लिखो. काटो. लिखो. काटो.
लिखना जितना जरूरी है काटना भी उतना ही जरूरी है...लिख के मिटाओ मत...पेन्सिल से मत लिखो कि पेन्सिल की कोई याद बाकी नहीं रहती...इरेजर बड़ी सफाई से मिटाता है...जैसे कि गालों से पोछती हूँ आंसू...तुम्हें सामने देख कर...नहीं सामने कहाँ देखती हूँ...इन्टरनेट पर देख कर ही...तुम जब तस्वीरों में हँसते दिखते हो...बड़े भले से लगते हो...मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने लगती हूँ. बहुत मिस करती हूँ दिल्ली का वक़्त जब सारे दोस्त साथ में थे...
कल दो अद्भुत चीज़ें देखीं...Lust for life...Van Gogh की जिंदगी पर बनी फिल्म देखी और गुरुदत्त पर एक किताब पढ़ी...गुरुदत्त जब २८ साल के थे उन्होंने प्यासा का निर्माण किया था...अबरार अल्वी २६ के...सोच रही हूँ उम्र के सींखचों में लोगों को बांटना कितना सही है...क्या उन्हें मालूम था कि जिंदगी बहुत थोड़ी है...क्या उन्होंने शिद्धत से जिंदगी जी थी. अजीब हो रखी है जिंदगी भी...गुरुदत्त की चिठ्ठियाँ पढ़ती हूँ, लगता ही नहीं है कि इस शख्स को गए इतने साल हो गए...लगता है ये सारे ख़त उसने मुझे ही लिखे हैं...कुछ हिंदी में, कुछ इंग्लिश में और कुछ बंगला में...ताकि मेरी बांगला थोड़ी अच्छी हो सके. प्रिंट हुए पन्नों से एक पुरानी महक महसूस होती है. इस बार दिल्ली गयी थी तो स्मृति ने एक चिट्ठी दिखाई जो मैंने उसे ९९ में लिखी थी...उसने मेरी कितनी सारी चिट्ठियां सम्हाल के रखी हैं...मेरे हिस्से तो बस इंतज़ार और उसे ढूंढना आया...कितने सालों उसे तलाशती रही...तब जबकि उसे लगता था कि मैं उसे भूल गयी हूँ...कैसा इत्तिफाक था न...फ़िल्मी कि दुनिया के दो हिस्सों में हम दोनों अलग अलग तरह से एक दूसरे को याद करना और सहेजना कर रहे थे.
कल की किताब का नाम था 'Ten years with Guru Dutt...Abrar Alvi's journey' लेखक का नाम सत्य सरन है...मुझे सारे वक़्त समझ नहीं आया कि किताब इंग्लिश में क्यूँ थी...हिंदी में क्यूँ नहीं. बैंगलोर में होने के कारन बहुत सी चीज़ें मिस हो जाती हैं...उसमें सबसे ज्यादा खोया है मेरा किताबें ढूंढना...दिल्ली में सीपी में किताबें खरीदने का अपना मज़ा था...अनगिन किताबों को देखना, छूना, उनकी खुशबू महसूसना और फिर वो किताब खरीदना जिसने हाथ पकड़ कर रोका हो. गुरुदत्त पर ये किताब बहुत अच्छी नहीं थी...पर कहानियां बेहद दिलचस्प थीं...अबरार अल्वी की नज़र से गुरुदत्त को देखना बहुत अच्छा लगा. गुरुदत्त मुझे बहुत फैसीनेट करते हैं...उनपर लिखा हुआ कुछ भी देखती हूँ तो खरीद लेती हूँ अगर पास में पैसे रहे तो. गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब एक दिन ऐसे ही दिखी थी...थोड़ी महँगी थी...मंथ एंड चल रहा था...सोची कि सैलरी आने पर खरीद लूंगी...फिर वो किताब जो गायब हुयी तो लगभग दो साल तक लगातार हर जगह ढूँढने के बाद मिली.
गुरुदत्त भी बहुत सारे रीटेक लेते थे...प्यासा के बारे में पढ़ते हुए वोंग कर वाई याद आये...उनकी भी 'इन द मूड फॉर लव' ऐसे ही बिना स्क्रिप्ट के बनी थी...फिल्म किरदारों के साथ आगे बढती थी...सोचती हूँ...किसी की भी जिंदगी के रशेस ले कर कोई अच्छा डाइरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. किसी भी से थोड़ा पर्सनल उतरती हूँ...अपनी जिंदगी के पन्ने पलटती हूँ...कई बार लगता है कि ऊपर वाला एक अच्छा निर्देशक है पर एडिटर होपलेस है...उसे समझ नहीं आता कि रोती हुयी आँखें स्क्रीन पर बहुत देर नहीं रहनी चाहिए और ऐसी ही कुछ माइनर मिस्टेक्स पर हम मिल कर काम करेंगे तो शायद कुछ अच्छा रच सकेंगे.
मेरा एक स्क्रिप्ट पर काम करने का मन हो रहा है...पर फिर मुझे रोज एक दोस्त की जरूरत पड़ने लगती है जो मेरा दिन भर का सोचा हुआ सुने...दिल्ली के IIMC के दिन याद आते हैं...पार्थसारथी पर के...कुछ शामें...चाय के कुल्हड़ में डूबे...घास पर अँधेरा घिरने के बाद भी देर तलक बैठे ... अपने-अपने शहरों में गुम कुछ दोस्त...सोचने लगती हूँ कि दोस्तों का कितना बड़ा हिस्सा था मेरे 'मैं' में...कि उनके बिना कितनी खाली, कितनी तनहा हो गयी हूँ. जाने तुम लोगों को याद है कि पर राज, शाम, सोनू, बोस्की, इम्बी...तुम लोग कमबख्त बहुत याद आते हो. विवेक...कभी कभी लगता है थैंक यू बोल के तेरे से थप्पड़ खा लूं...बहुत बार सम्हाला है तूने यार.
मैं जब मूड में होती हूँ तो एक जगह स्थिर बैठ नहीं सकती फिर मुझे बाहर निकलना पड़ता है...बाइक या कार से...वरना घर में पेस करती रहती हूँ और बहुत तेज़ बोलती हूँ...सारे शब्द एक दूसरे में खोये हुए से. हाथ हवा में घूम घूम कर वो बनाते रहते हैं जो उतनी तेज़ी में मेरे शब्द मिस कर जाते हैं.
दूसरा एक मेजर पंगा है...आई नो किसी और को ये नहीं होता...I need a muse...I need to be madly in love to work on something...फिलहाल कोई आइडिया ऐसा नहीं है कि रातों की नींद उड़ जाए...दिन को सो न पाऊं...हाँ जिस तरह का बिल्ड अप है शायद कोई उड़ता ख्याल आ ठहरे...तब तक इस इन्सिपिड थौट का कुछ करती हूँ. कुछ है जो सी स्टोर्म की तरह मन में भंवरें बना रहा है...
बहुत कुछ है...बहुत कुछ बिखरा हुआ इस खूबसूरत जिंदगी में...लेकिन फ़िलहाल...दोस्त, तेरी याद आ रही है...बंगलौर बहुत दूर है मगर यहाँ सबसे अच्छे कैफे हैं जहाँ धूप का टुकड़ा होता है...खिलते फूल होते हैं...खुनकी लिए हवाएं होती हैं और मैं होती हूँ न...मुस्कुराती, गुनगुनाती...सुन न...एक असाइंमेंट सेट कर न इस शहर का...तेरे से मिलने का मन कर रहा है. बहुत दिन हुए दोस्त!
लिखना जितना जरूरी है काटना भी उतना ही जरूरी है...लिख के मिटाओ मत...पेन्सिल से मत लिखो कि पेन्सिल की कोई याद बाकी नहीं रहती...इरेजर बड़ी सफाई से मिटाता है...जैसे कि गालों से पोछती हूँ आंसू...तुम्हें सामने देख कर...नहीं सामने कहाँ देखती हूँ...इन्टरनेट पर देख कर ही...तुम जब तस्वीरों में हँसते दिखते हो...बड़े भले से लगते हो...मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने लगती हूँ. बहुत मिस करती हूँ दिल्ली का वक़्त जब सारे दोस्त साथ में थे...
कल दो अद्भुत चीज़ें देखीं...Lust for life...Van Gogh की जिंदगी पर बनी फिल्म देखी और गुरुदत्त पर एक किताब पढ़ी...गुरुदत्त जब २८ साल के थे उन्होंने प्यासा का निर्माण किया था...अबरार अल्वी २६ के...सोच रही हूँ उम्र के सींखचों में लोगों को बांटना कितना सही है...क्या उन्हें मालूम था कि जिंदगी बहुत थोड़ी है...क्या उन्होंने शिद्धत से जिंदगी जी थी. अजीब हो रखी है जिंदगी भी...गुरुदत्त की चिठ्ठियाँ पढ़ती हूँ, लगता ही नहीं है कि इस शख्स को गए इतने साल हो गए...लगता है ये सारे ख़त उसने मुझे ही लिखे हैं...कुछ हिंदी में, कुछ इंग्लिश में और कुछ बंगला में...ताकि मेरी बांगला थोड़ी अच्छी हो सके. प्रिंट हुए पन्नों से एक पुरानी महक महसूस होती है. इस बार दिल्ली गयी थी तो स्मृति ने एक चिट्ठी दिखाई जो मैंने उसे ९९ में लिखी थी...उसने मेरी कितनी सारी चिट्ठियां सम्हाल के रखी हैं...मेरे हिस्से तो बस इंतज़ार और उसे ढूंढना आया...कितने सालों उसे तलाशती रही...तब जबकि उसे लगता था कि मैं उसे भूल गयी हूँ...कैसा इत्तिफाक था न...फ़िल्मी कि दुनिया के दो हिस्सों में हम दोनों अलग अलग तरह से एक दूसरे को याद करना और सहेजना कर रहे थे.
कल की किताब का नाम था 'Ten years with Guru Dutt...Abrar Alvi's journey' लेखक का नाम सत्य सरन है...मुझे सारे वक़्त समझ नहीं आया कि किताब इंग्लिश में क्यूँ थी...हिंदी में क्यूँ नहीं. बैंगलोर में होने के कारन बहुत सी चीज़ें मिस हो जाती हैं...उसमें सबसे ज्यादा खोया है मेरा किताबें ढूंढना...दिल्ली में सीपी में किताबें खरीदने का अपना मज़ा था...अनगिन किताबों को देखना, छूना, उनकी खुशबू महसूसना और फिर वो किताब खरीदना जिसने हाथ पकड़ कर रोका हो. गुरुदत्त पर ये किताब बहुत अच्छी नहीं थी...पर कहानियां बेहद दिलचस्प थीं...अबरार अल्वी की नज़र से गुरुदत्त को देखना बहुत अच्छा लगा. गुरुदत्त मुझे बहुत फैसीनेट करते हैं...उनपर लिखा हुआ कुछ भी देखती हूँ तो खरीद लेती हूँ अगर पास में पैसे रहे तो. गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब एक दिन ऐसे ही दिखी थी...थोड़ी महँगी थी...मंथ एंड चल रहा था...सोची कि सैलरी आने पर खरीद लूंगी...फिर वो किताब जो गायब हुयी तो लगभग दो साल तक लगातार हर जगह ढूँढने के बाद मिली.
गुरुदत्त भी बहुत सारे रीटेक लेते थे...प्यासा के बारे में पढ़ते हुए वोंग कर वाई याद आये...उनकी भी 'इन द मूड फॉर लव' ऐसे ही बिना स्क्रिप्ट के बनी थी...फिल्म किरदारों के साथ आगे बढती थी...सोचती हूँ...किसी की भी जिंदगी के रशेस ले कर कोई अच्छा डाइरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. किसी भी से थोड़ा पर्सनल उतरती हूँ...अपनी जिंदगी के पन्ने पलटती हूँ...कई बार लगता है कि ऊपर वाला एक अच्छा निर्देशक है पर एडिटर होपलेस है...उसे समझ नहीं आता कि रोती हुयी आँखें स्क्रीन पर बहुत देर नहीं रहनी चाहिए और ऐसी ही कुछ माइनर मिस्टेक्स पर हम मिल कर काम करेंगे तो शायद कुछ अच्छा रच सकेंगे.
मेरा एक स्क्रिप्ट पर काम करने का मन हो रहा है...पर फिर मुझे रोज एक दोस्त की जरूरत पड़ने लगती है जो मेरा दिन भर का सोचा हुआ सुने...दिल्ली के IIMC के दिन याद आते हैं...पार्थसारथी पर के...कुछ शामें...चाय के कुल्हड़ में डूबे...घास पर अँधेरा घिरने के बाद भी देर तलक बैठे ... अपने-अपने शहरों में गुम कुछ दोस्त...सोचने लगती हूँ कि दोस्तों का कितना बड़ा हिस्सा था मेरे 'मैं' में...कि उनके बिना कितनी खाली, कितनी तनहा हो गयी हूँ. जाने तुम लोगों को याद है कि पर राज, शाम, सोनू, बोस्की, इम्बी...तुम लोग कमबख्त बहुत याद आते हो. विवेक...कभी कभी लगता है थैंक यू बोल के तेरे से थप्पड़ खा लूं...बहुत बार सम्हाला है तूने यार.
मैं जब मूड में होती हूँ तो एक जगह स्थिर बैठ नहीं सकती फिर मुझे बाहर निकलना पड़ता है...बाइक या कार से...वरना घर में पेस करती रहती हूँ और बहुत तेज़ बोलती हूँ...सारे शब्द एक दूसरे में खोये हुए से. हाथ हवा में घूम घूम कर वो बनाते रहते हैं जो उतनी तेज़ी में मेरे शब्द मिस कर जाते हैं.
दूसरा एक मेजर पंगा है...आई नो किसी और को ये नहीं होता...I need a muse...I need to be madly in love to work on something...फिलहाल कोई आइडिया ऐसा नहीं है कि रातों की नींद उड़ जाए...दिन को सो न पाऊं...हाँ जिस तरह का बिल्ड अप है शायद कोई उड़ता ख्याल आ ठहरे...तब तक इस इन्सिपिड थौट का कुछ करती हूँ. कुछ है जो सी स्टोर्म की तरह मन में भंवरें बना रहा है...बहुत कुछ है...बहुत कुछ बिखरा हुआ इस खूबसूरत जिंदगी में...लेकिन फ़िलहाल...दोस्त, तेरी याद आ रही है...बंगलौर बहुत दूर है मगर यहाँ सबसे अच्छे कैफे हैं जहाँ धूप का टुकड़ा होता है...खिलते फूल होते हैं...खुनकी लिए हवाएं होती हैं और मैं होती हूँ न...मुस्कुराती, गुनगुनाती...सुन न...एक असाइंमेंट सेट कर न इस शहर का...तेरे से मिलने का मन कर रहा है. बहुत दिन हुए दोस्त!


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