03 July, 2009

पुरानो शेई दिनेर कोथा

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रविन्द्र नाथ टैगोर का लिखा ये गीत यहाँ हेमंत मुखर्जी ने गाया है....

ये गीत बचपन की सोंधी यादों की तरह बेहद अजीज है मुझे। उस समय सीडी या कैसेट आसानी से नही मिलता था...और पापा को गानों का बहुत शौक़ था। तो उपाय एक ही था...हमारे पास दो टेप रिकॉर्डर थे...और उसमें से एक में हमेशा एक blank casette रहता था...cue किया हुआ, जब भी टीवी या रेडियो पर कुछ अच्छा आता, उसे हम रिकॉर्ड कर लेते.

देवघर, दुमका और झारखण्ड के कई प्रान्तों में बांगला संस्कृति की गहरी छाप है, मेरे पापा को भी बांग्ला से बड़ा लगाव है, और रबिन्द्र संगीत हमारे घर में बचपन से गूंजता रहा है। कई बार होता है कि किसी एक वक्त चेहरे धुंधले पड़ जाते हैं, पर आवाजें, या कुछ खुशबुयें हमेशा साथ रहती है।

इस गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही है...एक भी बोल समझ में नहीं आता था, पर गाना इतना मधुर था कि इसकी धुन कितने दिन गुनगुनाती रहती थी। कई शामें याद आती हैं, सन्डे को पापा, मम्मी, जिमी और मैं, टेप रिकॉर्डर को घेर कर बैठे रहते थे और पापा चुन चुन कर कई सारे अच्छे गाने हमें सुनवाते थे। मम्मी अक्सर खाने को पकोड़ा या ऐसा ही कुछ बनाती थी...और अधिकतर ये वो शामें होती थीं जब बारिश होती रहती थी...क्योंकि उस वक्त हमारे पास हमारा प्यारा राजदूत हुआ करता था, और बारिश में बाहर जाना कैंसल हो जाता था।

तो उन सन्डे को हम दोपहर में regional वाली फिल्में देखते थे दूरदर्शन पर...और शाम को गाने सुनते थे। पकोड़े के साथ घर का बना हुआ सौस या फ़िर पुदीना की चटनी। घर में कुएं के पास पुदीना लगा हुआ था...और मम्मी फटाफट उसकी चटनी पीस देती थी...अलबत्ता हम भाई बहन लड़ते थे, कि तुम जाओ तोड़ने...और मैं चूँकि बड़ी थी तो आर्डर पास करने का हक मुझे था। अक्सर होता ये था कि खींचा तानी में दोनों को ही जाना पड़ता था।

कुर्सी पर बैठ कर हम अक्सर पाँव झुलाते रहते थे(उस वक्त छोटे थे हम तो पाँव नीचे नहीं पहुँचता था) और मम्मी से डांट खाते थे कि पाँव झुलाना अच्छी बात नहीं है। कैसेट की वो खिर खिर की आवाज, जैसे गाने का ही हिस्सा बन जाती थी। या फ़िर कई बार गाने के पहले वाले प्रोग्राम की आवाज। इसी तरह महाभारत के बीच में दो पंक्तियों का गीत आता था, वो भी रिकॉर्ड था। फ़िर कुछ सेरिअल्स में ऐसे ही गाने आते थे, जैसे नीम का पेड़, पलाश के फूल, और थोड़ा सा आसमान...इनके गीत कितने दिन सुने हम सबने।

अब कुछ भी पाना कितना आसान हो गया है बस गूगल करो और सब सामने...पर उस गीत को कैसे ढूंढें जिसके बोल ही मालूम नहीं हों...ये गीत बहुत दिन, बहुत से बांगला गीत सुनने के बाद आज मिला है। आज इसके बोल भी ढूंढ लिए मैंने...यादों की खिड़की से झांकती है एक शाम...और बादलों की गरज, सोंधी मिट्टी की महक, पकोडों के स्वाद के साथ पापा की आवाज जैसे पास में सुनाई देती है... जब पापा ये गाना गाते थे...कभी कभी.
वाकई पुराने दिन कहीं भुलाये जा सकते हैं...

Purano shei diner kotha
Bhulbi kii re
Hai o shei chokher dekha, praaner kotha
Shaykii bhola jaaye

Aaye aar ektibar aayre shokha
Praner majhe aaye mora
Shukher dukher kotha kobo
Praan jodabe tai

Mora bhorer bela phuul tulechi, dulechi dolaaye
Bajiye baanshi gaan geyechi bokuler tolai
Hai majhe holo chadachadi, gelem ke kothaye,
Abaar dekha jodi holo shokha, praner majhe aai

01 July, 2009

याद के दामन का लम्हा

याद के दामन से छिटक के आया एक लम्हा
रातों रातों आँखें गीली कर गया

उदास राहों में संग दोस्तों के
तुम्हें भूलने की वजहें तलाशती रही

कहानियों के दरमयान रह गए कोरे पन्ने
अनकहा लिखती रहती सुनती रही

कब से अजीब ख़्वाबों में उलझी हूँ
जिंदगी के मायने बिखर के खो गए हैं

दर्द यूँ टीसता है...जैसे मौत से बावस्ता है
और हम हैं की जख्म सहेजे हुए हैं

ऐसा नहीं कि कोई आस है तुमसे बाकी
हम उस लम्हे में ही अब तक ठहरे हुए हैं

19 June, 2009

विदाई


अरसा बीता घर के आँगन में खेले
शीशम से आती हवाएँ बुलाती हैं बहुत
झूले की डाली पर टंगी रह गई हैं कुछ कहानियाँ

उस मिट्टी में जड़ें गहराती हैं
माँ के साथ रोपे गए नारियल की
सुना है कि पानी बहुत मीठा है उसका

हर मौसम कई बार बिछा है फूलों का कालीन
मेरे कमरे को हर बीती शाम महका देती है कामिनी
मेरे कहीं नहीं होने के बावजूद भी

आम के मंजर मेरे ख्वाबों में आते हैं
बौरायी सी सुबह संग लिए
कोयल कूकती रहती है फ़िर सारा दिन

हर साल आता है रक्षाबंधन
बस भाई नहीं आता परदेस में मिलने
यादें आती हैं, घर भर में उसको दौड़ा देने वालीं

नहीं जागती हूँ अब भोर के साढ़े तीन बजे
पापा की लायी मिठाई खाने के लिए
नींद से उठ कर बिना मुंह धोये

घर से, शहर से....यादों के हर मंजर से
मेरी विदाई हो गई है...

15 June, 2009

चंद अल्फाज़...



उसे उसकी हदें मालूम थीं
मुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई

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उसकी मंजिलें और थीं
मेरे मंजिलें कहीं और थी
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
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13 June, 2009

किस्सा ऐ किताब...दिल्ली से बंगलोर

दिल्ली की यूँ तो बहुत सी बातें याद आती रहती हैं, पर जिस चीज़ के लिए दिल सबसे ज्यादा मचलता है, वो है सीपी में घूमते हुए किताबें खरीदना। जब भी किताबों का स्टॉक ख़तम हो जाता, हम सीपी की तरफ़ निकल पड़ते, फ़िर से खूब सारी किताबें खरीदने के लिए। और सैलरी आने के बाद तो सीपी जाना जैसे एक नियम सा हो गया था, जैसे कुछ लोग मंगलवार को हनुमान मन्दिर जाते हैं, हम महीने की पहली इतवार सीपी पहुँच जाते थे।

कितनी ही गुलज़ार की किताबें, कुछ दुष्यंत के संकलन और जाने कितने नामी गिरामी शायरों की किताबें खरीदते रहते थे...कहानियाँ भी बहुत पढ़ी थी यूँ ही खरीद कर। कई ऐसे भी शायरों के कलाम हाथ में आए जिनका कभी नाम भी नहीं सुना था पर पढने के बाद एक अजीब सा सुकून और अनजाना सा रिश्ता जुड़ते गया उनके साथ।

और देर शाम हरी घास पर बैठ कर जाने कितने सपने देखे...कितने सूरजों को डूबते देखा। मूंग की वादियाँ हरी चटनी के साथ खाएं...दोस्तों के साथ गप्पें मारीं... ६१५ पकड़ कर हॉस्टल आना बड़ा सुकून देता था, चाहे हाथ कितना भी दर्द कर जाएँ...किताबों का भारीपन कभी सालता नहीं था।

बंगलोर आने के बाद यही हिन्दी किताबें कहीं नहीं मिल रही थीं और हम अपना रोना सबके सामने रो चुके थे...फुरसतिया जी की एक पोस्ट पढ़ कर प्रकाशन के मेंबर बनने के बारे में भी सोच रहे थे, पर आलस के मारे apply ही नहीं किए। फ़िर ऑफिस में एक काम आया...बंगलोर के पुराने लैंडमार्क में एक है, गंगाराम बुक स्टोर, कहाँ कई पीढियां किताबें खरीदती और पढ़ती रही हैं। अब क्रॉसवर्ड और लैंडमार्क जैसी मॉल में खुले बड़े स्टोर्स के कारण गंगाराम जैसे पारंपरिक बुक स्टोर्स में कम लोग जाते हैं। और आजकल MG रोड पर मेट्रो का काम चल रहा है जो काफ़ी दिनों तक चलने वाला है...इस कारण स्टोर को कहीं और शिफ्ट करना होगा। हम इसी सिलसिले में काम कर रहे थे तो मैंने सोचा की एक बार जा के देख लिया जाए कैसी जगह है।

तो पिछले सन्डे हम abhiyaan par निकल पड़े, दिल में ये उम्मीद भी थी की शायद कहीं हिन्दी की किताबें मिल जायें...क्योंकि अगर यहाँ नहीं मिली तो पूरे बंगलोर में कहीं मिलने की उम्मीद नहीं है। शाम के पाँच बज रहे होंगे, पर स्टोर बंद था...शायद कुछ काम रहा हो शिफ्टिंग वगैरह का...ham बगल वाले bookstore में चले गये...higgin bothams naam ka store tha...कुछ कुछ कॉलेज लाइब्रेरी की याद आ रही थी वहां किताबें देख कर...

और हमें आख़िर वो मिल ही गया जो इतने दिनों से ढूंढ रहे थे बंगलोर में...एक रैक पर खूब सारी हिन्दी किताबें, मैंने बहुत सारी खरीद लीं...अब उनके पास जिनता है उसमें मेरे खरीदने लायक कुछ नहीं बहका है...पर मेरे ख्याल से अगर मेरे जैसी लड़की हर वीकएंड जा के परेशां करना शुरू कर दे तो वो अपने हिन्दी किताबों का संकलन भी बढाएँगे। तो देर किस बात की है...बंगलोर में जो भी हैं, higgin bothams पहुँच जाइए और हिन्दी की किताबें खरीद लीजिये...हमारे जैसे कुछ और खुराफाती लोग इकट्ठे हो जाएँ तो यहाँ आया हुआ हिन्दी किताबों का अकाल जरूर समाप्त हो जाएगा :)

हमें यकीं हो गया है ढूँढने से कुछ भी मिल सकता है :)

10 June, 2009

२६ कि उमर...१६ का दिल( काश ६२ कि अकल भी होती :) )

२५ साल से २६ साल का होने में कितना अन्तर होता है? पूरी जिंदगी के हिसाब से देखें तो शायद कुछ भी नहीं, ये भी बाकी सालों की तरह एक उम्र की गिनती है। मगर महसूस होता है, की जिंदगी अब एक अलग राह पर चल पड़ी है।

मैंने जाने कब तो तय कर लिया था...की २५ पर बचपन को अलविदा कह दूँगी...यूँ तो बचपन उसी दिन विदा हो गया था जब माँ छोड़ कर गई थी...पर आज जब मैं २६ साल की हो गई तो वाकई लगा कि अब बचपन विदा ले चुका है।

और आप मानें या न मानें, हमें लगता है कि हम अब थोड़े ज्ञानी हो गए हैं :) (सुबह ताऊ की पोस्ट भी तो पढ़ी थी)।
जिंदगी बहुत कुछ सिखा देती है और मुझे लगता है कि जब से ब्लॉग पर लिखना और पढ़ना नियमित किया है, बहुत कुछ जानने सीखने को मिला है। ब्लॉग अक्सर लोग दिल से लिखते हैं, बिना काट छाँट के इसलिए ब्लॉग पढ़ना बिना किसी को जाने एक रिश्ता कायम करने जैसा है...आप किसी की खुशी, गम, जन्मदिन, बरसी सबमें शामिल होते हैं...कोई आपको अपना समझ कर लिखता है...आभासी ही सही, पर ब्लॉग के लोग भी परिवार जैसे हो जाते हैं। मैं कुछ ही लोगों से बात करती हूँ...पर रिश्ता तो उन सबसे है जिनका ब्लॉग मैं पढ़ती हूँ, या वो मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं।

जिंदगी में ज्यादा जोड़ घटाव नहीं किया, लगा कि यही सब करती रही तो जीने का वक्त कहाँ मिलेगा...पर आँखें बंद कर के जिंदगी के कुछ बेहतरीन लम्हों को यार करती हूँ तो लगता है...मैंने जिंदगी जी है और बेहद खूबसूरती से जी है। शिकायत है तो बस खुदा से, बस इतनी छोटी सी शिकायत कि मेरे साथ मेरी खुशियों में मेरी माँ क्यों नहीं है...अभी जब मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दौर शुरू हुआ है तो लगता है कि अपनी खुशियों को बाँटने के लिए उसको होना चाहिए था मेरे साथ।

पाने खोने का अजीब गणित होता है भगवान् का...इसके पचड़े में पढ़ने से कोई फायदा नहीं है...पिछले साल कुछ लोगों से फ़ोन पर बात हुयी मेरी, गाहे बगाहे होती भी रहती है, जैसे पीडी, कुश, डॉक्टर अनुराग, अपने फुरसतिया जी, ताऊ...और कुछ बेहतरीन लोगों से बात हुयी मेल पर...बेजी, सुब्रमनियम जी, गौतम जी, महेन जी...लगा कि अपने जैसे लोगों का दायरा उतना भी छोटा नहीं है जितना मैं हमेशा समझती आई थी। लम्हों के इस सफर में अगर घड़ी भर को भी कुछ दिल को छू जाता है तो अक्सर घंटों तक होठों पर मुस्कराहट रहती है। आप सब का शुक्रिया...कहीं कहीं आपको पढ़कर, समझ कर जिंदगी थोड़ी आसान और खूबसूरत महसूस हुयी है।



सुबह आँखें खोली मैंने
आसमान रंगों से लिख रहा था
जन्मदिन मुबारक...

हवायें गुनगुना रही थीं
सूरज थिरक रहा था उनकी धुन पर
खिड़की पर खड़ा था एक बादल
बाहर घूमने की गुज़ारिश लिए

इतरा के ओढ़ा मैंने
खुशबू में भीगा दुपट्टा
हाथों में पहनी इन्द्रधनुषी चूड़ियाँ
बालों को छोड़ दिया ऐसे ही बेलौस

ऑफिस वाले खींच कर
ले गए पार्टी मनाने
काम को बंक मारा
(भगवान् ऐसा बॉस सबको दे ;) )

तभी खिड़की से आया
कुश का बधाइयों का टोकरा
और अनुराग जी का भेजा बादल
दोनों के कहा...बाहर घूम के आओ

प्लान बन गया शाम को
लॉन्ग ड्राइव पर जाने का
थोड़ी आइसक्रीम, थोड़ा भुट्टा खाने का
और थोड़ा ज्यादा वक्त 'उनके' साथ बिताने का

२६ की उमर में आँखें ऐसे चमक रही है
जैसे १६ में चमकती थी
जिंदगी ने देखा मुस्कान को
काला टीका लगा के कहा "चश्मे बद्दूर"

07 June, 2009

ऐसा भी एक दिन ऑफिस का...


कमबख्त बादल
यादों का एक गट्ठर फेंक कर चल दिया है
मेरी ऑफिस टेबल पर

रिसने लगा है किसी शाम का भीगा आसमान
अफरा तफरी मच गई है
बिखरे हुए कागज़ातों में

डेडलाईनें हंटर लिए हड़का रही हैं
कुछ नज्में सहम कर कोने में खड़ी हैं
डस्टबिन ढक्कन की ओट से झांक रहा है

कम्प्यूटर भी आज बगावत के मूड में हैं
एक तस्वीर पर हैंग कर गया है
कलम-कॉपी काना फूसी कर रहे हैं

तभी अचानक खुल गई गाँठ
कितनी जिद्दी यादें भागा-दौड़ी करने लगीं
पूरा ऑफिस सर पर उठा लिया

मेरी यादों की हमशक्लें
सबकी दराजों में बंद थीं
सारी यादें हँसने लगी हैं बचपन वाली हँसी

एक क्षण में बाहर आ गया है
हमारे अन्दर का शैतान बच्चा
और हम सबने मिलकर...ऑफिस बंक कर दिया :)

04 June, 2009

इश्क की उम्र...



सदियों पुराने खंडहरों में
अक्सर अपनी रूह के हिस्से मिल जाते हैं
दीवारों में चिने हुए, चट्टानों पर खुदे हुए

कब के बिसराए हुए गीत
हवा की सरसराहट पर चले आते हैं
और धूल के गुबार में थिरकने लगते हैं


उभरने लगते हैं कुछ पुराने रंग
यादों को छेड़ते हैं अनजान चेहरे
टीसने लगता है जाने किस जन्म का इश्क

उजाड़ मंदिरों में होने लगता है शंखनाद
याद आने लगती हैं दुआएँ मज़ारों पर
साथ बैठा महसूस होता है इश्वर सा कोई

महसूस करती हूँ कि एक जिंदगी से
कहीं ज्यादा होती है इश्क की उम्र
तुमसे बिछड़ने का दर्द कुछ कम हो जाता है

30 May, 2009

शुक्रिया जिंदगी


आजकल तुमपर इतना प्यार आता है कि कुछ लिख ही नहीं पाती...काश तुम्हारी मुस्कान थोड़ी कम दिलकश होती, गालों पर पड़ते ये खूबसूरत गड्ढे नज़र नहीं आते, आँखें यूँ शरारत से नहीं मुस्कुरातीं

हर सुबह ऑफिस जाना कितना मुश्किल हो जाता है जब तुम्हें उनींदा सा दरवाजे पर देखती हूँ...बिना सुबह की चाय पिए तुम्हारी आँखें ही नहीं खुलतीं...मेरा भी आधा घंटा और सोने का मन करने लगता है

और वो कमबख्त लिफ्ट...इतनी जल्दी क्यों आ जाती है....वक्त थोड़ा धीरे क्यों नहीं बीतता सुबह

__________________________

घर का ताला खोलकर अंधेरे घर में कदम रखना, ट्यूब जलना...जो भुक भुक करके कितनी तो देर में जलती है, मुझे कभी भी बल्ब जलने का मन क्यों नहीं करता...वो खूबसूरत झूमर जो हॉल में लगा hai कभी तो उसकी बत्ती जलाऊं, बिजली बचने की चाह कभी उतने सारे बल्ब जलाने ही नहीं देती तुम कैसे इतने आराम से आते ही सीधे झूमर ऑन कर देते हो...जब भी तुम्हारे बाद घर आती हूँ तो लगता है किसी परियों वाले महल में गई हूँ

तुम्हारे साथ खाना खाना कितना अच्छा लगता है...और तुम हो भी इतने अच्छे कि कुछ भी बनाऊं उतनी ही खुशी से खाते हो, वो भी तारीफ़ कर कर के। साथ खाने से प्यार बढ़ता है...ऐसा भी लोग कहते हैं

बस तुम्हारे होने भर से, जिंदगी कितनी खूबसूरत हो गई है...कितने रंग, कितनी खुशबुयें और कितने ख्वाब...

मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ...मेरी जिंदगी में यूँ ही चले आने का शुक्रिया

26 May, 2009

किस्सा ऐ लेट रजिस्टर: भाग २

क्या बताएँ, इच्छा तो हो रही थी की किस्सा लिखने के बजाये भाग लें...शीर्षक भी कुछ ऐसी ही प्रेरणा दे रहा है...भाग दो-भाग लो। पर हमें भाग लो में वो मज़ा कभी नहीं आया जो फूट लो में आता है, कट लो में आता है...(निपट लो में भी आता है :) )

जैसा कि आप सब लोग जानते हैं, भारत एक स्वतंत्र देश है, हमारे संविधान में लिखा है कि हम पूरे भारत में कहीं भी नौकरी कर सकते हैं, घर खरीद सकते हैं, शादी कर सकते हैं(गनीमत है, वरना भाग के शादी करने वाले कहाँ भागते...खैर!)। किसी भी राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिए कोई रोक टोक नहीं है(हम बिहार बंद या भारत बंद की बात नहीं कर रहे हैं)। इतने सारे अधिकार होने कि बात पर हम बहुत खुश हो जाते हैं, बचपन से हो रहे हैं सिविक्स की किताब में पढ़ पढ़ कर।

खैर, मुद्दे पर आते हैं...इतना सब होने के बावजूद...हमारे अधिकारों को चुनौती देता है हमारा नेता, जी हाँ यही नेता जिसे हम घंटों धूप में खड़े होकर वोट देकर जिताते हैं। और अगर मैं ऑफिस देर से पहुँची...और मेरे तनखा कटी, तो इसी नेता से माँगना चाहिए...नेताजी मुझ गरीब को और भी कम पैसे मिलेंगे, क्या आपका ह्रदय नहीं पसीजता...क्या आपकी आत्मा क्रंदन नहीं करती(भारी शब्द जान के इस्तेमाल किए हैं, दिल को तसल्ली पहुंचे कि नेताजी हमारे भाषण को समझ नहीं पाये)

जैसा कि आप पहले से जानते हैं...मेरा ऑफिस घर से साढ़े तीन मिनट की दूरी पर है...मैं तकरीबन १० मिनट पहले निकलती हूँ...कि टाईम पर पहुँच जाऊं। कल और आज मैं बिफोर टाइम निकली क्योंकि सोमवार को भीड़ ज्यादा होती है इसका अंदाजा था मुझे। तो भैय्या कल तो हम बड़े मजे से फुर फुर करते फ्ल्योवर पर पहुँच गए...आधे दूरी पर देखा कि लंबा जाम लगा हुआ है। और अगर आप फ्ल्योवर के बीच में अटके हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता...अरे भाई उड़ के थोड़े न पहुँच जायेंगे, अटके रहो, लटके रहो। monday कि सुबह का हैप्पी हैप्पी गाना दिमाग से निकल गया...और मैथ के जोड़ घटाव में लग गए...पहुंचेंगे कि नहीं। एकदम आखिरी मिनट में ऑफिस पहुंचे और मुए लेट रजिस्टर कि शकल देखने से बच गए।

जी भर के भगवान् को गरिया रहे थे, कि जाम लगना ही था तो पहले लगते, किसी शोर्टकट से पहुँच जाते हम..ई तो भारी बदमासी है कि बीच पुलवा में जाम लगाय दिए...भगवान हैं तो क्या कुच्छो करेंगे...गजब बेईमानी है. और उसपर से बात इ थी कि हमारी गाड़ी में पेट्रोल बहुत कम था, क्या कहें एकदम्मे नहीं था...बहुत ज्यादा चांस था कि रास्ते में बंद हो जाए। उसपर जाम, उ भी पुल पर, डर के मरे हालत ख़राब था कि इ जाम में अगर गाड़ी बंद हुयी तो सच्ची में सब लोग गाड़ी समेत हमको उठा के नीचे फ़ेंक देंगे।

लेकिन हम टाइम पर पहुंचे, पेट्रोल भी ख़तम नहीं हुआ tab भी भगवान को गरिया रहे थे, तो बस भगवान् आ गए खुन्नस में...आज भोरे भोरे १०० feet road पर ऐसा जाम लगा था कि आधा घंटा लगा ऑफिस पहुँचने में...जैसे टाटा ने nano बनाई कि हर गरीब आदमी अब कार में चल सकता है, ऐसे ही कोई कंपनी हिम्मत करे और सस्ते में छोटा हेलीकॉप्टर दिलवाए. पुल पे अटके बस बटन दबाया और उड़ लिए आराम से। भले ही समीरजी की उड़नतश्तरी को इनिशियल ऐडवान्टेज मिले पर हम आम इंसानों का भी उद्धार हो जाएगा.

और मैंने लिखा की बड़ाsssss सा ट्रैफिक जाम था, इसलिए लेट हो गया...आज की तनखा कटी तो नेताजी पर केस ठोक देंगे और ढूंढ ढांढ के बाकी लोगों के भी साइन करा लेंगे जो नेताजी के कारण देर से पहुंचे. मामला बहुत गंभीर है, और इसपर घनघोर विचार विमर्श की आवश्यकता है. नेताओं का कहीं भी निकलना सुबह आठ बजे से ११ बजे तक वर्जित होना चाहिए. इसलिए लिए हमें एकमत होना होगा...भाइयों और बहनों, मेरा साथ दीजिये, और बंगलोर में जिन लोगों को आज ऑफिस में इस नेता के कारण देर हुयी, मुझे बताइए. जब मैं केस ठोकुंगी तो आपका साइन लेने भी आउंगी.

मेरी आज की तनखा अगर नहीं कटी...तो मैं उसे किसी गरीब नेता को दान करने का प्रण लेती हूँ.

24 May, 2009

उस खिड़की के परदे से...


वो सारी शामें जब तुम मेरी गली से गुजरे थे
रातों को मेरे कमरे में पूरा चाँद निकलता था

तुमको मालूम नहीं हुआ कभी भी लेकिन
उस खिड़की के परदे से तुम जितना ही रिश्ता था

तुमसे बातें करती थी तो हफ्तों गजलें सुनती थी
हर शेर के मायने में अपना आलम ही दिखता था

वो सड़कें मेरे साथ चली आयीं हर शहर
जिस मोड़ पर रुकी इंतज़ार तेरा ही रहता था

जाने तू अब कितना बदल गया होगा
मेरी यादों में तो हमेशा नया सा लगता था

23 May, 2009

वट सावित्री की कुछ यादें

कल हिन्दी तारीख के हिसाब से मेरा जन्मदिन है, और चूँकि ये एक बहुत खास दिन है, इसलिए by default अक्सर खुशी खुशी मना ही लेते थे हम।

बिहार/झारखण्ड के लोग वट सावित्री व्रत के बारे में जानते होंगे। ये व्रत पत्नियों द्वारा पति की लम्बी उम्र के लिए रखा जाता है, दिन भर निराहार और निर्जला रहकर अगली सुबह वट वृक्ष यानि बरगद की पूजा करने जाती हैं। इसे पारण कहते हैं, मेरा जन्म वट सावित्री के पारण के दिन हुआ था।
बचपन से इस व्रत ने बहुत आकर्षित किया है, कारण वही जो हर बच्चे का कमोबेश एक सा ही होता होगा..प्रशाद। व्रत के लिए घर में पिरकिया और ठेकुआ बनता है...पिरकिया गुझिया टाईप की एक मिठाई होती है बस इसे चाशनी में नहीं डालते, और ठेकुआ आटे में चीनी/गुड़, घी, मेवा आदि डाल कर बनाया जाता है। यह प्रशाद पूजा के एक दिन पहले बना लेती थी मम्मी और रथ के बड़े वाले डब्बे में रख देती थी...वो नीले रंग के डब्बे जिनमे सफ़ेद ढक्कन होता था, उनपर अखबार रखकर कास के बंद कर दिया जाता था, एक दिन बाद खुलने के लिए।

पिरकिया बनाना भी एक अच्छा खासा आयोजन होता था, जिसमें अक्सर आस पड़ोस के लोग मिल कर काम करते थे...हम बच्चों का किचन में जाना बंद हो जाता था, हम किचन की देहरी पर खड़े देखते रहते थे। डांट भी खाते थे की क्या बिल्ली की तरह घुर फ़िर कर रहे हो, प्रशाद है...अभी नहीं मिलेगा। पर अगर छानते हुए कोई पिरकिया या ठेकुआ गिर गया तो वो अपवित्र हो जाता था और उसको भोग में नहीं डाल सकते थे। ये गिरा हुआ पिरकिया ही हमारे ध्यान का केन्द्र होता था...और हम मानते रहते थे की खूब सारा गिर जाए, ताकि हमें खाने को मिले।

फ़िर थोड़े बड़े हुए तो मम्मी का हाथ बंटाने लगे, अच्छी बेटी की तरह...पिरकिया को गूंथना पड़ता है। हर साल मैं बहुत अच्छा गूंथती और हर साल मम्मी कहती अरे वाह तुम तो हमसे भी अच्छा गूंथने लगी है...हम कहते थे की मम्मी हर साल अच्छा गूंथते हैं, तुमको हर साल आश्चर्य कैसे होता है। पर बड़ा मज़ा आता था, सबसे सुंदर पिरकिया बनाने में।

अगली सुबह मुहल्ले की सभी अंटियाँ एक साथ ही जाती थीं, हम बच्चे हरकारा लगते थे सबके यहाँ...और सब मिलकर बरगद के पेड़ तक पहुँच जाते थे। जाने का सबसे बड़ा फायदा था की instant प्रशाद मिलता था...और वो भी खूब सारा। प्रायः प्रसाद में लीची मेरा पसंदीदा फल हुआ करता था, तो मैं ढूंढ कर लीची ही लेती थी।

बरगद के पेड़ के फेरे लगा कर उसमें कच्चा सूत बांधती थीं और फ़िर पूरी पलटन घर वापस...और फ़िर खुलता था पिरकिया का डब्बा । मुझे याद नहीं मैंने किसी बरसैत में खाना भी खाया हो, प्रशाद से ही पेट भर जाता था। वैसे उस दिन पापा खाना बनाते थे, कढ़ी चावल और मम्मी के लिए पकोड़े भी बनाते थे. ये एक अलग आयोजन होता था, क्योंकि पापा साल में बस दो बार ही किचन जाते थे, एक तीज और दूसरा वाट सावित्री यानि बरसैत के दिन.

आज सुबह एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी ५ जून को मानव श्रृंखला बन रही हैं बंगलोर में, पेड़ बचाओ, धरती बचाओ अभियान. अजीब विडंबना है...क्या ऐसी कोई भी मानव श्रृंखला मन को उस तरह से छू पाएगी जैसे हमारे त्यौहार छूते हैं. जरूरत है कुछ ऐसा करने की जो जनमानस में बस जाए...लोकगीतों की तरह, नृत्य और संगीत की . मगर हम कुछ कर सकते!

एक कल हमें कोई अपने घर बुला के पिराकिया ठेकुआ खिला दे...हम हैप्पी हो जायेंगे.

21 May, 2009

दास्ताने लेट रजिस्टर

हमारे ऑफिस में एक रजिस्टर होता है, जिसकी शकल से हमें बहुत जोर की चिढ़ है...वैसे तो रजिस्टर जैसे सीधे साधे और गैर हानिकारक वस्तु से किसी को चिढ़ होनी तो नहीं चाहिए...मगर क्या करें, किस्सा ही कुछ ऐसा है।

ये वो रजिस्टर है, जिसमे देर से जाने पर दस्तखत करने पड़ते हैं...यानि कि ९:४५ के बाद। कहानी यहाँ ख़तम हो जाए तो भी गनीमत है, आख़िर दिन भर ऑफिस में दस्तखत करने के अलावा हम करते क्या हैं...मगर नहीं, उस मासूम से दिखने वाले नामुराद रजिस्टर में एक कमबख्त कॉलम है "वजह", यानि कि देर से आना किस वजह से हुआ। बस यहीं हमारे सब्र का बाँध टूट जाता है...काश ये रजिस्टर कोई इंसान होता तो उसे एक हफ्ते का अपना पूरा कारनामा दिखा देते, उसके बाद मजाल होती उसकी पूछने की ऑफिस देर से क्यों पहुंचे। दिल तो करता है उसकी चिंदी चिंदी करके ऑफिस के गमलों में ही खाद बना के डाल दूँ...मगर अफ़सोस। मुए रजिस्टर को हमने सर चढा रखा है...प्यार से बतियाते हैं न इसलिए...

फ़र्ज़ कीजिये बंगलोर का सुहावना मौसम है, आठ बजे तक कम्बल ओढ़ के पड़े हुए हैं...अनठिया रहे हैं...५ मिनट और...किसी तरह खींच खांच कर किचन तक जाते हैं। सारी सब्जियों को विरक्त भाव से देखते हैं, संसार मोह माया है, हमें पूरा यकीं हो जाता है...जगत मिथ्या है...सच सिर्फ़ इश्वर है...और हम कर्म करो फल की चिंता मत करो के अंदाज में खाना बनने जुट जाते हैं। खाना बनने के महासंग्राम के दौरान अगर खुदा न खस्ता कोई कोक्क्रोच या उसके भाई बंधुओं में कोई नज़र आ गया तो उसके पूरे खानदान को मेरा बस चले तो श्राप से ही भ्रष्ट कर डालूं। मगर क्या करूँ...ब्राह्मण होने हुए भी ये श्राप से जला देने वाला तेज हममें नहीं है। भगा दौडी में किसी तरह खाना बन के डब्बों में बंद होके तैयार हो जाता है और हम बेचारे नहाने धोने में लग जाते हैं।

अब ये बात किसी लड़के को समझ में नहीं आती है, इसलिए रजिस्टर को भी समझ में नहीं आएगी इसलिए हम कारण में नहीं लिखते हैं...पर हर सुबह हमें देर होने का मुख्य कारण होता है कि हमें समझ नहीं आता कि क्या पहनें? इस समस्या से हर लड़की रूबरू होती है, मगर वही रजिस्टर...अगली बार लिख दूँगी कि भैया आपको जो समझना है समझ लो, पर हमें देर इसलिए हुआ क्योंकि हमें लग रहा था कि नीली जींस पर हरा टॉप अच्छा नहीं लग रहा है, और फ़िर वो टॉप क्रीम पैंट पर भी अच्छा नहीं लगा, और स्कर्ट में हम मोटे लगते हैं, और वो हलके हरे कलर वाली जींस हमें टाइट हो गई (सुबह ही पता चला, मूड बहुत ख़राब है, इसका तो पूछो ही मत)...तो इतने सारे ऑप्शन्स ट्राय करने के कारण हमें देर हो गई। तो क्या हुआ अगर इस कारण को लिखने के कारण बाकी ऑफिस के सारे लोग कुछ नहीं लिख पाएं, हमने तो ईमानदारी से कारण बताया न।

बंगलोर में जब भी सुबह का मौसम अच्छा, प्यारा और ठंढा हो...आधा घंटा देर से आना allow होना चाहिए, अरे इसमें हमारी क्या गलती है...हम ठहरे देवघर, दिल्ली के रहने वाले, अच्छा मौसम देखे, चद्दर तान के सो गए खुशी खुशी...जेट लैग की तरह मौसम लैग भी होता है भाई...सच्ची में। इसको pre programming कहते हैं, जैसे सूरज की धूप पड़ते ही आँख खुलना, बहुत दिनों बाद किसी दोस्त से मिलने पर गालियाँ देना...वगैरह। ये ऐसी आदतें हैं जिनका कुछ नहीं कर सकते।

बरहाल...इधर दो दिन लगातार लेट हो गए ऑफिस जाने को...कारण और भी हैं, किस्तों में आते रहेंगे, रजिस्टर में क्या क्या लिखें। सब किस्सा वहीँ लिख देंगे तो आख़िर ये ब्लॉग काहे खोले हैं :)

18 May, 2009

उलझे आयाम...


आज वो खामोश है...सदियों पुराने बिसराए गए गीत कमरे में घूम रहे हैं...धुनों की तरह, जिनके कोई बोल नहीं होते...वो किसी लम्हे में नहीं है, न तो किसी पुरानी याद की मुस्कराहट है, न किसी आने वाले कल की गुनगुनी धूप...

एक गहरा सन्नाटा है, और अँधेरा...कुछ ऐसा कि छुआ जा सके...उसने हाल में एक बीमारी के बारे में पढ़ा है, जिसमें सारी इन्द्रियां आपस में गड्ड मड्ड हो जाती है, रंगों से गीत सुनाई देने लगते हैं तो गीतों का स्वाद आने लगता है, वह सोचती है कि ये बीमारी तो उसे बचपन से है....आख़िर बारिश के बाद मिट्टी का स्वाद तो महसूस होता ही है, कोहरे वाली रातों को सोच कर हमेशा कॉफी की खुशबू भी महसूस हुयी है उसे।

जिंदगी तमाम खुशियों के बावजूद एकदम खाली लगती है...या शायद तमाम खुशियों के कारण ही...जब हर वजह हो हँसने की तभी ऐसा दर्द महसूस होता है कि मुस्कुराने से डर लगने लगे. अकेले कमरे में चुप चाप घूमने वाला पंखा तन्हाई को बड़ी शिद्दत से कमरे में बिखेरता है...घूमते हुए पंखों को देख कर उसे दिल्ली की डीटीसी बसें क्यों याद आने लगती है? उमस का चिलचिलाती धुप से कोई भी रिश्ता तो नहीं है. अकेलापन साँसों में उतर जाता है सभी के बीच होने के बाद भी...और ठोस हो जाता है, जैसे हमारे अन्दर कुछ मर गया हो.

नए शब्दों में उलझी, नए बिम्बों में पुराने लोगों को तलाशती जाने किस रास्ते पर चल पड़ी है वो...जिंदगी क तमाम खूबसूरत रातों में उसे डरावने ख्वाब आते हैं, खिलखिलाते हुए धूप वाले मौसमों में जैसे ग्रहण लग जाता है...
अपरिभाषित सा कोई दर्द टीसता है...इस हद तक कि आंसू नहीं आते और वो रो नहीं सकती...चलती रहती है, सफ़र है, वक़्त है, तन्हाई है...कौन जाने कोई मोड़ आये, पुराना सा...
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हर रिश्ते की एक उम्र होती है, और जो रिश्ते अपनी उम्र के पहले टूट जाते हैं...वो मरते नहीं उनकी आत्मा भटकती रहती है...इस भटकाव में सब तड़पते हैं...रिश्ता भी...वक़्त, हालत, मौसम, तन्हाई...तुम और मैं भी.

09 May, 2009

जीत का जश्न...बंगलोर ये दिल मांगे मोर

बहुत वक्त गुजर गया कुछ लिखे हुए...शब्द झगड़ते रहे, ख्याल बेतरतीब से बिखरे रहे, समेटने का वक्त ही नहीं मिल पाया।
ये तस्वीर १ मई की है, हमारे ऑफिस के फाउंडेशन डे के दिन ट्रेज़र हंट हुआ था बंगलोर में...हम जीत गए! बहुत मज़ा आया, हर जगह भागा दौड़ी और धूप भी इतनी कड़ी थी की पूछिए मत...जल्दी जल्दी सारे क्लू बूझना और फ़िर सबसे पहले ऑफिस पहुँच कर pot ऑफ़ गोल्ड हासिल करना। चिल्ला चिल्ला कर हमने गला ख़राब कर लिया था अपना। इस तस्वीर में मेरे साथ और टीम मेम्बेर्स हैं, आगे की रो में बायें से दाएं सायरा, लिशा, माला और पीछे झांकता हुआ सीनू...मुझे तो आप पहचान गए होंगे :)

जगहों को पहचानना शायद ताऊ की पहेली का अंजाम था...ताऊ की पहेली में पहला स्थान आया हमारा हुआ ये की सुबह सुबह ऑफिस जाने के लिए तैयार होना पड़ता है तो हमने सोचा आज देख ही लें...क्या जाने हमारी देखि हुयी जगह हो आज...फोटो देखते ही मन बल्लियों उछलने लगा की भाईआज तो मैदान मार लिया...कन्याकुमारी गए बहुत ज्यादा साल नहीं हुए थे देखते ही पहचान गए की तिरुवल्लुअर की मूर्ति है। याद इसलिए भी अच्छी तरह से था क्योंकि कन्याकुमारी एक बार हम बहुत साल पहले बचपन में गए थे, तकरीबन चार साल के रहे होंगे पर जगह बिल्कुल अच्छी तरह याद थी, दूसरी बार विवेकनान्दा रॉक देखा तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि बीच समंदर में एक छोटा सा टापू बचपन की एक अमिट छाप की तरह था...उस याद में फेरबदल करती हुयी ये मूर्ति बड़ी खटकी थी हमें। इसलिए बिल्कुल देखते ही पहचान भी गए थे।

वैसे हमें बिल्कुल भी नहीं लगा था की हम पहला स्थान पायेंगे, मुझे लगा किसी ने तो बूझा ही होगा...आख़िर अपनी जानी हुयी जगह पहेली में आती है तो लगता है की सबको मालूम होगा। अगले दिन जवाब देखते ही दिल खुश हो गया, बहुत दिन बाद कोई प्रतियोगिता जीती थी...और उसपर ताऊ की पहेली जीतने का तो हमेशा से मन था। पर उस दिन के बाद से ऑफिस से काम में ऐसे फंसे की फुर्सत ही नहीं मिल पायी है, ताऊ ने इतने प्यार से नाश्ते पर बुलाया है और हम हैं की ऑफिस के काम में उलझे हुए हैं। सोच रहे हैं बंक मार कर चले ही जाएँ...चुप चाप खा पी के आ जायेंगे, कौन जाने ताऊ ही है, कहीं मूड बिगड़ गया तो एक बढ़िया नाश्ते का हर्जाना हो जाएगा। ऐसा मौका बार बार तो आने से रहा।

ऑफिस में प्रोग्राम के सिलसिले में pictionary भी खेली गई थी, उसमें भी हमारी टीम फर्स्ट आई थी...वो भी एक बड़ा मजेदार खेल होता है, इस बार घर जाउंगी तो ले के जाउंगी सब भाई बहनों के साथ मिल कर खेलने में बड़ा मज़ा आएगा। ये ऐसा खेल होता है जिसमें टीम बनती है, हर टीम से एक मेम्बएर को एक शब्द दिया जाता है, उसे उस शब्द के हिसाब से कागज पर चित्र बनाने होते हैं ताकि बाकी टीम वाले पहचान सकें की कौन सा शब्द है। बहुत हल्ला और शोर शराबा होता है इस खेल में...और बहुत मज़ा आता है। और जाहिर है सबसे ज्यादा मज़ा तब आता है जब आपकी टीम जीते।

इसको कहते हैं धमाकेदार शुरुआत...
मुझे लगता है अगर सुबह सवा नौ बजे के लगभग, अपनी flyte पर गुनगुनाते हुए, आंखों में चमक और होठो पर मुस्कान लिए मैं घर से ऑफिस के लिए निकलती हूँ...तो मुझे अपने ऑफिस से इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। खुशनसीब होते हैं वो लोग जो वो काम करते हैं जिसमें उनका दिल लगे...इश्वर को धन्यवाद कि मैं उन लोगों में से हूँ। ऐसे मौके सब को मिलें...फिलहाल हमसे काफ़ी जलन होती है लोगों को ;)

और उसपर बंगलोर का मौसम...उफ़ पहले प्यार की तरह...रंगीला, नशीला, भीगा सा...और क्या चाहिए :)

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