24 August, 2010

मेहंदी का रंग

सावन में सैयां के लिए और भादों में भैय्या के लिए मेहंदी लगानी चाहिए...इससे प्यार बढ़ता है. 

ऑफिस और घर की कवायद के बीच एक बहन कहाँ तक बची रह पाती है मालूम नहीं...वो भी तब जब तबीयत ऐसी ख़राब हो कि गाड़ी चलाना मुमकिन ना हो...किसी महानगर में जहाँ कुछ भी पैदल जाने की दूरी पर ना मिले...वो भी ऐसी जगह जहाँ पर राखी दुकानों में हफ्ते भर पहले ही आ पाती है.

पूरा बाज़ार घूमना, छोटे भाई का हाथ पकडे हुए...एक राखी ढूँढने के लिए...जो सबसे अलग हो, सबसे सुन्दर हो और जो भाई की कलाई पर अच्छी लगे...घर पर रेशम के धागों और फेविकोल का ढेर जमा करना साल भर...कि राखी पर अपने हाथ से बना कर राखी पहनाउन्गी..ऐसी राखी तो किसी के कलाई पर नहीं मिलेगी ना.

मेहंदी को बारीक़ कपडे से दो बार छानना...फिर पानी में भिगो कर दो तीन घंटे रखना...साड़ी फाल की पन्नी से कुप्प्पी बनाना...रात को पहले मम्मी को को मेहंदी लगाना...मेहंदी पर नीबू चीनी का घोल लगाना और पूरे बेड पर अखबार डाल के सोना...अगली सुबह देखना कि मेहंदी का रंग कितना गहरा आया है...जितना गहरा मेहंदी का रंग, उतना गहरा भाई का प्यार...सुबह उठ के नहा के तैयार हो जाना..राखी में हर बार नए कपडे मिलते थे...राखी बाँध कर झगडा करना, पूरे घर में छोटे भाई को पैसे लेने के लिए दौड़ाना...

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वो आसमान की तरफ देख रही है...भीगी आँखें, सोच रही है, पूछ रही है अगर कहीं कोई भगवान है तो...उलाहना...कोई मुझे प्यार नहीं करता...बहुत साल पहले...ऐसा ही उलाहना, जन्मदिन पर किसी ने चोकलेट नहीं दिया था तो...छोटा भाई पैदल एक किलोमीटर जा के ले के आता है...उस वक़्त वो अकेले जाता भी नहीं था कहीं.

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इस साल मेहंदी का रंग बहुत फीका आया है...नमक पानी रंग आने के लिए अच्छा होता भी नहीं है...रात डूबती जा रही है और मैं सोच रही हूँ कि अकेलापन कितना तकलीफदेह होता है...गहरे निर्वात में पलकें मुंद जाती हैं...जख्म को भी चुभना आ गया है...ये लगातार दूसरा साल है जब मेरी राखी नहीं पहुंची है...राखी के धागों में बहुत शक्ति होती है, वो भाई की हर तकलीफ से रक्षा करती है.
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नींद के एक ना लौटने वाले रास्ते पर...एक ही ख्याल...मेहंदी का रंग इस साल बहुत फीका आया है.

11 August, 2010

समंदर की खोज में

शनिवार रात...कोई डेढ़ बजे का समय...कुछ लोग जिंदगी पर बात करते करते अचानक सेंटी हो जाते हैं...और समंदर देखने की इच्छा होती है. बंगलोरे चेन्नई एक्सप्रेस वे के बारे में गूगल बताता है कि कुछ दो सौ किलोमीटर है...मेरी भी इच्छा थी कि १००-१२० की स्पीड से कर चला के देखूं. 
बस इतना भर सोचना था, गीज़र चालू किया गया और एक एक करके सब नहा के ताज़ा हो गए...गैरतलब है कि रात के डेढ़ बज रहे थे. पीडी से रास्ता पूछा गया, ये पुराने यात्री रहे हैं इस रास्ते के...और अनुभव को कभी भी जाया नहीं करना चाहिए. कुल मिला के गाड़ी चलने वाले साढ़े तीन लोग थे, तीन लोग एकदम एक्सपर्ट और मैं एकदम कच्ची तो तय हुआ कि बारी बारी कार चलाएंगे. थोड़ा सा सामान पैक किया...कुछ कपड़े, तौलिया वगैरह और चप्पलें, चादर, तकिये...बस. दो बजते सब तैयार और गाड़ी में लोडेड. आई पॉड ख़राब हो रखा है तो फ़ोन से ही काम चलाना पड़ा. फाबिया में खूबी है कि किसी भी म्यूजिक प्लेयर को कनेक्ट कर सकते हैं. 

मेरे नए फ़ोन...विवाज़...में जीपीएस की सुविधा है जो आपकी पोसिशन बताती है और ये मेरे उम्मीद से कहीं ज्यादा अच्छा परफोर्म करती है...मजे की बात कि मैंने अपने घुमक्कड़ी मूड के हिसाब से कर्णाटक का पूरा नक्शा खरीद के रखा था कि किसी दिन ऐसे ही मूड बन जाए तो भुतलाने का कोई स्कोप न हो...मैं ख़ुशी ख़ुशी उठी कि चेन्नई जाना है, अच्छा है मेरे पास मैप है...और जैसे ही मैप देखा तो देखा कि चेन्नई तो दूसरे राज्य में है :) अब इतनी लम्बी प्लानिंग तो मैं कर नहीं सकती. मैं अपने आप को टेक्निकली चैलेंज्ड (तकनीकी रूप से अक्षम ;) ) मानती थी...अब नहीं मानती. काफी खुराफात की है मैंने तो अब प्रोमोट होके तकनीकी जुगाडू मानती हूँ :)

एक्सप्रेस वे पर १०० की स्पीड तो सोचा था पर इतने ही स्पीड पर ओवेर्टेक करने की बात नहीं सोची थी, वो भी भीमकाय ट्रक और वैसे ही अजीबोगरीब वाहनों को तो किसी फिल्म जैसे लग रहे थे. सीधी खूबसूरत सड़क थी और कुणाल ऐसे चला रहा था जैसे हम कोई विडियो गेम खेल रहे हों. रात बेहद खूबसूरत थी...और गाने और भी प्यारे...कोई सात बजे लगभग हम चेन्नई पहुंचे...यहाँ से गोल्डन बीच जाना इतना मुश्किल था कि क्या कहें...सारे लोग तमिल में बात करते थे...प्रशांत को फ़ोन किया तो मेरे नेटवर्क में कुछ पंगा था...आवाज नहीं आई...उसने sms किया उससे कुछ आइडिया हुआ कि सही रास्ते जा रहे हैं. और फिर जीपीएस और भगवान भरोसे हम लोग रिसोर्ट पहुंचे. 

थकान के मारे हालत ख़राब...और पेट में चूहे दौड़ रहे थे...ईसीआर कोस्ट पर कहीं कुछ खाने को ही नहीं मिल रहा था उतनी सुबह...इडली डोसा भी नहीं...जिस रिसोर्ट में टिके थे, उन्होंने खाना देने से इनकार कर दिया "सार दे वील नोट गीव यु" खाना पूछने पर किचन से यही जवाब मिला. हालत ऐसी हो गयी थी कि आधे घंटे और खाना नहीं मिलता तो सोच रहे थे प्रशांत से सत्तू मंगवाएंगे और घोर के पियेंगे ;) किसी तरह इन्तेजाम हुआ...और खा पी के अलार्म लगा के सो गए.

तीन बजे लगभग उठे, कॉफी पी और सीधे समुन्दर...चेन्नई में गोल्डन बीच को वीजीपी ग्रुप वालों ने खरीद लिया है, तो बीच पर जाने के लिए टिकट लगता है...मैं चेन्नई बहुत सालों बाद आई थी...यहाँ पानी बहुत साफ़ और पारदर्शी था...समंदर भी खूबसूरत नीला...मौसम सुहाना, थोड़ा बादल...थोड़ी धुप...समंदर का पानी गुनगुना...लहरें परफेक्ट...न ज्यादा ऊँची न ज्यादा शांत. सूरज डूबने तक हम पानी में ही बदमाशी करते रहे...चेन्नई में सूरज समंदर की विपरीत दिशा में डूबता है, तो शाम को समंदर का पानी एकदम सुनहला लगता है, पारदर्शी सुनहला...

दिन का समंदर और रात का समंदर एकदम अलग होते हैं...दिन को लहरें अलग थलग आती हैं...रात को जैसे गहरे नीले समंदर में बिजली कौंधती है, एक लहर बीच समंदर से उठती है और दौड़ती है दूसरी लहर का हाथ थामने...लम्बी पतली सफ़ेद रेखाएं...समंदर किनारे चुप चाप बैठना...थोड़ा और करीब ला देता है.

वापसी में तो मुझे पूरा यकीन था कि हम खो जायेंगे, आखिर फिर से डेढ़ बजे रात को रास्ता कौन बताएगा चेन्नई से बाहर जाने का...लगा कि अनजान शहर में एक अपना होना कितना विश्वस्त करता है...कि एकदम भटक गए तो प्रशांत को बुला लेंगे...बाइक उठा के आ जायेगा...भला आदमी है...एक बार भी मिली नहीं हूँ उससे हालाँकि...सोच रही थी...नेट पर बने रिश्ते भी कितने सच्चे से होते हैं.

जीपीएस के सहारे पूरे रास्ते आये...वाकई बड़े काम की चीज़ है, फोन लेते वक़्त सोचा भी नहीं था कि इसकी कभी जरूरत भी पड़ेगी और ये इतना काम भी आएगा...रात फिर से बहुत खूबसूरत थी...सुबह ६ बजे बंगलोर पहुँच गए...भागा भागी जाना....फटाफटी आना.

जिंदगी...आवारगी...जिंदगी  

(पीडी का ख़ास धन्यवाद)

29 July, 2010

मेरा बिछड़ा यार...




इत्तिफाक...एक अगस्त...फ्रेंडशिप डे...और हमारी IIMC का रियुनियन एक ही दिन...वक़्त बीता पता भी नहीं चला...पांच साल हो गए...२००५ में में पहला दिन था हमारा...आज...पांच साल बाद फिर से सारे लोग जुट रहे हैं...


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आखिरी दिन...कॉपी पर लिखी तारीख...आज से पांच साल बाद हम जहाँ भी होंगे वापस एक तारीख को यहीं मिलेंगे...उस वक़्त मुस्कुरा के सोचा था...यहीं दिल्ली में होंगे कहीं, मिलने में कौन सी मुश्किल होगी...आज बंगलोर में हूँ...जा नहीं सकती.


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मैं फेसबुक बेहद कम इस्तेमाल करती हूँ...आज तबीयत ख़राब थी तो घर पर होने के कारण देखा...कम्युनिटी पर सबकी तसवीरें...गला भर आया...और दिल में हूक उठने लगी...जा के एक बार बस सब से मिल लूं तो लगे कि जिन्दा हूँ.


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भर दोपहर स्ट्रिंग्स का गाना सुना...मेरा बिछड़ा यार...सुबह के खाने के बाद कुछ खाने को था नहीं घर पर...बाहर जाना ही था...कपडे बदले, जींस को मोड़ कर तलवे से एक बित्ता ऊपर किया, फ्लोटर डाले और रेनकोट पहन कर निकली ब्रेड लाने...गाना रिपीट पर था...कुछ सौ मीटर चली थी कि बारिश जोर से पड़ने लगी...


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रेनकोट का हुड थोड़ा सा पीछे सरकाती हूँ...तेज बारिश चेहरे पर गिरती है, आँखों में पानी पानी...बरसाती नदी...और बंगलोर पीछे छूट गया...जींस के फोल्ड खुल गए, ढीला सा कुरता और हाथों में सैंडिल...कुछ बेहद करीबी दोस्त...एक भीगी सड़क. गर्म भुट्टे की महक, और पुल के नीचे किलकारी मारता बरसाती पानी. ताज़ा छनी जिलेबियां अखबार के ठोंगे में...गंगा ढाबा की मिल्क कॉफ़ी और वहां से वापस आना होस्टल तक...


उसकी थरथराती उँगलियों को शाल में लपेटना...भीगे हुए जेअनयू के चप्पे चप्पे को नंगे पैरों गुदगुदाना...पार्थसारथी जाना...आँखों का हरे रंग में रंग जाना...दोस्ती...इश्क...आवारगी...जिंदगी.
IIMC my soul.
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काश मैं दिल्ली जा सकती...
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करे मेरा इन्तेजार...मेरा बिछड़ा यार...मेरा बिछड़ा यार...

28 July, 2010

बिल्ली भयी कोतवाल अब डर काहे का

बंगलोर का मौसम आजकल बड़ा सुहाना हो रखा है. हलकी सी ठंढ पड़ती है और फुहारों वाली बारिश होती रहती है. सुबह सूरज भी बादल की कुनमुनी रजाई ढांप कर पड़े रहता है. ऐसे मौसम में सुबह उठना मुश्किल और नामुमकिन के बीच का कुछ काम है. 

इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत भी काफी ख़राब चल रही थी. बात दरअसल गोल गोल घूमकर ढाक के तीन पात हो गयी थी. तबीयत खराब होने के कारण खाना नहीं बनती थी, और खाना नहीं बनाने के कारण तबीयत और खराब होती जाती थी. तो कुछ दिन पहले मैंने हथियार डाल दिए, हथियार बोले तो बेलन, छोलनी, चिमटा आदि...घर में  एक कुक का इंतज़ाम कर लिया. सुबह का नाश्ता और रात का खाना घर पर बन जाता था और दीपहर में ऑफिस की कैंटीन जिंदाबाद. 

हाथ में दर्द होने के कारण बाइक चलाना बंद था...कुणाल रोज सुबह कार से पहुंचा देता था, लौटते हुए श्रुति नाम की बेहद भली लड़की अपनी बाइक से घर पहुंचा दिया करती थी. ऑफिस आते जाते दोनों भले इंसानों से गप्प करते हुए रास्ता भी मजे से कट जाता था. कह सकते हैं कि मेरी ऐश थी. लगता था होस्टल वाले दिन वापस आ गए हैं. बस ऑफिस जाओ, दोस्तों से गप्पें करो और अच्छी किताबें, फिल्में, गाने...सब अच्छा चल रहा था. 

तो मैं बता रही थी बिल्ली के बारे में....
ऐसा हुआ कि एक भले दिन मैं घर से देर चली थी, हमेशा की तरह. वैसे लेट की उतनी फिकर नहीं होती है क्योंकि ऑफिस में नौ घंटे बिताना जरूरी है बस...फिर भी लेट जाना अच्छा नहीं लगता है ऑफिस. सारे लोग आ गए होते हैं...यहाँ मेरी टीम में अधिकतर लड़के हैं उनको सुबह करना ही क्या होता है, भोरे भोर उठ कर पहुँच जाते हैं. शामत हम बेचारों की आती है :)

कुणाल बेचारा आधी नींद में उठता है और कार ले कर चल देता है हमको पहुंचाने. तो हमारी कार का होर्न ही नहीं बज रहा था...और बंगलोर में बिना होर्न बजाये जाना नामुमकिन है. तो घर से आधी दूर पर हम झख मारते ऑटो का इन्तेजार करने लगे. भगवान् मेहरबान था तो ऑटो मिल गया.

गाड़ी  सर्विस सेंटर भेजी...दोपहर को फ़ोन आया उनका...कार के तार चूहे कुतर गए हैं...अब बताओ भला, इत्ती बड़ी गाड़ी बनायीं, उसमें एक ऑटोमेटिक चूहेदानी नहीं लगा सके कि चूहे नहीं आयें. कमसे कम जाली टाईप का ही कुछ लगा देते कि चूहे अन्दर नहीं आ सकें. गाड़ी वापस आई तो हमने पुछा कि क्या करें...तो बोलता है कि गाड़ी सुरक्षित जगह पर लगायें. अब अपार्टमेन्ट में लगाते हैं, और किधर लगायें, कौन सा गटर में लगते हैं कि बेहतर जगह लगा सकें. 

चूहे मारने कि दवा रखने कि सलाह भी दी उन्होंने. मैं सोचती हूँ कि और कैसी जगहें होंगी जहाँ चूहे नहीं होते होंगे. किसी कार के सर्विस स्टेशन से मिली ये अब तक की सबसे अजीब सलाह में से आती है. चूहे मारने की दवा दें...

गाड़ी की सुरक्षा के लिए हम एक बिल्ली पालने की सोच रहे हैं...एक ऐसी बिल्ली जिसका खाने का टेस्ट एकदम खालिस बिल्ली वाला हो, और जो चूहों के शिकार में निपुण हो. बिल्ली को रोज सुबह दूध मलाई मिलेगी...दिन भर भूखा रखा जाएगा ताकि शाम को चूहे पकड़ने के काम में उसका मन लगे.  बिल्ली को दिन भर सोने की पूरी इजाजत है...रात को जाग कर पहरा देने के लिए जरूरी है कि वो दिन में भरपूर नींद ले. बिल्ली को महीने में एक वीकेंड छुट्टी मिलेगी जिसमें वो बाकी बिल्लियों से मिलने जा सकती है. बिल्ली की इच्छा हो तो वो अपने साथियों को भी बुला सकती है. बिल्ली चतुर और निडर हो...दिखने में मासूम और क्यूट हो और कम बोलने वाली हो तो अतिरिक्त बोनस मिलेगा. 

तो अगर आप किसी ऐसी बिल्ली को जानते हैं तो कृपया खबर करें...जानकारी देने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा. 

27 July, 2010

कहवाखाने का शहज़ादा

यमन देश के एक छोटे से प्रान्त में एक कहवाखाना हुआ करता था. रेत के टीलों में दूर देश के मुसाफिर जैसे पानी की गंध पा कर पहुँच जाते थे. एक छोटा सा चश्मा उस छोटी सी बस्ती को जन्नत बनाये रखता था. बस्ती से कुछ ही दूर समंदर शुरू होता था, इस अनोखी जगह को लोग खुदा की नेमत समझते थे. व्यापारी यहाँ मसाले, हीरे, पन्ने , कई और बेशकीमती जवाहरात और महीन रेशम की बिक्री करने के लिए आते थे. जिंदगी को खूबसूरत बनाने वाली ये चीज़ें मुंहमांगे दाम पर बिकती थीं.

बस्ती का कहवाखाना किस्सों की एक चलती फिरती तस्वीर हुआ करता था. कई देशों की तहजीबें, अलग लोग, अलग रहन सहन, किस्सों का अलग तरीका...यूँ तो किस्से तरह तरह के होते थे, सुल्तानों के, कर ना दिए जाने पर ढाए सितम के, पर किस्से का खुमार बस एक ही...इश्क.

शाम ढलते ही कई रंग घुल जाते थे समंदर से आती हवाओं में और रुबाब गाने लगता था. कहवाखाने के दो कोने में मोम पिघलता रहता था पूरी रात...समंदर की नमकीन हवाओं में थिरकती लौ में एक उन्नीस साल का लड़का किस्से कहता था. उसकी आँखें नीली और पारदर्शी थी, जब रुबाब छेड़ता तो उड़ती रेत उसके किस्से एक दर्द की धुन में छुपा कर नीलम के एक ऊंचे कंगूरे तक पहुंचा देती थी. अगली सुबह जब पर्दानशीनो का जुलूस बाग़ के लिए निकलता था तो बिना हवा के भी एक नकाब खुल सा जाता था और सुनहली आँखें उसकी नीली आँखों पर थिरक उठती थीं. सहर की धूप समंदर की लहरों को छू कर ऊपर उठती थी. एक अगली रोज के लिए.

साल के जलसे पर एक रूहानी गीत के गाया गया, इश्क के इन्द्रधनुषी रंगों को समेटे हुए...एक हसीना का नकाब हलके से सरका और नीली और सुनहली आँखों ने सदियों के बंधन क़ुबूल लिए.

अगली सुबह समंदर का नीला पारदर्शी गहरा लाल होता जा रहा था. लहरें, किनारे, आसमान...सब कुछ लाल...कत्थई और धीरे धीरे सियाह हो गया.

कहते हैं उस रात पूरी बस्ती रेत में मिल गयी...आज भी रेगिस्तान में भटके लोगों को पानी का छलावा होता है. रात को चलते कारवां अक्सर एक रूहानी गीत की तलाश में भटक जाते हैं.

इश्क तब से जाविदा है. और इश्क करने वाले... फ़ना

22 July, 2010

हमेशा के लिए अधूरा हो जाना

किसी से प्यार करने पर
हमेशा के लिए अधूरा हो जाना पड़ता है
नहीं वापस मिलता है बहुत कुछ...

अच्छी तरह कमरा बुहार कर आने के बाद भी
सब कुछ कहाँ वापस आ पाता है
छूट ही जाती हैं कुछ किताबें, और उनके पन्नो पर लिखा हुआ कुछ
किसी के नाम के सिवा, किसी रिश्ते के सिवा

हलक में अटक जाता है एक नाम
और सदियों हिचकियाँ आती रहती हैं
एक फिसलते अहसास को बाँधने की कोशिश करते हुए
हाथ कभी छूटता नहीं है छूट कर भी

जब भी आसमान रिसता है
यादों के गाँव में कुछ भी सूखा नहीं रहता
पलंग पर रखनी पड़ती हैं किताबें
और सोना पड़ता है गीले फर्श पर

चली जाती हैं आँखों की आधी चमक
मेह जाती है हँसी की खनखनाहट
उसको लिखते हुए ख़त्म हो जाती है
एक अधूरी जिंदगी, शब्द निशब्द

किसी से प्यार करने पर
बहुत कुछ साथ चले आता है उसका
होना हमेशा खुद से ज्यादा हो जाता है

(१२ जुलाई को अधूरी लिखी...आज दर्द में पूरी की...इसका अधूरापन कुछ जियादा ही साल रहा था)

17 July, 2010

ख़ामोशी के दोनों छोर पर

एक शोर वाली रात थी वो, एक भागते शहर की एक बेहद व्यस्त शाम गुजरी थी अभी अभी, बहुत सी निशानियों को पीछे छोड़ते हुए. अनगिनत होर्न, आँधियों वाली एक बारिश, अँधेरा सा दिन, सहमा सा सूरज...दर्द की कई हदों को छूते और महसूस करते हुए एक लड़की सड़क के किनारे भीगते हुयी चल रही थी, उसका चेहरा बिजली की चमक में सर्द दिखने लगता था. उसके उँगलियाँ एकदम बर्फ हो गयीं थीं, सदियों में किसी ने उसकी हथेली को चूम के पिघलाया नहीं था. सुनहली आँखें, जिनमें अभी भी कोई लपट बाकी दिखती थी, गोलाई लिए चेहरा मासूमियत से लबरेज. खूबसूरती और दर्द का एक ऐसा मेल की देखने वाले को उसके जख्मों की खरोंच महसूस होने लगे.
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उस रात मैं मर जाना चाहती थी, इतनी बारिश इतना अँधेरा दिन, घर भूला हुआ छाता, यादों का ऐसा अंधड़...तन्हाई का ऐसा शोर. बस स्टाप से घर की दूरी...उसपर हर इंसान की ठहरती हुयी नज़र. इनको क्या मेरी आँखों का सारा दर्द नज़र आता है, इतनी बेचारगी क्यों है सबकी आँखों में...सहानुभूति...जैसे की ये समझ रहे हों हालातों को. नौकरी का आखिरी दिन था आज...ये तीसरी जगह है जहाँ से इसलिए निकाला गया की मैं खूबूरत हूँ. बाकी लोग काम पर ध्यान नहीं लगा पाते. उसने भी तो इसलिए मुझे छोड़ा था क्योंकि मुझे घूरते बाकी लोग उसे बर्दाश्त नहीं होते थे. रोज के झगडे, इतना सज के मत निकला करो, बिंदी तक लगाना बंद कर दिया मैंने...माँ कहती थी काजल लगाने से नज़र नहीं लगती...शायद मुझे नज़र लग गयी है.

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कांपते हाथों से उसने फ़ोन लगाया...एक बार उसकी आवाज सुन लेती तो शायद जिंदगी जीने लायक लगने लगती...फ़ोन पर किसी तरफ से कोई कुछ नहीं बोला...

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घर पहुँचते ही बेटी दौड़ के गले लग गयी. वो लगभग बेहोश हो चुकी थी...आँखें खुली तो सुबह की धूप खिड़की से आ रही थी...उसने देखा बेटी की आँखों का रंग बेहद सुनहला था, उसकी खुद की आँखों की तरह.
जिंदगी फिर से जीने लायक लगने लगी.

12 July, 2010

इश्क की बाइनरी थीसिस

ऑफिस का बहुत सारा काम अटका पड़ा है, रात भी अधूरी, ठिठकी खड़ी है...और कितने चित्र, कितने वादे आँखों में  ठहरे हैं, गुजरते ही नहीं. हाथ का दर्द हद से जियादा बढ़ता जा रहा है, लिखना भी अजीब मजबूरी होती है. पढ़े बिना फिर भी जिया जा सकता है, लिखे बिना...कुछ ऐसा महसूस होता है जैसे खाना नहीं नहीं खाया हो.

कोई सदियों बाद फ़ोन पर पूछता है, वापस नहीं आ सकती...वो कहती है, नहीं बहुत दूर आ गयी हूँ, तुमने पुकारने में बहुत देर कर दी. वो लौटती नहीं है, मुमकिन नहीं था. पर अब भी किसी अधूरी ठिठकी हुयी रात उसके चेहरे की बारीकियों को अपने चश्मे से साफ़ करने में देर कर रही है. ऑफिस का काम पड़ा हुआ है.

किसी प्रोफाइल में गूगल उससे पूछता है, बताओ ऐसा क्या है जो मैं तुम्हें नहीं बता सकता...वो बंद आँखों से टाईप करती है 'वो मुझे याद करता है या नहीं?' गूगल चुप है. पराजित गूगल अनगिनत तसवीरें उसके सामने ढूंढ लाता है. बर्फ से ढके देश, नीली पारदर्शी सुनहली बालुओं किनारों के देश. उसकी तसवीरें बेतरह खूबसूरत होती हैं. वेनिस, परिस, वियेना कुछ शहर जो इश्क की दास्तानों में जीते लगते हैं आज भी. उसकी आवाज सुनकर आज भी वो भूल जाती है कि वो क्या कर रही थी. हाँ, वो गूगल से पूछ रही थी, बताओ दिल के किसी कोने में मैं  हूँ कि नहीं, क्या कभी, दिन के किसी समय वो मुझे याद करता है कि नहीं. गूगल खामोश है. वो गूगल को नाराज भी तो नहीं कर सकती...ऑफिस का काम जो है, आज रात ख़त्म करना होगा.

इश्क जावेदा...सच, पूछो उसकी थकी उँगलियों से...बचपन का प्यार, उफ़. उसकी उँगलियाँ कितनी खूबसूरत थी, और वो जब कम्पूटर पढाता था कितना आसान लगता था. उसके जाते ही सब कुछ बाइनरी हो जाता था, जीरो और वन...वो मुझसे प्यार करता है - वन, वो मुझसे प्यार नहीं करता- जीरो. डेरी मिल्क, उसीने तो आदत लगायी थी...कि आजतक वो किसी से डेरी मिल्क शेयर नहीं करती.

यादें अब भी बाइनरी हैं...वो मुझे याद करता है ...वन...यस...हाँ
वो मुझे याद नहीं करता...जीरो...नो...नहीं

07 July, 2010

सपनो का अनजानी भाषाओँ का देश

इतना मुश्किल भी नहीं है
अभी इन्सान पर भरोसा करना

भाषिक आतताइयों के देश में
किसी साधारण उन्माद वाले दिन
वो नहीं करेंगे तुमसे बातें

मगर किसी अनजानी भाषा के देश में
भूखे नहीं मरोगे तुम
अहम् जिजीविषा से ज्यादा नहीं होता

इसी विश्वास से
बांधो यथार्थ और चलो
सपनों की तलाश में

कहीं मिलेगा खँडहर
नालंदा की जल चुकी किताबों में
हिमालय में कुछ पांडुलिपियाँ

इतिहास से निकलेगा
कोई रास्ता किसी देश का
एक मानचित्र सपनो का

आँख मूँद कर चल देना
सपनो का देश घूमने
लौट आना है जल्दी ही

ज्यादा दिन नहीं हैं जब मुश्किल होगा...इन्सान पर भरोसा करना 

23 June, 2010

सायलेंट रीडर

मेरी छत से उसकी बालकनी दिखती है. मैंने उसे कई बार आसमान में जाने क्या ढूंढते देखा है. वो लड़की भी अजीब सी है...खुद में हँसती, सोचती, उदास होती...शाम को उसका चेहरा उदास दीखता है, मालूम नहीं ये शाम के रंगों का असर है या कुछ और. उसे अक्सर फ़ोन पर बातें करते देखा है...बस देखा भर है क्योंकि उसकी आवाज कभी नहीं आती, हालाँकि बहुत कम अंतर है, कुछेक फीट का बस. कभी कभी उसकी हंसी अचानक से बिखर जाती है. वो जब भी हँसती है मुझे छत पर गेहूं सुखाती अपनी बहन याद आती है.

कल मैंने उसे पहली बार सिगरेट पीते देखा...पता नहीं क्यों झटका सा लगा. मैंने उसका चेहरा ध्यान से नहीं देखा है कभी. मुझे मालूम नहीं कि वो पास से कैसी दिखती होगी. मेरी छत से शाम के धुंधलके में बस कुछ कुछ ही दीखता है उसका चेहरा. एक आध बार सड़क पर चलते भी देखा है, शायद वो ही थी पर मैं पक्का नहीं कह सकता. उसके मूड का पता उसके बालों से लग जाता है...जब उसका मूड अच्छा होता है तो उसके बाल खुले होते हैं, इतनी उंचाई पर घर होने से हवा अच्छी आती है, और उसके बाल बिखरे बिखरे रहते हैं. 

वो लाइटर से खेल रही थी, उसकी आँखों की तरफ लपकती आग डरा रही थी मुझे. अचानक से ऐसा लगा कि उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी हैं. ऐसा मुझे लगना नहीं चाहिए क्योंकि मैंने उसका चेहरा पास से कभी नहीं देखा है. मुझे ये भी लगा उसके बाल सफ़ेद हो गए हैं. याद करने की कोशिश करता हूँ तो ध्यान आता है कि मुझे इस घर में आये, साल भी तो बहुत बीत गए हैं. इतने सालों में उसने कब सिगरेट पीनी शुरू की मुझे पता ही नहीं चला.

डूबता सूरज, वो और मैं तीनो एक अजीब रिश्ते में बंधे हैं...जब भी कोई एक नहीं होता है तो लगता है दिन में कुछ अधूरा छूट गया है. आज लग रहा है कि कुछ टूट रहा है, उसकी बालकनी में लोहे के बड़े जंगले लग रहे हैं. शायद उसके बच्चे शहर से बाहर रहने लगे हैं, और उनके हाल में लौटने का कोई आसार नहीं आ रहा है. मुझे ये बालकनी के ग्रिल में रहते लोग हमेशा जेल के कैदी जैसे लगते हैं. आजकल उसकी हंसी कम सुनाई देती है. घर पर बहन भी कहाँ अब गेहूं सुखाती है, अब तो मार्केट में बना बनाया आटा मिलता है. गेहूं धोना, सुखाना कौन करता है अब.

कुछ दिनों से बादल छाये हैं, सूरज बिना बताये डूब जाता है. शाम का आना जाना पता ही नहीं चलता...पूरे पूरे दिन बारिशें होती हैं...वो कई दिनों से बालकनी में नहीं आई. मेरा दिन अधूरा सा बीतता है...रिश्ते कई तरह के होते हैं ना. मुझे लगता है सूरज भी उसको मिस करता होगा. 

तेज दर्द हो रहा है सर में, संडे की पूरी दोपहर खट खट होती रही है, कहीं काम चल रहा है शायद बढई या मिस्तरी का...शाम एकदम खिली हुयी हुयी है. बस थोड़े से बादल और धुला नीला आसमान. मेरा बेटा आजकल शायद छुप के सिगरेट पीता है, शाम को छत पर क्या करता है रोज के रोज. हो सकता है किसी लड़की का कॉल भी आता हो. सोच रहा हूँ उससे बात कर लूं, बहुत दिनों बाद छत पर चढ़ता हूँ. अब कुछ भी शारीरिक काम करने में आलस भी बहुत आता है, थकान भी होती है. 



छत पर उस बालकनी में उसकी बेटी है, शायद विदेश से पढाई पूरी कर के लौट आई है. ग्रिल भी गायब है, मिस्तरी इसी ग्रिल को हटाने का काम कर रहे थे सुबह से शायद. मेरा बेटा एजल पर एक बालकनी पेंट कर रहा है पेंटिंग आधी बनी है. उस लड़की के बाल खुले हैं और हवा में उसका हल्का नीला दुपट्टा लहरा रहा है. 

15 June, 2010

dusk - the ethereal curtain fall

the sky is a simple halo...dark clouds around the setting sun, a whispering goodbye to all things beautiful and natural...like the rays of light...like sunshine.


i tend to float...push lightly from the tip of my toe and waft in the outgoing breeze from my 8th floor cubicle. i think of freedom. of souls that stay forever in infinity...of ghosts trapped between life and death...of a shadow quietly leaning on the shoulder of my memories.


sadness takes a brush, dips it in the overflowing oceans and paints a tear near the corner of my eye...i touch it to find it has moistened my heart and choked my breath. my fingers are stuck in the bottle of the yellow i wanted to paint the canvas with...words are getting lost...again.


an ink bottle has rolled all the way down to the corner of the sky, it wants a monochromatic rainbow. i listen to a montage from wong kar wai's film. minimise the video on my desktop and dream of the character in the film that says "if memory has an expiry date, let it be 10,000 years".


instrumental music lets you paint, just you need to be moving with the notes. and keep the piano moving. i think its a good accompaniment to memories...very un-disturbing...very smooth. i can't believe i still sketch those eyes...light brown ones...honey colour as they say...with a black pencil...and i see those colours. 


love touches you for a moment, and changes you forever...tinting you sunsets to a shade of honey.


my soul misses its companion. 

14 June, 2010

कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी

बारिशों में खोयी हो
अलसाई सी सोयी हो
थकी हो उदास हो
हाँ, मेरे आसपास हो
वहीँ से लौट आओ जिंदगी

ठहरा सा लम्हा है
भीगी सी सडकें हैं
चुप्पी सी कॉफ़ी है
बुझी सी सिगरेट है
वहीं बिखर जाओ जिंदगी

वो चुप मुस्कुराता है
हौले क़दमों से आता है
छत पे सूरज डुबाता है
अच्छी मैगी बनाता है
उससे हार जाओ जिंदगी

इश्क की थीसिस है
डेडलाइन की क्राईसिस है
जिस्म की तपिश है
रूह की ख्वाहिश है
इसमें उलझ जाओ जिंदगी

शब्द होठों पे जलते हैं
कागज़ पे खून बहता है
आँखें बंजर हो जाती हैं
शहर मर जाता है
अब अंकुर उगाओ जिंदगी

अब भी वापसी की राह तकती हूँ
कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी. 

13 June, 2010

किस्सागो चाँद

एक अकेला चाँद बिचारा, इतने टूटे हारे दिल...सबकी तन्हाई का बोझ थोड़ा भारी नहीं हो जाता है उसके लिए. सदियों सदियों इश्क की बातें सुनता, लोग उसे सब कुछ बताते, दिल के गहरे सारे राज. चाँद एक बहुत बड़ा किस्सागो है, देर रात तारों के नन्हे नौनिहाल उसे कहानियां सुन के सोते हैं...वो बताता उन्हें इंसानों के किस्से. छत पर आते जाते ताका झांकी करते उसने बहुत कुछ देखा है...चाँद की कहानियां हमेशा शुरू होती 'बहुत दूर धरती पर एक लड़का रहता था...' और नन्हे तारे सपनों में उस लड़के को देखने लगते...जो लड़का चाँद से बातें करता था...तारों की आँखें मुंदने लगती और वो जल्दी सो जाते.

पर चाँद इत्ता भोला और मासूम नहीं था...लेकिन होशियार था, जानता था कि बच्चो को कहानियों में डराना अच्छी बात तो नहीं है. यही कहानियां चाँद जब जवान होते सितारों को सुनाता तो उन्हें सब बताता, कैसे एक लड़के का दिल टूटा, कैसे वो घंटों पहरों रोता था, कैसे उसे रात भर नींद नहीं आती, इसलिए वो चाँद से बात करता था...पर चाँद बेईमानी करता था कई बार, ये नहीं बताता कि लड़की भी रोती थी...उस लड़के से बिछड़ने के बाद...कि वो खिड़की से चाँद को देखती, उसे लगता चाँद एक आइना बन गया है, वो चाँद से मिन्नत करती एक बार उस लड़के का चेहरा दिखा दो...दुआएं देती चाँद को, कि वो सदियों चमकता रहे. पर चाँद उसकी बात नहीं मानता. वो तड़पती, बिलखती रहती पर चाँद नहीं मानता.

चाँद के माथे पर पड़ी झुर्रियां सदियों के अनुभव से आई हैं. इसलिए वो नहीं दिखाता उस रोते तड़पते लड़के का चेहरा...लड़की परेशान ही सही, जी रही थी ...उसका दर्द देखकर वो ना जीते में ना मरते में रहती..चाँद भले पत्थर का था...पत्थरदिल नहीं था. चाँद मुस्कुराता कि सब दर्द भूल जाएँ...रात को चांदनी के फाहे रखता दिलों के जख्मों पर. ईद आती, लोग चाँद को दुआएं देते...चाँद एक और कहानी अपनी झोली में समेट लेता.
किस्सों का कारोबार चलता रहता...साल दर साल.  

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बहुत पहले का लिखा कुछ...

कभी कभी तुम्हारे मुंह से अपना सुनने के लिए कुछ इस तरह से तरस जाती हूँ कि दिल करता है तुम्हारी आवाज के सिक्के ढलवा लूं, जब दिल चाहे मुट्ठी में भर के खनखना लूं. आँचल के छोर में बाँध के दिन भर घूमूं. कभी कभी तुम बहुत याद आते हो मेरे चाँद...

सुबह अखबार में खबर थी, साल का सबसे खूबसूरत चाँद उगा था...मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा...मैं अकेली छत पर खड़ी थी और चाँद सिर्फ...अकेला लगा. 

11 June, 2010

जन्मदिन के फलसफे


मुझे इस बार अपने जन्मदिन से डर लग रहा था. यूँ तो बहुत ज्यादा नंबरों पर ध्यान नहीं देती हूँ पर ये संख्या थी ही ऐसी कि घबराहट होने लगी. कल मेरा जन्मदिन था, और मैं सत्ताईस साल की हो गयी. कोई बहुत बड़ी घटना नहीं थी ये...देश दुनिया में बहुत कुछ उलट पुलट हो रहा था...या यूँ भी कह सकते हैं कि दुनिया में कहीं कुछ भी नहीं हो रहा था. सब ठहरा हुआ था, अपराधियों को सजा नहीं मिल रही थी, कुछ फरार थे...इन्साफ मांगते लोग थक गए थे आदि.

२६ फिर भी बहुत हद तक पच्चीस के आसपास लगता है. मुझे नहीं मालूम कि सोलह वाला खास होना क्या होता है, पर पच्चीस वाला ख़ास होना बड़े अच्छे से महसूस किया है. और ये जिंदगी का एक बेहद खूबसूरत हिस्सा था. २७ एकदम तीस के पास लगता है, आंटी कहलाने वाला डर...नकार दिया जाने वाला डर...जिजीविषा ना होने वाला डर. और मैं काफी दिनों से मन ही मन परेशान हो रही थी, कि इत्ती उम्र हो गयी, सब बच्चे हैं ऑफिस में मेरे सामने, वगैरह.

इन सब के बावजूद कल मुझे बहुत अच्छा लगा. कुणाल कल रात हमको बिना बताये कार में उठा के चलता बना...हमने जैसे सदियों बाद थोड़ा वक़्त साथ बिताया. साथ डिनर किया और खाना भी बहुत अच्छा था...वापसी में केक उठाये और घर आके काटा और जन्मदिन मनाया. दिन में ऑफिस वालों के साथ खाने पर बाहर गए...और रात में फिर कुणाल के साथ बाहर खाना, पर ये बस एक फटाफट इन्तेजाम टाइप्स था.

मुझे वक़्त मिलता है तो अपने बारे में सोचती हूँ...और मुझे लगा कि किसी भी चीज़ को समझने के लिए पहले उसको पूरी तरह जानना जरूरी है, सारी तहों को खोलकर फुर्सत में एक एक बारीकी को समझना जरूरी है...मैंने वक़्त निकाल के यह किया...और मुझे अच्छा लगा. खुद को बहुत हद तक जाना मैंने और अब जाके थोड़ा थोड़ा समझने लगी हूँ. ये अपनेआप में एक बेहद खूबसूरत अहसास होता है.

I knew while walking on this path called life...that to understand yourself, first you need to know yourself thoroughly, inside out...and then you understand what or who you really are...and from here the first seed of acceptance are sown...this someday might grow into a larger and better understanding of the world around me...and this is very comforting.

इसलिए अब मुझे घबराहट नहीं होती. मैं समझती हूँ कि बचपना नहीं कर सकती, नहीं करना चाहिए पर बच्चे की मासूमियत और शरारत होना कोई गलत बात नहीं है किसी भी उम्र में. अंग्रेजी में कहते हैं ना "there is a difference between childish and child like" कुछ कुछ वैसा ही.

और मैंने जाना कि जिंदगी में कुछ चीज़ें जरूरी होती हैं, जैसे मन की शांति...ये अपना काम पूरी ईमानदारी से करने से आती है, काम यानि सिर्फ ऑफिस का काम नहीं...कुछ भी काम. और ये कि जिंदगी में कौन से लोग जरूरी हैं...ये भी कि सब कुछ होते हुए भी कुछ ऐसा है जो मेरा सिर्फ अपना है, जो मैं किसी से बाँट नहीं सकती, बांटना नहीं चाहती...ये जो मेरा है...यही मैं हूँ...मेरी पहचान.
मैंने ये भी समझा, एक बेहद उतार चढाव वाले दिन में...कि ख़ुशी या ग़म, कोई भी हमेशा नहीं रहता...तो यकीन होना चाहिए कि वक़्त गुज़र जाएगा. ये हमेशा से जानती थी, पर माना आज के दिन ही. और हर दौर की एक अपनी जरूरत होती है, और उसके आने से जिंदगी वो होती है जो वो है.
हर ख़ास दिन मेरा इस बात में विश्वास गहरा जाता है कि जिंदगी में प्यार से जरूरी कुछ और नहीं है. कि किसी के साथ बिताये चंद लम्हे कितने दिनों की मुस्कान का सबब बने रहते हैं. कि इश्क सदाबहार होता है...कि उसपर कभी पतझड़ का मौसम नहीं आता...कि मैं लकी हूँ कि मेरी जिंदगी में कुणाल है.

ये वाली तस्वीर मेरी सबसे पसंदीदा है...एक २७ साल की पूजा का...जिसकी आँखों में मुझे एक ढाई साल की पम्मी भी दिखती है.

जन्मदिन मुबारक मेरी जान! ... 27 whatever...sweetheart...you rock!

09 June, 2010

The breaking dawn

Writing is my salvation
my escape from the grim realities of life
my acceptance of the harder responsibilities

words hold my hand
take me to a shore of undulating waves
take me to an orchestra of silence

black and white merge
to give shape to my inner conflicts
to paint in shades of light and dark grey

i revolt against myself
try to make sense of the madness unleashed
try to rise from the ashes like a phoenix

the barriers are there
to protect from the frightening unknown
to forbid the exultation of discovery

blood stained paper
does justice to a bleeding heart
does justice to a spirit on fire

i die. i am born.

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