मम्मी,
हमारे तरफ कोई भी तरीका क्यों नहीं है तुमसे बात करने का. काश कोई तो पता होता, जिसपर लिख कर मेरी चिट्ठियां तुम तक पहुँचती. दर्द के किसी भी पल में तुमसे न बात कर पाना दर्द को और गहरा कर देता है. हमारे धर्म में, संस्कारों में, रीति रिवाजों में, लोक-कहानियों में...कहीं कोई तरीका नहीं है जिससे तुम मेरी बातें सुन लो.
अवसाद के किसी गहरे क्षण में यही सोचती हूँ, की अगर तुम होती भी तो क्या कभी कह पाती...मगर तुमसे कभी कहने की भी जरूरत कहाँ होती थी. तुम तो पहचान जाती थी, sसधे हुए...ठहर कर कहे हुए शब्दों में मेरे अंदर का मौन...सुन लेती थी फोन पर भी मन की सिसकियाँ. कितना सुकून मिलता था की बिना कहे भी तुम समझ जाती थी...तुमसे बात कर के हमेशा समस्या छोटी लगने लगती थी. तुम्हारे पास सारे सवालों के जवाब होते थे मम्मी.
लगता है कि कोई और क्यों नहीं देख पाता है सामने रह कर भी. कि तुम्हारे पास कौन सी दिव्य दृष्टि थी कि तुम कितनी भी दूर से हमेशा जान जाती थी अगर मैं थोड़ी भी परेशान होती थी. तुम जब तक थी, हमको लगता था कि हम बहुत खराब एक्टिंग करते हैं, कि मेरा झूठ पकड़ा जाता है हमेशा...अब जानती हूँ कि वो तुम थी मम्मी, हम नहीं. तुम पकड़ लेती थी सब कुछ. अब कितना आसान सा हो जाता है...खुश रहना, दिखावा करना, मुस्कुराना...एक तुम थी कि आँख में पानी आये बिना जान जाती थी, अब तो सिसकियों की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती किसी को भी.
तुम्हारे जाने के साथ भगवान पर ऐसा विश्वास उठा है कि चिट्ठी भगवान को भी नहीं लिख सकती जैसे पहले लिखा करती थी. पहले कितना यकीन था कि भगवान सुन ही लेंगे. और अब लगता है कि कहीं कोई नहीं है जो चुप-चाप कही गयी बातों को सुन ले. वो भगवान नहीं हैं अब कि बस मंदिर में खड़े हुए, बाबा को छुआ और बाबा जान गए सब बात...अब तो बाबा को कितना भी बोलते हैं, वो सुनते ही नहीं. तुम शायद वहीँ हो कहीं, मेरी थोड़ी तो बात पहुंचेगी तुम तक.
देवघर में हूँ मम्मी...और अब ही हर दिन, पल पल लगता है कोई घाव को कुरेदते जा रहा हो...कि मेरा कोई घर नहीं हो...कि मेरा कोई भी नहीं है कहीं.
तुम मेरी बात सुनती हो क्या मम्मी?
तुम्हारी प्यारी बेटी
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