आजकल शब्दों ने मेरा साथ छोड़ दिया है। शायद कहीं न कहीं दिन भर टीवी पर मुंबई को यूँ लहूलुहान देखकर शब्दों में भी खून उतर आया है...घर की दीवारों पर टंगे नज़र आते हैं वो खौफनाक मंजर। दिन भर डरा सहमा ये दिल शायद कुछ सोचना बंद कर चुका है।
साथ ही साथ आक्रोश भी है, अपने कुछ न कर पाने का बेहद अफ़सोस भी, अपनी लाचारी पर बेहद दुःख भी। इसलिए आजकल कुछ लिखने से ज्यादा पढ़ रही हूँ, कुछ कवितायेँ कालजयी होती हैं। हर माहौल में उनकी जरूरत होती है।
आज दुष्यंत कुमार की मेरी सबसे पसंदीदा कविता पढ़ा रही हूँ। आप में से अधिकांश ने पढ़ी होगी, पर फ़िर से पढ़ना भी अच्छा लगता है।
शब्दों में ही पनाह है...थोड़ा सुकून जो तलाश करती हूँ फ़िर से यहीं आ कर मिलता है। जैसे किसी बुजुर्ग का हाथ हो सर पर...आशीर्वाद हैं ऐसी कवितायेँ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
-दुष्यंत कुमार
Kind of agree with you ... may be you'd like to see this :
ReplyDeletehttp://kisseykahen.blogspot.com/2008/04/blog-post.html
And perhaps today's post too...
Keep writing.
main bhi sahamat hun aapse....
ReplyDeleteमैं दुष्यंत की मातृभूमि का निवासी हूं किंतु यह गजल मेरे पास नही थी। धन्यवाद आपने इस मेरे संग्रह में बढबा दिया।
ReplyDeleteहालात ज्यादा लिखने के नही पढनें के लिए ज्यादा लग रहे हैं क्योकि दिमा्ग में गुस्सा एवं तनाव ज्यादा है।
फिर भी चुप बैठा तो नही जा सकता। हालात सुधारने को जद्देा जहद तो जारी रखनी ही होगी़त्..
दुष्यंत के क एक शेर
कौन कहता है आकाश में छेद नही हो सकता,
एक पत्थर तो जरा दम से उछालो यारों ।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
ReplyDeleteहो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
लगता हैं शुरुआत तो हो चुकी बैशक ...। पर अब देखना है कि यह आग कितने दिन तक जलती है और इसके क्या परिणाम निकलते। बस यही दुआ है कि यह आग जलती रहे और इसके परिणाम सुखद हो।
आमीन !
ReplyDeleteबस इसी सोच की ज़रूरत है
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