एक नन्हा सा गृह हो
जिसके पते पर
लिख के फेंक सकें
वो सारे ख़त
जो किसी नाम को
किसी नाम से
नहीं लिखे जा सकते
ना भरने वाले निर्वात में
सालों अटकी रहे
अनगिन चिट्ठियां
कांच के रोकेट में
धूमकेतु का इंतज़ार करते हुए
जल जाने या पहुँच जाने
के बीच...एकदम बीच
वहां पहुंची चिट्ठियां
किसी और के ख्याल बनें
उसे लगे कि आज कविता लिखूं
कि आज किसी की याद में रो लूं
इश्क कर लूं
जमीं पर उँगलियाँ फिरो
एक तस्वीर बना दूं
तब जब कि प्रतिबंधित हो
मन को पूरा उल्था करना
सजायाफ्ता हों कवि
किताबों से लगता हो पाप
हारी जा चुकी हो
संविधान की आखिरी प्रति
तुच्छ राजनीति के किसी जुए में
सोच को कर दिया जाता हो नीलाम
ऐसे में बिना आहट के
एक बनाये कांच के रोकेट
दूसरा उन्हें पहुंचा आये
किसी अबोध कवि तक
जो अपनी आत्मा बंद कर सके
क्षणभंगुर कांच में
कवि उस नन्हे से गृह तक
देर, बहुत देर में पहुंचे
और सारे खतों को बोल कर पढ़े
और पूरे अंतरिक्ष पार
लोग सपने देखें
सोच को छुड़ा लायें
हंसें, मुस्कुराएं
इश्क करें
इस खुशहाल दुनिया में
एक रोकेट आज भी रोज चले
धूमकेतु के इंतज़ार में
बस एक अनलिखा ख़त बाकी है
विरह में बस एक प्राण जले
कवि की 'प्रेरणा' का
इस खुशहाल दुनिया में
ReplyDeleteएक रोकेट आज भी रोज चले
धूमकेतु के इंतज़ार में
बस एक अनलिखा ख़त बाकी है
विरह में बस एक प्राण जले
कवि की 'प्रेरणा' का
अनलिखे खत के लिखे जाने की प्रतीक्षा.
बेहद खूबसूरत और भावनाओं से ओतप्रोत करने वाली रचना.
शानदार ....खास तौर से ये पंक्तिया ....
ReplyDeleteबिना आहट के
एक बनाये कांच के रोकेट
दूसरा उन्हें पहुंचा आये
किसी अबोध कवि तक
जो अपनी आत्मा बंद कर सके
क्षणभंगुर कांच में......
पर आजकल कवियों की आत्मा भी सुना है एक चोर दरवाजा उस कांच में बना लेती है ........पृथ्वी के कवि जो ठहरे
बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteकल्पना कहाँ तक जा सकती है, आकाश गंगा तक, आपकी कल्पना पहुँच गयी।
ReplyDeleteचिठ्ठियाँ कल्पनाओं तक पहुँच गयी।
कवि की प्रेरणा जीवित रहे
और जीवित रहें आनन्द, वह भी अनन्त।
आधे घंटे के निश्चेष्ट अस्तित्व के पहले नहीं उपज सकता है यह विचार।
mana ke aasan nahin hai manjil ko pana-- par chand pe jaate huwe dekha hai zamana
ReplyDeleteहर एक वैज्ञानिक प्रयोग से पहले परिकल्पना ही तो की जाती है.....और फिर वही परिकल्पना सिध्यन्तो, पैमानों और सूत्रों से गुजरती हुई, सत्यता को पार होती है.....कसौटियों से गुज़ारना होता है उसे भी......हम आप की परिकल्पना को सच मान कर चलते हैं पूजा......बाजारवाद और पूँजीवाद से गुजरते हुए भी खुद को बचाते हुए ....चलता रहे कवि .....या फिर हम सारे इंसान ......इनके प्रभावों से प्रभावित होकर भी खुद को बचा कर रखना कला नहीं है तो और क्या है .....आपके लेखन, आपकी सोच ने बहुत प्रभावित किया हमें....लिखती रहिये :-)
ReplyDeleteचांदनी और धूप में नहाई कल्पना की आकाश गंगा तक उड़ान... इस प्रेरणा की है सभी को तलाश...
ReplyDeletebahut sunder ..achha laga aapki kalpna ki is lahar me doobna :)
ReplyDeleteबहुत अलग तरह की कविता... सोच और कल्पना का बेहतर मिश्रण ... तुम जब भी रूटीन से अलग लिखती हो चौंका देती हो.... और हमें उस आहट पर कान धरना पसंद है.
ReplyDeleteबस एक अनलिखा ख़त बाकी है
ReplyDeleteविरह में बस एक प्राण जले
कवि की 'प्रेरणा' का
बेहद उम्दा सोच का परिचायक है ये कविता……………काफ़ी गहन अभिव्यक्ति।
Priya sent me this link ...
ReplyDeleteThanks Priya for for sending it.
Amazing poem Puja ,
Keep writing.
Regards,
Dp
http://master-stroke.in/
Thanks Priya for the kind gesture. Welcome DP...thanks for the comment :)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावमय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteदोबारा आ गया यह कहने के लिए कि तुम बहुत भटकाती हो!
ReplyDeletehi puja..i often come to your blog..i like the way you play with words..it's unique & fresh :)
ReplyDeletePuja......No need to say thanks...I love this one wo fw to DP.Aaj man se credit di hai isne to lelete hain ..lagta hai sudhar gaya hai :-)
ReplyDeleteतिबारा भी आ गया यह कहने के लिए की तुम्हारी बायीं रचना ढूंढे नहीं मिल रही हो. हमने इमेल भी किया है.
ReplyDeleteसुब्रमनियम जी, आपको रचना मेल कर दी है. आपकी मेल का जवाब भी दे दिया है. आपके इतने स्नेह के लिए आभार.
ReplyDeleteसादर,
पूजा