14 March, 2018

सपने में एक नदी बहती थी

मेरे सपनों में कुछ जगहें हमेशा वही रहती हैं। बहुत सालों तक मुझे एक खंडहर की टूटी हुयी दीवाल का एक हिस्सा सपने में आता रहा। उन दिनों मैं बिलकुल पहचान नहीं पाती थी कि ये कहाँ से उठ के आया है। आज पहली बार उस बारे में सोचते हुए याद आया है कि पटना में नानीघर जाने के रास्ते रेलवे ट्रैक पड़ता था। रेलवे ट्रैक के किनारे किनारे दीवाल बनी हुयी थी। वो ठीक वैसे ही टूटी थी जैसे कि मैं सपने में देखती आयी रही थी, कई साल। हाँ सपने में वो हिस्सा किसी क़िले की सबसे बाहरी चहारदिवारी का हिस्सा होता था।

इन दिनों जो सपने में कई दिनों से देख रही हूँ, लौट लौट कर जाते हुए। वो एक मेट्रो स्टेशन है। मैं हमेशा वही एक मेट्रो स्टेशन देखती हूँ। काफ़ी ऊँचा। कोई तीन मंज़िल टाइप ऊँचा है। और मैं हमेशा की तरह सीढ़ियों से चढ़ती या उतरती हूँ। इसे देख कर कुछ कुछ कश्मीरी गेट के मेट्रो की याद आती है। वहाँ की ऊँची सीढ़ियों की। मैं कब गयी थी किसी से मिलने, कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर उतर कर? याद में सब भी कुछ साफ़ कहाँ दिखता है हमेशा। या कि अगर दिखता ही हो, तो हमेशा जस का तस लिख देना भी तो बेइमानी हुआ। वो कितने कम लोग होते हैं, जिनका नाम हम ले सकते हैं। किसी पब्लिक फ़ोरम पर। ईमानदारी से। फिर ऐसे नाम लेने के बाद लोग एक छोटे से इन्सिडेंट से कितना ही समझ पाएगा कोई। हर नाम, हर रिश्ता अपनेआप में एक लम्बी कहानी होता है। छोटे क़िस्से वाले लोग कहाँ हैं मेरी ज़िंदगी में।

इस मेट्रो स्टेशन के पास नानी की बहन का घर होता है। स्टेशन से कुछ डेढ़ दो किलोमीटर दूर। हमेशा। मैं जब भी इस मेट्रो स्टेशन पर होती हूँ, मेरे प्लैंज़ में एक बार वहाँ जाना ज़रूर होता है।

आज रात सपने में में इस मेट्रो स्टेशन से उतर कर तुम्हारे बचपन के घर चली गयी। शहर जाने कौन सा था और मुझे तुम्हारा घर जाने कैसे पता था। और मैं ऐसे गयी जैसे हम बचपन के दोस्त हों और तुम्हारे घर वाले भी जानते हों मुझे अच्छे से। तुम घर के बरांडे में बैठ कर कॉमिक्स पढ़ रहे थे। हम भी कोई कॉमिक्स ले कर तुमसे पीठ टिकाए बैठ गए और पढ़ने लगे। आधा कॉमिक्स पहुँचते हम दोनों का मन नहीं लग रहा था तो सोचे कि घूमने चलते हैं।

हम घूमने के लिए जहाँ आते हैं वहाँ एक नदी है और मौसम ठंढा है। नदी में स्टीमर चल रहे हैं। जैसे स्विट्ज़रलैंड में चलते थे, उतने फ़ैन्सी। हम हैं भी विदेश में कहीं। मैं स्टीमर जहाँ किनारे लगता है वहाँ एक प्लाट्फ़ोर्म बना है। तुम कहते हो तैरते हैं पानी में। मैं कहती हूँ, पानी ठंढा है और मेरे पास एक्स्ट्रा कपड़े नहीं हैं। तभी प्लैट्फ़ॉर्म शिफ़्ट होता है और मैं सीधे पानी में गिरती हूँ। पानी ज़्यादा गहरा नहीं है। तुम भी मेरे पीछे जाने बिना कुछ सोचे समझे कूद पड़ते हो। फिर तुम तैरते हुए नदी के दूसरे किनारे की ओर बढ़ने लगते हो। मुझे तैरना ठीक से नहीं आता है पर मैं ठीक तुम्हारे पीछे वैसे ही तैरती चली जाती हूँ और हम दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। ये पहली बार है कि मैंने तैरते हुए इतनी लम्बी दूरी तय की है। हम पानी से निकलते हैं और सीढ़ियों पर खड़े होते हैं। इतना अच्छा लग रहा है जैसे लम्बी दौड़ के बाद लगता है। पानी साफ़ है। थोड़ा आगे सीढ़ियाँ बनी हुयी हैं और दूसरी ओर पहाड़ हैं। मैं कहती हूँ, आज मुझे तुम्हारे कपड़े पहनने पड़ेंगे। थोड़ी देर घूम भटक कर वापस जाने का सोचते हैं। उधर रेस्ट्रांट्स की क़तार लगी हुयी है नदी किनारे। हम उनके पीछे नदी की ओर पहुँचते हैं तो देखते हैं कि उनकी नालियों से नदी का पानी एकदम ही गंदा हो गया है। कोलतार और तेल जैसा काला। वहाँ से पानी में घुसने का सोच भी नहीं सकते। हम फिर तलाशते हुए नदी के ऊपर की ओर बढ़ते हैं जहाँ पानी एकदम ही साफ़ है। तुम होते हो तो मुझे पानी में डर एकदम नहीं लगता। हम हँसते हैं। रेस करते हैं। और नदी के दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। तुम्हारी सफ़ेद शर्ट है उसका एक बटन खुला हुआ है। मैं अपनी हथेली तुम्हारे सीने पर रखती हूँ। पानी का भीगापन महसूस होता है।

हम किसी डबल बेड पर पड़े हुए एक स्टीरियो से गाने सुन रहे हैं। एक किनारे मैं हूँ, लम्बे बाल खुले हुए हैं और बेड से नीचे झूल रहे हैं।एक तरफ़ तुम दीवार पर टाँग चढ़ाए सोए हुए हो। घर में गेस्ट आए हैं। तुम्हारी दीदी या कोई किचन से चिल्ला के पूछ रही है मेरे घर के नाम से मुझे बुलाते हुए...ये मेरा पटना का घर है...और स्टीरियो प्लेयर वही है जो मैंने कॉलेज के दिनों में ख़ूब सुना था। कूलर पर रख के, कमरे में अँधेरा कर के, खुले बाल कूलर की ओर किए, उन्हें सुखाते हुए। तुम मेरे इस याद में कैसे हो सकते हो। इतनी बेपरवाही से।

***
सपने में चेहरे बदलते रहे हैं, सो याद नहीं कितने लोगों को देखा। पर जगहें याद हैं और पानी की ठंढी छुअन। फिर मेरे पीछे तुम्हारा पानी में कूदना भी। सुकून का सपना था। जैसे आश्वासन हो, कि ज़िंदगी में ना सही, सपने में लोग हैं कितने ख़ूबसूरत।

तेज़ बुखार में तीन दिन से नहाए नहीं हैं, और सपना में नदी में तैर रहे हैं! 

07 March, 2018

अलविदा के गीत

कुछ फ़िल्में हमें बहुत बुरी तरह अफ़ेक्ट करती हैं। हम नहीं जानते कौन सा raw nerve ending touch हो जाता है। कुछ एकदम कच्चा, ताज़ा, दुखता हुआ ज़ख़्म होता है। रूह में गहरे कहीं। हम उन दुखों के लिए रो देते हैं जो हमारे अपने नहीं हैं। रूपहले परदे पर की मासूमियत कैसा कच्चा ख़्वाब तोड़ती है। कौन से दुःख की शिनाख्त कराती है? क्या कुछ दुःख यूनिवर्सल होते हैं? जैसे बचपने की मृत्यु।

हम कितनी चीज़ें फ़ॉर ग्रंटेड लेते हैं। आज़ादी। प्रेम। दोस्ती।
किसी को प्रेम करने का अधिकार।

फ़िल्म सिम्फ़नी फ़ॉर ऐना का एक सीन भुलाए नहीं भूलता है मुझे...स्कूल के बच्चे हैं, कुछ चौदह साल के आसपास की उम्र के...उनके साथ ही पढ़ने वाले एक लीडर की गोली मार के हत्या कर दी गयी है। बच्चे उसके कॉफ़िन को हाथों में ले कर चल रहे हैं। यह दृश्य श्वेत श्याम में फ़िल्माया गया है। सब बच्चों की आँखों में आँसू हैं। उन्होंने आँखें झुका रखी हैं। वे रो रहे हैं। लेकिन जैसे जैसे क़ाफ़िला उनके पास आता है, वे हाथ उठा कर V का सिम्बल बना रहे हैं। विक्टरी का। जीत का। अपने साथी को विदा कहते हुए भी वे कहते हैं कि हम जीतेंगे। Ever onward, to victory! ऐना इस सीन को नैरेट कर रही होती है। वो कहती है कि उस दिन के बाद हम सब बदल गए। हम बड़े हो गए।

मैं इस फ़िल्म को देखने के बाद देर तक रोती रही थी। चौदह पंद्रह साल के बच्चे...उनके हिसाब के क्रांति के उनके आदर्श। चे ग्वारा के नारे लगाते। लड़ते एक बेहतर दुनिया के लिए। जिस उम्र में उन्हें ठीक से दुनिया समझ भी नहीं आती, उस उम्र में उन्हें अरेस्ट कर लिया जाता है और फिर वे 'गुम' हो जाते हैं। फ़िल्म में कहती है इसा, तुम 'अरेस्ट' कर ली गयी, क्यूँकि उन दिनों हमारे पास 'disappear' शब्द नहीं था। बच्चे जो ग़ायब कर दिए गए। मार दिए गए। लम्बे समय तक टॉर्चर किए गए। इनसे सत्ता को कितना ख़तरा हो सकता था।

फ़िल्म के ट्रेलर में एक गीत होता है जो मैं पहचान नहीं पाती हूँ। youtube पर एक कमेंट में सवाल पूछा है जिसका कल जवाब आया है। मैं देर तक उसी गाने को सुनती रही हूँ। वो एक इतालवी युद्ध गीत है, एल पासो देल एबरो एक लोकगीत...जो कई सालों से गाया जाता रहा है। युद्ध चिरंतर हैं।

कल रात मैं देर तक अर्जेंटीना के इस स्टेट टेररिज़म के बारे में पढ़ती रही। इसे डर्टी वार कहा गया है। गंदा युद्ध। इसमें विरोधी राजनीतिक ख़याल रखने वालों लोगों को, जिनमें बच्चे, छात्र, औरतें थीं, मारा गया, अपहृत किया गया और ग़ायब कर दिया गया। इस जीनोसाइड में लगभग तीस हज़ार लोग मारे गए। औस्वितज से गुज़रना आपको ज़िंदगी भर के लिए बदल देता है। कुछ ऐसे कि उस समय भी मालूम नहीं होता है। किसी भी क़िस्म की जीनोसाइड के साथ एक मृत्युगंध चली आती है। उँगलियों में, हथेलियों में, बर्फ़ पड़ते सीने में और मैं एक मानवता के बेहद स्याह पन्ने तक पहुँच जाती हूँ। पढ़ते हुए जानती हूँ कि जो बच्चे ग़ायब कर दिए गए, उन्हें याद रखे रखने के लिए की गयी कोशिशें हैं। उनकी माएँ टाउन स्क्वेयर जाती हैं, अब भी, हर बृहस्पतिवार और अपने ग़ायब किए गए बच्चों के बारे में जानकारी माँगती हैं। अर्जेंटीना के इस ग्रूप का नाम Mothers of the Plaza de Mayo है। 

अलविदा। कैसा दुखता शब्द है। फ़िल्म के आख़िरी फ़्रेम में कुछ विडीओ रेकॉर्डिंज़ हैं जो उस समय की गयी थीं जब Ana, Lito और Isa एक समंदर किनारे गए हैं और ख़ुश हैं। प्रेम में हैं। मुझे अलविदा के कुछ लम्हे याद आते हैं।

आख़िरी बात कहता है वो मुझे, 'Au revoir' कहते हैं फ़्रेंच में। इसका मतलब होता है, फिर मिलेंगे। मैं नहीं जानती मैं उसे कब मिलूँगी फिर। दुनिया बहुत बड़ी है और तन्हाई इतनी कि दुनिया भर में बिखर जाए और पूरी ना पड़े। हम फिर कब मिलेंगे?

दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर उसे आख़िरी बार देखा था। ट्रेन के मुड़ जाने तक। उस दिन को बारह साल हुए। मैंने उसकी एक तस्वीर भी नहीं देखी है। वो कहता है मुझसे उम्र भर नहीं मिलेगा। मैं नहीं जानती ज़िंदगी कितनी लम्बी है। मैं नहीं चाहती मेरे मर जाने के बाद उसे इस बात का अफ़सोस हो कि मुझे एक बार मिल लेना चाहिए था।

सुनते हुए मैं Bella Ciao तक पहुँचती हूँ। जंग के समय एक व्यक्ति अपनी ख़ूबसूरत महबूबा को अलविदा कह रहा है, यह कहते हुए कि अगर मैं मर गया तो मुझे उस पहाड़ी पर दफ़नाना और वहाँ पर एक ख़ूबसूरत फूल उगेगा मेरी क़ब्र पर तो सब कहेंगे कि कितना ख़ूबसूरत फूल है।

सुनते हुए मैं hasta siempre तक पहुँचती हूँ। चे ग्वेरा के फ़िदेल को लिखे आख़िरी ख़त जिसमें वो कहते हैं 'Until victory, always' के जवाब में गाया गाया ये गीत अपने कमांडर को अलविदा कहता है 'until forever'. चे की मृत्यु के बाद क्यूबा की क्रांति में ये गीत बहुत महत्वपूर्ण रहा। इसे सुनते हुए अपना इंक़लाब ज़िंदाबाद याद आता है।

चीज़ों के समझने का हमारा अलगोरिदम लॉजिकल नहीं होता। यादों के साथ कहाँ कौन सा रेशा जुड़ेगा हम नहीं जानते। मेरी परवरिश एक नोर्मल मिडल क्लास परिवार में हुयी। हमारे परिवार में राजनीति के लिए जगह नहीं रही। पापा ने अपने समय में जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया, चाचा शाखा में जाते हैं मगर ये बात अब समझ में आयी। बचपन में बस ये याद है कि चाची उनके हाफ़ पैंट पहनने पर ग़ुस्सा करती थी। मैंने कभी कार्ल मार्क्स की किताबें नहीं पढ़ीं। हाँ, मोटरसाइकल डाइअरीज़ ज़रूर पढ़ी है...लेकिन उसमें चे सिर्फ़ ख़ुद को तलाशते और समझते एक घुमक्कड़, सहृदय, युवा डॉक्टर की तरह दिखे हैं मुझे।

युद्ध से मेरी पहली मुलाक़ात महाभारत में हुयी। दूसरी, पानीपत के युद्ध में और फिर गॉन विथ द विंड पढ़ते हुए। इतिहास हमें इतने बोरिंग तरीक़े से पढ़ाया जाता है कि किसी को अच्छा नहीं लगता। अगर पढ़ाई का तरीक़ा बदल दिया जाए तो इतिहास झूठी कहानियों से बहुत ज़्यादा रोचक लगेगा। इतनी बड़ी दुनिया में इतनी सारी चीज़ें मुझे नहीं समझ आती हैं। मैं थोड़ा थोड़ा सब कुछ समझने की कोशिश करती हूँ। मेरे दिल में प्रेम के बाद की बची हुयी जगह में एक बहुत बड़ा ख़ाली मैदान है।  वहाँ अलग अलग बंजारा ख़याल डेरा डालते हैं। इन दिनों कला की प्रदर्शनी उठ गयी है और टेक्नॉलजी और युद्ध अपने खेमे डाल रहे हैं।
Screenshot from Symphony for Ana

मैं तुम्हारी अधूरी चिट्ठियाँ जला देना चाहती हूँ।
मैं तुम्हारी आवाज़ मिस करती हूँ।
और तुम्हें।

अलविदा के शब्दों को लिख रखा है। आख़िरी बार कहूँगी तुमसे। कितनी भाषाओं में गुनगुनाते हुए...अलविदा।

Hasta Siempre
Bella Ciao
Au revoir

*ये लेख तथ्यात्मक रूप से ग़लत हो सकता है। यहाँ इतिहास की घटनाएँ मेरी याद्दाश्त में घुलमिल गयी हैं, और फिर विकिपीडिया पर बहुत ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। 

28 February, 2018

आधी कविता में।

गुज़र चुके मौसम का
आख़िरी सुर्ख़ पत्ता
भूला रह गया है
कविता की किताब के बीच। 
मैं ठिठकी रह गयी हूँ
वहीं
आधी कविता में।
***
उसने आँसुओं में घोल दीं
अपनी काली आँखें
उस स्याही से अलविदा लिखते हुए
सबकी ही उँगलियाँ काँपती थीं 
***
नालायकों के हाथ बर्बाद हो जाना है
एक दिन सब कुछ ही
मुहब्बत। हिज्र। उदासी।
तुम अपना क़ीमती वक़्त
उनसे बचा कर रखो।
***
मुहब्बत की बेवक़ूफ़ी का क्या कहें
महसूसती है जो होता नहीं कहीं
'अलविदा' में 'फिर मिलेंगे' की ख़ुशबू.
***
ज़ख़्म नयी जगह देना
कि उसे देखते हुए
तुम्हारी याद आए 
दिल हज़ार बार टूटा है मेरा
तुम रूह चुनना
जानां 
***
It should hurt less.
You should love less. 
***
किसी अनजानी भाषा की फ़िल्म है। दुखती है जैसे कि रूह ने कहे हों उससे जन्मपार के दुःख। वे दुःख जो मुझे मालूम भी नहीं थे, कि आँख में रहते हैं। हमेशा से। ट्रेलर रिपीट पर सुन रही हूँ। 
आवाज़ अनजानी भाषा का एक शब्द है, मैं सुनती हूँ अपना पहचाना हुआ, 'सिनमॉन'। फिर से देखती हूँ ट्रेलर। और सही ही शब्द है। 'प्रेम के बिना'। मेरा नाम। 'सिनमॉन'।
Ana ने एक छोटे से बिल्ली के आकार वाले बटुए में सायनाइड की गोली रखी है। मेरे पास ठीक वैसा बटुआ है। ऐना खो गयी है। उसकी दोस्त कहती है, 'उन दिनों हमारे पास 'गुम जाने' के लिए कोई शब्द नहीं था। मेरे पास तुम्हारे खो जाने के लिए कोई शब्द कहाँ है। 
उन सारे दोस्तों के खो जाने के लिए कोई शब्द कहाँ है। लेकिन मैं चाहती हूँ। लिखूँ कोई एक शब्द, जो कह सके, 'गुम हो गए लोग'। लेकिन मैं तुम्हें लिखने से डरती हूँ। मेरे लिखे किरदार सच हो जाते हैं। 
मैंने जाने कितने दिन बाद पूछा किसी से आज शाम। 'मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। 
टूटा हुआ दिल प्रेम करने की इजाज़त नहीं देता। कहानियाँ लिखने की भी नहीं। लेकिन फिर भी मुझे लगता है। तुम्हारे होने से ज़िंदगी थोड़ी ज़्यादा काइंड लगती। थोड़ी ज़्यादा बर्दाश्त करने लायक।
मोक्ष। लौट आओ। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। लेकिन लौट आओ सिर्फ़ इसलिए कि मुझे अलविदा कहना है तुम्हें। प्रॉमिस। मैं तुम्हें रोकूँगी नहीं। 
अपूर्व की कविता की तरह, लौट आओ कि अलविदा कह सकूँ, कि, 'तीन बार कहने में विदा, दो बार का वापस लौटना भी शामिल होता है'।
Trailer: Symphony for Ana (Sinfonía para Ana). from Ernesto Ardito y Virna Molina on Vimeo.

12 February, 2018

नालायक हीरो

'और, कैसी हो आजकल तुम?'
'बुरी हूँ। बहुत ज़्यादा। नाराज़ भी।'
'तुम बुरी हो जाओ तो बुरी का डेफ़िनिशन बदलना पड़ेगा। लेकिन तुम्हारी ऐसी ख़ूबसूरत दुनिया में कौन शख़्स मिल गया तुमको जिससे तुमको नाराज़ होने की नौबत आ गयी?'
'परी है एक'
'आब्वीयस्ली, तुम किसी नॉर्मल इंसान से तो नाराज़ हो नहीं सकती हो, परी ही होगी। तो फिर,क्या किया परी ने?'
'श्राप दे दिया है'
'अच्छा, कोई कांड ही किया होगा तुमसे। यूँही तो परी का दिमाग़ नहीं फिरेगा कि श्राप दे दे तुमको'
'नहीं, कोई कांड नहीं किया। परी ख़ुश हुयी थी मुझसे बहुत, इसलिए...'
'मतलब, परी ख़ुश होकर सराप दी तुमको? पागलखाने में मिली थी क्या उससे?'
'उफ़्फ़ो, पूरी बात सुनो। एक परी एक शाम बहुत उदास थी तो मैंने उसको अपनी बाइक पर बिठा कर बहुत तेज़ तेज़ बाइक चलायी और व्हीली भी की'
'और फिर तुमने बाइक गिरा दी और उसने तुम्हें श्राप दिया?'
'चुप रह कर पूरी कहानी सुनो, कूट देंगे हम तुमको'
'उफ़्फ़ो, इतना डिटेल में बताना ज़रूरी है?' हमको इतना पेशेंस नहीं है'
'यार, बाइक से उतरे तो हाथ एकदम ठंढे पड़ गए थे। ग्लव्ज़ पहनना भूल गयी थी। परी को मेरे ठंढे हाथों पर बहुत प्यार आया। उसने अपनी जादू की छड़ी घुमायी और ग़ायब हो गयी'
'बस? तो फिर हुआ क्या जिसका रोना रो रही हो'
'मेरे हाथ अब कभी ठंढे नहीं पड़ते हैं'
'तो ये अच्छी बात है ना, पागल लड़की!'
'हाँ। पहले कितना आसान होता था कहना, देखो, मेरे हाथ एकदम बर्फ़ हो गए हैं। अब क्या कहूँ। तुम्हें छूने को मन कर रहा है? इतनी दूर मत बैठो। पास बैठो। मेरा हाथ थाम कर'
'तो इसमें क्या है? कह दो'
'कहा तो'
'मतलब, क्या, कुछ भी! मेरा हाथ पकड़ कर क्यूँ बैठना है तुमको?'
'बस देखे ना। यही एक्स्प्लनेशन नहीं देना है हमको। हमको ख़ुद नहीं पता। पहले तुमको बस इतना कहना होता था कि मेरे हाथ ठंढे हो गए हैं। तुम कोई सवाल नहीं करते थे'
'तुम इतनी उलझी हुयी कब से हो गयी हो?'
'सुनो, बाक़ी सब कल समझाएँगे। फ़िलहाल हमको बहुत कुछ समझ नहीं आ रहा। चलो, बाइक से घूम के आते हैं'
'चलो...तुम चलाओगी कि हम चलाएँ'
'तुम रहने दो, हमारा एनफ़ील्ड चलाओगे, इश्श्श्श। बैलगाड़ी चलाने का नहीं बोल रहे। तीस का स्पीड पर चलाओगे, बेज्जती ख़राब होगा हमारा'
'तुम इतना तेज़ बाइक काहे चला रही हो?'
'कोई लड़का अगर लड़की को पीछे बिठाता है और बाइक बहुत तेज़ चलाता है तो इसका क्या मतलब निकाला जा सकता है?'
'लड़की की ट्रेन छूटनी वाली होती है या ऐसा कुछ?'
'नहीं, वो चाहता है कि लड़की डरे और उसको ज़ोर से पकड़ कर बैठे'
'अच्छा!'
'अच्छा नहीं, नालायक। पकड़ के बैठो हमको ज़ोर से। उड़ जाओगे हवा में। पागल कहीं के'
'और कोई देखेगा तो क्या कहेगा?'
'इत्ति तेज़ चला रही हूँ, कौन ना देख पाएगा रे तुमको?'
'चलो, तुम्हारा शहर है, मनमर्ज़ी करो ही। हमको यहाँ कौन पहचानता है, तुमको ही पूछेगा सब, कौन हीरो को पीछे बिठा कर एनफ़ील्ड उड़ा रही थी तुम'
'हीरो, इश्श्श, कहाँ के हीरो हो रे तुम'
'तुम्हारी कहानी के तो हैं ही। इतना काफ़ी है'
'नालायक हीरो'
'तुम्हारे हीरो हैं, नालायक तो होना ही था'
बाइक इतनी तेज़ रफ़्तार उड़ रही थी कि अब बातें अतीत में सुनायी देतीं...उसने जैसे मन में कहा, 'लव यू रे, नालायक'
मगर कुछ बातें बिना सुने भी अपना जवाब पा जाती हैं। उसे ऐसा लगा कि लड़के ने उसके कंधे पर पकड़ थोड़ी मज़बूत की और किसी बहुत जन्म पहले की बात दुहरायी, 'मी टू'।

06 February, 2018

ला वियों रोज़

एक धुन के पीछे भागते गए थे। कितनी दूर तक। कितनी दूर तक तो। कैसा मिला था धुन में थोड़ा सा जापान। उन दिनों खोजना कहाँ आसान होता था कुछ भी। किसी का दिल ही होता था अगर, तो कितना दूर होता था...कितना सिमटा, सकुचाया होता था। उस उलझन भरे दिल में कहाँ खोजते हम दुनिया भर का ना सही, अपने हिस्से का प्यार।

इस धुन में कितना कुछ समेटते चली आयी थी लड़की। बाँध लिया था उसने अपने आँचल की गाँठ में तुम्हारी हँसी का एक क़तरा। कभी कभी खोलती आँचल की गाँठ और चूम लेती वही ज़रा सी हँसी।

वो तो बिसार देता कितनी आसानी से...उसकी व्यस्तता में प्रेम के लिए जगह नहीं। उसकी फ़ुर्सत में लड़की का नाम नहीं।

और लड़की...
लड़की...

क्या ही कहें। कौन करेगा ऐसी सिरफिरी लड़की से प्यार। कहती है तुम्हारा शहर बिसार देगी पूरा का पूरा। हाँ, नहीं देखा तो क्या हुआ। शहर बिसारने के लिए शहर को याद करना थोड़े ज़रूरी होता है।

जैसे देखो ना। प्यार कहाँ किया तुमसे कभी। फिर भी लगता है ताउम्र करेंगे प्यार तुमसे इतना ही। जानते हो, मेरे फ़ोन में तुम्हारा नम्बर ब्लाक्ड है लेकिन तुम्हारा नम्बर सेव्ड है। पता है क्या नाम है तुम्हारा?

मीता।

सुनो। मैं तुमसे प्यार करती हूँ मीता।
रेलगाड़ी के चले जाने के बाद ख़ाली प्लैट्फ़ॉर्म पर टूटा कलेजा लिए मत बिलखो रे तुम, हमको आज भी तुम्हारा प्यार चुभता है। और मेरा वो गले में पड़ा हुआ हल्के हरे रंग का स्टोल, जो तुम गले से निकाल कर अपने पास रख लेना चाहते थे, आज उसमें आग लगा देने को जी चाहता है। लेकिन वो किसी दोस्त के पास रह गया है। तुम्हारे शहर में ही रहती है। कभी मिल जाए तुमको, मेरा स्टोल डाले हुए तो उसे गले से निकलवा लेना। उसपर तुम्हारा हक़ दिए हम तुमको।

रे। मीता। तुम बहुत्ते याद आते हो रे।
मेरा एक बात मानोगे? तुम दिल्ली छोड़ के कभी मत जाना। दिल्ली के हिस्से प्यार लिखते हुए लगता है तुम्हारे नाम पोस्टकार्ड गिरा दिए हैं।

विदा कहने के लिए किसी का जाना ज़रूरी होता है।
तुम हमेशा रहे हो। साथ। पास।

रहना रे। तुम रहना।


03 February, 2018

सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।

नहीं। मेरे पास कोई ज़रूरी बात नहीं है, जो तुमसे की जाए। 
ये वैसे दिन नहीं हैं जब 'दिल्ली का मौसम कैसा है?' सबसे ज़रूरी सवाल हुआ करता था। जब दिल्ली में बारिश होती थी और तुमने फ़ोन नहीं किया होता तो ये बेवफ़ाई के नम्बर वाली लिस्ट में तुम्हारा किसी ग़ैर लड़की से बात करने के ऊपर आता था। 
हमारे बीच दिल्ली हमेशा किसी ज़रूरी बात की तरह रही। बेहद ज़रूरी टॉपिक की तरह। कि तुम्हारे मन का मौसम होता था दिल्ली। नीले आसमान और धूप या दुखती तकलीफ़देह गर्मियाँ या कि कोहरा कि जिसमें नहीं दिखता था कि किससे है तुम्हें सबसे ज़्यादा प्यार। 
अब कहते हैं लोग मुझे, दिल्ली अब वो दिल्ली नहीं रही। तुम्हें दस साल हुए उस शहर को छोड़े हुए। अब भी तुम्हें उसके मौसम से क्या ही फ़र्क़ पड़ता है। 
उस लड़के को छोड़े हुए भी तो बारह साल हुए। तुम उसके बालों की सफ़ेदी देखना चाहती हो? उसकी आँखों के इर्द गिर्द पड़े रिंकल? या होठों के आसपास पड़ी मुस्कान से पड़ी हुयी रेखाएँ? तुम क्यूँ देखना चाहती हो कि जो रेखा तुम्हारे और उसके हाथों में ठीक एक सी थी, वो इतने सालों में बदली या नहीं। तुम उसे देखना क्यूँ चाहती हो? जिस लड़के को तुमने ही छोड़ा था, उसके गले लग कर उसी से बिछड़ने के दुःख में क्यूँ रोना चाहती हो। उसके ना होने के दुःख का ग्लेशियर अपने दिल में जमाए हुए तुम जियो, यही सज़ा तय की थी ना तुम दोनों ने? उसकी आँखों में मुहब्बत होगी अब भी जिसे वो नफ़रत का नाम देता है। उसकी आवाज़ से तुम्हारे दिल की धड़कन क्यूँ रूकती है? इतना प्यार करना ही था उससे तो उसे छोड़ा ही क्यूँ था? उसके पास रह कर उससे दूर हो जाने का डर था तुम्हें?
दुखता हुआ शहर दिल्ली। सीने में पिघलता। जमता। दूर होता जाता। बहुत बहुत दूर। पूछता। 'ताउम्र करोगी प्यार मुझसे?'
***
हम जिनसे प्यार करते हैं, वो इसलिए नहीं करते हैं कि उनसे बेहतर कोई और नहीं था। प्यार में कोई आरोहण नहीं होता कि उस सबसे ऊँची सीढ़ी पर जो मिलेगा हम उससे सबसे ज़्यादा प्यार करेंगे। या उससे ही प्यार करेंगे। 
हमें जो लेखक पसंद होते हैं, वे इसलिए नहीं होते कि वे दुनिया के सबसे अच्छे लेखक होते हैं। उनका लिखा पुरस्कृत होता है या बहुत लोगों को पसंद होता है। हमें कोई लेखक इसलिए पसंद आता है कि कहीं न कहीं वो हमारी कहानी कहता है। हमारे प्रेम की, हमारे बिछोह की। अक्सर वो कहानी जो हम जीना चाहते थे लेकिन जी ना सके। हो सकता है हम उनके बाद कई और लेखकों को पढ़ें और कई और शहरों के प्रेम में पड़ें। लेकिन अगर हमने एक बार किसी के लिखे से बहुत गहरा प्रेम किया है तो हम उस लेखक के प्रेम से कभी नहीं उबर सकते। हम उस तक लौट लौट कर जाते हैं। कई कई साल बाद तक भी। 
आज मैंने कुछ वे ब्लॉग पोस्ट पढ़े जो २०१० में लिखे गए थे। ये ऐसे क़िस्से हैं जिनकी पंक्तियाँ मुझे हमेशा याद रही हैं। ख़ास तौर से दुःख में या सफ़र में। उन लेखों में दुःख है, अवसाद है, मृत्यु है और इन सब के साथ एक लेखक है जिसका उन दिनों मुझे नाम, चेहरा, उम्र कुछ मालूम नहीं था। ये शब्दों के साथ का विशुद्ध प्रेम था। मैं उन पोस्ट्स तक लौटती हूँ और पाती हूँ कि अच्छी विस्की की तरह, इसका नशा सालों बाद और परिष्कृत ही हुआ है। 
मैंने इस बीच दुनिया भर के कई बड़े लेखकों को पढ़ा है। कविताएँ। कहानियाँ। लेख। आत्मकथा। कई सारे शहर घूम आयी। लेकिन उन शब्दों की काट अब भी वैसी ही तीखी है। वे शब्द वैसे ही हौंट करते हैं। वैसे ही ख़याल में तिरते रहते हैं जैसे उतने साल पहले होते थे। 
प्यारे लेखक। तुम्हारा बहुत शुक्रिया। मेरी ज़िंदगी को तुम्हारे ख़ूबसूरत और उदास शब्द सँवारते रहते हैं। तुम बने रहो। दुआ में। अगली बार मैं किसी शहर जाऊँगी विदेश के, तो फिर से पूछूँगी तुमसे, 'क्या मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। इस बार मना मत करना। तुम्हारे बहुत से फ़ैन्स होंगे। हो सकता है कोई मुझसे ज़्यादा भी तुमसे प्यार करे। लेकिन मेरे जैसा प्यार तो कोई नहीं करेगा। और ना मेरे जैसी चिट्ठियाँ लिखेगा। तुमसे जाने कब मिल पाएँगे। मेरा इतना सा अधिकार रहने दो तुमपर, किसी दूर देश से चिट्ठियाँ लिखने का। मुझे इसके सिवा कुछ नहीं चाहिए तुमसे। लेकिन मेरे जीने के लिए इतना सा रहने दो। 
तुम्हारी,
(जिसे तुमने एक बार यूँ ही बात बात में पागल कह दिया था)
ज़िंदगी रही तो फिर मिलेंगे।
***
कुछ शौक़ आपको जिलाए रखते हैं। 
मुझे सिगरेट की आदत कभी नहीं रही। लेकिन शौक़ रहा। दोस्तों के साथ कभी एक आध कश मार लिया। लिखते हुए मूड किया तो सिगरेट के खोपचे से दो सिगरेट ख़रीद ली और फूँक डाली। किसी दिन मूड बौराया तो बीड़ी का बंडल उठा लाए और देर रात ओल्ड मौंक पीते रहे और बीड़ी फूँकते रहे। किसी कसैलेपन को मिठास में बदलने की क़वायद करते रहे। 
जब तक किताब नहीं छपी थी अपनी, ज़िंदगी में सिर्फ़ ढाई कप चाय पी थी। पहली बार कॉलेज से एजूकेशनल ट्रिप पर कोलकाता गयी थी...वहाँ टाटा के ऑफ़िस में उन्होंने कुछ समझाते हुए सारी लड़कियों के लिए चाय भिजवायी थी। आधी कप वो, कि ना कहने में ख़राब लगा और पीने में और भी ख़राब। दूसरा कप इक बार दिल्ली में एक दोस्त ने ज़िद करके बनायी, जाड़े के दिन हैं, खाँसी बुखार हो रखा है, मेरे हाथ की चाय पी, जानती हूँ तू चाय नहीं पीती है, मर नहीं जाएगी एक कप पी लेने से। तीसरा कप बार एक एक्स बॉयफ़्रेंड ने प्यार से पूछा, मैं चाय बहुत अच्छी बनाता हूँ, तू पिएगी? तो उसको मना नहीं किया गया। दिल्ली गयी किताब आने के बाद और वहाँ दोस्तों को चाय सिगरेट की आदत। मैं ना चाय पीती थी, ना सिगरेट। फिर प्रगति मैदान में लगे नेसकैफ़े के स्टॉल्ज़ से इलायची वाली चाय पी...इक तो किताबों और हिंदी का नशा और उसपर दोस्त। अच्छी लगी। 
अपने सबसे फ़ेवरिट लेखक के साथ एक सिगरेट पीने की इच्छा थी। उनसे गुज़ारिश की, आपके साथ एक सिगरेट पीने का मन है। उस एक गुज़ारिश के लिए आज भी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाती हूँ। कि मुझे मालूम नहीं था उन्होंने कई साल से सिगरेट नहीं पी है। मैं कभी ऐसी चीज़ नहीं माँगती। वाक़ई कभी नहीं। इसके अगले दो साल मेरे लिए दिल्ली बुक फ़ेयर यानी ख़ुशी, चाय और सिगरेट हुआ करती थी। लोग मेरी तस्वीरें देख कर कहते, आप बैंगलोर में इतनी ख़ुश कभी नहीं होतीं। 
बैंगलोर आके फिर चाय पीना बंद। सिगरेट बहुत रेयर। पिछले साल कभी कभी चाय पीनी शुरू की। घर पर। अपने हाथ की चाय। फिर पता चला, पहली बार कि मैं वाक़ई बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ और लोग जो कहते हैं तारीफ़ में, सच कहते हैं। मगर सिगरेट की तलब एकदम ख़त्म। 
हुआ कुछ यूँ भी कि पिछले साल जिन दोस्तों से मिली, वे सिगरेट नहीं पीते थे। उनके साथ रहते हुए, बहुत सालों बाद ऐसा लगा कि सिगरेट ज़रूरी नहीं है दो लोगों के बीच। कि इसके बिना भी होती हैं बातें। हँसते हैं हम। गुनगुनाते हैं। कि मेरे जैसे और भी लोग हैं दुनिया में जो कॉफ़ी के लिए कभी मना नहीं करेंगे लेकिन चाय देख कर रोनी शक्ल बनाएँगे। कि ज़हर नहीं, लेकिन नामुराद तो है ही चाय।
सिगरेट का कश लिए कितने दिन हुए, अब याद नहीं। शौक़ से विस्की पिए कितने दिन हुए, वो भी याद नहीं। ओल्ड मौंक तो पिछले साल की ही बात लगती है। दिल्ली के कोहरे में मिला के पी थी। 
तो मेरा मोह टूट रहा है...अब इसके बाद जाने क्या ही तोड़ने को जी चाहेगा। सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।
प्यार। बहुत।
***
छाया गांगुली गा रही हैं...'फ़र्ज़ करो, हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो, दीवाने हों'

'हम' दोनों, क्या हो सकते हैं...फ़र्ज़ करो...दीवाने ही होंगे। 

02 February, 2018

नष्टोमोह

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।

अर्जुन बोले -- हे अच्युत आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।

***
लड़की कहती है, मुझे 'मोह' हो जाता है बहुत। आसक्ति। हमेशा ऐसा नहीं था। पिछले चार साल से मैं कहानी और किरदारों के बीच ही रह रही हूँ। लोगों से बमुश्किल मिली जुली हूँ। साल का एक बुक फ़ेयर और कभी कभार का अपने दोस्तों से मिलना जुलना। एक नियमित ऑफ़िस की जो दिनचर्या होती है और काम में व्यस्त रहने का जो सुख होता है वो काफ़ी दिनों से हासिल नहीं है। 

बहुत ज़्यादा सोचने से होता ये है कि सच की दुनिया और क़िस्सों की दुनिया में अंतर महसूस होना कम हो जाता है। कहानियों के किरदार आम ज़िंदगी की तरह नहीं होते। वे हर फ़ीलिंग को बहुत ज़्यादा गहराई में महसूस करते हैं और जीते हैं, कि उनके ऐसे महसूसने का कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं होता कहीं भी। उन्हें सिर्फ़ जितना सा लिखा गया है उतना जीना होता है। जबकि रियल ज़िंदगी में ऐसा नहीं होता। रियल ज़िंदगी में उतनी गहराई से जीने से मोह होता है। दुःख होता है। याद आती है। हम वर्तमान को जीने की जगह अतीत में जिए हुए को दुबारा रीक्रीएट करते हैं बस।

धीरे धीरे हम इस वलय में घूमने लगते हैं और भूल जाते हैं कि एक रास्ता किसी और शहर को जाता है। हम अपने सफ़र भूल जाते हैं। हम सफ़र में मिलने वाले अजनबियों के क़िस्सों की जगह रखना नहीं चाहते।

ठेस कब किस पत्थर से लग जाए कह नहीं सकते। दोष हमारा है कि हमें ढंग के जूते पहन कर चलना चाहिए ख़तरनाक सड़क पर। मैं अपने तलवे में चुभा इश्क़ का काँच कितने सालों से निकालने की कोशिश कर रही हूँ मगर सिर्फ़ हथेलियाँ लहूलुहान होती हैं...मैं आगे बढ़ नहीं पाती। इतने दुखते पैरों के साथ आगे बढ़ना मुश्किल है। तब भी जब मालूम हो कि आगे अस्पताल है और डॉक्टर शायद मुझे ठीक कर सकेंगे। उनके लिए छोटी सी बात है। किसी को आवाज़ दे कर बुलाया जा सकता है। वो भी नहीं कर पा रही।

इन दिनों सोचती हूँ, वो कौन लड़की थी जिसने तीन रोज़ इश्क़ जैसी कहानी लिखी। जिसे अपना दिल टूट जाने से डर नहीं लगता था। फिर ये कौन लड़की है कि इंतज़ार के किस अम्ल में गल चुकी है पूरी। कि उसे जिलाए रखने का, उसे बचाए रखने की ज़िम्मेदारी उसकी ख़ुद की ही थी ना।

कि मेरे पास बस मोह ही तो है कि जिसलिए मैं लिखती हूँ। चीज़ों को बचा लेने का मोह। इस सब में, थोड़ा सा ख़ुद को बचा ले जाने की उम्मीद भी।जिस दिन मोह टूटता है, मैं भी टूट ही जाती हूँ बेतरह।

कि सिवा इसके, है भी क्या ज़िंदगी में...अर्जुन ने गीता सुन कर कृष्ण से कहा कि उसका मोह नष्ट हो गया और वो लड़ने को तैयार हो गया।

मेरा मोह नष्ट हो जाए तो मैं कुछ भी नहीं लिखूँगी। और फिर, बिना लिखे, मेरा होना कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं तो।

29 January, 2018

तुम्हीं कहो, तुम्हें अमलतास पसंद हैं?

आधी लिखी हुयी चिट्ठियाँ हैं। कुछ अजीब से ख़याल हैं कि किसी के लिए सफ़ेद कुर्ते पर काढ़ दूँ आसमानी बेल बूटे। उसे मालूम हो कि फूलों की अपनी लिपि होती है, भाषा होती है। मैं क्या ही कहूँ उससे। तुम्हारी हँसी अच्छी लगती है मुझे। कि मैं घर देखने गयी थी कल दोपहर और वहाँ एक घर की छत पर मिट्टी में कुछ बड़े पौधे लगे हुए थे, मेरा वहाँ निम्बू का पेड़ उगाने का मन किया। 

मेरे क़िस्सों में भटके हुए लोग हैं। वो कौन था जिसके साथ मैं कहाँ जा रही थी... उसने रास्ते में मुझे रोका और एक पौधे से तोड़ी हुयी पत्तियाँ मसलीं अपनी हथेलियों के बीच और फिर दोनों हथेलियाँ खोल कर कहा, सूँघो..वो गंध कहाँ मिलेगी? उसकी पसीजी हुयी उँगलियों के बीच मसले गए पत्तों की? 

किसी पर अनाधिकार उमड़ता प्यार है।

किसी के घर के परदों पर लिखी कविता के अक्षर हैं। याद में भी बिखरे बिखरे। रोशनी की कंदीलें हैं। 

मैं किन चीज़ों की बनी हूँ? धूप और फूलों की? अंधेरे और अम्ल की?

मैं तुम्हारे लिए अपने क़िस्सों के शहर में एक अमलतास का पेड़ लगा दूँ? तुम कहो, 'तुम्हें अमलतास पसंद हैं?'। मौसमों में वसंत या फिर बारिश?

मेरे ख़यालों में ऐसे पौधे उगते हैं...किसी की वर्क डेस्क पर रखा हुआ एक छोटा सा अमलतास का पेड़ जिसपर भर भर अमलतास खिले हैं। नहीं। बोनसाई नहीं। किसी दूसरी दुनिया से लाया हुआ पौधा। कि इस दुनिया में कहीं ऐसी कोई जगह है जहाँ अमलतास के पेड़ हों और उनके नीचे आराम से सोया जा सके महबूब की गोद में सर रख कर? गिरते रहें अमलतास के पीले फूल, चुपचाप हमारे इर्दगिर्द।

कितनी अधूरी ख़्वाहिशें जी रही हैं कहानी के किरदारों में?

इस दुनिया में इतना प्यार बचा है कि किसी की आँखें रंग सकूँ कत्थे के रंग से? ख़ुर्री। गहरा लाल और काला मिला कर रचूँ किसकी आँखें। अंधरे में रचा हुआ प्रेम गुनाहों की गंध लिए आता है। मैंने कितने साल से किसी को महबूब नहीं कहा है। और जान? कब कहा था किसी को?

इतरां। पूछती है मुझसे। आँख डबडबाए हुए। क्यूँ लिख रही हो ऐसी पनियाली आँखें। ईश्वर तुम्हें दुःख देता है तो तुम्हें अच्छा लगता है? नहीं ना। काजल अच्छा लगता है मेरी आँख में भी। इतना पानी रखने को कोई छोटा सा समंदर लिख दो। मेरी आँखें ही क्यूँ?

मिट्टी अत्तर का शहर होना

Have you ever had a longing for a city you never visited?
मुझे समझ नहीं आता कि प्यार कैसे होता है। किसी भी चीज़ से। आख़िर कैसे हो सकता है कोई शहर हूक जैसा?

कन्नौज के बारे में पहली बार कोई पाँच-छह साल पहले अख़बार में पढ़ा था। एक ऐसा शहर जहाँ मिट्टी अत्तर बनता है। इस शहर के बारे में, ख़ुशबुओं के बारे में कहानियाँ मुझ तक पहुँचती रहीं। तीन रोज़ इश्क़ में जो 'ख़ुशबुओं के सौदागर' की कहानी है, वो एक ऐसी तलाश है...कल्पना की ऐसी उड़ान है जो मैं भर नहीं सकती। ये वैसे सपने हैं जो मेरी कहानियों की दुनिया में देखती हूँ मैं। 

ख़ुशबुएँ मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। बचपन में ख़ुशबू वाले रबर बहुत दुर्लभ होते थे और सहेज के रखे जाते थे। मैं जब टू या थ्री में पढ़ती थी तो मेरे स्कूल के बग़ल के एक मैदान में स्पोर्ट्स डे होता था। वहाँ एक लगभग कटा हुआ पेड़ था। कुछ ऐसे गिरा हुआ कि उसपर बैठा जा सकता था। मैंने उसकी लकड़ी क्यूँ सूंघी मुझे मालूम नहीं। लेकिन उसमें एक ख़ुशबू थी। कुछ कुछ तारपीन के तेल की और कुछ ऐसी जो मुझे समझ नहीं आयी। उस पेड़ की लकड़ी का एक टुकड़ा मेरे पेंसिल बॉक्स में दसवीं तक हुआ करता था। मैं उसे निकाल के सूँघती थी और मुझे ऐसा लगता था कि मेरी पेंसिल और क़लम सब उसके जैसी महकती है। 

छह साल पहले टाइटन ने अपने पर्फ़्यूम लौंच किए थे। Titan Skinn। वो प्रोजेक्ट मैंने अपनी पिछली कम्पनी में किया था। लौंच के लिए पहले ख़ूब सी चीज़ें पढ़ी थीं।इत्र के बारे में। शायद, मुझे ठीक से याद नहीं...पर उन्हीं दिनों लैवेंडर के खेतों के बारे में पहली बार पढ़ा था। उस ख़ुशबू के ख़याल से नशा हो आया था।

मैं नहीं जानती मेरा उपन्यास कब पूरा होगा। लेकिन उसके पूरे होने के पहले कुछ शहर मेरी क़िस्मत में लिखे हैं। न्यू यॉर्क एक ऐसा शहर था। वहाँ की कुछ झलकियाँ कहानी में बस गयी हैं। अब जो दूसरा शहर चुभ रहा है आज सुबह से, वो कन्नौज है। मैंने उसका नाम इतरां क्यूँ रखा? इत्र से इतरां...जाने क्यूँ लगता है कि उसे समझने के लिए अपने देश में रहते हुए इत्र के इस शहर तक जाना ही होगा। 

आज थोड़ा सा पढ़ने की कोशिश की है शहर के बारे में। सुबह से कन्नौज के बारे में क्यूँ सोच रही थी पता नहीं। सुबह एक दोस्त से बात करते हुए कहा उसे कि जोधपुर गयी थी, वहाँ मिट्टी अत्तर देखा। क़िले में। मुझे एक बार जाना है वहाँ दुबारा। फिर वो कह रहा था कि कन्नौज में भी बनता है। कि कन्नौज उसके घर के पास है। आप मेरे साथ चलिए। और मैं सोच रही थी। कभी कभी। कि लड़का होती तो कितना आसान होता ना, ऐसे मूड होने पर किसी शहर चले जाना। जिस वीकेंड टिकट सस्ती होती, दिल्ली चल लेते या लखनऊ और फिर कन्नौज। पहली बार मैप्स में देखा कि कन्नौज कहाँ पर है। और सोचा। कि कितने दूर लगते है ये सारे शहर ही बैंगलोर से।

मेरे ख़यालों में उस शहर से उठती मिट्टी अत्तर की गंध उड़ रही है। बारिश में भीगती गंध। मैं पटना वीमेंस कॉलेज में जब पढ़ती थी तो माँ सालों भर मुझे छतरी रख के भेजती थी बैग में। कि ग़लती से भी कहीं बारिश में ना फँस जाऊँ। उस रोज़ मैं उस लड़के से मिली थी, कॉलेज का सेकंड हाफ़ बंक कर के। बचपन का दोस्त और फिर लौंग डिस्टन्स बॉयफ़्रेंड। जिसे मैंने समोसे के पैसे बचा बचा कर PCO से कॉल किए थे ख़ूब। पर मिली थी तीन साल में पहली बार।हम सड़क पर टहल रहे थे। बहुत बहुत देर तक। पहली बार उस दिन छाता लाना भूल गयी थी। मौसम अचानक से बदल गया था। एकदम ही बेमौसम बरसात। मैं बेहद घबरा गयी थी। भीग के जाऊँगी तो माँ डाँटेगी। भीगने से नहीं, डांट के डर से...मैं घबराहट में थरथरा रही थी। बचपन के बेफ़िकर दिनों के बाद मैं कभी बारिश में नहीं भीगी थी। कई कई कई सालों से नहीं। और बारिश ने मौक़ा देख कर धावा बोला था। मैं बड़बड़ कर रही थी। आज तो मम्मी बहुत डाँटेगी। अब क्या करेंगे। मैं सुन ही नहीं रही थी, लड़का कह क्या रहा है। उसने आख़िर मेरे काँधे पकड़े अपने दोनों हाथों से...मुझे हल्के झकझोरा और कहा...'पम्मी, ऊपर देखो'। मैंने चेहरा ऊपर उठाया। वो लगभग छह फ़ुट लम्बा था। उसका चेहरा दिखा। पानी में भीगा हुआ। बेहद ख़ूबसूरत और रूमानी। और फिर मैंने चेहरे पर बारिश महसूस की। पानी की बूँदों का गिरना महसूस किया। मैं भूल गयी थी कि चेहरे पर बारिश कैसी महसूस होती है। 

मैं कन्नौज नहीं। उस पहली बारिश को खोज रही हूँ। कि आज भी जब बारिश में भीगने चलती हूँ तो चेहरा बारिश की ओर करते हुए लगता है आँखों को उसकी आँखें थाम लेंगी। भीगी हुयी मुस्कुराती आँखें। काँधे पर उसके हाथों की पकड़। कि वो होगा साथ। मुझे झकज़ोर के महसूस कराता हुआ। 
कि बारिश और मुहब्बत में। भीगना चाहिए।
कि किसी गंध के पीछे बावली होकर कोई शहर चल देने का ख़्वाब बुनना भी ठीक है। कि ज़िंदगी कहानियों से ज़्यादा हसीन है। 


कन्नौज। सोचते हुए दिल धड़कता है। कि लगता है इतरां की कहानी का कोई हिस्सा उस शहर में मेरा इंतज़ार कर रहा है। कि जैसे बहुत साल पहले बर्न गयी थी और लगा था कि इस शहर से कोई रिश्ता है, बहुत जन्म पुराना। आज वैसे ही जब अपने दोस्त से बात कर रही थी तो लगा कि शहर जैसे अचानक से materialize कर गया है। कि अब तक यक़ीन नहीं था कि शहर है भी। मगर अब लगता है कि ऐसा शहर है जिसे महसूसा जा सकता है। कलाई पर रगड़ी जा सकती है जिसकी गंध। 

कि शहर लिख दिया है दुआओं में। कभी तो रिसीव्ड की मुहर लगेगी ही।
अस्तु।

24 January, 2018

इक्कीस सितम्बर, दो हज़ार पाँच।

तुम्हें वो दुपहरें कभी याद नहीं रहेंगी। सुनहली धूप की वो दुपहरें। नीले परदे खींच कर थोड़ी ठंढ बुलाया करते थे। आँखों पर रखते थे ठंढी हथेलियाँ। गुलदान में उन दिनों रजनीगंधा की कलियाँ और गुलाब हुआ करते थे। उन दिनों तीखी नहीं लगती थी रजनीगंधा की गंध। उन दिनों शायद हम कुछ ज़्यादा ही तीखे हुआ करते थे। मुझे तुम्हारे कुर्ते की गंध आज भी याद है। कपास की धुली गंध।पानी और घरेलूपन की गंध। फीकी।और वो टेक्स्चर मेरी उँगलियों को कभी नहीं भूलता। तुम्हारे कुर्ते का टेक्स्चर। हल्का रफ़। हैंडलूम के कपड़े में पड़ी गाँठें कहीं कहीं।

वो एक दोपहर थी। शायद ऐसी कोई पहली ठहरी हुयी दोपहर जो मैंने किसी के साथ पूरी बितायी थी। फ़र्श पर चटाई और उसके ऊपर पतला सा गद्दा। चादर धुली हुयी बिछाई थी। पुरानी, आरामदेह चादर। उन दिनों मुझे बिना तकिए के सोने की आदत थी। हमने काफ़ी देर से कुछ नहीं कहा था। हम बस, सोए हुए थे। एक दूसरे से क़रीब एक फ़ुट की दूरी पर कि एक दूसरे का चेहरा अच्छे से देख सकें। दिन के साथ कमरे में रोशनी बदलती जाती है, पहली बार महसूसा था। बदलती रौशनी में तुम्हारा चेहरा। तुम्हारी आँखें। वो भी याद हैं। यूँ ही वसंत के दिन थे। हमें प्यार हुए ज़्यादा दिन नहीं हुआ था। दीवाल पर अभी भी हमारे मिलने की तारीख़ लिखी हुयी थी। इक्कीस सितम्बर, दो हज़ार पाँच।

इसके पहले मेरे लिए प्रेम हमेशा लम्बी दूरी का रहा था। प्रेम का मतलब चिट्ठियाँ, ईमेल, काढ़े हुए रूमाल, डेरी मिल्क के रैपर और सूखे गुलाब हुआ करते थे। इस बार प्रेम एक हाथ बढ़ाने की दूरी पर था और मैं हाथ बढ़ाने के पहले ठहरी हुयी थी। तुम मेरी दायीं ओर थे। मैंने अपनी दायीं हथेली तुम्हारे बाएँ गाल पर रखी थी। तुम्हें छुआ था। यक़ीन दिलाया था ख़ुद को। कि तुम हो। इस पूरे वक़्त। छू सकने वाली दूरी पर। 

मैं तुम्हारी आँखों में देख रही थी। गहरी भूरी आँखें। वॉर्म। उस लम्हे ज़िंदगी में पहली बार महसूस हुआ। मैं तुम्हें बूढ़े होते देखना चाहती हूँ। ज़िंदगी के अलग अलग फ़ेज़ेज़ में तुम्हारे चेहरे के बदलावों को देखना चाहती हूँ। मैं देखना चाहती हूँ जब तुम्हारे बालों में चाँदी उतरे। सॉल्ट एंड पेपर हों। जब तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ हों लेकिन तुम्हारा चेहरा एक ख़ुश और उदार चेहरा हो कि तुमने एक अच्छी ज़िंदगी जी हो। मैं वाक़ई, सिर्फ़ तुम्हारे साथ एक पूरी उम्र बिताना चाहती थी। उस वक़्त सोच रही थी। अब से पाँच साल बाद हम जाने कहाँ होंगे। दस साल बाद जाने कहाँ। और उम्र ख़त्म होने को आए, तब जाने कहाँ। 

तुम जानते हो, ये मेरी ज़िंदगी में पहली और आख़िरी बार था जब मैंने प्रेम किया था और उसमें एक हमेशा की चाह की थी, मृत्यु की नहीं।

मुझे तुम्हें देखे एक दशक से ऊपर हो जाएगा ये सोचा कहाँ था उस वक़्त। पता नहीं तुम कितनी नफ़रत करते हो मुझसे। तुमने कहा, तुम ज़िंदगी भर नहीं मिलना चाहते मुझसे। ज़िंदगी भर। तुम जिस लड़की को जानते थे, मैं वो नहीं रही रे। अब मेरी ज़िंदगी...तुम्हारी ज़िंदगी भर नहीं रहेगी शायद।

बिना मिले चली जाऊँगी, तो तुम्हारी याद में वैसी ही रह जाऊँगी ना जैसी दस साल पहले थी? इक छोटे से पहाड़ी टीले के सबसे ऊँचे पत्थर पर तेज़ हवा में दुपट्टा उड़ाती पागल लड़की...जो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती थी।

जो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती है।
लव इन द टाइम औफ़ कालरा फ़्लॉरेंटीनो को उसका चाचा कहता है, 'तुम बिलकुल अपने पिता की तरह हो, तुम्हारे पिता को एक ही अफ़सोस था, मरते हुए उसने कहा, "मुझे इसी बात का अफ़सोस है कि मैं प्रेम के लिए नहीं मर रहा"। 

फ़िल्म देखते हुए कभी कभी लगता है। ये कैसा रूमान है...कैसा पागलपन। किसी के इंतज़ार में अपनी पूरी ज़िंदगी बिता देना। क्या प्रेम वाक़ई सिर्फ़ एक बार होता है लोगों को? इतना गहरा प्रेम। ऐसा पागलपन। क्या प्यार सिर्फ़ उम्र पर निर्भर करता है? इस उम्र में वो यक़ीन क्यूँ नहीं होता जो बीस की उम्र में होता था। वो दुःख नहीं होता जो सोलह की उम्र में होता था।

इन दिनों दुःख भी कॉम्प्लिकेटेड हो गए हैं। दुःख का भी सही ग़लत होता है। काला सफ़ेद सियाह सलेटी। कुछ दुःख ऐसे भी होते हैं कि महसूसने पर गुनाहों का अलग काँटा चुभता है। दुःख जिनका बोझ काँधे पर ही नहीं, आत्मा पर महसूस होता है।

जाने कैसे रिश्ते बना लिए हैं मैंने अपने इर्द गिर्द कि एक फ़ोन कॉल करने का भी हक़ नहीं समझती किसी पर। ऐसे जीती हूँ जैसे मेरी परछाईं से किसी को दुःख ना पहुँच जाए। बदन समेट कर। दिल को फ़ॉर्मलीन की किसी बोतल में रख कर।

मुझे माँगना बिलकुल नहीं आता। मर रही होऊँगी लेकिन मदद नहीं माँगूँगी। मुझे डर लगता है कि ऐसा करना मुझमें कड़वाहट ना भर दे। मैं जानती हूँ कि ऐसी क्यूँ होती चली जा रही हूँ। शायद जो चीज़ मैंने अपने दोस्तों से सबसे ज़्यादा हिचकते हुए माँगी है कभी किसी समय, वो शब्द होते हैं। एक ईमेल। एक चिट्ठी। नोट्बुक पर लिखे हुए कुछ शब्द। इससे ज़्यादा किसी का वक़्त भी मैंने माँगा हो, सो ध्यान नहीं। मगर ख़ाली दीवारों पर सिर्फ़ मेरे पागलपन के ख़त लिखे होते हैं। टंगे होते हैं।

मैं अगली बार मिलूँगी तुमसे तो धूप की बातें नहीं करूँगी। पूछूँगी तुमसे। एक बार तुम्हारे गले लग के रो सकती हूँ। मैं बहुत साल से अपने अंदर एक आँसुओं के ग्लेशियर के साथ जी रही हूँ। अब ये दुखता है बहुत ज़्यादा। तुम मेरे इतने अपने नहीं हो कि तुम्हारे लिए चिंता हो मुझे। जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं, वे मुझे इस तरह टूट कर बिलखता देख लेंगे तो परेशान हलकान हो जाएँगे। तुम थोड़े अजनबी हो मेरे लिए। इसलिए तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करूँगी। फिर ऐसा भी लगता है कि ज़िंदगी ने थोड़ा कम तोड़ा है तुम्हारा दिल...किसी रैंडम सी दोपहर एक रोती हुयी लड़की को देख कर घबराओगे नहीं, मतलब, यू वोंट फ़्रीक आउट।

तुम्हें पता है, कभी कभी मेरा एकदम अचानक से ही तुम्हारी ज़िंदगी से चले जाने का दिल करता है। एकदम अचानक से ही। क्यूँकि पैटर्न ये कहता है कि अब तुम ऐसा ही करोगे मेरे साथ। अचानक से बात करनी बंद कर दोगे। कोई वजह नहीं दोगे। कि मेरे क़रीब आ कर सब लोग घबरा जाते हैं ऐसे ही। कि मैं चाह कर भी किसी को ख़ुद से बचा नहीं पाती हूँ। कि मुझे तुम्हारी फ़िक्र होती है।

मुझे मरने के लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। एक दिन एक बिल्डिंग की छत पर कपड़े सुखाने के लिए गयी थी। जाड़ों की धूप थी। सोलहवीं मंज़िल से सब कुछ धूप में खिला खिला लग रहा था। दूर कहीं पहाड़ दिख रहे थे। whatsapp तुम्हारी करेंट लोकेशन दिखा रहा था, कोई सात किलोमीटर दूर...बाक़ी दोस्त भी कुछ दस से बीस किलोमीटर के रेडीयस में थे। मैं देर तक नीचे देखती रही। सोचती रही यहाँ से कूद जाऊँ तो क्या होगा। मर जाऊँ तो क्या होगा।

सोचती हूँ, मेरे शब्द मुझे कब तक बचा पाएँगे... किसी बिल्डिंग से कूद जाने से, किसी पुल में क्रैश करने से...कलाई काट लेने से...या कि कोई ज़हर की गोली ही ज़ुबान पर रख लेने से...

क़िस्सों का एक कमरा

मैंने अपने जीवन में बहुत कम घर बदले हैं। देवघर के अपने घर में ग्यारह साल रही। पटना के घर में छह। और बैंगलोर के इस घर में दस साल हुए हैं। मुझे घर बदलने की आदत नहीं है। मुझे घर बदलना अच्छा नहीं लगता। मैं कुछ उन लोगों में से हूँ जिन्हें कुछ चीज़ें स्थायी चाहिए होती हैं। घर उनमें से एक है। देवघर में मेरा घर हमारा अपना था। पहले एक मंज़िल का, फिर दूसरी मंज़िल बनी। मेरे लिए बचपन अपने ख़ुद के घर में बीता। वहाँ की ख़ाली ज़मीन के पेड़ों से रिश्ता बनाते हुए। नीम का पेड़, शीशम के पेड़। मालती का पौधा, कामिनी का पौधा। रजनीगंधा की क्यारियाँ। कुएँ के पास की जगह में लगा हुआ पुदीना। वहीं साल में उग आता तरबूज़।

बैंगलोर में इस घर में जब आयी तो हमारे पास दो सूटकेस थे, एक में कपड़े और एक में किताबें। ये एक नोर्मल सा २bhk अपर्टमेंट है। पिछले कुछ सालों में इसके एक कमरे को मैंने स्टडी बना दिया है। यहाँ पर एक बड़ी सी टेबल है जिसपर वो किताबें हैं जो मैं इन दिनों पढ़ रही हूँ। इसके अलावा इस टेबल पर दुनिया भर से इकट्ठा की हुयी चीज़ें हैं। शिकागो से लाया हुआ जेली फ़िश वाला गुलाबी पेपरवेट। डैलस से ख़रीदी हुयी रेतघड़ी और एक दिल के आकार का चिकना, गुलाबी पत्थर। न्यू यॉर्क से लाया हुआ स्नोग्लोब। एक दोस्त का दिया हुआ छोटा सा विंडमिल। दिल्ली से लाए दो पोस्टर जिनमें लड़कियाँ पियानो और वाइयलिन बजा रही हैं। पुदुच्चेरी से लायी नटराज की एक छोटी सी धातु की मूर्ति। एक टेबल लैम्प, दो म्यूज़िक बॉक्स। कुछ इंक की बोतलें। स्टैम्प्स। पोस्ट्कार्ड्ज़। बोस का ब्लूटूथ स्पीकर। अक्सर सफ़ेद और पीले फूल...और बहुत सा...वग़ैरह वग़ैरह।

इस टेबल के बायें ओर खिड़की है जो पूरब में खुलती है। आसपास कोई ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए सुबह की धूप हमारी अपनी होती है। सूरज की दिशा के अनुसार धूप कभी टेबल तो कभी नीचे बिछे गद्दे पर गिरती रहती है। खिड़की से बाहर गली और गली के अंत में मुख्य सड़क दिखती है। बग़ल में एक मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ कुंड। खिड़की पर मनीप्लांट है और ऊपर एक पौंडीचेरी से लायी हुयी विंडचाइम।

मैं सुबह से दोपहर तक यही रहती हूँ अधिकतर। लिखने और पढ़ने के लिए। दीवारों पर नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव के पोस्टर्ज़ हैं। एक बिल्ली का पोस्टर जो चुम्बक से लायी हूँ। एक बुलेटिन बोर्ड में दुनिया भर की चीज़ें हैं। न्यूयॉर्क का मैप। 'तीन रोज़ इश्क़' के विमोचन में पहना हुआ झुमका, जिसका दूसरा कहीं गिर गया। एक ब्रेसलेट जो ऑफ़िस से रिज़ाइन करने के बाद मेरे टीममेट्स ने मुझे दिया था, कुछ पोस्ट्कार्ड्ज़। कॉलेज की कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें। ज़मीन पर बिछा सिंगल गद्दा है जिसपर रंगबिरंगे कुशन हैं। एक फूलों वाली चादर है। ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद में हल्के लाल फूलों वाली हल्की गरम चादर है। बैंगलोर में मौसम अक्सर हल्की ठंढ का होता है, तो चादर पैरों पर हमेशा ही रहती है। हारमोनियम और कमरे के  कोने में एक लम्बा सा पीली रोशनी वाला लैम्प है।

ये घर अब छोटा पड़ रहा है तो अब दूसरी जगह जाना होगा। मैं इस कमरे में दुनिया में सबसे ज़्यादा comfortable होती हूँ। ये कमरा पनाह है मेरी। मेरी अपनी जगह। मैं आज दोपहर इस कमरे में बैठी हूँ कि जिसे मैं प्यार से 'क़िस्साघर' कहती हूँ। किसी घर में दोनों समय धूप आए। साल के बारहों महीने हवा आए। बैंगलोर जैसे मेट्रो में मिलना मुश्किल है। फिर ऐसा कमरा कि धूप बायीं ओर से आए कि लिखने में आसान हो। एकदम ही मुश्किल। और फिर सब मिल भी जाएगा तो ऐसा तो नहीं होगा ना।

मुझे इस शहर में सिर्फ़ अपना ये कमरा अच्छा लगता है। जो दोस्त कहते हैं कि बैंगलोर आएँगे, उनको भी कहती हूँ। मेरे शहर में मेरी स्टडी के सिवा देखने को कुछ नहीं है। मगर वे दोस्त बैंगलोर आए नहीं कभी। अब आएँगे भी तो मेरे पढ़ने के कमरे में नहीं आएँगे। मैं आख़िरी कुछ दिन में उदास हूँ थोड़ी। सोच रही हूँ, एक अच्छा सा विडीओ बना लूँ कमसे कम। कि याद रहे।

हज़ारों ख़्वाहिशों में एक ये भी है। कभी किसी के साथ यहीं बैठ कर कुछ किताबों पर बतियाते। चाय पीते। दिखाते उसे कि ये अजायबघर बना रखा है। तुम्हें कैसा लगा।

एक दोस्त को एक बार विडीओ पर दिखा रही थी। कि देखो ये मेरी स्टडी ये खिड़की...जो भी... उसने कहा, आपका कमरा मेरे कमरे से ज़्यादा सुंदर है, तो पहली बार ध्यान गया कि इस कमरे को बनते बनते दस साल लगे हैं। कि इस कमरे ने एक उलझी हुयी लड़की को एक उलझी हुयी लेखिका बनाया है।

साल की पहली पोस्ट, इसी कमरे के नाम। और इस कमरे के नाम, बहुत सा प्यार।

और अभी यहाँ सोच रही हूँ...तुम आते तो...

19 January, 2018

हमारे अलविदा को ना लगे, किसी दिलदुखे आशिक़ की काली नज़र


विस्मृति की धूप से फीके हो जाएँगे सारे रंग
एक उजाड़ पौधे पर सूख गए आख़िरी फूल दिखेंगे
धूल धुँधला कर देगी खिड़की से बाहर के दृश्य
हमारे नहीं होने के कई साल बाद भी

मैं तलाशती रहूँगी हमारे ना होने की वजहें
अपने मन के अंधारघर में
मैं रहूँगी, इकलौती खिड़की पर
अंतहीन इंतज़ार में।

***

मैं नहीं रोऊँगी इस बार
कि आँख में बचा रहे काजल
और हमारे अलविदा को ना लगे
किसी दिलदुखे आशिक़ की काली नज़र

याद के बेरंग कमरे को
रंग दूँगी तुम्हारे साँवले रंग में।
स्टडी टेबल के ठीक ऊपर
टाँग दूँगी तुम्हारी हँसी की कंदीलें।

अलविदा के पहर कम दुखें, इसलिए ही
जलाऊँगी दालचीनी की गंध वाली मोमबत्ती।

हिज्र उदास कविताओं का श्रिंगार है
कहो अलविदा,
कि स्याही के अनेक रंग और कुछ सफ़ेद पन्ने
इंतज़ार में हैं।

31 December, 2017

साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब

ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।

इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।

Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।

अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म  करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...

इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।

इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।

कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।

इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।

इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।

साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।

ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।

सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।

आख़िर में, बस इतना...


***



ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’

15 December, 2017

ठहर ठहर के बढ़ती, अधूरी, लम्बी कहानी...पुकारती। कलपती। लेती राहत की साँस।

उसकी उँगलियों के पोर पर हमेशा स्याही लगी होती। अक्सर फ़ीरोज़ी रंग की। कभी कभी पीली और बहुत कम ही और किसी रंग की। जैसे कोई नन्ही ईश्वर अपने लिए एक छोटी सी दुनिया बनाते बनाते एक ब्रेक लेने उठी हो थोड़ी देर के लिए...थोड़ी थकान से...या कि सिगरेट पीने को ही। थोड़ी ही देर में फिर से काग़ज़ क़लम थामनी है तो फिर क्यूँ ही रगड़ के हाथ धोने की मेहनत की जाए। गीले हाथों से माचिस जलाने में दिक़्क़त होगी अलग।
***
इन दिनों पढ़ने वाली किताबों में कई ईश्वर और उनके कुछ पैग़म्बर आते जाते रह रहे हैं। राम। बुद्ध। कर्मपा। दलाई लामा। हनुमान। वो सोचती। अचानक से इतने सारे ईश्वर उसके इर्दगिर्द क्यूँ मिल रहे हैं। उसपर सबसे इतना याराना जैसे पिछले कई सालों की कोई नाराज़गी रही ही नहीं हो।
देवघर जैसे किसी शहर में बचपन बिताने से ये होता है कि बच्चा मानते हुए बड़ा होता है कि भोले बाबा की तरह सभी ईश्वर आसानी से माफ़ कर देने वाले और ख़ूब ख़ूब प्यार करने वाले होते हैं।
***
उन दिनों इतरां को मालूम नहीं था कि उसका नाम मोक्ष था। मुझे मालूम था बस। मैंने रचा था उसका गोरा कांधा। उसके काँधे से उड़ती गंध। मैं तलाश रही थी उसके लिए एक शहर कि जिसका नाम मोह हो। 
इतरां कलप रही थी। और इतरां के साथ मैं भी। हम पिछले एक पूरे साल से कलप रहे हैं। कि किसी से सिर्फ़ एक बार मिलकर कैसा होता है इस डर को जीना कि हम अब इस ज़िंदगी में कभी दुबारा नहीं मिलेंगे। 
तलाश की नाउम्मीदी की हद कहाँ होती है। इतरां कहाँ कहाँ तलाशती है उसे। उसके काँधे के टैटू को। उसकी राख रंग की आँखों को। उसकी तलाश के साथ मैं भी घबराती हूँ कितना। हूक हुयी जाती हूँ। सर्दियों में बर्फ़ पड़ती है उस शहर में और नाज़ुक जीव-जंतुओं के लिए शेल्टर बना दिए जाते हैं। मैं बर्फ़ में खड़ी जमती जाती हूँ। अहिल्या कैसे हुयी होगी पत्थर। मैं पूछूँ, इस सर्द मौसम भर मुझे अपने दिल में पनाह दे सकोगे?
इतरां ने कितनी भाषाएँ सीख लीं इस बीच। अब वो उस शख़्स को नहीं तलाशती लेकिन एक शब्द तलाशती है जो इस कलप को परिभाषित कर सके। कोई शब्द। कोई शहर। कोई एक पीर कि जो मृत्यु के पहले माथे पर हाथ रख के कह दे... मत रो...रो मत...
दुनिया की किताबों के शब्द इतरां की आत्मा का हाल नहीं लिख सकते थे। छुट्टी पर आयी इतरां दादी सरकार की गोद में सर रख कर रोना चाहती थी...लेकिन दादी सरकार रामायण पाठ कर रही थी। बाल काण्ड। गोबर से लीपा हुआ गोसाईंघर था और अगरबत्ती, कपूर और कनेल के फूलों की मिलीजुली गंध। इतरां के लिए ये बचपन की सबसे आश्वस्त करने वाली गंध रही है हमेशा से। गोसाईंघर में दादी सरकार पूरे घर से पहले उठ कर नहा धो कर, माथे पर आँचल खींचे पूजा पर बैठ जातीं थीं। जब इतरां को शब्दों के मायने भी नहीं मालूम थे, तब से वो चुपचाप गोसाईंघर के एक अंधेरे कोने में चुपचाप बैठी दादी सरकार को सुनती रहती थी। दादी सरकार की थिर आवाज़ और वाल्मीकि रामायण के श्लोक जो कि इतरां को लगभग पूरे समझ आते थे। 
दादी सरकार इंद्र द्वारा दिति के पुत्रों के वध के समय कहे गए 'मा रुद' 'मा रुद' और फिर उनके जन्म के बाद उनके रखे हुए नाम, मारुत का हिस्सा पढ़ रही थी। 
सूर्योदय इतरां के मन के अंधेरे में भी हो रहा था। ऊँचे वाले रोशनदान से सूरज की किरणें सीधी दादी सरकार के आँचल पर गिर रही थीं और माथे पर खींचे लाल आँचल से छिटक कर कमरे में लाल रंग फैल रहा था। प्रेम का रंग। करुणा का रंग। आस्था का रंग। 
यही तो था वो शब्द कि जिसके लिए इतरां ने पूरी दुनिया की भाषाएँ तलाश ली थीं। उसके कलपते दिल पर इंद्र के शब्द जो मृत्यु से ज़्यादा शक्तिशाली थे। मन में मंत्र उभरने लगा। संजीवन मंत्र। शहर कि जिसमें साँस ली जा सकती थी। जिया जा सकता था। सतयुग का शहर। मारुत।

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