07 January, 2012

कि जैसे महबूब की मुस्कुराती आँखें

अरे, ऐसे कैसे!
बताओ मुझे, कौन है वो दुष्ट
जो तुम्हारे रातों की नींद
सारी की सारी लेकर चल दिया
और अपने वालेट में सजा के रखता है
कि जैसे महबूब की मुस्कुराती आँखें

हद्द है...मना तो करो!
ऐसे कैसे तुम्हारे ख्वाबों पर
एकाधिपत्य हो जाएगा उसका
सल्तनत है...कोई छोटा शहर थोड़े है
होगा वो शहजादा अपने देश का
तुम कोई राजकुमारी से कम हो!

तौबा, ये मज़ाक था!
तुमने कह किया उससे प्यार नहीं है
और जो उसने यकीन कर लिया तो?
लौट के नहीं आया तो?
तुम्हें भूल गया तो?

पगली, तेरा क्या होगा!
ऐसे प्यार मत किया कर
मर जाएगी ऐसे ही एक दिन
कौन उबारेगा तुझे
जान दे तेरे लिए ऐसा कहाँ है?

न ना, कितने ख़त भेजोगी?
अबकी बार कासिद के साथ जा
ख़त सुना दे खुद ही
जवाब भी मांग लेना
कि उसके बाद कुछ दिन तो
रहेगा...चैन

चल, जाने दे!
रात लम्बी है
और यादें बहुत सी
शब्दों का गट्ठर खोल
नीचे कहीं मिलेगा
तह लगाया हुआ
'लव यू'
उसकी खुशबू में भीग
उसकी धुन पर थिरक 
उसकी उँगलियाँ पकड़  


और यूँ बेबाक मत हंस री लड़की 
फरिश्तों के दिल डोल जाते हैं 
खुदा तेरे इश्क को बुरी नज़र से बचाए!

जबकि लड़की को रूठना नहीं आता और लड़के को मनाना...

असित ने बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी में दो चम्मच चीनी डाली और हल्का सा सिप लिया...चश्मे के शीशे पर भाप आ गयी  तो उसे उतार कर कुरते के कोने से पोंछा और फिर कुछ देर सामने की दीवार पर लगी पेंटिंग पर नज़रें टिकायीं. छवि थोड़ी उदास थी आज...वरना तो जिस लम्हे वो उसका नाम लेता था मुस्कुराने और चहकने लगती थी. सामने उसका पसंदीदा आयरिश कॉफ़ी का कप रखा था जो अब ठंढा होने चला था. दोनों चुप. यूँ असित और छवि मिलते थे तो असित अधिकतर चुप ही रहता था...सारे किस्से तो छवि के नाम होते थे.

'अब ये मेरी बारी है पूछने की कि तुम नाराज़ हो?' असित ने हथियार डाले थे. 
'डिपेंड्स'...छोटा सा जवाब.
'किस पर?'
'इस बात पर कि तुम्हें मनाना आता है कि नहीं!' 

इस छोटी सी बात से मुस्कुराहटें उगी और कैफे की ठहरी हुयी हवा में गीत के कुछ कतरे गूंजने लगे. दोनों खुले स्पेस में बैठे थे...कैफे की सामने की बालकनी में शाम के इस वक़्त कुछ लड़के बैंड प्रैक्टिस के लिए जुटते थे. असित को उनका म्यूजिक बहुत पसंद आता था. एक बार कॉलेज मैगजीन की लिए आर्टिकल लिखते हुए छवि ने इन्हें कवर भी किया था...जिस कैफे में दोनों बैठे थे ये कैफे भी उन्ही इत्तिफकों का एक उदाहरण था कि जिनसे जिंदगी जीने लायक होने लगती है. बैंड के लोग अपना एक पोर्टफोलियो बनाना चाहते थे और छवि का काम उन्हें पसंद था. उनकी एक प्रोफाइल शूट के सिलसिले में उसका असित से मिलना हुआ था...तब से वो इस कैफे में अक्सर मिलने लगे थे.

असित फ्रीलांस करता था...उसका चित्त बहुत चंचल था...ओगिल्वी, मुद्रा, JWT जैसी सारी अच्छी ऐड एजेंसीज में काफी साल काम करके उसका दिल भर गया था तो उसने फ्रीलान्सिंग शुरू कर दी थी. अब वो सिर्फ ऐसे प्रोजेक्ट उठाता जिसमें उसे कुछ थ्रिल मिलता...कुछ नया करने को, कुछ अलग. उसे शब्दों के साथ जादू करना आता था...वो उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाता...उसके हाथ में जा कर साधारण शब्द भी चमक उठते थे जैसे की फिल लाईट मारी हो किसी ने चेहरे की परछाइयाँ छुपाने के लिए. लोग उसकी बहुत इज्ज़त करते थे...उसने हर क्षेत्र में लोगों को कई नए नामों से अवगत कराया था.

थोड़ा चुप्पा सा रहना, खुद में खोये रहना उसका स्वाभाव था पर उसके बेहतरीन काम और काम के प्रति दीवानगी ने धीरे धीरे  उसे बहुत ख्याति दिला दी थी फिर अचानक उसका कम बातें करना भी  उसके मिस्टीरियस 'औरा' का ही एक हिस्सा बन गया था. लोग उससे बातें करने में दस बार सोचते थे...जूनियर उसके सामने अनचाहे हकलाने लगते थे. इस औरा के कारण उसकी जिंदगी के लोग भी सिमटते जा रहे थे. ऐसे ही अचानक एक दिन छवि से मिलना हुआ था उसका...पल संजीदा, पल खुराफाती अजीब पहेली सी लड़की थी. फोटो शूट पर उसे देर तक ओबजर्व किया उसने...और घर लौट कर काफी सालों बाद कैनवास पर एक वृत्त बनाया था...छवि की बायीं गाल का डिम्पल.

छवि काम करती थी तो उसे खाने पीने कि सुध बुध नहीं रहती, घंटों फोटोशूट चलता रहता...ऐसे में असित ही उसे खींच कर कैफे लाता कि कुछ खा पी लो. कई बार उसके लिए मैगी या चोकलेट भी लेते आता...ये रोल रिवर्सल असित की समझ से बाहर था कि वो छवि का इतना ध्यान क्यूँ रखता है. शायद पहली बार उसे कोई अपने जैसा दिखा था...और छवि थी ही ऐसी...हर हमेशा गले में कैमरा लटका हुआ...जिंदगी को फ्रेम दर फ्रेम अनंत तक बांधे रखने की अमिट चाहना सी.

'पता है असित, मैं अपनी दोस्तों को कहती हूँ कि एक बार किसी फोटोग्राफर लड़के से जरूर प्यार करना चाहिए...एक तो लड़का इश्क में पागल, उसपर अच्छा फोटोग्राफर...तुम्हें मालूम भी न होगा कि तुम कितनी सुन्दर हो...तो एक बार इश्क की आँखों से खुद को देख लो...इसके अलावा कोई और तरीका नहीं है जानने का कि प्यार में लोग कितने खूबसूरत हो जाते हैं'

'और तुम छवि, तुमसे किसी लड़के को प्यार हुआ कि नहीं?'

'पता नहीं, पर तुम्हें देख कर दिल जरूर कर रहा है कि एक बार अपने कैमरे की नज़र से तुम्हें देखूं, फिर डर भी लगता है कि नज़र न लग जाए तुम्हें मेरी ही...मुझे अक्सर अपने सब्जेक्ट्स से प्यार होता रहता है. तुमसे हुआ तो मर ही जाउंगी...अब तक जीता, जागता इतना खूबसूरत सब्जेक्ट नहीं मिला है मुझे'

'अब इसपर क्या कहा जा सकता है...'

'कुछ नहीं, अपना एक दिन दोगे मुझे...एक पूरा चौबीस घंटों का...मैं तुम्हें बिना परेशान  किये...बिना तुम्हारी रिदम को बदले तुम्हें सहेजना चाहती हूँ...तुममें एक लय है...बेहद खूबसूरत सी, जैसे तुम्हारी कलम चलती है कागज़ पर, जैसे तुम उँगलियों में सिगरेट फंसाए टहलते रहते हो...सब कुछ...इतनी खूबसूरती खोनी नहीं चाहिए.'

'इतनी खूबसूरत तारीफें करोगी तो कोई ना कैसे कहता होगा तुम्हें'

फिर वो चौबीस घंटे साए की तरह छवि असित के साथ हो ली...उसे महसूस भी नहीं होता कि किस कोने से, किस एंगल से छवि उसे कैमरे में बंद कर रही है. सुबह की चाय...दोपहर जाड़े की धूप में बैठ कर लान में अपनी पसंद का कुछ लिखते हुए...कॉफ़ी बनाते हुए...असित को अब डर लग रहा था कि ये आँखें जब न होंगी तो ये दिन कितना याद आएगा. सुबह से शाम...सोसाईटी की कृत्रिम झील के किनारे मूंगफलियाँ खाना...सब कुछ रीता जा रहा था. सारे वक़्त असित इसी उहापोह में था कि ये वक़्त जो उसने सिर्फ मुझे कैमरा में बंद करने को माँगा है...काश ये ये वक़्त वो छवि से उसके साथ बिताने को मांग पाता.

रात गुजरी, भोर हुयी...आज रात सोते हुए उस छोटे से फ़्लैट में पहली बार असित को डर लग रहा था कि कहीं नींद में छवि का नाम न ले आज...कुछ अजीब न कह जाए. सुबह हुयी और कॉफ़ी पीने के साथ ही छवि के चौबीस घंटे पूरे हुए...असित ने हाथ बढ़ा कर कैमरा माँगा...कि देखूं क्या तसवीरें खींची है तो छवि ने एकदम गंभीर चेहरा बना कर कहा कि वो रील डालना भूल गयी थी कैमरा में. असित एक मिनट तो इतना गुस्सा हो गया कि कुर्सी से उठ गया...

'यानि कल पूरे वक़्त तुमने एक भी तस्वीर नहीं खींची...मेरा पूरा दिन बर्बाद किया तुमने...ये क्या मज़ाक है छवि?' उसे गुस्सा आ रहा था और गुस्से में उसका चेहरा गुलाबी होने लगा था...

छवि मुस्कुरा रही थी...'मुझे तुम्हारी तसवीरें कभी खींचनी ही नहीं थी...मुझे प्यार हुआ था तुमसे, तुम्हारी जिंदगी का एक दिन चाहिए था मुझे...और कैसे भी तो तुम देते नहीं'.

असित को समझ नहीं आ रहा था कि उसे हो क्या रहा था...एक सेकण्ड के लिए जैसे सब धुंधला गया और नर्म धूप में हंसती छवि का बाया डिम्पल नज़र आने लगा...उसने अचानक से छवि को अपनी बाहों में भर के उठाया और उसके होठों को चूम लिया. छवि को चक्कर सा आ गया और वो गिर ही जाती कि असित ने उसे अपनी बांहों में थामा...एक क्षण भर को जैसे बादल आये थे...अचानक से सब वापस साफ़ दिखने लगा. छवि का चहरा दहक उठा था...वो पैर पटकती घर से बाहर निकल गयी.

इसके ठीक एक हफ्ते बाद मिले थे दोनों...और छवि को टेस्ट करना था कि असित को मनाना भी आता है कि नहीं...


'अब ये मेरी बारी है पूछने की कि तुम नाराज़ हो?' असित ने हथियार डाले थे. 
'डिपेंड्स'...छोटा सा जवाब.
'किस पर?'
'इस बात पर कि तुम्हें मनाना आता है कि नहीं!'
'आई विल ट्राय माय बेस्ट...तुम भी रूठो तो सही...मुझे तुम्हारे सारे 'वीक स्पोट्स' पता हैं...
'अच्छा जी, चीटर, पहले से पता कुछ यूज करना अलाउड  नहीं है'
'और नहीं क्या...एक बड़ी सी डेरी मिल्क, एक गरमा गरम मैगी...और ज्यादा हुआ तो एक आधी बार बाईक पर घुमाना...तुम एकदम प्रेडिक्टेबल हो...हाउ बोरिंग!'
असित चिढ़ाने के मूड में आ गया था.
छवि ने जीभ निकल कर मुंह चिढ़ाया था.
'तुम्हें तो रूठना भी नहीं आता छवि...एकदम होपलेस हो...इत्ती जल्दी मान गयी...मैं तो कविता लिख के लाया था तुम्हारे लिए'
छवि ने हाथ बढ़ा कर झपटा था...डेढ़ बाई दो फीट के कागज़ में ब्रश के स्ट्रोक्स उसके चेहरे को और भी खूबसूरत बना रहे थे...कागज़ के नीचे, दायीं तरफ लिखा हुआ था...Marry me, will you?
'तुम भी न असित, ठीक से प्रोपोज करना भी नहीं आता...विल यू मैरी मी कहते हैं हैं न...'
'तुम्हें कौन सा ठीक से एक्सेप्ट करना आता है...तुम्हें बस एक शब्द कहना होता है 'यस' और तुम इतना भाषण दे रही हो'
'हे भगवान! कौन करेगा तुमसे शादी!'
'इस जनम में तो तुम करोगी...चलो हाथ बढ़ाओ...'और असित एक घुटने पर नीचे बैठ चुका था...क्लास्सिक प्रपोजल स्टाइल में.
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दोनों की शादी को पच्चीस साल हो गए...अब भी झगड़ा करते हैं दोनों जबकि लड़की को रूठना नहीं आता और लड़के को मनाना...बच्चे दोनों में सुलह करवाते हैं...
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जिंदगी में बहुत सी उलझनें हैं...कुछ तो खुद की हैं...कुछ हम बना लेते हैं...पर प्यार जैसी चीज़ में सीधे सिंपल सादगी से कहने से अच्छा कुछ नहीं होता. आज बस इतनी सी कहानी...कि आप यकीन करो सको कि इस बड़ी बेरहम सी दुनिया में लव की हैप्पी एंडिंग भी होती है.



Now that you know I believe in happy endings...will you confess that you love me?

कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

मैं उसे रोक लेना चाहती थी
सिर्फ इसलिए कि रात के इस पहर
अकेले रोने का जी नहीं कर रहा था
मगर कोई हक कहाँ बनता था उस पर
मर रही होती तो बात दूसरी थी
तब शायद पुकार सकती थी
एक बार और


इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में
जहाँ सब शब्द एक जैसे होते हैं
मुझे उससे वादा चाहिए था
कि वो मुझे याद रखेगा
मेरे शब्दों से ज्यादा
मगर मैं वादा नहीं मांग सकती थी
सिर्फ मुस्कराहट की खातिर
वादे नहीं ख़रीदे जाते
मर रही होती तो बात दूसरी थी

मुझे याद रखना रे
मेरे टेढ़े मेरे अक्षरों में
फोन पर की आधा टुकड़ा आवाज़ से
तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट से
और तुमसे जितना झूठ बोलती हूँ उससे
जो पेनकिलर खाती हूँ उससे
कि ज़ख्मों पर मरहम कहाँ लगाने देती हूँ
कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

अगली बार जब मैं कहूँ चलती हूँ
मुझे जाने मत देना
बिना बहुत सी बातें कहे हुए
मैं शायद लौट के कभी न आऊँ
मर जाऊं तो भी
मुझे भूलना मत


मुझे जब याद करोगे
तो याद रखना ये वाली रात
जब कि रात के इस डेढ़ पहर
कोई पागल लड़की
स्क्रीन के इस तरफ
रो पड़ी थी तुमसे बात करते हुए
फिर भी उसने तुम्हें नहीं रोका

उसे लगता है मुझे एक कन्धा चाहिए
मैं कहती हूँ कि चार चाहिए
हँसना झूठ होता है
पर रोना कभी झूठ नहीं होता

उसने वादा तो नहीं किया
पर शायद याद रखेगा मुझे

दोहराती हूँ
बार बार, बार बार बार
बस इतना ही
मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

06 January, 2012

कच्चे कश्मीरी सेब के रंग का हाफ स्वेटर

जब ख़त्म हो जायें शब्द मेरे
तुम उँगलियों की पोरों से सुनना


जहाँ दिल धड़कता है, ठीक वहीँ
जरा बायीं तरफ
अपनी गर्म हथेली रखो
इस ठिठुरते मौसम में
दिल थरथरा रहा है

मेरे लिए एक हाफ स्वेटर बुन दो
हलके हरे रंग का
कि जैसे कच्चे कश्मीरी सेब
और जहाँ दिल होता है न
जरा बायीं तरफ
एक सूरज बुन देना
पीला, चटख, धूप के रंग का

सुनो ना,
ओ खूबसूरत, पतली, नर्म, नाज़ुक
उँगलियों वाली लड़की
जब फंदे डालना स्वेटर के लिए
तो जोड़ों में डालना
मैं भी इधर ख्वाब बुनूँगा
तुम्हारी उँगलियों से लिपटे लिपटे

मेरे लिए स्वेटर बुनते हुए
तुम गाना वो गीत जो तुम्हें पसंद हो
और कलाइयों पर लगाना
अपनी पसंद का इत्र भी
फिर कुनमुनी दोपहरों में
मेरे नाम के घर चढ़ाते जाना

हमारा प्यार भी बढ़ता रहेगा
बित्ता, डेढ़ बित्ता कर के
कि हर बार, मेरी पीठ से सटा के
देखना कि कितना बाकी है
मुझे छूना उँगलियों के पोरों से

एक दिन जब स्वेटर पूरा हो जाएगा
ये स्वेटर जो कि है जिंदगी
तुम इसके साथ ही हो जाना मेरी
और मैं तुम्हारे लिए लाया करूंगा
चूड़ियाँ, झुमके, मुस्कुराहटें और मन्नतें
और एक, बस एक वादा
छोटा सा- मैं तुम्हें हमेशा खुश रखूँगा!

04 January, 2012

वीतराग!

तुमको भी एक ख़त लिखना था
लेकिन मन की सीली ऊँगली
रात की सारी चुप्पी पी कर
जरा न हिलती अपनी जगह से

जैसे तुम्हारी आँख सुनहली
मन के सब दरवाजे खोले
धूप बुलाये आँगन आँगन
जो न कहूँ वो राज़ टटोले

याद की इक कच्ची पगडण्डी
दूर कहीं जंगल में उतरे
काँधे पर ले पीत दुपट्टा
पास कहीं फगुआ रस घोले


तह करके रखती जाऊं मैं
याद के उजले उजले कागज़  
क्या रखूं क्या छोड़ के आऊं
दिल हर एक कतरे पर डोले

नन्हे से हैं, बड़े सलोने
मिटटी के कुछ टूटे बर्तन
फीकी इमली के बिच्चे कुछ
एक मन बांधे, एक मन खोले

शहर बहे काजल सा फैले
आँखों में बरसातें उतरें
माँ की गोदी माँगूँ, रोऊँ
पल समझे सब, पल चुप हो ले

धान के बिचडों सा उजाड़ कर
रोपी जाऊं दुबारा मैं
फसल कटे शहर तक जाए
चावल गमके घर घर बोले

मेरे घर की मिटटी कूके
मेरा नाम पुकारे रे
शीशम का झूला रुक जाए
कितने खाए दिल हिचकोले

ऐसे में तुम ठिठके ठिठके
करते हो मुस्काया यूँ
इन बांहों में सारी दुनिया
जो भी छुए कृष्ण रंग हो ले 

02 January, 2012

ब्लैक कॉफ़ी विथ दो शुगर क्यूब प्यार

मन की कच्ची स्लेट पर लिखा है
आँख के काजल से तुम्हारा नाम

खुली हथेली पर बनायीं हैं
मिट जाने वाली लकीरें
और मुट्ठी बंद कर दी हैं
गुलाबी होठों के बोसों से
अब कैसे जाओगे छूट के, बोलो?

आज अचानक ही हुयी बरसातें
कि जैसे तुम आये थे एक दोपहर
धूप की चम्मच से मिलाया था
ब्लैक कॉफ़ी में दो शुगर क्यूब प्यार

याद है, अलगनी पर छूट गया था
तुम्हारा फेवरिट मैरून मफलर
तब से हर जाड़ों में
तुम मेरे गले में बाँहें डाले
गुदगुदी लगाते हो मुझे
दुष्ट!

तुम्हारे लिए कुछ किताबें खरीद दूं?
कितनी फुर्सत है तुम्हें
कि मुझे पढ़ते रहते हो


सुनो!
इतनी भी दिलफरेब नहीं हैं
तुम्हारी आँखें
कि मैं बस तुम्हें लिखती रहूँ
शकल भी देखी है कभी, आईने में?


चलो!
अब न पूछो कि कहाँ
तुमने फोन पर कहा था एक दिन
फ़र्ज़ करो,
मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलता हूँ
कहीं दूर एक खुला सा मैदान हो
जहाँ से वापस आने का रास्ता हो
या वहीं ठहर जाने का...ऑप्शन
मैं उस ख्वाब से निकली ही नहीं
आज तक भी.

बातें बहुत सी हुयीं है
अब कुछ यूँ करो ना
कभी सामने आ जाओ अचानक
और जब बेहोश हो जाऊं ख़ुशी से
अपनी बांहों में थाम लेना...
बस.

अरे हाँ...जब आओगे ही
तो लौटा देना
वो बोसे जो मैंने तुम्हारे ख्वाबों में दिए थे.
गिन के पूरे के पूरे. साढ़े अट्ठारह
अठारह तुम्हारी बंद पलकों पर
और आधा बोसा
होटों पर...बस.
इससे ज्यादा मैथ मुझे नहीं आता
केस क्लोज्ड. 

मन के बाहर बारिश का शोर था...


मन के बाहर बारिश का शोर था...
बहुत सा अँधेरा था
कोहरे की तरह और कोहरे के साथ
गिरती हुयी ठंढ थी
रात का सन्नाटा था
घड़ी की टिक टिक थी 

खुले हुए बालों में अटकी
लैपटॉप से आती रोशनी
के कुछ कतरे थे

आँखों में उड़ी हुयी नींद के
कुछ उलाहने थे 
तुम्हारे दूर चले जाने के
कुछ  डरावने ख्याल थे 
तुम भूल जाओगे एक दिन 
ऐसी भोली घबराहट थी 

मन के अन्दर बस एक सवाल था
कैसा होगा तुम्हें छूना
उँगलियों की कोरों से
अहिस्ता, 
कि तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े 

गले में प्यास की तरह अटके थे
सिर्फ तीन शब्द
I love you
I love you
I love you

01 January, 2012

काँपती उँगलियों से खोलना...

बीता हुआ साल कुछ वैसा ही है
जैसे स्टेशन पर भीड़ में खोया हुआ वो एक चेहरा
जो ताजिंदगी याद रहता है 

अनगिनत सालों में 
ये साल भी गुम जाएगा कहीं
सिवाए उस एक शाम के 
तो ए बीते हुए साल
तू सब कुछ रख ले अपने पास
उस एक शाम के बदले

वो शाम कि जिसमें 
बहुत सी बातें थी 
बादलों का रंग था 
मौसम की खुशबू थी 
हवाओं के किस्से भी थे 

वो शाम कि जिसमें
दिल धड़कता था
आँखें तरसती थीं
उँगलियाँ कागज़ पर 
अनजाने 
कोई नाम लिख रहीं थी 
तलवे सुलग उठ्ठे थे 
मन बावरा हो गया था 

पंख उग गए थे
पैरों तले जमीन को
मैं पहुँच गयी थी
उन बांहों के घेरे में

उस एक शाम 
सब छूट गया था पीछे
कि जब उसने 
काँपती उँगलियों से खोली थीं 
मेरे जिस्म की सब गिरहें
और 
मेरी रूह को आज़ाद कर दिया था 

31 December, 2011

उधारीखाता- 2011


साल का आखिरी दिन है...हमेशा की तरह लेखाजोखा करने बैठी हूँ...भोर के पाँच बज रहे हैं...घर में सारे लोग सोये हुये हैं...सन्नाटे में बस घड़ी की टिक टिक है और कहीं दूर ट्रेन जा रही है तो उसके गुजरने की मद्धिम आवाज़ है। उधारीखाता...जिंदगी...आखिर वही तो है जो हमें हमारे अपने देते हैं। सबसे ज्यादा खुशी के पल तनहाई के नहीं...साथ के होते हैं।

इस साल का हासिल रहा...घूमना...शहर...देश...धरती...लोग। साल की शुरुआत थायलैंड की राजधानी बैंगकॉक घूमने से हुयी...बड़े मामाजी के हाथ की बोहनी इतनी अच्छी रही साल की कि इस साल स्विट्जरलैंड भी घूम आए हम। बैंगकॉक के मंदिर बेहद पसंद आए मुझे...पर वहाँ की सबसे मजेदार बात थी शाकाहारी भोजन न मिलना...वहाँ लोगों को समझ ही नहीं आता कि शाकाहारी खाना क्या होता है। स्विट्जरलैंड जाने का सोचा भी नहीं था मैंने कभी...कुणाल का एक प्रोजेक्ट था...उस सिलसिले में जाना पड़ा। मैंने वाकई उससे खूबसूरत जगह नहीं देखी है...वापस आ कर सोचा था कि पॉडकास्ट कर दूँ क्यूंकी उतनी ऊर्जा लिखने में नहीं आ पाती...पॉडकास्ट का भविष्य क्या हुआ यहाँ लिखूँगी तो बहुत गरियाना होगा...इसलिए बात रहने देते हैं. स्विट्ज़रलैंड में अकेले घूमने का भी बहुत लुत्फ उठाया...उसकी राजधानी बर्न से प्यार भी कर बैठी। बर्न के साथ मेरा किसी पिछले जन्म का बंधन है...ऐसे इसरार से न किसी शहर ने मुझे पास बुलाया, न बाँहों में भर कर खुशी जताई। बर्न से वापस ज्यूरीक आते हुये लग रहा था किसी अपने से बिछड़ रही हूँ। दिन भर अकेले घूमते हुये आईपॉड पर कुछ मेरी बेहद पसंद के गाने होते थे और कुछ अज़ीज़ों की याद जो मेरा हाथ थामे चलती थी। बहुत मज़ा आया मुझे...वहीं से तीन पोस्टकार्ड गिराए अनुपम को...बहुत बहुत सालों बाद हाथ से लिख कर कुछ।

इस साल सपने की तरह एक खोये हुये दोस्त को पाया...स्मृति...1999 में उसका पता खो गया था...फिर उसकी कोई खोज खबर नहीं रही। मिली भी तो बातें नहीं हों पायीं तसल्ली से...इस साल उसके पास फुर्सत भी थी, भूल जाने के उलाहने भी और सीमाएं तोड़ कर हिलोरे मारता प्यार भी। फोन पर कितने घंटे हमने बातें की हैं याद नहीं...पर उसके होने से जिंदगी का जो मिसिंग हिस्सा था...अब भरा भरा सा लगता है। मन के आँगन में राजनीगंधा की तरह खिलती है वो और उसकी भीनी खुशबू से दिन भर चेहरे पर एक मुस्कान रहती है। पता तो था ही कि वो लिखती होगी...तो उसको बहुत हल्ला करवा के ब्लॉग भी बनवाया और आज भी उसके शब्दों से चमत्कृत होती हूँ कि ये मेरी ही दोस्त ने लिखा है। उसकी तारीफ होती है तो लगता है मेरी हो रही है। 

स्मृति की तरह ही विवेक भी जाने कहाँ से वापस टकरा गया...उससे भी फिर बहुत बहुत सी बातें होने लगी हैं...बाइक, हिमालय, रिश्ते, पागलपन, IIMC, जाने क्या क्या...और उसे भी परेशान करवा करवा के लिखवाना शुरू किया...बचपन की एक और दोस्त का ब्लॉग शुरू करवाया...साधना...पर चूंकि वो लंदन में बैठी है तो उसे हमेशा फोन पर परेशान नहीं कर सकती लिखने के लिए...ब्लॉगर पर कोई सुन रहा हो तो हमको एक आध ठो मेडल दे दो भाई!

और अब यहाँ से सिर्फ पहेलियाँ...क्यूंकी नाम लूँगी तो जिसका छूटा उससे गालियां खानी पड़ेंगी J एक दोस्त जिससे लड़ना, झगड़ना, गालियां देना, मुंह फुलाना, धमकी देना, बात नहीं करना सब किया...पर आज भी कुछ होता है तो पहली याद उसी की आती है और भले फोन करके पहले चार गालियां दू कि कमबख्त तुम बहुत बुरे हो...अनसुधरेबल हो...तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता...थेत्थर हो...पर जैसे हो, मेरे बड़े अपने हो। कोई पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा जो तुमसे टूट टूट कर भी रिश्ता नहीं टूटता। बहुत मानती हूँ उसे...मन से। कुछ लोगों को सुपरइंटेलेकचुअल (SI) के टैग से बाहर निकाल कर दोस्तों के खाने में रख दिया...और आज तक समझ नहीं आता कि मुझे हुआ क्या था जो इनसे पहले बात करने में इतना सोचती थी। जाना ये भी कुछ लोगों का नाम PJ क्योंकर होना चाहिए...नागराज का टाइटिल देने की भी इच्छा हुयी। कुछ खास लोगों को चिट्ठियाँ लिखीं...जो जवाब आए वो कमबख्त कासिद ने दिये नहीं मुझे। चिट्ठियाँ गिराने का अद्भुत रिदम फिर से लौट कर आया जिंदगी में और लाल डब्बे से भी दोस्ती की।

एक आवाज़ के जादू में खो गयी और आज तक खुद को तलाश रही हूँ कि नामुराद पगडंडी कहाँ गयी कि जिससे वापस आ सकूँ...एक शेर भी याद आ रहा है जिस रास्ते से हम आए थे, पीते ही वो रास्ता भूल गए’...साल शायद अपने डर पर काबू पाने का साल ही था...जिस जिस चीज़ से डरे वो किया...जैसे हमेशा लगता था कि बात करने से जादू टूट जाएगा पर पाया कि बातें करने से कुछ तिलिस्म और गहरा जाते हैं कि उनमें एक और आयाम भी जुड़ जाता है...आवाज़ का। कुछ लोग कितने अच्छे से होते हैं न...सीधे, सरल...उनसे बातें करो तो जिंदगी की उलझनें दिखती ही नहीं। भरोसा और पक्का हुआ कि सोचना कम चाहिए, जिससे बातें करने का मन है उससे बातें करनी चाहिए, वैसे भी ज्यादा सोचना मुझे सूट नहीं करता। आवाज़ का जादू दो और लोगों का जाना...कर्ट कोबेन और उस्ताद फतह अली खान...सुना इनको पहले भी था...पर आवाज़ ने ऐसे रूह को नहीं छुआ था। 

इस बार लोगों का दायरा सिमटा मगर अब जो लोग हैं जिंदगी में वो सब बेहद अपने...बेहद करीबी...जिनसे वाकई कुछ भी बात की जा सकती है और ये बेहद सुकून देता है। वर्चुअल लाइफ के लोग इतने करीबी भी हो सकते हैं पहली बार जाना है...और ऐसा कैसा इत्तिफ़ाक़ है कि सब अच्छे लोग हैं...अब इतने बड़े स्टेटमेंट के बाद नाम तो लेना होगा J अपूर्व(एक पोस्ट से क़तल मचाना कोई अपूर्व से सीखे...और चैट पर मूड बदलना भी। थैंक्स कहूँ क्या अपूर्व? तुम सुन रहे हो!), दर्पण(इसकी गज़लों के हम बहुत बड़े पंखे हैं और इसकी बातों के तो हम AC ;) ज्यादा हो गया क्या ;) ? ), सागर(तुम जितने दुष्ट हो, उतने ही अच्छे भी हो...कभी कभी कभी भी मत बदलना), स्मृति(इसमें तो मेरी जान बसती है)पंकज(क्या कहें मौसी, लड़का हीरा है हीरा ;) थोड़ा कम आलसी होता और लिखता तो बात ही क्या थी, पर लड़के ने बहुत बार मेरे उदास मूड को awesome किया है), नीरा(आपकी नेहभीगी चिट्ठियाँ जिस दिन आती हैं बैंग्लोर में धूप निकलती है, जल्दी से इंडिया आने का प्लान कीजिये), डिम्पल (इसके वाल पर बवाल करने का अपना मज़ा है...बहरहाल कोई इतना भला कैसे हो सकता है), पीडी (इसको सिलाव खाजा कहाँ नहीं मिलता है तक पता है और उसपर झगड़ा भी करता है), अभिषेक (द अलकेमिस्ट ऑफ मैथ ऐंड लव, क्या खिलाते थे तुमको IIT में रे!), के छूटा रे बाबू! कोइय्यो याद नहीं आ रहा अभी तो...

नए लोगों को जाना...अनुसिंह चौधरी...अगर आप नहीं जानते हैं तो जान आइये...मेरी एकदम लेटेस्ट फेवरिट...इनको पढ़ने में जितना मज़ा है, जानने में उसका डबल मज़ा है। और मुझे लगता था कि एक मैं ही हूँ अच्छी चिट्ठियाँ लिखने वाली पर इनकी चिट्ठियाँ ऐसी आती हैं कि लगता है सब ठो शब्द कोई बोरिया में भर के फूट लें J अपने बिहार की मिट्टी की खुशबू ब्लॉग में ऐसे भरी जाती है। कोई सुपरवुमन ऑफ द इयर अवार्ड दे रहा हो तो हम इनको रेकमेंड करते हैं।
नए लोगों में देवांशु ने भी झंडे गाड़े हैं...इसका सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का है...आते साथ चिट्ठाचर्चा ...अखबार सब जगह छप गए...गौर तलब हो कि इनको ब्लॉगिंग के सागर में धकेलने का श्रेय पंकज बाबू को जाता है...अब इनको इधर ही टिकाये रखने की ज़िम्मेदारी हम सब की बनती है वरना ये भी हेली कॉमेट की तरह बहुत साल में एक बार दिखेंगे।

अनुपम...चरण कहाँ हैं आपके...क्या कहा दिल्ली में? हम आ रहे हैं जल्दी ही...तुमसे इतना कुछ सीखा है कि लिख कर तुम्हें लौटा नहीं सकती...तुम्हें चिट्ठियाँ लिखते हुये मैं खुद को तलाशा है। बातें वही रहती हैं, पर तुम कहते हो तो खास हो जाती हैं...मेरी सारी दुआएं तुम्हारी।

कोई रह गया हो तो बताना...तुमपर एस्पेशल पोस्ट लिख देंगे...गंगा कसम J बाप रे! कितने सारे लोग हो गए...और इसमें तो आधे ऐसे हैं कि मेरी कभी तारीफ भी नहीं करते ;) और हम कितना अच्छा अच्छा बात लिख रहे हैं।

ऊपर वाले से झगड़ा लगभग सुलट गया है...इस खुशगवार जिंदगी के लिए...ऐसे बेमिसाल दोस्तों के लिए...ऐसे परिवार के लिए जो मुझे इतना प्यार करता है...बहुत बहुत शुक्रिया।

मेरी जिंदगी चंद शब्दों और चंद दोस्तों के अलावा कुछ नहीं है...आप सबका का मेरी जिंदगी में होना मेरे लिए बहुत मायने रखता है...नए साल पर आपके मन में सतरंगी खुशियाँ बरसें...सपनों का इंद्रधनुष खिले...इश्क़ की खुशबू से जिंदगी खूबसूरत रहे!

एक और साल के अंत में कह सकती हूँ...जिंदगी मुझे तुझसे इश्क़ है! 
इससे खूबसूरत भी और क्या होगा।

आमीन!

30 December, 2011

बात बस इतनी है जानां...


बड़ी ठहरी हुयी सी दोपहर थी...और ऐसी दोपहर मेरी जिंदगी में सदियों बाद आई थी...ये किन्ही दो लम्हों के बीच का पल नहीं थी...यहाँ कहीं से भाग के शरणार्थियों की तरह नहीं आए थे, यहाँ से किसी रेस की आखिरी लकीर तक जल्दी पहुँचने के लिए दौड़ना नहीं था। ये एक दोपहर आइसोलेशन में थी...इसमें आगे की जिंदगी का कुछ नहीं था...इसमें पीछे की जिंदगी का छूटा हुआ कुछ नहीं था। बस एक दोपहर थी...ठहरी हुयी...बहुत दिन बाद बेचैनियों को आराम आया था।

जाड़ों का इतना खूबसूरत दिन बहुत दिन बाद किस्मत को अलोट हुआ था...धूप की ओर पीठ करके बैठी थी और चेहरे पर थोड़ी धूप आ रही थी...सर पर शॉल था जिससे रोशनी थोड़ी तिरछी होकर आँखों पर पड़ रही थी...घर के आँगन में दादी सूप में लेकर चूड़ा फटक रही थी...सूप फटकने में एक लय है जो सालों साल नहीं बदली है...ये लय मुझे हमेशा से बहुत मोहित करती है। दादी के चेहरे पर बहुत सी झुर्रियां हैं, पर इन सारी झुर्रियों में उसका चेहरा फूल की तरह खिला और खूबसूरत दिखता है। कहते हैं कि बुढ़ापे में आपका चेहरा आपकी जिंदगी का आईना होता है...उसके चेहरे से पता चलता है कि उसने एक निश्छल और सुखी जीवन जिया है। आँखों के पास की झुर्रियां उसकी हंसी को और कोमल कर देती हैं...दादी चूड़ा फटकते हुये मुझे एक पुराने गीत का मतलब भी समझाते जा रही है...एक गाँव में ननद भौजाई एक दूसरे को उलाहना देती हैं कि बैना पूरे गाँव को बांटा री ननदिया खाली मेरे घर नहीं भेजा...लेकिन भाभी जानती है कि ननद के मन में कोई खोट नहीं है इसलिए हंस हंस के ताने मार रही है। दोनों के प्रेम में पगा ये गीत दादी गाती भी जाती है बहुत फीके सुरों में और आगे समझाती भी जाती है।

यूं मेरे दिन अक्सर ये सोचते कटते है कि परदेसी तुम जो अभी मेरे पास होते तो क्या होता...मगर आज मैं पहली बार वाकई निश्चिंत हूँ कि अच्छा है जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी...इस वक़्त...मम्मी ने उन के गोले बनाने के लिए लच्छी दी है...जैसे ये लच्छी है वैसे ही पृथ्वी की धुरी और बनता हुआ गोला हुआ धरती...पहले तीन उँगलियों में फंसा कर गोले के बीच का हिस्सा बनाती हूँ...फिर उसे घुमा घुमा कर बाकी लच्छी लपेटती हूँ। गोला हर बार घूमने में बड़ा होता जाता है। ऐसे ही मेरे ख्याल तुम्हारे आसपास घूमते रहते हैं और हर बार जब मैं तुम्हें सोचती हूँ...आँख से आँसू का एक कतरा उतरता है और दिल पर एक परत तुम्हारे याद की चढ़ती है। गोला बड़े अहतियात से बनाना होता है...न ज्यादा सख्त न ज्यादा नर्म...गोया तुम्हें सोचना ही हो। जो पूरी डूब गयी तो बहुत मुमकिन है कि सांस लेना भूल जाऊँ...तुमसे प्यार करते रहने के लिए जिंदा रहना भी तो जरूरी है। याद बहुत करीने से कर रही हूँ...बहुत सलीके से।

हाँ, तो मैं कह रही थी कि अच्छा हुआ जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी। आज शाम कुछ बरतुहार आने वाले हैं भैया के लिए...घर की पहली शादी है इसलिए सब उल्लासित और उत्साहित हैं...दादी खुद से खेत का उगा खुशबू वाला चूड़ा फटक रही है, उसको मेरी बाकी चाचियों पर भरोसा नहीं है। दादी दोपहर होते ही शुरू हो गयी है...उसकी लयबद्ध उँगलियों की थाप मुझे लोरी सी लग रही है। तुलसी चौरा की पुताई भी कल ही हुयी है...गेरुआ रंग एकदम टहक रहा है अभी की धूप में। तुलसी जी भी मुसकुराती सी लग रही हैं। हनुमान जी ध्वजा के ऊपर ड्यूटी पर हैं...बरतुहार आते ही इत्तला देंगे जल्दी से।

दोपहर का सूरज पश्चिम की ओर ढलक गया है अब...शॉल भी एक कंधे पर हल्की सी पड़ी हुयी है...जैसे तुम सड़क पर साथ चलते चलते बेखयाली में मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रख देते थे...ऊन का गोला पूरा हो गया है। मम्मी ने दबा कर देखा है...हल्का नर्म, हल्का ठोस...वो खुश है कि मैंने अच्छे से गोला बनाया है, उसे अब स्वेटर बुनने में कोई दिक्कत नहीं होगी। फिरोजी रंग की ऊन है...मेरी पसंदीदा। उसे हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि मुझे कोई भी काम सलीके से करना नहीं आएगा तो मेरे ससुराल वाले हमेशा ताने मारेंगे कि मायके में कुछ सीख के नहीं आई है, वो अब भी मेरी छोटी छोटी चीजों से सलीके से करने पर खुश हो जाती है।

आँगन में बच्चे गुड़िया से खेल रहे हैं...दीदी ने खुद बनाई है...मेरी दोनों बेटियों को ये गुड़िया उनकी बार्बी से ज्यादा अच्छी लगी है...वो जिद में लगी हैं कि इनको शादी करके शहर में बसना जरूरी है इसलिए वो उन्हें अपने साथ ले जाएँगे और स्कूल में कुछ जरूरी चीज़ें भी सीखा देंगी। उन्हें देखते हुये मैं एक पल को भूल जाती हूँ कि तुम मेरी याद की देहरी पर खड़े अंदर आने की इजाजत मांग रहे हो। उनपर बहुत लाड़ आता है और मैं उन्हें भींच कर बाँहों में भर लेती हूँ...वो चीख कर भागती हैं और आँगन में तुलसी चौरा के इर्द गिर्द गोल चक्कर काटने लगती हैं।

हवा में तिल कूटने की गंध है और फीकी सी गुड़हल और कनेल की भी...हालांकि चीरामीरा के फूलों में खुशबू नहीं होती पर उनका होना हवा में गंध सा ही तिरता है...मैं जानती हूँ कि घर के तरफ की पगडंडी में गहरे गुलाबी चीरामीरा लगे हुये हैं और गुहाल में बहुत से कनेल इसलिए मुझे हवा में उनकी मिलीजुली गंध आती है। दोपहर के इस वक़्त कहीं कोई शोर नहीं होता...जैसे टीवी पर प्रोग्राम खत्म होने पर एक चुप्पी पसरती है...लोग अनमने से ऊंघ रहे हैं...गाय अपनी पूँछ से मक्खी उड़ा रही है...कुएँ में बाल्टी जाने का खड़खड़ शोर है...और सारी आवाज़ों में बहुत सी चूड़ियों के खनकने की आवाज़ है...जैसे ये पहर खास गाँव की औरतों का है...हँसती, बोलती, गातीं...आँचल को दाँत के कोने में दबाये हुये दुनिया में सब सुंदर और सरल करने की उम्मीद जगाती मेरे गाँव की खुशमिजाज़ औरतें। साँवली, हँसती आँखों वाली...जिनका सारा जीवन इस गाँव में ही कटेगा और जिनकी पूरी दुनिया बस ये कुछ लोग हैं। पर ये छोटी सी दुनिया इनके होने से कितनी कितनी ज्यादा खूबसूरत है।


मैं अपने घर, दफ्तर, बच्चों, लिखने में थोड़ी थोड़ी बंटी हुयी सोचती हूँ जिंदगी इतनी आसान होती तो कितना बेहतर था...
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पर तुम भी जानते हो कि ये सारी बातें झूठ हैं...दादी को गए कितने साल बीत गए, माँ भी अब बहुत दिन से मेरे साथ नहीं है...तुम भी शायद कभी नहीं मिलोगे मुझसे...बच्चे मेरे हैं नहीं...और गाँव की ऐसी कोई सच तस्वीर नहीं बन सकती...तो बात है क्या?
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बात बस इतनी है जानां...कि आज पूरी पूरी दोपहर जाड़ों में धूप तापते हुये सिर्फ तुम्हें याद किया...दोपहर बेहद बेहद खूबसूरत गुजरी...पर तुम ही बताओ जो एक लाइन में बस इतना कहती तो तुम सुनते भी?

25 December, 2011

तुम्हारी याद मेरे बाएँ कंधे पर बैठी एक सतरंगी पंखों वाली तितली है...

यूँ मेरी माँ को गए बहुत साल बीत गए पर मुझे अब भी उसकी बेतरह याद आती है...मेरे हर शब्द में जो तलाश है वो उसी की है. मैं अतीत के लम्हों को करीने से अपनी एल्बम में सजा रही थी जब तितली बहुत हलके से मेरे कंधे पर बैठ गयी...मैंने स्लीवलेस टॉप पहना था तो कंधे पर हलकी सी गुदगुदी हुयी...

बाँयां कन्धा...हालाँकि माँ को गुज़रे बहुत साल बीते और मेरे बचपन का मुझे कुछ भी याद नहीं है...इतने सालों में किसी ने याद नहीं दिलाया...मेरे पास तसवीरें भी नहीं हैं कि जिन्हें देख कर मैं यकीन कर सकूँ दुबारा कि माँ मुझसे बहुत प्यार करती थी...पर बाकी औरतों को देखती हूँ, अपने बच्चे को बायें कंधे पर रखे हुए हलके हाथों से थपकी देते हुए तो मुझे लगता है कि जब मैं भी कुछ ही महीनों की रही होउंगी तो ऐसे ही माँ मुझे भी थपकियाँ देकर सुलाती होगी. उस वक़्त तक मैंने कोई बदमाशियां करनी नहीं सीखी होंगी कि मेरे अपने मुझसे हमेशा के लिए खफा हो जाएँ. नन्ही सी मैं, किसी गुलाबी रंग के स्वेटर में, नानी के हाथ के बुने हर फंदे की गर्माहट में लिपटी हुयी...अपनी पहली ठंढ में इस महीने कोई छः महीनो की रही होउंगी...उस वक़्त क्या किया होगा, बहुत तो कभी माँ की ऊँगली काट ली होगी, छोटे छोटे दांत आये होगे...और दांत सल्सलाता होगा तो.

ऐसी बहुत सी शामें होंगी जब मम्मी ने मुझे अपने बांयें कंधे पर थपकियाँ देकर सुलाया होगा...राजकुमार की कहानियां सुनाई होंगी...पर मुझे उनमें से एक भी याद क्यों नहीं आती है आज...आज मन जब ऐसा भरा भरा सा है कोई लोरी क्यूँ नहीं याद के देश से उड़ती आती है मेरे ज़ख्मों पर फाहा रखने. क्यूँ ऐसा महसूस होता है कि कभी मुझसे किसी ने प्यार किया ही नहीं...ये कैसी भटकन है कि तड़पती रहती हूँ...सर पर हाथ रखने कोई नहीं आता...ये दुनिया इतनी फरेबी भी तो नहीं.

जैसे परत परत उधेड़ दे कोई मुझे और मैं पाऊं कि सारे परदे उतरने के बाद मुझमें कुछ है ही नहीं...अन्दर से एकदम खाली...खोलने वाला भी परेशान हो जाए कि किस तलाश में मुझे खोलने की कोशिश की...माँ की हर याद एक ऐसा ही संदूक में संदूक है, सारे खुलते जाते हैं...बहुत मेहनत से...पुराने संदूक...किसी का ताला अटका हुआ है तो किसी के कब्जे नहीं खुलते...दिनों दिन लगा के खोलती जाती हूँ और जिंदगी की शाम आई होती है तो पाती हूँ कि उसमें मेरे लिए कुछ नहीं है...कुछ भी नहीं...कोई दुआ नहीं, कोई याद नहीं, कोई लोरी नहीं, कोई बुना हुआ स्वेटर नहीं.

मुझे देखोगे तो ऊपर से बहुत हंसती सी दिखती हूँ...मेरी आँखें छू कर मत देखना...फिर मुझपर तुम कभी ऐतबार न कर सकोगे...आज भी कहोगे कि मैंने तुम्हें कौन सा अपना माना वरना बताती नहीं...सोये ही तो हो, उठा देती...मुझे इस भरी दुनिया में किसी पर हक महसूस नहीं होता है...और मैं बहुत हँस के कहती हूँ कि कोई मुझे प्यार नहीं करता...पर वाकई उस समय मैं अन्दर से बिखर रही होती हूँ ऐसे कि कोई बाँध भी ना सके. मेरी बातों पर यकीन मत करो...मुझे झूठ बोलना बहुत अच्छे से आता है...

हँसना झूठ होता है पर रोना झूठ नहीं होता...जाने तुम्हें किसी ने बताया या नहीं...पर तुम जानते हो न मुझे...कितनी स्ट्रोंग हूँ मैं...कभी रोई तुम्हारे सामने? नहीं न...मम्मी...माँ...मी...तुम बहुत याद आती हो. कभी मिलने आ जाया करो...मेरी एकदम याद नहीं आती तुम्हें...तुम सच्ची सच्ची बताओ...तुम मुझसे प्यार करती थी कि नहीं?

कैद-ऐ-हयात-ओ-बंद-ऐ-गम अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों?

कोई है जो बता दे कितनी जिंदगी और जीनी है...

22 December, 2011

बस एक लड़की थी...जो लिफाफे की दीवारों में जिन्दा चिन दी गयी थी

मगर वो इतनी बुरी थी कि उसने मुझसे सिर्फ ख़त लिखने की इजाज़त ली पर ख़त के साथ अपनी उदास बेचैनियाँ  भी पिन करके भेज दीं..वो ख़त क्या था एक सुलगते लम्हे का दरवाजा था जिसमें हाथ बढ़ा कर मैं उसे अपनी बांहों में भर सकता था...भरना चाहता था.

कुछ हर्फ़ कागज़ पर थे, कुछ हाशिये पर...कुछ आंसुओं के कतरे थे...कुछ रात की खामोशियों में सुने गए गीतों के मुखड़े...सन्नाटों के पेड़ से तोड़े कुछ फूल भी थे. मुस्कुराहटों के बीज थे जो इस गुज़ारिश के साथ भेजे गए थे कि इन्हें ऐसी जगह रोपना जहाँ धूप भी आती हो और छाँव भी मिलती हो...मन के आँगन में तब से एक क्यारी खोद रहा हूँ जहाँ उन्हें सही मौसम, हवा पानी मिल सके.

एक आखिरी कश तक पी गयी सिगरेट का बुझा हुआ टुकड़ा था जिसे देख कर आँखों में धुआं इस कदर गहराने लगा कि किसी की शक्ल साफ़ नहीं रही...इस परदे के पार किसी का कोई वजूद बचा ही नहीं. मैं देर तक इस ख्याल में खोया रहा कि उसने दिन के किस पहर और किन लोगों के सामने इस सिगरेट को अपने होठों से लगाया होगा...क्या बालकनी में कॉफ़ी पीते हुए सिगरेट पी जैसा कि वो हमेशा लिखा करती है या कि सड़क पर टहलते हुए लोगों की घूरती निगाहों को इग्नोर करते हुए किसी अजीज़ से फोन पर बात करते हुए पी. कोई होगा फोन के उस तरफ जो कि उससे जिरह कर सके कि सिगरेट न पिया कर...बहुत बुरी चीज़ होती है.

उसके हर्फ़ भी उसकी तरह शरीर थे, रोते रोते खिलखिला उठते थे...उनके बारे में कुछ भी कहना बहुत मुश्किल था...जितनी बार उसका ख़त पढ़ता हर्फों के रंग बदल जाते थे...समझ नहीं आता था कि लड़की में कितनी परतें हैं और इन सारी परतों को उसने कागज़ में क्यूँ उतारा है...मैं उसके 'प्रिय____' की ऊँगली पकड़ कर सफ़र शुरू तो करता था पर वो हर्फ़ भी अक्सर साथ छोड़ जाता था. मैं उसकी असीम तन्हाइयों को अपनी बांहों के विस्तार में भरने की कोशिश करता मगर हर बार लगता कुछ छूट जा रहा है...वो इतना सच थी कि पन्नों से मेरी आँखों में झांक रही थी और इतना झूठ कि यकीन की सरहद तक ख्याल नहीं जाता कि इस पन्ने पर वही जज़्ब हुआ है जो उसने किसी दिन दोपहर को खिड़की खोल कर खुली धूप में लिखा है.




वहाँ कोई सवाल न था...बस एक लड़की थी...जो लिफाफे की दीवारों में जिन्दा चिन दी गयी थी...वो ख़त से जब निकल कर मेरी बाँहों में आई तो आखिरी सांसें गिन रही थी. मैंने उसका चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भरा हुआ था जब उसने पहली और आखिरी बार मुझे 'आई लव यू' कहा...और मैं उसे अब कभी यकीन न दिला पाऊंगा कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ. 

21 December, 2011

कभी मिलोगे मुझसे?

मैंने जिंदगी से ज्यादा बेरहम निर्देशक अपनी जिंदगी में नहीं देखा...मुझे इसपर बिलकुल भी भरोसा नहीं. दूर देश में बैठे हुए सबसे वाजिब डर यही है कि तुमसे मिले बिना मर जायेंगे. एक बेहद लम्बा इंतज़ार होगा जिसे हम अपना दिल बहलाने के लिए छोटे छोटे टुकड़े में बाँट कर जियेंगे...यूँ ऐसा जान कर नहीं करेंगे पर जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा अगर ये जान जायें कि इंतज़ार सांस के आखिरी कतरे तक है.

हो ये भी सकता है कि कई कई बार हम मिलते मिलते रह जायें...कि कोई ऐसा देश हो जो मेरे तुम्हारे देश के बीच हो...जिसमें अचानक से मुझे कोई काम आ जाए और तुम्हें भी...तुम्हें धुएं से अलेर्जी है और मुझे नया नया सिगरेट पीने का शौक़...तो जिस ट्रेन में हमारी बर्थ आमने सामने है...उसमें मैं अपनी सीट पर कभी रहूंगी ही नहीं...कि मुझे तो सिगरेट फूंकने बाहर जाना होगा. जब मैं लौटूं तो तुम किसी अखबार के पीछे कोई कहानी पढ़ रहे हो...और जिंदगी, हाँ हाँ वही डाइरेक्टर जो सीन में दीखता नहीं पर होता जब जगह है...जिंदगी अपनी इस लाजवाब कहानी की बुनावट पर खुश जो जाए. सोचो कि उसी ट्रेन में, तुम्हारी ही याद में सिगरेट दर सिगरेट फूंकती जाऊं और सपने में भी ना सोचूं कि जो शख्स सामने है बर्थ पर तुम ही हो. जिंदगी के इन खुशगवार मौकों पर हमें यकीन नहीं होता न...तो कह ये भी सकते हैं कि जिंदगी जितनी बुरी डायरेक्टर है...हम कोई उससे कम बुरे एक्टर भी नहीं हैं. हमेशा स्क्रिप्ट का एक एक शब्द पढ़ते चलते हैं...थोड़ी देर नज़र उठा कर अपने आसपास देखें तो पायेंगे कि हमारी गलती से कई हसीन मंज़र छूट गए हैं हमारे देखे बिना.

कोई बड़ी बात न होगी कि उस शहर की सड़कों पर हम पास पास से गुजरें पर एक दूसरे को देख ना पाएं...तब जबकि मेरी भी आदत बन चुकी हो इतने सालों में कि हर चेहरे में तुम्हें ढूंढ लेती हूँ पर जब तुम सामने हो तो तुम्हें पहचान ना पाऊं कि अगेन, जिंदगी पर भरोसा न हो कि वो तुम्हें वाकई मेरे इतने करीब ले आएगी. उस अनजान शहर में जहाँ हमें नहीं मिलना था...जहाँ हमें उम्मीद भी नहीं थी मिलने की...मैं अपने उन सारे दोस्तों को फोन करती हूँ जिनके बारे में जानती हूँ कि उन्होंने मुझे इश्क हो जाने की दुआएं दी होंगी...सिगरेट के अनगिन कश लगते हुए फ़ोन पर बिलखती हूँ...कि अपनी दुआएं वापस मांग लो...इश्क मेरी जान ले लेगा. एक सांस भी बिना धुएं के अन्दर नहीं जाती...एक एक करके सारे दोस्तों को फोन कर रही हूँ...सिगरेट का पैकेट ख़त्म होता है, नया खुलता है, शाम ढलती है...कुछ दिखता नहीं है धुएं की इस चादर के पार...मैंने अपनेआप को एक अदृश्य कमरे में बंद कर लिया है और उम्मीद करती हूँ कि तुम्हारी याद यहाँ नहीं आयगी...इस बीच शहर सो गया है और बर्फ पड़नी शुरू हो गयी है. स्कॉच का पैग रखा है...प्यास लगी है...रोने से शरीर में नमक और पानी की कमी हो जाती है, उसपर अल्कोहल से डिहाईडरेशन भी हो रहा है.

अगली बदहवास सुबह सर दर्द कम करने के लिए कॉफ़ी पीने सामने के खूबसूरत से कॉफ़ी शॉप पर गयी हूँ...तुम्हारे लिखे कुछ मेल के प्रिंट हैं...कॉफ़ी का इंतज़ार करती हुयी पढ़ रही हूँ...चश्मा उतार रखा है टेबल पर. इस अनजान शहर में किसी चेहरे को देखने की इच्छा नहीं है...कोई भी अपना नहीं आता यहाँ...सामने देखती हूँ...सब धुंधला है...दूर की नज़र कमजोर है न...कोई सामने आता हुआ दिखता है...सफ़ेद कुरते जींस में...तुम्हारी यादों के बावजूद मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आते हैं जब मेरा सबसे पसंदीदा हुआ करता था कुरते और नीली जींस का ये कॉम्बिनेशन. ऐसा महसूस होता है कि कोई मेरी ओर देख कर मुस्कुराया है. मैं चश्मा पहनने के लिए उठाती हूँ कि सवाल आता है...आपके साथ एक कॉफ़ी पी सकता हूँ...तुम जिस लम्हे दिखते हो धुंधले से साफ़ ठीक उसी लम्हे तुम्हारी आवाज़ तुम्हारे होने का सबूत दे देती है.

एक लम्हा...अपनी बाँहें उठा चुकी हूँ तुम्हें गले लगाने के लिए फिर कुछ अपनी उम्र का ख्याल आ जाता है कुछ शर्म...तुम्हारी आँखों में झाँक लेती हूँ...अपने जैसा कुछ दिखता है...कंधे पे हाथ रखा है और सेकण्ड के अगले हिस्से में मैं हाथ मिलाती हूँ तुमसे. तुमने बेहद नरमी से मेरा हाथ पकड़ा है...मैं देखती हूँ कि तुम्हारे हाथ बिलकुल वैसे हैं जैसे मैंने सोचे थे. किसी आर्टिस्ट की तरह खूबसूरत, जैसे किसी वायलिन वादक के होते हैं...आमने सामने की कुर्सियों पर बैठे हैं. कहने को कुछ है नहीं...बहुत सारा शोर है चारों तरफ...कैफे में कोई तो गाना बज रहा था...ठीक इसी लम्हे ख़त्म होता है...अचानक से जैसे बहुत कुछ ठहर गया है...मुझे छटपटाहट होती है कुछ करने की...तुम्हारे माथे पर एक आवारा लट झूल रही है...मैं उँगलियों से उसे उठा कर ऊपर कर देती हूँ...कैफे में नया गाना शुरू होता है...ला वि एन रोज...फ्रेंच गाना है...जिसका अर्थ होता है, जिंदगी को गुलाबी चश्मे से देखना...मेरा बहुत पसंदीदा है...तुम जानते हो कि मुझे बेहद पसंद है...तुम भी कहीं खोये हुए हो.

ये कितनी अजीब बात है कि जितनी देर हम वहाँ हैं हमने एक शब्द भी नहीं कहा एक दूसरे को...यकीन नहीं होता कि कुछ शब्द ही थे जो हमें खींच के पास लाये थे...कुछ अजीब से ख्याल आ रहे थे जैसे कि क्यूँ नहीं तुम मेरा हाथ यूँ पकड़ते हो कि नील पड़ जाएं...कि किसी लम्हे मुझे कहना पड़े...हाथ छोड़ो, दुःख रहा है...कि मैं सोच रही हूँ कि मैंने कितनी सिगरेट पी है...और तुम्हें सिगरेट के धुएं से अलेर्जी है...या कि तुमने सफ़ेद कुरता जो पहना है, क्या मैंने कभी तुम्हें कहा था कि मेरी पसंदीदा ड्रेस रही है कोलेज के ज़माने से और आज मैंने इत्तिफाकन सफ़ेद कुरता और नीली जींस नहीं पहनी है...ये लगभग मेरा रोज का पहनावा है. कि तुम सामने बैठे हो और जिंदगी से शिकायत कर रही हूँ कि तुम पास नहीं बैठे हो!

इसके आगे की कहानी नहीं लिख सकती...मुझे नहीं मालूम जिंदगी ने कैसा किस्सा लिखा है...पर उसकी स्क्रिप्टराइटर होने के बावजूद मेरे पास ऐसे कोई शब्द नहीं हैं जो लिख सकें कि किन रास्तों पर चल कर तुमसे अलग हुयी मैं...कि तुमसे मिलने के बाद वापस कैसे आई...कि तुम्हारे जाने के बाद भी जीना कैसे बचता है...इश्क में बस एक बार मिलना होना चाहिए...उसके बाद उसकी याद आने के पहले एक पुरसुकून नींद होनी चाहिए...ऐसे नींद जिससे उठना न हो. 

20 December, 2011

हे नटराज!

ऐसी कैसे हूँ कि एकदम डर नहीं लगता...किसी भी चीज़ से...जिंदगी से नहीं...मौत से नहीं...बिखर जाने टूट जाने से नहीं...ऐसे कैसे कण कण से उजास फूट रहा है मेरे. आज क्या मिल गया है मुझे?

शिव तांडव स्त्रोत्र सुना...डमरू बजता है तो लगता है पूरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो रहे हैं...एकदम टूट जाने वाले...जैसे कि फिर महीन बालू की तरह रह जाउंगी मैं...और फिर इसी से सब कुछ रच डालूंगी. कुछ रचने में खुद को बहुत तोड़ना भी जरूरी हो जाता है. मुझे क्यूँ टूटने से डर नहीं लगता...कि हर बार टूटने के बाद हम खुद को जोड़ कैसे लेते हैं.

स्त्रोत्र सुनते हुए लग रहा है कि हम इश्वर से अलग नहीं हैं, वाकई हम उसका ही एक हिस्सा हैं, हमें काट कर निकाला गया है इश्वर से ही...कि हमारी आत्मा उस परमपिता का ही अंश है. कि शिव की तीसरी आँख है मुझमें वहीं कहीं भवों के बीच...इस तीसरी आँख की ज्वाला से खुद को जलाने के बाद फिर से बना भी लूंगी ये भी यकीन है मुझे. सर से पैर तक थरथरा रही हूँ...रेजोनेंस जिसमें कि आप किसी आवाज़ से ट्यून हो जाते हो...वैसे ही. समझ नहीं आ रहा  कि श्लोक बाहर बज रहा है या मेरे मन के अन्दर से...जैसे कोई सदियों पुरानी आवाज़ है जो मेरे पूरे होने से फूट रही है.

ऐसा होता है क्या कि शब्दों में चित्र छुपे हों? लंका की दीवारें दिखने लगती हैं...वहाँ तपस्या करता रावण...भक्त की तपस्या पर बार बार रीझते भोले शिव शंकर...और इस तांडव नृत्य का सब दृश्य खुल जाता है...सती का पार्थिव शरीर और पीड़ा के वे क्षण...मुझे भी महसूस होते हैं...और फिर क्रोध...सब कुछ जला देने वाला क्रोध. प्रलय लाने वाला क्रोध.

बचपन में एक बांगला तांडव नृत्य सिखाया गया था मुझे...छोटी सी थी और शिव बने हुए जटाजूट बांधे बहुत अच्छी लगती थी...वो नृत्य मुझे बेहद पसंद था...और बाकी लोगों को भी पसंद आता था शायद, कई बार उस स्कूल में रहते हुए वो नृत्य किया. आज फिर से उसके स्टेप्स याद करने की कोशिश कर रही थी पर याद नहीं आ रहा था...याद आती है तो पैरों की थाप से जो ध्वनि निकलती है जैसे तबले पर कोई 'सम' बजाये...गीत उठाने के लिए. बहुत बहुत देर तक पैर थिरकते रहे...एक एक शब्द, एक एक श्लोक जैसे आत्मा के तार छेड़ रहा हो. गोल गोल घूमते हुए सब कुछ धीमा लगता है और फिर दुनिया ऊपर नीचे...वैसा ही जैसे मेरे मन की हालत हो रखी है. भरतनाट्यम के बहुत पहले सीखे हुए कुछ स्टेप्स भी याद आये...बहुत कुछ गड्डमड्ड था...बस एक थिरकन थी जो मुझे बहाए जा रही थी.

देवघर से हूँ तो शंकर भगवान् हमारी हर चीज़ का हिस्सा हैं...इधर कुछ सालों से उनसे नाराज़ थी...आज लगता है वो गुस्सा, वो शिकायतें सारी बह गयीं...भोले बाबा फिर से मेरे उतने ही अपने हो गए जैसे उस समय हुए थे जब चार पांच की कच्ची उम्र में पहली बार देवघर के मंदिर के गर्भगृह में कदम रखा था. मन एकदम सहज है...जैसे शिवलिंग को छू लिया हो!

सुख जीवन में बहुत कम आता है...आज के दिन मन शांत होने और इस सुख की अवस्था के लिए सभी देवी देवताओं की जय!

19 December, 2011

पागल लड़के, तुझे मालूम भी है...मुझे तुमसे प्यार हो गया है!

सुनो, तुम मुझे इतने सुरूर में दिल्ली के मौसम का हाल न बाताया करो...तुमसे ही प्यार न हो जाए मुझे. दिल्ली से तो जानते हो न किस तरह का इश्क हो रखा है. तुम क्यूँ उस कड़ी में अपने नाम की बोगी जोड़ रहे हो...शंटिंग में जाने वाली है गाड़ी...इसकी कोई मंजिल नहीं है फिलहाल. वहां रात के अँधेरे में मेरी बातें सुनने के अलावा कोई चारा भी नहीं होगा. कैसे रात काटोगे? बताओ भला...नींद भी आएगी?

कोहरा ऐसे मत सुनाओ मुझे...जानते हो न की दिल्ली की ठंढ मेरी कमजोरी है...ना न वैसी नहीं कि हड्डियों में या जोड़ों में दर्द उठ जाए...वैसी कि हाल सुनूं फ़ोन पर और सिसकारी निकल जाए. सिगरेट की तलब तो समझते हो...जैसे कोई लम्बी मीटिंग दो -चार की जगह छह घंटे चल जाए जिसमें सुबह से खाना न खाने के कारण पेट में चूहे कूद रहे हों और पानी पर चल रहे हो...मीटिंग ख़त्म होते ही बाहर निकलते हो और सिगरेट का एक लम्बा कश खींचते हो...कैसा महसूस होता है? जानते हो उस भाव को...मैंने तुम्हारे चेहरे पर कई बार उसे पढ़ा है...सुबह नाश्ता करके निकला करो घर से...कोई समझाता नहीं है ये सब तुम्हें. अपनी माँ से बात कराओ मेरी, मैं कहती हूँ कि बेटा एकदम बिगड़ा हुआ है आपका...न न बाबा, माँ से तुम्हारी सिगरेट और दारू की शिकायत थोड़े करूंगी...पर ये खाने के लिए रोज रोज बोलना तो करेगी माँ...मेरा कौन सा हक है तुमपर.

तुम मेरी दिल्ली की यादों में ऐसे कैसे घुसपैठ करते जा रहे हो...इतनी कम तस्वीरों में कोई कैसे याद आता है बताओ भी भला...तुम्हें क्यूँ फर्क पड़ता है कि मैं दिल्ली से कितना प्यार करती हूँ...बारिश होती है तो बारिश सुनाने लगते हो, कोहरा छाता है तो कोहरा दिखाने लगते हो...तुम जानते भी हो कि तुम्हारी आँखों से इतनी बार देखा है पुराने किले के उस रास्ते को कि अब लगता है कि हर शाम तुम्हारे साथ मैं भी उसी रास्ते चलती हूँ उसी वक़्त. तुम्हारा पार्क, तुम्हारे लैम्पोस्ट्स, तुम्हारी वो बेंच...सबका हिस्सा हो गयी हूँ. तुम्हें कभी दिखी है परछाई सी तुम्हारे साथ चलते हुए उस रास्ते पर...वो मेरी प्रोजेक्शन है...मैं यहाँ होकर भी तुम्हारे साथ होती हूँ उन लम्हों में.

तुम तो जानते हो मुझे...जैसे कि कोई नहीं जानता...जैसे कि कोई नहीं समझता...तुमसे कौन सा रिश्ता है समझ नहीं आता...पर कुछ तो है कि तुम कहीं जाओगे नहीं इतना पता है. बस इतना प्यार मत करो मुझसे...बड़ी कमजोर सी हूँ, बहुत जल्दी प्यार हो जाता है मुझे. तुमसे प्यार हो गया न तो बाद में मुझसे झगड़ा करोगे...मुझे तुमसे झगड़ा करना एकदम अच्छा नहीं लगता. किसी बात में मेरा मन नहीं लगता फिर...न लिखने में न पढने में...न कुछ शेयर करने में. सारा ध्यान इसी बात पर कि तुमसे मुंह फुला के बैठना है...तुम तो जानते ही हो मुझे ज्यादा देर गुस्सा भी होना नहीं आता. मुझे जल्दी मना क्यों नहीं लेते हो तुम...भला इतनी देर किसी को गुस्सा थोड़े होने देते हैं. तुम एकदम दुष्ट और बदमाश हो!





अबरी आये न हम दिल्ली तो तुमरा कम्बल कुटाई कर डालेंगे...मन कर रहा है तुमसे खूब खूब सारा झगड़ा करने का...पागल लड़के, तुझे मालूम भी है...मुझे तुमसे प्यार हो गया है!

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