हमारे घर में शीशम के बहुत सारे पेड़ थे...गर्मियों में इनके कारण छाया मिलती थी और जाडों में लकड़ी। और घर में जब काम होता था तो लकड़ी की छीलन, जिसे हम कुन्नी कहते थे...बोरों में भर कर रख लेते थे। देवघर ऊँची जगह पर स्थित है तो वहां ठंढ भी थोडी ज्यादा पड़ती है। हर साल दिसम्बर आते ही कहीं से कोई पुराना धामा, या ताई (लोहे का बड़ी कटोरी जैसा पात्र जिसमें घर बनने वक्त सीमेंट या बालो उठाया जाता है) निकाल कर रख लेते थे। शाम होने के थोड़ा पहले बाहर आँगन के तरफ़ घूम घूम कर सूखी लकडियाँ चुन लेते थे, शीशम की डाली बहुत अच्छे से जलती थी।
गौरतलब है कि लगभग इसी समय आलू निकलने का भी वक्त होता है। हमारे यहाँ घर की बाकी जमीन, जिसे हम फिल्ड कहते थे में आलू की खेती होती थी। क्यारियों में आलू के पेड़ लगे होते हैं, मिट्टी हटा कर आराम से आलू निकाल लेते थे हम। लगभग सात बजे घर में अलाव जलता था, जिसे थोडी देर ताप कर मम्मी खाना बनाने चली जाती थी और हम दोनों भाई बहन पढने बैठ जाते थे, लैंप की रौशनी में। ९ बजे के लगभग पापा के आने का टाइम होता था और मम्मी अलाव सुलगा के रखती थी, पापा आते थे और खाना लग जाता था १० मिनट में। इतने देर में हमारा homework ख़त्म हो जाता था।
फ़िर पापा के sath खाना खाते थे, और पापा हर रोज हमें कहानी सुनते थे, हातिमताई की...हम बेसब्री के पापा के आने का इंतज़ार करते थे। और हर रोज़ सारी कहानी सुन लेने का मन करता था पर पापा रोज़ थोडी कहानी सुनाते थे, जैसे हर रात हातिमताई हुस्न्बनो के एक सवाल का जवाब dhoondhne कैसे गया और सवाल का जवाब क्या था। इस बीच हम अलाव में आलू घुसा देते थे, आलू पाक जाते थे और खाने में इतना सोन्हा स्वाद आता था कि क्या बताएं। हम झगड़ते रहते थे कि कौन सा आलू किसका है अक्सर बड़े wale आलू के लिए खूब झगडा होता था। और आप यकीं नहीं करेंगे कि हमने इसका क्या उपाय निकाला...कच्चे आलू पर ही हम अपने अपने नाम का पहला लैटर लिख देते थे, मेरा P और जिमी का J
ऐसे ही जाड़े कि छुट्टियाँ ख़त्म हो जाती थी, हम रोते पाँव पटकते स्कूल जाना शुरू कर देते थे।
आ-हा, आग में पकाए गए आलू के स्वाद के तो क्या कहने।
ReplyDeleteआपके अनुभव अपने से लगे।
ReplyDeleteसुंदर से संजोया है, बचपन कि मीठी याद को
ReplyDeleteहमें एक फिल्मी गीत याद आ गया "बचपन के दिन भी क्या दिन थे". बच्चों को नाचते कूदते, इठ्लाते हुए देख कर ही एक टीस सी उठती है.
ReplyDeleteमान कहता है, "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन". बेटे आपको तो जीवन में बहुत कुछ पाना है, देखना है. सन्स्मरण अच्छा लगा. आभार.
अच्छा संस्मरण है.....हमें भी अपना बचपन याद आ गया।
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण लगा पूजा जी आपका और सच शहज़ादा-ए-यमन की याद भी बड़ी सुखद लगी. बहुत आभार.
ReplyDelete'आयातित', आलू ही तो पुराने दिनों में ऊर्जा का सस्ता और सुलभ स्रोत था। इससे तो हर शख्स की यादें जुड़ी हैं, किसी ने फाके इसी पर काट दिए और किसी ने विलासिता का तड़का लगाकर इसे 'डिश', का नाम दे दिया। आपकी यादें पढ़कर घीसू याद आ गया। शायद आपको भी याद हो 'कफन'। मुंशी प्रेमचंद।
ReplyDeleteवाह सच में क्या दिन थे वो? हमारे लखीमपुर में भी ऐसी ही ठण्ड पड़ती थी। ऐसे ही अलाव जलते थे सुखी लकडियों और छीलनों के साथ और ऐसे ही हम सब बैठते थे और पिता जी आग को अलग अलग तरीकों से संभालते रहते थे और हम धुएं की दिशाओं को बदलते रहते थे। अब ऐसे दिन नहीं हैं। बॉम्बे में तो ठण्ड ही नहीं पड़ती, सच मैं आपने याद दिला दिए वो दिन...
ReplyDeleteपढ़कर बस मज़ा आ गया :)
वाह आप तो पुराने दिनों में गोते लगाने लगी हैं.. आपका पोस्ट पढ़कर मुझे लिट्टी-चोखा याद आ रहा है जो गोईठा पर पकाया जाता है.. :)
ReplyDeleteवैसे आज रविवार भी निकल गया है.. आपका सिनेमा देखने को नहीं मिला.. :(
काश बचपन लौट आता।
ReplyDeleteयादें और यादें और यादें!
ReplyDeletewoh sondhi yadein... jaade ki thandi raaton mein lipti kab se padi thi... aapne behad khoobsoorat tareeke se unhe jaga hi diya.....
ReplyDeletegaon ki yaad dila di aapne to :-).. bhune hue aalou ki kya baat.. maza aa gaya padhkar
ReplyDelete