीवी कैबिनेट आया है नया, पापा दिलवाए हैं. उसमें ऊपर से नीचे तक, सारी रैक में किताबें हैं. अच्छा लगता है. सारी किताबें अब तरतीब से हो गयीं हैं.
इधर ऐसे ही सोच रही थी...अक्सर देखा है मेरे साथ वाले लोग इस बात के लिए बहुत अपोलोजेटिक होते हैं कि मैं बहुत बोलती हूँ. ऐसे में मुझे अक्सर बहुत गुस्सा आता है. खास तौर से तब जब वो लोग मेरी ही कार में होते हैं. दिल करता है डोर खोल कर बाहर फ़ेंक दूं. आखिर चुप होना नार्मल क्यूँ है. चुप्पे लोग मुझे भी वैसे ही इरिटेट करते हैं. किसी बात का जवाब नहीं देंगे. सारे समय जाने क्या सोचते रहेंगे. उनके साथ कहीं भी सफ़र करना बहुत पेनफुल होता है. आजकल गुस्सा कितना कम आता है मुझे. लोगों पर चिल्लाती भी कम हूँ. पर कार चलाते वक़्त मुझे चुप नहीं बैठा जाता. एनीवे. मंडे मोर्निंग ब्लूज...ऑफ़ द डार्केस्ट शेड.
सबके अपने अपने किस्से, सबका अपना अपना गम है
मैं तेरे गम को कब समझूं, मेरा अपना कम क्या कम है