30 July, 2009

इंतज़ार और सही...

हमेशा मेरे हिस्से ही क्यों आती हैं
याद वाली सड़कें...जिनपर साथ चले थे
बेतरह तनहा सा लगता है वो मोड़
जहाँ हम मिलते थे हर रात
घर तक साथ जाने के लिए...

हमेशा मैं ही क्यों रह जाती हूँ अकेली
घर के कमरों में तुम्हें ढूंढते हुए
नासमझ उम्मीदों को झिड़की देती
दरवाजे पर बन्दनवार टाँकती हुयी
इंतज़ार के दिन गिनती हुयी

हमेशा मुझसे ही क्यों खफा होते हैं
चाँद, रात, सितारे...पूरी रात
अनदेखे सपनों में उनींदी रहती हूँ
नींद से मिन्नत करते बीत जाते हैं घंटे
सुबह भी उतनी ही दूर होती है जितने तुम

हमेशा तुमसे ही क्यों प्यार कर बैठती हूँ
सारे लम्हे...जब तुम होते हो
सारे लम्हे जब तुम नहीं होते हो


28 July, 2009

एक सबब जीने का...एक तलब मरने की...



कुछ जवाबों का हमें ता उम्र इंतज़ार रहता है...खास तौर से उन जवाबों का जिनके सवाल हमने कभी पूछे नहीं, पर सवाल मौजूद जरूर थे...और बड़ी बेचारगी से अपने पूछे जाने की अर्जी लिए घूमते थे...और हम उससे भी ज्यादा बेदर्द होकर उनकी अर्जियों की तरफ़ देखते तक नहीं थे...


जिसे नफरत तोड़ नहीं सकती...उपेक्षा तोड़ देती है, नफरत में एक अजीब सा सुकून है, कहीं बहुत गहरे जुड़े होने का अहसास है, नफरत में लगभग प्यार जितना ही अपनापन होता है, बस देखने वाले के नज़रिए का फर्क होता है...


कुछ ऐसे जख्म होते हैं जिनका दर्द जिंदगी का हिस्सा बन जाता है...बेहद नुकीला, हर वक्त चुभता हुआ, ये दर्द जीने का अंदाज ही बदल देता है...एक दिन अचानक से ये दर्द ख़त्म हो जाए तो हम शायद सोचेंगे कि हम जो हैं उसमें इस दर्द का कितना बड़ा हिस्सा है...जिन रास्तों पर चल के हम आज किसी भी मोड़ पर रुके हैं, उसमें कितना कुछ इस दर्द के कारण है...इस दर्द के ठहराव के कारण कितने लोग आगे बढ़ गए...हमारी रफ़्तार से साथ बस वो चले जो हमारे अपने थे...इस दर्द में शरीक नहीं...पर उस राह के हमसफ़र जिसे इस दर्द ने हमारे लिए चुना था।


मर जाने के लिए एक वजह ही काफ़ी होती है...पर जिन्दा रहने के लिए कितनी सारी वजहों की जरूरत पड़ती है...कितने सारे बहाने ढूँढने पड़ते हैं...कितने लोगों को शरीक करना पड़ता है जिंदगी में, कितने सपने बुनने पड़ते हैं, कितने हादसों से उबरना पड़ता है और मुस्कुराना पड़ता है...


मौत उतनी खूबसूरत नहीं है जितनी कविताओं में दिखती है...


कविताओं में दिखने जैसी एक ही चीज़ है...इश्क...एक ही वजह जो शायद समझ आती है जीने की...प्यार वाकई इतना खूबसूरत है जितना कभी, कहीं पढ़ा था...और शायद उससे भी ज्यादा...


और तुम...बस तुम...वो छोटी सी वजह हो मेरे जीने की...


27 July, 2009

तुम जो गए हो...

तुम होते हो तो...
खूबसूरत लगती है, ट्रेन की खिड़की
बाहर दौड़ते खेत, पेड़, मकानों से उठता धुआं
डूबते हुए सूरज के साथ रंगा आसमान...

तुम होते हो तो...
कुतर के खाती हूँ, बिस्कुट, या कोई टॉफी
आइस क्रीम जाड़ों में भी अच्छी लगती है
मीठी होती है तुम्हारे साथ पी गई काफ़ी...

तुम होते हो तो...
खुशी से पहनती हूँ ४ इंच की हील
१० मिनट में तैयार हो जाती हूँ साड़ी में
भारी नहीं लगती दो दर्जन चूड़ियाँ हाथों में

तुम जो गए हो तो...
अँधेरा लगा एअरपोर्ट से घर तक का पूरा रास्ता
स्याह था आसमान पर उड़ते बादलों का झुंड
शुष्क थी बालों को उलझाती शाम की हवा

तुम जो गए हो तो...
फीका पड़ गया है डेयरी मिल्क का स्वाद
अधखुला पड़ा है बिस्कुट का पैकेट
बनी हुयी चाय कप में डाल के पीना भूल गई

तुम जो गए हो तो...
तह कर के रख दी हैं मैंने सारी साड़ियाँ
उतार दी हैं खनकती चूड़ियाँ
निकाल ली है वही पुरानी जींस

तुम जो गए हो तो...
अधूरा हो गया है सब कुछ
आधी हँसी...आधी रोई आँखें
आधी जगह खाली हो गई है अलमारी में

तुम जो ले गए हो...
मुझको बाँध सात समंदर पार
आधी ही रह गई हूँ मैं यहाँ
अकेली से भी कम...एक से भी कम

तुम जो गए हो...
मुश्किल है...हँसना, खाना, रहना
तुम जो गए हो...
बहुत मुश्किल हो गया है...जीना

15 July, 2009

दरमयां

दरमयां
हमारे तुम्हारे...एक ख्वाब है...पलकों पर ठहरा हुआ
देखो ना, अरे...क्यों यूँ फूंक मार कर उड़ा रहे हो
क्या बच्चो की तरह इन पर यकीन करते हो

दरमयां
एक राज़ सा है...तुमसे छुपाया हुआ मैंने
इश्क के हद की गहराइयाँ भला बताते हैं किसी को
तो तुम्हें कैसे बता दूँ कितना प्यार है

दरमयां
कुछ शब्द हैं, कुछ कवितायें तुम्हारी
जो लिखते नहीं हो तुम और पढ़ती नहीं हूँ मैं
पर जानती हूँ मैं और ये जानते हो तुम

दरमयां
वक्त है, खामोशी है...हमारा होना है
फ़िर भी...दरमयां कुछ भी नहीं है...
क्योंकि होना तो हमेशा से है...और हम भी

03 July, 2009

पुरानो शेई दिनेर कोथा

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

रविन्द्र नाथ टैगोर का लिखा ये गीत यहाँ हेमंत मुखर्जी ने गाया है....

ये गीत बचपन की सोंधी यादों की तरह बेहद अजीज है मुझे। उस समय सीडी या कैसेट आसानी से नही मिलता था...और पापा को गानों का बहुत शौक़ था। तो उपाय एक ही था...हमारे पास दो टेप रिकॉर्डर थे...और उसमें से एक में हमेशा एक blank casette रहता था...cue किया हुआ, जब भी टीवी या रेडियो पर कुछ अच्छा आता, उसे हम रिकॉर्ड कर लेते.

देवघर, दुमका और झारखण्ड के कई प्रान्तों में बांगला संस्कृति की गहरी छाप है, मेरे पापा को भी बांग्ला से बड़ा लगाव है, और रबिन्द्र संगीत हमारे घर में बचपन से गूंजता रहा है। कई बार होता है कि किसी एक वक्त चेहरे धुंधले पड़ जाते हैं, पर आवाजें, या कुछ खुशबुयें हमेशा साथ रहती है।

इस गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही है...एक भी बोल समझ में नहीं आता था, पर गाना इतना मधुर था कि इसकी धुन कितने दिन गुनगुनाती रहती थी। कई शामें याद आती हैं, सन्डे को पापा, मम्मी, जिमी और मैं, टेप रिकॉर्डर को घेर कर बैठे रहते थे और पापा चुन चुन कर कई सारे अच्छे गाने हमें सुनवाते थे। मम्मी अक्सर खाने को पकोड़ा या ऐसा ही कुछ बनाती थी...और अधिकतर ये वो शामें होती थीं जब बारिश होती रहती थी...क्योंकि उस वक्त हमारे पास हमारा प्यारा राजदूत हुआ करता था, और बारिश में बाहर जाना कैंसल हो जाता था।

तो उन सन्डे को हम दोपहर में regional वाली फिल्में देखते थे दूरदर्शन पर...और शाम को गाने सुनते थे। पकोड़े के साथ घर का बना हुआ सौस या फ़िर पुदीना की चटनी। घर में कुएं के पास पुदीना लगा हुआ था...और मम्मी फटाफट उसकी चटनी पीस देती थी...अलबत्ता हम भाई बहन लड़ते थे, कि तुम जाओ तोड़ने...और मैं चूँकि बड़ी थी तो आर्डर पास करने का हक मुझे था। अक्सर होता ये था कि खींचा तानी में दोनों को ही जाना पड़ता था।

कुर्सी पर बैठ कर हम अक्सर पाँव झुलाते रहते थे(उस वक्त छोटे थे हम तो पाँव नीचे नहीं पहुँचता था) और मम्मी से डांट खाते थे कि पाँव झुलाना अच्छी बात नहीं है। कैसेट की वो खिर खिर की आवाज, जैसे गाने का ही हिस्सा बन जाती थी। या फ़िर कई बार गाने के पहले वाले प्रोग्राम की आवाज। इसी तरह महाभारत के बीच में दो पंक्तियों का गीत आता था, वो भी रिकॉर्ड था। फ़िर कुछ सेरिअल्स में ऐसे ही गाने आते थे, जैसे नीम का पेड़, पलाश के फूल, और थोड़ा सा आसमान...इनके गीत कितने दिन सुने हम सबने।

अब कुछ भी पाना कितना आसान हो गया है बस गूगल करो और सब सामने...पर उस गीत को कैसे ढूंढें जिसके बोल ही मालूम नहीं हों...ये गीत बहुत दिन, बहुत से बांगला गीत सुनने के बाद आज मिला है। आज इसके बोल भी ढूंढ लिए मैंने...यादों की खिड़की से झांकती है एक शाम...और बादलों की गरज, सोंधी मिट्टी की महक, पकोडों के स्वाद के साथ पापा की आवाज जैसे पास में सुनाई देती है... जब पापा ये गाना गाते थे...कभी कभी.
वाकई पुराने दिन कहीं भुलाये जा सकते हैं...

Purano shei diner kotha
Bhulbi kii re
Hai o shei chokher dekha, praaner kotha
Shaykii bhola jaaye

Aaye aar ektibar aayre shokha
Praner majhe aaye mora
Shukher dukher kotha kobo
Praan jodabe tai

Mora bhorer bela phuul tulechi, dulechi dolaaye
Bajiye baanshi gaan geyechi bokuler tolai
Hai majhe holo chadachadi, gelem ke kothaye,
Abaar dekha jodi holo shokha, praner majhe aai

01 July, 2009

याद के दामन का लम्हा

याद के दामन से छिटक के आया एक लम्हा
रातों रातों आँखें गीली कर गया

उदास राहों में संग दोस्तों के
तुम्हें भूलने की वजहें तलाशती रही

कहानियों के दरमयान रह गए कोरे पन्ने
अनकहा लिखती रहती सुनती रही

कब से अजीब ख़्वाबों में उलझी हूँ
जिंदगी के मायने बिखर के खो गए हैं

दर्द यूँ टीसता है...जैसे मौत से बावस्ता है
और हम हैं की जख्म सहेजे हुए हैं

ऐसा नहीं कि कोई आस है तुमसे बाकी
हम उस लम्हे में ही अब तक ठहरे हुए हैं

19 June, 2009

विदाई


अरसा बीता घर के आँगन में खेले
शीशम से आती हवाएँ बुलाती हैं बहुत
झूले की डाली पर टंगी रह गई हैं कुछ कहानियाँ

उस मिट्टी में जड़ें गहराती हैं
माँ के साथ रोपे गए नारियल की
सुना है कि पानी बहुत मीठा है उसका

हर मौसम कई बार बिछा है फूलों का कालीन
मेरे कमरे को हर बीती शाम महका देती है कामिनी
मेरे कहीं नहीं होने के बावजूद भी

आम के मंजर मेरे ख्वाबों में आते हैं
बौरायी सी सुबह संग लिए
कोयल कूकती रहती है फ़िर सारा दिन

हर साल आता है रक्षाबंधन
बस भाई नहीं आता परदेस में मिलने
यादें आती हैं, घर भर में उसको दौड़ा देने वालीं

नहीं जागती हूँ अब भोर के साढ़े तीन बजे
पापा की लायी मिठाई खाने के लिए
नींद से उठ कर बिना मुंह धोये

घर से, शहर से....यादों के हर मंजर से
मेरी विदाई हो गई है...

15 June, 2009

चंद अल्फाज़...



उसे उसकी हदें मालूम थीं
मुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई

-----------------------------------------
उसकी मंजिलें और थीं
मेरे मंजिलें कहीं और थी
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
-------------------------------------------

13 June, 2009

किस्सा ऐ किताब...दिल्ली से बंगलोर

दिल्ली की यूँ तो बहुत सी बातें याद आती रहती हैं, पर जिस चीज़ के लिए दिल सबसे ज्यादा मचलता है, वो है सीपी में घूमते हुए किताबें खरीदना। जब भी किताबों का स्टॉक ख़तम हो जाता, हम सीपी की तरफ़ निकल पड़ते, फ़िर से खूब सारी किताबें खरीदने के लिए। और सैलरी आने के बाद तो सीपी जाना जैसे एक नियम सा हो गया था, जैसे कुछ लोग मंगलवार को हनुमान मन्दिर जाते हैं, हम महीने की पहली इतवार सीपी पहुँच जाते थे।

कितनी ही गुलज़ार की किताबें, कुछ दुष्यंत के संकलन और जाने कितने नामी गिरामी शायरों की किताबें खरीदते रहते थे...कहानियाँ भी बहुत पढ़ी थी यूँ ही खरीद कर। कई ऐसे भी शायरों के कलाम हाथ में आए जिनका कभी नाम भी नहीं सुना था पर पढने के बाद एक अजीब सा सुकून और अनजाना सा रिश्ता जुड़ते गया उनके साथ।

और देर शाम हरी घास पर बैठ कर जाने कितने सपने देखे...कितने सूरजों को डूबते देखा। मूंग की वादियाँ हरी चटनी के साथ खाएं...दोस्तों के साथ गप्पें मारीं... ६१५ पकड़ कर हॉस्टल आना बड़ा सुकून देता था, चाहे हाथ कितना भी दर्द कर जाएँ...किताबों का भारीपन कभी सालता नहीं था।

बंगलोर आने के बाद यही हिन्दी किताबें कहीं नहीं मिल रही थीं और हम अपना रोना सबके सामने रो चुके थे...फुरसतिया जी की एक पोस्ट पढ़ कर प्रकाशन के मेंबर बनने के बारे में भी सोच रहे थे, पर आलस के मारे apply ही नहीं किए। फ़िर ऑफिस में एक काम आया...बंगलोर के पुराने लैंडमार्क में एक है, गंगाराम बुक स्टोर, कहाँ कई पीढियां किताबें खरीदती और पढ़ती रही हैं। अब क्रॉसवर्ड और लैंडमार्क जैसी मॉल में खुले बड़े स्टोर्स के कारण गंगाराम जैसे पारंपरिक बुक स्टोर्स में कम लोग जाते हैं। और आजकल MG रोड पर मेट्रो का काम चल रहा है जो काफ़ी दिनों तक चलने वाला है...इस कारण स्टोर को कहीं और शिफ्ट करना होगा। हम इसी सिलसिले में काम कर रहे थे तो मैंने सोचा की एक बार जा के देख लिया जाए कैसी जगह है।

तो पिछले सन्डे हम abhiyaan par निकल पड़े, दिल में ये उम्मीद भी थी की शायद कहीं हिन्दी की किताबें मिल जायें...क्योंकि अगर यहाँ नहीं मिली तो पूरे बंगलोर में कहीं मिलने की उम्मीद नहीं है। शाम के पाँच बज रहे होंगे, पर स्टोर बंद था...शायद कुछ काम रहा हो शिफ्टिंग वगैरह का...ham बगल वाले bookstore में चले गये...higgin bothams naam ka store tha...कुछ कुछ कॉलेज लाइब्रेरी की याद आ रही थी वहां किताबें देख कर...

और हमें आख़िर वो मिल ही गया जो इतने दिनों से ढूंढ रहे थे बंगलोर में...एक रैक पर खूब सारी हिन्दी किताबें, मैंने बहुत सारी खरीद लीं...अब उनके पास जिनता है उसमें मेरे खरीदने लायक कुछ नहीं बहका है...पर मेरे ख्याल से अगर मेरे जैसी लड़की हर वीकएंड जा के परेशां करना शुरू कर दे तो वो अपने हिन्दी किताबों का संकलन भी बढाएँगे। तो देर किस बात की है...बंगलोर में जो भी हैं, higgin bothams पहुँच जाइए और हिन्दी की किताबें खरीद लीजिये...हमारे जैसे कुछ और खुराफाती लोग इकट्ठे हो जाएँ तो यहाँ आया हुआ हिन्दी किताबों का अकाल जरूर समाप्त हो जाएगा :)

हमें यकीं हो गया है ढूँढने से कुछ भी मिल सकता है :)

10 June, 2009

२६ कि उमर...१६ का दिल( काश ६२ कि अकल भी होती :) )

२५ साल से २६ साल का होने में कितना अन्तर होता है? पूरी जिंदगी के हिसाब से देखें तो शायद कुछ भी नहीं, ये भी बाकी सालों की तरह एक उम्र की गिनती है। मगर महसूस होता है, की जिंदगी अब एक अलग राह पर चल पड़ी है।

मैंने जाने कब तो तय कर लिया था...की २५ पर बचपन को अलविदा कह दूँगी...यूँ तो बचपन उसी दिन विदा हो गया था जब माँ छोड़ कर गई थी...पर आज जब मैं २६ साल की हो गई तो वाकई लगा कि अब बचपन विदा ले चुका है।

और आप मानें या न मानें, हमें लगता है कि हम अब थोड़े ज्ञानी हो गए हैं :) (सुबह ताऊ की पोस्ट भी तो पढ़ी थी)।
जिंदगी बहुत कुछ सिखा देती है और मुझे लगता है कि जब से ब्लॉग पर लिखना और पढ़ना नियमित किया है, बहुत कुछ जानने सीखने को मिला है। ब्लॉग अक्सर लोग दिल से लिखते हैं, बिना काट छाँट के इसलिए ब्लॉग पढ़ना बिना किसी को जाने एक रिश्ता कायम करने जैसा है...आप किसी की खुशी, गम, जन्मदिन, बरसी सबमें शामिल होते हैं...कोई आपको अपना समझ कर लिखता है...आभासी ही सही, पर ब्लॉग के लोग भी परिवार जैसे हो जाते हैं। मैं कुछ ही लोगों से बात करती हूँ...पर रिश्ता तो उन सबसे है जिनका ब्लॉग मैं पढ़ती हूँ, या वो मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं।

जिंदगी में ज्यादा जोड़ घटाव नहीं किया, लगा कि यही सब करती रही तो जीने का वक्त कहाँ मिलेगा...पर आँखें बंद कर के जिंदगी के कुछ बेहतरीन लम्हों को यार करती हूँ तो लगता है...मैंने जिंदगी जी है और बेहद खूबसूरती से जी है। शिकायत है तो बस खुदा से, बस इतनी छोटी सी शिकायत कि मेरे साथ मेरी खुशियों में मेरी माँ क्यों नहीं है...अभी जब मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दौर शुरू हुआ है तो लगता है कि अपनी खुशियों को बाँटने के लिए उसको होना चाहिए था मेरे साथ।

पाने खोने का अजीब गणित होता है भगवान् का...इसके पचड़े में पढ़ने से कोई फायदा नहीं है...पिछले साल कुछ लोगों से फ़ोन पर बात हुयी मेरी, गाहे बगाहे होती भी रहती है, जैसे पीडी, कुश, डॉक्टर अनुराग, अपने फुरसतिया जी, ताऊ...और कुछ बेहतरीन लोगों से बात हुयी मेल पर...बेजी, सुब्रमनियम जी, गौतम जी, महेन जी...लगा कि अपने जैसे लोगों का दायरा उतना भी छोटा नहीं है जितना मैं हमेशा समझती आई थी। लम्हों के इस सफर में अगर घड़ी भर को भी कुछ दिल को छू जाता है तो अक्सर घंटों तक होठों पर मुस्कराहट रहती है। आप सब का शुक्रिया...कहीं कहीं आपको पढ़कर, समझ कर जिंदगी थोड़ी आसान और खूबसूरत महसूस हुयी है।



सुबह आँखें खोली मैंने
आसमान रंगों से लिख रहा था
जन्मदिन मुबारक...

हवायें गुनगुना रही थीं
सूरज थिरक रहा था उनकी धुन पर
खिड़की पर खड़ा था एक बादल
बाहर घूमने की गुज़ारिश लिए

इतरा के ओढ़ा मैंने
खुशबू में भीगा दुपट्टा
हाथों में पहनी इन्द्रधनुषी चूड़ियाँ
बालों को छोड़ दिया ऐसे ही बेलौस

ऑफिस वाले खींच कर
ले गए पार्टी मनाने
काम को बंक मारा
(भगवान् ऐसा बॉस सबको दे ;) )

तभी खिड़की से आया
कुश का बधाइयों का टोकरा
और अनुराग जी का भेजा बादल
दोनों के कहा...बाहर घूम के आओ

प्लान बन गया शाम को
लॉन्ग ड्राइव पर जाने का
थोड़ी आइसक्रीम, थोड़ा भुट्टा खाने का
और थोड़ा ज्यादा वक्त 'उनके' साथ बिताने का

२६ की उमर में आँखें ऐसे चमक रही है
जैसे १६ में चमकती थी
जिंदगी ने देखा मुस्कान को
काला टीका लगा के कहा "चश्मे बद्दूर"

07 June, 2009

ऐसा भी एक दिन ऑफिस का...


कमबख्त बादल
यादों का एक गट्ठर फेंक कर चल दिया है
मेरी ऑफिस टेबल पर

रिसने लगा है किसी शाम का भीगा आसमान
अफरा तफरी मच गई है
बिखरे हुए कागज़ातों में

डेडलाईनें हंटर लिए हड़का रही हैं
कुछ नज्में सहम कर कोने में खड़ी हैं
डस्टबिन ढक्कन की ओट से झांक रहा है

कम्प्यूटर भी आज बगावत के मूड में हैं
एक तस्वीर पर हैंग कर गया है
कलम-कॉपी काना फूसी कर रहे हैं

तभी अचानक खुल गई गाँठ
कितनी जिद्दी यादें भागा-दौड़ी करने लगीं
पूरा ऑफिस सर पर उठा लिया

मेरी यादों की हमशक्लें
सबकी दराजों में बंद थीं
सारी यादें हँसने लगी हैं बचपन वाली हँसी

एक क्षण में बाहर आ गया है
हमारे अन्दर का शैतान बच्चा
और हम सबने मिलकर...ऑफिस बंक कर दिया :)

04 June, 2009

इश्क की उम्र...



सदियों पुराने खंडहरों में
अक्सर अपनी रूह के हिस्से मिल जाते हैं
दीवारों में चिने हुए, चट्टानों पर खुदे हुए

कब के बिसराए हुए गीत
हवा की सरसराहट पर चले आते हैं
और धूल के गुबार में थिरकने लगते हैं


उभरने लगते हैं कुछ पुराने रंग
यादों को छेड़ते हैं अनजान चेहरे
टीसने लगता है जाने किस जन्म का इश्क

उजाड़ मंदिरों में होने लगता है शंखनाद
याद आने लगती हैं दुआएँ मज़ारों पर
साथ बैठा महसूस होता है इश्वर सा कोई

महसूस करती हूँ कि एक जिंदगी से
कहीं ज्यादा होती है इश्क की उम्र
तुमसे बिछड़ने का दर्द कुछ कम हो जाता है

30 May, 2009

शुक्रिया जिंदगी


आजकल तुमपर इतना प्यार आता है कि कुछ लिख ही नहीं पाती...काश तुम्हारी मुस्कान थोड़ी कम दिलकश होती, गालों पर पड़ते ये खूबसूरत गड्ढे नज़र नहीं आते, आँखें यूँ शरारत से नहीं मुस्कुरातीं

हर सुबह ऑफिस जाना कितना मुश्किल हो जाता है जब तुम्हें उनींदा सा दरवाजे पर देखती हूँ...बिना सुबह की चाय पिए तुम्हारी आँखें ही नहीं खुलतीं...मेरा भी आधा घंटा और सोने का मन करने लगता है

और वो कमबख्त लिफ्ट...इतनी जल्दी क्यों आ जाती है....वक्त थोड़ा धीरे क्यों नहीं बीतता सुबह

__________________________

घर का ताला खोलकर अंधेरे घर में कदम रखना, ट्यूब जलना...जो भुक भुक करके कितनी तो देर में जलती है, मुझे कभी भी बल्ब जलने का मन क्यों नहीं करता...वो खूबसूरत झूमर जो हॉल में लगा hai कभी तो उसकी बत्ती जलाऊं, बिजली बचने की चाह कभी उतने सारे बल्ब जलाने ही नहीं देती तुम कैसे इतने आराम से आते ही सीधे झूमर ऑन कर देते हो...जब भी तुम्हारे बाद घर आती हूँ तो लगता है किसी परियों वाले महल में गई हूँ

तुम्हारे साथ खाना खाना कितना अच्छा लगता है...और तुम हो भी इतने अच्छे कि कुछ भी बनाऊं उतनी ही खुशी से खाते हो, वो भी तारीफ़ कर कर के। साथ खाने से प्यार बढ़ता है...ऐसा भी लोग कहते हैं

बस तुम्हारे होने भर से, जिंदगी कितनी खूबसूरत हो गई है...कितने रंग, कितनी खुशबुयें और कितने ख्वाब...

मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ...मेरी जिंदगी में यूँ ही चले आने का शुक्रिया

26 May, 2009

किस्सा ऐ लेट रजिस्टर: भाग २

क्या बताएँ, इच्छा तो हो रही थी की किस्सा लिखने के बजाये भाग लें...शीर्षक भी कुछ ऐसी ही प्रेरणा दे रहा है...भाग दो-भाग लो। पर हमें भाग लो में वो मज़ा कभी नहीं आया जो फूट लो में आता है, कट लो में आता है...(निपट लो में भी आता है :) )

जैसा कि आप सब लोग जानते हैं, भारत एक स्वतंत्र देश है, हमारे संविधान में लिखा है कि हम पूरे भारत में कहीं भी नौकरी कर सकते हैं, घर खरीद सकते हैं, शादी कर सकते हैं(गनीमत है, वरना भाग के शादी करने वाले कहाँ भागते...खैर!)। किसी भी राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिए कोई रोक टोक नहीं है(हम बिहार बंद या भारत बंद की बात नहीं कर रहे हैं)। इतने सारे अधिकार होने कि बात पर हम बहुत खुश हो जाते हैं, बचपन से हो रहे हैं सिविक्स की किताब में पढ़ पढ़ कर।

खैर, मुद्दे पर आते हैं...इतना सब होने के बावजूद...हमारे अधिकारों को चुनौती देता है हमारा नेता, जी हाँ यही नेता जिसे हम घंटों धूप में खड़े होकर वोट देकर जिताते हैं। और अगर मैं ऑफिस देर से पहुँची...और मेरे तनखा कटी, तो इसी नेता से माँगना चाहिए...नेताजी मुझ गरीब को और भी कम पैसे मिलेंगे, क्या आपका ह्रदय नहीं पसीजता...क्या आपकी आत्मा क्रंदन नहीं करती(भारी शब्द जान के इस्तेमाल किए हैं, दिल को तसल्ली पहुंचे कि नेताजी हमारे भाषण को समझ नहीं पाये)

जैसा कि आप पहले से जानते हैं...मेरा ऑफिस घर से साढ़े तीन मिनट की दूरी पर है...मैं तकरीबन १० मिनट पहले निकलती हूँ...कि टाईम पर पहुँच जाऊं। कल और आज मैं बिफोर टाइम निकली क्योंकि सोमवार को भीड़ ज्यादा होती है इसका अंदाजा था मुझे। तो भैय्या कल तो हम बड़े मजे से फुर फुर करते फ्ल्योवर पर पहुँच गए...आधे दूरी पर देखा कि लंबा जाम लगा हुआ है। और अगर आप फ्ल्योवर के बीच में अटके हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता...अरे भाई उड़ के थोड़े न पहुँच जायेंगे, अटके रहो, लटके रहो। monday कि सुबह का हैप्पी हैप्पी गाना दिमाग से निकल गया...और मैथ के जोड़ घटाव में लग गए...पहुंचेंगे कि नहीं। एकदम आखिरी मिनट में ऑफिस पहुंचे और मुए लेट रजिस्टर कि शकल देखने से बच गए।

जी भर के भगवान् को गरिया रहे थे, कि जाम लगना ही था तो पहले लगते, किसी शोर्टकट से पहुँच जाते हम..ई तो भारी बदमासी है कि बीच पुलवा में जाम लगाय दिए...भगवान हैं तो क्या कुच्छो करेंगे...गजब बेईमानी है. और उसपर से बात इ थी कि हमारी गाड़ी में पेट्रोल बहुत कम था, क्या कहें एकदम्मे नहीं था...बहुत ज्यादा चांस था कि रास्ते में बंद हो जाए। उसपर जाम, उ भी पुल पर, डर के मरे हालत ख़राब था कि इ जाम में अगर गाड़ी बंद हुयी तो सच्ची में सब लोग गाड़ी समेत हमको उठा के नीचे फ़ेंक देंगे।

लेकिन हम टाइम पर पहुंचे, पेट्रोल भी ख़तम नहीं हुआ tab भी भगवान को गरिया रहे थे, तो बस भगवान् आ गए खुन्नस में...आज भोरे भोरे १०० feet road पर ऐसा जाम लगा था कि आधा घंटा लगा ऑफिस पहुँचने में...जैसे टाटा ने nano बनाई कि हर गरीब आदमी अब कार में चल सकता है, ऐसे ही कोई कंपनी हिम्मत करे और सस्ते में छोटा हेलीकॉप्टर दिलवाए. पुल पे अटके बस बटन दबाया और उड़ लिए आराम से। भले ही समीरजी की उड़नतश्तरी को इनिशियल ऐडवान्टेज मिले पर हम आम इंसानों का भी उद्धार हो जाएगा.

और मैंने लिखा की बड़ाsssss सा ट्रैफिक जाम था, इसलिए लेट हो गया...आज की तनखा कटी तो नेताजी पर केस ठोक देंगे और ढूंढ ढांढ के बाकी लोगों के भी साइन करा लेंगे जो नेताजी के कारण देर से पहुंचे. मामला बहुत गंभीर है, और इसपर घनघोर विचार विमर्श की आवश्यकता है. नेताओं का कहीं भी निकलना सुबह आठ बजे से ११ बजे तक वर्जित होना चाहिए. इसलिए लिए हमें एकमत होना होगा...भाइयों और बहनों, मेरा साथ दीजिये, और बंगलोर में जिन लोगों को आज ऑफिस में इस नेता के कारण देर हुयी, मुझे बताइए. जब मैं केस ठोकुंगी तो आपका साइन लेने भी आउंगी.

मेरी आज की तनखा अगर नहीं कटी...तो मैं उसे किसी गरीब नेता को दान करने का प्रण लेती हूँ.

24 May, 2009

उस खिड़की के परदे से...


वो सारी शामें जब तुम मेरी गली से गुजरे थे
रातों को मेरे कमरे में पूरा चाँद निकलता था

तुमको मालूम नहीं हुआ कभी भी लेकिन
उस खिड़की के परदे से तुम जितना ही रिश्ता था

तुमसे बातें करती थी तो हफ्तों गजलें सुनती थी
हर शेर के मायने में अपना आलम ही दिखता था

वो सड़कें मेरे साथ चली आयीं हर शहर
जिस मोड़ पर रुकी इंतज़ार तेरा ही रहता था

जाने तू अब कितना बदल गया होगा
मेरी यादों में तो हमेशा नया सा लगता था

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...