मैं किताबों की एक बेहद बड़ी दूकान में खड़ी थी...दूर तक जाते आईल थे जिनमें बहुत सी किताबें थीं...अक्सर उदास होने पर मैं ऐसी ही किसी जगह जाना पसंद करती हूँ...किताबों से मेरी दोस्ती बहुत पुरानी है इसलिए उनके पास जा के कोई सुकून ढूँढने की ख्वाहिश रखी जा सकती है.
उस लम्हा, वहाँ आइल में खड़े खड़े, किताबों से घिरे हुए...तुम्हारे शब्दों ने बाँहें फैलायीं और मुझे खुद में यूँ समेटा कि दिल भर आया...ऐसे कैसे लिखते हो कि शब्द छू लेते हैं स्क्रीन से बाहर निकल कर. खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बक्शे..दिल से तुम्हारे लिए बहुत सी दुआ निकलती है दोस्त! ऐसे ही उजला उजला सा लिखते रहो...कि इन शब्दों की ऊँगली पकड़ कर कितने तनहा रास्तों का सफ़र करना है मुझे...दुआएं बहुत सी तुम्हारे लिए...
उन लम्बे गलियारों में बहुत से रंग थे...अलग कवर से झांकते चरित्र थे...मैं हमेशा की तरह उड़ती सी नज़र डाल कर डोल रही थी कि आज कौन सी किताब बुलाती है मुझे. मेरा किताबें पसंद करना ऐसा ही होता है...जैसे अजनबी चेहरों की भीड़ में कोई चेहरा एकदम अपना, जाना पहचाना सा होता है...कोई चेहरा अचानक से किसी पुराने दोस्त के चेहरे में मोर्फ भी कर जाता है. कपड़े, मुस्कराहट, आँखें...दिल जिसको तलाशता रहता है, आँखें हर शख्स में उसका कोई पहलू देख लेती हैं...
किताबें यूँ ही ढूंढती हैं मुझको...हाथ पकड़ पर रोक लेती हैं...आग्रह करती हैं कि मैं पन्ने पलट उन्हें गुदगुदी लगाऊं...फिर कुछ किताबें ऐसी होती हैं कि उँगलियाँ फिराते ही खिलखिलाने लगती हैं...कुछ हाथ से छूट भागती हैं, कुछ गुस्सा दिखाती हैं और कुछ बस इग्नोर करना चाहती हैं...तो कुछ किताबें ऊँगली पकड़ झूल जाती हैं कि मुझे घर ले चलो...तब मुझे तन्नु याद आती है...जब तीनेक साल की रही होगी तो ऐसे ही हाथ पकड़ के झूल जाती थी कि पम्मी मौती(मौसी) मुझे बाज़ार ले चलो. मुझे वैसे भी किताबों का अहसास हाथ में अच्छा लगता है...लगता है कि किसी अनजान आत्मीय व्यक्ति से गले मिल रही हूँ...जिसने बिना कुछ मांगे, बिना कुछ चाहे बाँहें फैला कर अपने स्नेह का एक हिस्सा मेरे नाम कर दिया है.
मेरे दोस्त कभी नहीं रहे, स्कूल...कॉलेज कहीं भी...ठीक कारण मुझे नहीं पता बस ऐसा हुआ कि कई साल अकेले लंच करना पड़ा है...ऐसे में दो ही ओपशंस थे...या तो खाना ही मत खाओ या कोई किताब खोल लो और उसके किरदार को साथ बुला लो बेंच पर और उसके साथ पराठे बाँट लो. अब भूखे रहना भी कितने दिन मुमकिन था...तो कई सारे किरदार ऐसे रहे हैं जिन्होंने बाकायदा मेरे साथ दोपहर का लंच किया है. हाँ वहां भी कोई मेरा दोस्त नहीं बना कि जिसका नाम याद हो...कभी भी एक किताब को पढ़ने में तीन-चार घंटे से ज्यादा वक़्त नहीं लगा. बचपन से पढ़ने की आदत का नतीजा था कि पढ़ने की स्पीड हमेशा बहुत अच्छी रही थी. किताबों में अगर एकलौता दोस्त कोई है तो हैरी पोटर...इस लड़के ने कितनी जगहें मेरे साथ घूमी हैं गिनती याद नहीं.
पटना में पुस्तक मेला लगता था घर के बगल पाटलिपुत्रा कालोनी में...उतनी सारी किताबों को एक साथ देखना ऐसा लगता था जैसे घर में शादी-त्यौहार पर सारे रिश्तेदार जुट आये हों...कुछ दूर के जिनसे सालों में कभी एक बार मिलना होता है. ऐसा कोई स्टाल नहीं होता था जिसमें नहीं जाते थे...कितना कुछ तो ऐसे ही देख के खुश हो जाते थे भले ही किताब न खरीद पाएं...बजट लिमिटेड रहता था. किताबों को देख कर...छू कर खुश हो जाते थे. किताबों का ख़ुशी के साथ एक धागा जुड़ गया था बचपन से ही.
आज मैं बस ऐसे ही एक नयी किताब से दोस्ती करने गयी थी...ब्लाइंड डेट जैसा कुछ...कि आज मुझे जिस किताब ने बुलाया उसकी हो जाउंगी. कितनी ही देर नज़र फिसलती रही...कोई अपना न दिखा...किसी ने आवाज़ नहीं दी...किसी ने हाथ पकड़ के रोका नहीं...मैं उस किताबों की बड़ी सी दूकान में तनहा खड़ी थी...ऐसे ही ध्यान आया कि मोबाईल शायद साइलेंट मोड पर है...उसे देखा तो लाल बत्ती जल रही थी...फेसबुक पर देखा तो कुछ दिलफरेब पंक्तियाँ दिख गयीं...
वहीं किताबों से घिरे हुए...मोबाईल पर ब्लॉग खोला और सारी किताबें खो गयीं...रूठ गयीं...मुझे छोड़ कर चली गयीं...मेरे पास कुछ शब्द थे...बेहद हसीन बेहद अपने...और अगर ये मान भी लूं कि ये शब्द मेरे लिए नहीं हैं तो भी सुकून मिलता है...कि उसे जानती हूँ जिसने ये ताने बाने बुने हैं. मना लूंगी किताबों को...बचपन की दोस्ती में डाह की जगह नहीं होती.
उस लम्हा, वहाँ आइल में खड़े खड़े, किताबों से घिरे हुए...तुम्हारे शब्दों ने बाँहें फैलायीं और मुझे खुद में यूँ समेटा कि दिल भर आया...ऐसे कैसे लिखते हो कि शब्द छू लेते हैं स्क्रीन से बाहर निकल कर. खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बक्शे..दिल से तुम्हारे लिए बहुत सी दुआ निकलती है दोस्त! ऐसे ही उजला उजला सा लिखते रहो...कि इन शब्दों की ऊँगली पकड़ कर कितने तनहा रास्तों का सफ़र करना है मुझे...दुआएं बहुत सी तुम्हारे लिए...
खास तुम्हारे लिए उस लम्हे को कैद कर लिया है...देखो मैं यहीं खड़ी थी...कि जब तुम्हारे शब्दों ने पहले गले लगाया था और फिर पूछा था...मुझसे दोस्ती करोगी?





