मगर वो इतनी बुरी थी कि उसने मुझसे सिर्फ ख़त लिखने की इजाज़त ली पर ख़त के साथ अपनी उदास बेचैनियाँ भी पिन करके भेज दीं..वो ख़त क्या था एक सुलगते लम्हे का दरवाजा था जिसमें हाथ बढ़ा कर मैं उसे अपनी बांहों में भर सकता था...भरना चाहता था.
कुछ हर्फ़ कागज़ पर थे, कुछ हाशिये पर...कुछ आंसुओं के कतरे थे...कुछ रात की खामोशियों में सुने गए गीतों के मुखड़े...सन्नाटों के पेड़ से तोड़े कुछ फूल भी थे. मुस्कुराहटों के बीज थे जो इस गुज़ारिश के साथ भेजे गए थे कि इन्हें ऐसी जगह रोपना जहाँ धूप भी आती हो और छाँव भी मिलती हो...मन के आँगन में तब से एक क्यारी खोद रहा हूँ जहाँ उन्हें सही मौसम, हवा पानी मिल सके.
एक आखिरी कश तक पी गयी सिगरेट का बुझा हुआ टुकड़ा था जिसे देख कर आँखों में धुआं इस कदर गहराने लगा कि किसी की शक्ल साफ़ नहीं रही...इस परदे के पार किसी का कोई वजूद बचा ही नहीं. मैं देर तक इस ख्याल में खोया रहा कि उसने दिन के किस पहर और किन लोगों के सामने इस सिगरेट को अपने होठों से लगाया होगा...क्या बालकनी में कॉफ़ी पीते हुए सिगरेट पी जैसा कि वो हमेशा लिखा करती है या कि सड़क पर टहलते हुए लोगों की घूरती निगाहों को इग्नोर करते हुए किसी अजीज़ से फोन पर बात करते हुए पी. कोई होगा फोन के उस तरफ जो कि उससे जिरह कर सके कि सिगरेट न पिया कर...बहुत बुरी चीज़ होती है.
उसके हर्फ़ भी उसकी तरह शरीर थे, रोते रोते खिलखिला उठते थे...उनके बारे में कुछ भी कहना बहुत मुश्किल था...जितनी बार उसका ख़त पढ़ता हर्फों के रंग बदल जाते थे...समझ नहीं आता था कि लड़की में कितनी परतें हैं और इन सारी परतों को उसने कागज़ में क्यूँ उतारा है...मैं उसके 'प्रिय____' की ऊँगली पकड़ कर सफ़र शुरू तो करता था पर वो हर्फ़ भी अक्सर साथ छोड़ जाता था. मैं उसकी असीम तन्हाइयों को अपनी बांहों के विस्तार में भरने की कोशिश करता मगर हर बार लगता कुछ छूट जा रहा है...वो इतना सच थी कि पन्नों से मेरी आँखों में झांक रही थी और इतना झूठ कि यकीन की सरहद तक ख्याल नहीं जाता कि इस पन्ने पर वही जज़्ब हुआ है जो उसने किसी दिन दोपहर को खिड़की खोल कर खुली धूप में लिखा है.

वहाँ कोई सवाल न था...बस एक लड़की थी...जो लिफाफे की दीवारों में जिन्दा चिन दी गयी थी...वो ख़त से जब निकल कर मेरी बाँहों में आई तो आखिरी सांसें गिन रही थी. मैंने उसका चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भरा हुआ था जब उसने पहली और आखिरी बार मुझे 'आई लव यू' कहा...और मैं उसे अब कभी यकीन न दिला पाऊंगा कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ.
कुछ हर्फ़ कागज़ पर थे, कुछ हाशिये पर...कुछ आंसुओं के कतरे थे...कुछ रात की खामोशियों में सुने गए गीतों के मुखड़े...सन्नाटों के पेड़ से तोड़े कुछ फूल भी थे. मुस्कुराहटों के बीज थे जो इस गुज़ारिश के साथ भेजे गए थे कि इन्हें ऐसी जगह रोपना जहाँ धूप भी आती हो और छाँव भी मिलती हो...मन के आँगन में तब से एक क्यारी खोद रहा हूँ जहाँ उन्हें सही मौसम, हवा पानी मिल सके.
एक आखिरी कश तक पी गयी सिगरेट का बुझा हुआ टुकड़ा था जिसे देख कर आँखों में धुआं इस कदर गहराने लगा कि किसी की शक्ल साफ़ नहीं रही...इस परदे के पार किसी का कोई वजूद बचा ही नहीं. मैं देर तक इस ख्याल में खोया रहा कि उसने दिन के किस पहर और किन लोगों के सामने इस सिगरेट को अपने होठों से लगाया होगा...क्या बालकनी में कॉफ़ी पीते हुए सिगरेट पी जैसा कि वो हमेशा लिखा करती है या कि सड़क पर टहलते हुए लोगों की घूरती निगाहों को इग्नोर करते हुए किसी अजीज़ से फोन पर बात करते हुए पी. कोई होगा फोन के उस तरफ जो कि उससे जिरह कर सके कि सिगरेट न पिया कर...बहुत बुरी चीज़ होती है.
उसके हर्फ़ भी उसकी तरह शरीर थे, रोते रोते खिलखिला उठते थे...उनके बारे में कुछ भी कहना बहुत मुश्किल था...जितनी बार उसका ख़त पढ़ता हर्फों के रंग बदल जाते थे...समझ नहीं आता था कि लड़की में कितनी परतें हैं और इन सारी परतों को उसने कागज़ में क्यूँ उतारा है...मैं उसके 'प्रिय____' की ऊँगली पकड़ कर सफ़र शुरू तो करता था पर वो हर्फ़ भी अक्सर साथ छोड़ जाता था. मैं उसकी असीम तन्हाइयों को अपनी बांहों के विस्तार में भरने की कोशिश करता मगर हर बार लगता कुछ छूट जा रहा है...वो इतना सच थी कि पन्नों से मेरी आँखों में झांक रही थी और इतना झूठ कि यकीन की सरहद तक ख्याल नहीं जाता कि इस पन्ने पर वही जज़्ब हुआ है जो उसने किसी दिन दोपहर को खिड़की खोल कर खुली धूप में लिखा है.

वहाँ कोई सवाल न था...बस एक लड़की थी...जो लिफाफे की दीवारों में जिन्दा चिन दी गयी थी...वो ख़त से जब निकल कर मेरी बाँहों में आई तो आखिरी सांसें गिन रही थी. मैंने उसका चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भरा हुआ था जब उसने पहली और आखिरी बार मुझे 'आई लव यू' कहा...और मैं उसे अब कभी यकीन न दिला पाऊंगा कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ.