एक दिलरुबा शहर ने
कांच की बोतल में
भर के सदाएं भेजी हैं
गुनगुनी ठंढ है, जानां चले आओ
इश्क के मौसम ने
खुशबुओं में डुबो के
आने की अदाएं भेजी हैं
वादा है बारिश का, जानां चले आओ
रूठे हुए स्वेटर ने
कट्टी भी तोड़ दी है
कोहरे की ले बलाएँ भेजी हैं
आधी डब्बी सिगरेट की, जानां चले आओ
उस ठेले वाले ने
मूंग की पकौड़ी संग
चटपटी चटनी भी भेजी है
हो जाएँगी ठंढी, जानां चले आओ
हर याद पुरानी ने
रस्ते बिछाए हैं
खुश-आमद-आयें भेजी हैं
तुम्हें मेरी है कसम, जानां चले आओ
17 November, 2010
चुटकी भर जाड़ों की धूप
गुनगुन...हाँ वही तो है, जाड़ों की धूप जैसी. कुणाल के छोटे मामा की लड़की...पर जान इसमें सबकी बसती है. इसके नन्हे हाथों ने सबको इतने जोर से पकड़ रखा है कि इसके असर से बचना नामुमकिन...एक फुट की लड़की के अन्दर एक साथ इतनी शैतानी, इतना प्यार, इतनी मासूमियत कि देखते रह जाएँ, हम इसको भूटानी भी बोलते हैं :)
अभी एक साल से कुछ ऊपर की हुयी है...बोलना सीखा है...थोड़ा थोड़ा बोलने में 'भाभी' तो नहीं बोल पायी...तो इस छुटकी ननद ने भाभी का 'भाभा' बना दिया, और घर में सब अब भाभा बोलके चिढ़ाते हैं. इसने अभी सबसे पहले 'भप!' करना सीखा है. रोती भी रहेगी और कह दीजिये, भप! कर दो गुनगुन तो रोना छोड़ के पहले भप! कर देगी. पूरा घर अब इसी धुरी पर घूमता है. एक नंबर की चटोर है ये गुनगुन, बेबी फ़ूड नहीं खाएगी...शैतान खाएगी क्या...सूपी नूडल, पकौड़ा, पापड़, मिठाई, और उसपर चटकारा भी लगाएगी. इधर हाथ के दर्द से परेशान रह रही हूँ लेकिन भला गुनगुन को गोद में घुमाने के लालच से उबरना मुमकिन है! तो एक दिन दिन भर घुमाए और भर शाम मूव लगा के पड़े रहे. उस दिन से इसका नया नामकरण किये हम 'नौ किलो की बोरिया' और ये बोरिया अपने नाम से बहुत खुश है...दाँत देखिये इसके!
नए ज़माने के बच्चों की तरह, ये गुनगुन भी घर में नहीं रहना चाहती...अभी से घर के बाहर जाने के जिद्द करती है...हमको पूरी उम्मीद है कि जैसे ही इसको अपने चलने पर और अपने दूर तक पैदल चलने के रेंज पर कांफिडेंस होगा ये भी भागना शुरू करेगी और इसको पकड़ पकड़ के लाना एक फुल टाइम काम होगा...और लोग कहते हैं कि औरतें खाली बैठी रहती हैं. गुनगुन का एक और नाम है, वो है 'घर की सबसे बड़ी डिस्टर्बिंग एलेमेन्ट' और ये नाम इसको इसकी घनघोर पढ़ाकू बड़ी दीदी ने दिया है जो दिन भर किताब में घर बनाए रहती है और जिसको जबरदस्ती पढ़ाई से खींच कर बारी बारी सब उठाते थे. सब का काम गुनगुन आसान कर दी है आजकल...इत्ती छोटी सी उम्र से इसको अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो गया है. कित्ती गुणी है हमारी गुनगुन.
घर पर इस बार, मैं, कुणाल, आकाश, काजू भैय्या थे...एक साथ सब लोग चले आये तो गुनगुन बहुत रोती रही दिन भर...पर्दा के पीछे जा के 'झात' कर के देखती थी कि हम लोग हैं किधर छुपे हुए. अब इस छुटकी को जल्दी बंगलोर बुलाएँगे. हमको भी तो इसकी बहुत याद आती है.
11 November, 2010
बहुत क्रूर होता है प्रेम
न चाहने पर
बहुत क्रूर होता है प्रेम
मुस्कुरा के मांग लेता है,
मुस्कुराहटें
चकनाचूर कर देता है
सपनीला भविष्य
जहरीले शूल चुभोता है
औ सिल देता है होठ
छीन लेता है, उड़ान
रोप देता है यथार्थ पैरों में
न जानते हुए भी
हिंसक होता है प्रेम
नाखूनों से खुरच देता है
आत्मसम्मान
नमक बुरकते रहता है
पुराने, मासूम गुनाहों पर
डाह से जला देता है
रिश्तों की हर डोर
मौत के सातवें फेरे में
अर्धांगिनी को करता सामने
क्षमा करो हे प्रेम!
मैं एक साधारण स्त्री हूँ
मुझसे न पार हो सकेगी
तुम्हारी अग्नि-परीक्षा.
खोये हुए खत
मम्मी,
हमारे तरफ कोई भी तरीका क्यों नहीं है तुमसे बात करने का. काश कोई तो पता होता, जिसपर लिख कर मेरी चिट्ठियां तुम तक पहुँचती. दर्द के किसी भी पल में तुमसे न बात कर पाना दर्द को और गहरा कर देता है. हमारे धर्म में, संस्कारों में, रीति रिवाजों में, लोक-कहानियों में...कहीं कोई तरीका नहीं है जिससे तुम मेरी बातें सुन लो.
अवसाद के किसी गहरे क्षण में यही सोचती हूँ, की अगर तुम होती भी तो क्या कभी कह पाती...मगर तुमसे कभी कहने की भी जरूरत कहाँ होती थी. तुम तो पहचान जाती थी, sसधे हुए...ठहर कर कहे हुए शब्दों में मेरे अंदर का मौन...सुन लेती थी फोन पर भी मन की सिसकियाँ. कितना सुकून मिलता था की बिना कहे भी तुम समझ जाती थी...तुमसे बात कर के हमेशा समस्या छोटी लगने लगती थी. तुम्हारे पास सारे सवालों के जवाब होते थे मम्मी.
लगता है कि कोई और क्यों नहीं देख पाता है सामने रह कर भी. कि तुम्हारे पास कौन सी दिव्य दृष्टि थी कि तुम कितनी भी दूर से हमेशा जान जाती थी अगर मैं थोड़ी भी परेशान होती थी. तुम जब तक थी, हमको लगता था कि हम बहुत खराब एक्टिंग करते हैं, कि मेरा झूठ पकड़ा जाता है हमेशा...अब जानती हूँ कि वो तुम थी मम्मी, हम नहीं. तुम पकड़ लेती थी सब कुछ. अब कितना आसान सा हो जाता है...खुश रहना, दिखावा करना, मुस्कुराना...एक तुम थी कि आँख में पानी आये बिना जान जाती थी, अब तो सिसकियों की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती किसी को भी.
तुम्हारे जाने के साथ भगवान पर ऐसा विश्वास उठा है कि चिट्ठी भगवान को भी नहीं लिख सकती जैसे पहले लिखा करती थी. पहले कितना यकीन था कि भगवान सुन ही लेंगे. और अब लगता है कि कहीं कोई नहीं है जो चुप-चाप कही गयी बातों को सुन ले. वो भगवान नहीं हैं अब कि बस मंदिर में खड़े हुए, बाबा को छुआ और बाबा जान गए सब बात...अब तो बाबा को कितना भी बोलते हैं, वो सुनते ही नहीं. तुम शायद वहीँ हो कहीं, मेरी थोड़ी तो बात पहुंचेगी तुम तक.
देवघर में हूँ मम्मी...और अब ही हर दिन, पल पल लगता है कोई घाव को कुरेदते जा रहा हो...कि मेरा कोई घर नहीं हो...कि मेरा कोई भी नहीं है कहीं.
तुम मेरी बात सुनती हो क्या मम्मी?
तुम्हारी प्यारी बेटी
-----------------------------------------
नोट: इस पोस्ट पर मैंने कमेन्ट का ओप्शन बंद किया है, कृपया इस पोस्ट के बारे में मेरी दूसरी पोस्ट्स पर कमेन्ट न करें. धन्यवाद.
-----------------------------------------
नोट: इस पोस्ट पर मैंने कमेन्ट का ओप्शन बंद किया है, कृपया इस पोस्ट के बारे में मेरी दूसरी पोस्ट्स पर कमेन्ट न करें. धन्यवाद.
09 November, 2010
अँधेरे की कहानी
जिंदगी में एक शब्द अपनी पैठ बनाता चला जाता है...गहरे धंस कर अपनी मौजूदगी का अहसास हमेशा कराते रहता है...एक शब्द है 'हदास' जो मेरे ख्याल से हादसा से आया होगा. भय का सबसे ज्यादा घनत्व वाला रूप है ये. जिस चिंता के बारे में पढ़ते हैं कि चिता सी जलाती है, वो चिता इस हदास की लकड़ियों पर ही जलती है. दबे पाँव आता है और घर की हवा में भय घुल जाता है...सांस लेने में भी डर लगने लगता है.
रात होते गहरा काला अँधेरा पसर कर बैठ जाता है...लगता है कि जीवित कोई पशु है जिसके शायद सींग होते हों. घर में दो सीढियां उतर जर नीचे के बरामदे पर जाया जा सकता है पर उधर अन्देरे का काला, गाढ़ा पानी घुस आया है, इस अँधेरे पानी में उतरना वैसे तो मुश्किल नहीं है...पर ये हदास लगा हुआ है तो डर लगता है कि इस अँधेरे में किसी चिता की लपटें ना दिखाई देने लगें. या अँधेरा कहीं पैरों पर चिपक ना जाए...ऐसा हुआ तो अँधेरा खून में मिलके जाने कौन कौन से अंगों को भयग्रस्त कर देगा. कौन जाने ह्रदय धड़कने में घबराने लगे, आँखें देखने से बंद होना बेहतर मानें...हालांकि अँधेरे में आँखें खुली और बंद क्या.
टोर्च जलाते ही अँधेरा पाँव धरने भर जगह खाली करता है, पर जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं पीछे से घात मारने के लिए तत्पर रहता है. मुड़ मुड़ के देखते हैं तो लगता है अँधेरा बढ़ आया है...और बीच अँधेरे में फंस गए हैं. ऐसे में दूर नज़र आती है किसी लालटेन की आदिम रौशनी, याद आता है कि दादी शाम होते ही दिया बारने बोलती थी...लगता है गाँव में किसी ने लालटेन जलाई है...सांझ देने के लिए. चिपचिपा सा अँधेरा पैरों को जकड़ने लगता है, लगता है जैसे चारों ओर अँधेरे की बारिश ही हो रही है.
सर का दर्द अँधेरे को और शक्तिशाली बना देता है...अभी ड्योढ़ी से चार सीढियां और उतरनी हैं फिर आँगन खुलेगा...आँगन में तुलसी चौरा है...उधर हनुमान जी की मूर्ती स्थापित है तो उधर प्रेतों का आतंक थोड़ा कम होना चाहिए. बहुत धीमे धीमे कदम बढ़ाती है वो...अँधेरे का हिस्सा बने बगैर. दिया जलाना है...और खोह में रख देना है फिर अँधेरे से युद्ध का शंख बजाना है. हदास उसे फेफड़ों में हवा नहीं भरने देता...शंख से आवाज़ नहीं निकलती. किसी और के बचपन का, किसी और घर का झगड़ा याद आता है, लड़कियां शंख नहीं बजातीं.
आँगन से क्षितिज के पार की चीज़ें भी दिखती हैं...ध्वजा का नारंगी रंग अँधेरे में भी सूरज की तरह चमक उठता है. आँखें रंग देखने लगती हैं, भय रात में घुल के गायब हो जाता है.
रात होते गहरा काला अँधेरा पसर कर बैठ जाता है...लगता है कि जीवित कोई पशु है जिसके शायद सींग होते हों. घर में दो सीढियां उतर जर नीचे के बरामदे पर जाया जा सकता है पर उधर अन्देरे का काला, गाढ़ा पानी घुस आया है, इस अँधेरे पानी में उतरना वैसे तो मुश्किल नहीं है...पर ये हदास लगा हुआ है तो डर लगता है कि इस अँधेरे में किसी चिता की लपटें ना दिखाई देने लगें. या अँधेरा कहीं पैरों पर चिपक ना जाए...ऐसा हुआ तो अँधेरा खून में मिलके जाने कौन कौन से अंगों को भयग्रस्त कर देगा. कौन जाने ह्रदय धड़कने में घबराने लगे, आँखें देखने से बंद होना बेहतर मानें...हालांकि अँधेरे में आँखें खुली और बंद क्या.
टोर्च जलाते ही अँधेरा पाँव धरने भर जगह खाली करता है, पर जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं पीछे से घात मारने के लिए तत्पर रहता है. मुड़ मुड़ के देखते हैं तो लगता है अँधेरा बढ़ आया है...और बीच अँधेरे में फंस गए हैं. ऐसे में दूर नज़र आती है किसी लालटेन की आदिम रौशनी, याद आता है कि दादी शाम होते ही दिया बारने बोलती थी...लगता है गाँव में किसी ने लालटेन जलाई है...सांझ देने के लिए. चिपचिपा सा अँधेरा पैरों को जकड़ने लगता है, लगता है जैसे चारों ओर अँधेरे की बारिश ही हो रही है.
सर का दर्द अँधेरे को और शक्तिशाली बना देता है...अभी ड्योढ़ी से चार सीढियां और उतरनी हैं फिर आँगन खुलेगा...आँगन में तुलसी चौरा है...उधर हनुमान जी की मूर्ती स्थापित है तो उधर प्रेतों का आतंक थोड़ा कम होना चाहिए. बहुत धीमे धीमे कदम बढ़ाती है वो...अँधेरे का हिस्सा बने बगैर. दिया जलाना है...और खोह में रख देना है फिर अँधेरे से युद्ध का शंख बजाना है. हदास उसे फेफड़ों में हवा नहीं भरने देता...शंख से आवाज़ नहीं निकलती. किसी और के बचपन का, किसी और घर का झगड़ा याद आता है, लड़कियां शंख नहीं बजातीं.
आँगन से क्षितिज के पार की चीज़ें भी दिखती हैं...ध्वजा का नारंगी रंग अँधेरे में भी सूरज की तरह चमक उठता है. आँखें रंग देखने लगती हैं, भय रात में घुल के गायब हो जाता है.
06 November, 2010
नैना लग्यां बारिशाँ
वो आती तो हवाओं को हलके से छू कर खिलखिला देती, पलकें झपकतीं और हवा मुस्कुराती उसकी मासूमियत पर और अपनी मुट्ठी में उसकी उँगलियों की थिरकन को भर लेती. फिर वहां से चल देती और घंटों एक लड़के के एसी ऑफिस के सामने बैठी रहती, कि कोई आये दरवाजा खोले ताकि वो चुपके से दाखिल हो सके. ऑल इण्डिया रेडिओ के कालीनों वाले फर्श पर हवा की आहट सुनाई नहीं पड़ती और मोटी दीवारें ऐसी हैं कि आवाजें उनसे टकरा के गुम हो जाएँ...तो हवा के लिए ये जरूरी हो जाता कि वो उस लड़के को ढूंढ निकाले ये बताने के लिए कि हवा को गुदगुदी लगाने वाली लड़की दिल्ली आ गयी है और जल्दी ही उसे परेशान करने भी आ जायेगी. लड़का सर उठा के देखता तो हवा खुशी से गोल-गोल चक्कर काटने लगती और उसके लिखे रेडिओ स्क्रिप्ट्स तितिर बितर हो जाते...वो न्यूज़ की जगह कहानी लिखने लगता, सादे कागजों पर कविता लिख देता. हवा ये सारी गलतियाँ देख कर बहुत खुश हो जाती. शाम के बादलों तक सारी खबर पहुँच जाती और दिल्ली लहलहाती यमुना में अक्स देख कर सँवरने लगती.
लड़की बहुत कम बोलती थी...उसके पास एक डुप्लीकेट चाबी हुआ करती थी, लोहे का छोटा सा जादुई बटन...ताला खुलता था और सारा कमरा घर में बदलने लगता था. कपड़े अलगनी पर टंग जाते थे...हवा धूल को पटकनी मार कर बाहर भगा आती थी, डब्बों में मिठाइयाँ, मैगी, बिस्कुट, काजू-किशमिश भर जाते थे...पड़ोसी भी घी की गंध ताड़ लेते थे...बगल के कमरे वाले लड़के खुश हो जाते थे कि शाम को अब जाने पर चाय मिला करेगी.
शिफ्ट ख़तम हुए काफी वक़्त गुज़र जाता था, अचानक लड़के को याद आता था कि घर जाना है...उठता था तो दरवाजे के शीशे में अपना चेहरा देख कर सोचता था कि बिना उसके आये भी शेव बनवानी चाहिए वरना डांट खाने का चांस बढ़ जाता है. झोला उठाता था और स्क्रिप्ट्स ले लेता था कि वो देख कर खुश होगी...बस स्टैंड पर लड़की दिखती थी, मूंगफली खाती हुयी. आखिरी बस अक्सर काफी खाली आती थी...वो सबसे पीछे वाली सीट पर बैठती थी उसके साथ. चेहरा नोट करती थी...कहती कुछ नहीं थी...गाना गाती थी...मेरे पिया हुए लंगूर...मुस्कुराती थी, बस. रास्ते में उसकी स्क्रिप्ट चेक कर देती थी. हवा खिड़की से उछल-कूद करने अन्दर आती रहती थी...उसके बालों में भीनी खुशबू रहती थी. लड़का सोचता था ये कौन सा शम्पू लगाती होगी...सारे तो उसने ट्राई कर डाले हैं पर कभी उस जैसी खुशबू नहीं मिली. हवा हँसती थी उसकी खोज पर. बस स्टॉप से पहले लड़के का घर पड़ता था, फिर लड़की का होस्टल...पहले स्टॉप पर दोनों साथ उतरते थे और एक आध किलोमीटर चलकर लड़की के होस्टल तक जाते थे.
रास्ते में ढेर सारे लैम्प-पोस्ट पड़ते थे...उनकी परछाईयाँ एक साथ चलती थीं, साथ चलते उसके बाल हलके हलके हवा में उड़ते रहते...परछाई पीले रौशनी में भूरी नज़र आती थी. लड़की को परछाई अपने जैसी लगती थी...कुछ पल का साथ जो बेइंतिहा खूबसूरत होता था पर उससे ज्यादा कुछ नहीं. वो अक्सर साथ चलते हुए उसका चेहरा देखने के बजाई परछाई देखते चलती थी...
----------------------------------------
दिल्ली में सालों से वैसी प्यारी हवा नहीं चली है...लड़का अब सेनियर एडिटर हो गया है...बहुत कुछ करता है एक साथ, उसकी स्क्रिप्ट्स चेक करने के लिए ढेर सारे जूनियर लोग हैं. माँ घर पे रिश्ते देख रही है...और वो आजकल कम बोलने लगा है...उसे लगता है हवा शायद कुछ कहना चाहती हो. हवा आजकल चुप है.
04 November, 2010
याद का एक टहकता ज़ख्म
सबसे पहले आती है एक खट खट वाले पुल की आवाज़...फिर पहाड़ों के बीच से निकलती जाती है रेल की पटरी और कुछ जाने पहचाने खँडहर दीखते हैं जो सालों साल में नहीं बदले...कुछ इक्का दुक्का पेड़ और सुरंग जैसा एक रास्ता जिससे निकलते ही जंक्शन दीखता है.
नहीं बदला है माँ...कुछ भी नहीं बदला है.
ट्रेन रूकती है और अनजाने आँखें तुमको उस भीड़ में ढूंढ निकालना चाहती हैं...हर बार जब इस स्टेशन पर उतरती हूँ लगता है मेरी बिदाई बाकी है और अभी हो रही है क्योंकि इस स्टेशन पर तुम नहीं होती...ऐसा कभी तो नहीं होता था मम्मी की हम कहीं से भी आयें और तुम स्टेशन लेने न आओ. मुझे ये स्टेशन अच्छा नहीं लगता, न ये ट्रेन अच्छी लगती है...मुझे आज भी उम्मीद रहती है, एक बेसिरपैर की, नासमझ उम्मीद की स्टेशन पर तुम आओगी.
पता है माँ...आजकल हम तुम्हारे जैसे दिखने लगे हैं. कई बार महसूस होता है की तुम ऐसे हंसती थी, तुम ऐसे बोलती थी या फिर तुम ऐसे डांटती थी. ऐसे में समझ नहीं आता की खुश होऊं की उदास...कभी कभी लगता है की तुम सच में कहीं नहीं गयी हो, मेरे साथ हो...कभी कभी बेतरह टूट जाते हैं की तुम कहीं भी नहीं हो...की तुम अब कभी नहीं आओगी. काश की कोई पता होता जहाँ तुम तक चिट्ठियां पहुँच सकतीं. भगवान में भी विश्वास कोई स्थिर नहीं रहता, डोलता रहता है. और अगर किसी दुसरे की नज़र से देखें तो हमको खुद ऐसा लगता है की मेरा कोई anchor नहीं है. की समंदर तो है, बेहद गहरा और अनंत पर ठहरने के लिए न कोई बंदरगाह है, न कोई रुकने का सबब और न ही कोई रुकने का तरीका.
आज तीन साल हो गए तुम्हें गए हुए...और पता है कि एक लम्हा भी नहीं गुज़रा, कि आज भी सुबह उठते सबसे पहले तुमको ही सोचती हूँ... fraction में बात करूँ तो भी एक जरा भी अंतर नहीं आया है. लोग कहते है की वक़्त सारे ज़ख्म भर देता है, मैं उस वक़्त का इंतज़ार कर रही हूँ...जैसे कोई जरूरी अंग कट गया हो शरीर से माँ...तुम क्या गयी हो जैसे मेरे सारे सपने ही मर गए हैं...जिजीविषा नहीं...कोई उत्साह नहीं. कितनी कोशिश करनी होती है एक नोर्मल जिंदगी जीने में...और कितनी भी कोशिश करूँ कम पड़ ही जाता है. तुम हमको एकदम अकेला छोड़कर चली गयी हो माँ...तुम हमसे एकदम प्यार नहीं करती थी क्या?
सालों बाद देवघर में हूँ...बस लगता है जैसे देवघर में अब 'घर' नहीं रहा. घर तो खैर लगता है कहीं नहीं रहा...मुसाफिर से हैं, दुनिया सराय है...आये है कुछ दिन टिक कर जायेंगे. तुम मेरे सारे त्योहारों से रंग ले गयी हो माँ. कितनी मुश्किल होती है यूँ हंसने में...बोलने में...जिन्दा रहने में. कहाँ चली गयी हो मम्मी...तुम्हारे बिना कुछ भी, कभी भी अच्छा नहीं लगता...कोई ख़ुशी पूरी नहीं होती. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ मम्मी...तुम्हारी बहुत याद आती है...बहुत बहुत याद आती है.
मैं कुछ भी करके अपने दर्द को कम नहीं कर पाती हूँ माँ...लिख कर नहीं, किसी से बात कर नहीं...रो कर नहीं.
सारे शब्द कम पड़ते, उलझ जाते हैं, भीग जाते हैं. Miss you mummy. Miss you so so much.
27 October, 2010
दोस्ती की चोकलेट
"ए भटकती आत्मा!" अंसल प्लाजा में चलते हुए अचानक से पीछे से आवाज आई...जानती थी कि उसी की होगी...कुछ आवाजें कैसे वक्त की दहलीज पार कर एक झटके में वर्तमान में आ जाती हैं। इतने साल हो गए पर एक लम्हा ही लगा वापस जाने और आने में।
"बहुत मारूंगी तुम्हें, एक बार और बोल के देखो तो, क्या लगा रखा है, जब देखो भटकती आत्मा...सोच लो पीछे पड़ गई न तो मर के भी पीछा नहीं छोड़ूंगी"
"बाप रे, भूत बनके भी...हम तो डर गए हूsss" शैतान बच्चों की तरह शक्लें बना कर चिढ़ाने लगा..."हम कब बोले की तुमसे पीछा छुड़ाने का कोई मन है मेरा वैसे अब कुछ ज्यादा देर नहीं हो गई, पीछे पड़ने के लिए, एक अदद बीवी और दो बच्चे हैं मेरे, तुमने ही बंदी पटाई थी, भूल भी गयी...बकलोल"
"हे भगवान् इस बेताल का कुछ करो...कितना दिमाग खाता है मेरा...ओफ्फो तुम यहाँ कैसे टपक पड़े? रुचिका की बच्ची लास्ट समय धोखा दे गई...आने दो दिल्ली वापस, सीपी के चार चक्कर नहीं दौड़वाए तो नाम बदल देना...हुंह"
"तुम्हारा नाम आफत कैसा रहेगा, या taperecorder या भूचाल...hmmm नाह...मज़ा नहीं आया...तुम शायद किसी और नाम से कभी अच्छी नहीं लगोगी" वो अपनेआप में खुशी खुशी मेरे लिए नाम चुन रहा था।
सालों बाद अनायास उससे टकरा गई थी...कॉलेज में १० साल बाद के फंक्शन के लिए गिफ्ट्स खरीदने थे और रुचिका आखिरी समय गच्चा दे गई थी कि उसे कहीं और जाना है...और उसके बाद कमबख्त इसी का रोल नम्बर आता था...इसलिए शौपिंग उसके साथ करनी थी। सालों बाद भी रोल नम्बर पीछा नहीं छोड़ रहे थे हमारा। एक्साम टाइम में भी इसी रोल नम्बर के कारण हमेशा हमारी सीट अक्सर साथ या आगे पीछे पड़ती थी...इस का नाम नही लेते हैं, तसल्ली के लिए कह लेते हैं "ए"...वैसे भी सारे टाइम यूँ ही तो बुलाते थे...ए, अबे, आइटम, शैतान, नौटंकी, चिरकुट, चम्पक...उसका नाम कैसे नहीं भूली मुझे मालूम नहीं।
दस साल, बहुत लम्बा अरसा होता है किसी की आवाज़ को भूलने के लिए...मगर stereotypes में ना कभी वो बंधा, ना उसकी आवाज़. उसका वही फैब-इण्डिया का कुरता और बिखरे से बाल...जो अब थोड़े कनपटी के पास से सफ़ेद होने लगे थे. पर उसकी खूबसूरती बढ़ती ही थी, एक सेकण्ड तो उससे नज़रें सच में नहीं हटी...मैं शायद भूल गयी थी कि वो कितना हैंडसम था. अपनी बेवकूफी पर हँसी आई, उसका चेहरा कोई भूलने वाली चीज़ तो नहीं थी. आखिर मेरे सारे फोटोग्राफी असाईनमेंट्स में वही तो मॉडल होता था. पर एक नंबर का बदमाश था, बदले में मुझसे अपनी सारी रेडिओ स्क्रिप्ट्स लिखवा लेता था और कॉपी चेक तो एनीवे हमको करना ही होता था मुफ्त में...ये तो मेरा फ़र्ज़ था टाईप. दुष्ट ऐसा कि प्यास लगती तो बोलता शानी, प्लीज पानी ले आओ तुमसे तेज कोई नहीं ला सकता...कोई और लाएगा जब तक मैं प्यास से मर जाऊँगा. मैं उसे अनगिन गालियाँ देती पानी की खाली बोतल उठा के चल देती थी.
हद तो तब हो गयी जब उसे मेरी क्लासमेट पसंद आ गयी...शाम को बोला प्लीज मेरे लिए पटा दो...बहुत हाई-फाई है मेरे से एकदम नहीं पटेगी. तुने जो इत्ते अच्छे फोटो खींचे हैं उसे दिखा ना...पहली डेट के दिन तुझे 'शामियाना' में डिनर कराऊंगा. खैर मैंने क्या किया क्या नहीं किया पता नहीं पर एक रात साढ़े नौ बजे पहुँच गया होस्टल गेट के बाहर...चल डिनर की प्रोमिस की थी ना...और मेरे लाख झगड़ने के बावजूद कि होस्टल दस बजे बंद हो जाएगा इतने में खा के वापस कैसे आउंगी...वो खींच कर ले ही गया और बमुश्किल आधी रोटी खाकर उठना पड़ा. तब से उसपर डिनर उधार गिन रही हूँ.
पर वो होता है ना...इश्क के बाद दोस्ती के लिए उतनी फुर्सत नहीं मिलती...और लड़कियां चाहे कित्ती अडवांस हो जाएँ अपने बॉयफ्रेंड की बेस्ट फ्रेंड के साथ कम्फर्टेबल नहीं हो पातीं. तो उस नौटंकी के इस इश्क के चक्कर में मेरे दो दोस्त खो गए. फिर भी कभी कभी होता था कि सीपी के मार्केट में हम शाम से गप्पें मारते देर रात कर देते और वो भागता आखिरी मेट्रो पकड़ने के लिए और मैं हॉस्टल की डेडलाइन के लिए.
फेयरवेल की मेरी रिकोर्डिंग में वो जितना अच्छा लगा अपनी शादी की रिकोर्डिंग में भी नहीं लगा. कॉलेज के बाद तो अलग शहर में नौकरी, फिर शादी...फिर बच्चे...जैसे सदियाँ गुज़र गयी फेयरवेल की वो विडियोटेप चलाये हुए. टीवी तो छोड़ो, ख्यालों में भी बच्चों के हंगामे ही नज़र आते थे.
और फिर मेल आया कि रीयूनियन है, रुचिका और मुझे गिफ्ट्स खरीदने का काम मिला है...उसी वक़्त गुस्सा आया कि रिकोर्डिंग वाला काम क्यों नहीं आया मगर वही कमबख्त रोल नंबर...और अब ये बेताल यहाँ टपक लिया. एक पल में ही सारी टेप रिवाइंड हो गयी...और दूसरे पल उसका रोना चालू हो गया कि ये शोपिंग कोई लड़कों का काम है भला...हद अन्याय है मुझे भूख लग आई है, कुछ खिलाओ ना. खाने-पीने, गिफ्ट खरीदने में शाम हो आई और हम सारा पोथा लेकर कैम्पस पहुंचे. वहां पूरी जमात जुटी हुयी थी. सब बैठ के अपडेट ले रहे थे...
दोस्ती कभी पुरानी नहीं पड़ती...कभी आउटडेट नहीं होती. डीप फ्रिज में रखे चोकलेट की तरह, कभी भी निकल कर ज़बान पर रखो तुरत पिघल जाती है...और वही मिठास...वही 'हार्ट-वार्मिंग' अहसास. मैं उपमाओं में उलझी हुयी थी कि वो उधर से चिल्लाया 'शानी, प्यास लगी है...मर रहा हूँ...पानी ला दो...प्लीज शानी-पानी...शानी-पानी'. मैं मुस्कुराती हुयी उठी...और पानी की पूरी बोतल उसपर उड़ेल डी. लम्हा भर का असर था...पूरा हाल दस साल पुराने होली के माहौल में बदल गया.
ये मीठा अहसास अन्दर-बाहर भिगो गया.
"बहुत मारूंगी तुम्हें, एक बार और बोल के देखो तो, क्या लगा रखा है, जब देखो भटकती आत्मा...सोच लो पीछे पड़ गई न तो मर के भी पीछा नहीं छोड़ूंगी"
"बाप रे, भूत बनके भी...हम तो डर गए हूsss" शैतान बच्चों की तरह शक्लें बना कर चिढ़ाने लगा..."हम कब बोले की तुमसे पीछा छुड़ाने का कोई मन है मेरा वैसे अब कुछ ज्यादा देर नहीं हो गई, पीछे पड़ने के लिए, एक अदद बीवी और दो बच्चे हैं मेरे, तुमने ही बंदी पटाई थी, भूल भी गयी...बकलोल"
"हे भगवान् इस बेताल का कुछ करो...कितना दिमाग खाता है मेरा...ओफ्फो तुम यहाँ कैसे टपक पड़े? रुचिका की बच्ची लास्ट समय धोखा दे गई...आने दो दिल्ली वापस, सीपी के चार चक्कर नहीं दौड़वाए तो नाम बदल देना...हुंह"
"तुम्हारा नाम आफत कैसा रहेगा, या taperecorder या भूचाल...hmmm नाह...मज़ा नहीं आया...तुम शायद किसी और नाम से कभी अच्छी नहीं लगोगी" वो अपनेआप में खुशी खुशी मेरे लिए नाम चुन रहा था।
सालों बाद अनायास उससे टकरा गई थी...कॉलेज में १० साल बाद के फंक्शन के लिए गिफ्ट्स खरीदने थे और रुचिका आखिरी समय गच्चा दे गई थी कि उसे कहीं और जाना है...और उसके बाद कमबख्त इसी का रोल नम्बर आता था...इसलिए शौपिंग उसके साथ करनी थी। सालों बाद भी रोल नम्बर पीछा नहीं छोड़ रहे थे हमारा। एक्साम टाइम में भी इसी रोल नम्बर के कारण हमेशा हमारी सीट अक्सर साथ या आगे पीछे पड़ती थी...इस का नाम नही लेते हैं, तसल्ली के लिए कह लेते हैं "ए"...वैसे भी सारे टाइम यूँ ही तो बुलाते थे...ए, अबे, आइटम, शैतान, नौटंकी, चिरकुट, चम्पक...उसका नाम कैसे नहीं भूली मुझे मालूम नहीं।
दस साल, बहुत लम्बा अरसा होता है किसी की आवाज़ को भूलने के लिए...मगर stereotypes में ना कभी वो बंधा, ना उसकी आवाज़. उसका वही फैब-इण्डिया का कुरता और बिखरे से बाल...जो अब थोड़े कनपटी के पास से सफ़ेद होने लगे थे. पर उसकी खूबसूरती बढ़ती ही थी, एक सेकण्ड तो उससे नज़रें सच में नहीं हटी...मैं शायद भूल गयी थी कि वो कितना हैंडसम था. अपनी बेवकूफी पर हँसी आई, उसका चेहरा कोई भूलने वाली चीज़ तो नहीं थी. आखिर मेरे सारे फोटोग्राफी असाईनमेंट्स में वही तो मॉडल होता था. पर एक नंबर का बदमाश था, बदले में मुझसे अपनी सारी रेडिओ स्क्रिप्ट्स लिखवा लेता था और कॉपी चेक तो एनीवे हमको करना ही होता था मुफ्त में...ये तो मेरा फ़र्ज़ था टाईप. दुष्ट ऐसा कि प्यास लगती तो बोलता शानी, प्लीज पानी ले आओ तुमसे तेज कोई नहीं ला सकता...कोई और लाएगा जब तक मैं प्यास से मर जाऊँगा. मैं उसे अनगिन गालियाँ देती पानी की खाली बोतल उठा के चल देती थी.
हद तो तब हो गयी जब उसे मेरी क्लासमेट पसंद आ गयी...शाम को बोला प्लीज मेरे लिए पटा दो...बहुत हाई-फाई है मेरे से एकदम नहीं पटेगी. तुने जो इत्ते अच्छे फोटो खींचे हैं उसे दिखा ना...पहली डेट के दिन तुझे 'शामियाना' में डिनर कराऊंगा. खैर मैंने क्या किया क्या नहीं किया पता नहीं पर एक रात साढ़े नौ बजे पहुँच गया होस्टल गेट के बाहर...चल डिनर की प्रोमिस की थी ना...और मेरे लाख झगड़ने के बावजूद कि होस्टल दस बजे बंद हो जाएगा इतने में खा के वापस कैसे आउंगी...वो खींच कर ले ही गया और बमुश्किल आधी रोटी खाकर उठना पड़ा. तब से उसपर डिनर उधार गिन रही हूँ.
पर वो होता है ना...इश्क के बाद दोस्ती के लिए उतनी फुर्सत नहीं मिलती...और लड़कियां चाहे कित्ती अडवांस हो जाएँ अपने बॉयफ्रेंड की बेस्ट फ्रेंड के साथ कम्फर्टेबल नहीं हो पातीं. तो उस नौटंकी के इस इश्क के चक्कर में मेरे दो दोस्त खो गए. फिर भी कभी कभी होता था कि सीपी के मार्केट में हम शाम से गप्पें मारते देर रात कर देते और वो भागता आखिरी मेट्रो पकड़ने के लिए और मैं हॉस्टल की डेडलाइन के लिए.
फेयरवेल की मेरी रिकोर्डिंग में वो जितना अच्छा लगा अपनी शादी की रिकोर्डिंग में भी नहीं लगा. कॉलेज के बाद तो अलग शहर में नौकरी, फिर शादी...फिर बच्चे...जैसे सदियाँ गुज़र गयी फेयरवेल की वो विडियोटेप चलाये हुए. टीवी तो छोड़ो, ख्यालों में भी बच्चों के हंगामे ही नज़र आते थे.
और फिर मेल आया कि रीयूनियन है, रुचिका और मुझे गिफ्ट्स खरीदने का काम मिला है...उसी वक़्त गुस्सा आया कि रिकोर्डिंग वाला काम क्यों नहीं आया मगर वही कमबख्त रोल नंबर...और अब ये बेताल यहाँ टपक लिया. एक पल में ही सारी टेप रिवाइंड हो गयी...और दूसरे पल उसका रोना चालू हो गया कि ये शोपिंग कोई लड़कों का काम है भला...हद अन्याय है मुझे भूख लग आई है, कुछ खिलाओ ना. खाने-पीने, गिफ्ट खरीदने में शाम हो आई और हम सारा पोथा लेकर कैम्पस पहुंचे. वहां पूरी जमात जुटी हुयी थी. सब बैठ के अपडेट ले रहे थे...
दोस्ती कभी पुरानी नहीं पड़ती...कभी आउटडेट नहीं होती. डीप फ्रिज में रखे चोकलेट की तरह, कभी भी निकल कर ज़बान पर रखो तुरत पिघल जाती है...और वही मिठास...वही 'हार्ट-वार्मिंग' अहसास. मैं उपमाओं में उलझी हुयी थी कि वो उधर से चिल्लाया 'शानी, प्यास लगी है...मर रहा हूँ...पानी ला दो...प्लीज शानी-पानी...शानी-पानी'. मैं मुस्कुराती हुयी उठी...और पानी की पूरी बोतल उसपर उड़ेल डी. लम्हा भर का असर था...पूरा हाल दस साल पुराने होली के माहौल में बदल गया.
ये मीठा अहसास अन्दर-बाहर भिगो गया.
ग्रहण

'नहीं नहीं, ये बिलकुल गलत है, चौथ को ग्रहण कभी नहीं लगता, बताओ भला किसी ने देखा है कभी चौथ को ग्रहण लगे हुए...तुमने सुना है कभी?' लाल जोड़े में खड़ी उस खूबसूरत सी लडकी के चेहरे पर दर्द के परछाई गहराती जा रही थी.
'कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो, वो देखो चाँद तो अपनी जगह चमक रहा है'...'चाँद नहीं मैं तो तुम्हारी...' वो घबराकर पलटी...छत पर काला, गहरा सन्नाटा पसरा था और वो एकदम अकेली खड़ी थी.
-----------------------------------
जीने की सारी कोशिशों के बावजूद तुम्हारे जाने के तीन साल, छः महीने और चार दिन बाद वो मर गयी. उसका आखिरी सवाल था 'मैंने करवाचौथ में कभी कोई भूल नहीं की...तुम मुझसे पहले कैसे रुखसत हो सकते हो?'
20 October, 2010
श्वेत-श्याम यादें/Vintage me :)
आज फिल्म देख रही थी, 'जाने भी दो यारों'...फिल्म के बारे में कभी बाद में कहूँगी...आज एक ऐसी चीज़ के बारे में जो मुझे बेहद पसंदीदा थी...अचानक याद आई..श्वेत श्याम फोटोग्राफी/black&white photography. कॉलेज में पढ़ते हुए, हमें १४ दिन की फोटोग्राफी वर्कशॉप भी करनी थी. ये वर्कशॉप फर्स्ट इयर में करनी होती थी और इसके लिए हमें नोट्रे डैम स्कूल स्थित उनके फोटोग्राफी स्टूडियो जाना होता था. नोट्रे डैम की वोर्क्शोप इसलिए भी बहुत अच्छी लगती थी क्योंकि वो हमारे घर से एकदम पास में था. वहां के दो फायदे और होते थे, ड्रेस कोड(जो कि सलवार-कुरता था) लागू नहीं होता था और हम अपने मन पसंद कपडे पहन कर जा सकते थे और बहुत दिन बाद साइकिल चलाने का मौका हाथ आता था. खाना खाने लंच में या तो घर आ जाती थी या कुर्जी में एक बेकरी शॉप थी 'चेरी' उसके सैंडविच बहुत अच्छे लगते थे.
कैमरा के प्रति अपने स्वाभाविक लगाव को यहीं पूरी तरह पहचाना था...अधिकतर लड़कियों को जहाँ SLR मुश्किल लगता था और कैमरा फोकस करने में दिक्कत आ रही थी, मुझे जैसे कि पसंदीदा खिलौना मिल गया था. वे कैमरा-फिल्म के दिन थे इसलिए एक शोट में गलती हो गयी तो फोटो बर्बाद हो जाती थी. एस एमें सही फोकस करना बहुत जरूरी था. उस वक़्त मैंने पहली बार कम्पोजीशन के नियम सीखे थे और रचनात्मकता से उनको तोड़ना भी. जब फोटो फीचर शूट करना था तो हर चीज़ में सब्जेक्ट नज़र आता था. उस समय हम ब्लैक एंड व्हाइट फोटो ही खींचते थे. ये दो रंग के फोटो कई बार जिंदगी के ऐसे रंगों से साक्षात्कार कराते थे कि रंगीन कैमरा नहीं कराता था.
फोटो खींचने के अलावा एक और शगल था मेरा...धुलाई करना...नहीं नहीं अपने सब्जेक्ट्स की नहीं, फिल्म की. फोटो खींचने की बाद फिल्म को एकदम अँधेरे कमरे के अन्दर डेवलपर में डालना होता है. जब नेगटिव डेवलप हो जाता है तो फिर उसे फोटो के हिसाब से काटना होता है. और इसके बाद आता था मेरा सबसे मज़ेदार काम पोजिटिव डेवलप करना. इस्क्ले लिए जो कमरा होता है उसे डार्क रूम कहते हैं, उसमें लाल रंग का धीमा जीरो वाट का बल्ब जलता था...कुछ को वो कमरा भुतहा भी लगता था. पोजिटिव बनाने के लिए एक मशीन होती थी जिसमें नेगटिव को फिट कर देते थे और रौशनी से पोसिटिव वाले पेपर को एक्सपोज करते थे. यहाँ हम अपनी पसंद से फोटो के अलग अलग पार्ट्स को गहरा या हल्का बना सकत थे. इस तकनीक को burning or dodging कहते थे. इसके बाद फिल्म को डेवलपर में डालते थे...और जादू की तरह सादे कागज़ पर आकृति उभरने लगती थी, चिमटे से हम फोटो को अच्छी तरह हिलाते थे ताकि पोजिटिव अच्छे से डेवेलोप हो जाए...इसके बाद उसे फिक्सेर में डालना होता था कुछ देर...और बस फिर सादे पानी से धोने के लिए सिंक में नाल खोल के उसके नीचे थोड़ी देर और बस निकाल के टांग देते थे, सूखने के लिए.
ये सब आपको भी सुनके आफत लग रहा होगा, मेरी क्लास्स्मेट्स को भी लगता था...हमें डार्क रूम में जाने के लिए शिफ्ट्स मिलते थे...और मैं खुशी-खुशी किसी से भी एक्सचेंज कर लेती थी. मुझे वो रहस्यमयी कमरा बेहद पसंद आता था. मैंने बहुत सी फोटो डेवलप की उधर. यहाँ का सीखा हुआ IIMC में भी बहुत काम आया. वहां हालांकि हमने कलर फोटो खींची तो बस कैमरावर्क सीखा हुआ था.
नोट्रे डैम के वो १४ दिन बेहद मज़ेदार थे...हमने खूब सारी मोडलिंग भी की थी एक दूसरे के लिए. ये दोनों तसवीरें मैंने खुद से डार्क रूम में डेवलप की है. आपने कभी खुद से किसी फोटो को धोया है ?! ;)
फोटो खींचने के अलावा एक और शगल था मेरा...धुलाई करना...नहीं नहीं अपने सब्जेक्ट्स की नहीं, फिल्म की. फोटो खींचने की बाद फिल्म को एकदम अँधेरे कमरे के अन्दर डेवलपर में डालना होता है. जब नेगटिव डेवलप हो जाता है तो फिर उसे फोटो के हिसाब से काटना होता है. और इसके बाद आता था मेरा सबसे मज़ेदार काम पोजिटिव डेवलप करना. इस्क्ले लिए जो कमरा होता है उसे डार्क रूम कहते हैं, उसमें लाल रंग का धीमा जीरो वाट का बल्ब जलता था...कुछ को वो कमरा भुतहा भी लगता था. पोजिटिव बनाने के लिए एक मशीन होती थी जिसमें नेगटिव को फिट कर देते थे और रौशनी से पोसिटिव वाले पेपर को एक्सपोज करते थे. यहाँ हम अपनी पसंद से फोटो के अलग अलग पार्ट्स को गहरा या हल्का बना सकत थे. इस तकनीक को burning or dodging कहते थे. इसके बाद फिल्म को डेवलपर में डालते थे...और जादू की तरह सादे कागज़ पर आकृति उभरने लगती थी, चिमटे से हम फोटो को अच्छी तरह हिलाते थे ताकि पोजिटिव अच्छे से डेवेलोप हो जाए...इसके बाद उसे फिक्सेर में डालना होता था कुछ देर...और बस फिर सादे पानी से धोने के लिए सिंक में नाल खोल के उसके नीचे थोड़ी देर और बस निकाल के टांग देते थे, सूखने के लिए.
ये सब आपको भी सुनके आफत लग रहा होगा, मेरी क्लास्स्मेट्स को भी लगता था...हमें डार्क रूम में जाने के लिए शिफ्ट्स मिलते थे...और मैं खुशी-खुशी किसी से भी एक्सचेंज कर लेती थी. मुझे वो रहस्यमयी कमरा बेहद पसंद आता था. मैंने बहुत सी फोटो डेवलप की उधर. यहाँ का सीखा हुआ IIMC में भी बहुत काम आया. वहां हालांकि हमने कलर फोटो खींची तो बस कैमरावर्क सीखा हुआ था.
नोट्रे डैम के वो १४ दिन बेहद मज़ेदार थे...हमने खूब सारी मोडलिंग भी की थी एक दूसरे के लिए. ये दोनों तसवीरें मैंने खुद से डार्क रूम में डेवलप की है. आपने कभी खुद से किसी फोटो को धोया है ?! ;)
19 October, 2010
भोर का राग
तुम जब मुझे 'कहाँ गयी रे? लड़की!' बुलाते हो तो अक्सर याद आता है कि पापा भी ऐसे ही मम्मी को बुलाते थे...और ऐसे ही हमको भी...पापा की एक आवाज पर हम दोनों भागते पहुँचते पापा के पास. अक्सर सुबह का वक़्त होता और पापा पेपर पढ़ते हुए कुछ पन्ने गायब पाते थे, और जाहिर है घर में कुछ नहीं मिल रहा है तो या तो हमको मिलेगा या मम्मी को. पापा को खुद से तो कभी कुछ मिल नहीं पाता था.
कल-परसों घर पर बात हुयी थी, घर में सब तुम्हें 'मेहमान जी' कहकर बुलाते हैं वैसे में जब कोई पूछे कि 'वो कैसे हैं आजकल? तुम्हारा ख्याल तो रखते हैं ना?' इसपर मैं तुम्हें 'तुम' नहीं कह सकती. कहना होता है कि 'वो बहुत अच्छे हैं और मेरा बहुत ध्यान रखते हैं'. ऐसा कहते हुए अनायास कभी तुम्हें 'तुम' से 'आप' तक अपग्रेड करने का मन करता है. देखती हूँ जैसे साथ की कुछ और लड़कियां कहती हैं, कुछ तुम्हारे दोस्तों की बीवियां, कुछ मेरी फ्रेंड्स कि 'वो अभी तक ऑफिस से नहीं आये...आजकल काम थोड़ा बढ़ गया है ना, तू सुना कैसी चल रही है लाइफ?' तो अनायास सोचती हूँ कि इस 'आप' में अपनापन हो जाता है, अधिकार हो जाता है.
याद पड़ता है कि शादी के शुरू कुछ दिन में ससुराल में एक दो बार कोशिश की थी, 'सुनिए जी' कहकर बुलाने की...मगर तुम इससे सुनोगे तब ना. जब तक तार सप्तक के सुर में 'रे' नहीं लगाते थे तुमको लगता ही नहीं था कि हम तुमको बुला रहे हैं. घर के देवर-ननद सबको छोटे भाई बहनों की तरह शुरू से धौल-धप्पा दौड़ा-दौड़ी लगा रहा...जैसे भाई से बात करते थे वैसे ही छोटे देवरों से करने लगे, कोई फर्क लगा ही नहीं कभी...तुम्हारे घर में किसी की बड़ी दीदी नहीं रही कभी शायद इसलिए भी सबने वो खाली जगह बड़े प्यार से भाभी को दे दी और मुझे कुछ छोटे भाई और मिल गए और एक इकलौती लाड़ली ननद. पर सच में मेरा इन रिश्तों पर कभी ध्यान ही नहीं गया...सब अपने घर के बच्चों से लगे. और पार्शिअलिटी कहाँ नहीं होती...आकाश को हम सबसे ज्यादा मानते हैं.
कहाँ से कहाँ पहुँच गए(युंकी मुझे फालतू बात करने की आदत तो है नहीं ;) ) थोड़ी कन्फ्यूज हो रही हूँ...अपने घर में तुमको 'आप' बुलाऊंगी तो तुम सुनोगे कि नहीं. कहते हैं ना इन्सान को जो नहीं मिलता उसकी खूबसूरती दिखने लगती है...पहले मुझे अरेंज मैरेज समझ ही नहीं आता था...अब जब कुछ लोगों को देखा है तो अधिकतर को लड़ते ही पाया है...मगर जो कुछ लोग हैं उनके रिश्ते देख कर लगता है कि जोड़ियाँ सच में ऊपर से बन के आती हैं.
सुबह सुबह उठना नहीं चाहिए...आधी नींद में सपनाने लगते हैं. आज इस बड़बड़ाने को यहीं बंद करते हैं...फिर कभी जब भोर को उठेंगे तो आगे लिखेंगे.
कल-परसों घर पर बात हुयी थी, घर में सब तुम्हें 'मेहमान जी' कहकर बुलाते हैं वैसे में जब कोई पूछे कि 'वो कैसे हैं आजकल? तुम्हारा ख्याल तो रखते हैं ना?' इसपर मैं तुम्हें 'तुम' नहीं कह सकती. कहना होता है कि 'वो बहुत अच्छे हैं और मेरा बहुत ध्यान रखते हैं'. ऐसा कहते हुए अनायास कभी तुम्हें 'तुम' से 'आप' तक अपग्रेड करने का मन करता है. देखती हूँ जैसे साथ की कुछ और लड़कियां कहती हैं, कुछ तुम्हारे दोस्तों की बीवियां, कुछ मेरी फ्रेंड्स कि 'वो अभी तक ऑफिस से नहीं आये...आजकल काम थोड़ा बढ़ गया है ना, तू सुना कैसी चल रही है लाइफ?' तो अनायास सोचती हूँ कि इस 'आप' में अपनापन हो जाता है, अधिकार हो जाता है.
कहाँ से कहाँ पहुँच गए(युंकी मुझे फालतू बात करने की आदत तो है नहीं ;) ) थोड़ी कन्फ्यूज हो रही हूँ...अपने घर में तुमको 'आप' बुलाऊंगी तो तुम सुनोगे कि नहीं. कहते हैं ना इन्सान को जो नहीं मिलता उसकी खूबसूरती दिखने लगती है...पहले मुझे अरेंज मैरेज समझ ही नहीं आता था...अब जब कुछ लोगों को देखा है तो अधिकतर को लड़ते ही पाया है...मगर जो कुछ लोग हैं उनके रिश्ते देख कर लगता है कि जोड़ियाँ सच में ऊपर से बन के आती हैं.
सुबह सुबह उठना नहीं चाहिए...आधी नींद में सपनाने लगते हैं. आज इस बड़बड़ाने को यहीं बंद करते हैं...फिर कभी जब भोर को उठेंगे तो आगे लिखेंगे.
14 October, 2010
फिर जाना, फिर लौटना
उस वक़्त में
ज्यादा नहीं लगती थी दूरी
IIMC के हॉस्टल से पैदल
गंगा ढाबा तक की
रात के कितने बजे भी
क्योंकि जानती थी
सड़कों के ख़त्म होने पर
दोस्त इंतजार करते होंगे
कि सर्द रातों में मिलेगी गर्म कॉफ़ी
और उससे भी जलती बहसें
कि वापस कोई आएगा साथ
सिर्फ रास्ते का अकेलापन बांटने के लिए
कि बारिश हुयी तो
खुल जायेंगे किसी भी होस्टल के दरवाजे
कि पार्थसारथी जाने के लिए
कोई रोकेगा नहीं
किसी के साथ घूमते रहने भर से
नहीं चुभेंगी शक की निगाहें
तब हुआ करती थी
हर पगडंडी की अलग खुशबू
किसी आने वाले कल में
मांगी जायेगी पहचान
JNU में अन्दर जाने के लिए भी
पार्थसारथी पर बैठा होगा दरबान
लुप्त हुए पगडंडियों के अवशेष
अकेले ढूँढने पड़ेंगे
कॉफ़ी का बिल चुकाने के लिए
किसी से झगड़ना नहीं होगा
कोई बताने वाला नहीं होगा
कि टेफ्ला की कौन सी डिश सबसे अच्छी है
बारिशों के लिए
लेकर जाना होगा छाता
घबराहट होती है
कि कैसा होगा
अकेले उन्ही रास्तों पर चलना
ये जानते हुए कि मेन गेट पर
भी कोई नहीं होगा
कि कितना दर्द होगा
कि कैसी आह होगी
सभी यादों को दफना दूं
कोई कब्रगाह होगी?
13 October, 2010
दिल्ली...पहचान तो लोगी मुझे?
वक़्त नहीं लगता, शहर बदल जाते हैं. ये सोच के चलो कि लौट आयेंगे एक दिन, जिस चेहरे को इतनी शिद्दत से चाहा उसे पहचानने में कौन सी मुश्किल आएगी...मगर सुना है कि दिल्ली अब पहचान में नहीं आती...कई फिरंगी आये थे उनके लिए सजना सँवरना पड़ा दिल्ली को. दिल्ली की शक्लो सूरत बदल गयी है.
सुना है महरौली गुडगाँव के रास्ते पर बड़ा सा फ़्लाइओवर बना है और गाड़ियाँ अब सरपट भागती हैं उधर. मेरे वक़्त में तो IIMC से थोड़ा आगे बढ़ते ही इतना शांत था सब कुछ कि लगता ही नहीं था कि दिल्ली है...खूब सारी हरियाली, ठंढी हवा जैसे दुलरा देती थी गर्मी में झुलसे हुए चेहरे को...कई सार मॉल भी खुल गए हैं...एक बेर सराय का मार्केट हुआ करता था, छोटा सा जिसमें अक्सर दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाया करती थी. छोटी जगह होने का ये सबसे बड़ा फायदा लगता था...और फिर साथ में कुछ खाना पीना, समोसे वैगेरह...चाय या कॉफ़ी और टहलते हुए वापस आना कैम्पस तक.
JNU तो हमारे समय ही बदलने लगा था...मामू के ढाबे की जगह रेस्तारौंत जैसी कुर्सी टेबलों ने ले ली, वो पत्थरों पर बैठ कर आलू पराठा और टमाटर की चटनी खाना और आखिर में गुझिया, चांदनी रात की रौशनी में...टेफ्ला में दीवारों पर २००६ में जो कविता थी मेरे एक दोस्त की, जिसे मैं शान से बाकी दोस्तों को दिखाती थी वो भी बदल दी गयी. पगडंडियों पर सीमेंट की सड़कें बन गयीं...जंगल अपने पैर वापस खींचने लगा...समंदर पे आती लहरों की तरह.
जो दोस्त बेर सराय, जिया सराय में रहते थे वो पूरी दिल्ली NCR में बिखर गए. पहले एक बार में सबके घर जाना हो जाता था...इधर से उठे उधर जाके बैठ गए...अब किसी चकमकाती मैक डी या पिज़ा हट में मिलना होगा...एसी की हवा दोस्ती को छितरा देती है, बिखरने लगती है वो आत्मीयता जो गंगा ढाबे के मिल्क कॉफ़ी में होती है. अब तो पार्थसारथी जाने के लिए आईडी कार्ड माँगा जाने लगा है...कहाँ से कहें कि ये जगह JNU में अभी पढने वाले लोगों से कहीं ज्यादा उनलोगों के लिए मायने रखती है जो यहाँ एक जिंदगी जी कर गए थे. पता नहीं अन्दर जाने भी मिलेगा कि नहीं.
१५ नवम्बर, किसी कैलेंडर में घेरा नहीं लगाना पड़ा है...आँखों को याद है कि जब दिल्ली आउंगी मैं, दो साल से भी ऊपर हुए...जाने कैसी होगी दिल्ली...याद के कितने चेहरों से मिल सकूंगी...नयी कितनी यादों को सहेज सकूंगी. बस...ख्वाहिशों का एक कारवां है जो जैसे डुबो दे रहा है. दिल्ली...जिंदगी का एक बेहद खूबसूरत गीत.
08 October, 2010
बारिश के रंग
बंगलोर में रहते हुए बारिशों के कई अंदाज़ देखे हैं, कुछ घर की खिड़की से, कुछ बालकोनी में कॉफ़ी के साथ, कुछ ऑफिस की सीट से बाहर...जिद्दी बारिश, प्यारी बारिश, तमतमाई बारिश, आलसी बारिश वगैरह...जिंदगी के कुछ हिस्सों में बारिश कैसे गुंथी है कि लगता है बादल बड़ा होशियार होता है. आज कुछ तरह की बारिशों के रंग में भीगते हैं.
इंस्टैंट बारिश: ये सबसे दुर्लभ किस्म की बारिश होती है...दुर्लभ यानि कि आम जनता के लिए. फिल्मों में ऐसी बारिश भरपूर मात्रा में पायी जाती है...खास तौर से ऐसे दिन जब हिरोइन के पास छाता ना हो. ऐसे अनेको उदाहरण हैं जब फिल्मों में बारिश एकदम राईट टाइम पर शुरू होती है. लेकिन इस बारिश का श्रेय हम मिस्टर बदल को नहीं दे सकते क्योंकि ये आर्टिफिसियल बारिश होती है. अधिकतर इंस्टैंट बारिश को काम बिगाडू माना जाता है. खडूस लोगों के विचारों से इतर...इंस्टैंट बारिश से प्यार के फूल खिलने की संभावना काफी बढ़ जाती है.
जुल्मी बारिश: ये वो बारिश है जिसे सभी प्यार करने वाले खार खाते हैं...इश्क कई बार आग का दरिया ना होकर असली दरिया भी होता है...हमें तो पाटलिपुत्रा का ज़माना याद आता है, मानसून आते ही पूरी कालोनी की सडकों पर पानी भर जाता था...वैसे तो पानी में इटा पर कूद फांद कर ट्यूशन पहुँच जाते थे पर जिस दिन ये कमबख्त 'जुल्मी' बारिश आती थी सड़कों पर गंगा बहने लगती थी. बारिश दरिया और नाले में कोई फर्क नहीं करती थी, सब तरफ सामान रूप से बरसती थी. ठीक वैसे ही मम्मी हमपर बरसती थी....दिमाग ख़राब हो गया है लड़की का, इत्ती बारिश में कहाँ जायेगी. हाय वो बचपन का प्यार...किसी को एक नज़र देखने के लिए घुटना भर से ऊपर पानी हेलकर अपनी साइकिल से जाते थे. तो जैसा कि मैंने उदाहरण दिया...ये जुल्मी बारिश हमेशा इश्क के सुलगते अरमानो को बुझा डालती है...डुबा डालती है. ग़ालिब पटना में पैदा हुए होते तो कहते...ये इश्क नहीं आसान, एक बाढ़ है, दरिया है और अबकी डूब जाना है.
गुस्सैल बारिश: इस बारिश का बिजली और गरज से सोलिड दोस्ती है. तीनो साथ मिलकर शहर शहर डुबोने का प्लान बनाते हैं. ये बारिश खास तौर से तब आती है जब हम घर से छाता लेकर निकलना भूल जाते हैं. ऐसे केस में बादल अपमानित महसूस करता है, कि सुबह से आसमान में क्या लुख्खा टाईमपास कर रहे थे, तुम हमको देख कर भी अनदेखा की, हमारा इन्सल्ट की. अब भुगतो! और अगर बारिश का मूड हुआ तो तो ओले से भी सेट्टिंग कर लेती है अपनी...खास तौर से जब कोई सर मुन्डाता है. इसलिए कहते हैं सर मुंडाते ही ओले पड़े. जब गुस्सैल बारिश आती है तो तेज हवा चलती है और थपेड़े से पेड़ों की जड़ें तक हिल जाती हैं. तब ये पेड़ ७ पटियाला पैग चढ़ाये इन्सान की तरह भरभरा के गिर जाते हैं. इस बारिश के कारण गाड़ियाँ ख़राब होती हैं, वो भी अं चौराहे पर...ताकि चारों तरफ का ट्रैफिक सत्यानाश हो जाए. इस बारिश के तेवर पहले से ही मालूम रहते हैं इसलिए इस बारिश को किसी हाल में इग्नोर नहीं करना चाहिए. इससे बचने का सबसे आसान उपाय है...बचना...यानि घर पर टिकना.
क्यूट बारिश: इस बारिश को सभी पसंद करते हैं, ये बारिश अच्छे दोस्त की तरह कभी भी आती है, गौरतलब रहे कि इसमें और इंस्टैंट बारिश में बस ये एक समानता है. तो क्यूट बारिश बिलकुल हलके हलके पड़ती है, इसकी नन्ही नन्ही बूँदें चेहरे को प्यार से थपथपाती हैं. ये बारिश अक्सर दिल्ली में अगस्त के पहले मैंने में पायी जाती है...इस बारिश से तीन खास तरह के लोग बहुत खुश होते हैं, कॉफ़ी, पकौड़े और जलेबी बनाने वाले...जब ये बारिश आती है तो भुट्टे वालों का भी बिजनेस बढ़ जाता है. ये बारिश ऐसी है कि अकेले या दुकेले एन्जॉय की जा सके. अकेले लोगों के लिए आवश्यक है हेडफोन और कोई भी म्यूजिक प्लेयर ये अकेला इन्सान अगर कवि हो तो उसकी लेखनी में चार चाँद लग जाते हैं. जो मनुष्य इस बारिश में ना भीगा हो उसका जीवन व्यर्थ है.
फिलहाल इतने बारिशों में भीगिए, बाकी रंग फिर किसी दिन उड़ेले जायेंगे.
इंस्टैंट बारिश: ये सबसे दुर्लभ किस्म की बारिश होती है...दुर्लभ यानि कि आम जनता के लिए. फिल्मों में ऐसी बारिश भरपूर मात्रा में पायी जाती है...खास तौर से ऐसे दिन जब हिरोइन के पास छाता ना हो. ऐसे अनेको उदाहरण हैं जब फिल्मों में बारिश एकदम राईट टाइम पर शुरू होती है. लेकिन इस बारिश का श्रेय हम मिस्टर बदल को नहीं दे सकते क्योंकि ये आर्टिफिसियल बारिश होती है. अधिकतर इंस्टैंट बारिश को काम बिगाडू माना जाता है. खडूस लोगों के विचारों से इतर...इंस्टैंट बारिश से प्यार के फूल खिलने की संभावना काफी बढ़ जाती है.
जुल्मी बारिश: ये वो बारिश है जिसे सभी प्यार करने वाले खार खाते हैं...इश्क कई बार आग का दरिया ना होकर असली दरिया भी होता है...हमें तो पाटलिपुत्रा का ज़माना याद आता है, मानसून आते ही पूरी कालोनी की सडकों पर पानी भर जाता था...वैसे तो पानी में इटा पर कूद फांद कर ट्यूशन पहुँच जाते थे पर जिस दिन ये कमबख्त 'जुल्मी' बारिश आती थी सड़कों पर गंगा बहने लगती थी. बारिश दरिया और नाले में कोई फर्क नहीं करती थी, सब तरफ सामान रूप से बरसती थी. ठीक वैसे ही मम्मी हमपर बरसती थी....दिमाग ख़राब हो गया है लड़की का, इत्ती बारिश में कहाँ जायेगी. हाय वो बचपन का प्यार...किसी को एक नज़र देखने के लिए घुटना भर से ऊपर पानी हेलकर अपनी साइकिल से जाते थे. तो जैसा कि मैंने उदाहरण दिया...ये जुल्मी बारिश हमेशा इश्क के सुलगते अरमानो को बुझा डालती है...डुबा डालती है. ग़ालिब पटना में पैदा हुए होते तो कहते...ये इश्क नहीं आसान, एक बाढ़ है, दरिया है और अबकी डूब जाना है.
गुस्सैल बारिश: इस बारिश का बिजली और गरज से सोलिड दोस्ती है. तीनो साथ मिलकर शहर शहर डुबोने का प्लान बनाते हैं. ये बारिश खास तौर से तब आती है जब हम घर से छाता लेकर निकलना भूल जाते हैं. ऐसे केस में बादल अपमानित महसूस करता है, कि सुबह से आसमान में क्या लुख्खा टाईमपास कर रहे थे, तुम हमको देख कर भी अनदेखा की, हमारा इन्सल्ट की. अब भुगतो! और अगर बारिश का मूड हुआ तो तो ओले से भी सेट्टिंग कर लेती है अपनी...खास तौर से जब कोई सर मुन्डाता है. इसलिए कहते हैं सर मुंडाते ही ओले पड़े. जब गुस्सैल बारिश आती है तो तेज हवा चलती है और थपेड़े से पेड़ों की जड़ें तक हिल जाती हैं. तब ये पेड़ ७ पटियाला पैग चढ़ाये इन्सान की तरह भरभरा के गिर जाते हैं. इस बारिश के कारण गाड़ियाँ ख़राब होती हैं, वो भी अं चौराहे पर...ताकि चारों तरफ का ट्रैफिक सत्यानाश हो जाए. इस बारिश के तेवर पहले से ही मालूम रहते हैं इसलिए इस बारिश को किसी हाल में इग्नोर नहीं करना चाहिए. इससे बचने का सबसे आसान उपाय है...बचना...यानि घर पर टिकना.
क्यूट बारिश: इस बारिश को सभी पसंद करते हैं, ये बारिश अच्छे दोस्त की तरह कभी भी आती है, गौरतलब रहे कि इसमें और इंस्टैंट बारिश में बस ये एक समानता है. तो क्यूट बारिश बिलकुल हलके हलके पड़ती है, इसकी नन्ही नन्ही बूँदें चेहरे को प्यार से थपथपाती हैं. ये बारिश अक्सर दिल्ली में अगस्त के पहले मैंने में पायी जाती है...इस बारिश से तीन खास तरह के लोग बहुत खुश होते हैं, कॉफ़ी, पकौड़े और जलेबी बनाने वाले...जब ये बारिश आती है तो भुट्टे वालों का भी बिजनेस बढ़ जाता है. ये बारिश ऐसी है कि अकेले या दुकेले एन्जॉय की जा सके. अकेले लोगों के लिए आवश्यक है हेडफोन और कोई भी म्यूजिक प्लेयर ये अकेला इन्सान अगर कवि हो तो उसकी लेखनी में चार चाँद लग जाते हैं. जो मनुष्य इस बारिश में ना भीगा हो उसका जीवन व्यर्थ है.
फिलहाल इतने बारिशों में भीगिए, बाकी रंग फिर किसी दिन उड़ेले जायेंगे.
06 October, 2010
खो के तुम्हें
बहुत दिन हुए सूरज निकले
चाँद कहीं उग आये भी
इश्क-मुश्क है परी कहानी
हमको कोई समझाए भी
मैं हूँ तुम हो दीवारें हैं
कोई इन्हें गिराए भी
खुद को दरियादिल समझे थे
खो के तुम्हें पछताए भी
राशन, पानी, फूल, किताबें
जरा तो दिल बहलाए भी
अख़बारों में सब पढ़ती हूँ
नाम तुम्हारा आये भी
रह गए टूटे शब्द बिचारे
कहीं ग़ज़ल बन जाये भी
दुनियादारी बहुत कठिन है
कोई साथ निभाए भी
होठों से तो हँस लेते हैं
आँखों से मुस्काए भी
चाँद कहीं उग आये भी
इश्क-मुश्क है परी कहानी
हमको कोई समझाए भी
मैं हूँ तुम हो दीवारें हैं
कोई इन्हें गिराए भी
खुद को दरियादिल समझे थे
खो के तुम्हें पछताए भी
राशन, पानी, फूल, किताबें
जरा तो दिल बहलाए भी
अख़बारों में सब पढ़ती हूँ
नाम तुम्हारा आये भी
रह गए टूटे शब्द बिचारे
कहीं ग़ज़ल बन जाये भी
दुनियादारी बहुत कठिन है
कोई साथ निभाए भी
होठों से तो हँस लेते हैं
आँखों से मुस्काए भी
Subscribe to:
Posts (Atom)