12 November, 2008

असहमति

मैं कविता लिखती हूँ, प्रायः मुक्त छंद में ही लिखती हूँ, मुझे ऐसा लगता है कि भावनाएं किसी व्याकरण में बंधने लगती हैं तो उनका स्वरुप नियमों के अनुकूल होने लगता है। अभिव्यक्ति एक दिशा में मुड़ने लगती है...आजकल लिखने का तरीका भी ऐसा हो गया है कि अक्सर जो एक बार लिख देती हूँ, वापस उसमें संशोधन नहीं करती हूँ/नहीं कर पाती हूँ। कहने को ये भी कह सकती हूँ कि वक्त नहीं मिलता...पर उससे ज्यादा ये होता है कि कुछ भी लिखते वक्त जो ख्याल आते रहते हैं दिमाग में, वो कुछ समय बाद बदल जाते हैं। अब ऐसे में अगर मैं कुछ बदलाव करती हूँ तो लगता है उस ख्याल के प्रति अन्याय कर रही हूँ।
मेरा लिखना हमेशा कविता नहीं होता है...मैं बस जो शब्द उमड़ते घुमड़ते रहते हैं उन्हें लिख देती हूँ, उनमें एक प्रवाह होता है, एक अहसास होता है, बस...इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है, इससे ज्यादा मुझे कुछ चाहिए भी नहीं होता है मेरी लेखनी से।
अभी तक से एक दो सालों में कुछ ही बार ऐसा हुआ है कि लोगों कि प्रतिक्रिया पढ़ कर मेरा वाकई मन किया है कि मैं उनसे इतनी बहस करूँ कि वो हार कर चुप हो जाएँ...उनके लिखे कि धज्जियाँ उड़ा दूँ।परसों एक कमेन्ट आया जिससे उस वक्त से मेरा दिमाग ख़राब हो रखा है, और मैं जानती हूँ कि जब तक मैं लिख न लूँ शान्ति नहीं मिलेगी।

तो ये रहा कमेन्ट

HEY PRABHU YEH TERA PATH said...कविता आज का जनप्रिय काव्य-कथ्य हो गया है।पुराने जमाने मे जो स्थान दोहा, सोरठा या मनोहर-छन्द का था उसे आज कविताओ ने छीन लिया है।आपकी बेतरतीब कविता मे अपेक्षाकृत सुगमता कि झलक थी,यघपि इसमे अनुभुति की प्रखरता तो अपेक्षित है, पर तुकबन्दी के कारण एक चमत्कार भी आ जाता है। "ओक" शब्द का भावार्थ क्या है ? "झेलें" शब्द कुछ मजा नही आया।"गुलाबी गुलाबी सा चाँद", अगर चाँद को निला या सफेद धुधीया रग का बताते तो कैसा रहता? आशा है, बेतरतीब अपने सवेदन सन्देश को अन्य लोगो तक पहुचाने की परम्परा को निभाने मे समर्थ हो सकेगा।

महावीर बी सेमलानी "भारती'

मुबई 09-11-२००८


मुझे इस कमेन्ट पर आपत्ति है...
पहली बात कविताओं ने कभी किसी का स्थान नहीं छीना, कवितायेँ कोई नेता नहीं हैं जो हमेशा कुर्सी छीनने के बारे में सोचती रहे।


दूसरी बात...मेरी कविता में तुकबंदी है ही नहीं, किन्ही पंक्तियों में नहीं, तो फ़िर ये कहना कि तुकबंदी के कारण चमत्कार आ जाता है", क्या मायने रखता है, सिवाए ये दिखने कि इन महाशय को या तो पता नहीं है कि तुकबंदी क्या होती है या फ़िर इन्होने कविता पढ़ी नहीं है।


तीसरी बात" ओक शब्द का भावार्थ क्या है" जनाब शब्द का शब्दार्थ होता है, भावार्थ नहीं...पंक्ति या कविता का भावार्थ होता है।


चौथी और सबसे IRRITATING बात..."गुलाबी गुलाबी सा चाँद", अगर चाँद को निला या सफेद धुधीया रग का बताते तो कैसा रहता? " मैं नहीं बताउंगी नीला या पीला, क्यों बताऊँ, मेरी कविता है मेरा जो मन करेगा लिखूंगी, आपको इतना ही शौक है कि चाँद नीला या सफ़ेद हो तो आप ख़ुद एक कविता लिखिए....आप कौन होते हैं मुझे मेरे चाँद के रंग पर सलाह देने वाले...इसको सरासर हस्तक्षेप कहते हैं, बिन मतलब और बेसिरपैर की सलाह देना भी कहते हैं।


और आखिरी पंक्ति "आशा है, बेतरतीब अपने सवेदन सन्देश को अन्य लोगो तक पहुचाने की परम्परा को निभाने मे समर्थ हो सकेगा।" जी नहीं, इसमें कोई संवेदन संदेश नहीं है...कृपया आसान सी चीज़ों में जबरदस्ती के गूढ़ भाव न खोजें। आपसे अगर पूछूँ की संवेदन संदेश का अर्थ क्या होता है तो शायद आप भी नहीं बता पायेंगे. क्या सिर्फ़ कुछ भी लिख देने के लिए कमेन्ट लिखने की जगह होती है...चाहे वो relevant हो या नहीं? ऐसा कुछ भी लिखने के लिए ब्लॉग होता है जहाँ पर आप उल्टा सीधा जो मन करे लिख सकते हैं, क्योंकि ब्लॉग लिखने का उद्देश्य अपनी बात कहना होता है। मैंने कई और बार भी देखा है कि कोई कुछ भी लिख जाता है।


कमेन्ट लिखते वक्त बेहद जरूरी है की आप पोस्ट को पढ़ लें ...फ़िर जो चाहें लिखें. और अगर पढने का मन नहीं है तो सिर्फ़ बढ़िया है, अच्छा लगा...जैसे कमेन्ट दें. खास तौर से बुरा लगा मुझे जब दिवाली के समय मैंने माँ की बरसी पर एक पोस्ट लिखी थी और उसमें भी कमेन्ट में लोग मुझे दिवाली की शुभकामनाएं दे गए थे. क्या क्षण भर ठहर के ये देखना जरूरी नहीं था की जिसे आप हैप्पी दिवाली कह रहे हैं वह इस दिवाली को किस तरह से मना रहा है...दिवाली है या मुहर्रम उसके घर में.
खैर चलता रहता है ये सब भी...

ब्लॉग्गिंग भी जिंदगी का हिस्सा ही तो है

08 November, 2008

बेतरतीब

आज मुझे शब्द न दो

बस थोडी खामोशी दे दो

ओक में भरकर पीने के लिए

जैसे डूबते सूरज की आखिरी रौशनी पकड़ती थी

उसी तरह से...

आज मुझे वैसे खामोशी दो

जो हम दोनों मिल कर बाँट सकें

अकेले अकेले झेलें नहीं...

वक्त हुआ करता था

जब साथ होना ही काफ़ी होता था

पर अब नहीं होता

क्यों मन मांगने लगता है

सिन्दूरी सी शामें

घर लौटते पंछियों की चहक

जंगल से आती शीतलहरी

गुलाबी गुलाबी सा चाँद

पीली रौशनी में नहाई सड़कें

एक टुकडा बादल की बारिश

रोशनदान से आती किरणों की डोर

क्यों प्यार मांगने लगता है

और देना भूल जाता है...

06 November, 2008

यादें जो दबे पाँव आती हैं

डायरी के पाने उलटती हूँ तो एक अजीब सा अहसास होता है, इतने साल हो गए...वो लम्हा आज भी जैसे उतना ही जीवंत है, जैसे पाटलिपुत्र में कतार से लगे गुलमोहर के पेड़। होली के वक्त उत्साह बरसाता अमलतास, गुनगुनाती हुयी मालती और चहकती हुयी मैं।
ये वो वक्त था जब मेरी हैन्डराईटिन्ग काफ़ी खूबसूरत मानी जाती थी, मेरी कविताओं से ज्यादा नहीं, पर फ़िर भी मेरी कुछ दोस्तों को मेरी कवितायेँ बड़ी पसंद आती थी। शायद वो उम्र ही ऐसी होती है, जब रूमानियत किसी भी फॉर्म में अच्छी लगती है, प्यार किसी भी लफ्ज़ में अच्छा लगता है। मुझे आज भी याद है मैंने कुछ कवितायेँ लिख कर दी थी...ताकि वो हमेशा उनके पास रहे। आज जाने कहाँ हैं वो लड़कियां...और जाने कहाँ होंगे वो पन्ने, जो शायद उस वक्त इसलिए सहेजे जाते थे की किसी और को चिट्ठी लिखते वक्त quote करने में काम आयेंगे। जाने वो ख़त लिखे गए की नहीं, और पता नहीं मेरे किसी शेर ने किसी को किसी और की मुहब्बत का यकीं दिलाया की नहीं। आज बहुत से सवाल जेहन में यूँ ही चहलकदमी करने लगे।
१६ साल का प्यार होता भी ऐसा ही है, जिसमें कुछ कहने की जरूरत नहीं रहती। किसी को बताने की भी नहीं, ये भी नहीं कि वो मुझे सोचता है की नहीं...बस इसमें खुश कि मैं किसी को चाहती हूँ। अब वो बचपना लगता है, पर सच में बचपन कितना मासूम होता है, और वो प्यार कितना निष्पाप। उस प्यार में ये चिंता नहीं रहती की आगे क्या होगा? वो वाकई प्यार होता है, रिश्ते के बिना बंधन के बिना...
आज यूँ ही पुरानी डायरी निकाल के पढ़ रही थी...बहुत कुछ घूमने लगा दिमाग में। कागज पर लिखे शब्दों की बात ही कुछ और होती है, handwriting से ही पता चल जाता कि किस मूड में लिखी गई है...हाशिये पर उकेरी लकीरों से समझ आ जाता है की किसकी मुस्कराहट को शब्दों में ढालने की कोशिश चल रही थी। इतना कुछ ब्लॉग की पोस्ट में थोड़े दीखता है।

शायद इसलिए डॉ anuraag कहते हैं "सुनो....इतनी ईमानदारी कागजो में मत उडेला करो ......"

पुरानी डायरी के पन्ने...

ख्वाब पुराने, तुम, और बीते लम्हों की बातें
कुछ भीगी सी और कुछ कुछ धुंधली सी रातें
कुछ उदास ही सुबहें, रूठी यादों के कतरे
कितना कुछ एक अधूरा रिश्ता दे गया...

जेहन में उतरती खुशबुयें आपस में घुलती थी
और तस्वीर बनाती थीं बीते हुए कल की
यूँ लगता था तुमने किसी और जनम में दी थीं
कितना कुछ जर्द पन्नों में दबा एक फूल सूखा दे गया...

कुछ दूर तुम्हारा हाथ थम कर चली थीं मैं कभी
तुम्हारे रूमाल में मेरे आंसू क्या आज भी रोते हैं
बादल अब बस तुम्हारी ही तस्वीर बनते हैं
कितना कुछ मेरी बाहों को आसमाँ तनहा दे गया...

खामोश खूबसूरत आंखों में खो जाने की ख्वाहिश
एक लम्हे में जिंदगी जी लेने का अहसास
जानते हुए भी की ख़त्म नहीं होगा, इंतज़ार तुम्हारा
कितना कुछ हमदम मेरे मुझे प्यार तेरा दे गया...

मुस्कुराहटें, सुनहले ख्वाब, जादे की बरं धुप
चाँद से की गई कितनी बातें और अनकहा कुछ
कुछ तस्वीरें और कुछ अधूरी सी कवितायेँ
कितना कुछ बीते कल का हर एक लम्हा दे गया...

१/७/०३

05 November, 2008

पहली मुलाकात...


हम इत्तिफाक से मिले थे...
हाँ उस वक्त हसीं नहीं लगा था कुछ भी

मुझे ऑफिस में देर हो गई थी
और गुडगाँव से दिल्ली काफ़ी दूर होता है
रात को...एक अकेली लड़की के लिए

मैंने यूँ ही तुम्हें बोल दिया था
मुझे आज हॉस्टल तक ड्राप कर दो
और तुम यूँ ही गाड़ी ले कर चले आए थे
टोयोटा इन्नोवा, व्हाइट कलर की

उस दिन पहली बार तुमको देखा था
झीने झीने अंधेरे में...
देखने से ज्यादा...महसूस किया था
हमारे होने को...इत्तिफाकन

तुम्हें सिगरेट पीने कि इजाजत भी दे दी थी
जो मैं अमूमन किसी को भी नहीं देती थी

और सारे रास्ते मैं बक बक करती आई थी
और पहली बार २२ किलोमीटर कम लगे थे
ट्राफिक के बावजूद

यूँ तो मुझे बहुत अच्छी तरह से याद रहती है
पहली मुलाकात...बस इस बार नहीं

क्योंकि पहली बार लगा था
कि ये पहली मुलाकात नहीं है...
कुछ रिश्ते अधूरे छूट जाते हैं
और उनसे फ़िर मिलना होता है...
इत्तिफाकन

30 October, 2008

आज के दौर में...

हमसे पूछो तन्हाई की कैसी संगत होती है
हमने अक्सर दीवारों को अपना हाल सुनाया है

गली गली सन्नाटे घूमें कैसी दिवाली कैसी ईद
संगीनों को कहाँ पता कौन अपना कौन पराया है

सहमा सहमा दिन होता है और दहशत में जाती रात
पुलिस ने उसके बेटे को कल घर में घुस के उठाया है

आपस में ही लड़ जाएँ तो रोकेगा आतंकी कौन
हममें से ही कुछ लोगो ने नफरत का बीज लगाया है

बचपन में तो पढ़ा अमन का पाठ सभी ने साथ साथ
क्यों आखिर इस उम्र मेंआकर सारा प्यार भुलाया है

आग लगी है अपने वतन में कैसी बुझे बतलाओ कोई
गाँधी जैसा कोई मसीहा कहाँ अभी तक आया है

बनकर एक आवाज उठाना होगा हमको नींद से अब
जब जब जागी है जनता तब ही इन्किलाब आया है

23 October, 2008

माँ की बरसी


एक साल हो गया आज
सुबह ब्राह्मण भोजन करा दिया
दान दक्षिणा भी दे दी
पर भगवान के सामने सर नहीं झुकाया
आज भी नाराज हूँ उनसे मैं

काश तुम होती मम्मी
तो देखती
की तुम्हारी बेटी बड़ी हो गई है
और खाना बहुत अच्छा बनाने लगी है

कहते हैं ब्राह्मण को जो खिलाओ
वो ऊपर वाले को मिलता है
पर संतोष नहीं हुआ
काश तुम्हें बिठा के खिला पाती

तुम देख पाती
तुमने जितना सिखाया
मैंने याद रखा है
सब कुछ
छौंक से ले कर
मसालों तक

काश तुम होती मम्मी
तो अभी कुछ दिन और मेरा बचपन रहता

काश तुम होती मम्मी
तुम्हारी बेटी को एक साल में
बड़ी नहीं होना पड़ता...

20 October, 2008

चेतना

जब कि मैं
पूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया

जब तक मैं तुझमें नहीं होती हूँ
तू खोखला होता है
और जब तक तेरी बाहें मुझसे जुदा
मैं असुरक्षित

नियति नहीं थी ये
एक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था

अग्निशिखा बन गया अंतस
और उचक कर छू लिया
उस ज्योति को
जिसमें से आत्माएं निकलती हैं

प्रकाश, आँच, तप, तेज
सब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति

क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष

रचना...


एक लम्हे को

खोला मैंने

उससे निकला

आधा चाँद

एक टुकड़ा बादल

थोड़ी सी बारिश

हवा का एक झोंका

माथे पर झूलती लटें

आंखों में चमकते सितारे

थोड़ा अँधेरा

मैंने एक आकाश बिछाया

उसमे ये सारा सामन रख दिया

बाँध दी पोटली

बस एक लम्हा

बन गई कविता


उस कविता से

निकली

एक छटांक हँसी

एक कतरा आँसू

चुटकी भर खुराफात

मुट्ठी भर ख्वाब


ये सब मिल गए

बन गई

मैं

17 October, 2008

हमसे रूठा न करो...

रूठ कर नहीं जाते हैं घर से

सुबह सुबह

तुम्हारे साथ चली जाती है

घर से हवा

दम घुटने लगता है

अपने ही घर में

खामोश हो जाती है

डाल पर बैठी गौरैया

मुरझा जाते हैं

रजनीगंधा के सारे फूल


गले में अटक जाता है

रोटी का पहला कौर

ख़त्म हो जाता है

घर का सारा राशन पानी

कीलें उग आती हैं

सारे फर्श पर

बारिश होने लगती है

कमरे के अन्दर

आरामकुर्सी पर पसर जाता है

कब्रिस्तान का वीराना

एक दिन ही होती है

इंतज़ार की उम्र

शाम होते होते

रूठ जाती हैं साँसे.

15 October, 2008

वो बारिशें...




सड़क पर हैलोज़ेन लैंप की पीली बारिश में भीगते हुए
कभी देखा है चाँद को गुलमोहर की पत्तियों पर फिसलते?
खास तौर से अगर वो पूर्णिमा का चाँद हो...

जानती हूँ तुमने देखा नहीं होगा
तुम सड़क पर सामने देख कर चलते हो
न की ऊपर झूलती गुलमोहर की टहनियां...

पत्तों में छिपी बारिश की बूँदें
हवा के झोंके से कैसे नन्ही बारिश ले आती हैं
मुझे तुम्हारी थोड़ी सी याद आ जाती है...

एक फुदक में सड़क के पार भागती है गिलहरी
मैं जोर से ब्रेक मारती हूँ
दिल्ली के पुराने किले में रूकती है गाड़ी...

झील में बोटिंग करते हुए खिलखिलाते हैं
कुछ अनजान चेहरे
धुंधले...वक्त और दूरी के कारण...

याद आती है वो पहली बारिश
जब पहली बार तुम्हारे साथ बाईक पर बैठी थी
और तुमने गिरा दिया था...

घर जा कर गाड़ी पार्क करती हूँ
और टहलने निकल जाती हूँ
आई पॉड पर गाना बज रहा है...

"मौसम है आशिकाना...
ऐ दिल कहीं से उनको
ऐसे में ढूंढ लाना, ऐसे में ढूंढ लाना...

13 October, 2008

सवाल...जवाब नहीं.

मेर मानना है की सही या ग़लत कुछ नहीं होता, बस देखने का नज़रिया अलग होता है। खास तौर से समाज के बदलते समीकरणों की बात करें तो।

जाने मेरे कॉलेज के टीचर्स के कारण या फ़िर मेरी मित्र मंडली ऐसी रही कि मुझे सवाल करने की बहुत बुरी आदत लग गई। और सवाल भी ऐसे वैसे नहीं, कुछ ऐसी बुनियादों चीज़ों पर कि सुनने वाले का अक्सर माथा ख़राब जो जाए, और मेरे केस में अक्सर सुनने वालियों का हाल बुरा होता था।

अब मैंने देखा कि एक दिन बात हो रही थी कि ये आजकल की लड़कियों को देखो, शादीशुदा होकर भी कुंवारियों जैसी दिखती हैं, सिन्दूर कहीं छुप के लगा है, न बिंदी न चूड़ी। अब मुझे हो गई कोफ्त बिन मतलब के तंग अदा दिए बहस में...
क्यों जरूरी है कि लड़की एक किलो सिन्दूर लगा के आधा मीटर लंबा मंगलसूत्र लटकाए...ताकि मीलों दूर से नज़र आ जाए कि वो शादीशुदा है। लड़कों पर ऐसा कुछ भी नियम लागू क्यों नहीं होता, उनके लिए शादी का एक भी चिन्हं क्यों नहीं है। और किसी लड़की के लिए ये नियम इतने जरूरी क्यों हैं। थोडी सी flexibility क्यों नहीं मिलती लड़कियों को। और जहाँ मिल रही है अगर वो अपने हिसाब से जी रही है तो सब के पेट में इतना दर्द क्यों होने लगता है।
इस समाज से मुझे जाने क्यों बड़ी खुन्नस रही है हमेशा से, देखती आई हूँ न कि इसके सारे नियमों का भर हम लड़कियों को ही उठाना पड़ता है। मेरे जेनरेशन कि किसी भी लड़की से पूछ लो अगर किसी वर्ड से सबसे ज्यादा चिढ है तो वो है "compromise" और यहाँ कहीं भी उससे पुछा तक नहीं जाता है। पता नहीं हम किस शताब्दी में जी रहे हैं कि अब भी माँओं को बेटियों को सिखाना पड़ता है कि सबसे हिसाब से एडजस्ट करना चाहिए। आख़िर बाकी लोग थोड़ा सा एडजस्ट क्यों नहीं करते।
और क्या करें हम जैसी लड़कियां जब शीला दीक्षित तक कहती है कि रात को निकलने कि जरूरत क्या है। अब कोई शीला दीक्षित को समझाए, हर इंटरव्यू में ये सवाल किया जाता है कि रात को देर तक काम होने में रुकने पर कोई दिक्कत तो नहीं है तुम्हें। अब कौन लड़की कहेगी कि दिक्कत है और मौका जाने देगी...कौन कह सकता है कि दिक्कत नहीं होगी अगर आप ओफ्फिस से घर तक मेर सुरक्षा का इन्तेजाम कीजिये या जिम्मेदारी लीजिये। घर से बाहर अपने दम पर निकलती है हम लड़कियां, हर कदम पर एक लडाई, कभी अपनों से कभी बेगानों से, कभी system से, कभी समाज से।
और जाने कितनी कितनी बार अपने आप से, सिर्फ़ ख़ुद को जिन्दा रखने कि खातिर। सिर्फ़ इसलिए कि माँ बेटी बहन प्रेमिका या पत्नी के अलावा भी हम कुछ हैं....मेरा ख़ुद का भी एक अस्तित्व है।
मेरे ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड, पासपोर्ट पर मेरी माँ न नाम क्यों नहीं होता, कम से लिखने का आप्शन तक क्यों नहीं मिलता।
बुनियादी सवाल...विद्रोही तेवर...फ़िर भी ये समाज मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता...क्यों....क्योंकि मैं आत्मनिर्भर हूँ, आश्रिता नहीं।
काश मैं अपने तरफ़ कि हर लड़की को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना सकती, अपनी जगह लेने के लिए तैयार कर सकती। हम जब कॉलेज में थे तब हामारे टीचर्स कहते थे, यहाँ लौट कर आना। तुम्हारे जैसे कितनी लड़कयों को तुम्हारी जरूरत होगी।
मेरे बिहार...मैं लौट कर आउंगी, एक दिन जरूर आउंगी.

10 October, 2008

आखिरी मुलाकात

कुछ गीत ऐसे होते हैं कि सुनकर जैसे दिल में कोई हूक सी उठने लगती रहती है। बरसों पुराने कुछ बिछडे लोग याद आने लगते हैं, कुछ जख्म फ़िर से हरे हो जाते हैं।
कुछ ऐसा ही है बाज़ार का ये गाना "देख लो आज हमको जी भर के"। हालात, वक्त और बिछड़ने का अंदाज़ जुदा होने के बावजूद सुनते ही कोई पहचानी गली याद आ जाती है, गीली आँखें याद आती हैं, और एक शहर जैसे जेहन में साँसे लेने लगता है फ़िर से।
इश्क होता ही ऐसा है, गुज़र कर भी नहीं गुज़रता, वहीँ खड़ा रहता है। जब कोई ऐसा गीत, कोई ग़ज़ल पढने को मिलती है तो जैसे एक पल में मन वहीँ पहुँच जाता है। जहाँ जाना तो था पर लौट कर आना नहीं था। वो आखिरी कुछ लम्हे जब वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश होती है, किसी को आखिरी लम्हे तक ख़ुद से दूर जाते देखना, अपनी मजबूरियां जानते हुए, ये जानते हुए कि वो हँसते खिलखिलाते पल अब कभी नहीं आयेंगे।
वो आखरी मुलाकात...कुछ ऐसी बातें जो कही नहीं जा सकीं, एक खामोशी, एक अचानक से आई हुयी दूरी...और वही कम्बक्त वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश।

07 October, 2008

उमड़ घुमड़ ख्याल

हमारे देश में समस्या की जड़ को समाप्त क्यों नहीं करते?

ख़बर आई की अब IIT faculty में भी रिज़र्वेशन लागू होने वाला है। इस मुद्दे पर अलग अलग लोगों ने अपनी राय दी। मुझे तकलीफ सिर्फ़ इस बात से है की ये सरकार के हिसाब से निम्न तबके .लोग, जो की बिना रिज़र्वेशन अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकते...इनके लिए सबसे निचली इकाई पार काम क्यों नहीं होता। निचली इकाई यानि स्कूल...प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति को सुधरने की दिशा में कोई काम क्यों नहीं होता। अगर ये अल्पसंख्यक पढाना ही चाहते हैं तो क्यों नहीं स्कूलों में इनकी नौकरी लगायी जा रही रही है। iit जैसे संस्थान की हालत क्यों ख़राब की जा रही है।

मुझे गुस्सा इस बात का भी है की सरकार सही तरीके से कोई काम क्यों नहीं करती, इतनी सारी समितियां बनती हैं पर एक आम आदमी के पास ये तस्वीर क्यों नहीं है की रिज़र्वेशन से कितने प्रतिशत लोगो का फायदा हुआ है। कितने लोगों का नुक्सान हुआ है। क्या वाकई जिन लोगो को रिज़र्वेशन मिलता है वो इसके हक़दार हैं और उनका क्या जिन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं है पर फ़िर भी फायदा उठा रहे हैं।

कोई सन्सुस क्यों नहीं हुआ है ताकि ये पता चले की अच्तुअल्ली भारत में SC, ST and OBC जनसँख्या के कितने प्रतिशत हैं। अगर थोडी पारदर्शिता बरती जाए तो इसके ख़िलाफ़ आने वाली कितनी ही कड़वाहटों से बचा जा सकेगा। मैं रिज़र्वेशन के सख्त ख़िलाफ़ हूँ, इसके पीछे कारन ये भी है कि मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं है कि इससे कितने लोगों का फायदा हुआ है, अगर हुआ है तो। मैं देखती हूँ कि वो दोस्त जो साथ में पढ़ रहे हैं, कमोबेश एक ही जैसे घरों में पल बढ़ रहे हैं, सिफर इसलिए कि एक कि जाति अलग थी उसे अच्छी जगह admission मिल रहा है। और सिर्फ़ इसलिए कि दूसरा जनरल कातेगोरी का है उसे कहीं एड्मिशन नहीं मिला हालाँकि वह उससे पढने में बेहतर था। तब ये भेद भाव लगता है औरकहीं से न्यायोचित नहीं लगता।

क्या एक बेहतर स्कूल का स्य्स्तेम नहीं बनाया जा सकता जहाँ हर जाति के बच्चों को एक सी अच्छी पढ़ाई मिले, तक अगर ये बच्चे रिज़र्वेशन से भी जाते हैं तो भी पढने में अच्छे भी होंगे और किसी संस्थान का स्तर इनके आने से नहीं गिरेगा। तब कहीं जाके एक सामान समझ कि स्थापना हो पाएगी। ये ऊपर ऊपर रिज़र्वेशन देने से थोड़े कुछ होगा। बैसाखियों पर कब तक चल सकता है कोई भी समाज, चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक।main

main kabhi एक स्कूल तो जरूर खोलूंगी। जहाँ पर अच्छी पढ़ाई होगी, चाहे किसी भी समाज, किसी जाति या धर्म या लिंग का हो, वहां हर बच्चे को एक सा पढने लिखने और जीने कि आजादी होगी। एक ऐसी जगह जहाँ हर बच्चे को ये सिखाया जाए कि वह खास है और समाज में उसके सार्थक योगदान की जरूरत है। फ़िर इन्हें किसी पर निर्भर नहों होना पड़ेगा, रिज़र्वेशन पर भी नहीं। ये समझ में अपना स्थान ख़ुद बनायेंगे अपनी लगन और आत्मविश्वास से। एक दिन ऐसा आएगा...मैं लाऊंगी।

अंत में दिनकर की कुछ पंक्तियाँ

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,

आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,

और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,

इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी

कल्पना की जीभ में भी धार होती है,

वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

06 October, 2008

या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेन संस्थिता

दुर्गापूजा की आज सप्तमी है। पिछले साल इसी समय माँ के साथ पूरा पूरा दुर्गासप्सती पढ़े थे, शाम सुबह आरती किए थे।

इस बार...
पहली पूजा से ही दुर्गा माँ से नाराज़ हूँ, जो भगवान के सामने हाथ जोड़ दो अगरबत्ती दिखाती थी वो भी बंद कर रखा है। इतने दिन न पूजा की न सांझ दी, पूजाघर में जाना भी नहीं चाहती। शंख ला के रखा है, लिया तो यही सोच के था की दुर्गापूजा में बजाउंगी, पर छुआ तक नहीं है।

ये नाराजगी उनसे है या अपनेआप से मालूम नहीं। पर ऐसी अजीब घटनाओं के लिए तो मन इश्वर को ही जिम्मेदार मानता है, उन्ही से गुस्सा होता है। फ़िर लगता है की जाऊं तो जाऊं कहाँ, जब माँ नहीं है तो दुर्गा माँ ही से सारी बातें कह लूँ। त्यौहार के दिन कितना कुछ होता था, रोज पूजा, आरती और प्रसाद...कितनी तरह की सब्जी खास तौर से अष्टमी के दिन बनती थी। खाने का स्वाद अलोकिक होता था, माँ कहती थी त्यौहार के वक्त भगवान को भोग लगता है न, इसलिए खाने में इतना स्वाद आता है।

हर तरफ़ देखती हूँ, दोस्तों की मम्मी कभी उनके लिए कुछ बना के भेज रही है, कभी उनके बीमार पड़ जाने पर कितने नुस्खे बता रही है, कभी कपड़े भेज रही है। और हर त्यौहार पर सब घर जाने की बात कर रहे हैं। मैं कहाँ जाऊं, मेरा कोई घर नहीं, मुझे कोई नहीं बुलाता।
मुझे त्यौहार अच्छे नहीं लगते.

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