आज मुझे शब्द न दो
बस थोडी खामोशी दे दो
ओक में भरकर पीने के लिए
जैसे डूबते सूरज की आखिरी रौशनी पकड़ती थी
उसी तरह से...
आज मुझे वैसे खामोशी दो
जो हम दोनों मिल कर बाँट सकें
अकेले अकेले झेलें नहीं...
वक्त हुआ करता था
जब साथ होना ही काफ़ी होता था
पर अब नहीं होता
क्यों मन मांगने लगता है
सिन्दूरी सी शामें
घर लौटते पंछियों की चहक
जंगल से आती शीतलहरी
गुलाबी गुलाबी सा चाँद
पीली रौशनी में नहाई सड़कें
एक टुकडा बादल की बारिश
रोशनदान से आती किरणों की डोर
क्यों प्यार मांगने लगता है
और देना भूल जाता है...
आज मुझे शब्द न दो
ReplyDeleteबस थोडी खामोशी दे दो
बहोत खूब हक़ अदा किया है बहोत सुन्दर आपको ढेरो बधाई..
"ओक में भरकर पीने के लिए"
ReplyDeleteबहुत ही जबरदस्त लाइन है... शानदार!
हाँ ख़ामोशी की भी अपनी ज़ुबाँ होती है!
ReplyDeleteशानदार!
ReplyDelete"ओक में भरकर पीने के लिए"
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ! ओक शब्द के इस्तेमाल ने एक सादी छवि प्रस्तुत की ! कविता की सुन्दरता बढ़ गई ! शुभकामनाएं !
बस थोडी खामोशी दे दो
ReplyDeleteओक में भरकर पीने के लिए
जब भी तुम्हे पढता हूँ ....सोचता हूँ कि कितना कुछ समेटे बैठी हो तुम भीतर ही भीतर ....
क्यों प्यार मांगने लगता है
और देना भूल जाता है...
कितना सच कहा तुमने ......
बस एक लाइन खटकती है...........".अकेले अकेले झेलें नहीं"...यहाँ झेले शब्द का इस्तमाल कही इस भावः कि तन्मयता को तोड़ता सा दिखता है.... अगर कुछ ओर इस्तेमाल करो यहाँ तो ?
bahut sundar bhav
ReplyDeleteहमेशा कि तरह एक और बढिया कविता..
ReplyDeleteअनुराग जी का कमेंट कोट करने लायक है.. :)
उम्दा भाव-उत्तम रचना!!
ReplyDeleteकुछ रचनाएं दिल को छू जाती है कुछ उसी प्रकार लगी।
ReplyDeleteआज मुझे शब्द न दो
बस थोडी खामोशी दे दो
ओक में भरकर पीने के लिए
क्यों प्यार मांगने लगता है
और देना भूल जाता है...
आज मुझे शब्द न दो
ReplyDeleteबस थोडी खामोशी दे दो
ओक में भरकर पीने के लिए
जैसे डूबते सूरज की आखिरी रौशनी पकड़ती थी
कोई पकड़ पाया है ???
सिन्दूरी सी शामें
घर लौटते पंछियों की चहक
जंगल से आती शीतलहरी
गुलाबी गुलाबी सा चाँद
पीली रौशनी में नहाई सड़कें
एक टुकडा बादल की बारिश
रोशनदान से आती किरणों की डोर
आज मुझे शब्द न दो
ReplyDeleteबस थोडी खामोशी दे दो
ओक में भरकर पीने के लिए
जैसे डूबते सूरज की आखिरी रौशनी पकड़ती थी
उसी तरह से...
आज मुझे वैसे खामोशी दो
बहुत प्रभावी लिखा है. सच्ची अनुभूति.
bahut payri kavita
ReplyDeleteघर लोटते पंछियों की चहक
ReplyDeleteजंगल से आती शीतलहरी
गुलाबी-गुलाबी सा चाँद..
बहुत सुंदर कविता है ....बधाई
आज मुझे शब्द न दो खानमोशी दो। अच्छा ख्याल है, मेरा एक सुझाव है कृपया blogvani से भी जुडें, क्योंकि आप अच्छा लिखती हैं। आपको हर जगह होना चाहिये अच्छे सहित्यिक मंच पर। मेरी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमुक्त छंद की रचनाओं को वैसे भी कोई एक नया नाम तो दे ही देना चाहिये
ReplyDeleteअच्छे श्ब्द संयोजन...
क्यों प्यार मांगने लगता है
ReplyDeleteऔर देना भूल जाता है...
खूब लिखा है आपने. बधाई. स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.
आज मुझे शब्द न दो
ReplyDeleteबस थोडी खामोशी दे दो
ओक में भरकर पीने के लिए
ekdam dil se likhti ho tum....isliye seedhe dil tak pahunchti hai tumhari baat. bahut achche...
क्यों प्यार मांगने लगता है
ReplyDeleteऔर देना भूल जाता है...
आज मुझे शब्द न दो
बस थोडी खामोशी दे दो
ओक में भरकर पीने के लिए
घर लोटते पंछियों की चहक
जंगल से आती शीतलहरी
गुलाबी-गुलाबी सा चाँद..
अब मेरा भी कुछ कहना बाकि रहा क्या....मगर आपकी कवितायें वाकई"..........." हैं.......भई शब्द ही हैं सूझ रहा ना....तो मैं क्या करूँ...हर कोई अब आपकी तरह शब्दों का धनी भी नहीं ना....!!
waah janaab bahoot hi khoobsoorat rachnayeiN....
ReplyDeleteHarash Mahajan