ड्राफ्ट में तिरासी पोस्ट्स पड़ी हुयी हैं...तीन साल से ऊपर होने को आये...शब्दों को सकेर के बस इतना ही जमा कर पायी हूँ कि छोटी बड़ी कुछ तिरासी पोस्ट्स हैं जो किसी की आँखों तक नहीं पहुंची...किसी की बातों से दुलरायी नहीं गयीं, अपेक्षित...उदास, मुंह ढक के पड़े बासी अलफ़ाज़. कई बार सोचा है कि डिलीट ही कर दूं, कि इस बिखरे हुए कूड़ेदान में ऐसा क्या है जिसका बचा रहना जरूरी है...कि जैसे इनके होने में मेरी दुनिया का स्थायित्व है...कि प्रलय आ जायेगी इनके ना होने से.
इनमें से बहुत कम अधूरी हैं, जान के छोड़ी हुयी...किसी उदास दिन पूरी होने को अभिशप्त कुछ कवितायें, विरह में जलती कुछ कहानियां और किसी विद्रूप से सच को दिखाने वाली कुछ बेतरतीब घटनाएं. सारी ख्वाहिशों में एक है इनका प्रिंट निकाल कर उनकी होली जलाने का अरमान. रात आधी होने वाली है कायदे से, पर मेरी तो अभी शुरू हुयी है...आजकल नींद नहीं आती रातों को, बस ऐसे ही उलूल जलूल ख्याल आते हैं. कुछ बेहद सच दिखने वाले सपने होते हैं...जिन्हें लिखना भी उनसे मुक्ति पाना नहीं होता. मैं अपने ही तिलिस्म का दरवाजा भूल गयी हूँ...सिमसिम...गुमसुम...तुम तुम
ऐसी जितनी रातें नींद नहीं आती...और आजकल ऐसा अक्सर हुआ करता है, मेरा वसीयतें लिखने का मन करता है...सोचती हूँ लॉ कर लूं. देर रात किसी मरते हुए कवि की वसीयत खोल कर पढूंगी जिसमें उसकी प्रेमिका का नाम होगा और होगी चंद किताबों के कवर...जो किसी और नाम से छपेंगे. कितने अजीब होते हैं ना कवि, आज के दौर में भी किसी के नाम की आखिरी साँस तक हिफाज़त करते हैं. ऐसी कहानी आज के खबरी चैनेल के हाथ लग जाती तो क्या चटाखेदार हेडलाईन बनती. कॉलेज फर्स्ट इयर के क्लासेस भी याद आते हैं...जब जर्नालिस्म सच में अच्छी चीज़ हुआ करती थी, और कवि इज्ज़तदार. यादों के इस कोलाज में कवि की घुसपैठ कैसे हो गयी मालूम नहीं...हमें जब साहित्य पढाया गया उसमें कवि तो थे ही नहीं. ये कवि बहुत जीवट प्राणी होता है...हजारों मोटी मोटी मॉस-कॉम की किताबों के बीच भी सफोकेट नहीं होता...घबराता नहीं. कुछ बहुत दिन पहले एक मित्र से बात हो रही थी...वो आश्चर्य कर रहा था कि सच में एथिक्स इन जर्नालिस्म नाम का पेपर होता था तुम लोगों को.
बंगलोर का मौसम बहुत सुहाना है...यूँ तो यहाँ अक्सर शाम को बारिश होती है, पर कुछ ऐसी भी शामें होती हैं जब उदासी बरसती है...आज की शाम कुछ वैसी ही थी. खाली जगह भरने को कुछ नया लिखने का मन नहीं किया...तो पुरानी पोस्ट्स देख रही थी. अधूरे रिश्ते जैसे...हेतु हेतु मद भूतकाल...अगर ऐसा हुआ होता तो वैसा होता. (उदाहरण...अगर तुम आज इस शहर में होते तो शाम खूबसूरत लगती.)
जिंदगी में कुछ डेफिनिशन/परिभाषाएं जरूरी होती हैं...ड्राफ्ट...कर रही हूँ जिंदगी...काफी दिनों से मेरी शाम में अटकी पड़ी है...
परिभाषाएं...एक बेहद खूबसूरत सी अब्सोलुट वोदका..वनिला, एक ग्लेंफिदिच सिंगल माल्ट की गहरी हरी कोर्क लगी... मेरी इच्छा है कि हरी बोटल में रजनीगंधा के फूल डाल दूं...और सफ़ेद वाली में गुलाब के फूल. खुशबू में नशा भी तो तब शायद. ऐसे खूबसूरत गुलदान किसी के घर में होंगे भला?
देर रात...वनिला और माल्ट की मदहोश महक...कुछ अधूरे लम्हे. जिंदगी. तुम सी.
इनमें से बहुत कम अधूरी हैं, जान के छोड़ी हुयी...किसी उदास दिन पूरी होने को अभिशप्त कुछ कवितायें, विरह में जलती कुछ कहानियां और किसी विद्रूप से सच को दिखाने वाली कुछ बेतरतीब घटनाएं. सारी ख्वाहिशों में एक है इनका प्रिंट निकाल कर उनकी होली जलाने का अरमान. रात आधी होने वाली है कायदे से, पर मेरी तो अभी शुरू हुयी है...आजकल नींद नहीं आती रातों को, बस ऐसे ही उलूल जलूल ख्याल आते हैं. कुछ बेहद सच दिखने वाले सपने होते हैं...जिन्हें लिखना भी उनसे मुक्ति पाना नहीं होता. मैं अपने ही तिलिस्म का दरवाजा भूल गयी हूँ...सिमसिम...गुमसुम...तुम तुम
ऐसी जितनी रातें नींद नहीं आती...और आजकल ऐसा अक्सर हुआ करता है, मेरा वसीयतें लिखने का मन करता है...सोचती हूँ लॉ कर लूं. देर रात किसी मरते हुए कवि की वसीयत खोल कर पढूंगी जिसमें उसकी प्रेमिका का नाम होगा और होगी चंद किताबों के कवर...जो किसी और नाम से छपेंगे. कितने अजीब होते हैं ना कवि, आज के दौर में भी किसी के नाम की आखिरी साँस तक हिफाज़त करते हैं. ऐसी कहानी आज के खबरी चैनेल के हाथ लग जाती तो क्या चटाखेदार हेडलाईन बनती. कॉलेज फर्स्ट इयर के क्लासेस भी याद आते हैं...जब जर्नालिस्म सच में अच्छी चीज़ हुआ करती थी, और कवि इज्ज़तदार. यादों के इस कोलाज में कवि की घुसपैठ कैसे हो गयी मालूम नहीं...हमें जब साहित्य पढाया गया उसमें कवि तो थे ही नहीं. ये कवि बहुत जीवट प्राणी होता है...हजारों मोटी मोटी मॉस-कॉम की किताबों के बीच भी सफोकेट नहीं होता...घबराता नहीं. कुछ बहुत दिन पहले एक मित्र से बात हो रही थी...वो आश्चर्य कर रहा था कि सच में एथिक्स इन जर्नालिस्म नाम का पेपर होता था तुम लोगों को.
बंगलोर का मौसम बहुत सुहाना है...यूँ तो यहाँ अक्सर शाम को बारिश होती है, पर कुछ ऐसी भी शामें होती हैं जब उदासी बरसती है...आज की शाम कुछ वैसी ही थी. खाली जगह भरने को कुछ नया लिखने का मन नहीं किया...तो पुरानी पोस्ट्स देख रही थी. अधूरे रिश्ते जैसे...हेतु हेतु मद भूतकाल...अगर ऐसा हुआ होता तो वैसा होता. (उदाहरण...अगर तुम आज इस शहर में होते तो शाम खूबसूरत लगती.)
परिभाषाएं...एक बेहद खूबसूरत सी अब्सोलुट वोदका..वनिला, एक ग्लेंफिदिच सिंगल माल्ट की गहरी हरी कोर्क लगी... मेरी इच्छा है कि हरी बोटल में रजनीगंधा के फूल डाल दूं...और सफ़ेद वाली में गुलाब के फूल. खुशबू में नशा भी तो तब शायद. ऐसे खूबसूरत गुलदान किसी के घर में होंगे भला?
देर रात...वनिला और माल्ट की मदहोश महक...कुछ अधूरे लम्हे. जिंदगी. तुम सी.