18 May, 2009

उलझे आयाम...


आज वो खामोश है...सदियों पुराने बिसराए गए गीत कमरे में घूम रहे हैं...धुनों की तरह, जिनके कोई बोल नहीं होते...वो किसी लम्हे में नहीं है, न तो किसी पुरानी याद की मुस्कराहट है, न किसी आने वाले कल की गुनगुनी धूप...

एक गहरा सन्नाटा है, और अँधेरा...कुछ ऐसा कि छुआ जा सके...उसने हाल में एक बीमारी के बारे में पढ़ा है, जिसमें सारी इन्द्रियां आपस में गड्ड मड्ड हो जाती है, रंगों से गीत सुनाई देने लगते हैं तो गीतों का स्वाद आने लगता है, वह सोचती है कि ये बीमारी तो उसे बचपन से है....आख़िर बारिश के बाद मिट्टी का स्वाद तो महसूस होता ही है, कोहरे वाली रातों को सोच कर हमेशा कॉफी की खुशबू भी महसूस हुयी है उसे।

जिंदगी तमाम खुशियों के बावजूद एकदम खाली लगती है...या शायद तमाम खुशियों के कारण ही...जब हर वजह हो हँसने की तभी ऐसा दर्द महसूस होता है कि मुस्कुराने से डर लगने लगे. अकेले कमरे में चुप चाप घूमने वाला पंखा तन्हाई को बड़ी शिद्दत से कमरे में बिखेरता है...घूमते हुए पंखों को देख कर उसे दिल्ली की डीटीसी बसें क्यों याद आने लगती है? उमस का चिलचिलाती धुप से कोई भी रिश्ता तो नहीं है. अकेलापन साँसों में उतर जाता है सभी के बीच होने के बाद भी...और ठोस हो जाता है, जैसे हमारे अन्दर कुछ मर गया हो.

नए शब्दों में उलझी, नए बिम्बों में पुराने लोगों को तलाशती जाने किस रास्ते पर चल पड़ी है वो...जिंदगी क तमाम खूबसूरत रातों में उसे डरावने ख्वाब आते हैं, खिलखिलाते हुए धूप वाले मौसमों में जैसे ग्रहण लग जाता है...
अपरिभाषित सा कोई दर्द टीसता है...इस हद तक कि आंसू नहीं आते और वो रो नहीं सकती...चलती रहती है, सफ़र है, वक़्त है, तन्हाई है...कौन जाने कोई मोड़ आये, पुराना सा...
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हर रिश्ते की एक उम्र होती है, और जो रिश्ते अपनी उम्र के पहले टूट जाते हैं...वो मरते नहीं उनकी आत्मा भटकती रहती है...इस भटकाव में सब तड़पते हैं...रिश्ता भी...वक़्त, हालत, मौसम, तन्हाई...तुम और मैं भी.

09 May, 2009

जीत का जश्न...बंगलोर ये दिल मांगे मोर

बहुत वक्त गुजर गया कुछ लिखे हुए...शब्द झगड़ते रहे, ख्याल बेतरतीब से बिखरे रहे, समेटने का वक्त ही नहीं मिल पाया।
ये तस्वीर १ मई की है, हमारे ऑफिस के फाउंडेशन डे के दिन ट्रेज़र हंट हुआ था बंगलोर में...हम जीत गए! बहुत मज़ा आया, हर जगह भागा दौड़ी और धूप भी इतनी कड़ी थी की पूछिए मत...जल्दी जल्दी सारे क्लू बूझना और फ़िर सबसे पहले ऑफिस पहुँच कर pot ऑफ़ गोल्ड हासिल करना। चिल्ला चिल्ला कर हमने गला ख़राब कर लिया था अपना। इस तस्वीर में मेरे साथ और टीम मेम्बेर्स हैं, आगे की रो में बायें से दाएं सायरा, लिशा, माला और पीछे झांकता हुआ सीनू...मुझे तो आप पहचान गए होंगे :)

जगहों को पहचानना शायद ताऊ की पहेली का अंजाम था...ताऊ की पहेली में पहला स्थान आया हमारा हुआ ये की सुबह सुबह ऑफिस जाने के लिए तैयार होना पड़ता है तो हमने सोचा आज देख ही लें...क्या जाने हमारी देखि हुयी जगह हो आज...फोटो देखते ही मन बल्लियों उछलने लगा की भाईआज तो मैदान मार लिया...कन्याकुमारी गए बहुत ज्यादा साल नहीं हुए थे देखते ही पहचान गए की तिरुवल्लुअर की मूर्ति है। याद इसलिए भी अच्छी तरह से था क्योंकि कन्याकुमारी एक बार हम बहुत साल पहले बचपन में गए थे, तकरीबन चार साल के रहे होंगे पर जगह बिल्कुल अच्छी तरह याद थी, दूसरी बार विवेकनान्दा रॉक देखा तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि बीच समंदर में एक छोटा सा टापू बचपन की एक अमिट छाप की तरह था...उस याद में फेरबदल करती हुयी ये मूर्ति बड़ी खटकी थी हमें। इसलिए बिल्कुल देखते ही पहचान भी गए थे।

वैसे हमें बिल्कुल भी नहीं लगा था की हम पहला स्थान पायेंगे, मुझे लगा किसी ने तो बूझा ही होगा...आख़िर अपनी जानी हुयी जगह पहेली में आती है तो लगता है की सबको मालूम होगा। अगले दिन जवाब देखते ही दिल खुश हो गया, बहुत दिन बाद कोई प्रतियोगिता जीती थी...और उसपर ताऊ की पहेली जीतने का तो हमेशा से मन था। पर उस दिन के बाद से ऑफिस से काम में ऐसे फंसे की फुर्सत ही नहीं मिल पायी है, ताऊ ने इतने प्यार से नाश्ते पर बुलाया है और हम हैं की ऑफिस के काम में उलझे हुए हैं। सोच रहे हैं बंक मार कर चले ही जाएँ...चुप चाप खा पी के आ जायेंगे, कौन जाने ताऊ ही है, कहीं मूड बिगड़ गया तो एक बढ़िया नाश्ते का हर्जाना हो जाएगा। ऐसा मौका बार बार तो आने से रहा।

ऑफिस में प्रोग्राम के सिलसिले में pictionary भी खेली गई थी, उसमें भी हमारी टीम फर्स्ट आई थी...वो भी एक बड़ा मजेदार खेल होता है, इस बार घर जाउंगी तो ले के जाउंगी सब भाई बहनों के साथ मिल कर खेलने में बड़ा मज़ा आएगा। ये ऐसा खेल होता है जिसमें टीम बनती है, हर टीम से एक मेम्बएर को एक शब्द दिया जाता है, उसे उस शब्द के हिसाब से कागज पर चित्र बनाने होते हैं ताकि बाकी टीम वाले पहचान सकें की कौन सा शब्द है। बहुत हल्ला और शोर शराबा होता है इस खेल में...और बहुत मज़ा आता है। और जाहिर है सबसे ज्यादा मज़ा तब आता है जब आपकी टीम जीते।

इसको कहते हैं धमाकेदार शुरुआत...
मुझे लगता है अगर सुबह सवा नौ बजे के लगभग, अपनी flyte पर गुनगुनाते हुए, आंखों में चमक और होठो पर मुस्कान लिए मैं घर से ऑफिस के लिए निकलती हूँ...तो मुझे अपने ऑफिस से इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। खुशनसीब होते हैं वो लोग जो वो काम करते हैं जिसमें उनका दिल लगे...इश्वर को धन्यवाद कि मैं उन लोगों में से हूँ। ऐसे मौके सब को मिलें...फिलहाल हमसे काफ़ी जलन होती है लोगों को ;)

और उसपर बंगलोर का मौसम...उफ़ पहले प्यार की तरह...रंगीला, नशीला, भीगा सा...और क्या चाहिए :)

24 April, 2009

बारिशें...दिल्ली, बंगलोर...बहुत कुछ और, इसी बहाने :)

बंगलोर का मौसम कुछ ऐसा है कि हर दिन आपको अपनी पहली मुहब्बत याद आती रहे (या दूसरी, तीसरी, चौथी...या हर दिन एक)। कभी पहली बारिश, तो कभी तुम्हारे साथ वाली पहली बारिश...और उसमें काफ़ी की गर्माहट।

मेरे ऑफिस की छत ग्रीन हाउस के ऊपर जैसी होती है न, वैसी है...तो जब जोर से बारिश होती है तो पानी के बूंदों का शोर बिल्कुल फुल वोलुम में बजते ब्रायन अडम्स के गीत जैसा लगता है कभी कभी "please forgive me, i can't stop loving you". खिड़कियों से मिट्टी की सोंधी महक और पानी का हल्का भीगापन महसूस होने लगता है, अजीब खुलापन सा है ऑफिस में, कभी किसी बंधन का अहसास नहीं होता।

मुझे याद है, इससे पहले का क्यूबिकल, एयर टाईट कमरे...जिनमें सब कुछ कृत्रिम था, बारिश आके चली जाए पता भी न चल पाता था। और यहाँ जैसे बारिश नृत्य करने लगती है चारो तरफ़...अपनी सीट पर बैठ कर भी उसे पूरी तरह महसूस किया जा सकता है...कुछ नहीं तो सिर्फ़ इस एक चीज़ के लिए इस ऑफिस में काम करना चाहूंगी, जिंदगी ऐसी हो कि जी जाए...ऑफिस में हम शायद जिंदगी का सबसे ज्यादा हिस्सा गुजरते हैं। क्यों न ऑफिस ऐसा हो कि जिंदगी के करीब लगे। छोटी छोटी चीज़ों से कैसी खुशी मिल सकती है इसका ख्याल रख कर ऑफिस शायद बहुत कम लोग बनाते होंगे।

आते हुए भी हलकी बूंदा बंदी हो रही थी, चश्मे पर गिरती पानी की बूँदें कितने वाक़ये याद दिला रही थी...वो तुम्हारा कहना कि धीरे चलाना, दिल्ली की बारिशें, gurgaon कि सड़कें( जहाँ तुमने बाईक से गिरा दिया था...बारिश के कारण फिसलन हो गई थी) मेरा कहना कि तुम्हारे साथ बारिश में तब तक नहीं जाउंगी जब तक हैन्डिल मेरे हाथ में न हो।

सकड़ किनारे खूब सारा पानी जमा हो गया था, जेंस को मोड़ कर घुटनों से थोड़ा नीचे ही रहने दिया था आज भी...कुछ पाटलिपुत्रा के दिन याद आ गए, जब साइकिल चला कर ऐसे ही बारिश में कोचिंग जाया करते थे। उन दिनों अगर मस्ती छोड़ कर थोडी थांग से पढ़ाई करती तो शायद आ डॉक्टर होती...पर तब कवि नहीं होती, ब्लॉगर नहीं होती...तुमसे नहीं मिलती...या शायद ये सब होता...क्या पता :)

जानती थी आज सुबह भी...कि बारिश होगी, फ़िर भी रेनकोट नहीं रखा...बारिश होती ही ऐसी है कि भीगने का मोह छोड़ नहीं पाते। कुछ कुछ वैसे ही जैसे आज भी फैब इंडिया के कुरते अच्छे लगते हैं...पर उन्हें देखकर , छू कर जेएनयू की याद इतना तड़पाने लगती है कि खरीदते नहीं है।

बरहाल...

ए जिंदगी गले लगा ले...हमने भी तेरे हर एक गम को, गले से लगाया है...है न!


PS: sorry for deleting comments, and editing the post.

23 April, 2009

ऐसे ही...रोजाना की बातें

इतने दिन बाद जाके मौका मिला था...आज इलेक्शन के कारण ऑफिस में छुट्टी है...हमने जी भर कर लिखा, और खूब लिखा। पर इस नामुराद ब्लोगेर को जाने हमसे क्या दुश्मनी थी, पोस्ट को सेव ही नहीं किया इसने...और हमारे लैपटॉप की दुःख भरी व्यथा तो आप जानते है हैं। हैंग कर गया...तो बस हमने हार्ड रिबूट कर दिया...वापस ऑन किया तो क्या पाते हैं की हमारी घंटों की मेहनत का कहीं नामो निशान नहीं है। पोस्ट गायब...जाने कौन से पाप का फल मिला है...हम तो कर्म कर रहे थे, ब्लॉगर पर भरोसा था इसलिए फल की चिंता नहीं करते थे। अब कितने सारे बैक अप बनाये एक बेचारा इंसान , यही करते रहे तो पोस्ट कब करे।

एक तो वोट नहीं कर पाये तो ऐसे ही खुन्नस हो रही है, वोटर्स लिस्ट में हमारा नाम नहीं आया...आख़िर आख़िर तक नहीं आया। अब हम इस देश को बदलें तो कैसे, खैर अगला चुनाव आएगा...तब तक शायद बन जाए। पर तब तक हम बंगलोर में रहेंगे ये भी तो पता नहीं है।

अब फ़िर से पूरी पोस्ट लिखने की हिम्मत नहीं हो रही है, तीन चार घंटों की मेहनत पर पानी फ़िर जाए तो दिल वैसे ही टूट जाता है...

आप ये गाना सुनिए। हम भी सुन कर बहला रहे थे ख़ुद को, की कुछ तो महफूज़ है...कहीं पूरा ब्लॉग ही डिलीट हो जाए तो...हम तो सोच कर ही डर गए(वैसे हमने ब्लॉग का बैक अप डाउनलोड कर रखा है :D ) महफूज़...बड़ा खूबसूरत है

Mehfuz.mp3

22 April, 2009

माँ मुझे अब भी प्यार करती है

सूना सा हो गया है आँचल मेरा
मैंने कहा था तुमसे
तुमने कुछ दुआएं डाल दीं

उन्हें गाँठ लगा कर सोयी थी
कल रात, सदियों बाद
मुझे नींद आई थी...

ख्वाब भी थे
बचपन की उजली मुस्कुराहटें भी
माँ भी कल आई थी दुलराने को

सुबह ख्वाब तो नहीं थे
पर दुपट्टे के कोने पर
माँ का आशीर्वाद था

गांठ में सिन्दूर के साथ बंधा हुआ
शायद कल माँ ने तुम्हारी मनुहार मान ली
और मुझे तुम्हें दे ही दिया...हमेशा के लिए.

19 April, 2009

मेरा नया ऑफिस :)

हमारी जिंदगी बड़े प्यार मुहब्बत से प्ले, रिवाईंड, पौस, स्टाप मोड में चल रही थी...जब तमन्ना हुयी पहुँच गए कॉलेज के दिनों में, तो कभी दिल्ली की गलियों में भटकने चले गए...हाँ कभी कभी लगता जरूर था कि बहुत दिन हुए ठहर गए हैं इस मोड़ पर। ऊपर वाले ने लगता है सुन ली...बस ऐसे ही तफरीह के लिए गए थे, और हाथ में नौकरी का ऑफर लेकर लौटे।

पिछले छः दिनों से मेरी जिंदगी एकदम फास्ट फॉरवर्ड हो रखी है। सुबहें ताजगी भरी और जोशीली होती हैं, जैसे मुझको किसी कारवां की तलाश थी अपनी मंजिल तक जाने के लिए। ऑफिस बड़ा रास आया है मुझे...यहाँ लोग बहुत अच्छे हैं, मिलनसार और खाना खिलाने को तत्पर :) मैं एक advertising एजेन्सी में काम करती हूँ, हमारा काम होता है ब्रांडिंग करना। जैसे हमें एक प्रोडक्ट को लॉन्च करना है मार्केट में, ये दक्षिण भारतीय व्यंजन विशेषज्ञ के रूप में अपने मसालों को पेश करना चाहते हैं।

मैं ठहरी ताज़ा ताज़ा दिल्ली से आई हुयी, अभी तक उन पेचदार गलियों के पराठों में खोयी हुयी हूँ...और यहाँ काम करना था बिसिबेल्ले भात को ब्रांड बनाने के लिए...अब किसी पर काम करने के लिए उसके बारे में तो कुछ जानना तो होगा...तो बस हमने हाथ खड़े कर दिए, जब तक खिलाओगे नहीं ad नहीं बनायेंगे। अगले दिन वो सज्जन व्यक्ति पूरे ऑफिस के लिए घर से बिसेबेल्ले भात बनवा कर लाया। ऐसे भले लोग जहाँ हो, काम करने में अच्छा क्यों न लगे।

इस ऑफिस का architecture मुझे सबसे अच्छा लगता है, हमारे यहाँ लिफ्ट नहीं है, पाँच मंजिला ईमारत है और ऊपर नीचे जाने के लिए घुमावदार सीढियां हैं। हमारे cubicles बाकी जगहों की तरह वर्गाकार नहीं है बल्कि पूरा ऑफिस obtuse और acute angles पर ही बना है। जैसे पहले घरों में आँगन होता था और चारो तरफ़ कमरे, उसी तरह हमारे ऑफिस के बीचोबीच खाली जगह है जिसके तीनो तरफ़ बिल्डिं खड़ी है। बहुत सारे पौधे लगे हुए हैं, बेलें लटकी हुयी हैं...छत पर एक बेहद खूबसूरत बगीचा है...गमलों वाला नहीं, मिट्टी बिछा कर लगायी हुए पौध है। एक छोटा सा उथला पानी का टैंक भी है जिसमें मछलियाँ है। यह सब इतना अच्छा लगता है कि दिमाग अपनेआप दौड़ने लगता है :) आप ख़ुद ही देख लीजिये मेरी सीट से लिया हुआ फोटो, हाँ...मेरा ऑफिस एयर कंडीशंड नहीं है, जरूरत ही नहीं।

घर से ऑफिस जाने में मुझे साढ़े तीन मिनट लगते हैं अगर रेड लाइट नहीं मिली तो...और मैं कभी ४५-५० से ऊपर नहीं चलाती। घर के बिल्कुल पास में है तो थकान भी नहीं होती आने जाने में। ऑफिस में देर रात काम करने का कल्चर नहीं है, जो एक और अच्छी बात है क्योंकि अक्सर सब जगह देखा है कि लोग १२ बजे तक ऑफिस में ही रहते हैं। हम खुशी खुशी सात बजे तक घर आ जाते हैं :)

बस इस हफ्ते थोड़ा वक्त लगा चीज़ें एडजस्ट करने में, कल से सब कुछ आराम से कर लूंगी...और तो और ब्लॉग्गिंग का टाइम भी मैंने सोच लिया है :) तो अभी के लिए...जिंदगी खूबसूरत है।

आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे...बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए...बोलो?

10 April, 2009

सेंटी ब्लॉग पोस्ट...जुगाडू ब्लॉग्गिंग

आज हम सुबह से सेंटी हुए जा रहे हैं...वैसे तो कवि को चौबीसों घंटे सेंटी होने का हक मिला रहता है पर बाकी लोगो की तबियत का ख्याल रखना पड़ता है...तो हम जियो और जीने दो के तहत अपना सारा सेंटी दिल में दफ़न कर लेते हैं। और जब सेंटी होने का दिन आता है तो सारे गड़े मुर्दे उखाड़ कर घोर सेंटी हो जाते हैं।

बात ये है कि किसी कमबख्त ऑफिस वालों ने रिसेशन के ज़माने में भी वैकेंसी निकाल दी, हम भी बैठे ठाले मगजमारी ही कर रहे थे, अब भाई ब्लॉग्गिंग के पैसे थोड़े मिलते हैं...और जिस फ़िल्म की महान स्क्रिप्ट पर हम काम कर रहे थे उसकी एक एक डिटेल किसी को सुनाये बिना चैन ही ना पड़ता था। इस चक्कर में मुझ बेचारी का मोबाइल बिल खाने पीने से ज्यादा महंगा पड़ रहा था। तो हमने सोचा चले जाते हैं इंटरव्यू देने...किसी का दिमाग खायेंगे, थोड़ा खाने के पैसे बचेंगे। मज़े से गए और चूँकि टेंशन कुछ थी नहीं...एकदम बिंदास इंटरव्यू दे दिए...उन बेचारों को शायद हमारी शकल पसंद आ गई...सो उन्होंने अकल टेस्टिंग के लिए एक कॉपी टेस्ट थमा दिया।

ये कॉपी टेस्ट एक ऐसी बला होती है जिसकी तुलना हमें अपने ड्राइविंग लाइसेंस के लिए दिए गए रिटेन एक्साम के अलावा किसी से नहीं कर सकते हैं। कॉपी टेस्ट एक ऐसा टेस्ट होता है जो आपके दिमागी घुमक्कड़पने (पागलपंथी?)को टेस्ट करता है...और बखूबी करता है। मसलन...एक सवाल था...
"Concoct a short story (about 250 words) that starts with Neil Armstrong going on the moon mission, and ends with Mallika Sherawat kissing John F Kennedy। Other characters in the story are a goat, an umbrella, and an undertaker। "

इसका जवाब हम किसी दिन जरूर पोस्ट करेंगे ये वादा है हमारा...और जनाब ऐसे पाँच सवाल थे। सभी सवालों में ऐसी खुराफात मचाई थी हमने कि क्या बताएं, भाई बड़ा मज़ा आया था लिखने में। अब पढने वाले का क्या हाल हुआ था वो हमें नहीं मालूम...पर इसके बाद हमारा एक और राउंड हुआ इंटरव्यू का और फ़िर से तीन सवाल हल करने को दिए गए।

कॉपी टेस्ट घर लाकर करना होता है...यानि कि नींद ख़राब, खाना ख़राब...और सबसे बढ़कर ब्लॉग्गिंग की वाट लग गई, अपना तो ये हाल है कि ब्लॉगर पहले हैं इंसान बाद में तो समझ सकते हैं कि ब्लॉग्गिंग नहीं करने पर कितना गहरा अपराध बोध होता है...लगता है कोई पाप कर रहे हैं, हाय राम पोस्ट नहीं लिखी, कमेन्ट नहीं दिया, चिट्ठाचर्चा नहीं पढ़ी, ताऊ की पहेली का जवाब नहीं ढूँढा...ऐसे ही चलता रहा तो जो भगवान के दूतों ने ब्लॉग्गिंग पर डॉक्टरेट कि डिग्री दे ही वो भी कहीं निरस्त ना हो जाए। अब हम कोई दोक्टोरी पढ़े तो हैं नहीं कि भैया एक बार पढ़ लिए तो हो गए जिंदगी भर के लिए डॉक्टर...हमारा तो दिल ही बैठ जाता है मारे घबराहट के चक्कर आने लगते हैं।

तो मुए ऑफिस वालों ने हमें कह दिया कि मैडम आप आ जाईये हमें आप जैसे पागलों की ही जरूरत है...monday यानि कि १३ बड़ी शुभ तारीख है, तो आप हमारे ऑफिस को कृतार्थ कीजिये। हम तो सदमे में हैं तब से...कहाँ फ्रीलांसिंग का ऐशो आराम और कहाँ साढ़े नौ से छः बजे की खिट खिट उसमें हम ठहरे बहता पानी निर्मला...एक जगह टिक के बैठने में घोर कष्ट होता है हमें।

जले पर नमक छिड़कने को सुबह सुबह एयरटेल वालो का फ़ोन आ गया...हमारे इन्टरनेट कनेक्शन पर 15gb फ्री दे रहे थे डाऊनलोड...मानो उन्हें भी सपना आ गया हो कि हमें अब घर में नेट पर बैठने कि फुर्सत ही नहीं मिलेगी। बस ये आखिरी वार हमारी कमर तोड़ गया...हम तबसे बड़ी हसरतों से अपने लैपटॉप को देख रहे हैं।

मौका है, माहौल है, दस्तूर भी है....सेंटी हो लेते हैं। जाने कैसा होगा ऑफिस और कितनी फुर्सत मिल पाएगी....मेरे बिना अमीबा जैसे प्राणियों पर कौन पोस्ट लिखेगा...उनका उद्धार कैसे होगा। और सबसे बढ़कर मेरा मोक्ष अटक जायेगा...आप तो जानते हैं कि कलयुग में बिना ब्लॉग्गिंग के मोक्ष नहीं मिलता। शायद अगले जनम में फ़िर पोस्टिंग होगी...या हम भी भूत योनि में ही ब्लोग्गिन करने लगें, कौन जाने!

मगर हम हिम्मत नहीं हारे हैं...ब्लॉग्गिंग के गुरुओं से हम माइक्रो पोस्ट लिखना सीखेंगे...या कुछ और उपाय...आज से हम जुगाडू ब्लॉग्गिंग करेंगे। कोई ना कोई जुगाड़ तो होगा ही :)

09 April, 2009

मेरी जिंदगी का एक पन्ना

हम अंग्रेजी गाने आजकल थोड़ा कम सुन रहे हैं...वजह ये है की टीवी देखते ही नहीं हैं, तो ले दे के मेरे लैपटॉप पर जो भी पुराने नए गाने पड़े हुए हैं उन्ही से काम चलाते हैं। वैसे भी आरडी बर्मन के कुछ गाने तो ऐसे हैं की लगता है की पूरी जिंदगी सुन लूँ फ़िर भी मन नहीं भरेगा।

मैं गाने सुनती हूँ तो अक्सर एक ही गीत को बहुत देर तक सुनती हूँ, कई कई बार...और अक्सर नींद आने तक। घर पर सब परेशान हो जाते हैं मुझसे...जब थोड़ी छोटी थी तो मम्मी से इस कारण बहुत डांट खाती थी...बाकी सबका तो मन भर जाता था, पर मुझे अगर कोई गाना सुनना है तो बस...कोई लिमिट नहीं होती थी की पाँच बार सुनकर बंद कर दूंगी या ऐसा ही कुछ।

और दूसरी चीज़ होती थी, कोई गाना सुन लिया तो बस सुर चढ़ गया अब जब तक आकाश पाताल से ढूंढ कर दस बीस बार सुन न लें, खाना हज़म नहीं होता था। हमें तो प्यार भी इसी गीतों के जूनून के कारण हुआ है वरना तो हम कुणाल से कभी मिलते ही नहीं। वो भला मानुस एक ऐसे ही पागलपन में मेरे पसंद का गाना ढूंढ दिया था हमको...बस हम इम्प्रेस हो गए...काफ़ी आसान था :)

कुणाल का सबसे अच्छा दोस्त है रेड्डी...दोनों रूममेट रहे हैं...रेड्डी इतना प्यारा और अच्छा इंसान है कि यकीन नहीं होता कि आज भी ऐसी कैटेगरी के लोग होते हैं। और उसपर सुपर intelligent...अकल देने में भी भगवान ने उतनी ही दरियादिली दिखाई है जितनी शकल देने में :) ऐसा बड़ा कम होता है। इत्ता बड़ा तोप है पर बातें करो तो हवा तक नहीं लगेगी...वैसे कुणाल या उसके सारे दोस्त ऐसे ही हैं। मुझे लगता है IIT ठोक पीट के लड़कों को ये सब सिखा देता है। रेड्डी मुझे बहन मानता है...और गाहे बगाहे ख़बर लेता रहता है कि लाइफ में सब ठीक चल रहा है कि नहीं। अभी तक मिली तो नहीं हूँ उससे, सात समंदर पार जो बैठा है। मज़ा तो तब आता है जब हम बात करते हैं कि रेड्डी के लिए लड़की ढूंढनी है...उसकी पहली कैटेगरी है कि लड़की को डांस करना आना चाहिए, बाकी कैसी भी हो चलेगी :) हम सोचते हैं कि उसे कोई पसंद आ गई तो क्या करेगा...तो उसने कहा है कि सिखा देगा :)
वैसे मैं कई दिनों से उसे कह रही हूँ कि कुणाल को भी कहे कोई डांस सीख लेने को मगर यहाँ उसने भी हाथ खड़े कर दिए, लगता है कुणाल के साथ डांस करने के लिए मुझे दूसरा जनम लेना होगा ;-)

कल रेड्डी ने एक गाने का लिंक दिया...जब से सुना है दिमाग में चल रहा है...बोल इतने प्यारे और सिंपल से...और tune भी बड़ी मस्त है। मूड अच्छा हो जाए सुनकर...और प्यार तो हो ही जायेगा :)

और ये मेरी fav lines हैं...
im so glad i found you.
i love bein around you.
you make it easy,
as easy as 1 2,(1 2 3 4.)
theres only one thing two do three words four you.
i love you.
(i love you)
theres only one way two say those three words
and that's what i'll do.
i love you.
i love you

06 April, 2009

दिल ढूंढता है...फ़िर वोही फुर्सत के रात दिन...

जाने कब तक याद करती रहूंगी उस दिलरुबा दिल्ली को...कि जिसकी पेंचदार गलियों में हम उफ्फ्फ अपना दिल दे बैठे।

जिंदगी की सबसे खूबसूरत यादें किसी कैमरा में कैद नहीं हो सकती...उन्हें दिल से लगा के रखना पड़ता है...उनकी खुशबू किसी अल्फाजों के तिलिस्म में बंधने को तैयार ही नहीं होती.

मुझे जाने क्यों रात हमेशा बड़ी प्यारी और खूबसूरत लगती है...उसपर दिल्ली की वो सर्द कोहरे वाली रातें। इंडिया गेट पर दोस्तों के साथ देर रात बैठ कर अपने स्कूल या कॉलेज के किस्से बयान करना...आहा वो काला खट्टा वाला बर्फ का गोला खाना, उफ़ वो स्वाद भला मैक डी के आइसक्रीम में आएगा कभी। बैलून खरीद कर सबके साथ खेलना, मारा पीटी करना...रेस लगाना और वो टूटे फूटे गानों के साथ अन्त्याक्षरी खेलना...वो गाने जो किसी फ़िल्म के नहीं, वो बोल जो किसी गीतकार ने नहीं लिखे...वो चाँद गाने जो दिल की धड़कनों से उठते थे...वो खोये हुए बोल...वो गुमी हुयी धुनें।

रास्ते भर कार में बजती वो गजलें या कोई शोर शराबा सा पंजाबी गीत...और हाँ उन दिनों...तारे ज़मीन पर का गाना कितना सुना था...तू धूप है...छम से बिखर, तू है नदी ओ बेखबर...अब भी कहीं भी ये गाना बजते सुनती हूँ तो मन उसी nh8 पर पहुँच जाता है। कमबख्त ये दिल्ली पीछा छोड़ती ही नहीं, कहीं भी जाओ।

वो दिन जब आधे दोस्तों की प्रेमकहानी में कोई ना कोई ट्विस्ट चल रहा था, और हम सब मिल कर उपाय ढूंढते रहते थे...वो दिन जब दोस्ती सबसे कीमती चीज़ होती थी दुनिया में और वो चंद लम्हे दिन भर की थकान उतारने का सबब।

पंख लगा के उड़ने वाले वो दिन...जब जिंदगी का नशा हुआ करता था और खुशियाँ सर चढ़ कर बोलती थीं...जब किसी की एक नज़र का खुमार हफ्तों नहीं उतरता था...जब आइना किसी भी हालात में आपपर मुस्कुराता था...जब कुछ भी पहन लो आखों में खिलखिलाहट होती थी।

उफ्फ्फ्फ्फ्फ

दिल्ली तेरी गलियों का...वो इश्क याद आता है

01 April, 2009

अप्रैल फूल कैसे बने?

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ऐसे :D

अब आप हमें गरिया लें...क्या कीजियेगा...भाई हमें तो यही सीधे साधे वाले अप्रैल फूल बनाने में मज़ा आता है.

31 March, 2009

किस्सा अमीबा का...

अमीबा से हमारा पहला पाला बायोलोजी की क्लास में पड़ा था, इस कमबख्त की अंग्रेजी स्पेलिन्ग amoeba होती है और बोलते अमीबा है...यानि ओ साईलेंट रहता है। क्लास के अधिकतर बच्चो ने ग़लत स्पेलिन्ग बता दी थी...हम उस वक्त शायद कक्षा पाँच में पढ़ते थे...तो बस सबको होमवर्क मिल गया ५०० बार लिख के लाने का...उसके बाद मजाल है हम कभी भूलें हों।

तो इस जीव से चिढ़ हमें पहली ही मुकालात में हो गई थी...फर्स्ट इम्प्रेशन इतना ख़राब बनाया था इसने, भई हमारी क्या गलती है। लेकिन एक ही दो साल में हमें यह अमीबा बेचारा बड़ा प्यारा प्राणी लगने लगा...आप भी सोचेंगे क्यों भला...तो ये दर्द वही जाने है जिसने कभी बायोलोजी प्रैक्टिकल में बाकी जानवरों के डायग्राम बनाये हैं। माहौल देखिये...रात के कोई दस ग्यारह बजे हैं...मुहल्ले के कुत्तों का कोरस चालू हो चुका है...बिजली कटी हुयी है और लैंप की रौशनी में कोई बेचारी लड़की किताब से देख कर डायग्राम बनने में जुटी हुयी है, चारो तरफ़ छिली हुयी पेंसिल, रबर, कटर, ब्लेड आदि चीज़ें फैली हुयी हैं। हवा के कारण लैंप की लौ डिस्को कर रही है...लाख चिमनी लगा लो...ये लौ आज की लड़कियों की तरह बाहर की थोड़ी हवा लगते ही थिरकने लगती है। इस थिरकन के कारण कागज पर अजीब आजीब आकृतियाँ बन बिगड़ रही हैं...और इन प्रेतनुमा आकृतियों से घिरे कागज पर उसे उस पेट चिरे हुए मेंढक का रेखाचित्र बनाना है।

उस बेचारे मरे हुए मेंढक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हुए कागज से घमासान जारी है...उस वक्त सोचिये कितना गुस्सा आता होगा...अरे इस नामुराद मेंढक की आंतें होती ही क्यों हैं, और ऐसी टांगें...और ये सड़ी हुयी शकल...गरियाने के क्रम में सब लपेट लिया जाता था, सरकार तक जो जिसके कारण बिजली नहीं है...छोटे भाई को, जो इमर्जेंसी को चार्ज में लगाना भूल गया था, मच्छरों को रात में नींद क्यों नहीं आती और यहाँ तक कि स्कूल पर भी कि गर्मियों में एक्साम होते ही क्यों हैं।

ऐसे माहौल में जब सब जानवरों कि शारीरिक स्थिति का सही सही विवरण देना पड़ता था...यही अमीबा हमें देवदूत लगता था...कुछ करना ही नहीं है, कैसी भी आकृति बना दो...बन गया अमीबा। हम इसके एक सेल और फ्लेक्सिबल आकार के कारण इसे सबसे ज्यादा पसंद करते थे। और जब भी अमीबा बनाना होता खुश हो जाते(आपके लिए भी फोटो दे रखी है, आए हाय देखिये तो कित्ता क्यूट लग रहा है)। पर हमारी बायोलोजी टीचर को जाने क्या खुन्नस थी...होमवर्क में सब कुछ बनवाती थी, अमीबा छोड़ कर। धरती पर वाकई अच्छे लोगो की बड़ी कमी है।

खैर...हमारी डॉक्टरी पढ़ाई का किस्सा तो आप जानते ही हैं, सो हमारा इस प्यारे जीव से नाता टूट गया था काफ़ी सालों से। अभी शनिवार को हम खुशी खुशी अपना ड्राइविंग लाइसेंस के लिए फोटो खिंचाने गए तो लगा कि इतनी बड़ी उपलब्धि पर बाहर खाना तो बनता है...सो हम बड़े आराम से दाल मखनी, तंदूरी रोटी और अचारी पनीर पर टूट पड़े। सोचा रामप्यारी का जवाब थोड़ा आराम से दे देंगे घूमने निकल लिए...रात को घर आते आते पेट में दर्द शुरू। मगर हम इत्ते से घबराने वालों में थोड़े ही हैं, पुदीन हरा पिया, अजवाईन खायी और आराम से कम्बल ओढ़ के सो गए...सुबह उठे तो बुखार। अब तो हमारे पसीने छूट गए...पहले तो सोचा कि रामप्यारी को ही बुलवा लें कैट्स्कैन के लिए, फ़िर डर लगा कि अभी तक उसके सवाल का जवाब नहीं दिया है, पहले जवाब पूछना शुरू कर देगी तो क्या करुँगी।

तो दूसरी डॉक्टर के पास गई...उसने बताया कि इन्फेक्शन है...अमीबा ने किया है. अरे ये वही अमीबा है, और हमारे पेट में घुस के बैठा है। तो हम दुखी हो गए...बरसो की दोस्ती का ये सिला...दवाईयों के साथ हमने अपने दुःख को भी गटका...और सोचा आपको भी किस्सा सुना दें।

एक अच्छा ब्लॉगर वही है जो छोटी से छोटी चीज़ से एक पोस्ट लायक माल निकाल सके। एक सेल के microscopic अमीबा पर लिखी इस पोस्ट के लिए हम अपनी पीठ ख़ुद ठोकते हैं :D

वो...


वो लिखना चाहती है बहुत सारा कुछ, क्यों या किसके लिए ये मालूम नहीं...शायद आने वाली पीढ़ियों के लिए, शायद सिर्फ़ तुम्हारे लिए...तुमसे उसकी जिंदगी शुरू होती है और तुम पर ही आकर ख़त्म हो जाती है।

वो एक अजीब सी लड़की है, जिसे कविता लिखना पसंद है, सूर्यास्त देखना अच्छा लगता है, और किसी ऊँची पहाडी पर खड़े होकर बादलों को देखना भी।

वो लिखना चाहती है उन सारे दिनों के बारे में जब शब्द ख़त्म हो जाते हैं उसके पास से, जब वह बड़ी मुश्किल से तुम्हारी आंखों में तलाशती है जाने किन किन बिम्बों को...और उसे पूरा जहाँ नज़र आता है क्यों आता है ये भी मालूम नहीं।

उसे लिखना ही क्यों चाहिए कौन है जो उसका लिखा पढ़ेगा, वक्त की बर्बादी क्यों करना चाहती है वो. पर फ़िर भी वो लिखती है, इतना लिखती है कि एक दिन उसके सारे कागज ख़तम हो जाते हैं, कलमें टूट जाती हैं, दवात में स्याही नहीं बचती। उसे फ़िर भी लिखना होता है...वह आकाश बिछा कर लिखती रहती है, वो कहानियाँ जो कोई भी नहीं सुनता।

वो लिखती रहती है उन खामोश रातों के बारे में जब उसे अपनी माँ की बहुत याद आती है और उसकी आत्मा चीख उठती है...पर कोई आवाज नहीं आती। वह अपनी माँ को पुकारती रहती है और ये पुकार खामोशी से उसके शरीर के हर पोर से टकरा कर वापस लौटती रहती है। इतने सारे शब्द उसे अन्दर से बिल्कुल खोखला कर देते हैं और इन दरारों में दर्द आके बस जाता है।

वो लिखती रहती है जिंदगी के उन पन्नो के बारे में जो अब धुल कर कोरे हो गए हैं, जिनमें अब कोई याद नहीं है। एक बचपन जो माँ के साथ ही गुजर गया...कुछ सड़कें जो दिल्ली में ही छूट गयीं...कुछ चेहरे जो अब तस्वीरों में भी नहीं मुस्कुराते हैं।

वो लिखती रहती है चिट्ठियां जो कभी किसी लाल बक्से में नहीं गिरेंगी, खरीदती रहती है तोहफे जो कभी भेज नहीं सकती...इंतज़ार करती है राखी पर उस भाई का जिसका एक्साम चल रहा है और आ नहीं सकता। शब्द कभी मरहम होते हैं, कभी जख्म...तो कभी श्रोता भी।

वो लिखना चाहती है नशे के बारे में...पर उसने कभी शराब नहीं पी, वो चाहती है उस हद तक बहके जब उसे मालूम न हो की वो कितना रो रही है...शायद लोग ध्यान न दें क्योंकि नशे में होने का बहाना हो उसके पास। पर उसे कभी ऐसा करने की हिम्मत नहीं होती। वो चाहती है की सिगरेट दर सिगरेट धुएं में गुम होती जाए पर नहीं कर पाती।

वो चाहती है कि उसे कोई ऐसी बीमारी हो जाए जिसका कोई इलाज न हो...वो जीना ऐसे चाहती है जैसे कि मालूम हो कि मौत कुछ ही कदम दूर खड़ी है...और उससे चोर सिपाही खेल रही हो।

वो एक लड़की है...सब उससे पूछते हैं कि उसे इतनी शिकायत क्यों है, किससे है। क्यों है? शायद इसलिए कि वो लड़की है...सिर्फ़ इसलिए। और सबसे है...उन सबसे जो कभी न कभी किसी न किसी रूप में उसकी जिंदगी का हिस्सा बने थे।

उसे शिकायत है उस इश्वर से...और वह रोज उनके खिलाफ फरमान निकलना चाहती है...क्योंकि वह अपना विश्वास ऐसे खो चुकी है कि डर में भी उसे इश्वर याद नहीं आता।

उसका लिखना किसी कारण से नहीं हो सकता...किसी बंधन में नहीं बंध सकता.

वो लिखती है क्योंकि जिन्दा है...और वो जिन्दा है क्योंकि तुम हो।
-----------०००००००-----------००००००००-----------
जिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं
मौत आई हमें पता भी ना चला...
-------००००००------०००००००००००--------
खून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...

28 March, 2009

यूँ ही


मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ बहुत सारा कुछ
इसलिए नहीं कि तुम्हें मालूम नहीं है
इसलिए भी नहीं कि
मुझे यकीन हो कि मेरे बताने से तुम भूलोगे नहीं

शायद सिर्फ़ इसलिए
कि किसी दिन झगड़ा करते हुए
तुम ये न कहो कि तुम्हें मैंने बताया नहीं था

झगड़े भी अजीब होते हैं यार
कभी एक किलो झगड़ा, कभी आधा क्विंटल

तुम जानते हो
कभी कभी मेरा मन करता है
कि मेरी आँखें नीली होती
या हरी, भूरी या किसी भी और रंग की होती
लेकिन तुम्हें काली आँखें पसंद है न?

कुछ उँगलियों पर गिनी फिल्में हैं
जो तुम्हारे साथ बैठ कर देख लेना चाहती हूँ
इसलिए नहीं कि मैंने देखी नहीं है
बस एक बार तुम्हारे साथ देखने भर के लिए

गॉन विथ थे विंड मैंने जब पहली बार देखी थी
मुझे पहले से मालूम था कि अंत क्या होने वाला है
मैं फ़िर भी बहुत देर तक रोती रही थी
वो अकेलापन जैसे मेरे अन्दर गहरे उतर गया था
शायद तुम्हारे साथ देखूं...तो वो जमा हुआ अकेलापन पिघल जाए

तुम्हें हमेशा rhett butler से compare जो करती हूँ
शायद मैं कोई आश्वाशन चाहती हूँ
कि तुम मुझे छोड़ कर नहीं जाओगे कभी...

डर सा लगता है
जब सूनी सड़कों पर गाड़ी उड़ाती चलती हूँ
या दसमहले से एकटक नीचे देखती रहती हूँ
या खामोश सी सब्जी काटती रहती हूँ
कभी कभी तो गैस जलाते हुए भी

मौत की वजहें कहाँ होती हैं
वो तो हम ढूंढते रहते हैं
ताकि अपनेआप को दोषी ठहरा सकें
कि हम रोक सकते थे कुछ...हमारी गलती थी

किसी से बहुत प्यार करो
तो खोने का डर अपनेआप आ जाता है

क्या जिंदगी के साथ भी ऐसा ही होता है?

25 March, 2009

बिखरे लफ्ज़

सफ्हों में सारी की सारी उड़ेल कर
चल दिए ऐ जिंदगी, हम फिर तेरी तलाश में
-------००००-----------००००-------
क्यों तुम्हें भी बाँध दू उम्र भर की मुहब्बत में
सफर के लिए इतना काफी है...तूने कभी मुझे चाहा
----------००००--------००००-------
तुझे तेरा दर मुबारक, मुझे ये सफ़र मुबारक
किसी मोड़ पर मिलें शायद...फिलहाल, अलविदा

20 March, 2009

संदूक


कागजों पर बिखरा दर्द
पुड़िया में बांधकर संदूक में रख देती थी
अब लगभग भर गया है वो पुराना संदूक

क्या करूँ इतने सारे अल्फाजों का
एक एक पुड़िया खोल कर
सारे शब्द हवा में उड़ा दूँ

हर लफ्ज़ कर जाए
आसमाँ की आँखें गीली
और शायद बरस जाए एक बादल

तुम भीगो तो याद आ जाएँ
वो आखिरी लम्हों के आंसू
जिस भी मोड़ पर तुम आज खड़े हो

या इन कागजों को जला कर
एक रात की सिहरन दूर कर दूँ
थोड़ी देर उजाले में तुम्हारी आँखें देख लूँ

या कि हर कागज को
कैनवस बना कर रंग दूँ
हंसती हुयी लड़की, भीगी आंखों वाली

इतना नहीं हो पाये शायद
सोचती हूँ...
एक नया संदूक ही खरीद लूँ.

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