13 November, 2013

थ्री डेज ऑफ़ समर

यूँ रोज़ का जीना तो हो ही जाता है तुम्हारे बगैर. तुम्हारी आदत ऐसी भी कुछ नहीं है कि बदन से सांस छीन ले जाए. हाँ एक दिल है ज़ख़्मी जो गाहे बगाहे दुखता रहता है. नसों में धड़कन की रफ़्तार थोड़ी मद्धम सही, तुम्हारे बिना कई साल और जीने का माद्दा तो है मुझमें.

कभी कभार ही ऐसे बेसाख्ता याद आती है तुम्हारी. लू के थपेड़ों में जलते बदन के ताप जैसी. माथे पर लहकी आग जैसी. जंगल में फूले पलाश जैसी. चारों ओर फिर कुछ नहीं बचता एक तुम्हारे नाम के सिवा. तुम्हारा है ही क्या मेरे पास जो जोग के रखूं मैं. ले देकर कुछ तसवीरें हैं, कुछ वादे, झूठे मूठे, कुछ कहानियों के किरदार हैं तुम्हारी तरफदारी करते हुए. तुलसी चौरा में जल ढारते हुए कभी तुमको सोच लिया था. हनुमान जी की ध्वजा पर अटका हुआ तुम्हारा इंतज़ार है...पुरवा में बहता...दस दिशाओं को एक अधूरी इश्क की दास्तान कहता. चाचियों के ताने में जहर सा घुलता. यूँ तुम्हारे बिना पहले भी जीना कोई नामुमकिन तो नहीं था, मुश्किलों में जीने की आदत गयी कहाँ थी. तुम थे तब भी तो हज़ार परेशानियाँ थी जिंदगी में.

बिट्टू की फीस भरनी थी...माँ के लिए नयी साड़ियाँ लानी थीं. बड़की दीदी के नंदोई को बेटा हुआ था. हफ्ते भर का भोज रखा था उसकी सास ने. गुड्डू के हॉस्टल में पैसे भेजने थे. रोज रोज की जिंदगी में  बारिश के झोंके की तरह ही तो आये थे तुम. यूँ तुमने कभी कोई वादा भी तो नहीं किया था कि एक तुम्हारे होने से सर पर हमेशा गुलमोहर की छाँव रहेगी...अमलतास के गीत रहेंगे...तितलियों की उड़ान रहेगी. जिंदगी होम ही तो कर दी थी मैंने घर के लिए, अपने घर के लिए. आखिर बड़ी बेटी का भी कुछ फ़र्ज़ होता है. तो क्या हुआ अगर मेरे होने पर माँ ने अनगिन ताने सुने थे...तुम बस सूखी हवा की तरह लहकाने आये थे मेरी आंच को. तुम जितने दिन रहे...कितने ताप से जलती थी मेरी अंतरात्मा.

आँखें बंद करने से रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती मगर हम अँधेरे के लिए बेहतर तैयार हो जाते हैं. मैं जानती थी तुम्हारा छल. सदियों से. जैसे कि कृष्ण को महाभारत का अंत...फिर भी अपना कर्म तो करना ही था. तुम्हारे आने पर अगर मैं बदल जाती तो तुम कितने बड़े हो जाते. जो किसी के लिए कभी न बदली, तुम्हारे लिए कोई और हो जाती तो शायद खुद से जिंदगी भर आँख न मिला पाती. अभी भी मेरा इतना अभिमान तो है कि मैंने तुम्हें अपनी तरह से चाहा. तुम्हारे आने का मौसम था...तुम्हारे जाने का मौसम है.

अच्छा सुनो, तुम सच में कह पाते थे इतना सारा झूठ? थियेटर के नामचीन कलाकार हो...शब्द, रंग, रौशनी पर तुम्हारी बेहतरीन पकड़ है ये तो मानना पड़ेगा. इतने सालों से नियत लोगों के सामने लाइव परफोर्म करते आ रहे हो. ऑडियंस का मूड समझते हो...उसके हिसाब से स्क्रिप्ट में भी वहीं बदलाव कर देते हो. मुझसे भी ऐसा ही था न प्यार तुम्हारा? तुम्हारी आवाज़ की मोड्यूलेशन ऐसी थी कि लगता था दुनिया की सारी तकलीफें ख़त्म हो गयी हैं. तुमने वो तीन शब्द अनगिनत लोगों को कई माहौल और मूड में बोले होंगे, हर बार उनकी पसंद और मूड भांपते हुए. लेकिन सुना है कि बहुत सारे किरदार जीने से एक्टर भूल जाता है कि वो वाकई में कैसा है. उसकी ओरिजिनल हंसी कैसी है...बिना मिलावट का प्यार कैसा है...अनगिन मुखौटे लगाने वाले लोगों के लिए आइना भी कारगर नहीं होता...हमेशा कोई और अक्स दिखाता है. शायद किसी के आँखों में तुम अपने आप को पा सकते. मगर तुम्हें खोना कहाँ आता है...जरा सा अपने को गिरवी नहीं रखोगे तो कैसे पाओगे कुछ भी वापसी में. लेकिन तुम्हें इसकी चाहत नहीं होगी शायद. तुम सिर्फ जायका बदलने के लिए इश्क को करते हो. झूठ को जीना तुम्हारे लिए खुशनुमा रहा है. इसलिए तुम्हारे हिस्से मेरी दुआएं नहीं हैं.

तुम यूँ ही दफन रहो शहर के बाहर की परती जमीन पर नागफनियों के साथ. मुझे जाने क्यूँ तुम्हारा क़त्ल कर देने का अफ़सोस कभी नहीं नहीं होता है. अफ़सोस यूँ तो तुमसे इश्क करने का भी कभी नहीं होता है. जबसे तुम्हें दफनाया है इत्मीनान रहता है कि किसी रात तुम अपने हिस्से का इश्क मांगने नहीं पहुँच जाओगे. मैंने तुम्हारे जैसा भिखारी कहीं नहीं देखा. गरीब से गरीब आदमी बुद्ध के लिए अपनी झोली से एक मुट्ठी अनाज दे सकता था मगर तुम ऐसे कृपण थे कि अपनी ओर से बुआई के लिए अन्न तक नहीं देते.  यूँ तुम्हारा क़त्ल अपने हाथों करने की जरूरत नहीं थी...किसी और से भी करवा सकती थी मगर सुकून नहीं आता.

ठंढ के दिन थोड़े मुश्किल होते हैं मानती हूँ मगर इतना भी नहीं कि तुम्हारी आवाज़ के अलाव के बिना रात ठिठुरते हुए मर जाए. वो दिन याद हैं जब तुम्हारी आवाज़ को ऊन की तरह उँगलियों में लपेट कर कविताओं का मफलर बुना था. नर्म पीले रंग का. उस सर्दियों में मेरा गला  कभी ख़राब नहीं हुआ. इन जाड़ों में सोच रही हूँ अपने पुराने प्यार कीट्स से फिर से इश्क कर बैठूं, सच ही कहता था न...

“I almost wish we were butterflies and liv'd but three summer days - three such days with you I could fill with more delight than fifty common years could ever contain.” 
― John Keats

27 October, 2013

रात का इन्सट्रुमेंटल वेपन दैट किल्स इन साइलेंस

पिछली पोस्ट से आज तक में दस ड्राफ्ट पड़े हुए हैं. ऐसा तो नहीं होता था. अधूरेपन के कितने सारे फेजेस में रखे हुए हैं. सलामत. स्नोवाइट की तरह. गहरी नींद में. सेब का एक टुकड़ा खा लेने के कारण शापित.
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कितनी सारी कहानियां हैं अधूरी. बचपन के किस्से कुछ. टूटे हुए कविता की पंक्तियाँ कहीं. किसी अनजान शहर से आती आवाज़ तो कहीं समंदर किनारे की आवाज़. पॉकेट में मुट्ठी भर भर के रेत है. ये कुछ भी बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े हैं. जेबों में यूँ तो समंदर से उठा कर दो मुट्ठी खारा पानी भरा था मगर जाने क्या हुआ कि पानी तो सारा समंदर में वापस चला गया बस ये किचकिच करती रेत रह गयी है. समंदर कितना निष्ठुर हो गया है. एक मुट्ठी पानी से उसमें कौन सा अकाल पड़ जाता. क्या मिला मेरे हिस्से का थोड़ा सा पानी वापस मांग के.

मुझे दुनिया में जो सबसे वाहियात काम लगता है वो है अपने लिखे को वापस पढ़ना. हालत ऐसी थी कि एक्जाम में कभी पेपर रिविजन तक नहीं कर पाती थी. जितने मार्क्स काटने हैं कट जायें. पर्फेकशनिष्ट की एक ये भी किस्म होती है मेरे जैसी. जिसको अपना किया कुछ कभी अच्छा ही नहीं लगता...कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना कुछ लिखा भी जाता है. जैसे एक कदम आगे चलके दो कदम पीछे चलना.

मुझे एक महीने की छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. समंदर जरूरी है. दिमाग का ये ज्वारभाटा कहीं उतरता नहीं है. हालाँकि इतने सालों में मुझे आदत पड़ जानी चाहिए. नवम्बर. दिसंबर. जाड़ों के ये सर्द दिन बुखार के होते हैं. हरारत के. बिना नींद आँखों वाली बेचैन रातों के. मगर आदत है कि गलत चीज़ों की पड़ती है. अच्छी चीज़ों की पड़ती नहीं. दो किताबें पढ़ीं. इतनी बुरी लगीं...वाकई इतनी बुरीं कि आग लगा देने का मन किया. पापा से बात कर रही थी तो पापा कह रहे थे दुनिया में हर तरह की चीज़ होती है...तुम इतना एक्सट्रीम क्यूँ सोचती हो. पिछले सन्डे ऐसी ही एक किताब में बर्बाद कर दी थी. उम्मीद बड़ी कमबख्त चीज़ होती है. पूरी किताब ये सोच कर पढ़ गयी कि कमबख्त कुछ तो अच्छा होगा आखिर इतने सारे लोग क्या गधे हैं. इसके बाद तौबा कर ली...अपनी पसंद की किताब पढूंगी...और जो किताब शुरू में अच्छी नहीं लग रही उसे छोड़ देने में ही भलाई है. देवघर में होती तो शायद वाकई एक धामा उठा कर लाती और किताबों में आग लगा देती. यहाँ दीवारें काली हो जायें शायद. खतरनाक किस्म की अजीब इंसान हूँ शायद. वक़्त बर्बाद होने पर सबसे ज्यादा कोफ़्त होती है.

मगर फिर कहीं कोई खुदा है कि जो बैलेंस बरक़रार रखता है. कुछ लोग होंगे जिनकी दुआओं का टोकन अप्रूव्ड हो जाता होगा. एक बेहतरीन फिल्म देखी 'सिनेमा पैराडिसो', तब से लगातार उसका ही थीम स्कोर सुन रही हूँ. इस अद्भुत दुनिया में जितना जानो उतना ही मालूम चलता है कि कुछ नहीं आता...अभी तो कुछ नहीं देखा. कई सारी ख्वाहिशों में एक ये भी थी कि कलर लेंस लगाऊं. टु डू लिस्ट से एक आर्टिकल कटा. नीले लेंस ख़रीदे थे. अपनी ही आँखों पर फ़िदा हुयी जा रही थी. चूँकि मेरी आँखें गहरी काली हैं इसलिए लेंस भी ऐसा था कि जिसमें रेखाएं थीं कि काले से मिलजुल कर ही रंग आया था आँखों का. गहरा नीला. कन्याकुमारी से दूर दीखते समंदर के रंग जैसा. फ़िल्मी. ड्रामेटिक.

एकदम खाली. निर्वात. बारिश के बाद के बाढ़ जैसा बाँध तोड़ने वाला उफान. अबडब. कुछ बीच में नहीं कि गंभीर नदी की तरह तयशुदा रास्ते पर चलते रहे नियमित. तमीजदार. उम्र के इस सिरे पर भी बचपना बहुत सा और जिंदगी से अजीब दीवाने किस्म की मुहब्बत. कभी कभी तो ऐसा भी लगा है कि लिखना छूट गया है अब शायद कभी नहीं लिख पाउंगी. मौसम की तरह होता है न सब. फेज. गुजरने वाला. कलमें हैं. जाने कितने रंगों की सियाही खरीद कर लाइन लगा रखी है. कभी कभी उपरवाले से बहुत झगड़ा करने का मन करता है. खुश हो न तुम...तुम्हें मुझसे क्या मतलब. अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी. चले आये मुंह उठा कर. मेरी बला से. हुंह. मैं नहीं बात कर रही तुमसे. कभी. मगर याद रखना एक दिन मेरी याद इतनी आएगी न कि इंसान बन कर धरती पर मिलने आओगे मुझसे.

नींद आ रही है. कमरे में सारी किताबें करीने से लगी हुयी हैं आजकल. उनकी कतार देख कर बड़ा सुकून होता है. लगता है कि दुनिया में कहीं कुछ बहुत अच्छा है. लगता है कहीं और रह रही हूँ आजकल. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसी हूँ मैं. कोई नब्ज़ पहचान कर मर्ज़ बताये. दवा बताये न सही चलेगा. जीने के लिए कुछ चीज़ें बेइन्तहा जरूरी होती हैं. ऊपर वाली तस्वीर मेरी डेस्कटॉप की है आजकल. टोनी की तस्वीर लगी है. थोड़ी धुंधली सी. मुझे हमेशा ऐसा महसूस होता है कि इसी दीवार के उस तरफ कोई परफेक्ट दुनिया है. इससे टिक कर एक सिगरेट पी लेने भर से कुछ दिन और जी लेने का हौसला आ जाता है. ऑफिस में एक पैकेट सिगरेट है. ब्लू डनहिल्स. साल भर में कोई दो सिगरेट पी होगी बमुश्किल मगर उस डब्बी का वहीं, वैसे ही, बिना बदले पड़ा होना अजीब सुकून देता है. इजाजत के इस सीन की तरह. 'सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं'.

लिखने को इतना कुछ हो जाता है. जीने को इतना कुछ कि चौबीस घंटे बहुत कम पड़ते हैं. बहुत कम. इतने में तो तमीज से एक तरकारी, भुनी हुयी रहर की दाल और भात तक नहीं बना के खा सकती रोज. कहाँ से चुराऊं थोड़ा सा और समय. थोड़ा दोस्तों से मिलने को. थोड़ी चढ़ी हुयी विस्की उतारने को. थोड़ी लिखी हुयी को फिर पढ़ने को. नीली आँखों में जो झांकती है वो कोई और है, मैं नहीं. मगर कसम से...कितना प्यार करती हूँ मैं उससे. कितना सारा.
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परसों तुम्हें गए हुए छः साल बीत जायेंगे. मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ. काश कि तुम्हारे जैसी हो पाती जरा जरा भी. तुम्हारी खुशबू मुट्ठी से बिसरती जा रही है मगर तुम कहीं नहीं बिसरती. इस जिंदगी में तो तुम्हारे बिना जीना नहीं आएगा रे.
I love you. Still. More than yesterday and less than tomorrow. 

06 October, 2013

इतवारी डायरी: सुख

ऑफिस के अलावा फ्री टाइम जो भी मिलता है उसमें मुझे दो ही चीज़ें अच्छी लगती हैं. पढ़ना या फिर लिखना. कभी कभी इसके अलावा गाने सुनना शामिल होता है. घर के किसी काम में आज तक मेरा मन नहीं लगा. कपड़े तार पर फैलाना जरा सा अच्छा लगता है बस. इस सब के बावजूद, फॉर सम रीजन मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूँ, पंगा ये है कि खाना बहुत कम बनाती हूँ. उसमें भी मन से खाना बनाना बहुत ही रेयर ओकेजन होता है. कल दुर्गा पूजा शुरू हो गयी. पहली पूजा थी तो सोचा कि कुछ अच्छा करूँ. कुक आई तो नींद के मारे डोल रही थी सो उसे वापस भेज दिया. 


शायद त्योहारों के कारण होगा कि खाना बनाने का मूड था. उसपर घर में अब दस दिन प्याज लहसुन नहीं बनेगा तो खाना बनाना अपने घर जैसा लगता है. सब्जी के नाम पर खाली सीम था घर में. पहले सोचे कि पूड़ी सब्जी बनाएं फिर लगा कि पराठा बनाते हैं. पराठा के साथ बाकी चीज़ खाने का भी स्कोप होता है. फिर तेल में जीरा नहीं डाले बल्कि पचफोरना डाले. खाली फोरन अलग डालने से स्वाद का कितना अंतर आ जाता है ये देखने का दिन भी कभी कभी बनता है. सब सब्जी का बनते हुए अलग गंध होता है, हमको उसमें सीम का बहुत ज्यादा पसंद है. कल लेकिन बिना पूजा किये खा नहीं सकते थे तो खाली सूंघ के ही खुश हो लिए. सीम और छोटा छोटा कटा आलू, फिर मसाला डाल के भूने. फिर टमाटर डाल के और भूने. फिर ऐसे ही मन किया तो एक चम्मच दही डाल दिए. सरसों पीसने का बारी आया तो फिर कन्फ्यूज, हमको कभी नहीं याद रहता कि काला सरसों किसमें पड़ता है और पीला सरसों किसमें, काला सरसों पीसे मिक्सी में और थोड़ा सा सब्जी में डाले. लास्ट में नमक. 

तब तक देखे कि नीचे एक ठो सब्जी वाला है, उसके पास पालक था. उसको रुकने को बोले. भागते हुए पहले शॉर्ट्स चेंज किये. तमीज वाला पजामा पहने फिर नीचे गए तो देखे कि एक ठो बूढ़े बंगाली बाबा हैं साइकिल पर. बंगाली उनके टोन से बुझा गया. पता नहीं काहे...दुर्गा पूजा था इसलिए शायद. बहुत अच्छा लगा. घर जैसा. फिर पलक ख़रीदे, धनिया पत्ता, पुदीना, हरा मिर्ची...जितना कुछ था, सब थोड़ा थोड़ा ले लिए. अब ध्यान आया कि कितना अंतर आया है पहले और अब में. पन्नी लेकर आये नहीं थे, और अब दुपट्टा होता नहीं था कि उसी में बाँध लिए आँचल फैला कर. खैर. मुस्कुराते हुए आये तो लिफ्ट लेने का मन नहीं किया. फर्लान्गते हुए चार तल्ला चढ़ गए. ऊपर आये तो देखे गनीमत है कुणाल सो ही रहा है. 

फिर दाल में पालक डाल के चढ़ा दिए. धनिया पत्ता एकदम फ्रेश था तो सोचे चटनी बना देते हैं. फिर उस बूढ़े बाबा के बारे में सोच रहे थे. कहीं तो कोई कहानी पढ़े थे कि अपने अपने घर से सब बाहर निकलते जाते हैं, नौकरी के लिए, अंत में आखिर क्या मिलता है हाथ में. वही दो रूम का फ़्लैट खरीद कर रहते हैं लोग. पापा अपने गाँव से बाहर निकले. हम लोग देवघर से बाहर निकले. कल को हमारे बच्चे शायद किसी विदेश के शहर में सेटल हो जायें. रिफ्यूजी हैं हम लोग. अपने शहर से निकाले हुए, वही एक शहर हम अपने दिल में बसाए चलते हैं. खाना बनाते हुए पुराने गाने सुन रहे थे. बिना गाना बजाये हम कोई काम नहीं कर सकते. या तो पुराना गाना बजाते हैं, किशोर कुमार या रफ़ी या फिर सोनू निगम. इसके अलावा कोई पसंद नहीं आता हमें. 

कहते हैं त्यौहार के टाइम के खाना में बहुत टेस्ट होता है. कल खाना इतना अच्छा बना था कि क्या बताएं. दाल वैसी ही मस्त, चटनी एकदम परफेक्ट और सब्जी तो कालिताना था एकदम. कुणाल कितना सेंटी मारा कि रे चोट्टी, इतना बढ़िया खाना बनाती है, कभी कभी बनाया नहीं जाता है तुमको. आज बनायी है पता नहीं फिर अगले महीने बनाएगी. इतना अच्छा सब चीज़ देख कर उसको चावल खाने का मन करता है, तो भात चढ़ा दिए कूकर में. वो खाना बहुत खुश हो कर खाता है. हमको खाने से कोई वैसा लगाव नहीं रहा कभी. कभी भी खाना बनाते हैं तो यही सोच कर कि वो खा कर कितना खुश होगा. वही ख़ुशी के मारे खाना बना पाते हैं. 

कल कैसा तो मूड था. पुरानी फिल्मों टाईप. साड़ी पहनने का मन कर रहा था. परसों बाल कटवाए थे रात को तो कल अच्छे से शैम्पू किये. कंधे तक के बाल हो गए हैं, छोटे, हलके. अच्छा लगता है. चेंज इज गुड टाइप्स. भगवान को बहुत देर तक मस्का लगाए कल. शुरू शुरू में पूजा करने में एकदम ध्यान नहीं लगता है, बाकी सब चीज़ पर भागते रहता है. बचपन में नानाजी के यहाँ जाते थे हमेशा दशहरा में. आरती के टाईम हम, जिमी, कुंदन चन्दन सब होते थे. हम और कुंदन शंख बजाते थे, जिमी और चन्दन घंटी. आरती का आखिरी लाइन आते आते बंद आँख में भी वो ओरेंज कलर वाला मिठाई घूमने लगता था. इतने साल हो गए, अब भी आरती की आखिरी लाइन पर पहुँचती हूँ तो मिठाई ही दिखती है सामने. अजीब हंसने रोने जैसा मूड हो जाता है. शंख फूंकना अब भी दहशरा का मेरा पसंदीदा पार्ट है. 

खाना का के मीठा खाने का मन कर रहा था तो कल खीर भी बना लिए. गज़ब अच्छा बना वो भी. खूब सारा किशमिश, काजू और बादाम डाले थे उसमें. शाम को घूमने निकले. फॉर्मल सैंडिल खरीदने का मन था. वुडलैंड में गए तो माथा घूम गया. पांच हज़ार का सैंडिल. बाप रे! फिर कल एक ठो रे बैन का चश्मा ख़रीदे. बहुत दिन से ताड़ के रखे थे. हल्का ब्लू कलर का है. टहलते टहलते गए थे. दो प्लेट गोलगप्पा खाए कुणाल के साथ. फिर पैदल घर. मूड अच्छा रहता है तो रोड पर भी गाना गाते रहते हैं, थोड़ा थोड़ा स्टेप भी करते रहते हैं. कुणाल मेरी खुराफात से परेशान रहता है और मेरा हाथ पकड़े चलता है कि किसी गाड़ी के सामने न आ जाएँ हम. 

आज सुबह उठे सात बजे. धूप खाए. बड़ा अच्छा लगा. फिर सोचे कि दौड़ने चले जायें. अस्कतिया गए. रस्सी कूदने का महान कार्य संपन्न किये. ५०० बार. अपना पीठ ठोके. नौट बैड. ऐब क्रंचेस. १६ के तीन सेट. अब हम आज के हिस्से का खाना बाहर खाने लायक कैलोरी जला लिए हैं. काम वाली तीन दिन के छुट्टी पर गयी है. सुबह से कमर कसे कि बर्तन धोयेंगे. अभी जा के ख़तम हुआ है सारा. किचन चकचका रहा है. अब झाडू पोछा मारेंगे. फिर पूजा करेंगे और निशांत लोग के साथ बाहर खाने जायेंगे. कल एक नया शर्ट ख़रीदे थे लाल रंग का. आज वही पहनने का मूड है. नया कपड़ा पहनने के नामे मिजाज लहलहा जाता है. 

इतना काम करके बैठे हैं. देह का पुर्जा पुर्जा दुखा रहा है. एक कप कॉफ़ी पीने का मन है मगर अनठिया देंगे अभी. तैयार होके निकलना है. सोच रहे हैं सुख क्या होता है. कभी कभी घर का छोटा छोटा काम भी वैसा ही सुख देता है जैसे मन में आई कोई कहानी कागज़ पर उतार दिए हों. अभी दो ठो कहानी आधा आधा पड़ा है ड्राफ्ट में. उसको लिखेंगे नहीं. आराम फरमाएंगे. भर बैंगलोर भटक कर एगो व्हाईट शर्ट खरीदेंगे. कुणाल का माथा खायेंगे. बचा हुआ सन्डे आराम करेंगे. बहुत सारा केओस है पूरी दुनिया में. कितना कुछ बिखरा हुआ है. बहुत सी फाइल्स हार्ड डिस्क से कॉपी करनी हैं रेड वाले लैपटॉप में. एक फॉर्मल सैंडिल खरीदनी है. कपड़े धोने हैं. मगर अभी. मैं कुछ नहीं कर रही.

मैं खाना खाती हूँ तो वो बड़े गौर से देखता है. कल चिढ़ा रहा था कि मेरे इतना खाते वो किसी लड़की को नहीं देखा. उससे भी ज्यादा मैं खाती हूँ तो मुझे कोई गिल्ट फील नहीं होता. बाकी लड़कियां खाते साथ गिल्ट फील करने लगती हैं. वो अब भी ऐसे देखता है मुझे जैसे समझने की कोशिश कर रहा है कि कैसी आफत मेरे मत्थे पड़ गयी है. वो अब भी मुझे देख कर सरप्राइज होता है. एक फिल्म है 'पिया का घर' उसमें सादी सी साड़ी पहने गाना गाती है 'ये जीवन है, इस जीवन का, यही है, यही है, यही है रंग रूप...थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियाँ भी...यही है, यही है, यही है जिंदगी'. बस ऐसे ही किसी जगह हूँ आज. किसी फिल्म में जैसे. कैसी कैसी तो है जिंदगी. पल पल बदलती. मगर जैसी भी है जिंदगी. बहुत प्यार है इससे. 

01 October, 2013

आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.

लड़की हमारे एक रात के क़त्ल का इलज़ाम तुम्हारे सर.
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गिटार बजता है शुरू में...कहीं पहले सुना है. ठीक ऐसा ही कुछ. बैकग्राउंड में लेकिन चुभता हुआ कुछ ऐसे जैसे टैटू बनाने वाली सुई...खून के कतरे कतरे को सियाही से रिप्लेस करती हुयी...दर्द में डुबो डुबो कर लिखती जाती एक नाम. प्यास की तरह खींचती रूह को जिस्म से बाहर.

गीत के कई मकाम होते हैं...सुर बदलता है जैसे मौसम में हवाओं की दिशा बदलती है और तुम्हारे शहर का मौसम मेरे शहर की सांस में धूल के बवंडर जैसा घूमने लगता है. गहरे नीले रंग का तूफ़ान समंदर के सीने से उठा है हूक की तरह, मुझे बांहों में भरता है जैसे कहीं लौट के जाने की इजाजत नहीं देगा. आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.
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इधर कुछ दिन पहले शाम बेहद ठंढी हो गयी थी. जाने कैसे मौसम बिलकुल ऐसा लग रहा था जैसे दिसंबर आ गया है. जानते हो, दिसंबर की एक गंध होती है, ख़ास. जैसे परफ्यूम लगाते हो न तुम, गर्दन के दोनों ओर. तुमसे गले मिलते हुए महसूस होती है भीनी सी...खास तौर से वो जो तुम ट्यूसडे को लगाते हो. मेरी कहानियों में दिसंबर वैसा ही होता है...नीली जींस और सफ़ेद लिनन की क्रिस्प शर्ट पहने हुए, कालरबोन के पास परफ्यूम का हल्का सा स्प्रे. जानलेवा एकदम. दाहिने हाथ में घड़ी. लाल स्वेड लेदर के जूते. आँखें...हमेशा लाईट ब्राउन...सुनहली. उनमें हलकी चमक होती है. गहरे अँधेरे में भी तुम्हारी आँखों की रौशनी से तुम तक पहुँच जाऊं...घुप्प अँधेरे में दूर किले की खिड़की में इंतज़ार के दिए जैसी अनथक लौ.
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देर रात जाग कर लिखने के मौसम वापस आ रहे हैं. दिल पर वही घबराहट का बुखार तारी है. दिल के धड़कने की रफ़्तार लगता है जैसे ४०० पार कर चुकी हो. मेरी कहानियों का इश्क एक ख़ास एक्सेंट में बोलता है. मेरा नाम भी लेता है तो लगता है कोई पुरानी ग्रीक कविता पढ़ कर सुना रहा हो बर्न के फाउंटेन में भीगते हुए. कभी मिले तुमसे तो उससे पाब्लो नेरुदा की कविता सुनना. मूड में होगा तो पूछेगा तुमसे, तुमने ये कविता सुनी है...सुनी भी होगी तो कहना नहीं सुनी...पढ़ी भी होगी तो कहना नहीं पढ़ी है...फिर वो तुम्हें अपना लिखा कुछ सुनाएगा...उस वक़्त मेरी जान खुद को रोक के रखना वरना समंदर में कूद कर जान दे देने को दिल चाहेगा. खुदा न खास्ता उसका गाने का मूड हो गया तब तो देखना कि धरती अपने अक्षांश पर घूमना बंद कर देगी. रेतघड़ी में रुक जाएगा सुनहले कणों का गिरना. तुम्हारे इर्द गिर्द सब कुछ रुक जाएगा. सब कुछ. खुदा जैसा कुछ होता है इसपर भी यकीं हो जाएगा. सम्हलना रे लड़की उस वक़्त.
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देखना उसकी तस्वीर को गौर से रात के ठहरे पहर. ऐतबार करना इस बात पर कि हिचकियों ने उसे सोने नहीं दिया होगा रात भर. खुश हो जाना इस झूठ पर और आइस क्यूब्स में थोड़ी और विस्की डाल लेना. पागल लड़की, बताया था न, ऐसी रात कभी भी लिख दूँगी तुम्हारी किस्मत में...फिर अपनी पसंद की सिगरेट खरीद कर क्यूँ नहीं रखी थी? मत दिया करो लोगों को अपनी सिगरेट पीने के लिए. देर रात तलब लगने पर कार लेकर एयरपोर्ट चली जाना. ध्यान रहे कि स्पीड कभी भी १०० से कम नहीं होनी चाहिए. दिल करे तो १२० पर भी चला सकती हो और अगर बहुत प्यार आये तो १३० पर. न, जाने दो. बड़ी प्यारी कार है, ऐसा करना १०० से ऊपर मत चलाना. कहीं किसी एक्सीडेंट में खुदा को प्यारी हो गयी तो इश्क का क्या होगा.
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उससे जब भी मिलना ऐसे मिलना जैसे आखिरी बार मिल रही हो. उसका ठिकाना नहीं है. एक बार जिंदगी में आये फिर ऐसा भी होता है कि ताजिंदगी इंतज़ार कराये और दुबारा कभी नज़र भी न आये. तुमने उसे देखा नहीं है ना लेकिन, पहचानोगी कैसे? तो ऐसा है मेरी जान...इश्क आते हुए कभी पहचान नहीं आता. सिर्फ उसके जाते हुए महसूस होता है कि वो जा चुका है. उसके जाने पर ऐसा लगेगा जैसे समंदर ने आखिरी लहरें वापस खींच ली हों...दिल ने पम्प कर दी है खून की आखिरी बूँद...लंग्स कोलाप्स कर रहे हों ऐसा निर्वात है चारों ओर. उसके जाने से चला जाता है जिंदगी का सारा राग...रात की सारी नींद...भोर का सारा उजास.
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सामान बांधना और चले जाना नार्थ पोल के पास के किसी गाँव में रहने जहाँ तीन महीने लगातार दिन होता है और फिर पूरे साल रात ही होती है एक लम्बी रात. रात को नृत्य करते हुए लड़के दिखेंगे. गौर से देखना, उसकी खुराफाती आँखें दिखेंगी मेले में ही कहीं. सब कुछ बदल जाता है, उसकी आँखें नहीं बदलतीं. बाँध के रख लेती हैं. गुनाहगार आँखें. पनाह मांगती आँखें. क़त्ल की गुज़ारिश करती आँखें.
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वो कुछ ऐसे गले लगाएगा जैसे कई जन्म बाद मिल रहा हो तुमसे. बर्फ वाले उस देश में औरोरा बोरियालिस तुम्हें चेताने की कोशिश करेगा...पल पल रंग बदलेगा मगर तुम उसकी आँखों में नहीं देख पाओगी खतरे का कोई भी रंग. वो डॉक्टर के स्काल्पेल को रखेगा तुम्हारी गर्दन पर और जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली रेखा...जैसे शायर लिखता है अपनी प्रेमिका के नाम का पहला अक्षर...जैसे बच्चा सीखता है लिखना आयतें...तीखी धार से तुम्हारी गर्दन पर चला देगा कि मौत महसूस न हो.
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सफ़ेद बर्फ पर लिखेगा तुम्हारे लहू के लाल रंग से...आई लव यू...तुम्हारी रूह मुस्कुराएगी और कहेगी उससे...शुक्रिया.

30 September, 2013

तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट

फोन की घंटी बजती रहती है लगातार...ऑफिस की बेजान दीवारों के सिवा कोई नहीं सुनता. लेट नाईट शिफ्ट्स इल्लीगल हो गयी हैं मगर लेट नाईट नींद न आने पर किसी ऑफिस के लैंडलाइन पर फोन करना अभी भी इलीगल नहीं हुआ है. याद की बेतरह सतरें होती हैं. ब्लैंक काल्स के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मोबाईल फोन की दुनिया में लैंडलाइन ओब्सोलीट होकर ख़त्म होने की कगार पर ही है. जिस दुनिया में उसने इश्क करना सीखा था, उस दुनिया की आखिरी कुछ निशानियों में से था लैंडलाइन. ये मिस काल्स के पहले की दुनिया थी. जहाँ सिर्फ संख्याओं का मोर्स कोड चलता था. वो लड़की जिसे चार में से दो घटाने के लिए भी उँगलियों का इस्तेमाल करना होता था, उसे साढ़े तीन रिंग पर फोन काटना भी आता था और जवाबी ढाई रिंग सुनकर समझना भी आता था कि छत पर ठीक ढाई बजे दोपहर में कपड़े पसारने हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लू चल रही है कि सूरज मनमानी पर उतरा है. उसकी बाईक उसी समय गुज़रेगी उधर से. बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे. झीने दुपट्टे के पार से उसे देखेगी तो कोई गर्मी उसे छू भी सकेगी भला. नीम की ठंढी छाँव जैसी थी उसकी नज़र. जिस रोज़ आता, सारे दुपट्टों का रंग सतरंगी हो जाता था.

उस वक़्त कितने लोग शामिल थे उनके मिलने की साजिश में. मोहल्ले के परचून की दूकान वाली दीदी. उसे खुल्ले पैसे के बदले जिस दिन डेरी मिल्क देती, उसकी शामों में मिठास घुल आती. फिर अक्सर कुएं का पम्प ख़राब हो जाए वो ऐसा मनाती रहती. भगवान भी उन दिनों उसके साथ था उसपर कुछ तो गर्मी का मौसम मेहरबान था. अक्सर पम्प एयर ले लेता. फिर उसके घर कोई बुतरू दौड़ाया जाता, गर्मी में वो भागते हुए आता. अक्सर खाली बदन होता था. सांवले रंग पर पसीना कैसा चमकता था. वो पम्प की नली में कुएं से पानी भर रहा होता और लड़की किनारे से पुदीना के पत्ते तोड़ रही होती उसके लिए शरबत बनाने के लिए. दुपट्टा कमर में बांधे सिलबट्टे पर पुदीना पीसती. जल्दी जल्दी शरबत बनती. स्टील के बड़े से गिलास में शरबत लिए लौटती. बाल्टी से पानी बराती उसके लिए. वो हाथ मुंह धोता, कोई गमछा नहीं होता तो अक्सर उसके दुपट्टे में ही हाथ मुंह पोंछता. शरबत पी कर उसके चेहरे पर तरावट आ जाती और लड़की के चेहरे पर लाली. फिर पूरी रात दुपट्टा गले में डाले यूँ सोती जैसी उसकी बाँहें हों. कैसी नींद आती, कैसे सपने आते, कैसा लजाया सा दिन गुज़रता फिर.

गर्मी के दिन कितने तो लम्बे होते थे और लम्बे दिनों के कितने काम उसके हिस्से आता था. बाग़ जा कर आम के टिकोले तुड़वाना. लड़की अपना दुपट्टा फैलाये टिकोला लोकने के लिए तैयार रहती थी. अचार के लायक आम जुट जाते थे तो झोले में भर कर एक किनारे रख देते थे दोनों. वो चापाकल चलाता जाता, लड़की पानी के छींटे मारती चेहरे पर. क्रम बदलता और लड़का हाथ मुंह धोता. दरबान चाचा की चारपाई पर बैठ जाते. लड़की अपने दुपट्टे की छोर पर लगी गाँठ खोलती और नमक निकालती. उसकी हथेली में नमक होता और दोनों एक एक टिकोला दांत से काट कर खाते. दरबान चाचा से उनके बच्चे का हाल पूछते. लड़का थोड़ा ज्यादा बात करता उनसे, काकी उसे बहुत मानती थी तो अक्सर थोड़ा सा आम पन्ना भी बना देती. लड़की वहां बैठी ऐसा महसूस करती जैसे जिंदगी ऐसी ही रहेगी हमेशा. हर साल आम का मौसम ऐसे ही आएगा. अचार डाला जाएगा और दोनों काकी से ऐसे ही बात करते रहेंगे. कुछ साल में वो अपने बच्चों को भी यहाँ लेकर आएगी. तब तक वो नानी से अचार बनाना भी सीख लेगी. ऐसा सोचते सोचते वो अक्सर खो जाती थी तो लड़का उसकी चोटी खींच कर या चुट्टी काट कर दुनिया में वापस लौटा लाता था. वापसी में झोले का एक एक डंडा पकड़े हुए दोनों चलते रहते. अक्सर कोई डुएट गाना गाते रहते. कोई भी तो चिंता नहीं होती उन दिनों सिवाए इसके कि अचार बनाने के लिए अच्छी धूप निकले.

उस वक़्त उन लोगों ने लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन जैसा कुछ सुना नहीं था. कोलेज के आखिरी दिनों उन्होंने सोचा भी कहाँ था कि अपने अपने कोलेज में टॉप करना उनके लिए कितनी बड़ी सजा लेकर आएगी. प्रिंसिपल के कहने पर लड़की ने स्कोलरशिप के लिए अप्लाई कर दिया था और लड़का भी पीएचडी करने के लिए बड़े शहर के कोलेज का फॉर्म ले आया था. उन्हें लगता था कि गर्मी की छुट्टियाँ जिंदगी भर ऐसी ही रहेंगी. मगर बड़े शहर बड़े बेरहम होते हैं, लोगों को इतनी दूर कर देते हैं कि महीने भर लम्बी छुट्टियाँ भी दूरी को पाट नहीं पातीं. दोनों अलग अलग शहर में रेडीमेड अचार खाते हुए बचपन के टिकोलों के लिए तरसते रहते. लड़की को करीने से साड़ी पहननी आ गयी थी और लड़का कुरते में बहुत ही ज्यादा हैंडसम लगता था. कभी कभार साइबर कैफे में वो वेब चैट करते. लड़की किसी से कह नहीं सकती लेकिन उसका दिल छटपटाता कि साड़ी के खूबसूरत पल्लू से उसके माथे का पसीना पोंछ सके. उसके किसी दुपट्टे से लड़के की खुशबू नहीं आती थी आजकल. सुबह बस में सफ़र करते हुए दुनिया भर के अनजान लोगों की भेदती नज़रें छलनी करतीं मगर वो बचे हुए पच्चीस रुपयों से एसटीडी कॉल करती रोज़. लड़का भी लोकल ट्रेन में आधी नींद में झूलता हुआ उसके माथे पर झूल आई लट को उठा कर उसके कान के पीछे खोंस देने के ख्वाब देखता रहता.

दिन, महीने, साल ऐसे भागते थे जैसे किसी और के हिस्से की उम्र उन्हें जीनी है. छुट्टियों में घर आते तो पूरा मोहल्ला उन्हें घेर कर बैठा रहता. लड़कियां उसके जैसी बनना चाहतीं, लड़कों का वो रोल मॉडल हो चुका था. फुर्सत से बैठ कर एक दूसरे के दुःख सुख सुनने के लम्हे मिलते ही नहीं थे. माँ-चाची-रिश्तेदारों की अलग बातें रहती थीं. छोटी सी सैलरी के छोटे छोटे सुख थे. माँ के लिए साड़ी लाना. नानी के लिए इम्पोर्टेड चाकू कि जिससे आम काटने में आसानी हो. कभी कभी देर रात माँ बाल में नारियल तेल लगा रही होती तो उसका दिल करता कि फूट फूट कर रो पड़े. उसे नहीं चाहिए था इतना बड़ा जहान. उसे नहीं बनना था सबका रोल मॉडल. वो तो बस गर्मी की छुट्टियाँ चाहती थी. सबके पास रहना चाहती थी. ऐसा ससुराल चाहती थी जो मायके के पास हो कि जब दिल करे भाग कर मम्मी के पास आ जाए. ये कैसी विदाई हो गयी थी उसकी. न डोली चढ़ी. न पापा के गले लग कर रोई और पूरे शहर ने पराया कर दिया. साल की एक छुट्टियाँ मिलती थीं. पिछली बार तो ट्रेन पर चढ़ते हुए ही उससे मिलना हो पाया. उसका बक्सा उठा कर ऊपर वाली बर्थ पर रख रहा था. लड़की ने कैसे रोका खुद को...दिल उससे लिपट कर रो देना चाहता था. बेइन्तहा. कहना चाहता था कि सब छोड़ कर भाग जाने का दिल करता है. मगर अब वो लड़की थोड़े रही थी...बच्ची नहीं थी. एक औरत से गंभीरता की उम्मीद की जाती है. रॉ सिल्क की साड़ी पहने हुए उसका व्यक्तित्व भी तो गरिमामयी लगता था. टूट नहीं सकती थी वो. नहीं कह सकती थी कि अकेलापन सालता है उसे. लड़का माथे पर आई नन्हीं बूंदों को सफ़ेद रुमाल से पोंछता है. एक लम्हा देखता है उसे. रोकता क्यूँ नहीं है. अपनेआप से पूछता है.

वो भागती हुयी आई है अगली बार. स्टेशन पर वही आया है उसे लेने. नानी की तबियत ख़राब सुनी थी तब उसे मालूम नहीं था कि नानी उसके आने का इंतज़ार नहीं कर पाएगी. भीगे हुए घर से अभी अभी सबके शमशान जाने की गंध आ रही थी. उसे सम्हालना नामुमकिन था. वो किसी को बता नहीं सकती कि क्या क्या खो जाने के लिए रो रही थी. नानी के जैसा अचार बनाना नहीं सीख पाने के लिए. हर गर्मी टिकोले नहीं तोड़ पाने के लिए. आम के उस पेड़ से लिपट पर अपनी शादी में नहीं रोने के लिए. क्या क्या छूट गया था. हमेशा के लिए. क्या हासिल हो गया था ऐसा. नानी के हाथ की बुनी गर्म मफलर लपेटे हुए घर के कोने में चुप सिसक रही थी. उसके बचपन की सारी चाबी नानी ही तो थी. उसके पसंद की सारी सब्जियां...उसके मन का सारा प्यार...उसकी सारी बदमाशियां. गिनती के दिन की छुट्टियाँ भूल गयी वो. नानी के अलावा कोई कैसे नहीं देख पाता था उसकी आँखों में उसे टूटते हुए. अब किसके सीने से लग कर रोएगी लड़की. लड़के के साथ सालों साल का रिश्ता टूट रहा था. एक आम के अचार की बात थी. बस. रिश्ता ही क्या था और उससे.

लौट आई थी. देर रात फोन करती लड़के को. घंटी देर तक बजती रहती. कोई उठाता नहीं. उसे कहाँ मालूम था लड़के की शिफ्ट्स बदल गयी हैं. टेक्नोलोजी भी उसे वैसी ही अबूझ लगती थी जैसे बचपन में संख्याएँ. नेट पर गूगल करने बैठी. लड़के का नाम सर्च में डाला तो एक ब्लॉग का लिंक आया. बड़ा खूबसूरत ब्लॉग था. बचपन में आम के पेड़ पर लगे झूले की तस्वीर ने उसका ध्यान खींचा. उसने दो चोटियाँ कर रखी थीं और झूले को धक्का देता लड़का खड़ा था पीछे. ये तस्वीर तो कब की एल्बम से खो गयी थी उसकी. यहाँ चुरा कर रखी है जनाब ने. उसने पढ़ना शुरू किया तो सोचा भी नहीं था उसके नाम इतने ख़त पूरी दुनिया को दिखा कर लिखे गए हैं. हर पोस्ट पर उसका जिक्र, कहीं उसके नीले दुपट्टे पर लगे कांच से चेहरा छिल जाने वाली शाम...डिटॉल से टीसता याद का हर पन्ना. कतरे कतरे में पूरा बचपन और जवानी संजोयी हुयी. रात रात भर पढ़ती रही और सोचती रही प्यार का इतना गहरा दरिया और कहने को सिर्फ आँखें.

सुबह उनींदी थी. रात भर जागी हुयी आँखों में नींद से ज्यादा इश्क था. घर पर छुटकी को फोन किया और उसके शहर का पता जुगाड़ने को कहा. जितनी देर में छोटे से मोहल्ले में उसका पता जुगाड़ा छुटकी ने उतनी देर में वो पैक कर चुकी थी. छोटा सा बैग लेकर एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी की. टिकट कटाया और सपनों के शहर में अपने राजकुमार पर हक जताने निकल पड़ी. उसके घर का कॉलबेल बजाते हुए उसे जरा भी फ़िक्र नहीं हुयी.
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लिखना ये चाहती हूँ कि लड़के ने खोला था दरवाज़ा और उसका एक कमरे का घर ऐसा था जैसे सदियों से लड़की के इंतज़ार में रुका हो. घर की दीवारों पर आम के पेड़ की अनगिन तसवीरें थीं. कुछ बचपन के बनाए हुए कार्ड्स से बनी हुए मॉडर्न आर्ट जैसी पेंटिंग्स थीं. एक बड़े से फ्रेम में उसकी बचपन की वो फोटो थी जिसमें वो दुल्हन बनी हुयी है घाघरा चोली में. वो लड़के से कहती है...मुझसे शादी कब कर रहे हो? इसके अगले दिन दोनों घर वापस लौटते हैं. जो पहला मुहूर्त मिलता है उसमें शादी की डेट पक्की होती है. उनकी शादी में पूरा मोहल्ला लाइटों से सज जाता है. सारे लोग आपस में बात करते हैं कि कैसे उनकी लव स्टोरी में उन्होंने सबसे जरूरी किरदार निभाया. दोनों अपने छोटे शहर वापस आ जाते हैं और मिल कर एक आर्गेनिक अचार बनाने की फैक्ट्री खोलते हैं जिससे शहर के अनेक लोगों को रोजगार मिलता है. उनका प्रयास उन्हें कई सारे अवार्ड दिलाता है. उनके दो बच्चे होते हैं, एक लड़की और एक लड़का. हैप्पी एंडिंग.
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कहानी ऐसी नहीं होती है न. सच्चाई कहती है कि दरवाज़ा किसी शॉर्ट्स और स्पैगेटी टॉप पहने हुए लड़की ने खोला होगा जो सिर्फ लड़के की रूम पार्टनर रही होगी. मगर उसे देखते हुए लड़की का दिल ऐसे टूटेगा कि मेरी कलम की कोई सियाही उसे भर न सकेगी. समझ का कोई लोजिक उसे नहीं समझा पायेगा कि बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं. वो लौट जायेगी फिर किसी घर में कभी वापस न जाने के लिए. सब जानते हुए कॉल्स की गिनती ठीक करते हुए. तीन रिंग माने आई लव यू. तीन रिंग माने आई मिस यू. तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट. 

26 September, 2013

फ्रेंडशिप ऑन द रोड टु फॉरएवर

आज एक नया गीत सुना. अपनी दोस्ती जैसा. दिल किया तुम्हें फोन करके सुनाऊं. तुम हँसते हुए छेड़ो कि मेरी आवाज़ कितनी बुरी है. होस्टल के पुराने दिन याद आ रहे हैं. उन दिनों गाना कितना अच्छा लगता था. इतनी चूजी भी तो नहीं थी, अक्सर कोई ना कोई चीज़ अच्छी लगती रहती थी. कितने तो नए नए गाने सुने थे. ख़ास तौर से अंग्रेजी के. कितने तो अच्छे बोल हुआ करते थे. एक ही तरह छोटे छोटे शहर से हम आये थे. अंग्रेजी गानों में अपनी डिक्शनरी बन ही रही थी अभी. होस्टल के कोरिडोर में सीटी मारते हुए या गाना गाते हुए ही अक्सर पाए जाते थे. रात के सन्नाटे में आवाज़ कैसी गूंजती थी. तभी

मुझे याद है पहला अंग्रेजी गाना जो मैंने सुना था 'समर ऑफ़ सिक्सटी नाइन'...आज भी लॉन्ग ड्राइव्स पर एक बार जरूर बजाने का मन करता है. ख़ास तौर से सिगरेट पीते हुए. वैसे जो बात तुम्हारी तेज़ रफ़्तार बाईक में पीछे बैठ कर सिगरेट पीने का था वो जिंदगी की किसी बारिश में लौट कर नहीं आया. याद है तुम कितनी तेज़ बाईक चलाते थे? हम खामखा कैलकुलेट करते थे कि बारिश की रफ़्तार ज्यादा तेज़ या बाईक की...मैथ तो हम दोनों का उतना ही ख़राब था. पता तो बस बाईक की रफ़्तार होती थी. तुम्हारी वो नयी ब्लैक एनफील्ड. याद है मैं उसे हमेशा बुलेट कहती थी. ऑफिस से बंक मार कर इण्डिया गेट भागना. क्या खूब दिन हुआ करते थे.

सबका नंबर लगा हुआ था जिस दिन तुम्हारी बाईक आई थी. उस वक़्त मैं तुम्हारी ख़ास दोस्त भी नहीं थी लेकिन जैसा कि दस्तूर था, कोलेज की पहली बाईक थी तो हर लड़की का नंबर आना ही था. उसके बाद तुमने जाने कितना पेट्रोल फूँका होगा. कभी फ़ोटोस्टेट कराना होता था, कभी इंटरव्यू मिस हो रहा होता था किसी का. तुम एकदम से हॉट प्रॉपर्टी हो गए थे. सबका बराबर हक बनता था तुमपर और तुम इतने स्वीट कि किसी को कभी मना नहीं किया. उन दिनों तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हुआ करती थी और कुछ यूँ कि होस्टल की हर लड़की तुमपर मरती थी.

आज ऐवें ही तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. उन दिनों रे बैन का चश्मा. पता नहीं असली था कि दस रुपये में ख़रीदा था जनपथ से मगर कसम से क्या खूब जंचता था तुमपर. हीरो थे तुम हमारे. एक तुम्हारी बाईक आने से कितना कुछ आसान हो गया था हमारे लिए. फिर तुम्हारे लिए कितना कुछ स्पेशल होते गया था. किसी के घर से आया पिरकिया होस्टल में बंटे न बंटे, तुम्हारा कोटा हमेशा रिजर्व रहता था. बात यहाँ तक कि मेरी बेस्ट फ्रेंड की मम्मी उसके लिए आलू के पराठे और कटहल का अचार लेकर आई. अब अचार की गंध छुपती है भला. शाम तुम्हारी उँगलियों में बाकी थी हलकी महक. वो तो अच्छा हुआ उसका पहले से बॉयफ्रेंड था वरना हम दोनों लड़ मरने वाले थे तुम्हारे प्यार में.

तुमपर थोड़ा एक्स्ट्रा हक़ बनता था मेरा, आखिर एक शहर से जो थे. देखे हुए से लगते थे तुम. जाने हुए से. काम हो न हो, बारिश होती थी तो अक्सर तुम होस्टल के सामने मिल जाते थे. राइड पर ले चलने के लिए. फिर कितनी तेज़ी से पीछे छूटती थी थी गहरी गुलाबी बोगनविलिया कि बारिश गुलाबी लगती थी. कुछ तो स्पेशल था उन राइड्स में. प्यार से थोड़ा कम लेकिन दोस्ती से थोड़ा ज्यादा. मुझे याद है जब पहली बार तुम्हारी एनफील्ड चलाई थी, दिल वैसा तेज़ तो पहले प्रपोजल पर भी नहीं धड़का था. पर तुम्हें भरोसा था मुझपर. हमने वापस आकर रबड़ी जलेबी से सेलिब्रेट किया था. कायदे से हमें वोडका के शॉट्स मारने थे मगर हमें कोई और ही नशा हुआ करता था उन दिनों. शायद वो उम्र ही वैसी थी.

आखिरी कुछ प्रोजेक्ट्स करते हुए एक दिन हम ऐसे ही साथ निकले हुए थे. रिकोर्ड करते, इंटरव्यू लेते बहुत देर रात हो गयी थी. उसपर बेमौसम की बारिश. उस दिन तुमने कहा था, चल तुझे हाइवे पर ले चलता हूँ. तुझे लगता है न तू पागल है. आज मेरा भी थोड़ा पागलपन देख ले. मुझे मालूम क्या होना था कि तुझे व्हीली आती है. सुनसान सड़क पर कोहरे भरी साँसों में तूने कहा था. जरा टाईट पकड़ मुझे, जिंदगी की तरह फिसल जाऊँगा हाथों से वरना. तेरी गर्लफ्रेंड होती मैं तो शायद तुझे सेफ राइडिंग के बारे में फंडे देती लेकिन ऐसा कुछ था नहीं...था तो बस थ्रिल. जिंदगी की सबसे बेहतरीन राइड का थ्रिल. मुझे याद नहीं होगा मगर शायद मैं पागलों की तरह चीख रही थी 'आई लव यू ......' तुम्हारा नाम उस हाई वोल्यूम पर बहुत अच्छा लग रहा था सुनने में. याद है हम कैसे गा रहे थे...ए साला...अभी अभी...हुआ यकीं...कि आग है...मुझमें कहीं...रूबरू.....रौशनी. है.

गुडगाँव में ढाबे पर मक्खन मार के पराठे खाए और कड़क कॉफ़ी पी. कई बार लगा तो है कि दिल्ली के कोहरे में नशा होता है मगर महसूस उस रात पहली बार किया था. जाने किस मूड में हम, तूने कहा था, चल आगरा चलते हैं, मैंने हँसते हुए कुछ तो फेंका था तेरी ओर...क्यूँ? भर्ती होना है? और ठहाका मार कर हंसी थी. फिर तुमने फुसलाया था...एक्सप्रेसवे बना है. चल ना, जहाँ थक जायेंगे वहां से लौट आयेंगे. मुझे उस वक़्त तैराकी का चैप्टर याद आ रहा था. समंदर में तैरने चलो तो उतनी दूर जाओ जितने में आधे थके हो क्यूंकि वापस भी लौटना है. जहाँ थक गए वहां से लौट आने की इनर्जी कहाँ से लायेंगे ये सोचने का मूड नहीं था उस रात मेरा. और आगरे में रुकेंगे कहाँ, पागलखाने में?...ना, मेरी एक दीदी रहती है, उनके यहाँ चले जायेंगे. पर वैसी नौबत थोड़े आएगी...हम वापस लौट आयेंगे. एक मन कह रहा था प्रोजेक्ट का क्या होगा. फिर लगा कि लौट आयेंगे वापस, कुछ घंटों की बात है, और फिर बीमार तो कोई भी कभी भी पड़ सकता है. मैंने होस्टल से नाईट आउट शायद ही कभी ली थी. जाने कैसे तो अच्छी लड़की की छवि बनी हुयी थी मेरी. बहरहाल.

आगरा पहुँचते धूप की पहली उजली किरण बारिश में बलखाती यमुना को गुदगुदी लगा कर उठा रही थी. हम किसी ठेले पर चाय सुड़क रहे थे. फोन बजा. इत्ती भोर में किसका फोन आया होगा सोचते हुए फोन देखा तो दसियों मेसेज पड़े थे. रात को सर की बेटी की डिलीवरी हुयी थी, प्रोजेक्ट प्रेसेंटेशन दो दिन आगे बढ़ गया था. हम वाकई ख़ुशी के मारे पागल हो गए थे. कित्ती टाईटली हग किया हमने. तुम्हारे गीले बालों में कित्ती सारी धुंध अटकी हुयी थी. इत्मीनान से एक कप और चाय निपटाई और पुल पर बैठ गए. आज गज़ब अफ़सोस होता है कि उस दिन कैमरा नहीं था अपने पास. ताजमहल पर वो गाइड याद है तुम्हें, हमें कपल समझ कर कितना भाषण दे रहा था. थोड़ा अजीब लगा था इंस्टैंट फोटो वाले से फोटो खिंचवाना.

तुम्हारी दीदी कितनी क्यूट थी. उनका वो ब्लू स्कार्फ मेरे ही पास रह गया था. कसम से क्या कमाल की मैगी बनाती है तुम्हारी दीदी. मैं लड़का होती तो सिर्फ उस मैगी के लिए उनसे शादी कर लेती. हाय, प्यार हो गया था मुझे उनसे. कैसे तो मिल जाते हैं लोगों से न हम. हर मैगी के पैकट पर लिखा है खाने वाले का नाम. दीदी के छोटे से वन रूम फ़्लैट में थोड़ी देर के लिए ऐसा लग रहा था जैसे कितने पुराने और पक्के दोस्त थे हम तीनों. दीदी कितनी खुश थी कि तुमसे मिलना हो गया. दीदी को कवितायेँ सुनायीं, कुछ उनका लिखा पढ़ा. उनकी डायरी पढ़ लेने की धमकी दी.

वापसी के रास्ते कैसे कैसे तो गाने चिल्लाते आये थे हम. याद है दोस्त? जिंदगी एक सफ़र है सुहाना से लेकर ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे. कॉलेज में किसी को भी बोलते कि हम आगरा हो कर आये हैं तो सब वाकई यही कहते कि हाँ...आगरा होकर आये हो. तो खबर हम दोनों आराम से पचा गए. हम दोनों अच्छे खासे सच बोलने वाले इंसान थे इसलिए किसी ने ज्यादा पूछताछ भी नहीं की.

सोचती हूँ अगर तेरी पोस्टिंग किसी दूसरे शहर में नहीं होती तो क्या वैसी कुछ और लॉन्ग राइड्स पर जाती क्या तुम्हारे साथ. तुम भी जाने किसी कोहरे वाले दिन में तेज़ चलाते होगे बाईक तो मेरा आई लव यू याद आता होगा. बात सिंपल थी लेकिन वो लव यू शायद कहीं अटका रह गया मेरी यादों में. आज तुम्हारी बहुत याद आई. आगरा और ताजमहल से भी ज्यादा. जान से प्यारे दोस्त...बहुत साल हो गए मिले हुए...चल न, एक राइड पर चलते हैं. तेज़ चमकती रोशनियाँ हो. बहुत सारा कोहरा हो. कानों में सीटियाँ बजाती हवा हो. फिर से तुम्हारा नाम लेकर दिल्ली से लेकर आगरा के पागलखाने को सुनाने का मन कर रहा है. आई लव यू.

हाँ, इत्ती कहानी सुना दी...गाना ये वाला था...


I think that possibly, maybe I'm falling for you
Yes there's a chance that I've fallen quite hard over you.
I've seen the paths that your eyes wander down
I want to come too

No one understands me quite like you do
Through all of the shadowy corners of me

I think that possibly, maybe I'm falling for you

25 September, 2013

रास लगी आँखें. आस जगी आँखें.


कैसी रास लगी आँखें हैं न. पानी भरी. अबडबयाईं. पानी से तीखा सान चढ़ा हो जैसे. उन आँखों में देखते डर लगे कि जैसे टुकड़े टुकड़े हो जाता है दिल उन आँखों को देख कर.

देखा है कभी चाकू पर सान चढ़ाते, बार बार घिसना होता है. पानी में भिगो कर. लगातार. कभी कभी तो चिंगारियां भी निकलती हैं. वैसी हैं उनकी आँखें. कान्गुरिया ऊँगली के पोर में काजल लगा जब बड़ी बड़ी आँखों की बाहरी रेखा खींचती हैं तो आईने से चिंगारियां फूटती हैं.

पहले लगता था छोटी बहू जमींदारों के खानदान की आखिरी हवेली में चिन दी गयी होंगी. फिर उनके बाद किसी खानदान में छोटी बहू जैसी दर्द को जीने वाली कोई नहीं आई होगी. हमें क्या पता था कि सिर्फ आउटडोर लोकेशन बदला है शूट का. कहानी अब भी वही है. घुटन अब भी वही और वैसी ही तन्हाई भी है.

ये कैसा खालीपन खाए जाता है. कार के शीशे चढ़ा कर एसी चलाये हुए है लड़की. कार में सिगरेट का धुआं भरा हुआ है और सीने में बेपनाह खालीपन. तनहा सड़कों पर तेज़ रफ़्तार उड़ते हुए सुनती है 'कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ'. भूतनाथ बड़ी मासूमियत से पूछता है 'वही बहुरानी न, जो बहुत रात गए बिरहा गाया करती हैं?' जवाब आता है 'बिरहा न गैहैं तो का मल्हार गैहैं'. सोचती है, उसके बारे में तो ऐसा कोई बताने वाला भी नहीं है. कोई सुनने वाला नहीं. कौन जानेगा दिल के अन्दर फैलता सूनापन.

समंदर का सारा नमक उसकी आँखों में पनाह पाता था. आँखों से बह कर ज़मीन पर पहुँचता तो नमक का पौधा उगने लगता वहां. बेहद जिद्दी और अक्खड़. किसी और को अपने पास रहने नहीं देता. तीखे नमक के कांटे बाड़ बनाने लगते कि कोई दुःख उस तक पहुँच न पाए. नमक के पौधे पर फूल आता तो लड़की अपने बालों में लगा लेती. सुर्ख लाल रंग के फूल से उसकी मुस्कुराहटें गुलाबी होने लगतीं थीं.

आज के दर्द का सबब कुछ और ही था. ये गम उसके खुद का नहीं था. किसी से बेपनाह प्यार करो तो उसके हिस्से का गम अपने बहीखाते में लिखवा सकते हो. किसी को मालूम नहीं चलता था मगर लड़की अंडरहैण्ड डीलिंग करती थी, खुदा के दरबार में उसकी चित्रगुप्त से खास जान पहचान थी. उसका रजिस्टर देखोगे तो लाल रेखाओं से भरा मिलेगा. ये वो तकलीफें नहीं थीं जो खुदा ने उसके नाम लिखी थीं. ये वो तकलीफें थीं जो दूसरे रजिस्टरों से उसके रजिस्टर में ट्रांसफर की गयीं थीं. यूँ तो उसे आदत थी तो अक्सर गम को छोटी छुट्टियों का सबब बना लेती थी. समंदर किनारे कोई छोटी सी बस्ती में एक कमरा बुक करती और देर देर रात तक समंदर को किस्से सुनाया करती. उसके आंसुओं से समंदर का पानी और खारा हो जाता. समंदर लेकिन कभी अधीर नहीं होता, इत्मीनान से उसकी कहानियां सुनता रहता.

लड़की बिरहा गाती तो दूर देश समंदर किनारे बैठे लड़के के सीने में हूक उठने लगती. उसने कितनी बार कहा था अकेली इतनी लाल लकीरें लेकर न चला करो, लाओ कुछ पन्नों की नाव बना देते हैं. बहती बहती मेरे बंदरगाह पर आ लगेंगी. होने दो कुछ मेरे शहर का पानी भी खारा. मगर लड़की उसके लिए डरती थी. यूँ कि उस शहर में बस एक ही झील थी, मीठे पानी की. झील से समंदर तक आती एक नदी थी छोटी सी. अगर समंदर का पानी नदी के रास्ते झील में चला जाता तो शहर के सारे लोग प्यास से मर जाते.

आज बहुत साल बाद लड़के ने जिद बाँधी थी कि उसके शहर में लगने वाले मेले में जरूर आएगी. शहर दूर था कितना मगर चूँकि समंदर के पास था इसलिए लड़की ने हामी भर दी. छोटी सी एक छुट्टी बची हुयी थी साल की आखिरी. उसे लगा कभी कभी ख़ुशी की सुनहली पीली लकीर भी तो होनी चाहिए पन्ने में. एक ऐसी लकीर जो सारे पन्नों के पार दिखे. बहुत सालों बाद मिली थी उससे. शहर में मीठे पानी की बारिश होती थी. उसके बालों में लगा नमक का गुलाबी फूल कब का उस बारिश में घुल कर मिट्टी में मिल गया. लड़के ने उसके लिए ताज़े गुलाब के फूल ख़रीदे. सुनहले पीले रंग के. जब लड़की ने बालों में फूल लगाया तो उसके गहरे काल बाल सुनहले रंग में बदल गए...उसकी आँखों में इतनी धूप भर गयी कि सारे उदासी के सियाह बादल छंट गए. वो समंदर किनारे बैठी बस उस लड़के के किस्से सुनती रही. लड़का कोई गीत गुनगुना रहा था. दुनिया पागल थी ही हमेशा से...आज लड़की का दिल कर रहा था वो सारी चिंता फिकर छोड़ दे और यहीं बस जाए कहीं.

उसकी कार बहुत बड़ी तो नहीं थी मगर इतनी थी कि जब तक नया घर न मिल जाए उसमें ही सोया जा सके. उसने अपना शहर बाँधा और नाव में रख दिया. पूरे पूरे तूफानी दिन समंदर में गहरी ऊंची लहरें उठती रहीं. समंदर कितना डराता उसे कि उसका शहर डुबा देगा मगर लड़की को समंदर से डर नहीं लगता था. पूरे सात महीने लगे उस अँधेरे समंदर में बिना तारों की रौशनी के लड़के का शहर खोजने में. लड़की कितनी बार भटक जाती, अनजान किनारों पर पहुँच जाती जहाँ कई खूबसूरत नौजवान उसपर दिलो जान से निछावर होते मगर उसे तलाश थी तो बस उस लड़के की जिसने उसके बालों में सुनहला गुलाब गूंथा था.

जब किनारे पहुंची तो उसे मालूम हुआ कि शहर के नियम बदल गए हैं और नाव से किसी शहर को कहीं और ले जा कर बसाना गैरकानूनी है. उसने लोगों को बहुत समझाने की कोशिश की मगर कोई उसकी बात मानने को तैयार न हुआ. कोई उसे थोड़ी सी ज़मीन भी नहीं दे रहा था. आखिर छोटा सा तो था उसका शहर. समंदर का दिल पसीजा लेकिन. उसने एक टापू बनाया जहाँ लड़की ने लंगर डाल कर नाव रोकी और अपना शहर बसा लिया. लड़की के शहर के लोग मछली पकड़ते और बेचते. कुछ लोग मोतियों की खरीद फरोख्त में व्यस्त हो गए. लड़की खुश थी. हर शाम नाव खोलती और लड़के के शहर पहुँच जाती. फिर दोनों देर रात तक समंदर को कहानियां सुनाया करते.

तन्हाई यूँ तो भीड़ में अक्सर उग आती है मगर सदियों लम्बी उम्र की तन्हाई ख़त्म करने को एक इंसान ही काफी होता है. थोड़ा सा प्यार. थोड़ी बारिश. थोड़ा समंदर. बस. 

23 September, 2013

इश्क से बड़ा गुनाह करना था कोई. तुम्हारा क़त्ल सही.

तुम्हें मालूम है मैं आजकल तुम्हारे क़त्ल की प्लानिंग करती रहती हूँ. दिन दिन भर कितना सोचती हूँ. किस तरीके से मार दूं तुम्हें. क्या अपने हाथों से तुम्हारा गला दबा दूं? फिर सोचती हूँ कि इन्हीं हाथों से तुम्हें अनगिन चिट्ठियां लिखीं. आधी रात के आगे के पहर, पलंग पर सर तक रजाई ओढ़े लिखती थी तुम्हें. अँधेरे में लिखने का ऐसा अभ्यास कि कभी हाथ नहीं काँपे...दिन को देखो तो ऐसी सधी हुयी लिखाई जैसे तरतीब से मेज और कुर्सी पर बैठ कर लिखो हो तुम्हें. तब जबकि पूरब से धूप आ रही हो और पुरवा बह रही हो. पूरे दिन का होमवर्क करने के बाद इत्मीनान से तुम्हें लिख रही हूँ चिट्ठी. मगर ऐसा नहीं हुआ था कभी भी. अँधेरे में तुम्हारा नाम यूँ लिख लेती थी जैसे तुम पहचान लेते थे शाम को ट्यूशन से वापस लौटती लड़कियों के झुण्ड में मुझे. कभी हाथ पकड़ लेते थे, कभी दुपट्टा. कोई महीने भर की बिजली बोर्ड से खिच खिच के बाद जाकर कमबख्तों ने गोलंबर का लैम्पोस्ट ठीक किया था. एक ही दिन रौशनी में जा पायी थी, अगले दिन फिर से बल्ब गायब और शीशा टूटा हुआ. तुमने कभी सोचा भी कि अँधेरे में गलती से कोई मेनहोल में गिर सकता था. कोई दिन मैं ही गिर जाती तो?

जाहिल ही रहे तुम. बदतमीज एक नंबर के. गलियों को लेकर थेथर. इतना भी सलीका नहीं था कि लड़की की कलाई जोर से नहीं पकड़ते हैं. उसपर मेरा गोरा शफ्फाक रंग कि नील पड़ी कलाइयाँ छुपाती फिरती दिन भर. चूड़ियों का शौक़ तभी से लगा था. कितना तो सब चिढ़ाती थीं मुझे कि शादी करने का बहुत शौक़ लगा है. तुम्हें ये सब कहाँ समझ आता था कभी. सब तुम्हें लुच्चा कहते थे. लेकिन सहेलियां थी भी कुछ ऐसीं कि मुझसे मर्जी जितना झगड़ लें. तुम्हें मुझोंसा कहें मगर मजाल है कि घर पर किसी एक खबर की चुगली जाए. कॉलेज में इतनी साफ़ सुथरी छवि थी मेरी कि एक दिन छुट्टी लेती अगर तो घर पर लोग देखने पहुँच जाते कि लड़की कितनी बीमार पड़ गयी. सावन पूर्णिमा को मेहंदी लगाती थी भाई की लम्बी उम्र के लिए. तुम अक्सर पहुँच जाते थे कि देखो मेहंदी का रंग कितना लाल आया है. पति बहुत प्यार करेगा तुमसे. मैं हमेशा कहती थी कि ये रंग इसलिए आता है कि भाई मुझपर जान छिड़कता है. जिस दिन जान जाएगा तुम्हारे बारे में, उसी दिन गंगा बालू में काट कर गाड़ देगा. मालूम भी नहीं चलेगा किसी को कहाँ गायब हो गए हो.

होली में गला फाड़ फाड़ के गाने की जरूरत नहीं है. तुम मोहल्ले आये हो तुमसे पहले तुम्हारे खबरी बता जाते हैं हमको. तुमको क्या लगता है हम हमेशा छत पर तफरी करते रहते हैं. ख़ास तुम्हारे लिए आना पड़ता है. कभी बड़ी पारने के बहाने कभी पापड़ सुखाने के बहाने. मगर ये मैं तुम्हारा गला दबाने की बात करते करते कितनी बातें करने लगी तुम्हारी. सामने अचार का मर्तबान रखा हुआ है. दिल करता है फ़ेंक मारूं उसे दीवार पर. नुकीले धारदार कांच से गला रेत दूं तुम्हारा. लगता बस ये है कि उँगलियाँ कांप जायेंगी. मुझे हो न हो, मेरे हाथों को तुमसे बहुत प्यार है. ख़ास तौर से उँगलियों को. ये अनामिका में जब से तुम्हारे नाम की अंगूठी पहनी है तब से मेरे हाथ मेरे नहीं रहे. तो क्या हुआ अगर लोहे की अंगूठी है और तो क्या हुआ अगर तुमने किसी पंडित के सामने मन्त्र नहीं पढ़े और मैंने खुद तुम्हारा नाम लेकर अंगूठी पहनी है. मन में सोच तो लिया ना कि अब तुम्हारी हूँ, हमेशा के लिए. फिर कहाँ बचती है कोई भी रस्म.

मगर तुम्हारीं उँगलियों में तो हीरे की अंगूठी है. खरीद लिया है उस लड़की के बाप ने तुम्हें और तुम्हारे पूरे खानदान को. मुंह तक नहीं खुला तुम्हारा. गोरी चमड़ी देकते ही पूरे घर वाले फिसल गए. अमरीका जा कर क्या बड़ा तीर मार लोगे. ग्रीन कार्ड कोई ऐसी ही अद्भुत चीज़ होती तो मर रहे होते ससुरे मोहल्ले के सारे लड़के उस कुलांगार से शादी करने के लिए. मगर उस चुड़ैल को तुम ही पसंद आने थे. तुम्हारी बरात के लिए पूरे मोहल्ले की सड़कें ठीक कर दीं गयीं. वो गोलंबर वाला मेनहोल भी भर दिया और सारे ट्यूबलाईट और हैलोजेन लगा दिए गए. अब कौन सा अँधेरा था कि मैं तुम्हारे काँधे लग कर एक बार रो भी सकूं. सहेलियां मेरा दर्द समझती थीं. जिस दिन हाथों के नील ख़त्म हुए उन्होंने पत्थर से मेरी चूड़ियाँ तोड़ दीं और मुझसे वादा लिया कि तुम मेरे लिए मर गए हो. तब तक बरसात ख़त्म हो चुकी थी और गंगा अपना तांडव समेट कर वापस लौट चुकी थी वरना मैं कसम से जान दे देती.

पागलों वाली हालत हो गयी है मेरी. उस जहरीली सांपिन को मेरा श्राप लगेगा. तू न तन से उसका हो पायेगा न मन से. मेरी याद तुझे ताउम्र डसती रहेगी. मगर सारी समस्या की जड़ तो तू है. तुझे खाने में जहर दे कर मार दूं. हमेशा से तुझे मेरे हाथ की खीर बहुत पसंद है. क्या मिला दूं उसमें कि तुझे अंदाजा न लगे. केमिस्ट्री लैब में पढ़ा रहे थे सर, कोई तो गंधहीन जहर होता है, केमिस्ट की दूकान पर मिलता है. अधिकतर किसान वही खा कर मरते हैं, जब उनकी फसल से उनका कर्जा उतरने को नहीं होता. जहर से मरने में तकलीफ होगी. पेट में दर्द होता है, शरीर ऐंठने लगता है. उलटी भी आती है और कई बार तो एक पूरा हफ्ता लग जाता है मरने में. ऐसी मौत तो नहीं दे सकती तुझे. इतने दिनों का प्यार है कमसे कम प्यार की मौत तो देनी चाहिए तुझे. इसमें तेरी क्या गलती कि उस फिरंगन ने तुझे पसंद कर लिया और तेरी चारों बहनों का बेड़ा पार लगाने का ठेका ले लिया. किसी चरवाहे के घर जा कर जिंदगी भर गोबर, बर्तन, चूल्हा करती. ऐसे में एक मेरी ही तो जिंदगी गयी चूल्हे में. चार बहन पर एक प्रेमिका चार बार निछावर है. मेरा भाई भी होता तो यही करता मेरे लिए. मगर हाय रे मेरे ही करम काहे फूटे.

तुझे जल्दी मार देने का एक और उपाय है. जिस बिल्डिंग में तू मजदूरी करता है उसके सबसे ऊपर वाले फ्लोर से तुझे धक्का दे दूं. मिनट भी नहीं लगेगा और काम तमाम हो जाएगा. रोज सोचती हूँ. खिड़की से देखती हूँ तुम्हें. सर पर ईटों की ढुलाई करते हुए. पहले कितना तो मासूम सपना होता था मेरा. एक दिन तुम्हारे लिए आँचर में बाँध कर तुझे दो रोटी और प्याज दे आने का सपना. देखो न रे, पल में कैसा प्यार बदल गया मेरा. सौतिया डाह बहुत ख़राब चीज़ होती है रे. तुमको उ दिन याद है जब हम बिल्डिंग पर पहुँच गए थे. तुम कितना पसीना में भीगे हुए थे. अपना दुपट्टा से तुमरा पसीना पोछे थे हम. बीस महला थी बिल्डिंग. तुम हमको बता रहे थे कि तुम कितना मेहनत करते हो और ऐसे ही एक दिन ठेकेदार बन जाओगे. मेरे इतना पढ़े लिखे न सही, पैसा तो इतना कमा ही लोगे कि हम दोनों का काम चल जाए. उतने ऊपर बिल्डिंग से पैर लटका कर बैठे हुए जरा भी डर नहीं लग रहा था. आज डर लग रहा है, वहां से कैसे धक्का दे दूं तुम्हें. मन नहीं मानेगा न.

काला है सब. सियाह है सब कुछ. ऊपर वाले ने कपार पर यही लिख कर भेजा है कि तुम्हारे खून से हाथ काला कर लें तो ये भी हो. तुम्हारे नाम का सिन्दूर न सहे तुम्हारे क़त्ल का कालिख तो हमारे हिस्से आये. पड़े रहे उम्र कैद में जिंदगी भर, यही सोचते हुए कि तुम्हारी बेवा रहे. इतना पढ़ लिख कर भी लेकिन ये समझ नहीं आ रहा कि तुम्हारा खून कैसे और किस तरीके से करें. खुद को समझा रहे हैं. कलेजा कड़ा कर रहे हैं. मार तो तुमको देंगे. खाली ई सोचना भर बाकी है कि कैसे. कौन सब लोग होता है कि प्यार करने को मर्द का कलेजा चाहिए. कौन मर्द का औकात हमारे जैसा प्यार कर सके. कल. कर करेंगे तुम्हारा खून.


इश्क तो कर चुके हम 
एक क़त्ल का गुनाह बाकी है 
सो तुम्हारा सही 


आज रात बस देखने को नज़र भर तुमको. चाँद को. एक एक ईंट करके बनती उस बिल्डिंग को. पहली बार ऐसा सोचे थे तब से चौदह चाँद रात बीत गयी है और बिल्डिंग आधा पूरा हो गया है. हमको फिर भी यकीन है कि कल. कल मार देंगे हम तुमको. कल. पक्का. तुम्हारी कसम. 

रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे

सच्चा सच्चा दर्द हुआ बस ज़ख्म पुराने झूठे थे
तुमसे मिलने आने के वो सभी बहाने झूठे थे 

पीछा करते गली गली और खाते कसमें इश्क इश्क
सब कहते दिल कुछ न सुनता वो दीवाने झूठे थे 

गुड्डा-गुड़िया, राजा-रानी, कित-कित, खो-खो, तुमसे प्यार 
बचपन के सारे के सारे खेल सुहाने झूठे थे 

कैस भी था और लैला भी थी, शीरीं भी फरहाद वही
मेरे मुहल्लों में बनते वो सारे फ़साने झूठे थे 

लाश मिली जब उन दोनों की लाल नहर में पिछली रात
कोई न माना चुगली करते सब वीराने झूठे थे 

बाँट इश्क को आधा आधा दफना दो और फूँक आओ
रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे 
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बहुत घबराहट वाला सपना था. समंदर किनारे किसी छुट्टी पर गयी थी. नौ नौ फीट की ऊंची लहरें उठ रही थीं. याद आता है सोचना, कि गहरी सांस लेना है ठीक जैसे ही लहर आकर टूटे. कि लहर वापस लौटने तक पानी होगा पर घबराना नहीं है. मैं होटल के पहले फ्लोर पर हूँ, यहीं कमरा भी मिला है. यूँ सामान कुछ ज्यादा नहीं है. पर उतनी ऊंची लहरें देख कर बहुत डर लगता है. गहरे नीले-काले रंग की अनगिनत लहरें हैं, एक के बाद एक. मैं रिसोर्ट में पीछे की ओर चलती जाती हूँ. समझ नहीं आता कि लहरें कितनी दूर तक आएँगी. एक रजिस्टर होता है जिसमें लिखवाना है कि समंदर में जो नाव जायेगी उसमें आपका कौन सा सामान छांक कर लाना है. मैं अपना वालेट लिखवा देती हूँ बस. उसके अलावा तो कुछ लेकर चलने की आदत नहीं है. 

इस रिजोर्ट और ऐसे अचानक आने वाली सुनामी लहरों का सपना मैं कई बार देख चुकी हूँ. हर बार ऐसे ही मेरा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर होता है. लहर के आने के वक़्त बहुत पानी होता है पर समंदर मुझे वापस खींच के नहीं ले जा पाता है. हर बार इस सपने में मैं अकेली गयी होती हूँ. ठीक ऐसी लहर आने के पहले मेरा समंदर में नाव लेकर जाने का मूड हुआ होता है मगर मैं जाती नहीं...या तो मेरा खाना आने में देर हो जाती है या ऐसे ही किसी कारण से. मैं हर बार यही सोचती हूँ कि अगर अभी समंदर में होती तो क्या होता. पक्का डूब जाती. 

उठी हूँ अजीब घबराहट में. बहुत दिन बाद कुछ कविता या ग़ज़लनुमा दिमाग में आ रहा था. वैसे ही बहर वगैरह के मामले में थोड़ी कच्ची हूँ तो अक्सर नहीं ही लिखती हूँ. आज भी कई बार सोचा कि डिलीट कर दूं. फिर रहने दे रही हूँ. छुट्टियों में सारी किताबें तमीज से रखीं. हॉल में टीवी कैबिनेट आया है नया, पापा दिलवाए हैं. उसमें ऊपर से नीचे तक, सारी रैक में किताबें हैं. अच्छा लगता है. सारी किताबें अब तरतीब से हो गयीं हैं. 

इधर ऐसे ही सोच रही थी...अक्सर देखा है मेरे साथ वाले लोग इस बात के लिए बहुत अपोलोजेटिक होते हैं कि मैं बहुत बोलती हूँ. ऐसे में मुझे अक्सर बहुत गुस्सा आता है. खास तौर से तब जब वो लोग मेरी ही कार में होते हैं. दिल करता है डोर खोल कर बाहर फ़ेंक दूं. आखिर चुप होना नार्मल क्यूँ है. चुप्पे लोग मुझे भी वैसे ही इरिटेट करते हैं. किसी बात का जवाब नहीं देंगे. सारे समय जाने क्या सोचते रहेंगे. उनके साथ कहीं भी सफ़र करना बहुत पेनफुल होता है. आजकल गुस्सा कितना कम आता है मुझे. लोगों पर चिल्लाती भी कम हूँ. पर कार चलाते वक़्त मुझे चुप नहीं बैठा जाता. एनीवे. मंडे मोर्निंग ब्लूज...ऑफ़ द डार्केस्ट शेड. 

सबके अपने अपने किस्से, सबका अपना अपना गम है
मैं तेरे गम को कब समझूं, मेरा अपना कम क्या कम है 

19 September, 2013

तुम्हारी वाली

-१९९८-
घुंघराले बाल थे उसके गुड़िया जैसे. एकदम काले. वो हमेशा बालों में बहुत सारे क्लिप लगा के रखती थी कि संवारे से दिखें. हलकी भूरी आँखें थी उसकी. बिल्ली जैसी. बहुत प्यारी दिखती थी. दूध सा गोरा रंग. दुबली पतली. बहुत नजाकत थी उसमें. बोलती भी एकदम मद्धम थी. पढ़ने में थोड़ी कमजोर थी बस. क्लास की एक आम सी लड़की थी. मेरी उससे कोई ख़ास दोस्ती न दुश्मनी. बस ये सब उस दिन बदल गया जिस दिन मालूम चला तुम्हें वो पसंद है.

अब मुझे उसकी कोई बात भली न लगती. दिल ही दिल में उसे चुड़ैल जैसे विशेषणों से भी नवाज़ा होगा मैंने इस बात पर भी मुझे यकीन है. उसे कभी किसी हेल्प की जरूरत होती तो मेरा हरगिज़ उसकी मदद करने का मन नहीं करता. कभी गेम्स में उसके शूलेसेस खुले रहते तो मैं कभी उसे बताती नहीं. मुझे हरगिज़ समझ नहीं आता कि तुम्हें वो क्यूँ पसंद आई, मैं क्यूँ नहीं. बस उस दिन के बाद से आईने ने मुझसे कोई भी बात करनी बंद कर दी. वो कितना भी कहे कि मैं खूबसूरत हूँ, मेरी खूबसूरती का पैमाना एक भूरी आँखों और घुंघराले बालों वाली लड़की ने तय कर रखा था. मेरे छोटे छोटे बॉबकट बाल और गहरी काली आँखें एकदम साधारण थीं. इनसे किसी को क्यूँ प्यार हो भला.

वो प्यार जताने के दिन नहीं थे. न उलाहना देने के. न पूछने के कि तुम्हें वो क्यूँ अच्छी लगती है, मैं क्यूँ नहीं. तुम्हें इतना भर भी कहाँ बताया था कि तुम मुझे अच्छे लगते हो. तुम उन दिनों मुझे बिलकुल पसंद नहीं करते थे. जाने अनजाने तुमने मेरा बहुत दिल दुखाया. उस वक़्त कोई था भी नहीं बताने वाला कि दर्द ताउम्र नहीं रहता है, न पहला प्यार. तुमसे प्यार करना कितना जरूरी था आज दो दशक बाद समझती हूँ.

मुझे कभी यकीन नहीं होता कि किसी को मुझसे भी प्यार हो सकता है. मगर था वो एक लड़का. लम्बा, गोरा, हलकी भूरी आँखों वाला...उसने कहा कि वो मुझसे प्यार  करता है. उस दिन आइना देखा तो आइना एकदम बड़बोला हो गया था. बार बार बताता कि मैं बेहद खूबसूरत हूँ. कोई मुझसे प्यार करता है. टेंथ के एक्जाम ख़त्म हो चुके थे. उस लड़की से फिर कभी मिलना नहीं हुआ. आज भी मगर इन्टरनेट पे हज़ार दोस्त हैं. मैं उसे कभी एक्सेप्ट नहीं कर पायी.


-२०१३-
पहली बार जाना था उसके बारे में तो तुम सामने थे. तुम्हें गले लगाते हुए मुस्कुरायी थी मैं. तुम्हारी मुस्कराहट से कैसे ज़ख्म भरते हैं जाना था पहली बार. तुम खुश थे. बहुत खुश. मैं उसे कभी नहीं देखना चाहती थी मगर देखा उस रोज़, तुम्हारे साथ...तुम उसके साथ खुश थे. मेरे लिए ये कितना जरूरी था उस वक़्त मालूम हुआ. अपनी जान किसी और के हाथों सौंप देना और दुआ का कासा खुदा के यहाँ से वापस मांग लेना जाना था उस दिन.

तुम्हारी शादी को कितना वक़्त हुआ फिर मैंने कभी नहीं गिना. तुम्हारी एक दुनिया थी जिसमें मैं कभी गलती से भी नहीं जाना चाहती थी. मुझे यकीन था तुम खुश होगे. कई बार सोचा कि एक बार फोन कर के पूछ लूं कैसे हो तुम. जितनी बार दिल ने कहा कि उसे महसूस हो रहा है तुम खुश नहीं हो मैंने दिल को जोरों से झिड़क दिया...मैं अपनी नेगेटिव इनर्जी और उलटपुलट सोच से तुम्हारे जिंदगी में कोई बुरी चीज़ नहीं लाना चाहती थी. कभी कभी कुछ चाहते रहो तो हो भी जाती है वो चीज़.

एक दिन अचानक अपनी पसंदीदा कैफे में देखा उसे. बड़े प्यार से गले मिली वो. मुझे अचरज हुआ कि उससे मिल कर बहुत अच्छा लगा. कुछ वैसा कि जिस चीज़ से तुम इतना प्यार करते हो वो मुझे पसंद न हो ऐसा कैसे हो सकता है. वो कुछ कुछ तुम जैसी ही तो थी. उसके गले मिल कर लगा तुम से ही मिल रही हूँ. सोल्मेट्स ऐसे ही होते हैं न. मुझे महसूस हुआ वो तुम्हारे लिए ही बनी थी. ये कुछ वैसा ही था जैसे शादी के बाद मैं बदलने लगी हूँ, बहुत सी चीज़ें जो पहले बर्दाश्त नहीं होती थीं, अब अच्छी लगने लगी हैं.

उसकी मुस्कुराती आँखें देखीं तो उनमें तुम नज़र आये. उसके काँधे पर तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू थी हलकी सी. शादी के बाद मियां बीवी कुछ कुछ एक दूसरे के जैसे हो जाते हैं न. वो हंसती है तुम्हारे जैसे. खुश होती है तो तुम्हारी याद आती है. मुझसे उसपर बहुत प्यार उमड़ा. वो मेरी कोइ बहुत अपनी लगी मुझे. अपनी दुश्मन नहीं अपनी दोस्त लगी. तुम हमेशा से उसके थे.

उस दिन ये भी महसूस हुआ कि उसने मेरी जगह नहीं ली है. मेरी जगह कोई और ही है और वैसी ही महफूज़ है. वो मुझे बता रही थी कि जैसे तुम्हें मेरे बारे में सारी बातें वो ही बताती रहती है क्यूंकि तुम तो इन्टरनेट और फेसबुक पर आओगे नहीं. उसने बताया कि मैं आज भी बहुत खूबसूरत हिस्सा हूँ तुम्हारी जिंदगी का. उसने ये भी बताया कि तुमने उससे कहा था कि तुम्हारा और मेरा कोई पिछले जन्म का रिश्ता सा है. मैं समझदार हो गयी हूँ कि मेरा प्यार उदार हो गया है?

-आज शाम-
बाकी सब चल जाएगा, लेकिन सुनो, उसे स्वीटहार्ट मत बुलाया करो...अभी भी दुखता है कहीं ज़ख्म कोई. 

18 September, 2013

इट हर्ट्स. बट नेवरमाइंड.

-एक-
तुम तो धुमुस जानते हो न. अरे वही जिसको धुरमुस कहते हैं. एक लोहे का छोटा सा वृत्त होता है, बेहद भारी, एक ओखल जैसे मोटे लकड़ी का सिरा होता है. इसे बार बार ज़मीन पर पटकते हैं जिससे मिटटी अच्छे से जम जाए. इससे मिटटी का लेवल भी बराबर करते हैं. कोंच कोंच कर भरते हैं जैसे शीशे के मर्तबान में कुछ.

तुम वैसे ही बसे हो न मन में. मिट्टी के कण के बीच हवा भर की जगह न हो जैसे. बहुत छोटा सा होता है दिल. कितने कितने दिन लम्हे लम्हे करके इसी तरह बसाती गयी हूँ तुम्हें दिल में. सख्त फर्श है अब बिलकुल. इसमें किसी पौध की रोपनी नहीं की जा सकती है. तुम्हारे खो जाने जैसा ही शोर होता है धुरमुस का. धम धम बजता है बारिश वाली शामों में. इतनी बारिश में गंगा किनारे तोड़ कर बही है. घर में घुस आये पानी को निकालने के बाद उसमें बहुत सारी मिट्टी गिराई गयी है. सुबह से मजदूर लगे हुए हैं. हर आवाज़ के साथ तुम्हारा नाम गहरे धंसता जाता है मिट्टी में. इसी कबर में तुम्हारे नाम के सारे ख़त डाल  देती हूँ. अगली साल बारिश में फिर बहा देगी गंगा तुम्हें. मिटा देगी तुम्हारा नाम. ये क्या है कि मेरे तुम्हारे बीच बहती है. तुम एक नाव लेकर मेरे पार क्यूँ नहीं आ जाते?

तुम कहीं भी तो नहीं हो. गंगा में नहीं. बारिश में नहीं. धुरमुस यूँ भी अब कौन इस्तेमाल करता है. फिर मैं कहीं का कोई इंस्ट्रुमेंटल संगीत सुनते हुए तुम्हारी याद में कहाँ डूबने लगती हूँ. मेरे छोटे छोटे टुकड़े करता जाता है संगीत और पार्सल कर देता है. गंगा किनारे मांसखोर मछलियों को खिला देने के लिए. मेरा कोई टुकड़ा तुम्हारे हाथ कभी नहीं लगता. तुम मान भी तो लेते हो कि मैं मर गयी हूँ.

तुम तो मुझसे कभी मिले भी नहीं हो. तुम्हें मालूम है मेरी आँखों का रंग कैसा है?

-दो-
हर शहर की अपनी गंध होती है. गंगा किनारे उफनते लाल पानी को देखते हुए. घुटने घुटने पानी के वापस लौट जाने के बाद शहर में बसती जाती है गंध. मुंबई में गेटवे के पास चुप सर पटकते समंदर की होती है एक गंध. नमक मिले पानी और आंसू में बहते हुए सपनों की मिलीजुली गंध. समंदर में विसर्जित अनगिन आत्माओं की गंध. समंदर से वापस लौटते हर रास्ते का पीछा करती है समंदर की गंध. वक़्त का एक सिरा पकड़ कर मैंने सोचा था तुम्हारा एक लम्हा अपने नाम लिखवा सकूंगी. इंतज़ार के कदमों वापस लौटता है शहर और 'सॉरी' का एक छोटा सा चिट थमाता है मुझे. पुराने पत्थरों में तुम्हारे टूटे वादों जैसा कुछ लिखा हुआ दिखता है. बहुत मुश्किल है इस भागते शहर से एक लम्हा चुरा पाना.

तुम्हें मालूम है मेरे पास तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं है. याद का कोई टुकड़ा. स्पर्श का कोई लम्हा नहीं जो फ्रेम करके लगा सकूँ. जब तुम चले जाते हो तो मुझे यकीन नहीं होता कि तुम कभी थे भी. तुम्हारे नाम का टैटू बनवाने की इच्छा है. रूह का तो क्या है, जिस्म को तो याद रहे कि कभी छुआ था तुमने मुझे. 'you touched me here' कलाई में जहाँ दिल का तड़पना महसूस होता है वहीं.

बारिश धो देती है तुम्हारी खुशबू. छाता खो जाता है लोकल ट्रेन मैं. तुम्हारी साँसों में बसने लगा है अजनबी शहर. मेरे आने से उस शहर में खुलने लगती है किताबों की एक आलसी लाइब्रेरी जहाँ लोग फुर्सत में लिखते हैं अपने महबूब को ख़त. तुम वहां हर शाम रिजर्वेशन करवाते हो मगर ठीक आठ बजे तुम्हारी एक मीटिंग अटक जाती है सुई पर और तुम्हारा क्लाइंट तुम्हें समझाता है किन जिंदगी में प्रमोशन मुहब्बत से ज्यादा जरूरी क्यूँ है. यूँ कि इश्क तो ऐरे गैरे गरीब को भी हो जाता है मगर मिसाल की बात पर लोगों को ताजमहल याद आता है. जब तक तुम इस काबिल न हो जाओ कि कम से कम दो लाख की कीमती अंगूठी खरीद कर महबूबा को न दे सको, इश्क के नाम को कलंकित ही करोगे. तुम्हें बरगलाना इतना आसान है तो मैं क्यूँ नहीं बरगला पाती कभी?

हालाँकि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे कभी होने का कोई सबूत नहीं रह जाता. फिर भी जानते तो हो न कि मैं प्यार करती हूँ तुमसे?

-तीन-
नहीं. मुझे तुम्हारे ख़त कभी नहीं मिले. इसलिए कि तुमने कभी लिखे ही नहीं मुझे. हाँ. मैंने लिखे थे तुम्हें बहुत सारे ख़त. हाँ मैं थोड़ी पागल हूँ तुम्हारे बारे में. यु नो हाउ वुमेन आर. उनकी छठी इन्द्रिय होती है ऐसी ही. माँ की होती है. प्रेमिका की भी होती है. बीवी की होती है. मेरी क्यूँ है लेकिन? मैं तुम्हारी कुछ भी तो नहीं लगती. तुम्हारा ख्याल रखने को पूरी दुनिया के लोग हैं मगर तुम्हें तकलीफ होती है तो मेरी रातों की नींद क्यूँ उड़ती है?

तुम्हें लगा तुमने मुझे ख़त लिखे हैं? तुम्हें कभी ये लगा कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ? सब कुछ लगेगा तुम्हें कमबख्त...सर्दी लगेगी, गर्मी लगेगी मगर ये नहीं लगेगा कि मुझे तुम्हारी बातें लग जाती हैं. तुम दिल्ली छोड़ कर चले क्यूँ नहीं जाते? दुनिया के इतने सारे शहर हैं, कभी इटली में जा के रहो न...वैसे टिम्बकटू भी अच्छी जगह है. कहीं चले जाओ जहाँ का पता मुझे मालूम न हो. वो लाल डब्बा मुझे देख कर ऐसे मुंह चिढ़ाता है कि दिल करता है पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दूं.

मालूम, तुमसे मिल कर बहुत साल बाद किसी को चिट्ठियां लिखने का दिल किया था. सुनो, तुम्हें क्यूँ लगता है कि मैं तुम्हें समझती हूँ? कितना वक़्त ही बिताया है तुमने मेरे साथ...इतने देर में लोगों को प्यार नहीं, धोखा होता है बस. तब जब कि मुझे यकीन हो जाना चाहिए था किन समन्दरों के शहर वाले लोग किसी गाँव में लंगर नहीं डालते मैं तुम्हारे लिए डॉकिंग स्टेशन बनवा रही हूँ. मुसाफिर सही, कभी दिन के एक घंटे रुकने को जी किया तो इधर नेरुदा की कवितायेँ हैं, दिलफरेब तसवीरें हैं जो मैंने ग्रीस के किसी द्वीप पर उतारीं थीं, कुछ तुम्हारी पसंद के लोग भी हैं...अँधेरे वाले लाईटबल्ब हैं. काली रौशनी वाले रोशनदान हैं.

And he hugs me like I am made of glass...and so tightly that I shatter...into dust and get imbibed in his blood...a fragment of me sparkles into his eyes...the last light of a dying star.

सोचा तो ये था कि विदा कह रही हूँ तुम्हें. लगता ऐसा है जैसे सी यू टुमारो कहा है.

-चार-
आई नो, यू लव मी टू. इट हर्ट्स. बट नेवरमाइंड.

30 August, 2013

एनेस्थीसिया

डेंटिस्ट की खतरनाक सी कुर्सी पर बैठी लड़की सोच रही थी एनेस्थीसिया के बारे में. ऐसा कुछ है क्या जिसके बाद कोई दर्द महसूस न हो. सोचती रही इश्क से बेहतर एनेस्थीसिया उसे मालूम नहीं है. उसने सोचा डॉक्टर से पूछे कि उसके पास कोई इश्कनुमा एनेस्थीसिया है क्या. लड़की को मालूम है कि वो थोड़ी वीयर्ड है उसके हिसाब से जो चीज़ें नार्मल होती हैं वो आम लोगों को पागलपन जैसी लगती हैं. अपने अनुभवों से सीखती वो लड़की अक्सर ऐसे फुजूल सवाल अब खुद के लिए रिजर्व कर लेती है.

दो दिन हो गए. सूजन बढ़ती ही गयी है. पेनकिलर से राहत नहीं आती. हालाँकि उसका कोई हक नहीं बनता पर वो पूछना चाहती है कि तुम्हारे नाम, ख्याल या तस्वीरों को पेनकिलर की तरह इस्तेमाल करना एथिकली सही है या गलत है. सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचने भर से उसका दांत का दर्द कम हो जाये तो क्या उसे इजाजत है तुम्हारे बारे में सोचने भर की...या तुम्हें एक फ़ोन करने की? तुम क्या सोचोगे अगर कोई तुम्हें फ़ोन करके कहे कि बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, कुछ देर मेरा ध्यान भटका दो...किसी भी और चीज़ की तरफ. तुम करोगे किसी के लिए इतना?

दर्द यूँ बुरा नहीं लगता. दर्द की महीन उँगलियाँ होती हैं...जैसे नसों में खून दौड़ता है वैसे ही दर्द भी दौड़ता है. बारीक पतली पतली उँगलियों वाला दर्द बायें गाल से होता हुआ कनपटी तक पहुँच गया है, गले का बायाँ हिस्सा सूजा हुआ है. बोलने में भी तकलीफ होती है. दर्द का स्वाद होता है. खास तौर से जब टाँके पड़े हों. खून का रिसता हुआ स्वाद. ऐसा लगता है जैसे कोई नदी बह रही हो...नमकीन धार वाली. हर कुछ देर में नमक पानी के गरारे भी करने पड़ते हैं.

चेहरे का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया है. दांत के दर्द को टक्कर सिर्फ और सिर्फ इश्क दे सकता है. वो भी ऐरा गैरा लफुआबाज़ टाईप इश्क नहीं. सड़कछाप आवारा वाला नहीं. गहरा दर्द. रात के पहर के साथ चढ़ता हुआ. नींद के किसी झांसे में नहीं आने वाला दर्द. अँधेरे में याद के कितने तहखानों की टहल करवा देने वाला दर्द. पेनकिलर और एंटीबायोटिक के मिक्स में उभरने वाली नीम बेहोशी में रह रह करंट के झटके लगाता दर्द. हर कुछ घंटों में अपने होने को कई गुना शिद्दत से ज्यादा महसूस करने वाला दर्द.

जिंदगी में हर चीज़ में इश्क की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए. कम से कम दांत दर्द तो तमीज से दांत दर्द की तरह पेश आये. दर्द हो तो सब भूल जाए लड़की. भूरी आँखें. डेरी मिल्क. धूप. दिल्ली. ठंढ. बीमार की तरह कम्बल ओढ़ ले और कराहे. मगर ये कराह में किसका नाम लिए जा रही है लड़की. "खुदाया मेरे आंसू रो गया कौन". वो कहती है उसका दर्द का थ्रेशहोल्ड बाकी लोगों से ज्यादा है. बहरहाल. कुछ दिनों से कुछ भी करने की कोशिशें नाकाम हैं. पढ़ने लिखने में उसका दिल नहीं लगता. ऐसा कुछ लग रहा है जैसे एक्जाम के दिन हों और सिलेबस ख़त्म हो चुका हो. बस रिवाइज करना जरूरी हो.

जब कुछ काम न आये तो लिखना काम आता है. फिलहाल दर्द की एक तीखी लपट है. दांत के ऊपर से उठती है और वर्टिकली ऊपर दिमाग की ओर चली जाती है. मेमोरी इरेजिंग टूल टाईप कुछ है. कोई याद नहीं. कोई शख्स नहीं. सफ़ेद काली बेहोशी है. संगीत की कुछ धुनें हैं. व्हाइट नोइज जैसी कुछ. इच्छा है कि थोड़ी धूप रहती तो खून का बहाव थोड़ा तेज़ होता. उसे हमेशा धूप अच्छी लगती है. रात के इस पहर धूप कहाँ से बुला लाये लड़की.

एनेस्थीसिया मेरी बला से! मुझे तो लगता है कि लड़की का दिमाग ख़राब हो गया है. पर जाने दो. वो क्या कहते हैं हमारी हिंदी फिल्म में डॉक्टर.

'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'

PS: अब इन्हें ब्लॉग्गिंग की नहीं, पागलखाने की जरूरत है. वगैरह वगैरह.

इस पोस्ट के माध्यम से आप आपने पाठकों को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हम तो क्या कहें, कह भी देते लेकिन कोई हमसे पहले कह गया है कि...और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

बहरहाल. 

19 August, 2013

सताए हुए लोगों से पूछो रास्ता करार का


लिखना आत्महत्या जैसा कुछ था. टेबल के किनारे बेहद तीखे थे. कवि इतना बेसुध था कि उसे ध्यान नहीं रहता, दर्द महसूस नहीं होता. बहुत मुश्किल से जोड़े गए पैसों से एक नया टेबल ख़रीदा था. जल्दबाज मजदूरों ने टेबल फिक्स करते हुए उसे बड़ी हिकारत से देखा था. जैसे वो टेबल का इस्तेमाल करना डिजर्व नहीं करता. कि जैसे वो मजदूर उसकी कहानियों के गरीब लेखक को देखना चाहते थे. उसने एक बार कहा था कि टेबल के किनारों को रेगमाल से थोड़ा घिस दें. मजदूर उसकी बात सुनकर ऐसे हँसे थे जैसे कोई सस्ता लतीफा सुनाया गया हो.

वो अपने आलीशान घर में ऐसे रहता था जैसे किसी मजबूर रिश्तेदार को उसे जबरदस्ती गोद लेना पड़ा हो. टेबल खरीदने की मजबूरी भी इसलिए थी कि झुक कर लिखने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी घिसने लगी थी. जिंदगी में एक इसी रीढ़ के कारण उसने बहुत कुछ सहा था...अब इस उम्र में झुकना मंजूर नहीं था उसे. शीशम की लकड़ी से बने उस टेबल के किनारे उस रोज़ भी तीखे थे. उन्होंने उसे कुछ ऐसे बरगलाया था जैसे जूते का दूकानदार जूते बेचता है...अभी चुभ रहा है, चमड़ा बाद में नर्म हो जाएगा...गर्मी में फैलेगा. वगैरह वगैरह. कवि ने बेचैनी से इर्द गिर्द देखा था मगर न तो बीवी न बच्चे ही उसकी मदद को आये.

वो जब भी लिखने बैठता, टेबल की तीखी धार उसकी कलाइयों पर लम्बी पतली धारियां बनाती जाती थी. बेतहाशा लिखने के पागलपन वाले मौसम आये थे. उसे मालूम नहीं चलता मगर टेबल जैसे खून डोनेट करने की सुई जैसा उसके बदन से बूँद बूँद खून का प्यासा हुआ जा रहा था. कुछ दिनों में टेबल के नीचे एक आध बूंद खून की टपक जाती थी. उसने वहां पर सोख्ता रख दिया था. कागज़ के टुकड़े-ब्लोटिंग पेपर को खून और स्याही में क्या अंतर पता चलता. जैसे बारिश में बाल्टी रखी होती थी टपकते छत के नीचे, बाकी घर सूखा रहता था.

मगर लगता ये है कि कवि इतना अकेला और इतना बेसुध क्यूँ है. दर्द से बेपरवाह क्यूँ है. टेबल की तीखी धार को सरेस पेपर से रगड़ कर चिकना करने वाला कोई तो होगा दुनिया में. इतने सारे किरदार रचे हैं उसने, एक बढ़ई का किरदार रच देता तो समझ जाता कि इतना मुश्किल नहीं है एक टेबल ठीक करना. कवि को दर्द की आदत थी, कुछ वैसे ही जैसे छोटे शहरों में लोगों को बिजली के आने जाने की आदत हुयी रहती है. घड़ी बांधते हुए विरक्त भाव से निशानों को देखता. फिर घड़ी के ख़राब होने की परेशानी हो रही थी. हालाँकि वो चाहे तो घड़ी बांयें हाथ पर बाँध सकता था. आईने के सामने खुद को देख रहा था तो आज भी सालों पुरानी याद पीछा नहीं छोड़ रही थी. एक लड़की ने छेड़ा था, राखी बाँध दूँगी...उसने घड़ी दिखाते हुए कहा था...मेरी बहन है...इस भागते वक़्त ने मुझे राखी बाँधी है, देखती नहीं हो...कैसे इसकी रक्षा करने को कविता, कहानियां सकेरता रहता हूँ. लड़की हँसते हुए गयी थी...जिस दिन दायें हाथ से घड़ी उतारोगे मेरी रक्षा करने का भार उठाना.

कवि ने दराज़ से सफ़ेद रुमाल निकला. रूमाल के दायें कोने पर उसके नाम का पहला अक्षर लिखा था. नामों का खेल...उन दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे. सफ़ेद रुमाल दायीं हथेली पर बाँधा. उसके ऊपर घड़ी पहनी. उसके कुरते करीने से इस्त्री किये हुए रखे थे. सफ़ेद कुरते एक तरफ, रंग वाले कुरते एक तरफ. सुर्ख पीला कुरता पहनते हुए उसके होठों पर मुस्कान अनायास खेल गयी. आखिरी बार लड़की को उसने उसकी हल्दी की रस्म पर ही तो देखा था. जिद थी कि उसकी शादी में नहीं जाएगा.

वो कैसे दिन थे न...हँसते हुए घबराहट नहीं होती थी. हाथ से कुछ छूट जाता था तो अफ़सोस नहीं होता था. या कि अफ़सोस दिल में ऐसे गहरे दफन करके रख दिए गए थे. जीवन की संध्या में अफ़सोस की खुशबू वाले फूल खिल रहे थे. इन्हें करीने से रखने का सलीका सीख रहा था वो आजकल. एक कांच के गुलदान में सबरंगी अफ़सोस थे...तीन चार दिन ताज़े रहते थे, फिर उनकी जगह नए अफ़सोस ले लेते थे.

आईने के सामने खड़ा था...याद नहीं था कहाँ जाने के लिए तैयार हुआ था. कल रात उसका सपना देखा था. लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था, तुम्हारा हाथ चूम सकती हूँ? सपना बेहद सच्चा सा था. उसने अपनी कलाईयाँ सूंघी...दालचीनी की खुशबू थी तो सही...या कि टेबल दालचीनी की लकड़ी से बनी थी? उसे ख्याल नहीं कि मजदूरों ने क्या कहा था...उसे लकड़ियों की समझ भी नहीं थी...समझ तो उसे लड़कियों की भी नहीं थी.

बहरहाल...टेबल की तीखी धार से उसकी कलाइयाँ कटती थीं...ख्वाबों में लड़की के दुपट्टे से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की सियाही से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की कलाइयों से दालचीनी की खुशबू आती थी.
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कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है. कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी.

12 August, 2013

तेज़ चलाओ...और तेज़...और तेज़

जानेमन, हम सोच रहे हैं कि आपका नाम 'जीशान' रख दें.
बाईक पर वो दोनों बहुत तेज़ उड़े जा रहे थे. सामने खुली सड़क थी और पीछा करते घने काले बादल. देखना ये थी कि बैंगलोर पहले कौन पहुँचता है...वो दोनों या बारिश. रेस लगी हुयी थी और सारे जिद्दी किस्म के लोग थे. इस बेखयाली में लड़की का नीला स्कार्फ जैसे बादल को चिढ़ा रहा था कि आँचल छू के दिखाओ तो जानें और लड़का सूरज की भागती किरणों के पहिये पर था. बाईक हवा से बातें कर रही थी...हवा बाईक के लिए बैकग्राउंड म्यूजिक दे रही थी. इस सारे माहौल में लड़के को अचानक से नाम बदलने की बात समझ में नहीं आनी थी, नहीं आई.
'हमारे नाम में क्या बुराई है?' पीछे मुड़ते हुए बोला...हवा उसके आधे अक्षर उड़ा कर ले गयी और एक नया गाना गाने लगी.
'इस नाम से तुम्हें सारे लोग बुलाते हैं, बहुत कोमन हो गया है तुम्हारा नाम'
'नाम का काम ही यही होता है, कितने प्यार से घर वालों ने नाम रखा है ------- ------ ----' हवा उसके नाम के सारे अक्षर उड़ा गयी और लड़की के पल्ले कुछ नहीं पड़ा. लड़की चुप.
'तुम्हें ये नया नाम रखने की क्या सूझी, नया नाम तो शादी के बाद बदलते हैं...या फिर उस ऐड की तरह...आई विल टेक अप हर सरनेम'.
'शादी के बाद तुम नाम बदल लोगे!?'
'नाम बदल लूँगा तो तुम मुझसे शादी कर लोगी?'
'तुम प्रपोज कर रहे हो?'
'तुम हाँ बोल रही हो?'
'पता है आइंस्टीन ने कहा था कि ऐनी मैन हू कैन ड्राइव सेफली व्हाइल किसिंग अ प्रेटी गर्ल इस सिम्पली नौट गिविंग द किस द अटेंशन इट डिजर्व्स'
' भाड़ में गया तुम्हारा आइन्स्टीन...मैं यहाँ ऐसा सवाल कर रहा हूँ और तुम्हें कोटेशन की पड़ी है'
'बिना भीगे बैंगलोर पहुँच गए तो कर लूंगी'
'आई विल मेक श्योर आई गिव द किस द अटेंशन इट डिज़र्वस्'
अब बस बैंगलोर जल्दी पहुंचना था...दोनों की जुबान पर बीटल्स का गीत था...Close your eyes and I'll kiss you...tomorrow I'll miss you....फुल वॉल्यूम में और बिना किसी सही ट्यून के एक साथ दोनों गा रहे थे.
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ब्लैक आउट.
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याद के आखिरी चैप्टर में जुबान पर खून का तीखा स्वाद था...जंग लगे लोहे जैसा. उसे याद नहीं कि बाईक कहाँ स्किड हुई थी...ट्रक ने कौन सा टर्न लिया था. उसने रियर व्यू मिरर में उसकी आँखें देखी थीं. हेलमेट की स्लिट से. उन आँखों में बहुत सारा प्यार और उतनी ही शरारत थी. ये हरगिज़ वो आँखें नहीं थीं जिनमें मौत नज़र आये. तो क्या खुदा से कोई गलती हो गयी थी?
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उसे किस्तों में मिटाना बहुत मुश्किल था. यकीन नहीं था वो इस तरह हिस्सा बनता गया था. बीटल्स के गीत हो या कि गुरुदत्त की फिल्में...कितने सारे सीडी कवर पर उसका लिखा कुछ न कुछ मिल जाता था. घर के कोने कोने में उसकी लिखी पुर्जियां थी और याद के कोने कोने में उसकी चिप्पियाँ. घर की दीवारों पर उसके इनिशियल्स थे. पसंद की फिल्मों के प्रिंट्स काले फ्रेम में थे...लड़की को हर कील की पोजीशन और फिर ड्रिल करता हुआ वो याद आता था. उसका टूल किट डोनेट करते हुयी कैसी फूट फूट के रोई थी वो.

बाईक सर्विसिंग के वापस आ गयी थी. लड़की को लड़कपन के बाईक सीखने वाले दिन याद आ गए. बाकी लोगों के उलट, उसने बाईक पहले सीख ली थी. वो अपने घर वालों का एकलौता बेटा था...सब काफी प्रोटेक्टिव थे उसको लेकर. पापा ने कार ले दी थी लेकिन बाईक कोई उसे न सीखने देता, न चलाने देता कभी. इसी सिलसिले में वो पहली बार छुप छुप के मिलने लगे थे. कोलेज में गर्मी की छुट्टियाँ थीं. लड़की उसे बाईक का क्लच, गियर, ब्रेक सब बता रही थी. धीरे धीरे बोलते हुए भी घबराहट में वो एक्सीलेरेटर देते चला गया था. तेज़ गाड़ी से जब दोनों फेंकाए थे तो बारिश के कारण ही बचे थे. मिट्टी और कीचड़ था इतना कि जरा भी चोट नहीं आई. उस दोपहर दोनों ने बारिश का इंतज़ार किया. मूसलाधार बारिश में कपड़े साफ़ हुए तो घर जाने लायक हालत हुयी. बाईक और बारिश से रिश्ता उम्र के साथ गहराता गया.

लॉन्ग ड्राइव्स, शोर्ट ड्राइव्स...रेसिंग. कितने सारे रास्तों से गुजरी उनकी दोस्ती. लड़का जब पहली बार दिल्ली गया तो दो पोस्टर लेकर आया. हार्ले डेविडसन के. वो फ्रेम्स दोनों ने खुद मिल कर की थीं. लकड़ी की पतली बीट्स को पेंट करने से लेकर छोटी कीलें लगाने तक. उनके कमरे बिलकुल आइडेंटिकल थे, सिवाए एक ड्रेसिंग टेबल और एक छोटे डम्ब बेल्स के.
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उसके होते हुए लड़की को कभी नहीं लगा कि वो ऐब्नोर्मल है. लड़की को कभी किसी और दोस्त की या किसी और वैलिडेशन की जरूरत महसूस नहीं हुयी. उसने कभी नहीं देखा कि उसकी बाँहें टैन हो गयी हैं या कि चेहरे पर मुहांसे निकल रहे हैं. जिंदगी में इतना सारा खालीपन अचानक से आ गया था और भरने का कोई तरीका उसे मालूम नहीं था. घर पर सबको लग रहा था कि अब वो इस बाईक के जंजाल से निकल कर सलवार कुरता पहन कर तमीज से दुपट्टा लेने वाली लड़की बनेगी. शायद तरस खा कर कोई लड़का शादी कर भी ले उससे. घर में मामियों, चाचियों, भाभियों का जमघट लग गया था. उसके स्लीवलेस टॉप और शॉर्ट्स को देख कर नाक भौं सिकोड़ती औरतें उसे कभी तोरई की सब्जी बनाने के तरीके बतातीं कभी पति को मुट्ठी में काबू करने के नुस्खे सिखातीं.
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डेढ़ महीने बाद पैर का प्लास्टर खुला. घर पराया हो रहा था. इतने सारे लोग सुबह शाम. उनकी सिम्पथी. डॉक्टर ने महीने भर का वक़्त बताया था ठीक से चलने में. घर के ईजल की जगह व्हाईट बोर्ड ने ले ली थी. हार मानना और रो कर बैठना किसी बाईकर की जिंदगी में नहीं आता. गिरने के बाद हँसते हुए उठना, बाईक की स्थिति जांचना और फिर राह पर निकल पड़ना एक आदत सी बन जाती है.

बाईक एक ऐसा बेस्ट फ्रेंड होती है जिससे प्यार ताउम्र चलता है. लड़की ने एक ऐडवेंचर क्लब का पूरा खाका तैयार कर लिया था. जिंदगी के पागलपन को एक रास्ता चाहिए था. घर पर सबको यकीन था वो कभी बाईक चला नहीं पाएगी. डॉक्टर्स ने उसकी स्थिति देख कर कहा था कि वो डिप्रेशन की शिकार है और खुद को ज्यादा फ़ोर्स न करे. उन्ही परिस्थितियों से दोबारा गुजरने पर उसमें सुसाइडल टेंडेंसी डेवेलप कर सकती है. इस वक़्त उसे थोड़े आराम की जरूरत है.

सबके डरने से उसकी भी धड़कन तेज़ हो गयी थी. जब राइडिंग गियर पहन कर वो बाईक के पास जा रही थी तो दर्जनों आँखें उसका पीछा कर रहीं थीं. उसे आज तक कभी खुद को प्रूव करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उसका जो दिल करता था करती आई थी. उसे कभी ये भी नहीं लगा कि वो कुछ बहुत ख़ास कर रही है. मगर आज जैसे अग्निपरीक्षा थी.

उसने हेलमेट पहना, गॉगल्स लगाये और बाईक स्टार्ट की. प्यार. दर्द. जीशान. खोना. खालीपन. सब पीछे छूटता गया. वन्स अ बाईकर. बाईकर फॉर लाइफ. जिंदगी अच्छी सी लग रही थी. जीने लायक. खुशनुमा. तेज़ रफ़्तार. इश्क जैसा कुछ. जिंदगी जैसा कुछ.

गीत फिर भी वही था...बीटल्स...टुमोरो आई विल मिस यू...

23 July, 2013

शिप ऑफ़ थीसियस

मुझे फिल्म ख़त्म होने के बाद की कास्टिंग के सारे टाइटल्स तक रुकना अच्छा लगता है. कल की फिल्म 'शिप ऑफ़ थीसियस' देखने के बाद भी सारे टाइटल्स तक रुकी रही. हॉल से बाहर आते हुए मन ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ देर एकदम चुप रहने का मन था. इतना कुछ था कहने को कि समझ नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ. मगर मालूम था कि इस फिल्म के बारे में लिखना पड़ेगा.
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Ship of Theseus के बारे में मालूम चला, IIMC के सहपाठी अंकुर ने इस पन्ने को लाईक करने का लिंक भेजा था. ट्रेलर देखते हुए फिल्म के बारे में एक गहरी उत्सुकता बन गयी थी. वीकेंड में व्यस्त थी तो नहीं देख पायी. कल मंडे होते हुए भी रात का शो देखने की ललक थी. ऑनलाइन कटाने की कोशिश की तो पीवीआर हाउसफुल. फिर बुकमायशो से टिकट कटाई. कुणाल व्यस्त था तो सोचा अकेली चली जाऊं, फिर नेहा से पूछा, वो फ्री थी तो उसके साथ चली गयी.

फिल्म में कुछ छूट न जाए इसलिए बिफोर टाईम पहुंचे, जो कि एक तरह का रिकोर्ड ही है. पोपकोर्न और कोल्ड ड्रिंक लेकर अन्दर गए तो अचरज से भर गए. पीवीआर कोरमंगला में मंडे को रात का शो वाकई हाउसफुल था. बंगलौर जैसे शहर में जहाँ भागते दौड़ते फुर्सत नहीं मिलती, कितने सारे लोग इस फिल्म को देखने आये थे.
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फिल्म का टाइटल शिप ऑफ़ थीसियस नाम की कहानी पर है. एक शिप होता है, जैसे जैसे उसके पुर्जे ख़राब होते जाते हैं, एक एक करके उसके सारे पुर्जे, लकड़ियाँ, खम्बे, सब कुछ बदल दिया जाता है. एक वक़्त में शिप में पुराने शिप का कोई पुर्जा भी नहीं होता. शिप के ख़राब हुए पुराने पुर्जों को जोड़ कर एक शिप बना दिया जाए, तो इन दोनों में असली शिप ऑफ़ थीसियस कौन सा होगा.

फिल्म में तीन कहानियां हैं. पहली एक फोटोग्राफर की कहानी है जो बचपन में आँखों के कोर्निया इन्फेक्शन के कारण देख नहीं सकती. उसके पास एक कैमरा है जो आसपास की चीज़ों के बारे में बोल कर बताता है. वो सुन कर, महसूस कर के तसवीरें खींचती हैं. उसका पार्टनर/बॉयफ्रेंड भी उसे उसकी खींची हुयी तस्वीरों के बारे में डिटेल में बताता है. दोनों में इस बात पर बहस होती है कि अच्छी तस्वीर कौन सी है, लड़की का कहना है वो तस्वीर जो मैंने सुन कर महसूस कर के खींची है...इत्तिफाक से खींची गयी अच्छी तस्वीर भी वो अपने कलेक्शन में नहीं रखना चाहती. उसे सिर्फ वो चीज़ें रखनी हैं जिन्हें उसने खुद कम्पोज किया है, जिस कहानी को वो कहना चाहती है. ये उसका अंतिम निर्णय है कि कौन सी तस्वीर रखी जाए और कौन सी नहीं.

फिल्म का ये सीन किचन में फिल्माया गया है. मुझे याद करने पर भी याद नहीं आता कि किसी आखिरी फिल्म में इस बात पर बहस कब देखी थी कि व्हाट इज आर्ट. कि हर एक का नजरिया अलग होता है. एक आर्टिस्ट लोगों के लिए, उनके हिसाब से नहीं रच सकता...वो इसलिए रचता है कि उसे अपना कुछ कहना होता है. वरना क्या फर्क पड़ता है. फिल्म का ये सेगमेंट मेरे लिए सबसे रियल था. सवाल जैसे मेरे सवाल थे. बैकग्राउंड स्कोर में सन्नाटे का बेहतरीन इस्तेमाल था.

फिल्म की दूसरी कहानी एक जैन साधू की है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज़ से ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है. बारिश भीगता मुंबई हो या विंडमिल के खेतों में गुज़रती साधुओं की छोटी टोली. इसमें सवाल इतने सारे और फिलोसफी इतनी गहरी कि कई बार तो लगता था कितना कुछ मिस कर गए. फिल्म को स्लो मोशन में देखने का दिल करता था.

फिल्म का तीसरा हिस्सा एक व्यक्ति के बारे में है जिसने किडनी का ओपरेशन करवाया है. इसमें मेरा पसंदीदा हिस्सा है जहाँ वो अपनी नानी से बात कर रहा होता है. नानी का कहना है जिंदगी में इतना कुछ देखने को है, इतना कुछ करने को है, तुम एक आम सी जिंदगी कैसे जी सकते हो. जवाब है कि मुझे नहीं चाहिए इतनी सारी चीज़ें. मैं अच्छा कमाता खाता हूँ, लोग मेरी इज्ज़त करते हैं, अ लिटिल ह्युमनिटी...और क्या चाहिए इंसान को. मुझे वाकई सिर्फ इतना ही चाहिए.
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फिल्म देख कर गर्व की अनुभूति होती है. हालाँकि इसे किसी कैटेगरी में नहीं डाल सकते लेकिन मिनिमलिस्ट फिल्म है. इसकी रफ़्तार कभी धीमी तो कभी बहुत तेज़ है. बहुत सारे डायलॉग नहीं हैं पर जो हैं बेहतरीन हैं. फिल्म आपको पासिव ऑब्जर्वर नहीं, अपना हिस्सा बनाती है, अपने द्वन्द, ड्यूअलिटी का हिस्सा. जहाँ आप दोनों पक्ष देखते हैं.

फिल्म देख कर लगता है कि भारतीय सिनेमा एक युग आगे जा चुका है. अपने देश में ऐसी फिल्म बन भी सकती है यकीन नहीं होता. इसके सारे सरोकार भारतीय हैं, कुछ ऐसा जो कहीं और, किसी और देश में नहीं बन सकता था. मालूम नहीं चलता कि फिल्म कहाँ से आपकी अपनी हो जाती है, महज दर्शक होने से...आप फिल्म का हिस्सा हो जाते हैं. फिल्म आज के दौर की है मगर इसके सवाल हर दौर में उतने ही महत्वपूर्ण रहेंगे. फिल्म काल-क्षय से परे है. शिप ऑफ़ थीसियस की तरह, फिल्म के कई पुर्जे उन सारे लोगों में लग गए हैं जिन्होंने इस फिल्म को देखा है. जब तक ये लोग रहेंगे, शिप ऑफ़ थीसियस विस्मृत नहीं होगा.

अगर आपको फिल्में पसंद हैं और शिप ऑफ़ थीसियस आपके शहर में लगी है तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बड़ा पर्दा इन्ही चीज़ों के लिए अस्तित्व में आया है. जिंदगी की सूक्ष्म विशालताओं के लिए.

फिल्म को पांच में से साढ़े पांच स्टार्स.
Rating 5.5 out of 5 stars.

Ship of Theseus - Trailer


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