मैं कविता लिखती हूँ, प्रायः मुक्त छंद में ही लिखती हूँ, मुझे ऐसा लगता है कि भावनाएं किसी व्याकरण में बंधने लगती हैं तो उनका स्वरुप नियमों के अनुकूल होने लगता है। अभिव्यक्ति एक दिशा में मुड़ने लगती है...आजकल लिखने का तरीका भी ऐसा हो गया है कि अक्सर जो एक बार लिख देती हूँ, वापस उसमें संशोधन नहीं करती हूँ/नहीं कर पाती हूँ। कहने को ये भी कह सकती हूँ कि वक्त नहीं मिलता...पर उससे ज्यादा ये होता है कि कुछ भी लिखते वक्त जो ख्याल आते रहते हैं दिमाग में, वो कुछ समय बाद बदल जाते हैं। अब ऐसे में अगर मैं कुछ बदलाव करती हूँ तो लगता है उस ख्याल के प्रति अन्याय कर रही हूँ।
मेरा लिखना हमेशा कविता नहीं होता है...मैं बस जो शब्द उमड़ते घुमड़ते रहते हैं उन्हें लिख देती हूँ, उनमें एक प्रवाह होता है, एक अहसास होता है, बस...इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है, इससे ज्यादा मुझे कुछ चाहिए भी नहीं होता है मेरी लेखनी से।
अभी तक से एक दो सालों में कुछ ही बार ऐसा हुआ है कि लोगों कि प्रतिक्रिया पढ़ कर मेरा वाकई मन किया है कि मैं उनसे इतनी बहस करूँ कि वो हार कर चुप हो जाएँ...उनके लिखे कि धज्जियाँ उड़ा दूँ।परसों एक कमेन्ट आया जिससे उस वक्त से मेरा दिमाग ख़राब हो रखा है, और मैं जानती हूँ कि जब तक मैं लिख न लूँ शान्ति नहीं मिलेगी।
तो ये रहा कमेन्ट
HEY PRABHU YEH TERA PATH said...कविता आज का जनप्रिय काव्य-कथ्य हो गया है।पुराने जमाने मे जो स्थान दोहा, सोरठा या मनोहर-छन्द का था उसे आज कविताओ ने छीन लिया है।आपकी बेतरतीब कविता मे अपेक्षाकृत सुगमता कि झलक थी,यघपि इसमे अनुभुति की प्रखरता तो अपेक्षित है, पर तुकबन्दी के कारण एक चमत्कार भी आ जाता है। "ओक" शब्द का भावार्थ क्या है ? "झेलें" शब्द कुछ मजा नही आया।"गुलाबी गुलाबी सा चाँद", अगर चाँद को निला या सफेद धुधीया रग का बताते तो कैसा रहता? आशा है, बेतरतीब अपने सवेदन सन्देश को अन्य लोगो तक पहुचाने की परम्परा को निभाने मे समर्थ हो सकेगा।
महावीर बी सेमलानी "भारती'
मुबई 09-11-२००८
मुझे इस कमेन्ट पर आपत्ति है...
पहली बात कविताओं ने कभी किसी का स्थान नहीं छीना, कवितायेँ कोई नेता नहीं हैं जो हमेशा कुर्सी छीनने के बारे में सोचती रहे।
दूसरी बात...मेरी कविता में तुकबंदी है ही नहीं, किन्ही पंक्तियों में नहीं, तो फ़िर ये कहना कि तुकबंदी के कारण चमत्कार आ जाता है", क्या मायने रखता है, सिवाए ये दिखने कि इन महाशय को या तो पता नहीं है कि तुकबंदी क्या होती है या फ़िर इन्होने कविता पढ़ी नहीं है।
तीसरी बात" ओक शब्द का भावार्थ क्या है" जनाब शब्द का शब्दार्थ होता है, भावार्थ नहीं...पंक्ति या कविता का भावार्थ होता है।
चौथी और सबसे IRRITATING बात..."गुलाबी गुलाबी सा चाँद", अगर चाँद को निला या सफेद धुधीया रग का बताते तो कैसा रहता? " मैं नहीं बताउंगी नीला या पीला, क्यों बताऊँ, मेरी कविता है मेरा जो मन करेगा लिखूंगी, आपको इतना ही शौक है कि चाँद नीला या सफ़ेद हो तो आप ख़ुद एक कविता लिखिए....आप कौन होते हैं मुझे मेरे चाँद के रंग पर सलाह देने वाले...इसको सरासर हस्तक्षेप कहते हैं, बिन मतलब और बेसिरपैर की सलाह देना भी कहते हैं।
और आखिरी पंक्ति "आशा है, बेतरतीब अपने सवेदन सन्देश को अन्य लोगो तक पहुचाने की परम्परा को निभाने मे समर्थ हो सकेगा।" जी नहीं, इसमें कोई संवेदन संदेश नहीं है...कृपया आसान सी चीज़ों में जबरदस्ती के गूढ़ भाव न खोजें। आपसे अगर पूछूँ की संवेदन संदेश का अर्थ क्या होता है तो शायद आप भी नहीं बता पायेंगे. क्या सिर्फ़ कुछ भी लिख देने के लिए कमेन्ट लिखने की जगह होती है...चाहे वो relevant हो या नहीं? ऐसा कुछ भी लिखने के लिए ब्लॉग होता है जहाँ पर आप उल्टा सीधा जो मन करे लिख सकते हैं, क्योंकि ब्लॉग लिखने का उद्देश्य अपनी बात कहना होता है। मैंने कई और बार भी देखा है कि कोई कुछ भी लिख जाता है।
कमेन्ट लिखते वक्त बेहद जरूरी है की आप पोस्ट को पढ़ लें ...फ़िर जो चाहें लिखें. और अगर पढने का मन नहीं है तो सिर्फ़ बढ़िया है, अच्छा लगा...जैसे कमेन्ट दें. खास तौर से बुरा लगा मुझे जब दिवाली के समय मैंने माँ की बरसी पर एक पोस्ट लिखी थी और उसमें भी कमेन्ट में लोग मुझे दिवाली की शुभकामनाएं दे गए थे. क्या क्षण भर ठहर के ये देखना जरूरी नहीं था की जिसे आप हैप्पी दिवाली कह रहे हैं वह इस दिवाली को किस तरह से मना रहा है...दिवाली है या मुहर्रम उसके घर में.
खैर चलता रहता है ये सब भी...
ब्लॉग्गिंग भी जिंदगी का हिस्सा ही तो है