07 December, 2008

मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी

देश में होने वाले अनगिन ब्लास्ट में

अगर मैं मर जाऊं

मुझे कविता में ढूंढ़ना...

गुलमोहर रो रहे होंगे

हर साल वसंत में

आक्रोश भी उभरेगा दहकते फूलों में

मैं नहीं रहूंगी लेकिन...

बारिशें भी, गाहे बगाहे

कभी जनवरी में भी

भिगा जायेंगी

दिल्ली की सड़कें

जहाँ खून गिरा होगा मेरा...

नाराज होकर घर से मत जाओ

एक दिन भी

जाने तुम्हारे लौट आने तक

जो surprise गिफ्ट खरीदने निकली थी

चिथड़े हो चुका हो...

किसी आतंकवादी को कहाँ मालूम होगा

मेरा जन्मदिन, या वर्षगांठ

उनके प्लान्स तो बहुत पहले से बनते हैं

३०० लोग में किसी न किसी का तो हो ही सकता है

तारीखों से क्या फर्क पड़ता है...

शब्दों में समेट देती हूँ

ढेर सारा प्यार

इन्हें खोल के देख लेना

मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी...

PS: कृपया इसे कविता समझ कर न पढ़ें, आजकल बहुत परेशान हूँ, कुछ तारतम्य नहीं है शब्दों में। लिख रही हूँ क्योंकि लिखे बिना रह नहीं सकती। जी रही हूँ क्योंकि अभी तक माँ का हाथ है सर पर.

05 December, 2008

हमारे जवान: एक चित्रण

मेरे IIMC के एक मित्र अंकुर ओगरा ने कल एक मेल भेजी थी, उसके पिता ने लिखी थी, वो इंडियन एयरफोर्स में पायलट रह चुके हैं। मुंबई में हो रहे हमलों के दरमयान उन्होंने लिखा था। वो मूलतः कश्मीर के रहने वाले हैं पर अब दिल्ली में पूरा परिवार रह रहा है।

अनुवाद इसलिए नहीं किया है क्योंकि मेरा मानना है की अनुवाद में कई बार मूल भाव खो जाता है।

Half Man Half Boy
The average age of the army man is 23 years। He is a short haired, tight-muscled kid who, under normal circumstances is considered by society as half man, half boy. Not yet dry behind the ears, not old enough to buy a beer in the capital of his country, but old enough to die for his country.


He's a recent school or college graduate; he was probably an average student from one of the Kendriya Vidyalayas, pursued some form of sport activities, drives a rickety bicycle, and had a girlfriend that either broke up with him when he left, or swears to be waiting when he returns from half a world away। He listens to rock and roll or hip -hop or bhangra or gazals and a 155mm howitzer.


He is 5 or 7 kilos lighter now than when he was at home because he is working or fighting the insurgents or standing guard on the icy Himalayas from before dawn to well after dusk or he is at Mumbai engaging the terrorists। He has trouble spelling, thus letter writing is a pain for him, but he can field strip a rifle in 30 seconds and reassemble it in less time in the dark. He can recite to you the nomenclature of a machine gun or grenade launcher and use either one effectively if he must.


He digs foxholes and latrines and can apply first aid like a professional. He can march until he is told to stop, or stop until he is told to march. He obeys orders instantly and without hesitation, but he is not without spirit or individual dignity. His pride and self-respect, he does not lack. He is self-sufficient। He has two sets of combat dress: he washes one and wears the other. He keeps his water bottle full and his feet dry. He sometimes forgets to brush his teeth, but never to clean his rifle. He can cook his own meals, mend his own clothes, and fix his own wounds. If you're thirsty, he'll share his water with you; if you are hungry, his food. He'll even split his ammunition with you in the midst of battle when you run low.


He has learned to use his hands like weapons and weapons like they were his hands। He can save your life - or take it, because he's been trained for both.He will often do twice the work of a civilian, draw half the pay, and still find ironic humor in it all. He has seen more suffering and death than he should have in his short lifetime.


He has wept in public and in private, for friends who have fallen in combat and is unashamed to do so।


He feels every note of the Jana Gana Mana vibrate through his body while at rigid attention, while tempering the burning desire to 'square-away' those around him who haven't bothered to stand, remove their hands from their pockets, or even stop talking। In an odd twist, day in and day out, far from home, he defends their right to be disrespectful. Just as did his Father, Grandfather, and Great-grandfather, he is paying the price for our freedom. Beardless or not, he is not a boy. He is your nation's Fighting Man that has kept this country free and defended your right to Freedom. He has experienced deprivation and adversity, and has seen his buddies falling to bullets and maimed and blown. And he smiles at the irony of the IAS babu and politician reducing his status year after year and the unkindest cut of all, even reducing his salary and asking why he should get 24 eggs a week free! And when he silently whispers in protest, the same politician and babu aghast, suggest he's mutinying! Wake up citizens of India! Let's begin discriminating between the saviours of India and the traitors!


- Flt. Lt. Rajiv Tyagi

04 December, 2008

कल हो न हो...

मैं सोचती हूँ तुमसे कहूँ
हैदराबाद जाने का प्रोग्राम कैंसिल कर दो
बॉम्बे में जो ब्लास्ट हुआ है
आतंकवादियों ने डेकन मुजाहिदीन का नाम लिखा था
और इंडिया टीवी में तो ख़बर की थी
हैदराबाद को अलग कर दो

माँ कहती थी
अशुभ बातें कहने से सच हो जाती हैं
तुम चले जाते हो

मैं सोचती हूँ पूजा करूंगी आज
पर मन नहीं करता है...

कहीं भी जाने का मन नहीं करता
दिन भर टीवी नहीं खोलती हूँ
सुबह अखबार नहीं पढ़ती
और जब तक तुम वापस नहीं आ जाते

डरती रहती हूँ हर आहट पर
हर घंटे तुम्हें फ़ोन नहीं करती

पर सोचती हूँ कि कर लूँ
निश्चिंत तो हो जाउंगी

कपड़े खरीदने हैं

पर मॉल नहीं जा रही

रोज़ टाल देती हूँ
दिल में अजीब अजीब से ख्याल आते हैं

कुछ हो न जाए किसी दिन अचानक

एक गाना सुना था कभी

जाने क्यों याद आने लगता है

if tommorow never comes

will she ever know how much i loved her

did the love i give her in the past

would be enough to last

if tommorow never comes...







03 December, 2008

देखना है जोर कितना बाजू ऐ कातिल में है

आज कुछ नहीं कहूँगी...बस ये विडियो पोस्ट कर रही हूँ। जब भी देखती हूँ रोंगटे खड़े हो जाते हैं। रंग दे बसंती से ये दो क्लिप कुछ कुछ राहत देते हैं।
जब भी सुनती हूँ तो लगता है कहीं कोई हलचल होने लगी है दिल में, कुछ करने का जज्बा जोर मारने लगता है। मुझे लगता है कि आज ऐसे कुछ और शायरों की जरूरत है, वही हम सब को इस नींद से झकझोर कर उठा सकते हैं।
सरफरोशी कि तमन्ना अब हमारे दिल में है...



02 December, 2008

अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है

बहुत दिन बाद ये कविता पढ़ी, इसका शीर्षक जाने किस सन्दर्भ में मेरी जिंदगी में बहुत मायने रखता है। कितना भी याद करूँ, याद नहीं आ रहा कि कहाँ सुनी थी इसकी पहली पंक्ति। आज मेरे मित्र शशि के सौजन्य से ये कविता फ़िर से पढने को मिली।
आजकल जिस तरह के हालात हैं, और जैसी मेरी मनोस्थिति है, कुछ पंक्तियों ने मर्म को स्पर्श किया है। मुझे ये पंक्ति खास तौर से पसंद है.."अक्सर एक लीक दूर पार से बुलाती है ." सोचा आप सब से भी बाँट लूँ....सर्वेश्वर सयाल सक्सेना की ये कविता।

अक्सर एक गंध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीँ पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहां से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

28 November, 2008

कर्मण्ये वाधिकारस्ते

आज मुंबई पर आतंकी हमला हुआ है, हम सभी स्तब्ध है, एक आक्रोश है जो कहीं कुछ करने की राहें ढूंढ रहा है। ब्लॉग पर कई जगह पढ़ा लोग वाकई कुछ करना चाहते हैं पर समझ नहीं आता है कि क्या किया जाए। आतंकवाद के इस छुपे दुश्मन से कैसे निपटा जाए। हमारे जो नाकारा राजनीतिज्ञ हैं उनसे तो खैर क्या उम्मीद है, कोई भी दूध का धुला नहीं है।

दो रातों से व्यथित हूँ, और ये कहना ग़लत है कि हम भूल जायेंगे, बाकियों का तो नहीं पता पर मैं तो नहीं भूलूंगी और न चुप बैठूंगी। सोचती हूँ कि हमारे एक अरब कि जनसँख्या वाले देश में क्यों ३०० लोग नहीं हैं जो इस देश को एक सही दिशा दे सकें। हर बार चुनाव के समय बड़े बड़े वाडे करने वाली पार्टियाँ और एक दूसरे को अलग अलग श्रेणी में विभक्त करने वाले नेता, गुंडे और अराजक तत्व ही क्यों नज़र आते हैं।

हमारे जैसे २५ साल के लोग जिनमें कुछ करने का जज्बा है, कहाँ हैं। क्यों नहीं हम एक साथ मिल कर इस देश को एक सही राह पर ले जाने कि कोशिश करते हैं। कल मेरी कई दोस्तों से बात हुयी, सारे गुस्सा थे हमारे नेताओ को कोस रहे थे। मैंने सब से पुछा, कि तुमने अपना वोटर्स आईडी कार्ड बनवाया है...सवाल पर सब चुप, वही बहने कि रेसिदेंस प्रूफ़ नहीं है, कहाँ जाएँ कैसे बनवाएं। सोचती हूँ कि कितनों ने कोशिश भी कि है कुछ सार्थक करने कि। हममें ये अकर्मण्यता क्यों भरी हुयी है, अगर हमारी जेनरेशन कुछ नहीं करेगी तो हमें क्या हक है बैठ कर नेताओं को कोसने का।

आज मैं IIMC के बारे में बात करना चाहूंगी, चूँकि पत्रकारिता वहां का मुख्य पाठ्यक्रम है तो हमारे मित्र अक्सर एक ideology रखते थे, चाहे वो राईट विंग हो या लेफ्ट विंग हो। राष्ट्रवादी हों, या कम्युनिस्ट पर अपनी सोच के हिसाब से देश को एक बेहतर भविष्य देना चाहते थे। श्रीजय के साथ मैंने पहली बार छात्र राजनीति का थोड़ा हिस्सा देखा था। मैंने पहली बार जेएनयू कि दीवारों पर लगे पर्चे देखे थे, जगह जगह वंदे मातरम और इन्किलाब जिंदाबाद लिखा देखा था। मैंने देखा था कि जब श्रीजय ABVP के बारे में बात करता है तो उसकी आंखों में एक चमक आ जाती है....एक जज्बा है जो महसूस होता है। उस वक्त रिज़र्वेशन का दूसरा चरण लागू होने वाला था। उस वक्त मैंने पहली बार जेएनयू में मशाल जुलूस देखा, मैंने देखा कि जनवरी कि सर्द रातों में लोग रात के दो दो बजे तक मिल्क काफी पीते हुए गंगा ढाबा पर देश के मुद्दों के बारे में बहस करते रहते हैं।

आज वो लोग तैयारी कर रहे हैं एक सशक्त और सार्थक कदम उठाने की, इस परिस्थिति से हमें निकालने की किसी कवायद में जुटे होंगे. कुछ अच्छा करने के लिए सिर्फ़ जज्बा ही काफ़ी नहीं होता, उसके साथ चाहिए होता है एक एक्शन प्लान, और ऐसा प्लान बनने के लिए अरसा तक सब भूलकर सिर्फ़ अपने लक्ष्य की पर बढ़ना होता है. आज की पोस्ट में मैं उन्हें और उन सबको नमन करती हूँ जो हमारे देश को एक बेहतर भविष्य की ओर ले जायेंगे.
दो दिन लगातार उन आतंवादियों की गोलियों और बमों ने सिर्फ़ ताज को क्षति नहीं पहुंचाई है बल्कि मेरे जैसे हर संवेदनशील इंसान को चुनौती दी है. और हम उन्हें मुँहतोड़ जवाब देंगे. न केवल उन आतंकियों को जो इस देश को निशाने पर रखते हैं बल्कि उन नाकारा उन निकम्मे नेताओं को जो इस देश को बेच कर खा जाना चाहते हैं.
ये शोक का नहीं आक्रोश का समय है...कर्मभूमि में आगे बढ़ना मायने रखता है.
तेरा वैभव अमर रहे माँ...हम दिन चार रहे न रहे

27 November, 2008

लेकिन आग जलनी चाहिए.

आजकल शब्दों ने मेरा साथ छोड़ दिया है। शायद कहीं न कहीं दिन भर टीवी पर मुंबई को यूँ लहूलुहान देखकर शब्दों में भी खून उतर आया है...घर की दीवारों पर टंगे नज़र आते हैं वो खौफनाक मंजर। दिन भर डरा सहमा ये दिल शायद कुछ सोचना बंद कर चुका है।
साथ ही साथ आक्रोश भी है, अपने कुछ न कर पाने का बेहद अफ़सोस भी, अपनी लाचारी पर बेहद दुःख भी। इसलिए आजकल कुछ लिखने से ज्यादा पढ़ रही हूँ, कुछ कवितायेँ कालजयी होती हैं। हर माहौल में उनकी जरूरत होती है।
आज दुष्यंत कुमार की मेरी सबसे पसंदीदा कविता पढ़ा रही हूँ। आप में से अधिकांश ने पढ़ी होगी, पर फ़िर से पढ़ना भी अच्छा लगता है।
शब्दों में ही पनाह है...थोड़ा सुकून जो तलाश करती हूँ फ़िर से यहीं आ कर मिलता है। जैसे किसी बुजुर्ग का हाथ हो सर पर...आशीर्वाद हैं ऐसी कवितायेँ

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।





-दुष्यंत कुमार

शोक, क्षोभ, क्रोध

वो आयें

अपनी योजना बनाएं

और जहाँ मन करे विस्फोट कर दें

लोगों को बंधक बना लें

मांग करें आतंकवादियों को रिहा करने की

घंटों फायरिंग करें, ग्रेनेड फेकें

हमारे एक एक करके जवान शहीद हों

और मीडिया फ़िर से चीख चीख कर कहे

ये भारत पर अटैक है

और हमारे जवानों की सारी स्ट्रैटेजी टीवी पर दिखा दे

ताकि उन्हें मालूम होता रहे की जवाबी हमला कैसे होने वाला है

कहें की मुंबई रूकती नहीं, डरती नहीं

मगर क्या उपाय है...घर में बंद हो जाएँ

चूल्हा कैसे जलेगा

मैं दिन भर बस परेशान रह सकती हूँ

प्रार्थना कर सकती हूँ

इश्वर सबकी रक्षा करे

क्योंकि अब अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं
मैं न आर्मी में हूँ, न पुलिस में

ऐसी परिस्थिति में मैं कुछ नहीं कर सकती

कोई उपाय नहीं समझ आता इनसे मुकाबला करने का

खून खौल उठता है

ऐसा कुछ नहीं है जो मैं कर सकूँ

तो मैं क्या बस कविता लिखूँ?

26 November, 2008

एक शाम




आलसी चांद
आज बहुत दिनों बाद निकला
बादल की कुर्सी पे टेक लगा कर बैठ गया
बेशरम चाँद
पूरी शाम हमें घूरता रहा

लाज से लाल चेहरा...
संदली शाम में घुलता रहा
गुलाबी सितारे आँख मिचौली खेलने लगे

सारी शाम वो घास खोदता रहा
ग्लेशियर से जिस्म पिघलते रहे
मिट्टी में छोटी छोटी नदियाँ बहने लगीं

खिलखिलाती गुनगुनाती...
छोटी छोटी फ्राक पहने हुये लड़कियाँ
अंगूठा दिखाकर चिढ़ाती रही

मैं तितलियों के पीछे भागी बहुत
वो उंचे आसमानों में जाती रहीं
चाँद भी मुट्ठी से फिसलता रहा


अंजुरी में उठा कर तुम्हारा अहसास
मैं पलकों पे होंठों पे रखती रही
तुम जाने कहॉ खोये खोये रहे


पुरवा तुम्हारी बाहें बन कर
मेरी मुस्कुराहटें दुलराती रहीं
आँख भीगी भीगी रही

लबों पर धुआँ धुआँ सा रहा
मैं तरसती रही तुम तरसते रहे
एक शाम के धागे उलझते रहे

25 November, 2008

जहाँ न पहुंचे कवि, वहां पहुंचे ब्लोगर :D

"तुम्हारा और स्कॉच का कुछ रिलेशन समझ में नहीं आया" । वो मेरे ऑफिस में नई आई थी, उसके लैपटॉप पर कुछ सेटिंग करते हुए मैंने देखा कि उसने अपने आईपॉड का नाम "whiskey on the rocks" रखा था। जवाब देने के बजाये वह खिलखिला के हँस पड़ी, ये हँसी भी मेरी कुछ खास समझ में नहीं आई, लड़कियां जाने क्यों बिन वजह ही हँस देती हैं। जैसे कि उन्हें मालूम होता है कि हम उनकी हँसी से अपना सवाल भूल जायेंगे। पर मुझे मालूम करने की जिद पड़ गई। मैंने फ़िर पूछा, बताओगी नहीं, ये व्हिस्की ऑन द रॉक्स का क्या चक्कर है।


"क्योंकि मैं स्कॉच, ऑन द रॉक्स पीती हूँ ...बस इसलिए", अब इस जवाब के बाद चौंकने की बारी मेरी थी। "पर...पर, तुम तो...तुम तो ऐसी लड़की नहीं लगती", मैं हड़बड़ा के बोला था। "कैसी लड़की नहीं लगती...जिसे स्कॉच पसंद हो?", "हाँ...नहीं नहीं, मेरा वो मतलब नहीं था", मुझे कुछ सूझा नहीं। बाप रे, अब मैं किसी तरह अपना पीछा छुडाने की सोच रहा था...पड़ा एक और महिला मुक्ति वाले से मोर्चा, अब तो ये मैडम मेरी धज्जियाँ उड़ा देंगी, दिखने में कैसी सीधी सादी लगती है(और प्यारी भी...कहीं से आवाज़ आई)। और मैं सोच रहा था कि बेचारी नई आई है, किसी को जानती नहीं, थोड़ा बात कर लेता हूँ मन बहल जायेगा(किसका? उनका या तुम्हारा...फ़िर से आवाज आई)। इतनी सारी बातें एक मिनट के अन्दर दिमाग में घूम गयीं, और फ़िर दिमाग घूम गया...भागने के रास्ते ढूंढ़ना इतना आसान भी तो नहीं था, लंच टाइम था, अपना खाना मैं ले कर ही आया था उनकी सीट पर...और लैपटॉप कि सेटिंग भी अभी पूरी नहीं हुयी थी, कहाँ जाऊं हे भगवान अब तू ही बचा। इतनी कैल्कुलेशन जब चल रही थी तो मैंने देखा नहीं कि उनके चेहरे का हावभाव क्या है, इसलिये कहते हैं कि आदमी को अपने अलावा औरों के बारे में भी सोचना चाहिए।


खैर अब ओखली में सर दिया तो मूसल से क्या डरना...मैंने देखा, मोहतरमा की आँखें उसी तरह चमक रही थी जैसे शेर की अपने सामने शिकार देख कर चमकती होंगी(मैंने वैसे कभी देखा नहीं है, पर शायद जैसे टॉम एंड जेर्री में जब जेरी हाथ में आता है तो टॉम के चेहरे का भाव जैसा ही होगा)। वो किसी दूसरी दुनिया में जा चुकी थी, "जानते हो, कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें पहली बार देख कर भी नहीं लगता कि पहली बार देखा है, किसी से पहली बार मिल कर भी लगता है हम पिछले जनम में मिल चुके हैं...वैसा ही था व्हिस्की का स्वाद, कभी लगा ही नहीं कि पहली बार पी है...जैसे पानी, वैसे ही याद नहीं कि पहली बार कब पी थी..."।


अब तो मुझे काटो तो खून नहीं, इस बार बुरे फंसे बच्चू, कवयित्री से पाला पड़ा है, अब तो भगवान भी नहीं बचा सकते, मुझे पूरा यकीं था कि वो मुझे अब कविता पढ़ाने लगेगी। मैं भला आदमी, इस पूरे प्रकरण में सिर्फ़ अपनी इंसानियत के कारण फंसा हूँ। इससे ये निष्कर्ष निकलता है, इंसान होना ग़लत है, पूरी एवोलुशन प्रक्रिया ग़लत थी, आख़िर इवोल्व होके क्या बना...कवि!!?? इससे तो अच्छे हम पाषाण युग में थे, शिकार करो, खाओ...कम से कम किसी कि कविता तो सुननी नहीं पड़ती थी। जैसे मछली कांटे में फंसती है तो घंटों बैठे मनुष्य के चेहरे पर जो भाव होता है उनके चेहरे पर वही भाव नज़र आ रहा था। मैं क्या कर सकता था, मन मार के तैयार हो गया।


पर उन्होंने जब इन्टरनेट एक्स्प्लोरर पर ब्लोगेर खोला तो हमारी सारी हिम्मत जवाब दे गई...ब्लॉगर!!!!! ये तो मनुष्य की सबसे खतरनाक श्रेणी होती है...मैंने किसके चंगुल में फंस गया, हे हनुमान जी बचाओ...अब ये अपना लिंक रट्वायेंगि, और कमेन्ट न देने पर रोज ख़बर लेंगी...अब मैं क्या करूँ, किसकी शरण में जाऊं। मैंने वादा किया कि मैं रोज़ उनका ब्लॉग पढूंगा और कमेन्ट भी दूंगा, और कोई उपाय भी क्या था।

जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि, और जहाँ न पहुंचे कवि वहां पहुंचे ब्लोगेर. तो बचने का कोई उपाय ही नहीं था. आते साथ मैंने सारी नौकरी की साइट्स पर अपना resume डाला...मोंस्टर से लेकर शाइन तक। और आप सब से अनुरोध है कि अगर किसी के ऑफिस में कोई पोस्ट खाली हो तो मुझे बताएं। मानता हूँ आप ब्लोगेर हैं पर उससे पहले आप एक इंसान है, इसलिए कृपया मेरी मदद कीजिये। आज से मैं कान पकड़ता हूँ, व्हिस्की नहीं पियूँगा, कोई लड़की चाहे व्हिस्की पिए या किरासन तेल उससे कारण नहीं पूछूँगा, और किसी लड़की की मदद करने नहीं जाऊँगा।

नोट:इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं उनका किसी भी व्यक्ति जीवित या मृत से कोई लेना देना नहीं है :D.

21 November, 2008

तुम्हें प्यार है मुझसे

फ़िर से एक पुरानी नज़्म, फ़िर से पीले जर्द पन्ने...और लबों पर वो हँसी कि क्या लिखती थी मैं उस समय...ये लिखा है ३१/०८/०२ को। अब सोचती हूँ तो लगता है कितने साल बीत गए...

सोचती हूँ की जी लोगी मेरे बगैर

एक दिन के लिए कोशिश कर कर देखो

गूँज उठेगा तुम्हारी धडकनों में नाम मेरा

कभी खामोशी में मुझे याद कर देखो

मैं कोई ख्वाब नहीं की मुझे भूल जाओ कल सुबह तुम

मैं हकीकत हूँ न यकीं हो तो छू कर देखो

झूठ कहती हो कि हर नज़्म तुम्हारी अपनी है

मुझे सोचे बगैर एक लफ्ज़ भी लिख कर देखो

रात भर रोओगी मगर छुपाओगी मुझसे

कभी अपने गम मेरे साथ बाँट कर देखो

तुम्हारा हर अहसास जुड़ा हुआ है मुझसे

मेरी हँसी को अपने लबों से जुदा कर देखो

मेरा हर दर्द टीस उठता है तुम्हारे अन्दर

तुम्हारी आँखें नम हैं मेरे अश्कों से जा कर देखो

तुझे मालूम नहीं ए मेरी मासूम सी ख्वाहिश

तुम्हें प्यार है मुझसे मेरा यकीन कर देखो।

19 November, 2008

जागने का वक्त आ गया है.

हमें याद है की १०वीं में हमारा सिविक्स नाम का विषय होता है...उसी में हम संविधान के बारे में पढ़ते थे। हम जब fundamental rights के बारे में पढ़ते हैं तो उसी पैराग्राफ में हमारी duties के बारे में भी लिखा होता है। ऐसा क्यों होता है कि हम अपने अधिकारों को लेकर बहुत सचेत रहते हैं और हो हल्ला भी मचाते हैं पर अपनी जिम्मेदारियों का क्या? क्या अपनी जिम्मेदारियां ताक पर रखने के बाद हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने का हक है?
इस दौर में सब सब सवाल करते हैं कि आप क्या कर रहे हो...समाज के लिए...देश के लिए वगैरह वगैरह, ये सवाल करने के पहले वो ये बताएं कि उन्होंने क्या किया है, किस बदलाव कि दिशा में कदम उठाये हैं?
आज मैं भी ऐसे ही एक बदलाव के बारे में कहना चाहती हूँ जी बहुत जरूरी है। और ये है वोट देना, हममें से अधिकतर लोग सरकार को कोसते हैं उसकी हर नाकामी पर, मगर जब वोट देने का वक्त आता है हम अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट जाते हैं। हालाँकि मैं मानती हूँ कि इसका एक बहुत बड़ा कारन ये है कि कोई भी एलेक्टीओं में खड़ा होने वाला नेता इस काबिल नहीं होता कि उसे चुना जाए। सारे भ्रष्ट और अक्सर अपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं। पर वोट देना पहला कदम है हमारे देश के लिए कुछ सार्थक करने कि दिशा में।
हम कॉलेज में थे जो चुनाव और राजनीति को गंभीरता से लेते थे...जेएनयू में तो खास तौर से इस तरह कि हवा चलती है कि आप किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित हो ही जाते हैं। मेरे कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जिन्होंने राजनीति में उतरने का और चीज़ों को बदलने का प्रण लिया है। मुझे उन पर गर्व है, मैं सीधे इलेक्शन में उतर तो नहीं सकती पर मैंने वादा किया है कि उनका इलेक्शन कैम्पेन मैं सम्हालूंगी।
मैं और मेरे जैसे कई लोग इस लिए भी वोट नहीं दे सकते क्योंकि हमारा नाम हमारे घर कि वोटर लिस्ट में जुदा है, और हम रहते हैं दूसरे शहर में...अब वोट कैसे दें।मुझे ये मालूम नहीं था कि किसी भी शहर में ६ महीने तक रहने के बाद हम अपना नाम वहां की वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए आवेदन दे सकते हैं। और वोट करने के लिए बस लिस्ट में नाम होना जरूरी है, वोटर आइडी कार्ड नहीं है तो DL या PAN कार्ड भी चलता है।इस सारी प्रक्रिया को बिल्कुल आसान कर दिया है टाटा टी ने अपने नए वेबसाइट में
मेरा आपसे अनुरोध है कि आप www.jaagore.com पर जरूर जाएँ। वाकई वोट करना अब बिल्कुल आसान हो गया है। मैंने अपने सारे दोस्तों को इस बारे में बताया और उन्होंने भी सूचना को आगे forward किया।ummid है इन छोटे छोटे क़दमों से ही हमारा हमारे अपने भारत का सपना पूरा होगा।

वंदे मातरम्

18 November, 2008

मैं और तुम

मेरे तुम्हारे बीच

उग आया है

कंटीला मौन का जंगल

जाने कब खो गयीं

शब्दों की राहें

खिलखिलाहटों की पगडंडियाँ

ऊपर नज़र आता है

स्याह अँधेरा

नहीं दिखता है चाँद

नहीं दिखती तारों सी तुम्हारी आँखें

काँटों में

उलझ जाता है तुम्हारा स्पर्श

ग़लतफ़हमी की बेल

लिपट जाती है पैरों से

और मैं नहीं जा पाती तुम्हारे करीब

बहुत तेज़ होता जाता है

झींगुरों का शोर

मैं नहीं सुन पाती तुम्हारी धड़कन

पैरों में लोटते हैं

यादों के सर्प

काटने को तत्पर

शायद मेरी मृत्यु पर ही

निकले तुम्हारे गले से एक चीख

और तुम पा जाओ

शब्द और जीवन ...

16 November, 2008

फ़िर


इंतज़ार में
बिल्कुल कण कण में
टूट जाता है मेरा वजूद
और क्षण क्षण गिरता रहता है
रेत घड़ी के एक से दूसरे छोर पर

धीरे धीरे फ़िर से जुड़ जुड़ कर
पूरी होने लगती हूँ मैं
और एक तरफ़ से बिल्कुल खाली

पर स्थायित्व नहीं है मेरे जीवन में
जैसे ही गिरता है पूरा वजूद
वक्त मुझे फ़िर से पलट देता है
और शुरू हो जाता है
मेरा बिखरना
फ़िर से...

15 November, 2008

नया टेम्पलेट मुबारक हो :)

अब रात के दो बजे कोई भूत प्रेत ही मुबारक दे सकते हैं, तो मैंने सोचा उससे पहले मैं ख़ुद को ही बधाई दे लूँ। पिछले टेम्पलेट में ऐसी प्रॉब्लम आ गई थी की पोस्ट्स एडिट ही नहीं हो रहे थे, बहुत कोशिश की सुधारने की, कुछ नहीं हुआ। हमने सोचा मुसीबत को जड़ से ही समाप्त कर देते हैं। वैसे अभी बहुत काम बाकी है इसपर....एक तो ऊपर का टूलबार ही गायब है, समझ नहीं आ रहा लोगिन कहाँ से करें और न्यू पोस्ट्स कैसे लिखें। खैर ये सब करके इसे पूरी तरह अपने जैसा बनाने में टाइम लगेगा। उसपर वीकएंड भी आया है...मैं इस खूबसूरत टेम्पलेट के लिए उन सब लोगों को धन्यवाद करती हूँ जिन्होंने घंटों मेहनत करके इसे बनाया है।

कल मेरे ड्राइविंग लाइसेंस का प्रैक्टिकल टेस्ट है...भगवान बचाए। बाप रे ! बंगलोर में लाइसेंस ऐसे मिलता है की गाड़ी चलने से डर लगने लगे। रिटेन परीक्षा में १५ सवाल थे, जवाब देने में कम से कम १५०० बार भगवान् का नाम तो लिया ही होगा। उसपर कुणाल के साथ गई थी कि समझदार लड़का है, थोड़ा ताक झांक कर लेने से काम हो जायेगा, मगर हाय रे gender inequality, वहां लड़के और लड़कियों को अलग अलग बैठा दिया गया...अलग क्या बैठे हमारा तो दिल बैठ गया। हनुमान चालीसा तब से ही पढ़ना शुरू कर दिए थे। औए सवाल तो क्या हैं...हमें अपने PG में भी ऐसे सवाल नहीं रटने पड़े थे।
बानगी देखिये:
there is a cow standing across the road, what will you do?
a)cross the road from the cow's behind
b)cross the road from front of the cow
c)wait till the cow has crossed the road
अगर मैंने ख़ुद से सवाल नहीं देखा होता तो मुझे कभी यकीं नहीं होता कि ऐसे सवाल भी आ सकते हैं। खैर हमारी तो पूरी इच्छा थी कि हम तब ताख खड़े रहे तब जब गोमाता सड़क पार न कर लें, लेकिन पहले जो चित पढ़ी थी उसमें लिखा था कि गाय के पीछे से निकल जाएँ। अब भइया बताओ कि अगर गाय के सामने से जाने पर उसके सींग मारने का भय है तो पीछे से जाने पर भी तो गोबर और गोमूत्र पढ़ने का डर है...इससे क्या रुक जाना बेहतर नहीं होगा। पर शायद कुएस्शन सेट करने वालों को लगा होगा कि इससे शुद्धि होगी हमारी तो ऐसा नियम बनाया।
मैंने यह भी सोचा कि अगर गाय कि जगह भैंस खड़ी तो क्या करें...फ़िर लगा कि उनसे पूछने से बेहतर है कि मैं ताऊ से पूछ लूँ। खैर वो सवाल फ़िर कभी।

फिलहाल तो कल कि तैयारी ठेंगा हो रखी है...भगवान उस instructor को बचाए जो मेरा टेस्ट लेने वाला है। पटना में मैं साईकिल भी चलती थी तो खम्भे वगैरह रास्ता दे देते थे। :D aur कुणाल को जितनी अच्छी तरह से मैं जानती हूँ वो आराम से कह देने वाला है कि मैं उसके साथ नहीं हूँ...उफ़ ये बंगलोर। मुझे फ़िर से देवघर, पटना और दिल्ली की बहुत याद आ रही है.

अब सपने में बाकी प्रक्टिस करुँगी...

ये यादें कौन सी bike से चलती हैं
कहीं भी जाऊं मुझसे पहले पहुँच जाती हैं

क्या इन्हें पेट्रोल भी नहीं bharana होता...

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