23 September, 2013

रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे

सच्चा सच्चा दर्द हुआ बस ज़ख्म पुराने झूठे थे
तुमसे मिलने आने के वो सभी बहाने झूठे थे 

पीछा करते गली गली और खाते कसमें इश्क इश्क
सब कहते दिल कुछ न सुनता वो दीवाने झूठे थे 

गुड्डा-गुड़िया, राजा-रानी, कित-कित, खो-खो, तुमसे प्यार 
बचपन के सारे के सारे खेल सुहाने झूठे थे 

कैस भी था और लैला भी थी, शीरीं भी फरहाद वही
मेरे मुहल्लों में बनते वो सारे फ़साने झूठे थे 

लाश मिली जब उन दोनों की लाल नहर में पिछली रात
कोई न माना चुगली करते सब वीराने झूठे थे 

बाँट इश्क को आधा आधा दफना दो और फूँक आओ
रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे 
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बहुत घबराहट वाला सपना था. समंदर किनारे किसी छुट्टी पर गयी थी. नौ नौ फीट की ऊंची लहरें उठ रही थीं. याद आता है सोचना, कि गहरी सांस लेना है ठीक जैसे ही लहर आकर टूटे. कि लहर वापस लौटने तक पानी होगा पर घबराना नहीं है. मैं होटल के पहले फ्लोर पर हूँ, यहीं कमरा भी मिला है. यूँ सामान कुछ ज्यादा नहीं है. पर उतनी ऊंची लहरें देख कर बहुत डर लगता है. गहरे नीले-काले रंग की अनगिनत लहरें हैं, एक के बाद एक. मैं रिसोर्ट में पीछे की ओर चलती जाती हूँ. समझ नहीं आता कि लहरें कितनी दूर तक आएँगी. एक रजिस्टर होता है जिसमें लिखवाना है कि समंदर में जो नाव जायेगी उसमें आपका कौन सा सामान छांक कर लाना है. मैं अपना वालेट लिखवा देती हूँ बस. उसके अलावा तो कुछ लेकर चलने की आदत नहीं है. 

इस रिजोर्ट और ऐसे अचानक आने वाली सुनामी लहरों का सपना मैं कई बार देख चुकी हूँ. हर बार ऐसे ही मेरा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर होता है. लहर के आने के वक़्त बहुत पानी होता है पर समंदर मुझे वापस खींच के नहीं ले जा पाता है. हर बार इस सपने में मैं अकेली गयी होती हूँ. ठीक ऐसी लहर आने के पहले मेरा समंदर में नाव लेकर जाने का मूड हुआ होता है मगर मैं जाती नहीं...या तो मेरा खाना आने में देर हो जाती है या ऐसे ही किसी कारण से. मैं हर बार यही सोचती हूँ कि अगर अभी समंदर में होती तो क्या होता. पक्का डूब जाती. 

उठी हूँ अजीब घबराहट में. बहुत दिन बाद कुछ कविता या ग़ज़लनुमा दिमाग में आ रहा था. वैसे ही बहर वगैरह के मामले में थोड़ी कच्ची हूँ तो अक्सर नहीं ही लिखती हूँ. आज भी कई बार सोचा कि डिलीट कर दूं. फिर रहने दे रही हूँ. छुट्टियों में सारी किताबें तमीज से रखीं. हॉल में टीवी कैबिनेट आया है नया, पापा दिलवाए हैं. उसमें ऊपर से नीचे तक, सारी रैक में किताबें हैं. अच्छा लगता है. सारी किताबें अब तरतीब से हो गयीं हैं. 

इधर ऐसे ही सोच रही थी...अक्सर देखा है मेरे साथ वाले लोग इस बात के लिए बहुत अपोलोजेटिक होते हैं कि मैं बहुत बोलती हूँ. ऐसे में मुझे अक्सर बहुत गुस्सा आता है. खास तौर से तब जब वो लोग मेरी ही कार में होते हैं. दिल करता है डोर खोल कर बाहर फ़ेंक दूं. आखिर चुप होना नार्मल क्यूँ है. चुप्पे लोग मुझे भी वैसे ही इरिटेट करते हैं. किसी बात का जवाब नहीं देंगे. सारे समय जाने क्या सोचते रहेंगे. उनके साथ कहीं भी सफ़र करना बहुत पेनफुल होता है. आजकल गुस्सा कितना कम आता है मुझे. लोगों पर चिल्लाती भी कम हूँ. पर कार चलाते वक़्त मुझे चुप नहीं बैठा जाता. एनीवे. मंडे मोर्निंग ब्लूज...ऑफ़ द डार्केस्ट शेड. 

सबके अपने अपने किस्से, सबका अपना अपना गम है
मैं तेरे गम को कब समझूं, मेरा अपना कम क्या कम है 

19 September, 2013

तुम्हारी वाली

-१९९८-
घुंघराले बाल थे उसके गुड़िया जैसे. एकदम काले. वो हमेशा बालों में बहुत सारे क्लिप लगा के रखती थी कि संवारे से दिखें. हलकी भूरी आँखें थी उसकी. बिल्ली जैसी. बहुत प्यारी दिखती थी. दूध सा गोरा रंग. दुबली पतली. बहुत नजाकत थी उसमें. बोलती भी एकदम मद्धम थी. पढ़ने में थोड़ी कमजोर थी बस. क्लास की एक आम सी लड़की थी. मेरी उससे कोई ख़ास दोस्ती न दुश्मनी. बस ये सब उस दिन बदल गया जिस दिन मालूम चला तुम्हें वो पसंद है.

अब मुझे उसकी कोई बात भली न लगती. दिल ही दिल में उसे चुड़ैल जैसे विशेषणों से भी नवाज़ा होगा मैंने इस बात पर भी मुझे यकीन है. उसे कभी किसी हेल्प की जरूरत होती तो मेरा हरगिज़ उसकी मदद करने का मन नहीं करता. कभी गेम्स में उसके शूलेसेस खुले रहते तो मैं कभी उसे बताती नहीं. मुझे हरगिज़ समझ नहीं आता कि तुम्हें वो क्यूँ पसंद आई, मैं क्यूँ नहीं. बस उस दिन के बाद से आईने ने मुझसे कोई भी बात करनी बंद कर दी. वो कितना भी कहे कि मैं खूबसूरत हूँ, मेरी खूबसूरती का पैमाना एक भूरी आँखों और घुंघराले बालों वाली लड़की ने तय कर रखा था. मेरे छोटे छोटे बॉबकट बाल और गहरी काली आँखें एकदम साधारण थीं. इनसे किसी को क्यूँ प्यार हो भला.

वो प्यार जताने के दिन नहीं थे. न उलाहना देने के. न पूछने के कि तुम्हें वो क्यूँ अच्छी लगती है, मैं क्यूँ नहीं. तुम्हें इतना भर भी कहाँ बताया था कि तुम मुझे अच्छे लगते हो. तुम उन दिनों मुझे बिलकुल पसंद नहीं करते थे. जाने अनजाने तुमने मेरा बहुत दिल दुखाया. उस वक़्त कोई था भी नहीं बताने वाला कि दर्द ताउम्र नहीं रहता है, न पहला प्यार. तुमसे प्यार करना कितना जरूरी था आज दो दशक बाद समझती हूँ.

मुझे कभी यकीन नहीं होता कि किसी को मुझसे भी प्यार हो सकता है. मगर था वो एक लड़का. लम्बा, गोरा, हलकी भूरी आँखों वाला...उसने कहा कि वो मुझसे प्यार  करता है. उस दिन आइना देखा तो आइना एकदम बड़बोला हो गया था. बार बार बताता कि मैं बेहद खूबसूरत हूँ. कोई मुझसे प्यार करता है. टेंथ के एक्जाम ख़त्म हो चुके थे. उस लड़की से फिर कभी मिलना नहीं हुआ. आज भी मगर इन्टरनेट पे हज़ार दोस्त हैं. मैं उसे कभी एक्सेप्ट नहीं कर पायी.


-२०१३-
पहली बार जाना था उसके बारे में तो तुम सामने थे. तुम्हें गले लगाते हुए मुस्कुरायी थी मैं. तुम्हारी मुस्कराहट से कैसे ज़ख्म भरते हैं जाना था पहली बार. तुम खुश थे. बहुत खुश. मैं उसे कभी नहीं देखना चाहती थी मगर देखा उस रोज़, तुम्हारे साथ...तुम उसके साथ खुश थे. मेरे लिए ये कितना जरूरी था उस वक़्त मालूम हुआ. अपनी जान किसी और के हाथों सौंप देना और दुआ का कासा खुदा के यहाँ से वापस मांग लेना जाना था उस दिन.

तुम्हारी शादी को कितना वक़्त हुआ फिर मैंने कभी नहीं गिना. तुम्हारी एक दुनिया थी जिसमें मैं कभी गलती से भी नहीं जाना चाहती थी. मुझे यकीन था तुम खुश होगे. कई बार सोचा कि एक बार फोन कर के पूछ लूं कैसे हो तुम. जितनी बार दिल ने कहा कि उसे महसूस हो रहा है तुम खुश नहीं हो मैंने दिल को जोरों से झिड़क दिया...मैं अपनी नेगेटिव इनर्जी और उलटपुलट सोच से तुम्हारे जिंदगी में कोई बुरी चीज़ नहीं लाना चाहती थी. कभी कभी कुछ चाहते रहो तो हो भी जाती है वो चीज़.

एक दिन अचानक अपनी पसंदीदा कैफे में देखा उसे. बड़े प्यार से गले मिली वो. मुझे अचरज हुआ कि उससे मिल कर बहुत अच्छा लगा. कुछ वैसा कि जिस चीज़ से तुम इतना प्यार करते हो वो मुझे पसंद न हो ऐसा कैसे हो सकता है. वो कुछ कुछ तुम जैसी ही तो थी. उसके गले मिल कर लगा तुम से ही मिल रही हूँ. सोल्मेट्स ऐसे ही होते हैं न. मुझे महसूस हुआ वो तुम्हारे लिए ही बनी थी. ये कुछ वैसा ही था जैसे शादी के बाद मैं बदलने लगी हूँ, बहुत सी चीज़ें जो पहले बर्दाश्त नहीं होती थीं, अब अच्छी लगने लगी हैं.

उसकी मुस्कुराती आँखें देखीं तो उनमें तुम नज़र आये. उसके काँधे पर तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू थी हलकी सी. शादी के बाद मियां बीवी कुछ कुछ एक दूसरे के जैसे हो जाते हैं न. वो हंसती है तुम्हारे जैसे. खुश होती है तो तुम्हारी याद आती है. मुझसे उसपर बहुत प्यार उमड़ा. वो मेरी कोइ बहुत अपनी लगी मुझे. अपनी दुश्मन नहीं अपनी दोस्त लगी. तुम हमेशा से उसके थे.

उस दिन ये भी महसूस हुआ कि उसने मेरी जगह नहीं ली है. मेरी जगह कोई और ही है और वैसी ही महफूज़ है. वो मुझे बता रही थी कि जैसे तुम्हें मेरे बारे में सारी बातें वो ही बताती रहती है क्यूंकि तुम तो इन्टरनेट और फेसबुक पर आओगे नहीं. उसने बताया कि मैं आज भी बहुत खूबसूरत हिस्सा हूँ तुम्हारी जिंदगी का. उसने ये भी बताया कि तुमने उससे कहा था कि तुम्हारा और मेरा कोई पिछले जन्म का रिश्ता सा है. मैं समझदार हो गयी हूँ कि मेरा प्यार उदार हो गया है?

-आज शाम-
बाकी सब चल जाएगा, लेकिन सुनो, उसे स्वीटहार्ट मत बुलाया करो...अभी भी दुखता है कहीं ज़ख्म कोई. 

18 September, 2013

इट हर्ट्स. बट नेवरमाइंड.

-एक-
तुम तो धुमुस जानते हो न. अरे वही जिसको धुरमुस कहते हैं. एक लोहे का छोटा सा वृत्त होता है, बेहद भारी, एक ओखल जैसे मोटे लकड़ी का सिरा होता है. इसे बार बार ज़मीन पर पटकते हैं जिससे मिटटी अच्छे से जम जाए. इससे मिटटी का लेवल भी बराबर करते हैं. कोंच कोंच कर भरते हैं जैसे शीशे के मर्तबान में कुछ.

तुम वैसे ही बसे हो न मन में. मिट्टी के कण के बीच हवा भर की जगह न हो जैसे. बहुत छोटा सा होता है दिल. कितने कितने दिन लम्हे लम्हे करके इसी तरह बसाती गयी हूँ तुम्हें दिल में. सख्त फर्श है अब बिलकुल. इसमें किसी पौध की रोपनी नहीं की जा सकती है. तुम्हारे खो जाने जैसा ही शोर होता है धुरमुस का. धम धम बजता है बारिश वाली शामों में. इतनी बारिश में गंगा किनारे तोड़ कर बही है. घर में घुस आये पानी को निकालने के बाद उसमें बहुत सारी मिट्टी गिराई गयी है. सुबह से मजदूर लगे हुए हैं. हर आवाज़ के साथ तुम्हारा नाम गहरे धंसता जाता है मिट्टी में. इसी कबर में तुम्हारे नाम के सारे ख़त डाल  देती हूँ. अगली साल बारिश में फिर बहा देगी गंगा तुम्हें. मिटा देगी तुम्हारा नाम. ये क्या है कि मेरे तुम्हारे बीच बहती है. तुम एक नाव लेकर मेरे पार क्यूँ नहीं आ जाते?

तुम कहीं भी तो नहीं हो. गंगा में नहीं. बारिश में नहीं. धुरमुस यूँ भी अब कौन इस्तेमाल करता है. फिर मैं कहीं का कोई इंस्ट्रुमेंटल संगीत सुनते हुए तुम्हारी याद में कहाँ डूबने लगती हूँ. मेरे छोटे छोटे टुकड़े करता जाता है संगीत और पार्सल कर देता है. गंगा किनारे मांसखोर मछलियों को खिला देने के लिए. मेरा कोई टुकड़ा तुम्हारे हाथ कभी नहीं लगता. तुम मान भी तो लेते हो कि मैं मर गयी हूँ.

तुम तो मुझसे कभी मिले भी नहीं हो. तुम्हें मालूम है मेरी आँखों का रंग कैसा है?

-दो-
हर शहर की अपनी गंध होती है. गंगा किनारे उफनते लाल पानी को देखते हुए. घुटने घुटने पानी के वापस लौट जाने के बाद शहर में बसती जाती है गंध. मुंबई में गेटवे के पास चुप सर पटकते समंदर की होती है एक गंध. नमक मिले पानी और आंसू में बहते हुए सपनों की मिलीजुली गंध. समंदर में विसर्जित अनगिन आत्माओं की गंध. समंदर से वापस लौटते हर रास्ते का पीछा करती है समंदर की गंध. वक़्त का एक सिरा पकड़ कर मैंने सोचा था तुम्हारा एक लम्हा अपने नाम लिखवा सकूंगी. इंतज़ार के कदमों वापस लौटता है शहर और 'सॉरी' का एक छोटा सा चिट थमाता है मुझे. पुराने पत्थरों में तुम्हारे टूटे वादों जैसा कुछ लिखा हुआ दिखता है. बहुत मुश्किल है इस भागते शहर से एक लम्हा चुरा पाना.

तुम्हें मालूम है मेरे पास तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं है. याद का कोई टुकड़ा. स्पर्श का कोई लम्हा नहीं जो फ्रेम करके लगा सकूँ. जब तुम चले जाते हो तो मुझे यकीन नहीं होता कि तुम कभी थे भी. तुम्हारे नाम का टैटू बनवाने की इच्छा है. रूह का तो क्या है, जिस्म को तो याद रहे कि कभी छुआ था तुमने मुझे. 'you touched me here' कलाई में जहाँ दिल का तड़पना महसूस होता है वहीं.

बारिश धो देती है तुम्हारी खुशबू. छाता खो जाता है लोकल ट्रेन मैं. तुम्हारी साँसों में बसने लगा है अजनबी शहर. मेरे आने से उस शहर में खुलने लगती है किताबों की एक आलसी लाइब्रेरी जहाँ लोग फुर्सत में लिखते हैं अपने महबूब को ख़त. तुम वहां हर शाम रिजर्वेशन करवाते हो मगर ठीक आठ बजे तुम्हारी एक मीटिंग अटक जाती है सुई पर और तुम्हारा क्लाइंट तुम्हें समझाता है किन जिंदगी में प्रमोशन मुहब्बत से ज्यादा जरूरी क्यूँ है. यूँ कि इश्क तो ऐरे गैरे गरीब को भी हो जाता है मगर मिसाल की बात पर लोगों को ताजमहल याद आता है. जब तक तुम इस काबिल न हो जाओ कि कम से कम दो लाख की कीमती अंगूठी खरीद कर महबूबा को न दे सको, इश्क के नाम को कलंकित ही करोगे. तुम्हें बरगलाना इतना आसान है तो मैं क्यूँ नहीं बरगला पाती कभी?

हालाँकि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे कभी होने का कोई सबूत नहीं रह जाता. फिर भी जानते तो हो न कि मैं प्यार करती हूँ तुमसे?

-तीन-
नहीं. मुझे तुम्हारे ख़त कभी नहीं मिले. इसलिए कि तुमने कभी लिखे ही नहीं मुझे. हाँ. मैंने लिखे थे तुम्हें बहुत सारे ख़त. हाँ मैं थोड़ी पागल हूँ तुम्हारे बारे में. यु नो हाउ वुमेन आर. उनकी छठी इन्द्रिय होती है ऐसी ही. माँ की होती है. प्रेमिका की भी होती है. बीवी की होती है. मेरी क्यूँ है लेकिन? मैं तुम्हारी कुछ भी तो नहीं लगती. तुम्हारा ख्याल रखने को पूरी दुनिया के लोग हैं मगर तुम्हें तकलीफ होती है तो मेरी रातों की नींद क्यूँ उड़ती है?

तुम्हें लगा तुमने मुझे ख़त लिखे हैं? तुम्हें कभी ये लगा कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ? सब कुछ लगेगा तुम्हें कमबख्त...सर्दी लगेगी, गर्मी लगेगी मगर ये नहीं लगेगा कि मुझे तुम्हारी बातें लग जाती हैं. तुम दिल्ली छोड़ कर चले क्यूँ नहीं जाते? दुनिया के इतने सारे शहर हैं, कभी इटली में जा के रहो न...वैसे टिम्बकटू भी अच्छी जगह है. कहीं चले जाओ जहाँ का पता मुझे मालूम न हो. वो लाल डब्बा मुझे देख कर ऐसे मुंह चिढ़ाता है कि दिल करता है पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दूं.

मालूम, तुमसे मिल कर बहुत साल बाद किसी को चिट्ठियां लिखने का दिल किया था. सुनो, तुम्हें क्यूँ लगता है कि मैं तुम्हें समझती हूँ? कितना वक़्त ही बिताया है तुमने मेरे साथ...इतने देर में लोगों को प्यार नहीं, धोखा होता है बस. तब जब कि मुझे यकीन हो जाना चाहिए था किन समन्दरों के शहर वाले लोग किसी गाँव में लंगर नहीं डालते मैं तुम्हारे लिए डॉकिंग स्टेशन बनवा रही हूँ. मुसाफिर सही, कभी दिन के एक घंटे रुकने को जी किया तो इधर नेरुदा की कवितायेँ हैं, दिलफरेब तसवीरें हैं जो मैंने ग्रीस के किसी द्वीप पर उतारीं थीं, कुछ तुम्हारी पसंद के लोग भी हैं...अँधेरे वाले लाईटबल्ब हैं. काली रौशनी वाले रोशनदान हैं.

And he hugs me like I am made of glass...and so tightly that I shatter...into dust and get imbibed in his blood...a fragment of me sparkles into his eyes...the last light of a dying star.

सोचा तो ये था कि विदा कह रही हूँ तुम्हें. लगता ऐसा है जैसे सी यू टुमारो कहा है.

-चार-
आई नो, यू लव मी टू. इट हर्ट्स. बट नेवरमाइंड.

30 August, 2013

एनेस्थीसिया

डेंटिस्ट की खतरनाक सी कुर्सी पर बैठी लड़की सोच रही थी एनेस्थीसिया के बारे में. ऐसा कुछ है क्या जिसके बाद कोई दर्द महसूस न हो. सोचती रही इश्क से बेहतर एनेस्थीसिया उसे मालूम नहीं है. उसने सोचा डॉक्टर से पूछे कि उसके पास कोई इश्कनुमा एनेस्थीसिया है क्या. लड़की को मालूम है कि वो थोड़ी वीयर्ड है उसके हिसाब से जो चीज़ें नार्मल होती हैं वो आम लोगों को पागलपन जैसी लगती हैं. अपने अनुभवों से सीखती वो लड़की अक्सर ऐसे फुजूल सवाल अब खुद के लिए रिजर्व कर लेती है.

दो दिन हो गए. सूजन बढ़ती ही गयी है. पेनकिलर से राहत नहीं आती. हालाँकि उसका कोई हक नहीं बनता पर वो पूछना चाहती है कि तुम्हारे नाम, ख्याल या तस्वीरों को पेनकिलर की तरह इस्तेमाल करना एथिकली सही है या गलत है. सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचने भर से उसका दांत का दर्द कम हो जाये तो क्या उसे इजाजत है तुम्हारे बारे में सोचने भर की...या तुम्हें एक फ़ोन करने की? तुम क्या सोचोगे अगर कोई तुम्हें फ़ोन करके कहे कि बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, कुछ देर मेरा ध्यान भटका दो...किसी भी और चीज़ की तरफ. तुम करोगे किसी के लिए इतना?

दर्द यूँ बुरा नहीं लगता. दर्द की महीन उँगलियाँ होती हैं...जैसे नसों में खून दौड़ता है वैसे ही दर्द भी दौड़ता है. बारीक पतली पतली उँगलियों वाला दर्द बायें गाल से होता हुआ कनपटी तक पहुँच गया है, गले का बायाँ हिस्सा सूजा हुआ है. बोलने में भी तकलीफ होती है. दर्द का स्वाद होता है. खास तौर से जब टाँके पड़े हों. खून का रिसता हुआ स्वाद. ऐसा लगता है जैसे कोई नदी बह रही हो...नमकीन धार वाली. हर कुछ देर में नमक पानी के गरारे भी करने पड़ते हैं.

चेहरे का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया है. दांत के दर्द को टक्कर सिर्फ और सिर्फ इश्क दे सकता है. वो भी ऐरा गैरा लफुआबाज़ टाईप इश्क नहीं. सड़कछाप आवारा वाला नहीं. गहरा दर्द. रात के पहर के साथ चढ़ता हुआ. नींद के किसी झांसे में नहीं आने वाला दर्द. अँधेरे में याद के कितने तहखानों की टहल करवा देने वाला दर्द. पेनकिलर और एंटीबायोटिक के मिक्स में उभरने वाली नीम बेहोशी में रह रह करंट के झटके लगाता दर्द. हर कुछ घंटों में अपने होने को कई गुना शिद्दत से ज्यादा महसूस करने वाला दर्द.

जिंदगी में हर चीज़ में इश्क की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए. कम से कम दांत दर्द तो तमीज से दांत दर्द की तरह पेश आये. दर्द हो तो सब भूल जाए लड़की. भूरी आँखें. डेरी मिल्क. धूप. दिल्ली. ठंढ. बीमार की तरह कम्बल ओढ़ ले और कराहे. मगर ये कराह में किसका नाम लिए जा रही है लड़की. "खुदाया मेरे आंसू रो गया कौन". वो कहती है उसका दर्द का थ्रेशहोल्ड बाकी लोगों से ज्यादा है. बहरहाल. कुछ दिनों से कुछ भी करने की कोशिशें नाकाम हैं. पढ़ने लिखने में उसका दिल नहीं लगता. ऐसा कुछ लग रहा है जैसे एक्जाम के दिन हों और सिलेबस ख़त्म हो चुका हो. बस रिवाइज करना जरूरी हो.

जब कुछ काम न आये तो लिखना काम आता है. फिलहाल दर्द की एक तीखी लपट है. दांत के ऊपर से उठती है और वर्टिकली ऊपर दिमाग की ओर चली जाती है. मेमोरी इरेजिंग टूल टाईप कुछ है. कोई याद नहीं. कोई शख्स नहीं. सफ़ेद काली बेहोशी है. संगीत की कुछ धुनें हैं. व्हाइट नोइज जैसी कुछ. इच्छा है कि थोड़ी धूप रहती तो खून का बहाव थोड़ा तेज़ होता. उसे हमेशा धूप अच्छी लगती है. रात के इस पहर धूप कहाँ से बुला लाये लड़की.

एनेस्थीसिया मेरी बला से! मुझे तो लगता है कि लड़की का दिमाग ख़राब हो गया है. पर जाने दो. वो क्या कहते हैं हमारी हिंदी फिल्म में डॉक्टर.

'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'

PS: अब इन्हें ब्लॉग्गिंग की नहीं, पागलखाने की जरूरत है. वगैरह वगैरह.

इस पोस्ट के माध्यम से आप आपने पाठकों को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हम तो क्या कहें, कह भी देते लेकिन कोई हमसे पहले कह गया है कि...और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

बहरहाल. 

19 August, 2013

सताए हुए लोगों से पूछो रास्ता करार का


लिखना आत्महत्या जैसा कुछ था. टेबल के किनारे बेहद तीखे थे. कवि इतना बेसुध था कि उसे ध्यान नहीं रहता, दर्द महसूस नहीं होता. बहुत मुश्किल से जोड़े गए पैसों से एक नया टेबल ख़रीदा था. जल्दबाज मजदूरों ने टेबल फिक्स करते हुए उसे बड़ी हिकारत से देखा था. जैसे वो टेबल का इस्तेमाल करना डिजर्व नहीं करता. कि जैसे वो मजदूर उसकी कहानियों के गरीब लेखक को देखना चाहते थे. उसने एक बार कहा था कि टेबल के किनारों को रेगमाल से थोड़ा घिस दें. मजदूर उसकी बात सुनकर ऐसे हँसे थे जैसे कोई सस्ता लतीफा सुनाया गया हो.

वो अपने आलीशान घर में ऐसे रहता था जैसे किसी मजबूर रिश्तेदार को उसे जबरदस्ती गोद लेना पड़ा हो. टेबल खरीदने की मजबूरी भी इसलिए थी कि झुक कर लिखने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी घिसने लगी थी. जिंदगी में एक इसी रीढ़ के कारण उसने बहुत कुछ सहा था...अब इस उम्र में झुकना मंजूर नहीं था उसे. शीशम की लकड़ी से बने उस टेबल के किनारे उस रोज़ भी तीखे थे. उन्होंने उसे कुछ ऐसे बरगलाया था जैसे जूते का दूकानदार जूते बेचता है...अभी चुभ रहा है, चमड़ा बाद में नर्म हो जाएगा...गर्मी में फैलेगा. वगैरह वगैरह. कवि ने बेचैनी से इर्द गिर्द देखा था मगर न तो बीवी न बच्चे ही उसकी मदद को आये.

वो जब भी लिखने बैठता, टेबल की तीखी धार उसकी कलाइयों पर लम्बी पतली धारियां बनाती जाती थी. बेतहाशा लिखने के पागलपन वाले मौसम आये थे. उसे मालूम नहीं चलता मगर टेबल जैसे खून डोनेट करने की सुई जैसा उसके बदन से बूँद बूँद खून का प्यासा हुआ जा रहा था. कुछ दिनों में टेबल के नीचे एक आध बूंद खून की टपक जाती थी. उसने वहां पर सोख्ता रख दिया था. कागज़ के टुकड़े-ब्लोटिंग पेपर को खून और स्याही में क्या अंतर पता चलता. जैसे बारिश में बाल्टी रखी होती थी टपकते छत के नीचे, बाकी घर सूखा रहता था.

मगर लगता ये है कि कवि इतना अकेला और इतना बेसुध क्यूँ है. दर्द से बेपरवाह क्यूँ है. टेबल की तीखी धार को सरेस पेपर से रगड़ कर चिकना करने वाला कोई तो होगा दुनिया में. इतने सारे किरदार रचे हैं उसने, एक बढ़ई का किरदार रच देता तो समझ जाता कि इतना मुश्किल नहीं है एक टेबल ठीक करना. कवि को दर्द की आदत थी, कुछ वैसे ही जैसे छोटे शहरों में लोगों को बिजली के आने जाने की आदत हुयी रहती है. घड़ी बांधते हुए विरक्त भाव से निशानों को देखता. फिर घड़ी के ख़राब होने की परेशानी हो रही थी. हालाँकि वो चाहे तो घड़ी बांयें हाथ पर बाँध सकता था. आईने के सामने खुद को देख रहा था तो आज भी सालों पुरानी याद पीछा नहीं छोड़ रही थी. एक लड़की ने छेड़ा था, राखी बाँध दूँगी...उसने घड़ी दिखाते हुए कहा था...मेरी बहन है...इस भागते वक़्त ने मुझे राखी बाँधी है, देखती नहीं हो...कैसे इसकी रक्षा करने को कविता, कहानियां सकेरता रहता हूँ. लड़की हँसते हुए गयी थी...जिस दिन दायें हाथ से घड़ी उतारोगे मेरी रक्षा करने का भार उठाना.

कवि ने दराज़ से सफ़ेद रुमाल निकला. रूमाल के दायें कोने पर उसके नाम का पहला अक्षर लिखा था. नामों का खेल...उन दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे. सफ़ेद रुमाल दायीं हथेली पर बाँधा. उसके ऊपर घड़ी पहनी. उसके कुरते करीने से इस्त्री किये हुए रखे थे. सफ़ेद कुरते एक तरफ, रंग वाले कुरते एक तरफ. सुर्ख पीला कुरता पहनते हुए उसके होठों पर मुस्कान अनायास खेल गयी. आखिरी बार लड़की को उसने उसकी हल्दी की रस्म पर ही तो देखा था. जिद थी कि उसकी शादी में नहीं जाएगा.

वो कैसे दिन थे न...हँसते हुए घबराहट नहीं होती थी. हाथ से कुछ छूट जाता था तो अफ़सोस नहीं होता था. या कि अफ़सोस दिल में ऐसे गहरे दफन करके रख दिए गए थे. जीवन की संध्या में अफ़सोस की खुशबू वाले फूल खिल रहे थे. इन्हें करीने से रखने का सलीका सीख रहा था वो आजकल. एक कांच के गुलदान में सबरंगी अफ़सोस थे...तीन चार दिन ताज़े रहते थे, फिर उनकी जगह नए अफ़सोस ले लेते थे.

आईने के सामने खड़ा था...याद नहीं था कहाँ जाने के लिए तैयार हुआ था. कल रात उसका सपना देखा था. लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था, तुम्हारा हाथ चूम सकती हूँ? सपना बेहद सच्चा सा था. उसने अपनी कलाईयाँ सूंघी...दालचीनी की खुशबू थी तो सही...या कि टेबल दालचीनी की लकड़ी से बनी थी? उसे ख्याल नहीं कि मजदूरों ने क्या कहा था...उसे लकड़ियों की समझ भी नहीं थी...समझ तो उसे लड़कियों की भी नहीं थी.

बहरहाल...टेबल की तीखी धार से उसकी कलाइयाँ कटती थीं...ख्वाबों में लड़की के दुपट्टे से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की सियाही से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की कलाइयों से दालचीनी की खुशबू आती थी.
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कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है. कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी.

12 August, 2013

तेज़ चलाओ...और तेज़...और तेज़

जानेमन, हम सोच रहे हैं कि आपका नाम 'जीशान' रख दें.
बाईक पर वो दोनों बहुत तेज़ उड़े जा रहे थे. सामने खुली सड़क थी और पीछा करते घने काले बादल. देखना ये थी कि बैंगलोर पहले कौन पहुँचता है...वो दोनों या बारिश. रेस लगी हुयी थी और सारे जिद्दी किस्म के लोग थे. इस बेखयाली में लड़की का नीला स्कार्फ जैसे बादल को चिढ़ा रहा था कि आँचल छू के दिखाओ तो जानें और लड़का सूरज की भागती किरणों के पहिये पर था. बाईक हवा से बातें कर रही थी...हवा बाईक के लिए बैकग्राउंड म्यूजिक दे रही थी. इस सारे माहौल में लड़के को अचानक से नाम बदलने की बात समझ में नहीं आनी थी, नहीं आई.
'हमारे नाम में क्या बुराई है?' पीछे मुड़ते हुए बोला...हवा उसके आधे अक्षर उड़ा कर ले गयी और एक नया गाना गाने लगी.
'इस नाम से तुम्हें सारे लोग बुलाते हैं, बहुत कोमन हो गया है तुम्हारा नाम'
'नाम का काम ही यही होता है, कितने प्यार से घर वालों ने नाम रखा है ------- ------ ----' हवा उसके नाम के सारे अक्षर उड़ा गयी और लड़की के पल्ले कुछ नहीं पड़ा. लड़की चुप.
'तुम्हें ये नया नाम रखने की क्या सूझी, नया नाम तो शादी के बाद बदलते हैं...या फिर उस ऐड की तरह...आई विल टेक अप हर सरनेम'.
'शादी के बाद तुम नाम बदल लोगे!?'
'नाम बदल लूँगा तो तुम मुझसे शादी कर लोगी?'
'तुम प्रपोज कर रहे हो?'
'तुम हाँ बोल रही हो?'
'पता है आइंस्टीन ने कहा था कि ऐनी मैन हू कैन ड्राइव सेफली व्हाइल किसिंग अ प्रेटी गर्ल इस सिम्पली नौट गिविंग द किस द अटेंशन इट डिजर्व्स'
' भाड़ में गया तुम्हारा आइन्स्टीन...मैं यहाँ ऐसा सवाल कर रहा हूँ और तुम्हें कोटेशन की पड़ी है'
'बिना भीगे बैंगलोर पहुँच गए तो कर लूंगी'
'आई विल मेक श्योर आई गिव द किस द अटेंशन इट डिज़र्वस्'
अब बस बैंगलोर जल्दी पहुंचना था...दोनों की जुबान पर बीटल्स का गीत था...Close your eyes and I'll kiss you...tomorrow I'll miss you....फुल वॉल्यूम में और बिना किसी सही ट्यून के एक साथ दोनों गा रहे थे.
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ब्लैक आउट.
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याद के आखिरी चैप्टर में जुबान पर खून का तीखा स्वाद था...जंग लगे लोहे जैसा. उसे याद नहीं कि बाईक कहाँ स्किड हुई थी...ट्रक ने कौन सा टर्न लिया था. उसने रियर व्यू मिरर में उसकी आँखें देखी थीं. हेलमेट की स्लिट से. उन आँखों में बहुत सारा प्यार और उतनी ही शरारत थी. ये हरगिज़ वो आँखें नहीं थीं जिनमें मौत नज़र आये. तो क्या खुदा से कोई गलती हो गयी थी?
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उसे किस्तों में मिटाना बहुत मुश्किल था. यकीन नहीं था वो इस तरह हिस्सा बनता गया था. बीटल्स के गीत हो या कि गुरुदत्त की फिल्में...कितने सारे सीडी कवर पर उसका लिखा कुछ न कुछ मिल जाता था. घर के कोने कोने में उसकी लिखी पुर्जियां थी और याद के कोने कोने में उसकी चिप्पियाँ. घर की दीवारों पर उसके इनिशियल्स थे. पसंद की फिल्मों के प्रिंट्स काले फ्रेम में थे...लड़की को हर कील की पोजीशन और फिर ड्रिल करता हुआ वो याद आता था. उसका टूल किट डोनेट करते हुयी कैसी फूट फूट के रोई थी वो.

बाईक सर्विसिंग के वापस आ गयी थी. लड़की को लड़कपन के बाईक सीखने वाले दिन याद आ गए. बाकी लोगों के उलट, उसने बाईक पहले सीख ली थी. वो अपने घर वालों का एकलौता बेटा था...सब काफी प्रोटेक्टिव थे उसको लेकर. पापा ने कार ले दी थी लेकिन बाईक कोई उसे न सीखने देता, न चलाने देता कभी. इसी सिलसिले में वो पहली बार छुप छुप के मिलने लगे थे. कोलेज में गर्मी की छुट्टियाँ थीं. लड़की उसे बाईक का क्लच, गियर, ब्रेक सब बता रही थी. धीरे धीरे बोलते हुए भी घबराहट में वो एक्सीलेरेटर देते चला गया था. तेज़ गाड़ी से जब दोनों फेंकाए थे तो बारिश के कारण ही बचे थे. मिट्टी और कीचड़ था इतना कि जरा भी चोट नहीं आई. उस दोपहर दोनों ने बारिश का इंतज़ार किया. मूसलाधार बारिश में कपड़े साफ़ हुए तो घर जाने लायक हालत हुयी. बाईक और बारिश से रिश्ता उम्र के साथ गहराता गया.

लॉन्ग ड्राइव्स, शोर्ट ड्राइव्स...रेसिंग. कितने सारे रास्तों से गुजरी उनकी दोस्ती. लड़का जब पहली बार दिल्ली गया तो दो पोस्टर लेकर आया. हार्ले डेविडसन के. वो फ्रेम्स दोनों ने खुद मिल कर की थीं. लकड़ी की पतली बीट्स को पेंट करने से लेकर छोटी कीलें लगाने तक. उनके कमरे बिलकुल आइडेंटिकल थे, सिवाए एक ड्रेसिंग टेबल और एक छोटे डम्ब बेल्स के.
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उसके होते हुए लड़की को कभी नहीं लगा कि वो ऐब्नोर्मल है. लड़की को कभी किसी और दोस्त की या किसी और वैलिडेशन की जरूरत महसूस नहीं हुयी. उसने कभी नहीं देखा कि उसकी बाँहें टैन हो गयी हैं या कि चेहरे पर मुहांसे निकल रहे हैं. जिंदगी में इतना सारा खालीपन अचानक से आ गया था और भरने का कोई तरीका उसे मालूम नहीं था. घर पर सबको लग रहा था कि अब वो इस बाईक के जंजाल से निकल कर सलवार कुरता पहन कर तमीज से दुपट्टा लेने वाली लड़की बनेगी. शायद तरस खा कर कोई लड़का शादी कर भी ले उससे. घर में मामियों, चाचियों, भाभियों का जमघट लग गया था. उसके स्लीवलेस टॉप और शॉर्ट्स को देख कर नाक भौं सिकोड़ती औरतें उसे कभी तोरई की सब्जी बनाने के तरीके बतातीं कभी पति को मुट्ठी में काबू करने के नुस्खे सिखातीं.
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डेढ़ महीने बाद पैर का प्लास्टर खुला. घर पराया हो रहा था. इतने सारे लोग सुबह शाम. उनकी सिम्पथी. डॉक्टर ने महीने भर का वक़्त बताया था ठीक से चलने में. घर के ईजल की जगह व्हाईट बोर्ड ने ले ली थी. हार मानना और रो कर बैठना किसी बाईकर की जिंदगी में नहीं आता. गिरने के बाद हँसते हुए उठना, बाईक की स्थिति जांचना और फिर राह पर निकल पड़ना एक आदत सी बन जाती है.

बाईक एक ऐसा बेस्ट फ्रेंड होती है जिससे प्यार ताउम्र चलता है. लड़की ने एक ऐडवेंचर क्लब का पूरा खाका तैयार कर लिया था. जिंदगी के पागलपन को एक रास्ता चाहिए था. घर पर सबको यकीन था वो कभी बाईक चला नहीं पाएगी. डॉक्टर्स ने उसकी स्थिति देख कर कहा था कि वो डिप्रेशन की शिकार है और खुद को ज्यादा फ़ोर्स न करे. उन्ही परिस्थितियों से दोबारा गुजरने पर उसमें सुसाइडल टेंडेंसी डेवेलप कर सकती है. इस वक़्त उसे थोड़े आराम की जरूरत है.

सबके डरने से उसकी भी धड़कन तेज़ हो गयी थी. जब राइडिंग गियर पहन कर वो बाईक के पास जा रही थी तो दर्जनों आँखें उसका पीछा कर रहीं थीं. उसे आज तक कभी खुद को प्रूव करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उसका जो दिल करता था करती आई थी. उसे कभी ये भी नहीं लगा कि वो कुछ बहुत ख़ास कर रही है. मगर आज जैसे अग्निपरीक्षा थी.

उसने हेलमेट पहना, गॉगल्स लगाये और बाईक स्टार्ट की. प्यार. दर्द. जीशान. खोना. खालीपन. सब पीछे छूटता गया. वन्स अ बाईकर. बाईकर फॉर लाइफ. जिंदगी अच्छी सी लग रही थी. जीने लायक. खुशनुमा. तेज़ रफ़्तार. इश्क जैसा कुछ. जिंदगी जैसा कुछ.

गीत फिर भी वही था...बीटल्स...टुमोरो आई विल मिस यू...

23 July, 2013

शिप ऑफ़ थीसियस

मुझे फिल्म ख़त्म होने के बाद की कास्टिंग के सारे टाइटल्स तक रुकना अच्छा लगता है. कल की फिल्म 'शिप ऑफ़ थीसियस' देखने के बाद भी सारे टाइटल्स तक रुकी रही. हॉल से बाहर आते हुए मन ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ देर एकदम चुप रहने का मन था. इतना कुछ था कहने को कि समझ नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ. मगर मालूम था कि इस फिल्म के बारे में लिखना पड़ेगा.
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Ship of Theseus के बारे में मालूम चला, IIMC के सहपाठी अंकुर ने इस पन्ने को लाईक करने का लिंक भेजा था. ट्रेलर देखते हुए फिल्म के बारे में एक गहरी उत्सुकता बन गयी थी. वीकेंड में व्यस्त थी तो नहीं देख पायी. कल मंडे होते हुए भी रात का शो देखने की ललक थी. ऑनलाइन कटाने की कोशिश की तो पीवीआर हाउसफुल. फिर बुकमायशो से टिकट कटाई. कुणाल व्यस्त था तो सोचा अकेली चली जाऊं, फिर नेहा से पूछा, वो फ्री थी तो उसके साथ चली गयी.

फिल्म में कुछ छूट न जाए इसलिए बिफोर टाईम पहुंचे, जो कि एक तरह का रिकोर्ड ही है. पोपकोर्न और कोल्ड ड्रिंक लेकर अन्दर गए तो अचरज से भर गए. पीवीआर कोरमंगला में मंडे को रात का शो वाकई हाउसफुल था. बंगलौर जैसे शहर में जहाँ भागते दौड़ते फुर्सत नहीं मिलती, कितने सारे लोग इस फिल्म को देखने आये थे.
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फिल्म का टाइटल शिप ऑफ़ थीसियस नाम की कहानी पर है. एक शिप होता है, जैसे जैसे उसके पुर्जे ख़राब होते जाते हैं, एक एक करके उसके सारे पुर्जे, लकड़ियाँ, खम्बे, सब कुछ बदल दिया जाता है. एक वक़्त में शिप में पुराने शिप का कोई पुर्जा भी नहीं होता. शिप के ख़राब हुए पुराने पुर्जों को जोड़ कर एक शिप बना दिया जाए, तो इन दोनों में असली शिप ऑफ़ थीसियस कौन सा होगा.

फिल्म में तीन कहानियां हैं. पहली एक फोटोग्राफर की कहानी है जो बचपन में आँखों के कोर्निया इन्फेक्शन के कारण देख नहीं सकती. उसके पास एक कैमरा है जो आसपास की चीज़ों के बारे में बोल कर बताता है. वो सुन कर, महसूस कर के तसवीरें खींचती हैं. उसका पार्टनर/बॉयफ्रेंड भी उसे उसकी खींची हुयी तस्वीरों के बारे में डिटेल में बताता है. दोनों में इस बात पर बहस होती है कि अच्छी तस्वीर कौन सी है, लड़की का कहना है वो तस्वीर जो मैंने सुन कर महसूस कर के खींची है...इत्तिफाक से खींची गयी अच्छी तस्वीर भी वो अपने कलेक्शन में नहीं रखना चाहती. उसे सिर्फ वो चीज़ें रखनी हैं जिन्हें उसने खुद कम्पोज किया है, जिस कहानी को वो कहना चाहती है. ये उसका अंतिम निर्णय है कि कौन सी तस्वीर रखी जाए और कौन सी नहीं.

फिल्म का ये सीन किचन में फिल्माया गया है. मुझे याद करने पर भी याद नहीं आता कि किसी आखिरी फिल्म में इस बात पर बहस कब देखी थी कि व्हाट इज आर्ट. कि हर एक का नजरिया अलग होता है. एक आर्टिस्ट लोगों के लिए, उनके हिसाब से नहीं रच सकता...वो इसलिए रचता है कि उसे अपना कुछ कहना होता है. वरना क्या फर्क पड़ता है. फिल्म का ये सेगमेंट मेरे लिए सबसे रियल था. सवाल जैसे मेरे सवाल थे. बैकग्राउंड स्कोर में सन्नाटे का बेहतरीन इस्तेमाल था.

फिल्म की दूसरी कहानी एक जैन साधू की है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज़ से ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है. बारिश भीगता मुंबई हो या विंडमिल के खेतों में गुज़रती साधुओं की छोटी टोली. इसमें सवाल इतने सारे और फिलोसफी इतनी गहरी कि कई बार तो लगता था कितना कुछ मिस कर गए. फिल्म को स्लो मोशन में देखने का दिल करता था.

फिल्म का तीसरा हिस्सा एक व्यक्ति के बारे में है जिसने किडनी का ओपरेशन करवाया है. इसमें मेरा पसंदीदा हिस्सा है जहाँ वो अपनी नानी से बात कर रहा होता है. नानी का कहना है जिंदगी में इतना कुछ देखने को है, इतना कुछ करने को है, तुम एक आम सी जिंदगी कैसे जी सकते हो. जवाब है कि मुझे नहीं चाहिए इतनी सारी चीज़ें. मैं अच्छा कमाता खाता हूँ, लोग मेरी इज्ज़त करते हैं, अ लिटिल ह्युमनिटी...और क्या चाहिए इंसान को. मुझे वाकई सिर्फ इतना ही चाहिए.
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फिल्म देख कर गर्व की अनुभूति होती है. हालाँकि इसे किसी कैटेगरी में नहीं डाल सकते लेकिन मिनिमलिस्ट फिल्म है. इसकी रफ़्तार कभी धीमी तो कभी बहुत तेज़ है. बहुत सारे डायलॉग नहीं हैं पर जो हैं बेहतरीन हैं. फिल्म आपको पासिव ऑब्जर्वर नहीं, अपना हिस्सा बनाती है, अपने द्वन्द, ड्यूअलिटी का हिस्सा. जहाँ आप दोनों पक्ष देखते हैं.

फिल्म देख कर लगता है कि भारतीय सिनेमा एक युग आगे जा चुका है. अपने देश में ऐसी फिल्म बन भी सकती है यकीन नहीं होता. इसके सारे सरोकार भारतीय हैं, कुछ ऐसा जो कहीं और, किसी और देश में नहीं बन सकता था. मालूम नहीं चलता कि फिल्म कहाँ से आपकी अपनी हो जाती है, महज दर्शक होने से...आप फिल्म का हिस्सा हो जाते हैं. फिल्म आज के दौर की है मगर इसके सवाल हर दौर में उतने ही महत्वपूर्ण रहेंगे. फिल्म काल-क्षय से परे है. शिप ऑफ़ थीसियस की तरह, फिल्म के कई पुर्जे उन सारे लोगों में लग गए हैं जिन्होंने इस फिल्म को देखा है. जब तक ये लोग रहेंगे, शिप ऑफ़ थीसियस विस्मृत नहीं होगा.

अगर आपको फिल्में पसंद हैं और शिप ऑफ़ थीसियस आपके शहर में लगी है तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बड़ा पर्दा इन्ही चीज़ों के लिए अस्तित्व में आया है. जिंदगी की सूक्ष्म विशालताओं के लिए.

फिल्म को पांच में से साढ़े पांच स्टार्स.
Rating 5.5 out of 5 stars.

Ship of Theseus - Trailer


12 July, 2013

स्टॉप आई लव यू स्टॉप

i stop love stop you stop | i love you stop

दिल का टेलीग्राम कुछ ऐसे ही जाता है तुम्हें. समझ नहीं आता है कि क्या कहना चाह रही हूँ. दो फॉर्मेट सामने रखे हुए हैं. अख़बार में पढ़ने को आया कि भारत में आखिरी तार १४ जुलाई की रात को दस बजे भेजा जाएगा. कौन सी बात ज्यादा सही है? तुम्हें पूरा आई लव यू बोल कर रोकना है या कि हर लफ्ज़ पर स्टॉप...स्टॉप...स्टॉप... स्टॉप... रुक जाओ कि जान चली जायेगी.

तुम्हें कुछ भी लिखने चलूँ जगह कम पड़ जाती है. याद है वो शुरू के पोस्टकार्ड जो मैंने भेजे थे तुम्हें? उनमें कितना कुछ तो लिखना था मगर सिर्फ इतना ही कह पायी कि दूर देश के इस शहर तुम्हें याद कर रही हूँ. तुम्हें ख़त लिखते हुए अंतर्देशी में कितना छोटा छोटा लिखती थी सब. महीन वाली पेन्सिल से, एक एक लाइन में अनगिन बातें लिखती थी. सादे कागजों पर ख़त लिखती तो पुलिंदा इतना भारी हो जाता कि हर बार पोस्टल डिपार्टमेंट तुमसे एक्स्ट्रा पैसे लेता था.

तुम्हें याद है इजाजत का वो सीन जिसमें माया एक लम्बा टेलीग्राम भेजती है...मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है...

तुम्हारे नाम एक लम्बा टेलीग्राम मेरे पास भी लिखा हुआ है. अब तो कभी तुम्हें भेज नहीं पाउंगी. जानते हो ये इतनी बड़ी चिट्ठी भी आज क्यूँ लिख रही हूँ? क्यूंकि अभी भी चौदह जुलाई में कुछ घंटे बाकी हैं. मरने के पहले आखिरी कुछ घंटों में ऐसे ही तुम्हें पुकारूंगी...तुम दुनिया के किसी कोने से फिर मेरे लिए उड़ते हुए आना. पहुंचना मेरे मरने के पहले. कहना लेकिन सिर्फ ये शुरू के तीन शब्द...आई लव यू स्टॉप

लिखना चाहती थी तुम्हारा पूरा नाम भी...एक एक अक्षर तोड़ कर. कि जैसे पुकारती हूँ तुमको. एक एक सांस में अलग अलग. मैं भेजना चाहती थी मौसमों के हाथ ख़त. मगर जाने दो. जाते हुए टेलीग्राम को एक गुडबाई बोलना तो बनता है न.

सोचो भला...दिल की धड़कनें ऐसी ही होती हैं न...टेलीग्राफ मशीन जैसी...तुम्हें मालूम भी है दिल के मॉर्स कोड में क्या लिखा जाता है. जाने दो...ज्यादा बात करने से प्यार ख़त्म हो जाता है.

स्टॉप आई लव यू स्टॉप 

18 June, 2013

हूमुस रेसिपी विद थोड़ी गप्पें

इस वाली पोस्ट में मेरी खूब सारी तारीफें होंगी...वो भी मेरी खुद के लफ़्ज़ों में :) जो लोग ऐसी किसी बात का समर्थन नहीं करते हैं ये वाली पोस्ट नहीं पढ़ें :)
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आज मैंने हूमुस बनाया. मुझे समझ नहीं आता है कि सितारों और ग्रहों की ऐसी कौन सी दशा होती है जब मेरा कुछ बनाने का मन करता है. वो भी तब जब कुणाल घर पर नहीं हो. वो रहता है तो फिर भी उसकी पसंद का कुछ बनाना अच्छा लगता है. हूमुस से मेरा परिचय ज्यादा पुराना नहीं है. पिछले साल किसी वक़्त खाया था पहली बार. ऑफिस में कोई ले कर आई थी...उसकी मम्मी ने बनाया था. मुझे अपने इन्डियन खाने के अलावा खुराफाती चीज़ें बहुत पसंद हैं. कुणाल हमको चिढ़ायेगा कि हूमुस चना दाल का चटनी जैसा ही लगता है, ब्लैंड है, कोई टेस्ट नहीं है वगैरा वगैरा लेकिन अगर मैं लेकर आउंगी तो खूब सारा खा भी जाएगा.

अच्छा हूमुस खोजना बहुत मुश्किल का काम है...उसपर कहीं भी आर्डर करो तो चिप्स, ब्रेड सब कुछ बहुत सा देंगे लेकिन हूमुस इतना थोड़ा सा देंगे कि वाकई चटनी जैसा ही खाना पड़ता है थोड़ा थोड़ा लगा कर. तो हम एकदम परेशान हो गए कि हो न हो हम हूमुस खुद से पढ़ के बनायेंगे. दुनिया के रेस्टोरेंट का हूमुस  go to the भाड़. काबुली चना कल रात को फुला दिए थे. पिछली बार भी ऐसी ही बनाने का बुखार चढ़ा था तो तिल भी ला के रख लिए थे. सुबह का चना बॉईल करके रखा था. जरूरत थी सिर्फ निम्बू की, तो वो याद से ले लिए. जब तक ऑफिस से आये, लेट हो गया था वरना मेरा खाखरा के साथ हूमुस खाने का मन था. खैर, ब्रेड खरीद लिए.

घर आके चिंतन मनन कर ही रहे थे कि आज हूमुस बना ही डालते हैं कि लाईट चला गया वो भी ट्रांसफोर्मर उड़ने का जोर का आवाज़ जैसा. बस हम माथा पकड़ लिए कि गया मेरा हूमुस भाड़ में. बिजली लेकिन थोड़ी देर में आ गयी. पहला काम था आईफ़ोन पर गाना लगाना. हमको किचन में आज भी सोनू निगम का दीवाना और जान सुनना अच्छा लगता है. इन्टरनेट पर घंटा भर पढ़ के रेसिपी निकाले...कमसे कम पचास ठो रेसिपी खोल रखे होंगे टैब में. खूब सारा पढ़ लिख कर गैस पर कड़ाही चढ़ाये. हूमुस बनाने के पहले बनाना था तहिनी. लिखा हुआ था कि तिल को खाली हल्का सा टोस्ट करने, भूरा नहीं करने. भुनी हुयी खुशबू आने लगी तो गैस से उतारे. उसमें से छोटे कंकड़ वगैरह चुने. चुनते हुए दादी की याद आई, सूप में चूड़ा फटकने की. लगा कि चीज़ें कैसे खो जाया करती हैं. तहिनी के लिए तिल को ओलिव आयल के साथ मिक्सी में चला दिए. अंदाज़े से इतना तेल डालना था कि थोड़ा पतला सा पेस्ट जैसा बन जाए.

हमको अचानक से याद आया कि हूमुस बहुत कॉमन चीज़ नहीं है...हूमुस एक मिडिल ईस्ट की रेसिपी है, जैसे चीज़ डिप होता है, वैसे ही चिप्स या फिर पिटा ब्रेड के साथ खाने के लिए. इसे ब्रेड में या सैंडविच में स्प्रेड की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं. बेसिकली कहीं पर भी चटनी जैसा भी यूज कर सकते हैं. हमको बहुत बहुत पसंद है.

हूमुस के लिए जरूरत होता है तहिनी, उबला हुआ काबुली चना, निम्बू, लहसुन, जीरा पाउडर, नमक और ओलिव आयल. विदेशों में अधिकतर लोग कैन में आया हुआ काबुली चना इस्तेमाल करते हैं. काबुली चना को छोला से थोड़ा सा ज्यादा बॉईल करना था कि उँगलियों के बीच मैश हो जाए.

मिक्सी से लगभग आधा ताहिनी बाहर निकाले और फिर उसमें दो कप उबला काबुली चना डाले, फिर एक निम्बू का रस, पांच सात लहसुन का कली, अंदाज़े से नमक, थोड़ा जीरा पावडर और थोड़ा ओलिव आयल डाले. इस सबको चलाये...थोड़ा सा पानी डाले और थोड़ा थोड़ा करके मिक्सी चलाते रहे. नेट पर पढ़े थे कि अच्छे हूमुस के लिए फ़ूड प्रोसेसर को देर तक चलने दें. थोड़ा देर बार मिक्सी खोले और खा के देखे, लाजवाब हूमुस तैयार था. हूमुस को कटोरी में निकाल कर ऊपर से ओलिव आयल डाले, जीरा पाउडर और लाल मिर्च भी बुर्के. फिर कैमरा से फोटो खींचे.

इतने में रात के डेढ़ बज गए थे. अब बहुत खुश होकर सोचे कि ब्रेड टोस्ट कर लें तो याद आया कि ब्रेड जो लाये थे वो बाईक की डिक्की में भूल गए हैं. अपनाप को लाख गरियाये कि एक काम ढंग से नहीं होता हमारा. रात को थोड़ा सा डर भी लगता है. मगर इतना मेहनत से बनाया हुआ इतना सुन्दर हूमुस कैसे नहीं खाते तो झख मार के गए चार फ्लोर नीचे. ब्रेड लाये, टोस्ट किये. फोटो खींचे, कुणाल को भेजे और फिर चैन से खाए. यूँ पढने में रेसिपी बहुत आसान लगता है पर जिसने कभी नहीं बनायी है उसके हिसाब से अंदाज़ा करना थोड़ा मुश्किल है. हम जब मूड में आ जाते हैं तो कुछ भी कर गुज़रते हैं.

रिकैप: हूमुस
बनाने का समय: लगभग आधा घंटा(पहली बार के लिए, फिर जैसे जैसे आप एक्सपर्ट होते जायेंगे, धनिया पत्ता की चटनी पीसने में जितना समय लगता है, उतना ही लगेगा)

सामग्री: लगभग ३/४ कटोरी काबुली चना
१ कटोरी तिल या फिर १/२ कटोरी तहिनी(रेडीमेड)
१ निम्बू का रस
५-५ लहसुन की कलियाँ
एक चुटकी जीरा पाउडर
नमक अंदाज से (आधा टीस्पून)
१ कटोरी ओलिव आयल

पहले काबुली चना को भिगो लीजिये पूरी रात. फिर तीन चार पानी में धो कर उबाल लीजिये. प्रेशर कुकर में लगभग १०-१० मिनट प्रेशर आने के बाद.

तहिनी बनाने के लिए एक कप तिल को गैस पर भून लीजिये. जब हलकी खुशबू आने लगे, गैस बंद कर दीजिये, देर करने से तिल भूरे हो जायेंगे और स्वाद बदल जाएगा. इसको मिक्सी में लगभग आधी कटोरी ओलिव आयल के साथ मिक्सी में पीस लीजिये. तहिनी तैयार है. इसे फ्रिज में एयर टाईट कंटेनर में एक हफ्ते तक रख सकते हैं. तहिनी की बहुत सी रेसिपीज होती हैं. तहिनी सुपरमार्केट में रेडीमेड भी मिलता है. (वैसे रेडीमेड तो हूमुस भी मिलता है ;) )

हूमुस के लिए पहले मिक्सी में १/२ कटोरी तहिनी डालें, निम्बू का रस और लहसुन डाल कर एक राउंड चला लें. सब थोड़ा थोड़ा मिक्स हो जाएगा. अब इसमें काबुली चना जीरा पाउडर, नमक और थोड़ा सा ओलिव आयल डालें. इसे एक राउंड चला लें. ये एकदम गाढ़ा होगा, इसमें अंदाज़ से थोड़ा पानी डालें और मिक्सी चला दें. तीन चार राउंड चलाने के बाद कंसिस्टेंसी चेक करें. ये एकदम हल्का हो जाता है.

चिप्स या सलाद के साथ खाएं :) या ब्रेड पर. जब भी हूमुस बनाने या खाने का मन करे तो सोचिये...अगर पूजा बना सकती है तो वाकई दुनिया का कोई भी शख्स बना सकता है :) हैप्पी ईटिंग. 

10 June, 2013

Happy Birthday Gorgeous :)

तीस की उम्र में बहुत सी चीज़ों में समझदारी आ जाती है. ये दुनिया वैसी नहीं है जैसी सोचा करती थी...चीज़ें उतनी सिंपल नहीं हैं और रिश्तों में बहुत सी पेचीदगी है...इश्क अभी भी समझ से बाहर है. हम जैसा अपना आने वाला कल सोचते हैं...कल वाकई वैसा नहीं होता कुछ अलग ही होता है. बहुत कुछ ऐसा खोया जिसके बिना जिंदगी अधूरी है तो बहुत कुछ पाया भी जिसके पाने की कल्पना नहीं की थी. 

बहुत सालों के बाद बर्थडे में पटना में हूँ, पापा और जिमी के साथ...उतने ही साल बाद कुणाल के बगैर हूँ... इस बार पहली बार मायके में हूँ तो महसूस किया कि कितना बड़ा परिवार है उधर और कितने सारे लोग कितना सारा प्यार करते हैं मुझे. कभी कभी चीज़ों को महसूस करने के लिए उनसे दूर जाना पड़ता है. रात को देर तक फोन बजता रहा...सुबह भी अनगिन फोन आये. 

थर्टी इज द बेस्ट टाइम इन लाइफ. 

जिंदगी में बहुत सारी चीज़ों के प्रति निश्चिन्तता आ जाती है. इसी बात से कई बार डर भी लगता है हालाँकि, लेकिन फिर लगता है कि नहीं...प्यास अभी बाकी है...बंजारामिजाजी ने रिजाइन नहीं किया है पोस्ट पर से. 

पापा से घूमने के बारे में बात कर रही थी, इस साल पापा को घूमने जाना है...तो मैं घुमक्कड़ी के अपने किस्से सुना रही थी...कि अब कुणाल और जिमी को तो काम है पापा...ऑफिस है, एक काम करते हैं हम और आप निकल जाते हैं घूमने. मेरे ख्याल से मेरा घुमक्कड़ी का 'जीन' पापा की तरफ से आया है. पता नहीं क्या प्रोग्राम बनेगा पर पापा के साथ योरोप का टूर...अल्टीमेट होगा. 

इस बर्थडे पर बहुत दिन से बहुत सारा कुछ लिखने का मन था...लेकिन दिल भरा भरा सा है...कुछ खास लिखने का मन नहीं है. कल शाम को गंगा आरती देखने गयी थी...गंगा किनारे नाव पर बैठ कर बहुत दूर का चक्कर लगाया...लकड़ी की उस नाव पर बैठे अनगिन तसवीरें उतारीं. गंगा का पानी हमेशा की तरह था...निर्विकार... मन में कहीं हिमालय पर भाग जाने की ख्वाहिश को बोता हुआ. आरती करते हुए पंडितों के चेहरे पर अजीब तेज था...जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हों...तप्त...आभा में दमकते हुए. धूप, अगरबत्ती, शंख...बहुत सारा मंत्रोच्चार. 
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नाव का किराया ३० रुपये था. नाव में अधिकतर लड़के थे...हर उम्र के लड़के...मैं उनके बारे में कितना कुछ सोचती रही. जाने किसी गरीब लड़के का भी कैसे तो ख्याल आया या कि छुट्टियों में घर आये किसी लड़के का जिसने आने के पहले सोचा न हो कि ऐसी कोई चीज़ देखने को मिल जायेगी. हर रोज़ ३० रुपये जुगाड़ने की मशक्कत करनी पड़े. मुझे मालूम नहीं मुझे ऐसा ख्याल क्यूँ आया मगर उन अनजाने चेहरों में कोई अजीब किस्म का अपनापन था. जैसे मेरे घर, मोहल्ले, गाँव के लड़के हों. कि जैसे गंगा आरती देखने वाले लड़के कोई अपराध नहीं कर सकते. कि उनके मन में कोई गंगा ऐसी ही बहती होगी...गंगाजल कभी भी ख़राब नहीं होता, सालों साल बाद भी. एक कहानी भी उभरी मन में...कि गंगा किनारे किसी से मिलने आना कैसा होता होगा. कुछ नहीं बस बरसात के मौसम में मिलने आना कि जब गंगा पटना के घाट तक आ जाती हो. किसी नाव पर पाँव लटकाये बैठे रहे...क्या क्या किस्से सुनाते रहे. कि लगा कि कितनी सारी कहानियां सुनाना चाहती है गंगा. हिलोरे मारती लहरें...कि डूब कर किया जाता है प्यार. कि शाम को आरती के बाद बहा देना चाहिए कोई नाम पत्ते के दोने पर रख कर दिए की लौ में...कि गंगा किनारे आ कर मन का कितना सारा रीता कोना भरने लगता है. कि किसी के जाने के बाद भी उन जगहों पर रह जाता है सोच का कतरा...कि किसी समय गंगा में मेरे नाम की मन्नतें किसी ने बहायीं होंगी. 
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बहुत कुछ उलझा हुआ है जिंदगी में मगर कहीं एक यकीन है कि सुलझा लूंगी. घर पर इतने सारे लोग हैं...इतने अच्छे दोस्त...और मेरा कुणाल :) इतने में बहुत कुछ किया जा सकता है...बनाया जा सकता है...रचा जा सकता है. 

अच्छा अच्छा सा लग रहा है. और ये वाला कोट...बहुत दिनों से रखा था देख कर...आज टांग देती हूँ...कि हमेशा याद रहे...




You can be gorgeous at thirty, charming at forty, and irresistible for the rest of your life.
-Coco Chanel

And on that note...happy birthday Gorgeous 

16 May, 2013

मकबरे के दोनों बुत एक दूसरे का चेहरा देखते सोये थे


वो बहुत जोर से इस बात पर चौंका था कि मैंने कभी कोठा नहीं देखा था...किसी तरह का चकला, कोई बाईजी का घर नहीं. मैं इस बात पर परेशान हुयी थी कि उसने क्यों सोचा कि मैंने कोठा देखा होगा...शायद उसे मेरी उत्सुकता और मेरे पागलपन से कुछ ज्यादा ही उम्मीद थी. मुझे याद है मैंने हँसते हुए कहा था...कोठे में मेरे लिए क्या होगा...मैं तो लड़की हूँ. इस बात पर हद गुस्सा हुआ था मुझपर...बेवक़ूफ़ लड़की...मैं तुम्हारे लड़की होने की नहीं, लेखक होने की बात कर रहा हूँ...तुम लिखती हो फिर भी कभी तुमने देखने की जरूरत नहीं समझी...देश, विदेश इतनी जगह घूमी हो, कभी नहीं...चलो इस बार मेरे शहर आना, मैं तुम्हें ले जाऊँगा कोठा दिखाने. 

लोग प्यार में ताजमहल दिखाने की बात करते हैं...ये मैं किससे प्यार कर बैठी थी इस बार...और उसे किस कमबख्त से प्यार हो गया था. हम तकलीफों के तोहफे देते थे एक दूसरे को...हमारा हर दर्द दुगुना होता था, एक अपने लिए और एक उसके हिस्से का दर्द भी तो जीते थे हम. एक पुरानी मज़ार थी शहर के किन्ही उजड़ चुके हिस्से में. बेहद पुरानी ईटें और उनमें खुदे हुए कैसे कैसे तो नाम...हमारा पसंदीदा शगल था कहानियां बुनना. साल के किसी हिस्से हमें वहां जाने की फुर्सत मिलती थी...हम किसी ईंट पर लिखे नामों को लेते और उन किस्सों को, उन किरदारों को बुनते रहते...मैं लड़के का किरदार बनाती, वो लड़की का...हम अक्सर इस बात पर भी लड़ते कि जो नाम लिखे हैं वो लड़के ने लिखे हैं कि लड़की ने...ऐसा कम ही होता कि नाम दो हैण्डराईटिंग में होते. 

मेरी अपनी जिंदगी थी...उसका अपना काम...अपना परिवार जिसमें एक माँ, दो कुत्ते, एक पैराकीट और अक्वेरियम की बहुत सी मछलियाँ शामिल थीं. दोनों का काम ऐसा था कि हम शहर में होते ही नहीं. वो एक स्पोर्ट्स फोटोग्राफर था मैं एक इंडिपेंडेंट डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर. उसे रफ़्तार पसंद थी...मेरे पास अजीब आंकड़े लेकर आया करता था...जितने देश गया वहां के चकलाघरों के किस्से ले कर लौटा...मुझे बताता था कि औसत कितना वक़्त लगता है एक लड़की को एक ग्राहक निपटाने में...किस देश की वेश्याएं सबसे ज्यादा टाइम-इफिशियेंट हैं. जिन देशों में वेश्यावृत्ति लीगल है वहां की औरतों और यहाँ की औरतों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. वो मुझे कितनों के किस्से सुनाता, उनके नाम...उनकी तसवीरें...उनकी कहानियां. तुम्हारे जाने से उनका कितना वक़्त ख़राब होता है तुम्हें मालूम है? उनका कितना नुक्सान कर देते हो तुम. मगर उसे सनक थी...दिन को जाता और उनके लिए ख़ास फोटो-शूट रखता. मैं उसका एल्बम देखते हुए सोचती जिस्म पर इतने निशान हैं तो आत्मा पर जाने कितने होते होंगे. उनमें अधिकतर ड्रग लेती हैं. अपने जिस्म से भाग कर तो नहीं जाया जा सकता है कभी. 

फिर वैसे भी दिन होते जब हम कोई तितलियों सी रंग-बिरंगी कहानी रचते, मगर उसे मेरी कहानियों के अंत पसंद नहीं आते...वो कहता जिंदगी में कभी हैप्पी एंडिंग नहीं होती, ऐसा सिर्फ फिल्मों में होता है. उसके जाने के बाद मुझे उसकी कही कोई बात याद नहीं रहती. कई बार तो यकीन नहीं होता था कि मैं वाकई उससे मिली भी थी. उसकी याद लेकिन हर जगह साथ चलती थी. यूँ याद करने को था ही क्या...एक उसकी आँखों और एक वो लम्हा जब हम जाने किसकी तो बात करते ऐसे उदास और तनहा हो गए थे कि लग रहा था पूरा मकबरा मेरे ऊपर गिर पड़ेगा...उसने कहा था 'यू नीड अ हग' और मुझे अपनी बांहों में समेट लिया था. मैंने उस लम्हे को रेजगारी वाले पॉकेट में डाल दिया था. मैंने कितने शहरों में उस लम्हे को खोल कर देखा...कितने लोगों के साथ उस लम्हे को साझा किया मगर उसका जादू कहीं नहीं जाता. 

इस साल हमें एक दूसरे से मिलते हुए दस साल हो जायेंगे...यूँ हमारे बीच रिश्ता कुछ नहीं है सिवाए इस यकीन के कि हम अगर एक शहर में हैं तो एक फोन कॉल की दूरी पर हैं, एक देश में हैं तो एक सरप्राइज की दूरी पर हैं और अगर इस दुनिया में हैं तो एक विस्की ग्लास की दूरी पर हैं...किसी लम्हे...किसी शहर...किसी देश...हम अपने लिए एक ऑन द रॉक्स बनाते हैं तो आसमान की ओर उठा कर कहते हैं...जानेमन...आई लव यू.
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ताजमहल को देखता हुआ शाहजहाँ क्या सोचता होगा? किसी की याद में पत्थर हो जाना भी कुछ होता है क्या? पुराने किले से चलती हवा में किसका नाम आता है? उसके नाम के बाद मेरा नाम लिख दो तो कैसा लगेगा देखने में? उसका नाम कैसे भूल जाती हूँ मैं हर बार...मज़ार पर भटका हुआ, दिया जलाने हो हर शाम आता है, सफ़ेद बाल और लम्बी दाढ़ी वाला, कमर से झुका लाठी के बल पर चलता बूढ़ा...नाम क्या है उसका...और मेरी कहानी में ये कौन सा किरदार आ गया...ऐसे हो नहीं ख़त्म होनी थी कहानी...सब ख़त्म होने के समय जो कहानी शुरू होती है...वो कब ख़त्म होती है? तुम्हारे शहर में मेरे नाम से कोई मकबरा है? नहीं...तो मेरे मरने का इंतज़ार कर रहे हो मकबरा बनवाने के लिए...अच्छा, क्या कहा...तुम मुझसे प्यार ही नहीं करते...यु मीन मेरे मर जाने के बाद मुझसे प्यार नहीं करोगे...ओफ्फो...कहानी ख़त्म हुयी...ये ट्रेलर ख़त्म करो मेरी जान. 

दी एंड...

(btw, you know I hate the three dots)

15 May, 2013

जंकयार्ड डायरीज

तुम कोई उदास कविता नहीं हो कि तुम्हारे खो जाने पर आंसू बहाए जाएँ...तुम तो जिंदगी का रस हो, राग हो, नृत्य हो...तुम्हारे होने से धूप निकलती है...तुम पास होते हो तो जैसे सब कुछ थिरक उठता है...अब किसी दिन ऐसी ही कोई धुन गुनगुनाते आओगे कि पाँव रुक नहीं पायेंगे तो मैं क्या करूंगी बताओ...फिर कभी कभी सोचती हूँ बड़ी खूबसूरत चीज़...सोलह साल की लड़की होती है तो सोचती है...क्या वो मुझसे प्यार करता है...नहीं करता है...कुछ भी महसूस करता है मेरे लिए...मगर ३० की उम्र पहुँचने पर ऐसी छोटी चीज़ों में वक़्त जाया नहीं करते, इसलिए मैं तुम्हें कह सकती हूँ...डांस विद मी...मुझे जो चाहिए उसके बारे में अब दुआएं नहीं करती...तुमसे पूछ सकती हूँ और अगर तुम ना कह दो तो मैं उस लम्हे को वहीँ बिसार कर आगे बढ़ जाउंगी. मेरी फितरत नदी के विपरीत सी होती जा रही है. पहले तो समंदर के पास की नदी जैसा कुछ ठहराव था मगर अब पहाड़ी नदी जैसा बाँध तोड़ता बहाव है. मैं रुक नहीं सकती...ठहर नहीं सकती...मुझसे प्यार है तो मेरे साथ बह जाओ वरना नदी किनारे अनेक सभ्यताओं के बसने के निशान हैं...तुम भी किसी विस्मृत सभ्यता जैसे हो जाओगे जिसका बचा हुआ टुकड़ा टुकड़ा मिलेगा, पूरा कुछ कभी नहीं हो पायेगा...वो शब्द जो तुमने मुझसे कहे ही नहीं कोई ऐसी लिपि हो जायेगी जिसे सुलझाते पुरातत्त्वेत्ता उम्र गुज़ार देंगे.

जब हमें बहुत सी बात छुपानी होती है तो या तो हम बहुत चुप हो जाते हैं या बहुत बोलते हैं...इतनी सारी बातों में वो बात भी खो जाती है जो हम कहना चाहते तो हैं मगर सिर्फ एक उस बात को कहने में डरते हैं. आई लव यू ऐसी ही कोई शय है...दुनिया जहान की बातें करते हुए...फिल्मों पर बहस करते हुए...तुम्हारे पसंदीदा लेखक की कोई कविता पढ़ते हुए कहोगे मुझसे...मैं जानती हूँ...वैसे ये शब्द हैं भी काफी खतरनाक, इन्हें बाकी शब्दों के ककून में ही लपेट कर रखना चाहिए. बिना दस्ताने की उँगलियों से छू लो तो फ्रॉस्टबाईट हो सकता है. अगली बार मेरे गले लगो तो गौर से महसूस करना...मेरे गुडबाय में आई लव यू की खुशबू आती है. तुमने यूँ तो बहुत विदा के गीत सुने होंगे...आजकल किस गीत से गुज़र रहे हो? वो लैम्पशेड याद है जो हमने मिल कर बनाया था? हर रंग के रिबन में लपेट कर कांच की चूड़ियों संग...ड्रीम कैचर जैसा दिखता वो लैम्पशेड तुम्हारे ख्वाबों को रोशनी से भरता है क्या?

तुम्हारा प्यार किसी सोलर लैम्प जैसा है...जब तुम होते हो तो तुम्हारी मुस्कुराहटें सहेज कर रख देता है...बारिशों वाले दिन के लिए और जैसा कि बैंगलोर का मौसम है, इस लैम्प की अक्सर जरूरत पड़ती है. फिर इस मुस्कुराते उजाले में मैं शैडो डांस करती रहती हूँ...मेरी परछाई मुझसे कहीं ज्यादा डार्क और मिस्टीरियस है...कई बार तो मुझे अपनी परछाई खुद से ज्यादा अच्छी लगती है. 

सोच रही थी कि लोगों को कभी चीज़ों से नहीं जोड़ना चाहिए...लोग चले जाते हैं पर वो इनऐनीमेट चीज़ें कतरा कतरा जान लेती रहती हैं. मैं उन सारी चीज़ों से दूर नहीं भाग सकती जो तुम्हारे साथ रहते हुए मुझे अच्छी लगती थीं. वाईट लिली...वाईट चोकोलेट...वाईट फॉक्स मिंट...वाईट अल्ट्रा माइल्ड सिगरेटें...मेरी वाईट शर्ट...कमरे में आता सफ़ेद धूप का संगमरमर के सफ़ेद फर्श पर गिरता पहला टुकड़ा. तुम सफ़ेद रंग हो...तुमसे सारे रंग की रोशनियाँ निकलती हैं. 

खैर जाने दो...ऐवें ही कुछ कुछ लिखने का मन कर रहा था...बहुत सारा वर्कलोड होता है तो दिमाग में कुछ शब्द फँस जाते हैं...इन्हें लिखना जरूरी होता है वरना कुछ नया लिखने में दिक्कत होती है. जंकयार्ड डायरीज... ऐसा ही कुछ लिखने के लिए होती हैं. कल कोई तो कहानी लिखने का मन कर रहा था...फिर कभी...आज फिर ऑफिस को देर हो जायेगी...लिखेंगे बाकी वाकया ऐसे ही. आजकल लिखना प्यार की तरह हो गया है...भागते दौड़ते, दो मिनट निकाल कर लिखते हैं...बहरहाल...ओके...टाटा...लव यू...बाय. 

13 May, 2013

तुम सी बस एक है मेरी जान, तोश्का

मैं उसका नाम तोश्का नहीं रखना चाहती थी...कि इस नाम में बहुत सारी उदासी थी...लेकिन मुझे मालूम ही नहीं चला कब एक शब्द से उठ कर वो एक जीती जागती जिद्दी लड़की बन गयी...रशियन...नीली आँखों और दो सुनहली चोटियों वाली लड़की को ऐसा कौन सा गम था कि मेरी जान खा गयी कि मेरी कहानी लिखो.

पहली बार इस शब्द के सामने पड़ी थी तो लगा था कि ये मेरा नाम होना था...तोस्का...लेकिन दन्त स में वो बाद नहीं आती जो तालव्य श में आती है. श से कशिश आती है, कुछ मेरे पसंदीदा शब्दों में श होता है...इश्क, रश्क, अश्क, खानाबदोश, तलाश, पलाश...जाने और कितने सारे. स से श हो जाना कुछ वैसे था जैसे आप किसी के प्यार में होते हैं तो उस नाम को एक ख़ास लहज़े में पुकारते हैं...नाम वही होता है मगर महबूब के होटों पर अजीब से नशे में लिया हुआ लगता है. दरअसल आप सिर्फ उसका नाम नहीं लेते हैं...हर बार उसका नाम लेते हुए अपना एक हिस्सा जोड़ देते हैं उसमें...जैसे मैंने उसका नाम पुकारते हुए 'इश्श्श' सा कुछ कहा. सबसे छुपा के उसका नाम लिखा जैसे...चुपचाप जैसे चिरमिरा के फूलों में छिपी हुयी तितली.

उस रोज़ आसमान सियाही हो गया था और मेरी कहानी लिखने को जरा भी रौशनी नहीं बची थी. हवा ने खुद को वैसे रोक रखा था जैसे तुम्हारे आने पर मैं अपनी तेज़ होती साँसों को रोक के रखती हूँ. समंदर के पास का मौसम था कोई...बेहद गर्म और उमस से भरा हुआ. मेरे आसपास की चीज़ों में कोई कलात्मकता नहीं थी...वे इस मशीनी युग की बनी चीज़ें थीं जिन्हें कभी किसी कामगार ने हाथ भी नहीं लगाया था. उनमें कोई आत्मा नहीं थी. मुझे तुम्हारे लिखे प्रेमपत्र याद आ रहे थे, मुझे वो वक़्त भी याद आ रहा था जब खेलते हुए पहली बार तुमने धूल में अपना और मेरा नाम एक साथ लिखा था.

मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि तोश्का ने जब लिखना सीखा था तो उसने अक्षर नहीं सीखे थे...उसने सबसे पहले तुम्हारा नाम लिखना सीखा था. फिर एक वाक्य कि वो तुमसे प्यार करती है...इतने के बाद उसने खुद को जानने की कोशिश की होगी. तोश्का वैसी लड़की है जिसने आइना शायद कभी देखने की जरूरत ही नहीं समझी. तुम मेरे आसपास कहीं रहते जहाँ मैं रोज़ तुम्हें देख सकती तो मैं भी आइना नहीं देखना चाहती कभी. मगर होता ऐसा है कि तोश्का को हर उस चीज़ से प्यार होने लगता है जिससे तुम्हें प्यार है और इस सिलसिले में वो खुद को जानने की कोशिश करती है.

तोश्का बंजारन है...उसे जमीन से नहीं सफ़र से प्यार है. नदियाँ भी प्यासी होती हैं न...वैसी है तोश्का...प्यास का सान्द्र रूप...नदी का सान्द्र रूप...वो हवा को चूम लेती है तो शहर के लोग दीवाने हो जाते हैं. तोश्का...समंदर किनारे चलती जाती है...उसकी घेरदार स्कर्ट भीगती है तो तोश्का का गीत समंदर की सीपियों में परत दर परत जमा होने लगता है. हथेलियों में एक अंजुरी भर पानी आसमान की ओर उछालती है तो दूर हिमालय के सीने में बसे शहरों में मीठे पानी की बरसातें होती हैं.

तोश्का...एक बरसातों के पहले उगने वाली लड़की है, जब आसमान बिलकुल सियाह हो जाता है तो  इसी सीली गहरी उदासी से खुद को रचती है वो. उसकी आँखों में कितने सूरज डूब जाते हैं मगर वो ग्रहण के बाद के चाँद जितनी रौशनी भी नहीं मांगती है. उसकी पसंद का संगीत रचने के लिए इश्वर को वाद्ययंत्र उठाना पड़ता है...कभी पियानो, कभी गिटार कभी जलतरंग.

तोश्का को इश्क से प्यार हो गया है...मेरी कहानियों के इश्क से...थोड़ा जिद्दी, थोड़ा पागल...हद दर्जे का मनमौजी... बदतमीज...दुष्ट...मैंने तो उन्हें मिलाया भी नहीं था मगर किस्मत भी कोई शय है. अब मैं उस रोज़ से डरती हूँ जब इश्क मेरी प्यारी तोश्का का दिल तोड़ देगा और मुझे उसे सम्हालना होगा. मैं तोश्का को बता तो नहीं सकती न कि इस कमबख्त, नामुराद इश्क से मुझे भी प्यार हो रखा है और क्यूँ न होता...मैंने उसे अपने लिए ही तो रचा था...मगर वो एक नंबर का दिलफेंक आशिक निकला. मेरी लिखी सारी कहानियों में जबरन अपना रोल लिखवा लेता है.

बहरहाल, तोश्का मेरी जान...मेरी दुआएं तेरे साथ...और या खुदा...मेरे हिस्से की दुआएं लिखने के लिए किसी को अलॉट कर!

12 May, 2013

तुम्हें इजाजत है


वो मुझे ऐसे गले लगाता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ...जरा से जोर से टूट जाउंगी...बिखर जाउंगी किरिच किरिच. जितने से मेरी जान चली जाए, उससे बस एक लम्हा ज्यादा रखता है अपनी बांहों में. ऐसा क्यूँ महसूस होता है कि उसने मेरी रूह को छू लिया है? ठीक उस लम्हे, मैं जानती हूँ...मुझे उसे जाने की इजाज़त दे देनी चाहिए.

पहले मुझे लगता था उसके आने का नियत मौसम है. वो हर साल नवम्बर से दिसंबर के बीच कभी आएगा. मगर वो बैंगलोर की बारिश की तरह मूडी होता चला गया है. अब उसके आने का कोई नियत वक़्त नहीं है. हमेशा बिना किसी नोटिस के आता है. ये नहीं कि आने के पहले कोई हिंट दे दे कि मैं तैयार रहूँ...वैसे में चोट ऐसे तो नहीं लगेगी. ऑफिस में काम कर रही हूँ या किसी मीटिंग में हूँ...बात करते करते देखती हूँ तो जिंदगी का फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस गड़बड़ा जाता है, ऐसे उसने आने को प्रोसेस नहीं कर पाती है आँखें. दिल पे हाथ रख कर इतना ही कह पाती हूँ...तुम मेरी जान ले लोगे किसी दिन, कसम से.

कभी किसी बहुत बारिशों वाले डिप्रेशन के दिन इस गुलमोहरों वाले शहर में टहलने निकली होती हूँ...एक मिलीजुली गंध होती है...मिट्टी में गिरे फूलों की पंखुड़ियों की. ऐसे में सिगरेट के लम्बे कश खींचती हूँ...कहीं अपनी साँसों को वैलिडेट करती हुयी. लगता है जैसे सांस ली नहीं जा रही तो उस खालीपन को सिगरेट के धुएं से रंगती हूँ...फिर हर सांस महसूस होती है. मेरी पसंदीदा चीज़ों में बारिश रुक जाने के बाद की सिगरेट है. यूँ भी मुझे सिगरेट पीते हुए किसी की कंपनी पसंद नहीं है. तो जब हवा में बेतरह नमी होती है...मूड कुछ अनसुलझा होता है तो मैं कहीं बाहर होती हूँ...ऐसे में उसकी तलाशती नजरें मिलती हैं...सिगरेट के धुएं के उस पार...और वो मुझे देखते ही बाँहें खोल देता है...मैं चाहती हूँ कि अहतियात से उससे गले मिलूं...कि उँगलियों में सिगरेट फँसी हुयी है...कि सीने में सांस अटकी हुयी है...कि दिल की धड़कन...बारिश के बाद किसी पेड़ की डाली को पकड़ कर हिला दो तो पत्तों पर अटकी सारी बूँदें बौछार की तरह गिरेंगी...वैसे ही भीगती हूँ मैं ... अचानक ... सराबोर.

'माय सनशाइन, खुश हो मेरे मौसमों का रंग बदल कर?'. सिगरेट बुझा दी है मैंने. उसके होते हुए मुझे हमेशा यकीन होता है कि मैं हूँ. उसके साथ चलने से कितनी कैलोरीज बर्न होती होगी सोचती हूँ...दिल इतनी तेज़ तो आधे घंटे की जॉगिंग के बाद धड़कता है. साथ चलते हुए तकलीफ ये है कि मैं उसका चेहरा नहीं देख पाती हूँ...मैं किसी जगह उसके साथ थोड़ा वक़्त बिताना चाहती हूँ जहाँ मैं उसे देख सकूं...वो किसी धूमकेतु की तरह है...इतने कम वक़्त के लिए दिखा है कि उसका चेहरा ठीक से याद नहीं लेकिन हर बार जब वो दिखा है मेरी पूरी दुनिया टॉप्सी टरवी कर गया है. वो चुटकी बजाता है और सितारे घबरा कर उसे जगह दे देते हैं...मेरा हाथ अपने हाथ में लेता है तो लकीरें उसकी मन मुताबिक बदल जाती हैं.

मैं उसको लेकर पजेसिव नहीं हूँ. पूछती हूँ उससे कि अब मेरी उम्र हुयी...उसके लिए तो दुनिया की सारी सोलह साला लड़कियां पलकें बिछा कर इंतज़ार कर रही हैं, वो मेरे लिए फुर्सत कैसे निकालता है...क्यूँ निकालता है...इश्क कुछ कहता नहीं...उसकी मुस्कुराहटों में बहुत से राज़ छुपे हैं...मैं देखती हूँ उसे, एक पूरी नज़र...इस साल्ट-पेपर हेयर पर कितनी लड़कियां फ़िदा होती होंगी...उम्र हो गयी है अब उसकी भी. कहीं न कहीं दर्द की एक बारीक रेखा भी दिखती है उसकी आँखों के इर्द गिर्द. मैं उसका हाथ अपने हाथों में लेती हूँ...मैं जानती हूँ. उसकी कद्र अब पहले जैसी नहीं रही. आजकल कितने तरह का गुबार लोग इश्क पर निकालते हैं. दिल टूटने पर भी मैंने इश्क को कभी बुरा-भला नहीं कहा बल्कि हम पुराने दोस्तों की तरह हर हार्ट ब्रेक के बाद साथ ड्रिंक पर चल देते थे. मैंने जब उसके होने की दुआ मांगी थी तभी उसने वादा किया था कि वो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा.

वो बहुत अहतियात से मुझे बरतता है क्यूंकि उसे मालूम है उसके आने से मुझे बेहद तकलीफ होने वाली है...वो बड़े अहतियात से जहर का प्याला मेरी ओर बढ़ाता है. विस्की में घुला धीमा जहर. उसके रहते हुए रगों में घुलना शुरू करता है. मैं इश्क की ओर हाथ बढ़ाती हूँ...

वो मुझे ऐसे गले लगाता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ...जरा से जोर से टूट जाउंगी...बिखर जाउंगी किरिच किरिच. जितने से मेरी जान चली जाए, उससे बस एक लम्हा ज्यादा रखता है अपनी बांहों में. ऐसा क्यूँ महसूस होता है कि उसने मेरी रूह को छू लिया है? ठीक उस लम्हे, मैं जानती हूँ...मुझे उसे जाने की इजाज़त दे देनी चाहिए.

10 May, 2013

जरा सा पास, बहुत सा दूर

इससे तो बेहतर होता कि वे एक दूसरे से हजारों मील दूर रहते. ऐसे में कम से कम झूठी उम्मीदें तो नहीं पनपतीं, हर बारिश के बाद उसको देखने की ख्वाहिश तो नहीं होती. ऊपर वाला बड़ा बेरहम स्क्रिप्ट राइटर है. वो जब किरदार रचता है तो मिटटी में बेचैनी गूंथ देता है. ऐसे लोगों को फिर कभी करार नहीं आता.

इस कहानी के किरदार एक दूसरे से २०० किलोमीटर दूर रहते हैं. एक बार तो सोचती हूँ कहानी को किसी योरोप के शहरों की सेटिंग दे दूं...वहां शहर इतने खूबसूरत होते हैं...बरसातों में खास तौर पर. लेकिन उस सेटिंग में मेरे किरदार नैचुरल नहीं महसूस करेंगे. उनके अहसासों में एक अजनबियत आ जायेगी. यूँ मुझे वियेना और बर्न बहुत पसंद है. पर उनकी बात फिर कभी.

उन दोनों के शहरों के बीच हर तरह की कनेक्टिविटी थी. बसें चलती थीं, ट्रेन थी, हवाईजहाज थे और उन्हें जोड़ने वाला हाइवे देश का सबसे खूबसूरत रास्ता माना जाता था. वो रहता था सपनों के शहर मुंबई में और वो रहती थी बरसातों के शहर पुणे में.

आज किरदारों का नाम रख देती हूँ कि कुछ तसवीरें हैं ज़हन में...तो मान लेते हैं कि लड़के का नाम तुषार था. किसी सुडोकु पजल जैसा था लड़का, सारे खानों में सही नंबर रखने होते थे जब जा कर उसके होने में कोई तारतम्य महसूस होता था वरना वो बेहद रैंडम था और जैसा कि मेरी कहानी की लड़कियों के साथ होता है, उसके नंबरों से डर लगता था. वो उसे सुलझाना चाहती थी मगर डरती थी. हालात हर बार ऐसे होते थे कि वो मिलते मिलते रह जाते थे. वे सबसे ज्यादा ट्रैफिक सिग्नलों पर मिलते थे, जिस दिन किस्मत अच्छी होती थी उनके पास पूरे १८० सेकंड्स होते थे.

एक लेखक ने अपनी किताब का कवर सरेस पेपर का बनवाया था ताकि उसके आसपास रखी किताबें बर्बाद हो जायें. तुषार ऐसा ही था, उसे पढ़ने की कोशिश में उँगलियाँ छिल जाती थीं. उसके ऊपर कवर लगा के रखना पड़ता था कि उसके होने से जिंदगी के बाकी लोगों को तकलीफ न हो. गलती मेरी ही थी...मैंने ही ऐसा कुछ रच दिया था कि लड़की को कहीं करार नहीं था.

लड़की कॉफ़ी में तीन चम्मच चीनी पीती थी, तुषार ने उसके होटों का स्वाद चखने के लिए उसके कॉफ़ी मग से एक घूँट कॉफ़ी पी ली थी, मगर उसने लड़की ने इतना ही कहा कि मुझे देखना था तुम इतनी मीठी कॉफ़ी कैसे पी पाती हो. तुषार को ब्लैक कॉफ़ी पसंद थी, विदाउट मिल्क, विदाउट शुगर. लड़की ने वो कॉफ़ी मग अपनी खिड़की पर रख दिया था. उसे लगता था जिस दिन कॉफ़ी मग बारिश के पानी से पूरा भर जाएगा उस दिन उसे तुषार के साथ बिताने को थोड़ा ज्यादा वक़्त मिलेगा.

दोनों शहर इतने पास थे कि दूर थे...और ये ऐसी तकलीफ थी कि सांस लेने नहीं देती. लड़की सोचती कि ऐसे मौसम में मुमकिन है कि वो वाकई आ सके. तीन घंटे क्या होते हैं आखिर. वो छत के कोने वाले गुलमोहर के नीचे खड़ी भीगती और सोचती बारिशों में तेज़ ड्राइव करना जितना खतरनाक है उतना ही खूबसूरत भी, या कि खतरनाक है इसलिए खूबसूरत भी. एक्सप्रेसवे पर गहरी घाटियाँ दिखतीं थें और उनसे उठते बादल. दोनों उसी रास्ते से विपरीत दिशाओं में जाते हुए मिलते. तुषार उसका गहरा गुलाबी स्कार्फ पहचानता था. ऐसा हर बार होता कि जब तुषार का पुणे आने का प्रोग्राम बनता, लड़की को बॉम्बे जाना होता. वे तकरीबन एक ही समय खुश हो कर एक दूसरे को फोन करते कि अपने शहर में रहना. जब उनकी गाड़ियाँ क्रोस करतीं लड़की अपना स्कार्फ हिला कर उसे अलविदा कहती थी.

इतनी दूरी कि जब चाहो उससे मिलने जा सको लेकिन उतना सा वक़्त न मिले कभी, धीमे जहर से मरने जैसा होता है. फिर भी कभी कभी उनके हिस्से में कोई बारिश आ जाती थी. कैफे में बैठे, अपने अपने पसंद की कॉफ़ी पीते हुए वे सोचते कि जिंदगी तब कितनी अच्छी थी जब एक दूसरे से प्यार नहीं हुआ था. या कि वे दोनों बहुत दूर के शहर में रहते जब आने की उम्मीद न होती...या कि एक दूसरे को सरप्राईज देने के बजाये वे प्लान कर के एक दूसरे के शहर आते. लड़की के सारे दोस्त भी तुषार के साथ मिले हुए थे...तो अक्सर उसे उसकी किसी दोस्त का फोन आता कि कैफेटेरिया में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ और वहां तुषार मिलता. कभी कभी लगता कि अचानक उसे देखने की ख़ुशी कितना गहरा इंतज़ार दे जाती है कि वो हर जगह, हर वक़्त उसे ही तलाशती फिरती है.

वे अक्सर टहलने निकल जाया करते थे. घुमावदार गलियों पर, सीढ़ियों पर, शीशम के ऊंचे पेड़ों वाले रस्ते पर...तुषार दायें हाथ में घड़ी बांधता था और लड़की बायें हाथ में, अक्सर उनकी घड़ियों के कांच टूटते रहते थे. उन्हें कभी हाथ पकड़ के चलना रास नहीं आया. अक्सर जब ऐसा होता था तो वे ध्यान से अपने चलने की साइड बदल लेते थे.

इस कहानी में बहुत सारा इंतज़ार है...उन दो शहरों की तरह जो अपनी सारी बातें सिर्फ उनको जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे के माध्यम से कर पाते थे. कहानियों को फुर्सत होती है कि वे जहाँ से ख़त्म हों, वहां से फिर नयी शुरुआत कर सकें. मैं उन्हें इसी मोड़ पर छोड़ देती हूँ...जहाँ प्यार है और इंतज़ार है बेहद. उम्मीद नहीं है क्यूंकि ख्वाहिश नहीं है. दोनों अपने अपने शहरों से भी उतना ही प्यार करते हैं जितना कि एक दूसरे से.

बेचैनी के इस आलम में सुकून बस इतना है कि दोनों जानते हैं कि हर बारिश में यहाँ से कुछ दूर के शहर में रहने वाला कोई उनसे प्यार करता है और चाहता है कि वो एक्सप्रेसवे पर २०० की स्पीड से गाड़ी उड़ाता हुआ उनके पास चला आये.जीने के लिए इतना काफी है.

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