30 September, 2013

तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट

फोन की घंटी बजती रहती है लगातार...ऑफिस की बेजान दीवारों के सिवा कोई नहीं सुनता. लेट नाईट शिफ्ट्स इल्लीगल हो गयी हैं मगर लेट नाईट नींद न आने पर किसी ऑफिस के लैंडलाइन पर फोन करना अभी भी इलीगल नहीं हुआ है. याद की बेतरह सतरें होती हैं. ब्लैंक काल्स के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मोबाईल फोन की दुनिया में लैंडलाइन ओब्सोलीट होकर ख़त्म होने की कगार पर ही है. जिस दुनिया में उसने इश्क करना सीखा था, उस दुनिया की आखिरी कुछ निशानियों में से था लैंडलाइन. ये मिस काल्स के पहले की दुनिया थी. जहाँ सिर्फ संख्याओं का मोर्स कोड चलता था. वो लड़की जिसे चार में से दो घटाने के लिए भी उँगलियों का इस्तेमाल करना होता था, उसे साढ़े तीन रिंग पर फोन काटना भी आता था और जवाबी ढाई रिंग सुनकर समझना भी आता था कि छत पर ठीक ढाई बजे दोपहर में कपड़े पसारने हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लू चल रही है कि सूरज मनमानी पर उतरा है. उसकी बाईक उसी समय गुज़रेगी उधर से. बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे. झीने दुपट्टे के पार से उसे देखेगी तो कोई गर्मी उसे छू भी सकेगी भला. नीम की ठंढी छाँव जैसी थी उसकी नज़र. जिस रोज़ आता, सारे दुपट्टों का रंग सतरंगी हो जाता था.

उस वक़्त कितने लोग शामिल थे उनके मिलने की साजिश में. मोहल्ले के परचून की दूकान वाली दीदी. उसे खुल्ले पैसे के बदले जिस दिन डेरी मिल्क देती, उसकी शामों में मिठास घुल आती. फिर अक्सर कुएं का पम्प ख़राब हो जाए वो ऐसा मनाती रहती. भगवान भी उन दिनों उसके साथ था उसपर कुछ तो गर्मी का मौसम मेहरबान था. अक्सर पम्प एयर ले लेता. फिर उसके घर कोई बुतरू दौड़ाया जाता, गर्मी में वो भागते हुए आता. अक्सर खाली बदन होता था. सांवले रंग पर पसीना कैसा चमकता था. वो पम्प की नली में कुएं से पानी भर रहा होता और लड़की किनारे से पुदीना के पत्ते तोड़ रही होती उसके लिए शरबत बनाने के लिए. दुपट्टा कमर में बांधे सिलबट्टे पर पुदीना पीसती. जल्दी जल्दी शरबत बनती. स्टील के बड़े से गिलास में शरबत लिए लौटती. बाल्टी से पानी बराती उसके लिए. वो हाथ मुंह धोता, कोई गमछा नहीं होता तो अक्सर उसके दुपट्टे में ही हाथ मुंह पोंछता. शरबत पी कर उसके चेहरे पर तरावट आ जाती और लड़की के चेहरे पर लाली. फिर पूरी रात दुपट्टा गले में डाले यूँ सोती जैसी उसकी बाँहें हों. कैसी नींद आती, कैसे सपने आते, कैसा लजाया सा दिन गुज़रता फिर.

गर्मी के दिन कितने तो लम्बे होते थे और लम्बे दिनों के कितने काम उसके हिस्से आता था. बाग़ जा कर आम के टिकोले तुड़वाना. लड़की अपना दुपट्टा फैलाये टिकोला लोकने के लिए तैयार रहती थी. अचार के लायक आम जुट जाते थे तो झोले में भर कर एक किनारे रख देते थे दोनों. वो चापाकल चलाता जाता, लड़की पानी के छींटे मारती चेहरे पर. क्रम बदलता और लड़का हाथ मुंह धोता. दरबान चाचा की चारपाई पर बैठ जाते. लड़की अपने दुपट्टे की छोर पर लगी गाँठ खोलती और नमक निकालती. उसकी हथेली में नमक होता और दोनों एक एक टिकोला दांत से काट कर खाते. दरबान चाचा से उनके बच्चे का हाल पूछते. लड़का थोड़ा ज्यादा बात करता उनसे, काकी उसे बहुत मानती थी तो अक्सर थोड़ा सा आम पन्ना भी बना देती. लड़की वहां बैठी ऐसा महसूस करती जैसे जिंदगी ऐसी ही रहेगी हमेशा. हर साल आम का मौसम ऐसे ही आएगा. अचार डाला जाएगा और दोनों काकी से ऐसे ही बात करते रहेंगे. कुछ साल में वो अपने बच्चों को भी यहाँ लेकर आएगी. तब तक वो नानी से अचार बनाना भी सीख लेगी. ऐसा सोचते सोचते वो अक्सर खो जाती थी तो लड़का उसकी चोटी खींच कर या चुट्टी काट कर दुनिया में वापस लौटा लाता था. वापसी में झोले का एक एक डंडा पकड़े हुए दोनों चलते रहते. अक्सर कोई डुएट गाना गाते रहते. कोई भी तो चिंता नहीं होती उन दिनों सिवाए इसके कि अचार बनाने के लिए अच्छी धूप निकले.

उस वक़्त उन लोगों ने लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन जैसा कुछ सुना नहीं था. कोलेज के आखिरी दिनों उन्होंने सोचा भी कहाँ था कि अपने अपने कोलेज में टॉप करना उनके लिए कितनी बड़ी सजा लेकर आएगी. प्रिंसिपल के कहने पर लड़की ने स्कोलरशिप के लिए अप्लाई कर दिया था और लड़का भी पीएचडी करने के लिए बड़े शहर के कोलेज का फॉर्म ले आया था. उन्हें लगता था कि गर्मी की छुट्टियाँ जिंदगी भर ऐसी ही रहेंगी. मगर बड़े शहर बड़े बेरहम होते हैं, लोगों को इतनी दूर कर देते हैं कि महीने भर लम्बी छुट्टियाँ भी दूरी को पाट नहीं पातीं. दोनों अलग अलग शहर में रेडीमेड अचार खाते हुए बचपन के टिकोलों के लिए तरसते रहते. लड़की को करीने से साड़ी पहननी आ गयी थी और लड़का कुरते में बहुत ही ज्यादा हैंडसम लगता था. कभी कभार साइबर कैफे में वो वेब चैट करते. लड़की किसी से कह नहीं सकती लेकिन उसका दिल छटपटाता कि साड़ी के खूबसूरत पल्लू से उसके माथे का पसीना पोंछ सके. उसके किसी दुपट्टे से लड़के की खुशबू नहीं आती थी आजकल. सुबह बस में सफ़र करते हुए दुनिया भर के अनजान लोगों की भेदती नज़रें छलनी करतीं मगर वो बचे हुए पच्चीस रुपयों से एसटीडी कॉल करती रोज़. लड़का भी लोकल ट्रेन में आधी नींद में झूलता हुआ उसके माथे पर झूल आई लट को उठा कर उसके कान के पीछे खोंस देने के ख्वाब देखता रहता.

दिन, महीने, साल ऐसे भागते थे जैसे किसी और के हिस्से की उम्र उन्हें जीनी है. छुट्टियों में घर आते तो पूरा मोहल्ला उन्हें घेर कर बैठा रहता. लड़कियां उसके जैसी बनना चाहतीं, लड़कों का वो रोल मॉडल हो चुका था. फुर्सत से बैठ कर एक दूसरे के दुःख सुख सुनने के लम्हे मिलते ही नहीं थे. माँ-चाची-रिश्तेदारों की अलग बातें रहती थीं. छोटी सी सैलरी के छोटे छोटे सुख थे. माँ के लिए साड़ी लाना. नानी के लिए इम्पोर्टेड चाकू कि जिससे आम काटने में आसानी हो. कभी कभी देर रात माँ बाल में नारियल तेल लगा रही होती तो उसका दिल करता कि फूट फूट कर रो पड़े. उसे नहीं चाहिए था इतना बड़ा जहान. उसे नहीं बनना था सबका रोल मॉडल. वो तो बस गर्मी की छुट्टियाँ चाहती थी. सबके पास रहना चाहती थी. ऐसा ससुराल चाहती थी जो मायके के पास हो कि जब दिल करे भाग कर मम्मी के पास आ जाए. ये कैसी विदाई हो गयी थी उसकी. न डोली चढ़ी. न पापा के गले लग कर रोई और पूरे शहर ने पराया कर दिया. साल की एक छुट्टियाँ मिलती थीं. पिछली बार तो ट्रेन पर चढ़ते हुए ही उससे मिलना हो पाया. उसका बक्सा उठा कर ऊपर वाली बर्थ पर रख रहा था. लड़की ने कैसे रोका खुद को...दिल उससे लिपट कर रो देना चाहता था. बेइन्तहा. कहना चाहता था कि सब छोड़ कर भाग जाने का दिल करता है. मगर अब वो लड़की थोड़े रही थी...बच्ची नहीं थी. एक औरत से गंभीरता की उम्मीद की जाती है. रॉ सिल्क की साड़ी पहने हुए उसका व्यक्तित्व भी तो गरिमामयी लगता था. टूट नहीं सकती थी वो. नहीं कह सकती थी कि अकेलापन सालता है उसे. लड़का माथे पर आई नन्हीं बूंदों को सफ़ेद रुमाल से पोंछता है. एक लम्हा देखता है उसे. रोकता क्यूँ नहीं है. अपनेआप से पूछता है.

वो भागती हुयी आई है अगली बार. स्टेशन पर वही आया है उसे लेने. नानी की तबियत ख़राब सुनी थी तब उसे मालूम नहीं था कि नानी उसके आने का इंतज़ार नहीं कर पाएगी. भीगे हुए घर से अभी अभी सबके शमशान जाने की गंध आ रही थी. उसे सम्हालना नामुमकिन था. वो किसी को बता नहीं सकती कि क्या क्या खो जाने के लिए रो रही थी. नानी के जैसा अचार बनाना नहीं सीख पाने के लिए. हर गर्मी टिकोले नहीं तोड़ पाने के लिए. आम के उस पेड़ से लिपट पर अपनी शादी में नहीं रोने के लिए. क्या क्या छूट गया था. हमेशा के लिए. क्या हासिल हो गया था ऐसा. नानी के हाथ की बुनी गर्म मफलर लपेटे हुए घर के कोने में चुप सिसक रही थी. उसके बचपन की सारी चाबी नानी ही तो थी. उसके पसंद की सारी सब्जियां...उसके मन का सारा प्यार...उसकी सारी बदमाशियां. गिनती के दिन की छुट्टियाँ भूल गयी वो. नानी के अलावा कोई कैसे नहीं देख पाता था उसकी आँखों में उसे टूटते हुए. अब किसके सीने से लग कर रोएगी लड़की. लड़के के साथ सालों साल का रिश्ता टूट रहा था. एक आम के अचार की बात थी. बस. रिश्ता ही क्या था और उससे.

लौट आई थी. देर रात फोन करती लड़के को. घंटी देर तक बजती रहती. कोई उठाता नहीं. उसे कहाँ मालूम था लड़के की शिफ्ट्स बदल गयी हैं. टेक्नोलोजी भी उसे वैसी ही अबूझ लगती थी जैसे बचपन में संख्याएँ. नेट पर गूगल करने बैठी. लड़के का नाम सर्च में डाला तो एक ब्लॉग का लिंक आया. बड़ा खूबसूरत ब्लॉग था. बचपन में आम के पेड़ पर लगे झूले की तस्वीर ने उसका ध्यान खींचा. उसने दो चोटियाँ कर रखी थीं और झूले को धक्का देता लड़का खड़ा था पीछे. ये तस्वीर तो कब की एल्बम से खो गयी थी उसकी. यहाँ चुरा कर रखी है जनाब ने. उसने पढ़ना शुरू किया तो सोचा भी नहीं था उसके नाम इतने ख़त पूरी दुनिया को दिखा कर लिखे गए हैं. हर पोस्ट पर उसका जिक्र, कहीं उसके नीले दुपट्टे पर लगे कांच से चेहरा छिल जाने वाली शाम...डिटॉल से टीसता याद का हर पन्ना. कतरे कतरे में पूरा बचपन और जवानी संजोयी हुयी. रात रात भर पढ़ती रही और सोचती रही प्यार का इतना गहरा दरिया और कहने को सिर्फ आँखें.

सुबह उनींदी थी. रात भर जागी हुयी आँखों में नींद से ज्यादा इश्क था. घर पर छुटकी को फोन किया और उसके शहर का पता जुगाड़ने को कहा. जितनी देर में छोटे से मोहल्ले में उसका पता जुगाड़ा छुटकी ने उतनी देर में वो पैक कर चुकी थी. छोटा सा बैग लेकर एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी की. टिकट कटाया और सपनों के शहर में अपने राजकुमार पर हक जताने निकल पड़ी. उसके घर का कॉलबेल बजाते हुए उसे जरा भी फ़िक्र नहीं हुयी.
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लिखना ये चाहती हूँ कि लड़के ने खोला था दरवाज़ा और उसका एक कमरे का घर ऐसा था जैसे सदियों से लड़की के इंतज़ार में रुका हो. घर की दीवारों पर आम के पेड़ की अनगिन तसवीरें थीं. कुछ बचपन के बनाए हुए कार्ड्स से बनी हुए मॉडर्न आर्ट जैसी पेंटिंग्स थीं. एक बड़े से फ्रेम में उसकी बचपन की वो फोटो थी जिसमें वो दुल्हन बनी हुयी है घाघरा चोली में. वो लड़के से कहती है...मुझसे शादी कब कर रहे हो? इसके अगले दिन दोनों घर वापस लौटते हैं. जो पहला मुहूर्त मिलता है उसमें शादी की डेट पक्की होती है. उनकी शादी में पूरा मोहल्ला लाइटों से सज जाता है. सारे लोग आपस में बात करते हैं कि कैसे उनकी लव स्टोरी में उन्होंने सबसे जरूरी किरदार निभाया. दोनों अपने छोटे शहर वापस आ जाते हैं और मिल कर एक आर्गेनिक अचार बनाने की फैक्ट्री खोलते हैं जिससे शहर के अनेक लोगों को रोजगार मिलता है. उनका प्रयास उन्हें कई सारे अवार्ड दिलाता है. उनके दो बच्चे होते हैं, एक लड़की और एक लड़का. हैप्पी एंडिंग.
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कहानी ऐसी नहीं होती है न. सच्चाई कहती है कि दरवाज़ा किसी शॉर्ट्स और स्पैगेटी टॉप पहने हुए लड़की ने खोला होगा जो सिर्फ लड़के की रूम पार्टनर रही होगी. मगर उसे देखते हुए लड़की का दिल ऐसे टूटेगा कि मेरी कलम की कोई सियाही उसे भर न सकेगी. समझ का कोई लोजिक उसे नहीं समझा पायेगा कि बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं. वो लौट जायेगी फिर किसी घर में कभी वापस न जाने के लिए. सब जानते हुए कॉल्स की गिनती ठीक करते हुए. तीन रिंग माने आई लव यू. तीन रिंग माने आई मिस यू. तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट. 

26 September, 2013

फ्रेंडशिप ऑन द रोड टु फॉरएवर

आज एक नया गीत सुना. अपनी दोस्ती जैसा. दिल किया तुम्हें फोन करके सुनाऊं. तुम हँसते हुए छेड़ो कि मेरी आवाज़ कितनी बुरी है. होस्टल के पुराने दिन याद आ रहे हैं. उन दिनों गाना कितना अच्छा लगता था. इतनी चूजी भी तो नहीं थी, अक्सर कोई ना कोई चीज़ अच्छी लगती रहती थी. कितने तो नए नए गाने सुने थे. ख़ास तौर से अंग्रेजी के. कितने तो अच्छे बोल हुआ करते थे. एक ही तरह छोटे छोटे शहर से हम आये थे. अंग्रेजी गानों में अपनी डिक्शनरी बन ही रही थी अभी. होस्टल के कोरिडोर में सीटी मारते हुए या गाना गाते हुए ही अक्सर पाए जाते थे. रात के सन्नाटे में आवाज़ कैसी गूंजती थी. तभी

मुझे याद है पहला अंग्रेजी गाना जो मैंने सुना था 'समर ऑफ़ सिक्सटी नाइन'...आज भी लॉन्ग ड्राइव्स पर एक बार जरूर बजाने का मन करता है. ख़ास तौर से सिगरेट पीते हुए. वैसे जो बात तुम्हारी तेज़ रफ़्तार बाईक में पीछे बैठ कर सिगरेट पीने का था वो जिंदगी की किसी बारिश में लौट कर नहीं आया. याद है तुम कितनी तेज़ बाईक चलाते थे? हम खामखा कैलकुलेट करते थे कि बारिश की रफ़्तार ज्यादा तेज़ या बाईक की...मैथ तो हम दोनों का उतना ही ख़राब था. पता तो बस बाईक की रफ़्तार होती थी. तुम्हारी वो नयी ब्लैक एनफील्ड. याद है मैं उसे हमेशा बुलेट कहती थी. ऑफिस से बंक मार कर इण्डिया गेट भागना. क्या खूब दिन हुआ करते थे.

सबका नंबर लगा हुआ था जिस दिन तुम्हारी बाईक आई थी. उस वक़्त मैं तुम्हारी ख़ास दोस्त भी नहीं थी लेकिन जैसा कि दस्तूर था, कोलेज की पहली बाईक थी तो हर लड़की का नंबर आना ही था. उसके बाद तुमने जाने कितना पेट्रोल फूँका होगा. कभी फ़ोटोस्टेट कराना होता था, कभी इंटरव्यू मिस हो रहा होता था किसी का. तुम एकदम से हॉट प्रॉपर्टी हो गए थे. सबका बराबर हक बनता था तुमपर और तुम इतने स्वीट कि किसी को कभी मना नहीं किया. उन दिनों तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हुआ करती थी और कुछ यूँ कि होस्टल की हर लड़की तुमपर मरती थी.

आज ऐवें ही तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. उन दिनों रे बैन का चश्मा. पता नहीं असली था कि दस रुपये में ख़रीदा था जनपथ से मगर कसम से क्या खूब जंचता था तुमपर. हीरो थे तुम हमारे. एक तुम्हारी बाईक आने से कितना कुछ आसान हो गया था हमारे लिए. फिर तुम्हारे लिए कितना कुछ स्पेशल होते गया था. किसी के घर से आया पिरकिया होस्टल में बंटे न बंटे, तुम्हारा कोटा हमेशा रिजर्व रहता था. बात यहाँ तक कि मेरी बेस्ट फ्रेंड की मम्मी उसके लिए आलू के पराठे और कटहल का अचार लेकर आई. अब अचार की गंध छुपती है भला. शाम तुम्हारी उँगलियों में बाकी थी हलकी महक. वो तो अच्छा हुआ उसका पहले से बॉयफ्रेंड था वरना हम दोनों लड़ मरने वाले थे तुम्हारे प्यार में.

तुमपर थोड़ा एक्स्ट्रा हक़ बनता था मेरा, आखिर एक शहर से जो थे. देखे हुए से लगते थे तुम. जाने हुए से. काम हो न हो, बारिश होती थी तो अक्सर तुम होस्टल के सामने मिल जाते थे. राइड पर ले चलने के लिए. फिर कितनी तेज़ी से पीछे छूटती थी थी गहरी गुलाबी बोगनविलिया कि बारिश गुलाबी लगती थी. कुछ तो स्पेशल था उन राइड्स में. प्यार से थोड़ा कम लेकिन दोस्ती से थोड़ा ज्यादा. मुझे याद है जब पहली बार तुम्हारी एनफील्ड चलाई थी, दिल वैसा तेज़ तो पहले प्रपोजल पर भी नहीं धड़का था. पर तुम्हें भरोसा था मुझपर. हमने वापस आकर रबड़ी जलेबी से सेलिब्रेट किया था. कायदे से हमें वोडका के शॉट्स मारने थे मगर हमें कोई और ही नशा हुआ करता था उन दिनों. शायद वो उम्र ही वैसी थी.

आखिरी कुछ प्रोजेक्ट्स करते हुए एक दिन हम ऐसे ही साथ निकले हुए थे. रिकोर्ड करते, इंटरव्यू लेते बहुत देर रात हो गयी थी. उसपर बेमौसम की बारिश. उस दिन तुमने कहा था, चल तुझे हाइवे पर ले चलता हूँ. तुझे लगता है न तू पागल है. आज मेरा भी थोड़ा पागलपन देख ले. मुझे मालूम क्या होना था कि तुझे व्हीली आती है. सुनसान सड़क पर कोहरे भरी साँसों में तूने कहा था. जरा टाईट पकड़ मुझे, जिंदगी की तरह फिसल जाऊँगा हाथों से वरना. तेरी गर्लफ्रेंड होती मैं तो शायद तुझे सेफ राइडिंग के बारे में फंडे देती लेकिन ऐसा कुछ था नहीं...था तो बस थ्रिल. जिंदगी की सबसे बेहतरीन राइड का थ्रिल. मुझे याद नहीं होगा मगर शायद मैं पागलों की तरह चीख रही थी 'आई लव यू ......' तुम्हारा नाम उस हाई वोल्यूम पर बहुत अच्छा लग रहा था सुनने में. याद है हम कैसे गा रहे थे...ए साला...अभी अभी...हुआ यकीं...कि आग है...मुझमें कहीं...रूबरू.....रौशनी. है.

गुडगाँव में ढाबे पर मक्खन मार के पराठे खाए और कड़क कॉफ़ी पी. कई बार लगा तो है कि दिल्ली के कोहरे में नशा होता है मगर महसूस उस रात पहली बार किया था. जाने किस मूड में हम, तूने कहा था, चल आगरा चलते हैं, मैंने हँसते हुए कुछ तो फेंका था तेरी ओर...क्यूँ? भर्ती होना है? और ठहाका मार कर हंसी थी. फिर तुमने फुसलाया था...एक्सप्रेसवे बना है. चल ना, जहाँ थक जायेंगे वहां से लौट आयेंगे. मुझे उस वक़्त तैराकी का चैप्टर याद आ रहा था. समंदर में तैरने चलो तो उतनी दूर जाओ जितने में आधे थके हो क्यूंकि वापस भी लौटना है. जहाँ थक गए वहां से लौट आने की इनर्जी कहाँ से लायेंगे ये सोचने का मूड नहीं था उस रात मेरा. और आगरे में रुकेंगे कहाँ, पागलखाने में?...ना, मेरी एक दीदी रहती है, उनके यहाँ चले जायेंगे. पर वैसी नौबत थोड़े आएगी...हम वापस लौट आयेंगे. एक मन कह रहा था प्रोजेक्ट का क्या होगा. फिर लगा कि लौट आयेंगे वापस, कुछ घंटों की बात है, और फिर बीमार तो कोई भी कभी भी पड़ सकता है. मैंने होस्टल से नाईट आउट शायद ही कभी ली थी. जाने कैसे तो अच्छी लड़की की छवि बनी हुयी थी मेरी. बहरहाल.

आगरा पहुँचते धूप की पहली उजली किरण बारिश में बलखाती यमुना को गुदगुदी लगा कर उठा रही थी. हम किसी ठेले पर चाय सुड़क रहे थे. फोन बजा. इत्ती भोर में किसका फोन आया होगा सोचते हुए फोन देखा तो दसियों मेसेज पड़े थे. रात को सर की बेटी की डिलीवरी हुयी थी, प्रोजेक्ट प्रेसेंटेशन दो दिन आगे बढ़ गया था. हम वाकई ख़ुशी के मारे पागल हो गए थे. कित्ती टाईटली हग किया हमने. तुम्हारे गीले बालों में कित्ती सारी धुंध अटकी हुयी थी. इत्मीनान से एक कप और चाय निपटाई और पुल पर बैठ गए. आज गज़ब अफ़सोस होता है कि उस दिन कैमरा नहीं था अपने पास. ताजमहल पर वो गाइड याद है तुम्हें, हमें कपल समझ कर कितना भाषण दे रहा था. थोड़ा अजीब लगा था इंस्टैंट फोटो वाले से फोटो खिंचवाना.

तुम्हारी दीदी कितनी क्यूट थी. उनका वो ब्लू स्कार्फ मेरे ही पास रह गया था. कसम से क्या कमाल की मैगी बनाती है तुम्हारी दीदी. मैं लड़का होती तो सिर्फ उस मैगी के लिए उनसे शादी कर लेती. हाय, प्यार हो गया था मुझे उनसे. कैसे तो मिल जाते हैं लोगों से न हम. हर मैगी के पैकट पर लिखा है खाने वाले का नाम. दीदी के छोटे से वन रूम फ़्लैट में थोड़ी देर के लिए ऐसा लग रहा था जैसे कितने पुराने और पक्के दोस्त थे हम तीनों. दीदी कितनी खुश थी कि तुमसे मिलना हो गया. दीदी को कवितायेँ सुनायीं, कुछ उनका लिखा पढ़ा. उनकी डायरी पढ़ लेने की धमकी दी.

वापसी के रास्ते कैसे कैसे तो गाने चिल्लाते आये थे हम. याद है दोस्त? जिंदगी एक सफ़र है सुहाना से लेकर ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे. कॉलेज में किसी को भी बोलते कि हम आगरा हो कर आये हैं तो सब वाकई यही कहते कि हाँ...आगरा होकर आये हो. तो खबर हम दोनों आराम से पचा गए. हम दोनों अच्छे खासे सच बोलने वाले इंसान थे इसलिए किसी ने ज्यादा पूछताछ भी नहीं की.

सोचती हूँ अगर तेरी पोस्टिंग किसी दूसरे शहर में नहीं होती तो क्या वैसी कुछ और लॉन्ग राइड्स पर जाती क्या तुम्हारे साथ. तुम भी जाने किसी कोहरे वाले दिन में तेज़ चलाते होगे बाईक तो मेरा आई लव यू याद आता होगा. बात सिंपल थी लेकिन वो लव यू शायद कहीं अटका रह गया मेरी यादों में. आज तुम्हारी बहुत याद आई. आगरा और ताजमहल से भी ज्यादा. जान से प्यारे दोस्त...बहुत साल हो गए मिले हुए...चल न, एक राइड पर चलते हैं. तेज़ चमकती रोशनियाँ हो. बहुत सारा कोहरा हो. कानों में सीटियाँ बजाती हवा हो. फिर से तुम्हारा नाम लेकर दिल्ली से लेकर आगरा के पागलखाने को सुनाने का मन कर रहा है. आई लव यू.

हाँ, इत्ती कहानी सुना दी...गाना ये वाला था...


I think that possibly, maybe I'm falling for you
Yes there's a chance that I've fallen quite hard over you.
I've seen the paths that your eyes wander down
I want to come too

No one understands me quite like you do
Through all of the shadowy corners of me

I think that possibly, maybe I'm falling for you

25 September, 2013

रास लगी आँखें. आस जगी आँखें.


कैसी रास लगी आँखें हैं न. पानी भरी. अबडबयाईं. पानी से तीखा सान चढ़ा हो जैसे. उन आँखों में देखते डर लगे कि जैसे टुकड़े टुकड़े हो जाता है दिल उन आँखों को देख कर.

देखा है कभी चाकू पर सान चढ़ाते, बार बार घिसना होता है. पानी में भिगो कर. लगातार. कभी कभी तो चिंगारियां भी निकलती हैं. वैसी हैं उनकी आँखें. कान्गुरिया ऊँगली के पोर में काजल लगा जब बड़ी बड़ी आँखों की बाहरी रेखा खींचती हैं तो आईने से चिंगारियां फूटती हैं.

पहले लगता था छोटी बहू जमींदारों के खानदान की आखिरी हवेली में चिन दी गयी होंगी. फिर उनके बाद किसी खानदान में छोटी बहू जैसी दर्द को जीने वाली कोई नहीं आई होगी. हमें क्या पता था कि सिर्फ आउटडोर लोकेशन बदला है शूट का. कहानी अब भी वही है. घुटन अब भी वही और वैसी ही तन्हाई भी है.

ये कैसा खालीपन खाए जाता है. कार के शीशे चढ़ा कर एसी चलाये हुए है लड़की. कार में सिगरेट का धुआं भरा हुआ है और सीने में बेपनाह खालीपन. तनहा सड़कों पर तेज़ रफ़्तार उड़ते हुए सुनती है 'कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ'. भूतनाथ बड़ी मासूमियत से पूछता है 'वही बहुरानी न, जो बहुत रात गए बिरहा गाया करती हैं?' जवाब आता है 'बिरहा न गैहैं तो का मल्हार गैहैं'. सोचती है, उसके बारे में तो ऐसा कोई बताने वाला भी नहीं है. कोई सुनने वाला नहीं. कौन जानेगा दिल के अन्दर फैलता सूनापन.

समंदर का सारा नमक उसकी आँखों में पनाह पाता था. आँखों से बह कर ज़मीन पर पहुँचता तो नमक का पौधा उगने लगता वहां. बेहद जिद्दी और अक्खड़. किसी और को अपने पास रहने नहीं देता. तीखे नमक के कांटे बाड़ बनाने लगते कि कोई दुःख उस तक पहुँच न पाए. नमक के पौधे पर फूल आता तो लड़की अपने बालों में लगा लेती. सुर्ख लाल रंग के फूल से उसकी मुस्कुराहटें गुलाबी होने लगतीं थीं.

आज के दर्द का सबब कुछ और ही था. ये गम उसके खुद का नहीं था. किसी से बेपनाह प्यार करो तो उसके हिस्से का गम अपने बहीखाते में लिखवा सकते हो. किसी को मालूम नहीं चलता था मगर लड़की अंडरहैण्ड डीलिंग करती थी, खुदा के दरबार में उसकी चित्रगुप्त से खास जान पहचान थी. उसका रजिस्टर देखोगे तो लाल रेखाओं से भरा मिलेगा. ये वो तकलीफें नहीं थीं जो खुदा ने उसके नाम लिखी थीं. ये वो तकलीफें थीं जो दूसरे रजिस्टरों से उसके रजिस्टर में ट्रांसफर की गयीं थीं. यूँ तो उसे आदत थी तो अक्सर गम को छोटी छुट्टियों का सबब बना लेती थी. समंदर किनारे कोई छोटी सी बस्ती में एक कमरा बुक करती और देर देर रात तक समंदर को किस्से सुनाया करती. उसके आंसुओं से समंदर का पानी और खारा हो जाता. समंदर लेकिन कभी अधीर नहीं होता, इत्मीनान से उसकी कहानियां सुनता रहता.

लड़की बिरहा गाती तो दूर देश समंदर किनारे बैठे लड़के के सीने में हूक उठने लगती. उसने कितनी बार कहा था अकेली इतनी लाल लकीरें लेकर न चला करो, लाओ कुछ पन्नों की नाव बना देते हैं. बहती बहती मेरे बंदरगाह पर आ लगेंगी. होने दो कुछ मेरे शहर का पानी भी खारा. मगर लड़की उसके लिए डरती थी. यूँ कि उस शहर में बस एक ही झील थी, मीठे पानी की. झील से समंदर तक आती एक नदी थी छोटी सी. अगर समंदर का पानी नदी के रास्ते झील में चला जाता तो शहर के सारे लोग प्यास से मर जाते.

आज बहुत साल बाद लड़के ने जिद बाँधी थी कि उसके शहर में लगने वाले मेले में जरूर आएगी. शहर दूर था कितना मगर चूँकि समंदर के पास था इसलिए लड़की ने हामी भर दी. छोटी सी एक छुट्टी बची हुयी थी साल की आखिरी. उसे लगा कभी कभी ख़ुशी की सुनहली पीली लकीर भी तो होनी चाहिए पन्ने में. एक ऐसी लकीर जो सारे पन्नों के पार दिखे. बहुत सालों बाद मिली थी उससे. शहर में मीठे पानी की बारिश होती थी. उसके बालों में लगा नमक का गुलाबी फूल कब का उस बारिश में घुल कर मिट्टी में मिल गया. लड़के ने उसके लिए ताज़े गुलाब के फूल ख़रीदे. सुनहले पीले रंग के. जब लड़की ने बालों में फूल लगाया तो उसके गहरे काल बाल सुनहले रंग में बदल गए...उसकी आँखों में इतनी धूप भर गयी कि सारे उदासी के सियाह बादल छंट गए. वो समंदर किनारे बैठी बस उस लड़के के किस्से सुनती रही. लड़का कोई गीत गुनगुना रहा था. दुनिया पागल थी ही हमेशा से...आज लड़की का दिल कर रहा था वो सारी चिंता फिकर छोड़ दे और यहीं बस जाए कहीं.

उसकी कार बहुत बड़ी तो नहीं थी मगर इतनी थी कि जब तक नया घर न मिल जाए उसमें ही सोया जा सके. उसने अपना शहर बाँधा और नाव में रख दिया. पूरे पूरे तूफानी दिन समंदर में गहरी ऊंची लहरें उठती रहीं. समंदर कितना डराता उसे कि उसका शहर डुबा देगा मगर लड़की को समंदर से डर नहीं लगता था. पूरे सात महीने लगे उस अँधेरे समंदर में बिना तारों की रौशनी के लड़के का शहर खोजने में. लड़की कितनी बार भटक जाती, अनजान किनारों पर पहुँच जाती जहाँ कई खूबसूरत नौजवान उसपर दिलो जान से निछावर होते मगर उसे तलाश थी तो बस उस लड़के की जिसने उसके बालों में सुनहला गुलाब गूंथा था.

जब किनारे पहुंची तो उसे मालूम हुआ कि शहर के नियम बदल गए हैं और नाव से किसी शहर को कहीं और ले जा कर बसाना गैरकानूनी है. उसने लोगों को बहुत समझाने की कोशिश की मगर कोई उसकी बात मानने को तैयार न हुआ. कोई उसे थोड़ी सी ज़मीन भी नहीं दे रहा था. आखिर छोटा सा तो था उसका शहर. समंदर का दिल पसीजा लेकिन. उसने एक टापू बनाया जहाँ लड़की ने लंगर डाल कर नाव रोकी और अपना शहर बसा लिया. लड़की के शहर के लोग मछली पकड़ते और बेचते. कुछ लोग मोतियों की खरीद फरोख्त में व्यस्त हो गए. लड़की खुश थी. हर शाम नाव खोलती और लड़के के शहर पहुँच जाती. फिर दोनों देर रात तक समंदर को कहानियां सुनाया करते.

तन्हाई यूँ तो भीड़ में अक्सर उग आती है मगर सदियों लम्बी उम्र की तन्हाई ख़त्म करने को एक इंसान ही काफी होता है. थोड़ा सा प्यार. थोड़ी बारिश. थोड़ा समंदर. बस. 

23 September, 2013

इश्क से बड़ा गुनाह करना था कोई. तुम्हारा क़त्ल सही.

तुम्हें मालूम है मैं आजकल तुम्हारे क़त्ल की प्लानिंग करती रहती हूँ. दिन दिन भर कितना सोचती हूँ. किस तरीके से मार दूं तुम्हें. क्या अपने हाथों से तुम्हारा गला दबा दूं? फिर सोचती हूँ कि इन्हीं हाथों से तुम्हें अनगिन चिट्ठियां लिखीं. आधी रात के आगे के पहर, पलंग पर सर तक रजाई ओढ़े लिखती थी तुम्हें. अँधेरे में लिखने का ऐसा अभ्यास कि कभी हाथ नहीं काँपे...दिन को देखो तो ऐसी सधी हुयी लिखाई जैसे तरतीब से मेज और कुर्सी पर बैठ कर लिखो हो तुम्हें. तब जबकि पूरब से धूप आ रही हो और पुरवा बह रही हो. पूरे दिन का होमवर्क करने के बाद इत्मीनान से तुम्हें लिख रही हूँ चिट्ठी. मगर ऐसा नहीं हुआ था कभी भी. अँधेरे में तुम्हारा नाम यूँ लिख लेती थी जैसे तुम पहचान लेते थे शाम को ट्यूशन से वापस लौटती लड़कियों के झुण्ड में मुझे. कभी हाथ पकड़ लेते थे, कभी दुपट्टा. कोई महीने भर की बिजली बोर्ड से खिच खिच के बाद जाकर कमबख्तों ने गोलंबर का लैम्पोस्ट ठीक किया था. एक ही दिन रौशनी में जा पायी थी, अगले दिन फिर से बल्ब गायब और शीशा टूटा हुआ. तुमने कभी सोचा भी कि अँधेरे में गलती से कोई मेनहोल में गिर सकता था. कोई दिन मैं ही गिर जाती तो?

जाहिल ही रहे तुम. बदतमीज एक नंबर के. गलियों को लेकर थेथर. इतना भी सलीका नहीं था कि लड़की की कलाई जोर से नहीं पकड़ते हैं. उसपर मेरा गोरा शफ्फाक रंग कि नील पड़ी कलाइयाँ छुपाती फिरती दिन भर. चूड़ियों का शौक़ तभी से लगा था. कितना तो सब चिढ़ाती थीं मुझे कि शादी करने का बहुत शौक़ लगा है. तुम्हें ये सब कहाँ समझ आता था कभी. सब तुम्हें लुच्चा कहते थे. लेकिन सहेलियां थी भी कुछ ऐसीं कि मुझसे मर्जी जितना झगड़ लें. तुम्हें मुझोंसा कहें मगर मजाल है कि घर पर किसी एक खबर की चुगली जाए. कॉलेज में इतनी साफ़ सुथरी छवि थी मेरी कि एक दिन छुट्टी लेती अगर तो घर पर लोग देखने पहुँच जाते कि लड़की कितनी बीमार पड़ गयी. सावन पूर्णिमा को मेहंदी लगाती थी भाई की लम्बी उम्र के लिए. तुम अक्सर पहुँच जाते थे कि देखो मेहंदी का रंग कितना लाल आया है. पति बहुत प्यार करेगा तुमसे. मैं हमेशा कहती थी कि ये रंग इसलिए आता है कि भाई मुझपर जान छिड़कता है. जिस दिन जान जाएगा तुम्हारे बारे में, उसी दिन गंगा बालू में काट कर गाड़ देगा. मालूम भी नहीं चलेगा किसी को कहाँ गायब हो गए हो.

होली में गला फाड़ फाड़ के गाने की जरूरत नहीं है. तुम मोहल्ले आये हो तुमसे पहले तुम्हारे खबरी बता जाते हैं हमको. तुमको क्या लगता है हम हमेशा छत पर तफरी करते रहते हैं. ख़ास तुम्हारे लिए आना पड़ता है. कभी बड़ी पारने के बहाने कभी पापड़ सुखाने के बहाने. मगर ये मैं तुम्हारा गला दबाने की बात करते करते कितनी बातें करने लगी तुम्हारी. सामने अचार का मर्तबान रखा हुआ है. दिल करता है फ़ेंक मारूं उसे दीवार पर. नुकीले धारदार कांच से गला रेत दूं तुम्हारा. लगता बस ये है कि उँगलियाँ कांप जायेंगी. मुझे हो न हो, मेरे हाथों को तुमसे बहुत प्यार है. ख़ास तौर से उँगलियों को. ये अनामिका में जब से तुम्हारे नाम की अंगूठी पहनी है तब से मेरे हाथ मेरे नहीं रहे. तो क्या हुआ अगर लोहे की अंगूठी है और तो क्या हुआ अगर तुमने किसी पंडित के सामने मन्त्र नहीं पढ़े और मैंने खुद तुम्हारा नाम लेकर अंगूठी पहनी है. मन में सोच तो लिया ना कि अब तुम्हारी हूँ, हमेशा के लिए. फिर कहाँ बचती है कोई भी रस्म.

मगर तुम्हारीं उँगलियों में तो हीरे की अंगूठी है. खरीद लिया है उस लड़की के बाप ने तुम्हें और तुम्हारे पूरे खानदान को. मुंह तक नहीं खुला तुम्हारा. गोरी चमड़ी देकते ही पूरे घर वाले फिसल गए. अमरीका जा कर क्या बड़ा तीर मार लोगे. ग्रीन कार्ड कोई ऐसी ही अद्भुत चीज़ होती तो मर रहे होते ससुरे मोहल्ले के सारे लड़के उस कुलांगार से शादी करने के लिए. मगर उस चुड़ैल को तुम ही पसंद आने थे. तुम्हारी बरात के लिए पूरे मोहल्ले की सड़कें ठीक कर दीं गयीं. वो गोलंबर वाला मेनहोल भी भर दिया और सारे ट्यूबलाईट और हैलोजेन लगा दिए गए. अब कौन सा अँधेरा था कि मैं तुम्हारे काँधे लग कर एक बार रो भी सकूं. सहेलियां मेरा दर्द समझती थीं. जिस दिन हाथों के नील ख़त्म हुए उन्होंने पत्थर से मेरी चूड़ियाँ तोड़ दीं और मुझसे वादा लिया कि तुम मेरे लिए मर गए हो. तब तक बरसात ख़त्म हो चुकी थी और गंगा अपना तांडव समेट कर वापस लौट चुकी थी वरना मैं कसम से जान दे देती.

पागलों वाली हालत हो गयी है मेरी. उस जहरीली सांपिन को मेरा श्राप लगेगा. तू न तन से उसका हो पायेगा न मन से. मेरी याद तुझे ताउम्र डसती रहेगी. मगर सारी समस्या की जड़ तो तू है. तुझे खाने में जहर दे कर मार दूं. हमेशा से तुझे मेरे हाथ की खीर बहुत पसंद है. क्या मिला दूं उसमें कि तुझे अंदाजा न लगे. केमिस्ट्री लैब में पढ़ा रहे थे सर, कोई तो गंधहीन जहर होता है, केमिस्ट की दूकान पर मिलता है. अधिकतर किसान वही खा कर मरते हैं, जब उनकी फसल से उनका कर्जा उतरने को नहीं होता. जहर से मरने में तकलीफ होगी. पेट में दर्द होता है, शरीर ऐंठने लगता है. उलटी भी आती है और कई बार तो एक पूरा हफ्ता लग जाता है मरने में. ऐसी मौत तो नहीं दे सकती तुझे. इतने दिनों का प्यार है कमसे कम प्यार की मौत तो देनी चाहिए तुझे. इसमें तेरी क्या गलती कि उस फिरंगन ने तुझे पसंद कर लिया और तेरी चारों बहनों का बेड़ा पार लगाने का ठेका ले लिया. किसी चरवाहे के घर जा कर जिंदगी भर गोबर, बर्तन, चूल्हा करती. ऐसे में एक मेरी ही तो जिंदगी गयी चूल्हे में. चार बहन पर एक प्रेमिका चार बार निछावर है. मेरा भाई भी होता तो यही करता मेरे लिए. मगर हाय रे मेरे ही करम काहे फूटे.

तुझे जल्दी मार देने का एक और उपाय है. जिस बिल्डिंग में तू मजदूरी करता है उसके सबसे ऊपर वाले फ्लोर से तुझे धक्का दे दूं. मिनट भी नहीं लगेगा और काम तमाम हो जाएगा. रोज सोचती हूँ. खिड़की से देखती हूँ तुम्हें. सर पर ईटों की ढुलाई करते हुए. पहले कितना तो मासूम सपना होता था मेरा. एक दिन तुम्हारे लिए आँचर में बाँध कर तुझे दो रोटी और प्याज दे आने का सपना. देखो न रे, पल में कैसा प्यार बदल गया मेरा. सौतिया डाह बहुत ख़राब चीज़ होती है रे. तुमको उ दिन याद है जब हम बिल्डिंग पर पहुँच गए थे. तुम कितना पसीना में भीगे हुए थे. अपना दुपट्टा से तुमरा पसीना पोछे थे हम. बीस महला थी बिल्डिंग. तुम हमको बता रहे थे कि तुम कितना मेहनत करते हो और ऐसे ही एक दिन ठेकेदार बन जाओगे. मेरे इतना पढ़े लिखे न सही, पैसा तो इतना कमा ही लोगे कि हम दोनों का काम चल जाए. उतने ऊपर बिल्डिंग से पैर लटका कर बैठे हुए जरा भी डर नहीं लग रहा था. आज डर लग रहा है, वहां से कैसे धक्का दे दूं तुम्हें. मन नहीं मानेगा न.

काला है सब. सियाह है सब कुछ. ऊपर वाले ने कपार पर यही लिख कर भेजा है कि तुम्हारे खून से हाथ काला कर लें तो ये भी हो. तुम्हारे नाम का सिन्दूर न सहे तुम्हारे क़त्ल का कालिख तो हमारे हिस्से आये. पड़े रहे उम्र कैद में जिंदगी भर, यही सोचते हुए कि तुम्हारी बेवा रहे. इतना पढ़ लिख कर भी लेकिन ये समझ नहीं आ रहा कि तुम्हारा खून कैसे और किस तरीके से करें. खुद को समझा रहे हैं. कलेजा कड़ा कर रहे हैं. मार तो तुमको देंगे. खाली ई सोचना भर बाकी है कि कैसे. कौन सब लोग होता है कि प्यार करने को मर्द का कलेजा चाहिए. कौन मर्द का औकात हमारे जैसा प्यार कर सके. कल. कर करेंगे तुम्हारा खून.


इश्क तो कर चुके हम 
एक क़त्ल का गुनाह बाकी है 
सो तुम्हारा सही 


आज रात बस देखने को नज़र भर तुमको. चाँद को. एक एक ईंट करके बनती उस बिल्डिंग को. पहली बार ऐसा सोचे थे तब से चौदह चाँद रात बीत गयी है और बिल्डिंग आधा पूरा हो गया है. हमको फिर भी यकीन है कि कल. कल मार देंगे हम तुमको. कल. पक्का. तुम्हारी कसम. 

रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे

सच्चा सच्चा दर्द हुआ बस ज़ख्म पुराने झूठे थे
तुमसे मिलने आने के वो सभी बहाने झूठे थे 

पीछा करते गली गली और खाते कसमें इश्क इश्क
सब कहते दिल कुछ न सुनता वो दीवाने झूठे थे 

गुड्डा-गुड़िया, राजा-रानी, कित-कित, खो-खो, तुमसे प्यार 
बचपन के सारे के सारे खेल सुहाने झूठे थे 

कैस भी था और लैला भी थी, शीरीं भी फरहाद वही
मेरे मुहल्लों में बनते वो सारे फ़साने झूठे थे 

लाश मिली जब उन दोनों की लाल नहर में पिछली रात
कोई न माना चुगली करते सब वीराने झूठे थे 

बाँट इश्क को आधा आधा दफना दो और फूँक आओ
रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे 
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बहुत घबराहट वाला सपना था. समंदर किनारे किसी छुट्टी पर गयी थी. नौ नौ फीट की ऊंची लहरें उठ रही थीं. याद आता है सोचना, कि गहरी सांस लेना है ठीक जैसे ही लहर आकर टूटे. कि लहर वापस लौटने तक पानी होगा पर घबराना नहीं है. मैं होटल के पहले फ्लोर पर हूँ, यहीं कमरा भी मिला है. यूँ सामान कुछ ज्यादा नहीं है. पर उतनी ऊंची लहरें देख कर बहुत डर लगता है. गहरे नीले-काले रंग की अनगिनत लहरें हैं, एक के बाद एक. मैं रिसोर्ट में पीछे की ओर चलती जाती हूँ. समझ नहीं आता कि लहरें कितनी दूर तक आएँगी. एक रजिस्टर होता है जिसमें लिखवाना है कि समंदर में जो नाव जायेगी उसमें आपका कौन सा सामान छांक कर लाना है. मैं अपना वालेट लिखवा देती हूँ बस. उसके अलावा तो कुछ लेकर चलने की आदत नहीं है. 

इस रिजोर्ट और ऐसे अचानक आने वाली सुनामी लहरों का सपना मैं कई बार देख चुकी हूँ. हर बार ऐसे ही मेरा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर होता है. लहर के आने के वक़्त बहुत पानी होता है पर समंदर मुझे वापस खींच के नहीं ले जा पाता है. हर बार इस सपने में मैं अकेली गयी होती हूँ. ठीक ऐसी लहर आने के पहले मेरा समंदर में नाव लेकर जाने का मूड हुआ होता है मगर मैं जाती नहीं...या तो मेरा खाना आने में देर हो जाती है या ऐसे ही किसी कारण से. मैं हर बार यही सोचती हूँ कि अगर अभी समंदर में होती तो क्या होता. पक्का डूब जाती. 

उठी हूँ अजीब घबराहट में. बहुत दिन बाद कुछ कविता या ग़ज़लनुमा दिमाग में आ रहा था. वैसे ही बहर वगैरह के मामले में थोड़ी कच्ची हूँ तो अक्सर नहीं ही लिखती हूँ. आज भी कई बार सोचा कि डिलीट कर दूं. फिर रहने दे रही हूँ. छुट्टियों में सारी किताबें तमीज से रखीं. हॉल में टीवी कैबिनेट आया है नया, पापा दिलवाए हैं. उसमें ऊपर से नीचे तक, सारी रैक में किताबें हैं. अच्छा लगता है. सारी किताबें अब तरतीब से हो गयीं हैं. 

इधर ऐसे ही सोच रही थी...अक्सर देखा है मेरे साथ वाले लोग इस बात के लिए बहुत अपोलोजेटिक होते हैं कि मैं बहुत बोलती हूँ. ऐसे में मुझे अक्सर बहुत गुस्सा आता है. खास तौर से तब जब वो लोग मेरी ही कार में होते हैं. दिल करता है डोर खोल कर बाहर फ़ेंक दूं. आखिर चुप होना नार्मल क्यूँ है. चुप्पे लोग मुझे भी वैसे ही इरिटेट करते हैं. किसी बात का जवाब नहीं देंगे. सारे समय जाने क्या सोचते रहेंगे. उनके साथ कहीं भी सफ़र करना बहुत पेनफुल होता है. आजकल गुस्सा कितना कम आता है मुझे. लोगों पर चिल्लाती भी कम हूँ. पर कार चलाते वक़्त मुझे चुप नहीं बैठा जाता. एनीवे. मंडे मोर्निंग ब्लूज...ऑफ़ द डार्केस्ट शेड. 

सबके अपने अपने किस्से, सबका अपना अपना गम है
मैं तेरे गम को कब समझूं, मेरा अपना कम क्या कम है 

19 September, 2013

तुम्हारी वाली

-१९९८-
घुंघराले बाल थे उसके गुड़िया जैसे. एकदम काले. वो हमेशा बालों में बहुत सारे क्लिप लगा के रखती थी कि संवारे से दिखें. हलकी भूरी आँखें थी उसकी. बिल्ली जैसी. बहुत प्यारी दिखती थी. दूध सा गोरा रंग. दुबली पतली. बहुत नजाकत थी उसमें. बोलती भी एकदम मद्धम थी. पढ़ने में थोड़ी कमजोर थी बस. क्लास की एक आम सी लड़की थी. मेरी उससे कोई ख़ास दोस्ती न दुश्मनी. बस ये सब उस दिन बदल गया जिस दिन मालूम चला तुम्हें वो पसंद है.

अब मुझे उसकी कोई बात भली न लगती. दिल ही दिल में उसे चुड़ैल जैसे विशेषणों से भी नवाज़ा होगा मैंने इस बात पर भी मुझे यकीन है. उसे कभी किसी हेल्प की जरूरत होती तो मेरा हरगिज़ उसकी मदद करने का मन नहीं करता. कभी गेम्स में उसके शूलेसेस खुले रहते तो मैं कभी उसे बताती नहीं. मुझे हरगिज़ समझ नहीं आता कि तुम्हें वो क्यूँ पसंद आई, मैं क्यूँ नहीं. बस उस दिन के बाद से आईने ने मुझसे कोई भी बात करनी बंद कर दी. वो कितना भी कहे कि मैं खूबसूरत हूँ, मेरी खूबसूरती का पैमाना एक भूरी आँखों और घुंघराले बालों वाली लड़की ने तय कर रखा था. मेरे छोटे छोटे बॉबकट बाल और गहरी काली आँखें एकदम साधारण थीं. इनसे किसी को क्यूँ प्यार हो भला.

वो प्यार जताने के दिन नहीं थे. न उलाहना देने के. न पूछने के कि तुम्हें वो क्यूँ अच्छी लगती है, मैं क्यूँ नहीं. तुम्हें इतना भर भी कहाँ बताया था कि तुम मुझे अच्छे लगते हो. तुम उन दिनों मुझे बिलकुल पसंद नहीं करते थे. जाने अनजाने तुमने मेरा बहुत दिल दुखाया. उस वक़्त कोई था भी नहीं बताने वाला कि दर्द ताउम्र नहीं रहता है, न पहला प्यार. तुमसे प्यार करना कितना जरूरी था आज दो दशक बाद समझती हूँ.

मुझे कभी यकीन नहीं होता कि किसी को मुझसे भी प्यार हो सकता है. मगर था वो एक लड़का. लम्बा, गोरा, हलकी भूरी आँखों वाला...उसने कहा कि वो मुझसे प्यार  करता है. उस दिन आइना देखा तो आइना एकदम बड़बोला हो गया था. बार बार बताता कि मैं बेहद खूबसूरत हूँ. कोई मुझसे प्यार करता है. टेंथ के एक्जाम ख़त्म हो चुके थे. उस लड़की से फिर कभी मिलना नहीं हुआ. आज भी मगर इन्टरनेट पे हज़ार दोस्त हैं. मैं उसे कभी एक्सेप्ट नहीं कर पायी.


-२०१३-
पहली बार जाना था उसके बारे में तो तुम सामने थे. तुम्हें गले लगाते हुए मुस्कुरायी थी मैं. तुम्हारी मुस्कराहट से कैसे ज़ख्म भरते हैं जाना था पहली बार. तुम खुश थे. बहुत खुश. मैं उसे कभी नहीं देखना चाहती थी मगर देखा उस रोज़, तुम्हारे साथ...तुम उसके साथ खुश थे. मेरे लिए ये कितना जरूरी था उस वक़्त मालूम हुआ. अपनी जान किसी और के हाथों सौंप देना और दुआ का कासा खुदा के यहाँ से वापस मांग लेना जाना था उस दिन.

तुम्हारी शादी को कितना वक़्त हुआ फिर मैंने कभी नहीं गिना. तुम्हारी एक दुनिया थी जिसमें मैं कभी गलती से भी नहीं जाना चाहती थी. मुझे यकीन था तुम खुश होगे. कई बार सोचा कि एक बार फोन कर के पूछ लूं कैसे हो तुम. जितनी बार दिल ने कहा कि उसे महसूस हो रहा है तुम खुश नहीं हो मैंने दिल को जोरों से झिड़क दिया...मैं अपनी नेगेटिव इनर्जी और उलटपुलट सोच से तुम्हारे जिंदगी में कोई बुरी चीज़ नहीं लाना चाहती थी. कभी कभी कुछ चाहते रहो तो हो भी जाती है वो चीज़.

एक दिन अचानक अपनी पसंदीदा कैफे में देखा उसे. बड़े प्यार से गले मिली वो. मुझे अचरज हुआ कि उससे मिल कर बहुत अच्छा लगा. कुछ वैसा कि जिस चीज़ से तुम इतना प्यार करते हो वो मुझे पसंद न हो ऐसा कैसे हो सकता है. वो कुछ कुछ तुम जैसी ही तो थी. उसके गले मिल कर लगा तुम से ही मिल रही हूँ. सोल्मेट्स ऐसे ही होते हैं न. मुझे महसूस हुआ वो तुम्हारे लिए ही बनी थी. ये कुछ वैसा ही था जैसे शादी के बाद मैं बदलने लगी हूँ, बहुत सी चीज़ें जो पहले बर्दाश्त नहीं होती थीं, अब अच्छी लगने लगी हैं.

उसकी मुस्कुराती आँखें देखीं तो उनमें तुम नज़र आये. उसके काँधे पर तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू थी हलकी सी. शादी के बाद मियां बीवी कुछ कुछ एक दूसरे के जैसे हो जाते हैं न. वो हंसती है तुम्हारे जैसे. खुश होती है तो तुम्हारी याद आती है. मुझसे उसपर बहुत प्यार उमड़ा. वो मेरी कोइ बहुत अपनी लगी मुझे. अपनी दुश्मन नहीं अपनी दोस्त लगी. तुम हमेशा से उसके थे.

उस दिन ये भी महसूस हुआ कि उसने मेरी जगह नहीं ली है. मेरी जगह कोई और ही है और वैसी ही महफूज़ है. वो मुझे बता रही थी कि जैसे तुम्हें मेरे बारे में सारी बातें वो ही बताती रहती है क्यूंकि तुम तो इन्टरनेट और फेसबुक पर आओगे नहीं. उसने बताया कि मैं आज भी बहुत खूबसूरत हिस्सा हूँ तुम्हारी जिंदगी का. उसने ये भी बताया कि तुमने उससे कहा था कि तुम्हारा और मेरा कोई पिछले जन्म का रिश्ता सा है. मैं समझदार हो गयी हूँ कि मेरा प्यार उदार हो गया है?

-आज शाम-
बाकी सब चल जाएगा, लेकिन सुनो, उसे स्वीटहार्ट मत बुलाया करो...अभी भी दुखता है कहीं ज़ख्म कोई. 

18 September, 2013

इट हर्ट्स. बट नेवरमाइंड.

-एक-
तुम तो धुमुस जानते हो न. अरे वही जिसको धुरमुस कहते हैं. एक लोहे का छोटा सा वृत्त होता है, बेहद भारी, एक ओखल जैसे मोटे लकड़ी का सिरा होता है. इसे बार बार ज़मीन पर पटकते हैं जिससे मिटटी अच्छे से जम जाए. इससे मिटटी का लेवल भी बराबर करते हैं. कोंच कोंच कर भरते हैं जैसे शीशे के मर्तबान में कुछ.

तुम वैसे ही बसे हो न मन में. मिट्टी के कण के बीच हवा भर की जगह न हो जैसे. बहुत छोटा सा होता है दिल. कितने कितने दिन लम्हे लम्हे करके इसी तरह बसाती गयी हूँ तुम्हें दिल में. सख्त फर्श है अब बिलकुल. इसमें किसी पौध की रोपनी नहीं की जा सकती है. तुम्हारे खो जाने जैसा ही शोर होता है धुरमुस का. धम धम बजता है बारिश वाली शामों में. इतनी बारिश में गंगा किनारे तोड़ कर बही है. घर में घुस आये पानी को निकालने के बाद उसमें बहुत सारी मिट्टी गिराई गयी है. सुबह से मजदूर लगे हुए हैं. हर आवाज़ के साथ तुम्हारा नाम गहरे धंसता जाता है मिट्टी में. इसी कबर में तुम्हारे नाम के सारे ख़त डाल  देती हूँ. अगली साल बारिश में फिर बहा देगी गंगा तुम्हें. मिटा देगी तुम्हारा नाम. ये क्या है कि मेरे तुम्हारे बीच बहती है. तुम एक नाव लेकर मेरे पार क्यूँ नहीं आ जाते?

तुम कहीं भी तो नहीं हो. गंगा में नहीं. बारिश में नहीं. धुरमुस यूँ भी अब कौन इस्तेमाल करता है. फिर मैं कहीं का कोई इंस्ट्रुमेंटल संगीत सुनते हुए तुम्हारी याद में कहाँ डूबने लगती हूँ. मेरे छोटे छोटे टुकड़े करता जाता है संगीत और पार्सल कर देता है. गंगा किनारे मांसखोर मछलियों को खिला देने के लिए. मेरा कोई टुकड़ा तुम्हारे हाथ कभी नहीं लगता. तुम मान भी तो लेते हो कि मैं मर गयी हूँ.

तुम तो मुझसे कभी मिले भी नहीं हो. तुम्हें मालूम है मेरी आँखों का रंग कैसा है?

-दो-
हर शहर की अपनी गंध होती है. गंगा किनारे उफनते लाल पानी को देखते हुए. घुटने घुटने पानी के वापस लौट जाने के बाद शहर में बसती जाती है गंध. मुंबई में गेटवे के पास चुप सर पटकते समंदर की होती है एक गंध. नमक मिले पानी और आंसू में बहते हुए सपनों की मिलीजुली गंध. समंदर में विसर्जित अनगिन आत्माओं की गंध. समंदर से वापस लौटते हर रास्ते का पीछा करती है समंदर की गंध. वक़्त का एक सिरा पकड़ कर मैंने सोचा था तुम्हारा एक लम्हा अपने नाम लिखवा सकूंगी. इंतज़ार के कदमों वापस लौटता है शहर और 'सॉरी' का एक छोटा सा चिट थमाता है मुझे. पुराने पत्थरों में तुम्हारे टूटे वादों जैसा कुछ लिखा हुआ दिखता है. बहुत मुश्किल है इस भागते शहर से एक लम्हा चुरा पाना.

तुम्हें मालूम है मेरे पास तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं है. याद का कोई टुकड़ा. स्पर्श का कोई लम्हा नहीं जो फ्रेम करके लगा सकूँ. जब तुम चले जाते हो तो मुझे यकीन नहीं होता कि तुम कभी थे भी. तुम्हारे नाम का टैटू बनवाने की इच्छा है. रूह का तो क्या है, जिस्म को तो याद रहे कि कभी छुआ था तुमने मुझे. 'you touched me here' कलाई में जहाँ दिल का तड़पना महसूस होता है वहीं.

बारिश धो देती है तुम्हारी खुशबू. छाता खो जाता है लोकल ट्रेन मैं. तुम्हारी साँसों में बसने लगा है अजनबी शहर. मेरे आने से उस शहर में खुलने लगती है किताबों की एक आलसी लाइब्रेरी जहाँ लोग फुर्सत में लिखते हैं अपने महबूब को ख़त. तुम वहां हर शाम रिजर्वेशन करवाते हो मगर ठीक आठ बजे तुम्हारी एक मीटिंग अटक जाती है सुई पर और तुम्हारा क्लाइंट तुम्हें समझाता है किन जिंदगी में प्रमोशन मुहब्बत से ज्यादा जरूरी क्यूँ है. यूँ कि इश्क तो ऐरे गैरे गरीब को भी हो जाता है मगर मिसाल की बात पर लोगों को ताजमहल याद आता है. जब तक तुम इस काबिल न हो जाओ कि कम से कम दो लाख की कीमती अंगूठी खरीद कर महबूबा को न दे सको, इश्क के नाम को कलंकित ही करोगे. तुम्हें बरगलाना इतना आसान है तो मैं क्यूँ नहीं बरगला पाती कभी?

हालाँकि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे कभी होने का कोई सबूत नहीं रह जाता. फिर भी जानते तो हो न कि मैं प्यार करती हूँ तुमसे?

-तीन-
नहीं. मुझे तुम्हारे ख़त कभी नहीं मिले. इसलिए कि तुमने कभी लिखे ही नहीं मुझे. हाँ. मैंने लिखे थे तुम्हें बहुत सारे ख़त. हाँ मैं थोड़ी पागल हूँ तुम्हारे बारे में. यु नो हाउ वुमेन आर. उनकी छठी इन्द्रिय होती है ऐसी ही. माँ की होती है. प्रेमिका की भी होती है. बीवी की होती है. मेरी क्यूँ है लेकिन? मैं तुम्हारी कुछ भी तो नहीं लगती. तुम्हारा ख्याल रखने को पूरी दुनिया के लोग हैं मगर तुम्हें तकलीफ होती है तो मेरी रातों की नींद क्यूँ उड़ती है?

तुम्हें लगा तुमने मुझे ख़त लिखे हैं? तुम्हें कभी ये लगा कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ? सब कुछ लगेगा तुम्हें कमबख्त...सर्दी लगेगी, गर्मी लगेगी मगर ये नहीं लगेगा कि मुझे तुम्हारी बातें लग जाती हैं. तुम दिल्ली छोड़ कर चले क्यूँ नहीं जाते? दुनिया के इतने सारे शहर हैं, कभी इटली में जा के रहो न...वैसे टिम्बकटू भी अच्छी जगह है. कहीं चले जाओ जहाँ का पता मुझे मालूम न हो. वो लाल डब्बा मुझे देख कर ऐसे मुंह चिढ़ाता है कि दिल करता है पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दूं.

मालूम, तुमसे मिल कर बहुत साल बाद किसी को चिट्ठियां लिखने का दिल किया था. सुनो, तुम्हें क्यूँ लगता है कि मैं तुम्हें समझती हूँ? कितना वक़्त ही बिताया है तुमने मेरे साथ...इतने देर में लोगों को प्यार नहीं, धोखा होता है बस. तब जब कि मुझे यकीन हो जाना चाहिए था किन समन्दरों के शहर वाले लोग किसी गाँव में लंगर नहीं डालते मैं तुम्हारे लिए डॉकिंग स्टेशन बनवा रही हूँ. मुसाफिर सही, कभी दिन के एक घंटे रुकने को जी किया तो इधर नेरुदा की कवितायेँ हैं, दिलफरेब तसवीरें हैं जो मैंने ग्रीस के किसी द्वीप पर उतारीं थीं, कुछ तुम्हारी पसंद के लोग भी हैं...अँधेरे वाले लाईटबल्ब हैं. काली रौशनी वाले रोशनदान हैं.

And he hugs me like I am made of glass...and so tightly that I shatter...into dust and get imbibed in his blood...a fragment of me sparkles into his eyes...the last light of a dying star.

सोचा तो ये था कि विदा कह रही हूँ तुम्हें. लगता ऐसा है जैसे सी यू टुमारो कहा है.

-चार-
आई नो, यू लव मी टू. इट हर्ट्स. बट नेवरमाइंड.

30 August, 2013

एनेस्थीसिया

डेंटिस्ट की खतरनाक सी कुर्सी पर बैठी लड़की सोच रही थी एनेस्थीसिया के बारे में. ऐसा कुछ है क्या जिसके बाद कोई दर्द महसूस न हो. सोचती रही इश्क से बेहतर एनेस्थीसिया उसे मालूम नहीं है. उसने सोचा डॉक्टर से पूछे कि उसके पास कोई इश्कनुमा एनेस्थीसिया है क्या. लड़की को मालूम है कि वो थोड़ी वीयर्ड है उसके हिसाब से जो चीज़ें नार्मल होती हैं वो आम लोगों को पागलपन जैसी लगती हैं. अपने अनुभवों से सीखती वो लड़की अक्सर ऐसे फुजूल सवाल अब खुद के लिए रिजर्व कर लेती है.

दो दिन हो गए. सूजन बढ़ती ही गयी है. पेनकिलर से राहत नहीं आती. हालाँकि उसका कोई हक नहीं बनता पर वो पूछना चाहती है कि तुम्हारे नाम, ख्याल या तस्वीरों को पेनकिलर की तरह इस्तेमाल करना एथिकली सही है या गलत है. सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचने भर से उसका दांत का दर्द कम हो जाये तो क्या उसे इजाजत है तुम्हारे बारे में सोचने भर की...या तुम्हें एक फ़ोन करने की? तुम क्या सोचोगे अगर कोई तुम्हें फ़ोन करके कहे कि बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, कुछ देर मेरा ध्यान भटका दो...किसी भी और चीज़ की तरफ. तुम करोगे किसी के लिए इतना?

दर्द यूँ बुरा नहीं लगता. दर्द की महीन उँगलियाँ होती हैं...जैसे नसों में खून दौड़ता है वैसे ही दर्द भी दौड़ता है. बारीक पतली पतली उँगलियों वाला दर्द बायें गाल से होता हुआ कनपटी तक पहुँच गया है, गले का बायाँ हिस्सा सूजा हुआ है. बोलने में भी तकलीफ होती है. दर्द का स्वाद होता है. खास तौर से जब टाँके पड़े हों. खून का रिसता हुआ स्वाद. ऐसा लगता है जैसे कोई नदी बह रही हो...नमकीन धार वाली. हर कुछ देर में नमक पानी के गरारे भी करने पड़ते हैं.

चेहरे का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया है. दांत के दर्द को टक्कर सिर्फ और सिर्फ इश्क दे सकता है. वो भी ऐरा गैरा लफुआबाज़ टाईप इश्क नहीं. सड़कछाप आवारा वाला नहीं. गहरा दर्द. रात के पहर के साथ चढ़ता हुआ. नींद के किसी झांसे में नहीं आने वाला दर्द. अँधेरे में याद के कितने तहखानों की टहल करवा देने वाला दर्द. पेनकिलर और एंटीबायोटिक के मिक्स में उभरने वाली नीम बेहोशी में रह रह करंट के झटके लगाता दर्द. हर कुछ घंटों में अपने होने को कई गुना शिद्दत से ज्यादा महसूस करने वाला दर्द.

जिंदगी में हर चीज़ में इश्क की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए. कम से कम दांत दर्द तो तमीज से दांत दर्द की तरह पेश आये. दर्द हो तो सब भूल जाए लड़की. भूरी आँखें. डेरी मिल्क. धूप. दिल्ली. ठंढ. बीमार की तरह कम्बल ओढ़ ले और कराहे. मगर ये कराह में किसका नाम लिए जा रही है लड़की. "खुदाया मेरे आंसू रो गया कौन". वो कहती है उसका दर्द का थ्रेशहोल्ड बाकी लोगों से ज्यादा है. बहरहाल. कुछ दिनों से कुछ भी करने की कोशिशें नाकाम हैं. पढ़ने लिखने में उसका दिल नहीं लगता. ऐसा कुछ लग रहा है जैसे एक्जाम के दिन हों और सिलेबस ख़त्म हो चुका हो. बस रिवाइज करना जरूरी हो.

जब कुछ काम न आये तो लिखना काम आता है. फिलहाल दर्द की एक तीखी लपट है. दांत के ऊपर से उठती है और वर्टिकली ऊपर दिमाग की ओर चली जाती है. मेमोरी इरेजिंग टूल टाईप कुछ है. कोई याद नहीं. कोई शख्स नहीं. सफ़ेद काली बेहोशी है. संगीत की कुछ धुनें हैं. व्हाइट नोइज जैसी कुछ. इच्छा है कि थोड़ी धूप रहती तो खून का बहाव थोड़ा तेज़ होता. उसे हमेशा धूप अच्छी लगती है. रात के इस पहर धूप कहाँ से बुला लाये लड़की.

एनेस्थीसिया मेरी बला से! मुझे तो लगता है कि लड़की का दिमाग ख़राब हो गया है. पर जाने दो. वो क्या कहते हैं हमारी हिंदी फिल्म में डॉक्टर.

'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'

PS: अब इन्हें ब्लॉग्गिंग की नहीं, पागलखाने की जरूरत है. वगैरह वगैरह.

इस पोस्ट के माध्यम से आप आपने पाठकों को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हम तो क्या कहें, कह भी देते लेकिन कोई हमसे पहले कह गया है कि...और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

बहरहाल. 

19 August, 2013

सताए हुए लोगों से पूछो रास्ता करार का


लिखना आत्महत्या जैसा कुछ था. टेबल के किनारे बेहद तीखे थे. कवि इतना बेसुध था कि उसे ध्यान नहीं रहता, दर्द महसूस नहीं होता. बहुत मुश्किल से जोड़े गए पैसों से एक नया टेबल ख़रीदा था. जल्दबाज मजदूरों ने टेबल फिक्स करते हुए उसे बड़ी हिकारत से देखा था. जैसे वो टेबल का इस्तेमाल करना डिजर्व नहीं करता. कि जैसे वो मजदूर उसकी कहानियों के गरीब लेखक को देखना चाहते थे. उसने एक बार कहा था कि टेबल के किनारों को रेगमाल से थोड़ा घिस दें. मजदूर उसकी बात सुनकर ऐसे हँसे थे जैसे कोई सस्ता लतीफा सुनाया गया हो.

वो अपने आलीशान घर में ऐसे रहता था जैसे किसी मजबूर रिश्तेदार को उसे जबरदस्ती गोद लेना पड़ा हो. टेबल खरीदने की मजबूरी भी इसलिए थी कि झुक कर लिखने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी घिसने लगी थी. जिंदगी में एक इसी रीढ़ के कारण उसने बहुत कुछ सहा था...अब इस उम्र में झुकना मंजूर नहीं था उसे. शीशम की लकड़ी से बने उस टेबल के किनारे उस रोज़ भी तीखे थे. उन्होंने उसे कुछ ऐसे बरगलाया था जैसे जूते का दूकानदार जूते बेचता है...अभी चुभ रहा है, चमड़ा बाद में नर्म हो जाएगा...गर्मी में फैलेगा. वगैरह वगैरह. कवि ने बेचैनी से इर्द गिर्द देखा था मगर न तो बीवी न बच्चे ही उसकी मदद को आये.

वो जब भी लिखने बैठता, टेबल की तीखी धार उसकी कलाइयों पर लम्बी पतली धारियां बनाती जाती थी. बेतहाशा लिखने के पागलपन वाले मौसम आये थे. उसे मालूम नहीं चलता मगर टेबल जैसे खून डोनेट करने की सुई जैसा उसके बदन से बूँद बूँद खून का प्यासा हुआ जा रहा था. कुछ दिनों में टेबल के नीचे एक आध बूंद खून की टपक जाती थी. उसने वहां पर सोख्ता रख दिया था. कागज़ के टुकड़े-ब्लोटिंग पेपर को खून और स्याही में क्या अंतर पता चलता. जैसे बारिश में बाल्टी रखी होती थी टपकते छत के नीचे, बाकी घर सूखा रहता था.

मगर लगता ये है कि कवि इतना अकेला और इतना बेसुध क्यूँ है. दर्द से बेपरवाह क्यूँ है. टेबल की तीखी धार को सरेस पेपर से रगड़ कर चिकना करने वाला कोई तो होगा दुनिया में. इतने सारे किरदार रचे हैं उसने, एक बढ़ई का किरदार रच देता तो समझ जाता कि इतना मुश्किल नहीं है एक टेबल ठीक करना. कवि को दर्द की आदत थी, कुछ वैसे ही जैसे छोटे शहरों में लोगों को बिजली के आने जाने की आदत हुयी रहती है. घड़ी बांधते हुए विरक्त भाव से निशानों को देखता. फिर घड़ी के ख़राब होने की परेशानी हो रही थी. हालाँकि वो चाहे तो घड़ी बांयें हाथ पर बाँध सकता था. आईने के सामने खुद को देख रहा था तो आज भी सालों पुरानी याद पीछा नहीं छोड़ रही थी. एक लड़की ने छेड़ा था, राखी बाँध दूँगी...उसने घड़ी दिखाते हुए कहा था...मेरी बहन है...इस भागते वक़्त ने मुझे राखी बाँधी है, देखती नहीं हो...कैसे इसकी रक्षा करने को कविता, कहानियां सकेरता रहता हूँ. लड़की हँसते हुए गयी थी...जिस दिन दायें हाथ से घड़ी उतारोगे मेरी रक्षा करने का भार उठाना.

कवि ने दराज़ से सफ़ेद रुमाल निकला. रूमाल के दायें कोने पर उसके नाम का पहला अक्षर लिखा था. नामों का खेल...उन दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे. सफ़ेद रुमाल दायीं हथेली पर बाँधा. उसके ऊपर घड़ी पहनी. उसके कुरते करीने से इस्त्री किये हुए रखे थे. सफ़ेद कुरते एक तरफ, रंग वाले कुरते एक तरफ. सुर्ख पीला कुरता पहनते हुए उसके होठों पर मुस्कान अनायास खेल गयी. आखिरी बार लड़की को उसने उसकी हल्दी की रस्म पर ही तो देखा था. जिद थी कि उसकी शादी में नहीं जाएगा.

वो कैसे दिन थे न...हँसते हुए घबराहट नहीं होती थी. हाथ से कुछ छूट जाता था तो अफ़सोस नहीं होता था. या कि अफ़सोस दिल में ऐसे गहरे दफन करके रख दिए गए थे. जीवन की संध्या में अफ़सोस की खुशबू वाले फूल खिल रहे थे. इन्हें करीने से रखने का सलीका सीख रहा था वो आजकल. एक कांच के गुलदान में सबरंगी अफ़सोस थे...तीन चार दिन ताज़े रहते थे, फिर उनकी जगह नए अफ़सोस ले लेते थे.

आईने के सामने खड़ा था...याद नहीं था कहाँ जाने के लिए तैयार हुआ था. कल रात उसका सपना देखा था. लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था, तुम्हारा हाथ चूम सकती हूँ? सपना बेहद सच्चा सा था. उसने अपनी कलाईयाँ सूंघी...दालचीनी की खुशबू थी तो सही...या कि टेबल दालचीनी की लकड़ी से बनी थी? उसे ख्याल नहीं कि मजदूरों ने क्या कहा था...उसे लकड़ियों की समझ भी नहीं थी...समझ तो उसे लड़कियों की भी नहीं थी.

बहरहाल...टेबल की तीखी धार से उसकी कलाइयाँ कटती थीं...ख्वाबों में लड़की के दुपट्टे से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की सियाही से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की कलाइयों से दालचीनी की खुशबू आती थी.
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कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है. कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी.

12 August, 2013

तेज़ चलाओ...और तेज़...और तेज़

जानेमन, हम सोच रहे हैं कि आपका नाम 'जीशान' रख दें.
बाईक पर वो दोनों बहुत तेज़ उड़े जा रहे थे. सामने खुली सड़क थी और पीछा करते घने काले बादल. देखना ये थी कि बैंगलोर पहले कौन पहुँचता है...वो दोनों या बारिश. रेस लगी हुयी थी और सारे जिद्दी किस्म के लोग थे. इस बेखयाली में लड़की का नीला स्कार्फ जैसे बादल को चिढ़ा रहा था कि आँचल छू के दिखाओ तो जानें और लड़का सूरज की भागती किरणों के पहिये पर था. बाईक हवा से बातें कर रही थी...हवा बाईक के लिए बैकग्राउंड म्यूजिक दे रही थी. इस सारे माहौल में लड़के को अचानक से नाम बदलने की बात समझ में नहीं आनी थी, नहीं आई.
'हमारे नाम में क्या बुराई है?' पीछे मुड़ते हुए बोला...हवा उसके आधे अक्षर उड़ा कर ले गयी और एक नया गाना गाने लगी.
'इस नाम से तुम्हें सारे लोग बुलाते हैं, बहुत कोमन हो गया है तुम्हारा नाम'
'नाम का काम ही यही होता है, कितने प्यार से घर वालों ने नाम रखा है ------- ------ ----' हवा उसके नाम के सारे अक्षर उड़ा गयी और लड़की के पल्ले कुछ नहीं पड़ा. लड़की चुप.
'तुम्हें ये नया नाम रखने की क्या सूझी, नया नाम तो शादी के बाद बदलते हैं...या फिर उस ऐड की तरह...आई विल टेक अप हर सरनेम'.
'शादी के बाद तुम नाम बदल लोगे!?'
'नाम बदल लूँगा तो तुम मुझसे शादी कर लोगी?'
'तुम प्रपोज कर रहे हो?'
'तुम हाँ बोल रही हो?'
'पता है आइंस्टीन ने कहा था कि ऐनी मैन हू कैन ड्राइव सेफली व्हाइल किसिंग अ प्रेटी गर्ल इस सिम्पली नौट गिविंग द किस द अटेंशन इट डिजर्व्स'
' भाड़ में गया तुम्हारा आइन्स्टीन...मैं यहाँ ऐसा सवाल कर रहा हूँ और तुम्हें कोटेशन की पड़ी है'
'बिना भीगे बैंगलोर पहुँच गए तो कर लूंगी'
'आई विल मेक श्योर आई गिव द किस द अटेंशन इट डिज़र्वस्'
अब बस बैंगलोर जल्दी पहुंचना था...दोनों की जुबान पर बीटल्स का गीत था...Close your eyes and I'll kiss you...tomorrow I'll miss you....फुल वॉल्यूम में और बिना किसी सही ट्यून के एक साथ दोनों गा रहे थे.
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ब्लैक आउट.
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याद के आखिरी चैप्टर में जुबान पर खून का तीखा स्वाद था...जंग लगे लोहे जैसा. उसे याद नहीं कि बाईक कहाँ स्किड हुई थी...ट्रक ने कौन सा टर्न लिया था. उसने रियर व्यू मिरर में उसकी आँखें देखी थीं. हेलमेट की स्लिट से. उन आँखों में बहुत सारा प्यार और उतनी ही शरारत थी. ये हरगिज़ वो आँखें नहीं थीं जिनमें मौत नज़र आये. तो क्या खुदा से कोई गलती हो गयी थी?
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उसे किस्तों में मिटाना बहुत मुश्किल था. यकीन नहीं था वो इस तरह हिस्सा बनता गया था. बीटल्स के गीत हो या कि गुरुदत्त की फिल्में...कितने सारे सीडी कवर पर उसका लिखा कुछ न कुछ मिल जाता था. घर के कोने कोने में उसकी लिखी पुर्जियां थी और याद के कोने कोने में उसकी चिप्पियाँ. घर की दीवारों पर उसके इनिशियल्स थे. पसंद की फिल्मों के प्रिंट्स काले फ्रेम में थे...लड़की को हर कील की पोजीशन और फिर ड्रिल करता हुआ वो याद आता था. उसका टूल किट डोनेट करते हुयी कैसी फूट फूट के रोई थी वो.

बाईक सर्विसिंग के वापस आ गयी थी. लड़की को लड़कपन के बाईक सीखने वाले दिन याद आ गए. बाकी लोगों के उलट, उसने बाईक पहले सीख ली थी. वो अपने घर वालों का एकलौता बेटा था...सब काफी प्रोटेक्टिव थे उसको लेकर. पापा ने कार ले दी थी लेकिन बाईक कोई उसे न सीखने देता, न चलाने देता कभी. इसी सिलसिले में वो पहली बार छुप छुप के मिलने लगे थे. कोलेज में गर्मी की छुट्टियाँ थीं. लड़की उसे बाईक का क्लच, गियर, ब्रेक सब बता रही थी. धीरे धीरे बोलते हुए भी घबराहट में वो एक्सीलेरेटर देते चला गया था. तेज़ गाड़ी से जब दोनों फेंकाए थे तो बारिश के कारण ही बचे थे. मिट्टी और कीचड़ था इतना कि जरा भी चोट नहीं आई. उस दोपहर दोनों ने बारिश का इंतज़ार किया. मूसलाधार बारिश में कपड़े साफ़ हुए तो घर जाने लायक हालत हुयी. बाईक और बारिश से रिश्ता उम्र के साथ गहराता गया.

लॉन्ग ड्राइव्स, शोर्ट ड्राइव्स...रेसिंग. कितने सारे रास्तों से गुजरी उनकी दोस्ती. लड़का जब पहली बार दिल्ली गया तो दो पोस्टर लेकर आया. हार्ले डेविडसन के. वो फ्रेम्स दोनों ने खुद मिल कर की थीं. लकड़ी की पतली बीट्स को पेंट करने से लेकर छोटी कीलें लगाने तक. उनके कमरे बिलकुल आइडेंटिकल थे, सिवाए एक ड्रेसिंग टेबल और एक छोटे डम्ब बेल्स के.
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उसके होते हुए लड़की को कभी नहीं लगा कि वो ऐब्नोर्मल है. लड़की को कभी किसी और दोस्त की या किसी और वैलिडेशन की जरूरत महसूस नहीं हुयी. उसने कभी नहीं देखा कि उसकी बाँहें टैन हो गयी हैं या कि चेहरे पर मुहांसे निकल रहे हैं. जिंदगी में इतना सारा खालीपन अचानक से आ गया था और भरने का कोई तरीका उसे मालूम नहीं था. घर पर सबको लग रहा था कि अब वो इस बाईक के जंजाल से निकल कर सलवार कुरता पहन कर तमीज से दुपट्टा लेने वाली लड़की बनेगी. शायद तरस खा कर कोई लड़का शादी कर भी ले उससे. घर में मामियों, चाचियों, भाभियों का जमघट लग गया था. उसके स्लीवलेस टॉप और शॉर्ट्स को देख कर नाक भौं सिकोड़ती औरतें उसे कभी तोरई की सब्जी बनाने के तरीके बतातीं कभी पति को मुट्ठी में काबू करने के नुस्खे सिखातीं.
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डेढ़ महीने बाद पैर का प्लास्टर खुला. घर पराया हो रहा था. इतने सारे लोग सुबह शाम. उनकी सिम्पथी. डॉक्टर ने महीने भर का वक़्त बताया था ठीक से चलने में. घर के ईजल की जगह व्हाईट बोर्ड ने ले ली थी. हार मानना और रो कर बैठना किसी बाईकर की जिंदगी में नहीं आता. गिरने के बाद हँसते हुए उठना, बाईक की स्थिति जांचना और फिर राह पर निकल पड़ना एक आदत सी बन जाती है.

बाईक एक ऐसा बेस्ट फ्रेंड होती है जिससे प्यार ताउम्र चलता है. लड़की ने एक ऐडवेंचर क्लब का पूरा खाका तैयार कर लिया था. जिंदगी के पागलपन को एक रास्ता चाहिए था. घर पर सबको यकीन था वो कभी बाईक चला नहीं पाएगी. डॉक्टर्स ने उसकी स्थिति देख कर कहा था कि वो डिप्रेशन की शिकार है और खुद को ज्यादा फ़ोर्स न करे. उन्ही परिस्थितियों से दोबारा गुजरने पर उसमें सुसाइडल टेंडेंसी डेवेलप कर सकती है. इस वक़्त उसे थोड़े आराम की जरूरत है.

सबके डरने से उसकी भी धड़कन तेज़ हो गयी थी. जब राइडिंग गियर पहन कर वो बाईक के पास जा रही थी तो दर्जनों आँखें उसका पीछा कर रहीं थीं. उसे आज तक कभी खुद को प्रूव करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उसका जो दिल करता था करती आई थी. उसे कभी ये भी नहीं लगा कि वो कुछ बहुत ख़ास कर रही है. मगर आज जैसे अग्निपरीक्षा थी.

उसने हेलमेट पहना, गॉगल्स लगाये और बाईक स्टार्ट की. प्यार. दर्द. जीशान. खोना. खालीपन. सब पीछे छूटता गया. वन्स अ बाईकर. बाईकर फॉर लाइफ. जिंदगी अच्छी सी लग रही थी. जीने लायक. खुशनुमा. तेज़ रफ़्तार. इश्क जैसा कुछ. जिंदगी जैसा कुछ.

गीत फिर भी वही था...बीटल्स...टुमोरो आई विल मिस यू...

23 July, 2013

शिप ऑफ़ थीसियस

मुझे फिल्म ख़त्म होने के बाद की कास्टिंग के सारे टाइटल्स तक रुकना अच्छा लगता है. कल की फिल्म 'शिप ऑफ़ थीसियस' देखने के बाद भी सारे टाइटल्स तक रुकी रही. हॉल से बाहर आते हुए मन ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ देर एकदम चुप रहने का मन था. इतना कुछ था कहने को कि समझ नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ. मगर मालूम था कि इस फिल्म के बारे में लिखना पड़ेगा.
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Ship of Theseus के बारे में मालूम चला, IIMC के सहपाठी अंकुर ने इस पन्ने को लाईक करने का लिंक भेजा था. ट्रेलर देखते हुए फिल्म के बारे में एक गहरी उत्सुकता बन गयी थी. वीकेंड में व्यस्त थी तो नहीं देख पायी. कल मंडे होते हुए भी रात का शो देखने की ललक थी. ऑनलाइन कटाने की कोशिश की तो पीवीआर हाउसफुल. फिर बुकमायशो से टिकट कटाई. कुणाल व्यस्त था तो सोचा अकेली चली जाऊं, फिर नेहा से पूछा, वो फ्री थी तो उसके साथ चली गयी.

फिल्म में कुछ छूट न जाए इसलिए बिफोर टाईम पहुंचे, जो कि एक तरह का रिकोर्ड ही है. पोपकोर्न और कोल्ड ड्रिंक लेकर अन्दर गए तो अचरज से भर गए. पीवीआर कोरमंगला में मंडे को रात का शो वाकई हाउसफुल था. बंगलौर जैसे शहर में जहाँ भागते दौड़ते फुर्सत नहीं मिलती, कितने सारे लोग इस फिल्म को देखने आये थे.
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फिल्म का टाइटल शिप ऑफ़ थीसियस नाम की कहानी पर है. एक शिप होता है, जैसे जैसे उसके पुर्जे ख़राब होते जाते हैं, एक एक करके उसके सारे पुर्जे, लकड़ियाँ, खम्बे, सब कुछ बदल दिया जाता है. एक वक़्त में शिप में पुराने शिप का कोई पुर्जा भी नहीं होता. शिप के ख़राब हुए पुराने पुर्जों को जोड़ कर एक शिप बना दिया जाए, तो इन दोनों में असली शिप ऑफ़ थीसियस कौन सा होगा.

फिल्म में तीन कहानियां हैं. पहली एक फोटोग्राफर की कहानी है जो बचपन में आँखों के कोर्निया इन्फेक्शन के कारण देख नहीं सकती. उसके पास एक कैमरा है जो आसपास की चीज़ों के बारे में बोल कर बताता है. वो सुन कर, महसूस कर के तसवीरें खींचती हैं. उसका पार्टनर/बॉयफ्रेंड भी उसे उसकी खींची हुयी तस्वीरों के बारे में डिटेल में बताता है. दोनों में इस बात पर बहस होती है कि अच्छी तस्वीर कौन सी है, लड़की का कहना है वो तस्वीर जो मैंने सुन कर महसूस कर के खींची है...इत्तिफाक से खींची गयी अच्छी तस्वीर भी वो अपने कलेक्शन में नहीं रखना चाहती. उसे सिर्फ वो चीज़ें रखनी हैं जिन्हें उसने खुद कम्पोज किया है, जिस कहानी को वो कहना चाहती है. ये उसका अंतिम निर्णय है कि कौन सी तस्वीर रखी जाए और कौन सी नहीं.

फिल्म का ये सीन किचन में फिल्माया गया है. मुझे याद करने पर भी याद नहीं आता कि किसी आखिरी फिल्म में इस बात पर बहस कब देखी थी कि व्हाट इज आर्ट. कि हर एक का नजरिया अलग होता है. एक आर्टिस्ट लोगों के लिए, उनके हिसाब से नहीं रच सकता...वो इसलिए रचता है कि उसे अपना कुछ कहना होता है. वरना क्या फर्क पड़ता है. फिल्म का ये सेगमेंट मेरे लिए सबसे रियल था. सवाल जैसे मेरे सवाल थे. बैकग्राउंड स्कोर में सन्नाटे का बेहतरीन इस्तेमाल था.

फिल्म की दूसरी कहानी एक जैन साधू की है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज़ से ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है. बारिश भीगता मुंबई हो या विंडमिल के खेतों में गुज़रती साधुओं की छोटी टोली. इसमें सवाल इतने सारे और फिलोसफी इतनी गहरी कि कई बार तो लगता था कितना कुछ मिस कर गए. फिल्म को स्लो मोशन में देखने का दिल करता था.

फिल्म का तीसरा हिस्सा एक व्यक्ति के बारे में है जिसने किडनी का ओपरेशन करवाया है. इसमें मेरा पसंदीदा हिस्सा है जहाँ वो अपनी नानी से बात कर रहा होता है. नानी का कहना है जिंदगी में इतना कुछ देखने को है, इतना कुछ करने को है, तुम एक आम सी जिंदगी कैसे जी सकते हो. जवाब है कि मुझे नहीं चाहिए इतनी सारी चीज़ें. मैं अच्छा कमाता खाता हूँ, लोग मेरी इज्ज़त करते हैं, अ लिटिल ह्युमनिटी...और क्या चाहिए इंसान को. मुझे वाकई सिर्फ इतना ही चाहिए.
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फिल्म देख कर गर्व की अनुभूति होती है. हालाँकि इसे किसी कैटेगरी में नहीं डाल सकते लेकिन मिनिमलिस्ट फिल्म है. इसकी रफ़्तार कभी धीमी तो कभी बहुत तेज़ है. बहुत सारे डायलॉग नहीं हैं पर जो हैं बेहतरीन हैं. फिल्म आपको पासिव ऑब्जर्वर नहीं, अपना हिस्सा बनाती है, अपने द्वन्द, ड्यूअलिटी का हिस्सा. जहाँ आप दोनों पक्ष देखते हैं.

फिल्म देख कर लगता है कि भारतीय सिनेमा एक युग आगे जा चुका है. अपने देश में ऐसी फिल्म बन भी सकती है यकीन नहीं होता. इसके सारे सरोकार भारतीय हैं, कुछ ऐसा जो कहीं और, किसी और देश में नहीं बन सकता था. मालूम नहीं चलता कि फिल्म कहाँ से आपकी अपनी हो जाती है, महज दर्शक होने से...आप फिल्म का हिस्सा हो जाते हैं. फिल्म आज के दौर की है मगर इसके सवाल हर दौर में उतने ही महत्वपूर्ण रहेंगे. फिल्म काल-क्षय से परे है. शिप ऑफ़ थीसियस की तरह, फिल्म के कई पुर्जे उन सारे लोगों में लग गए हैं जिन्होंने इस फिल्म को देखा है. जब तक ये लोग रहेंगे, शिप ऑफ़ थीसियस विस्मृत नहीं होगा.

अगर आपको फिल्में पसंद हैं और शिप ऑफ़ थीसियस आपके शहर में लगी है तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बड़ा पर्दा इन्ही चीज़ों के लिए अस्तित्व में आया है. जिंदगी की सूक्ष्म विशालताओं के लिए.

फिल्म को पांच में से साढ़े पांच स्टार्स.
Rating 5.5 out of 5 stars.

Ship of Theseus - Trailer


12 July, 2013

स्टॉप आई लव यू स्टॉप

i stop love stop you stop | i love you stop

दिल का टेलीग्राम कुछ ऐसे ही जाता है तुम्हें. समझ नहीं आता है कि क्या कहना चाह रही हूँ. दो फॉर्मेट सामने रखे हुए हैं. अख़बार में पढ़ने को आया कि भारत में आखिरी तार १४ जुलाई की रात को दस बजे भेजा जाएगा. कौन सी बात ज्यादा सही है? तुम्हें पूरा आई लव यू बोल कर रोकना है या कि हर लफ्ज़ पर स्टॉप...स्टॉप...स्टॉप... स्टॉप... रुक जाओ कि जान चली जायेगी.

तुम्हें कुछ भी लिखने चलूँ जगह कम पड़ जाती है. याद है वो शुरू के पोस्टकार्ड जो मैंने भेजे थे तुम्हें? उनमें कितना कुछ तो लिखना था मगर सिर्फ इतना ही कह पायी कि दूर देश के इस शहर तुम्हें याद कर रही हूँ. तुम्हें ख़त लिखते हुए अंतर्देशी में कितना छोटा छोटा लिखती थी सब. महीन वाली पेन्सिल से, एक एक लाइन में अनगिन बातें लिखती थी. सादे कागजों पर ख़त लिखती तो पुलिंदा इतना भारी हो जाता कि हर बार पोस्टल डिपार्टमेंट तुमसे एक्स्ट्रा पैसे लेता था.

तुम्हें याद है इजाजत का वो सीन जिसमें माया एक लम्बा टेलीग्राम भेजती है...मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है...

तुम्हारे नाम एक लम्बा टेलीग्राम मेरे पास भी लिखा हुआ है. अब तो कभी तुम्हें भेज नहीं पाउंगी. जानते हो ये इतनी बड़ी चिट्ठी भी आज क्यूँ लिख रही हूँ? क्यूंकि अभी भी चौदह जुलाई में कुछ घंटे बाकी हैं. मरने के पहले आखिरी कुछ घंटों में ऐसे ही तुम्हें पुकारूंगी...तुम दुनिया के किसी कोने से फिर मेरे लिए उड़ते हुए आना. पहुंचना मेरे मरने के पहले. कहना लेकिन सिर्फ ये शुरू के तीन शब्द...आई लव यू स्टॉप

लिखना चाहती थी तुम्हारा पूरा नाम भी...एक एक अक्षर तोड़ कर. कि जैसे पुकारती हूँ तुमको. एक एक सांस में अलग अलग. मैं भेजना चाहती थी मौसमों के हाथ ख़त. मगर जाने दो. जाते हुए टेलीग्राम को एक गुडबाई बोलना तो बनता है न.

सोचो भला...दिल की धड़कनें ऐसी ही होती हैं न...टेलीग्राफ मशीन जैसी...तुम्हें मालूम भी है दिल के मॉर्स कोड में क्या लिखा जाता है. जाने दो...ज्यादा बात करने से प्यार ख़त्म हो जाता है.

स्टॉप आई लव यू स्टॉप 

18 June, 2013

हूमुस रेसिपी विद थोड़ी गप्पें

इस वाली पोस्ट में मेरी खूब सारी तारीफें होंगी...वो भी मेरी खुद के लफ़्ज़ों में :) जो लोग ऐसी किसी बात का समर्थन नहीं करते हैं ये वाली पोस्ट नहीं पढ़ें :)
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आज मैंने हूमुस बनाया. मुझे समझ नहीं आता है कि सितारों और ग्रहों की ऐसी कौन सी दशा होती है जब मेरा कुछ बनाने का मन करता है. वो भी तब जब कुणाल घर पर नहीं हो. वो रहता है तो फिर भी उसकी पसंद का कुछ बनाना अच्छा लगता है. हूमुस से मेरा परिचय ज्यादा पुराना नहीं है. पिछले साल किसी वक़्त खाया था पहली बार. ऑफिस में कोई ले कर आई थी...उसकी मम्मी ने बनाया था. मुझे अपने इन्डियन खाने के अलावा खुराफाती चीज़ें बहुत पसंद हैं. कुणाल हमको चिढ़ायेगा कि हूमुस चना दाल का चटनी जैसा ही लगता है, ब्लैंड है, कोई टेस्ट नहीं है वगैरा वगैरा लेकिन अगर मैं लेकर आउंगी तो खूब सारा खा भी जाएगा.

अच्छा हूमुस खोजना बहुत मुश्किल का काम है...उसपर कहीं भी आर्डर करो तो चिप्स, ब्रेड सब कुछ बहुत सा देंगे लेकिन हूमुस इतना थोड़ा सा देंगे कि वाकई चटनी जैसा ही खाना पड़ता है थोड़ा थोड़ा लगा कर. तो हम एकदम परेशान हो गए कि हो न हो हम हूमुस खुद से पढ़ के बनायेंगे. दुनिया के रेस्टोरेंट का हूमुस  go to the भाड़. काबुली चना कल रात को फुला दिए थे. पिछली बार भी ऐसी ही बनाने का बुखार चढ़ा था तो तिल भी ला के रख लिए थे. सुबह का चना बॉईल करके रखा था. जरूरत थी सिर्फ निम्बू की, तो वो याद से ले लिए. जब तक ऑफिस से आये, लेट हो गया था वरना मेरा खाखरा के साथ हूमुस खाने का मन था. खैर, ब्रेड खरीद लिए.

घर आके चिंतन मनन कर ही रहे थे कि आज हूमुस बना ही डालते हैं कि लाईट चला गया वो भी ट्रांसफोर्मर उड़ने का जोर का आवाज़ जैसा. बस हम माथा पकड़ लिए कि गया मेरा हूमुस भाड़ में. बिजली लेकिन थोड़ी देर में आ गयी. पहला काम था आईफ़ोन पर गाना लगाना. हमको किचन में आज भी सोनू निगम का दीवाना और जान सुनना अच्छा लगता है. इन्टरनेट पर घंटा भर पढ़ के रेसिपी निकाले...कमसे कम पचास ठो रेसिपी खोल रखे होंगे टैब में. खूब सारा पढ़ लिख कर गैस पर कड़ाही चढ़ाये. हूमुस बनाने के पहले बनाना था तहिनी. लिखा हुआ था कि तिल को खाली हल्का सा टोस्ट करने, भूरा नहीं करने. भुनी हुयी खुशबू आने लगी तो गैस से उतारे. उसमें से छोटे कंकड़ वगैरह चुने. चुनते हुए दादी की याद आई, सूप में चूड़ा फटकने की. लगा कि चीज़ें कैसे खो जाया करती हैं. तहिनी के लिए तिल को ओलिव आयल के साथ मिक्सी में चला दिए. अंदाज़े से इतना तेल डालना था कि थोड़ा पतला सा पेस्ट जैसा बन जाए.

हमको अचानक से याद आया कि हूमुस बहुत कॉमन चीज़ नहीं है...हूमुस एक मिडिल ईस्ट की रेसिपी है, जैसे चीज़ डिप होता है, वैसे ही चिप्स या फिर पिटा ब्रेड के साथ खाने के लिए. इसे ब्रेड में या सैंडविच में स्प्रेड की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं. बेसिकली कहीं पर भी चटनी जैसा भी यूज कर सकते हैं. हमको बहुत बहुत पसंद है.

हूमुस के लिए जरूरत होता है तहिनी, उबला हुआ काबुली चना, निम्बू, लहसुन, जीरा पाउडर, नमक और ओलिव आयल. विदेशों में अधिकतर लोग कैन में आया हुआ काबुली चना इस्तेमाल करते हैं. काबुली चना को छोला से थोड़ा सा ज्यादा बॉईल करना था कि उँगलियों के बीच मैश हो जाए.

मिक्सी से लगभग आधा ताहिनी बाहर निकाले और फिर उसमें दो कप उबला काबुली चना डाले, फिर एक निम्बू का रस, पांच सात लहसुन का कली, अंदाज़े से नमक, थोड़ा जीरा पावडर और थोड़ा ओलिव आयल डाले. इस सबको चलाये...थोड़ा सा पानी डाले और थोड़ा थोड़ा करके मिक्सी चलाते रहे. नेट पर पढ़े थे कि अच्छे हूमुस के लिए फ़ूड प्रोसेसर को देर तक चलने दें. थोड़ा देर बार मिक्सी खोले और खा के देखे, लाजवाब हूमुस तैयार था. हूमुस को कटोरी में निकाल कर ऊपर से ओलिव आयल डाले, जीरा पाउडर और लाल मिर्च भी बुर्के. फिर कैमरा से फोटो खींचे.

इतने में रात के डेढ़ बज गए थे. अब बहुत खुश होकर सोचे कि ब्रेड टोस्ट कर लें तो याद आया कि ब्रेड जो लाये थे वो बाईक की डिक्की में भूल गए हैं. अपनाप को लाख गरियाये कि एक काम ढंग से नहीं होता हमारा. रात को थोड़ा सा डर भी लगता है. मगर इतना मेहनत से बनाया हुआ इतना सुन्दर हूमुस कैसे नहीं खाते तो झख मार के गए चार फ्लोर नीचे. ब्रेड लाये, टोस्ट किये. फोटो खींचे, कुणाल को भेजे और फिर चैन से खाए. यूँ पढने में रेसिपी बहुत आसान लगता है पर जिसने कभी नहीं बनायी है उसके हिसाब से अंदाज़ा करना थोड़ा मुश्किल है. हम जब मूड में आ जाते हैं तो कुछ भी कर गुज़रते हैं.

रिकैप: हूमुस
बनाने का समय: लगभग आधा घंटा(पहली बार के लिए, फिर जैसे जैसे आप एक्सपर्ट होते जायेंगे, धनिया पत्ता की चटनी पीसने में जितना समय लगता है, उतना ही लगेगा)

सामग्री: लगभग ३/४ कटोरी काबुली चना
१ कटोरी तिल या फिर १/२ कटोरी तहिनी(रेडीमेड)
१ निम्बू का रस
५-५ लहसुन की कलियाँ
एक चुटकी जीरा पाउडर
नमक अंदाज से (आधा टीस्पून)
१ कटोरी ओलिव आयल

पहले काबुली चना को भिगो लीजिये पूरी रात. फिर तीन चार पानी में धो कर उबाल लीजिये. प्रेशर कुकर में लगभग १०-१० मिनट प्रेशर आने के बाद.

तहिनी बनाने के लिए एक कप तिल को गैस पर भून लीजिये. जब हलकी खुशबू आने लगे, गैस बंद कर दीजिये, देर करने से तिल भूरे हो जायेंगे और स्वाद बदल जाएगा. इसको मिक्सी में लगभग आधी कटोरी ओलिव आयल के साथ मिक्सी में पीस लीजिये. तहिनी तैयार है. इसे फ्रिज में एयर टाईट कंटेनर में एक हफ्ते तक रख सकते हैं. तहिनी की बहुत सी रेसिपीज होती हैं. तहिनी सुपरमार्केट में रेडीमेड भी मिलता है. (वैसे रेडीमेड तो हूमुस भी मिलता है ;) )

हूमुस के लिए पहले मिक्सी में १/२ कटोरी तहिनी डालें, निम्बू का रस और लहसुन डाल कर एक राउंड चला लें. सब थोड़ा थोड़ा मिक्स हो जाएगा. अब इसमें काबुली चना जीरा पाउडर, नमक और थोड़ा सा ओलिव आयल डालें. इसे एक राउंड चला लें. ये एकदम गाढ़ा होगा, इसमें अंदाज़ से थोड़ा पानी डालें और मिक्सी चला दें. तीन चार राउंड चलाने के बाद कंसिस्टेंसी चेक करें. ये एकदम हल्का हो जाता है.

चिप्स या सलाद के साथ खाएं :) या ब्रेड पर. जब भी हूमुस बनाने या खाने का मन करे तो सोचिये...अगर पूजा बना सकती है तो वाकई दुनिया का कोई भी शख्स बना सकता है :) हैप्पी ईटिंग. 

10 June, 2013

Happy Birthday Gorgeous :)

तीस की उम्र में बहुत सी चीज़ों में समझदारी आ जाती है. ये दुनिया वैसी नहीं है जैसी सोचा करती थी...चीज़ें उतनी सिंपल नहीं हैं और रिश्तों में बहुत सी पेचीदगी है...इश्क अभी भी समझ से बाहर है. हम जैसा अपना आने वाला कल सोचते हैं...कल वाकई वैसा नहीं होता कुछ अलग ही होता है. बहुत कुछ ऐसा खोया जिसके बिना जिंदगी अधूरी है तो बहुत कुछ पाया भी जिसके पाने की कल्पना नहीं की थी. 

बहुत सालों के बाद बर्थडे में पटना में हूँ, पापा और जिमी के साथ...उतने ही साल बाद कुणाल के बगैर हूँ... इस बार पहली बार मायके में हूँ तो महसूस किया कि कितना बड़ा परिवार है उधर और कितने सारे लोग कितना सारा प्यार करते हैं मुझे. कभी कभी चीज़ों को महसूस करने के लिए उनसे दूर जाना पड़ता है. रात को देर तक फोन बजता रहा...सुबह भी अनगिन फोन आये. 

थर्टी इज द बेस्ट टाइम इन लाइफ. 

जिंदगी में बहुत सारी चीज़ों के प्रति निश्चिन्तता आ जाती है. इसी बात से कई बार डर भी लगता है हालाँकि, लेकिन फिर लगता है कि नहीं...प्यास अभी बाकी है...बंजारामिजाजी ने रिजाइन नहीं किया है पोस्ट पर से. 

पापा से घूमने के बारे में बात कर रही थी, इस साल पापा को घूमने जाना है...तो मैं घुमक्कड़ी के अपने किस्से सुना रही थी...कि अब कुणाल और जिमी को तो काम है पापा...ऑफिस है, एक काम करते हैं हम और आप निकल जाते हैं घूमने. मेरे ख्याल से मेरा घुमक्कड़ी का 'जीन' पापा की तरफ से आया है. पता नहीं क्या प्रोग्राम बनेगा पर पापा के साथ योरोप का टूर...अल्टीमेट होगा. 

इस बर्थडे पर बहुत दिन से बहुत सारा कुछ लिखने का मन था...लेकिन दिल भरा भरा सा है...कुछ खास लिखने का मन नहीं है. कल शाम को गंगा आरती देखने गयी थी...गंगा किनारे नाव पर बैठ कर बहुत दूर का चक्कर लगाया...लकड़ी की उस नाव पर बैठे अनगिन तसवीरें उतारीं. गंगा का पानी हमेशा की तरह था...निर्विकार... मन में कहीं हिमालय पर भाग जाने की ख्वाहिश को बोता हुआ. आरती करते हुए पंडितों के चेहरे पर अजीब तेज था...जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हों...तप्त...आभा में दमकते हुए. धूप, अगरबत्ती, शंख...बहुत सारा मंत्रोच्चार. 
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नाव का किराया ३० रुपये था. नाव में अधिकतर लड़के थे...हर उम्र के लड़के...मैं उनके बारे में कितना कुछ सोचती रही. जाने किसी गरीब लड़के का भी कैसे तो ख्याल आया या कि छुट्टियों में घर आये किसी लड़के का जिसने आने के पहले सोचा न हो कि ऐसी कोई चीज़ देखने को मिल जायेगी. हर रोज़ ३० रुपये जुगाड़ने की मशक्कत करनी पड़े. मुझे मालूम नहीं मुझे ऐसा ख्याल क्यूँ आया मगर उन अनजाने चेहरों में कोई अजीब किस्म का अपनापन था. जैसे मेरे घर, मोहल्ले, गाँव के लड़के हों. कि जैसे गंगा आरती देखने वाले लड़के कोई अपराध नहीं कर सकते. कि उनके मन में कोई गंगा ऐसी ही बहती होगी...गंगाजल कभी भी ख़राब नहीं होता, सालों साल बाद भी. एक कहानी भी उभरी मन में...कि गंगा किनारे किसी से मिलने आना कैसा होता होगा. कुछ नहीं बस बरसात के मौसम में मिलने आना कि जब गंगा पटना के घाट तक आ जाती हो. किसी नाव पर पाँव लटकाये बैठे रहे...क्या क्या किस्से सुनाते रहे. कि लगा कि कितनी सारी कहानियां सुनाना चाहती है गंगा. हिलोरे मारती लहरें...कि डूब कर किया जाता है प्यार. कि शाम को आरती के बाद बहा देना चाहिए कोई नाम पत्ते के दोने पर रख कर दिए की लौ में...कि गंगा किनारे आ कर मन का कितना सारा रीता कोना भरने लगता है. कि किसी के जाने के बाद भी उन जगहों पर रह जाता है सोच का कतरा...कि किसी समय गंगा में मेरे नाम की मन्नतें किसी ने बहायीं होंगी. 
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बहुत कुछ उलझा हुआ है जिंदगी में मगर कहीं एक यकीन है कि सुलझा लूंगी. घर पर इतने सारे लोग हैं...इतने अच्छे दोस्त...और मेरा कुणाल :) इतने में बहुत कुछ किया जा सकता है...बनाया जा सकता है...रचा जा सकता है. 

अच्छा अच्छा सा लग रहा है. और ये वाला कोट...बहुत दिनों से रखा था देख कर...आज टांग देती हूँ...कि हमेशा याद रहे...




You can be gorgeous at thirty, charming at forty, and irresistible for the rest of your life.
-Coco Chanel

And on that note...happy birthday Gorgeous 

16 May, 2013

मकबरे के दोनों बुत एक दूसरे का चेहरा देखते सोये थे


वो बहुत जोर से इस बात पर चौंका था कि मैंने कभी कोठा नहीं देखा था...किसी तरह का चकला, कोई बाईजी का घर नहीं. मैं इस बात पर परेशान हुयी थी कि उसने क्यों सोचा कि मैंने कोठा देखा होगा...शायद उसे मेरी उत्सुकता और मेरे पागलपन से कुछ ज्यादा ही उम्मीद थी. मुझे याद है मैंने हँसते हुए कहा था...कोठे में मेरे लिए क्या होगा...मैं तो लड़की हूँ. इस बात पर हद गुस्सा हुआ था मुझपर...बेवक़ूफ़ लड़की...मैं तुम्हारे लड़की होने की नहीं, लेखक होने की बात कर रहा हूँ...तुम लिखती हो फिर भी कभी तुमने देखने की जरूरत नहीं समझी...देश, विदेश इतनी जगह घूमी हो, कभी नहीं...चलो इस बार मेरे शहर आना, मैं तुम्हें ले जाऊँगा कोठा दिखाने. 

लोग प्यार में ताजमहल दिखाने की बात करते हैं...ये मैं किससे प्यार कर बैठी थी इस बार...और उसे किस कमबख्त से प्यार हो गया था. हम तकलीफों के तोहफे देते थे एक दूसरे को...हमारा हर दर्द दुगुना होता था, एक अपने लिए और एक उसके हिस्से का दर्द भी तो जीते थे हम. एक पुरानी मज़ार थी शहर के किन्ही उजड़ चुके हिस्से में. बेहद पुरानी ईटें और उनमें खुदे हुए कैसे कैसे तो नाम...हमारा पसंदीदा शगल था कहानियां बुनना. साल के किसी हिस्से हमें वहां जाने की फुर्सत मिलती थी...हम किसी ईंट पर लिखे नामों को लेते और उन किस्सों को, उन किरदारों को बुनते रहते...मैं लड़के का किरदार बनाती, वो लड़की का...हम अक्सर इस बात पर भी लड़ते कि जो नाम लिखे हैं वो लड़के ने लिखे हैं कि लड़की ने...ऐसा कम ही होता कि नाम दो हैण्डराईटिंग में होते. 

मेरी अपनी जिंदगी थी...उसका अपना काम...अपना परिवार जिसमें एक माँ, दो कुत्ते, एक पैराकीट और अक्वेरियम की बहुत सी मछलियाँ शामिल थीं. दोनों का काम ऐसा था कि हम शहर में होते ही नहीं. वो एक स्पोर्ट्स फोटोग्राफर था मैं एक इंडिपेंडेंट डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर. उसे रफ़्तार पसंद थी...मेरे पास अजीब आंकड़े लेकर आया करता था...जितने देश गया वहां के चकलाघरों के किस्से ले कर लौटा...मुझे बताता था कि औसत कितना वक़्त लगता है एक लड़की को एक ग्राहक निपटाने में...किस देश की वेश्याएं सबसे ज्यादा टाइम-इफिशियेंट हैं. जिन देशों में वेश्यावृत्ति लीगल है वहां की औरतों और यहाँ की औरतों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. वो मुझे कितनों के किस्से सुनाता, उनके नाम...उनकी तसवीरें...उनकी कहानियां. तुम्हारे जाने से उनका कितना वक़्त ख़राब होता है तुम्हें मालूम है? उनका कितना नुक्सान कर देते हो तुम. मगर उसे सनक थी...दिन को जाता और उनके लिए ख़ास फोटो-शूट रखता. मैं उसका एल्बम देखते हुए सोचती जिस्म पर इतने निशान हैं तो आत्मा पर जाने कितने होते होंगे. उनमें अधिकतर ड्रग लेती हैं. अपने जिस्म से भाग कर तो नहीं जाया जा सकता है कभी. 

फिर वैसे भी दिन होते जब हम कोई तितलियों सी रंग-बिरंगी कहानी रचते, मगर उसे मेरी कहानियों के अंत पसंद नहीं आते...वो कहता जिंदगी में कभी हैप्पी एंडिंग नहीं होती, ऐसा सिर्फ फिल्मों में होता है. उसके जाने के बाद मुझे उसकी कही कोई बात याद नहीं रहती. कई बार तो यकीन नहीं होता था कि मैं वाकई उससे मिली भी थी. उसकी याद लेकिन हर जगह साथ चलती थी. यूँ याद करने को था ही क्या...एक उसकी आँखों और एक वो लम्हा जब हम जाने किसकी तो बात करते ऐसे उदास और तनहा हो गए थे कि लग रहा था पूरा मकबरा मेरे ऊपर गिर पड़ेगा...उसने कहा था 'यू नीड अ हग' और मुझे अपनी बांहों में समेट लिया था. मैंने उस लम्हे को रेजगारी वाले पॉकेट में डाल दिया था. मैंने कितने शहरों में उस लम्हे को खोल कर देखा...कितने लोगों के साथ उस लम्हे को साझा किया मगर उसका जादू कहीं नहीं जाता. 

इस साल हमें एक दूसरे से मिलते हुए दस साल हो जायेंगे...यूँ हमारे बीच रिश्ता कुछ नहीं है सिवाए इस यकीन के कि हम अगर एक शहर में हैं तो एक फोन कॉल की दूरी पर हैं, एक देश में हैं तो एक सरप्राइज की दूरी पर हैं और अगर इस दुनिया में हैं तो एक विस्की ग्लास की दूरी पर हैं...किसी लम्हे...किसी शहर...किसी देश...हम अपने लिए एक ऑन द रॉक्स बनाते हैं तो आसमान की ओर उठा कर कहते हैं...जानेमन...आई लव यू.
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ताजमहल को देखता हुआ शाहजहाँ क्या सोचता होगा? किसी की याद में पत्थर हो जाना भी कुछ होता है क्या? पुराने किले से चलती हवा में किसका नाम आता है? उसके नाम के बाद मेरा नाम लिख दो तो कैसा लगेगा देखने में? उसका नाम कैसे भूल जाती हूँ मैं हर बार...मज़ार पर भटका हुआ, दिया जलाने हो हर शाम आता है, सफ़ेद बाल और लम्बी दाढ़ी वाला, कमर से झुका लाठी के बल पर चलता बूढ़ा...नाम क्या है उसका...और मेरी कहानी में ये कौन सा किरदार आ गया...ऐसे हो नहीं ख़त्म होनी थी कहानी...सब ख़त्म होने के समय जो कहानी शुरू होती है...वो कब ख़त्म होती है? तुम्हारे शहर में मेरे नाम से कोई मकबरा है? नहीं...तो मेरे मरने का इंतज़ार कर रहे हो मकबरा बनवाने के लिए...अच्छा, क्या कहा...तुम मुझसे प्यार ही नहीं करते...यु मीन मेरे मर जाने के बाद मुझसे प्यार नहीं करोगे...ओफ्फो...कहानी ख़त्म हुयी...ये ट्रेलर ख़त्म करो मेरी जान. 

दी एंड...

(btw, you know I hate the three dots)

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