26 May, 2009
किस्सा ऐ लेट रजिस्टर: भाग २
जैसा कि आप सब लोग जानते हैं, भारत एक स्वतंत्र देश है, हमारे संविधान में लिखा है कि हम पूरे भारत में कहीं भी नौकरी कर सकते हैं, घर खरीद सकते हैं, शादी कर सकते हैं(गनीमत है, वरना भाग के शादी करने वाले कहाँ भागते...खैर!)। किसी भी राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिए कोई रोक टोक नहीं है(हम बिहार बंद या भारत बंद की बात नहीं कर रहे हैं)। इतने सारे अधिकार होने कि बात पर हम बहुत खुश हो जाते हैं, बचपन से हो रहे हैं सिविक्स की किताब में पढ़ पढ़ कर।
खैर, मुद्दे पर आते हैं...इतना सब होने के बावजूद...हमारे अधिकारों को चुनौती देता है हमारा नेता, जी हाँ यही नेता जिसे हम घंटों धूप में खड़े होकर वोट देकर जिताते हैं। और अगर मैं ऑफिस देर से पहुँची...और मेरे तनखा कटी, तो इसी नेता से माँगना चाहिए...नेताजी मुझ गरीब को और भी कम पैसे मिलेंगे, क्या आपका ह्रदय नहीं पसीजता...क्या आपकी आत्मा क्रंदन नहीं करती(भारी शब्द जान के इस्तेमाल किए हैं, दिल को तसल्ली पहुंचे कि नेताजी हमारे भाषण को समझ नहीं पाये)
जैसा कि आप पहले से जानते हैं...मेरा ऑफिस घर से साढ़े तीन मिनट की दूरी पर है...मैं तकरीबन १० मिनट पहले निकलती हूँ...कि टाईम पर पहुँच जाऊं। कल और आज मैं बिफोर टाइम निकली क्योंकि सोमवार को भीड़ ज्यादा होती है इसका अंदाजा था मुझे। तो भैय्या कल तो हम बड़े मजे से फुर फुर करते फ्ल्योवर पर पहुँच गए...आधे दूरी पर देखा कि लंबा जाम लगा हुआ है। और अगर आप फ्ल्योवर के बीच में अटके हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता...अरे भाई उड़ के थोड़े न पहुँच जायेंगे, अटके रहो, लटके रहो। monday कि सुबह का हैप्पी हैप्पी गाना दिमाग से निकल गया...और मैथ के जोड़ घटाव में लग गए...पहुंचेंगे कि नहीं। एकदम आखिरी मिनट में ऑफिस पहुंचे और मुए लेट रजिस्टर कि शकल देखने से बच गए।
जी भर के भगवान् को गरिया रहे थे, कि जाम लगना ही था तो पहले लगते, किसी शोर्टकट से पहुँच जाते हम..ई तो भारी बदमासी है कि बीच पुलवा में जाम लगाय दिए...भगवान हैं तो क्या कुच्छो करेंगे...गजब बेईमानी है. और उसपर से बात इ थी कि हमारी गाड़ी में पेट्रोल बहुत कम था, क्या कहें एकदम्मे नहीं था...बहुत ज्यादा चांस था कि रास्ते में बंद हो जाए। उसपर जाम, उ भी पुल पर, डर के मरे हालत ख़राब था कि इ जाम में अगर गाड़ी बंद हुयी तो सच्ची में सब लोग गाड़ी समेत हमको उठा के नीचे फ़ेंक देंगे।
लेकिन हम टाइम पर पहुंचे, पेट्रोल भी ख़तम नहीं हुआ tab भी भगवान को गरिया रहे थे, तो बस भगवान् आ गए खुन्नस में...आज भोरे भोरे १०० feet road पर ऐसा जाम लगा था कि आधा घंटा लगा ऑफिस पहुँचने में...जैसे टाटा ने nano बनाई कि हर गरीब आदमी अब कार में चल सकता है, ऐसे ही कोई कंपनी हिम्मत करे और सस्ते में छोटा हेलीकॉप्टर दिलवाए. पुल पे अटके बस बटन दबाया और उड़ लिए आराम से। भले ही समीरजी की उड़नतश्तरी को इनिशियल ऐडवान्टेज मिले पर हम आम इंसानों का भी उद्धार हो जाएगा.
और मैंने लिखा की बड़ाsssss सा ट्रैफिक जाम था, इसलिए लेट हो गया...आज की तनखा कटी तो नेताजी पर केस ठोक देंगे और ढूंढ ढांढ के बाकी लोगों के भी साइन करा लेंगे जो नेताजी के कारण देर से पहुंचे. मामला बहुत गंभीर है, और इसपर घनघोर विचार विमर्श की आवश्यकता है. नेताओं का कहीं भी निकलना सुबह आठ बजे से ११ बजे तक वर्जित होना चाहिए. इसलिए लिए हमें एकमत होना होगा...भाइयों और बहनों, मेरा साथ दीजिये, और बंगलोर में जिन लोगों को आज ऑफिस में इस नेता के कारण देर हुयी, मुझे बताइए. जब मैं केस ठोकुंगी तो आपका साइन लेने भी आउंगी.
मेरी आज की तनखा अगर नहीं कटी...तो मैं उसे किसी गरीब नेता को दान करने का प्रण लेती हूँ.
24 May, 2009
उस खिड़की के परदे से...

वो सारी शामें जब तुम मेरी गली से गुजरे थे
रातों को मेरे कमरे में पूरा चाँद निकलता था
तुमको मालूम नहीं हुआ कभी भी लेकिन
उस खिड़की के परदे से तुम जितना ही रिश्ता था
तुमसे बातें करती थी तो हफ्तों गजलें सुनती थी
हर शेर के मायने में अपना आलम ही दिखता था
वो सड़कें मेरे साथ चली आयीं हर शहर
जिस मोड़ पर रुकी इंतज़ार तेरा ही रहता था
जाने तू अब कितना बदल गया होगा
मेरी यादों में तो हमेशा नया सा लगता था
23 May, 2009
वट सावित्री की कुछ यादें
बिहार/झारखण्ड के लोग वट सावित्री व्रत के बारे में जानते होंगे। ये व्रत पत्नियों द्वारा पति की लम्बी उम्र के लिए रखा जाता है, दिन भर निराहार और निर्जला रहकर अगली सुबह वट वृक्ष यानि बरगद की पूजा करने जाती हैं। इसे पारण कहते हैं, मेरा जन्म वट सावित्री के पारण के दिन हुआ था।
बचपन से इस व्रत ने बहुत आकर्षित किया है, कारण वही जो हर बच्चे का कमोबेश एक सा ही होता होगा..प्रशाद। व्रत के लिए घर में पिरकिया और ठेकुआ बनता है...पिरकिया गुझिया टाईप की एक मिठाई होती है बस इसे चाशनी में नहीं डालते, और ठेकुआ आटे में चीनी/गुड़, घी, मेवा आदि डाल कर बनाया जाता है। यह प्रशाद पूजा के एक दिन पहले बना लेती थी मम्मी और रथ के बड़े वाले डब्बे में रख देती थी...वो नीले रंग के डब्बे जिनमे सफ़ेद ढक्कन होता था, उनपर अखबार रखकर कास के बंद कर दिया जाता था, एक दिन बाद खुलने के लिए।
पिरकिया बनाना भी एक अच्छा खासा आयोजन होता था, जिसमें अक्सर आस पड़ोस के लोग मिल कर काम करते थे...हम बच्चों का किचन में जाना बंद हो जाता था, हम किचन की देहरी पर खड़े देखते रहते थे। डांट भी खाते थे की क्या बिल्ली की तरह घुर फ़िर कर रहे हो, प्रशाद है...अभी नहीं मिलेगा। पर अगर छानते हुए कोई पिरकिया या ठेकुआ गिर गया तो वो अपवित्र हो जाता था और उसको भोग में नहीं डाल सकते थे। ये गिरा हुआ पिरकिया ही हमारे ध्यान का केन्द्र होता था...और हम मानते रहते थे की खूब सारा गिर जाए, ताकि हमें खाने को मिले।
फ़िर थोड़े बड़े हुए तो मम्मी का हाथ बंटाने लगे, अच्छी बेटी की तरह...पिरकिया को गूंथना पड़ता है। हर साल मैं बहुत अच्छा गूंथती और हर साल मम्मी कहती अरे वाह तुम तो हमसे भी अच्छा गूंथने लगी है...हम कहते थे की मम्मी हर साल अच्छा गूंथते हैं, तुमको हर साल आश्चर्य कैसे होता है। पर बड़ा मज़ा आता था, सबसे सुंदर पिरकिया बनाने में।
अगली सुबह मुहल्ले की सभी अंटियाँ एक साथ ही जाती थीं, हम बच्चे हरकारा लगते थे सबके यहाँ...और सब मिलकर बरगद के पेड़ तक पहुँच जाते थे। जाने का सबसे बड़ा फायदा था की instant प्रशाद मिलता था...और वो भी खूब सारा। प्रायः प्रसाद में लीची मेरा पसंदीदा फल हुआ करता था, तो मैं ढूंढ कर लीची ही लेती थी।
बरगद के पेड़ के फेरे लगा कर उसमें कच्चा सूत बांधती थीं और फ़िर पूरी पलटन घर वापस...और फ़िर खुलता था पिरकिया का डब्बा । मुझे याद नहीं मैंने किसी बरसैत में खाना भी खाया हो, प्रशाद से ही पेट भर जाता था। वैसे उस दिन पापा खाना बनाते थे, कढ़ी चावल और मम्मी के लिए पकोड़े भी बनाते थे. ये एक अलग आयोजन होता था, क्योंकि पापा साल में बस दो बार ही किचन जाते थे, एक तीज और दूसरा वाट सावित्री यानि बरसैत के दिन.
आज सुबह एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी ५ जून को मानव श्रृंखला बन रही हैं बंगलोर में, पेड़ बचाओ, धरती बचाओ अभियान. अजीब विडंबना है...क्या ऐसी कोई भी मानव श्रृंखला मन को उस तरह से छू पाएगी जैसे हमारे त्यौहार छूते हैं. जरूरत है कुछ ऐसा करने की जो जनमानस में बस जाए...लोकगीतों की तरह, नृत्य और संगीत की . मगर हम कुछ कर सकते!
एक कल हमें कोई अपने घर बुला के पिराकिया ठेकुआ खिला दे...हम हैप्पी हो जायेंगे.
21 May, 2009
दास्ताने लेट रजिस्टर

ये वो रजिस्टर है, जिसमे देर से जाने पर दस्तखत करने पड़ते हैं...यानि कि ९:४५ के बाद। कहानी यहाँ ख़तम हो जाए तो भी गनीमत है, आख़िर दिन भर ऑफिस में दस्तखत करने के अलावा हम करते क्या हैं...मगर नहीं, उस मासूम से दिखने वाले नामुराद रजिस्टर में एक कमबख्त कॉलम है "वजह", यानि कि देर से आना किस वजह से हुआ। बस यहीं हमारे सब्र का बाँध टूट जाता है...काश ये रजिस्टर कोई इंसान होता तो उसे एक हफ्ते का अपना पूरा कारनामा दिखा देते, उसके बाद मजाल होती उसकी पूछने की ऑफिस देर से क्यों पहुंचे। दिल तो करता है उसकी चिंदी चिंदी करके ऑफिस के गमलों में ही खाद बना के डाल दूँ...मगर अफ़सोस। मुए रजिस्टर को हमने सर चढा रखा है...प्यार से बतियाते हैं न इसलिए...
फ़र्ज़ कीजिये बंगलोर का सुहावना मौसम है, आठ बजे तक कम्बल ओढ़ के पड़े हुए हैं...अनठिया रहे हैं...५ मिनट और...किसी तरह खींच खांच कर किचन तक जाते हैं। सारी सब्जियों को विरक्त भाव से देखते हैं, संसार मोह माया है, हमें पूरा यकीं हो जाता है...जगत मिथ्या है...सच सिर्फ़ इश्वर है...और हम कर्म करो फल की चिंता मत करो के अंदाज में खाना बनने जुट जाते हैं। खाना बनने के महासंग्राम के दौरान अगर खुदा न खस्ता कोई कोक्क्रोच या उसके भाई बंधुओं में कोई नज़र आ गया तो उसके पूरे खानदान को मेरा बस चले तो श्राप से ही भ्रष्ट कर डालूं। मगर क्या करूँ...ब्राह्मण होने हुए भी ये श्राप से जला देने वाला तेज हममें नहीं है। भगा दौडी में किसी तरह खाना बन के डब्बों में बंद होके तैयार हो जाता है और हम बेचारे नहाने धोने में लग जाते हैं।
अब ये बात किसी लड़के को समझ में नहीं आती है, इसलिए रजिस्टर को भी समझ में नहीं आएगी इसलिए हम कारण में नहीं लिखते हैं...पर हर सुबह हमें देर होने का मुख्य कारण होता है कि हमें समझ नहीं आता कि क्या पहनें? इस समस्या से हर लड़की रूबरू होती है, मगर वही रजिस्टर...अगली बार लिख दूँगी कि भैया आपको जो समझना है समझ लो, पर हमें देर इसलिए हुआ क्योंकि हमें लग रहा था कि नीली जींस पर हरा टॉप अच्छा नहीं लग रहा है, और फ़िर वो टॉप क्रीम पैंट पर भी अच्छा नहीं लगा, और स्कर्ट में हम मोटे लगते हैं, और वो हलके हरे कलर वाली जींस हमें टाइट हो गई (सुबह ही पता चला, मूड बहुत ख़राब है, इसका तो पूछो ही मत)...तो इतने सारे ऑप्शन्स ट्राय करने के कारण हमें देर हो गई। तो क्या हुआ अगर इस कारण को लिखने के कारण बाकी ऑफिस के सारे लोग कुछ नहीं लिख पाएं, हमने तो ईमानदारी से कारण बताया न।
बंगलोर में जब भी सुबह का मौसम अच्छा, प्यारा और ठंढा हो...आधा घंटा देर से आना allow होना चाहिए, अरे इसमें हमारी क्या गलती है...हम ठहरे देवघर, दिल्ली के रहने वाले, अच्छा मौसम देखे, चद्दर तान के सो गए खुशी खुशी...जेट लैग की तरह मौसम लैग भी होता है भाई...सच्ची में। इसको pre programming कहते हैं, जैसे सूरज की धूप पड़ते ही आँख खुलना, बहुत दिनों बाद किसी दोस्त से मिलने पर गालियाँ देना...वगैरह। ये ऐसी आदतें हैं जिनका कुछ नहीं कर सकते।
बरहाल...इधर दो दिन लगातार लेट हो गए ऑफिस जाने को...कारण और भी हैं, किस्तों में आते रहेंगे, रजिस्टर में क्या क्या लिखें। सब किस्सा वहीँ लिख देंगे तो आख़िर ये ब्लॉग काहे खोले हैं :)
18 May, 2009
उलझे आयाम...

आज वो खामोश है...सदियों पुराने बिसराए गए गीत कमरे में घूम रहे हैं...धुनों की तरह, जिनके कोई बोल नहीं होते...वो किसी लम्हे में नहीं है, न तो किसी पुरानी याद की मुस्कराहट है, न किसी आने वाले कल की गुनगुनी धूप...
एक गहरा सन्नाटा है, और अँधेरा...कुछ ऐसा कि छुआ जा सके...उसने हाल में एक बीमारी के बारे में पढ़ा है, जिसमें सारी इन्द्रियां आपस में गड्ड मड्ड हो जाती है, रंगों से गीत सुनाई देने लगते हैं तो गीतों का स्वाद आने लगता है, वह सोचती है कि ये बीमारी तो उसे बचपन से है....आख़िर बारिश के बाद मिट्टी का स्वाद तो महसूस होता ही है, कोहरे वाली रातों को सोच कर हमेशा कॉफी की खुशबू भी महसूस हुयी है उसे।
जिंदगी तमाम खुशियों के बावजूद एकदम खाली लगती है...या शायद तमाम खुशियों के कारण ही...जब हर वजह हो हँसने की तभी ऐसा दर्द महसूस होता है कि मुस्कुराने से डर लगने लगे. अकेले कमरे में चुप चाप घूमने वाला पंखा तन्हाई को बड़ी शिद्दत से कमरे में बिखेरता है...घूमते हुए पंखों को देख कर उसे दिल्ली की डीटीसी बसें क्यों याद आने लगती है? उमस का चिलचिलाती धुप से कोई भी रिश्ता तो नहीं है. अकेलापन साँसों में उतर जाता है सभी के बीच होने के बाद भी...और ठोस हो जाता है, जैसे हमारे अन्दर कुछ मर गया हो.नए शब्दों में उलझी, नए बिम्बों में पुराने लोगों को तलाशती जाने किस रास्ते पर चल पड़ी है वो...जिंदगी क तमाम खूबसूरत रातों में उसे डरावने ख्वाब आते हैं, खिलखिलाते हुए धूप वाले मौसमों में जैसे ग्रहण लग जाता है...
अपरिभाषित सा कोई दर्द टीसता है...इस हद तक कि आंसू नहीं आते और वो रो नहीं सकती...चलती रहती है, सफ़र है, वक़्त है, तन्हाई है...कौन जाने कोई मोड़ आये, पुराना सा...
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हर रिश्ते की एक उम्र होती है, और जो रिश्ते अपनी उम्र के पहले टूट जाते हैं...वो मरते नहीं उनकी आत्मा भटकती रहती है...इस भटकाव में सब तड़पते हैं...रिश्ता भी...वक़्त, हालत, मौसम, तन्हाई...तुम और मैं भी.
09 May, 2009
जीत का जश्न...बंगलोर ये दिल मांगे मोर

ये तस्वीर १ मई की है, हमारे ऑफिस के फाउंडेशन डे के दिन ट्रेज़र हंट हुआ था बंगलोर में...हम जीत गए! बहुत मज़ा आया, हर जगह भागा दौड़ी और धूप भी इतनी कड़ी थी की पूछिए मत...जल्दी जल्दी सारे क्लू बूझना और फ़िर सबसे पहले ऑफिस पहुँच कर pot ऑफ़ गोल्ड हासिल करना। चिल्ला चिल्ला कर हमने गला ख़राब कर लिया था अपना। इस तस्वीर में मेरे साथ और टीम मेम्बेर्स हैं, आगे की रो में बायें से दाएं सायरा, लिशा, माला और पीछे झांकता हुआ सीनू...मुझे तो आप पहचान गए होंगे :)
जगहों को पहचानना शायद ताऊ की पहेली का अंजाम था...ताऊ की पहेली में पहला स्थान आया हमारा हुआ ये की सुबह सुबह ऑफिस जाने के लिए तैयार होना पड़ता है तो हमने सोचा आज देख ही लें...क्या जाने हमारी देखि हुयी जगह हो आज...फोटो देखते ही मन बल्लियों उछलने लगा की भाईआज तो मैदान मार लिया...कन्याकुमारी गए बहुत ज्यादा साल नहीं हुए थे देखते ही पहचान गए की तिरुवल्लुअर की मूर्ति है। याद इसलिए भी अच्छी तरह से था क्योंकि कन्याकुमारी एक बार हम बहुत साल पहले बचपन में गए थे, तकरीबन चार साल के रहे होंगे पर जगह बिल्कुल अच्छी तरह याद थी, दूसरी बार विवेकनान्दा रॉक देखा तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि बीच समंदर में एक छोटा सा टापू बचपन की एक अमिट छाप की तरह था...उस याद में फेरबदल करती हुयी ये मूर्ति बड़ी खटकी थी हमें। इसलिए बिल्कुल देखते ही पहचान भी गए थे।
वैसे हमें बिल्कुल भी नहीं लगा था की हम पहला स्थान पायेंगे, मुझे लगा किसी ने तो बूझा ही होगा...आख़िर अपनी जानी हुयी जगह पहेली में आती है तो लगता है की सबको मालूम होगा। अगले दिन जवाब देखते ही दिल खुश हो गया, बहुत दिन बाद कोई प्रतियोगिता जीती थी...और उसपर ताऊ की पहेली जीतने का तो हमेशा से मन था। पर उस दिन के बाद से ऑफिस से काम में ऐसे फंसे की फुर्सत ही नहीं मिल पायी है, ताऊ ने इतने प्यार से नाश्ते पर बुलाया है और हम हैं की ऑफिस के काम में उलझे हुए हैं। सोच रहे हैं बंक मार कर चले ही जाएँ...चुप चाप खा पी के आ जायेंगे, कौन जाने ताऊ ही है, कहीं मूड बिगड़ गया तो एक बढ़िया नाश्ते का हर्जाना हो जाएगा। ऐसा मौका बार बार तो आने से रहा।
ऑफिस में प्रोग्राम के सिलसिले में pictionary भी खेली गई थी, उसमें भी हमारी टीम फर्स्ट आई थी...वो भी एक बड़ा मजेदार खेल होता है, इस बार घर जाउंगी तो ले के जाउंगी सब भाई बहनों के साथ मिल कर खेलने में बड़ा मज़ा आएगा। ये ऐसा खेल होता है जिसमें टीम बनती है, हर टीम से एक मेम्बएर को एक शब्द दिया जाता है, उसे उस शब्द के हिसाब से कागज पर चित्र बनाने होते हैं ताकि बाकी टीम वाले पहचान सकें की कौन सा शब्द है। बहुत हल्ला और शोर शराबा होता है इस खेल में...और बहुत मज़ा आता है। और जाहिर है सबसे ज्यादा मज़ा तब आता है जब आपकी टीम जीते।
इसको कहते हैं धमाकेदार शुरुआत...
मुझे लगता है अगर सुबह सवा नौ बजे के लगभग, अपनी flyte पर गुनगुनाते हुए, आंखों में चमक और होठो पर मुस्कान लिए मैं घर से ऑफिस के लिए निकलती हूँ...तो मुझे अपने ऑफिस से इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। खुशनसीब होते हैं वो लोग जो वो काम करते हैं जिसमें उनका दिल लगे...इश्वर को धन्यवाद कि मैं उन लोगों में से हूँ। ऐसे मौके सब को मिलें...फिलहाल हमसे काफ़ी जलन होती है लोगों को ;)
और उसपर बंगलोर का मौसम...उफ़ पहले प्यार की तरह...रंगीला, नशीला, भीगा सा...और क्या चाहिए :)
24 April, 2009
बारिशें...दिल्ली, बंगलोर...बहुत कुछ और, इसी बहाने :)
बंगलोर का मौसम कुछ ऐसा है कि हर दिन आपको अपनी पहली मुहब्बत याद आती रहे (या दूसरी, तीसरी, चौथी...या हर दिन एक)। कभी पहली बारिश, तो कभी तुम्हारे साथ वाली पहली बारिश...और उसमें काफ़ी की गर्माहट।
मेरे ऑफिस की छत ग्रीन हाउस के ऊपर जैसी होती है न, वैसी है...तो जब जोर से बारिश होती है तो पानी के बूंदों का शोर बिल्कुल फुल वोलुम में बजते ब्रायन अडम्स के गीत जैसा लगता है कभी कभी "please forgive me, i can't stop loving you". खिड़कियों से मिट्टी की सोंधी महक और पानी का हल्का भीगापन महसूस होने लगता है, अजीब खुलापन सा है ऑफिस में, कभी किसी बंधन का अहसास नहीं होता।
मुझे याद है, इससे पहले का क्यूबिकल, एयर टाईट कमरे...जिनमें सब कुछ कृत्रिम था, बारिश आके चली जाए पता भी न चल पाता था। और यहाँ जैसे बारिश नृत्य करने लगती है चारो तरफ़...अपनी सीट पर बैठ कर भी उसे पूरी तरह महसूस किया जा सकता है...कुछ नहीं तो सिर्फ़ इस एक चीज़ के लिए इस ऑफिस में काम करना चाहूंगी, जिंदगी ऐसी हो कि जी जाए...ऑफिस में हम शायद जिंदगी का सबसे ज्यादा हिस्सा गुजरते हैं। क्यों न ऑफिस ऐसा हो कि जिंदगी के करीब लगे। छोटी छोटी चीज़ों से कैसी खुशी मिल सकती है इसका ख्याल रख कर ऑफिस शायद बहुत कम लोग बनाते होंगे।
आते हुए भी हलकी बूंदा बंदी हो रही थी, चश्मे पर गिरती पानी की बूँदें कितने वाक़ये याद दिला रही थी...वो तुम्हारा कहना कि धीरे चलाना, दिल्ली की बारिशें, gurgaon कि सड़कें( जहाँ तुमने बाईक से गिरा दिया था...बारिश के कारण फिसलन हो गई थी) मेरा कहना कि तुम्हारे साथ बारिश में तब तक नहीं जाउंगी जब तक हैन्डिल मेरे हाथ में न हो।
सकड़ किनारे खूब सारा पानी जमा हो गया था, जेंस को मोड़ कर घुटनों से थोड़ा नीचे ही रहने दिया था आज भी...कुछ पाटलिपुत्रा के दिन याद आ गए, जब साइकिल चला कर ऐसे ही बारिश में कोचिंग जाया करते थे। उन दिनों अगर मस्ती छोड़ कर थोडी थांग से पढ़ाई करती तो शायद आ डॉक्टर होती...पर तब कवि नहीं होती, ब्लॉगर नहीं होती...तुमसे नहीं मिलती...या शायद ये सब होता...क्या पता :)
जानती थी आज सुबह भी...कि बारिश होगी, फ़िर भी रेनकोट नहीं रखा...बारिश होती ही ऐसी है कि भीगने का मोह छोड़ नहीं पाते। कुछ कुछ वैसे ही जैसे आज भी फैब इंडिया के कुरते अच्छे लगते हैं...पर उन्हें देखकर , छू कर जेएनयू की याद इतना तड़पाने लगती है कि खरीदते नहीं है।
बरहाल...
ए जिंदगी गले लगा ले...हमने भी तेरे हर एक गम को, गले से लगाया है...है न!
PS: sorry for deleting comments, and editing the post.
23 April, 2009
ऐसे ही...रोजाना की बातें
एक तो वोट नहीं कर पाये तो ऐसे ही खुन्नस हो रही है, वोटर्स लिस्ट में हमारा नाम नहीं आया...आख़िर आख़िर तक नहीं आया। अब हम इस देश को बदलें तो कैसे, खैर अगला चुनाव आएगा...तब तक शायद बन जाए। पर तब तक हम बंगलोर में रहेंगे ये भी तो पता नहीं है।
अब फ़िर से पूरी पोस्ट लिखने की हिम्मत नहीं हो रही है, तीन चार घंटों की मेहनत पर पानी फ़िर जाए तो दिल वैसे ही टूट जाता है...
आप ये गाना सुनिए। हम भी सुन कर बहला रहे थे ख़ुद को, की कुछ तो महफूज़ है...कहीं पूरा ब्लॉग ही डिलीट हो जाए तो...हम तो सोच कर ही डर गए(वैसे हमने ब्लॉग का बैक अप डाउनलोड कर रखा है :D ) महफूज़...बड़ा खूबसूरत है
Mehfuz.mp3 |
22 April, 2009
माँ मुझे अब भी प्यार करती है
मैंने कहा था तुमसे
तुमने कुछ दुआएं डाल दीं
उन्हें गाँठ लगा कर सोयी थी
कल रात, सदियों बाद
मुझे नींद आई थी...
ख्वाब भी थे
बचपन की उजली मुस्कुराहटें भी
माँ भी कल आई थी दुलराने को
सुबह ख्वाब तो नहीं थे
पर दुपट्टे के कोने पर
माँ का आशीर्वाद था
गांठ में सिन्दूर के साथ बंधा हुआ
शायद कल माँ ने तुम्हारी मनुहार मान ली
और मुझे तुम्हें दे ही दिया...हमेशा के लिए.
19 April, 2009
मेरा नया ऑफिस :)
पिछले छः दिनों से मेरी जिंदगी एकदम फास्ट फॉरवर्ड हो रखी है। सुबहें ताजगी भरी और जोशीली होती हैं, जैसे मुझको किसी कारवां की तलाश थी अपनी मंजिल तक जाने के लिए। ऑफिस बड़ा रास आया है मुझे...यहाँ लोग बहुत अच्छे हैं, मिलनसार और खाना खिलाने को तत्पर :) मैं एक advertising एजेन्सी में काम करती हूँ, हमारा काम होता है ब्रांडिंग करना। जैसे हमें एक प्रोडक्ट को लॉन्च करना है मार्केट में, ये दक्षिण भारतीय व्यंजन विशेषज्ञ के रूप में अपने मसालों को पेश करना चाहते हैं।
मैं ठहरी ताज़ा ताज़ा दिल्ली से आई हुयी, अभी तक उन पेचदार गलियों के पराठों में खोयी हुयी हूँ...और यहाँ काम करना था बिसिबेल्ले भात को ब्रांड बनाने के लिए...अब किसी पर काम करने के लिए उसके बारे में तो कुछ जानना तो होगा...तो बस हमने हाथ खड़े कर दिए, जब तक खिलाओगे नहीं ad नहीं बनायेंगे। अगले दिन वो सज्जन व्यक्ति पूरे ऑफिस के लिए घर से बिसेबेल्ले भात बनवा कर लाया। ऐसे भले लोग जहाँ हो, काम करने में अच्छा क्यों न लगे।
इस ऑफिस का architecture मुझे सबसे अच्छा लगता है, हमारे यहाँ लिफ्ट नहीं है, पाँच मंजिला ईमारत है और ऊपर नीचे जाने के लिए घुमावदार सीढियां हैं। हमारे cubicles बाकी जगहों की तरह वर्गाकार नहीं है बल्कि पूरा ऑफिस obtuse और acute angles पर ही बना है। जैसे पहले घरों में आँगन होता था

घर से ऑफिस जाने में मुझे साढ़े तीन मिनट लगते हैं अगर रेड लाइट नहीं मिली तो...और मैं कभी ४५-५० से ऊपर नहीं चलाती। घर के बिल्कुल पास में है तो थकान भी नहीं होती आने जाने में। ऑफिस में देर रात काम करने का कल्चर नहीं है, जो एक और अच्छी बात है क्योंकि अक्सर सब जगह देखा है कि लोग १२ बजे तक ऑफिस में ही रहते हैं। हम खुशी खुशी सात बजे तक घर आ जाते हैं :)
बस इस हफ्ते थोड़ा वक्त लगा चीज़ें एडजस्ट करने में, कल से सब कुछ आराम से कर लूंगी...और तो और ब्लॉग्गिंग का टाइम भी मैंने सोच लिया है :) तो अभी के लिए...जिंदगी खूबसूरत है।
आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे...बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए...बोलो?
10 April, 2009
सेंटी ब्लॉग पोस्ट...जुगाडू ब्लॉग्गिंग
बात ये है कि किसी कमबख्त ऑफिस वालों ने रिसेशन के ज़माने में भी वैकेंसी निकाल दी, हम भी बैठे ठाले मगजमारी ही कर रहे थे, अब भाई ब्लॉग्गिंग के पैसे थोड़े मिलते हैं...और जिस फ़िल्म की महान स्क्रिप्ट पर हम काम कर रहे थे उसकी एक एक डिटेल किसी को सुनाये बिना चैन ही ना पड़ता था। इस चक्कर में मुझ बेचारी का मोबाइल बिल खाने पीने से ज्यादा महंगा पड़ रहा था। तो हमने सोचा चले जाते हैं इंटरव्यू देने...किसी का दिमाग खायेंगे, थोड़ा खाने के पैसे बचेंगे। मज़े से गए और चूँकि टेंशन कुछ थी नहीं...एकदम बिंदास इंटरव्यू दे दिए...उन बेचारों को शायद हमारी शकल पसंद आ गई...सो उन्होंने अकल टेस्टिंग के लिए एक कॉपी टेस्ट थमा दिया।
ये कॉपी टेस्ट एक ऐसी बला होती है जिसकी तुलना हमें अपने ड्राइविंग लाइसेंस के लिए दिए गए रिटेन एक्साम के अलावा किसी से नहीं कर सकते हैं। कॉपी टेस्ट एक ऐसा टेस्ट होता है जो आपके दिमागी घुमक्कड़पने (पागलपंथी?)को टेस्ट करता है...और बखूबी करता है। मसलन...एक सवाल था...
"Concoct a short story (about 250 words) that starts with Neil Armstrong going on the moon mission, and ends with Mallika Sherawat kissing John F Kennedy। Other characters in the story are a goat, an umbrella, and an undertaker। "
इसका जवाब हम किसी दिन जरूर पोस्ट करेंगे ये वादा है हमारा...और जनाब ऐसे पाँच सवाल थे। सभी सवालों में ऐसी खुराफात मचाई थी हमने कि क्या बताएं, भाई बड़ा मज़ा आया था लिखने में। अब पढने वाले का क्या हाल हुआ था वो हमें नहीं मालूम...पर इसके बाद हमारा एक और राउंड हुआ इंटरव्यू का और फ़िर से तीन सवाल हल करने को दिए गए।
कॉपी टेस्ट घर लाकर करना होता है...यानि कि नींद ख़राब, खाना ख़राब...और सबसे बढ़कर ब्लॉग्गिंग की वाट लग गई, अपना तो ये हाल है कि ब्लॉगर पहले हैं इंसान बाद में तो समझ सकते हैं कि ब्लॉग्गिंग नहीं करने पर कितना गहरा अपराध बोध होता है...लगता है कोई पाप कर रहे हैं, हाय राम पोस्ट नहीं लिखी, कमेन्ट नहीं दिया, चिट्ठाचर्चा नहीं पढ़ी, ताऊ की पहेली का जवाब नहीं ढूँढा...ऐसे ही चलता रहा तो जो भगवान के दूतों ने ब्लॉग्गिंग पर डॉक्टरेट कि डिग्री दे ही वो भी कहीं निरस्त ना हो जाए। अब हम कोई दोक्टोरी पढ़े तो हैं नहीं कि भैया एक बार पढ़ लिए तो हो गए जिंदगी भर के लिए डॉक्टर...हमारा तो दिल ही बैठ जाता है मारे घबराहट के चक्कर आने लगते हैं।
तो मुए ऑफिस वालों ने हमें कह दिया कि मैडम आप आ जाईये हमें आप जैसे पागलों की ही जरूरत है...monday यानि कि १३ बड़ी शुभ तारीख है, तो आप हमारे ऑफिस को कृतार्थ कीजिये। हम तो सदमे में हैं तब से...कहाँ फ्रीलांसिंग का ऐशो आराम और कहाँ साढ़े नौ से छः बजे की खिट खिट उसमें हम ठहरे बहता पानी निर्मला...एक जगह टिक के बैठने में घोर कष्ट होता है हमें।
जले पर नमक छिड़कने को सुबह सुबह एयरटेल वालो का फ़ोन आ गया...हमारे इन्टरनेट कनेक्शन पर 15gb फ्री दे रहे थे डाऊनलोड...मानो उन्हें भी सपना आ गया हो कि हमें अब घर में नेट पर बैठने कि फुर्सत ही नहीं मिलेगी। बस ये आखिरी वार हमारी कमर तोड़ गया...हम तबसे बड़ी हसरतों से अपने लैपटॉप को देख रहे हैं।
मौका है, माहौल है, दस्तूर भी है....सेंटी हो लेते हैं। जाने कैसा होगा ऑफिस और कितनी फुर्सत मिल पाएगी....मेरे बिना अमीबा जैसे प्राणियों पर कौन पोस्ट लिखेगा...उनका उद्धार कैसे होगा। और सबसे बढ़कर मेरा मोक्ष अटक जायेगा...आप तो जानते हैं कि कलयुग में बिना ब्लॉग्गिंग के मोक्ष नहीं मिलता। शायद अगले जनम में फ़िर पोस्टिंग होगी...या हम भी भूत योनि में ही ब्लोग्गिन करने लगें, कौन जाने!
मगर हम हिम्मत नहीं हारे हैं...ब्लॉग्गिंग के गुरुओं से हम माइक्रो पोस्ट लिखना सीखेंगे...या कुछ और उपाय...आज से हम जुगाडू ब्लॉग्गिंग करेंगे। कोई ना कोई जुगाड़ तो होगा ही :)
09 April, 2009
मेरी जिंदगी का एक पन्ना
मैं गाने सुनती हूँ तो अक्सर एक ही गीत को बहुत देर तक सुनती हूँ, कई कई बार...और अक्सर नींद आने तक। घर पर सब परेशान हो जाते हैं मुझसे...जब थोड़ी छोटी थी तो मम्मी से इस कारण बहुत डांट खाती थी...बाकी सबका तो मन भर जाता था, पर मुझे अगर कोई गाना सुनना है तो बस...कोई लिमिट नहीं होती थी की पाँच बार सुनकर बंद कर दूंगी या ऐसा ही कुछ।
और दूसरी चीज़ होती थी, कोई गाना सुन लिया तो बस सुर चढ़ गया अब जब तक आकाश पाताल से ढूंढ कर दस बीस बार सुन न लें, खाना हज़म नहीं होता था। हमें तो प्यार भी इसी गीतों के जूनून के कारण हुआ है वरना तो हम कुणाल से कभी मिलते ही नहीं। वो भला मानुस एक ऐसे ही पागलपन में मेरे पसंद का गाना ढूंढ दिया था हमको...बस हम इम्प्रेस हो गए...काफ़ी आसान था :)
कुणाल का सबसे अच्छा दोस्त है रेड्डी...दोनों रूममेट रहे हैं...रेड्डी इतना प्यारा और अच्छा इंसान है कि यकीन नहीं होता कि आज भी ऐसी कैटेगरी के लोग होते हैं। और उसपर सुपर intelligent...अकल देने में भी भगवान ने उतनी ही दरियादिली दिखाई है जितनी शकल देने में :) ऐसा बड़ा कम होता है। इत्ता बड़ा तोप है पर बातें करो तो हवा तक नहीं लगेगी...वैसे कुणाल या उसके सारे दोस्त ऐसे ही हैं। मुझे लगता है IIT ठोक पीट के लड़कों को ये सब सिखा देता है। रेड्डी मुझे बहन मानता है...और गाहे बगाहे ख़बर लेता रहता है कि लाइफ में सब ठीक चल रहा है कि नहीं। अभी तक मिली तो नहीं हूँ उससे, सात समंदर पार जो बैठा है। मज़ा तो तब आता है जब हम बात करते हैं कि रेड्डी के लिए लड़की ढूंढनी है...उसकी पहली कैटेगरी है कि लड़की को डांस करना आना चाहिए, बाकी कैसी भी हो चलेगी :) हम सोचते हैं कि उसे कोई पसंद आ गई तो क्या करेगा...तो उसने कहा है कि सिखा देगा :)
वैसे मैं कई दिनों से उसे कह रही हूँ कि कुणाल को भी कहे कोई डांस सीख लेने को मगर यहाँ उसने भी हाथ खड़े कर दिए, लगता है कुणाल के साथ डांस करने के लिए मुझे दूसरा जनम लेना होगा ;-)
कल रेड्डी ने एक गाने का लिंक दिया...जब से सुना है दिमाग में चल रहा है...बोल इतने प्यारे और सिंपल से...और tune भी बड़ी मस्त है। मूड अच्छा हो जाए सुनकर...और प्यार तो हो ही जायेगा :)
और ये मेरी fav lines हैं...
im so glad i found you.
i love bein around you.
you make it easy,
as easy as 1 2,(1 2 3 4.)
theres only one thing two do three words four you.
i love you.
(i love you)
theres only one way two say those three words
and that's what i'll do.
i love you.
i love you
06 April, 2009
दिल ढूंढता है...फ़िर वोही फुर्सत के रात दिन...
जिंदगी की सबसे खूबसूरत यादें किसी कैमरा में कैद नहीं हो सकती...उन्हें दिल से लगा के रखना पड़ता है...उनकी खुशबू किसी अल्फाजों के तिलिस्म में बंधने को तैयार ही नहीं होती.
मुझे जाने क्यों रात हमेशा बड़ी प्यारी और खूबसूरत लगती है...उसपर दिल्ली की वो सर्द कोहरे वाली रातें। इंडिया गेट पर दोस्तों के साथ देर रात बैठ कर अपने स्कूल या कॉलेज के किस्से बयान करना...आहा वो काला खट्टा वाला बर्फ का गोला खाना, उफ़ वो स्वाद भला मैक डी के आइसक्रीम में आएगा कभी। बैलून खरीद कर सबके साथ खेलना, मारा पीटी करना...रेस लगाना और वो टूटे फूटे गानों के साथ अन्त्याक्षरी खेलना...वो गाने जो किसी फ़िल्म के नहीं, वो बोल जो किसी गीतकार ने नहीं लिखे...वो चाँद गाने जो दिल की धड़कनों से उठते थे...वो खोये हुए बोल...वो गुमी हुयी धुनें।
रास्ते भर कार में बजती वो गजलें या कोई शोर शराबा सा पंजाबी गीत...और हाँ उन दिनों...तारे ज़मीन पर का गाना कितना सुना था...तू धूप है...छम से बिखर, तू है नदी ओ बेखबर...अब भी कहीं भी ये गाना बजते सुनती हूँ तो मन उसी nh8 पर पहुँच जाता है। कमबख्त ये दिल्ली पीछा छोड़ती ही नहीं, कहीं भी जाओ।
वो दिन जब आधे दोस्तों की प्रेमकहानी में कोई ना कोई ट्विस्ट चल रहा था, और हम सब मिल कर उपाय ढूंढते रहते थे...वो दिन जब दोस्ती सबसे कीमती चीज़ होती थी दुनिया में और वो चंद लम्हे दिन भर की थकान उतारने का सबब।
पंख लगा के उड़ने वाले वो दिन...जब जिंदगी का नशा हुआ करता था और खुशियाँ सर चढ़ कर बोलती थीं...जब किसी की एक नज़र का खुमार हफ्तों नहीं उतरता था...जब आइना किसी भी हालात में आपपर मुस्कुराता था...जब कुछ भी पहन लो आखों में खिलखिलाहट होती थी।
उफ्फ्फ्फ्फ्फ
दिल्ली तेरी गलियों का...वो इश्क याद आता है
01 April, 2009
अप्रैल फूल कैसे बने?
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ऐसे :D
अब आप हमें गरिया लें...क्या कीजियेगा...भाई हमें तो यही सीधे साधे वाले अप्रैल फूल बनाने में मज़ा आता है.
31 March, 2009
किस्सा अमीबा का...
