जब कि मैं
पूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया
जब तक मैं तुझमें नहीं होती हूँ
तू खोखला होता है
और जब तक तेरी बाहें मुझसे जुदा
मैं असुरक्षित
नियति नहीं थी ये
एक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था
अग्निशिखा बन गया अंतस
और उचक कर छू लिया
उस ज्योति को
जिसमें से आत्माएं निकलती हैं
प्रकाश, आँच, तप, तेज
सब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति
क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
प्रकाश, आँच, तप, तेज
ReplyDeleteसब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति
sunder shabdha
regards
नियति नहीं थी ये
ReplyDeleteएक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने पूजा जी गहरी सोच के धनी हो आप बधाई हो
प्रकाश, आँच, तप, तेज
ReplyDeleteसब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति
jabardast soch hai... bahut hi umda
जब तक मैं तुझमें नहीं होती हूँ
ReplyDeleteतू खोखला होता है
और जब तक तेरी बाहें मुझसे जुदा
मैं असुरक्षित
वाह! बहुत सुंदर लिखा है.
जड़ और चेतन को बहुत ही बेहतरीन तरीके से शब्दों में पिरो दिया। बधाई।
ReplyDeleteक्या तुझे याद नहीं
ReplyDeleteमैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
सही और सुंदर ..बहुत ही प्यारी लगी यह रचना
प्रकाश, आँच, तप, तेज
ReplyDeleteसब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति
क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरू
वाह! बहुत सुंदर लिखा है.ष
जब कि मैं
ReplyDeleteपूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया
वाह ! आपकी सोच भावना और कल्पनाशीलता को नमन.बहुत बहुत सुंदर भावपूर्ण लिखा है आपने.पढ़कर मन मुग्ध हो गया.
आपने इसकी सुंदर व्याख्या की है-
ReplyDeleteमैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
क्या तुझे याद नहीं
ReplyDeleteमैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
-बहुत जबरदस्त!!क्या बात है!
शब्द बहुत ही आसपास घुमते हुए लगते हैं। बहुत सुंदर!
ReplyDeleteआरी को काटने के लिए सूत की तलवार???
पोस्ट सबमिट की है। कृपया गौर फरमाइएगा... -महेश
शब्द बहुत ही आसपास घुमते हुए लगते हैं। बहुत सुंदर!
ReplyDeleteआरी को काटने के लिए सूत की तलवार???
पोस्ट सबमिट की है। कृपया गौर फरमाइएगा... -महेश
नियति नहीं थी ये
ReplyDeleteएक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था
kya baat hai
thanks..
जब कि मैं
ReplyDeleteपूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया
अग्निशिखा बन गया अंतस
और उचक कर छू लिया
उस ज्योति को
जिसमें से आत्माएं निकलती हैं
क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
वाह क्या कहूं मैं पूजा, बहुत ही खूबसूरत शब्द जैसे एक एक मोटी माला में पिरो दिया गया हो. बहुत शानदार, गहरे अर्थ लिए.
मएरी बधाई स्वीकार करें.
जब कि मैं
ReplyDeleteपूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया
अग्निशिखा बन गया अंतस
और उचक कर छू लिया
उस ज्योति को
जिसमें से आत्माएं निकलती हैं
क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
वाह क्या कहूं मैं पूजा, बहुत ही खूबसूरत शब्द जैसे एक एक मोटी माला में पिरो दिया गया हो. बहुत शानदार, गहरे अर्थ लिए.
मएरी बधाई स्वीकार करें.
इतना मीठा इतना खट्ठा जैसे इमली जैसे मट्ठा
ReplyDeleteऐसा ही होता है न
अपना सा स्वाद
नियति नहीं थी ये
ReplyDeleteएक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था
बहुत सुंदर
जब कि मैं
ReplyDeleteपूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया
आप के शिल्प को सलाम। आपकी लेखनी को शुभकामनाएं
prakashbadal.blogspot.com