09 November, 2010

अँधेरे की कहानी

जिंदगी में एक शब्द अपनी पैठ बनाता चला जाता है...गहरे धंस कर अपनी मौजूदगी का अहसास हमेशा कराते रहता है...एक शब्द है 'हदास' जो मेरे ख्याल से हादसा से आया होगा. भय का सबसे ज्यादा घनत्व वाला रूप है ये. जिस चिंता के बारे में पढ़ते हैं कि चिता सी जलाती है, वो चिता इस हदास की लकड़ियों पर ही जलती है. दबे पाँव आता है और घर की हवा में भय घुल जाता है...सांस लेने में भी डर लगने लगता है.

रात होते गहरा काला अँधेरा पसर कर बैठ जाता है...लगता है कि जीवित कोई पशु है जिसके शायद सींग होते हों. घर में दो सीढियां उतर जर नीचे के बरामदे पर जाया जा सकता है पर उधर अन्देरे का काला, गाढ़ा पानी घुस आया है, इस अँधेरे पानी में उतरना वैसे तो मुश्किल नहीं है...पर ये हदास लगा हुआ है तो डर लगता है कि इस अँधेरे में किसी चिता की लपटें ना दिखाई देने लगें. या अँधेरा कहीं पैरों पर चिपक ना जाए...ऐसा हुआ तो अँधेरा खून में मिलके जाने कौन कौन से अंगों को भयग्रस्त कर देगा. कौन जाने ह्रदय धड़कने में घबराने लगे, आँखें देखने से बंद होना बेहतर मानें...हालांकि अँधेरे में आँखें खुली और बंद क्या.

टोर्च जलाते ही अँधेरा पाँव धरने भर जगह खाली करता है, पर जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं पीछे से घात मारने के लिए तत्पर रहता है. मुड़ मुड़ के देखते हैं तो लगता है अँधेरा बढ़ आया है...और बीच अँधेरे में फंस गए हैं. ऐसे में दूर नज़र आती है किसी लालटेन की आदिम रौशनी, याद आता है कि दादी शाम होते ही दिया बारने बोलती थी...लगता है गाँव में किसी ने लालटेन जलाई है...सांझ देने के लिए. चिपचिपा सा अँधेरा पैरों को जकड़ने लगता है, लगता है जैसे चारों ओर अँधेरे की बारिश ही हो रही है.

सर का दर्द अँधेरे को और शक्तिशाली बना देता है...अभी ड्योढ़ी से चार सीढियां और उतरनी हैं फिर आँगन खुलेगा...आँगन में तुलसी चौरा है...उधर हनुमान जी की मूर्ती स्थापित है तो उधर प्रेतों का आतंक थोड़ा कम होना चाहिए. बहुत धीमे धीमे कदम बढ़ाती है वो...अँधेरे का हिस्सा बने बगैर. दिया जलाना है...और खोह में रख देना है फिर अँधेरे से युद्ध का शंख बजाना है. हदास उसे फेफड़ों में हवा नहीं भरने देता...शंख से आवाज़ नहीं निकलती. किसी और के बचपन का, किसी और घर का झगड़ा याद आता है, लड़कियां शंख नहीं बजातीं.
आँगन से क्षितिज के पार की चीज़ें भी दिखती हैं...ध्वजा का नारंगी रंग अँधेरे में भी सूरज की तरह चमक उठता है. आँखें रंग देखने लगती हैं, भय रात में घुल के गायब हो जाता है.

7 comments:

  1. अँधेरे की कहानी परन्तु शब्दों की अच्छी बुनावट. आपके लिखने का अंदाज़ जुदा है सबसे. अच्छा प्रयास.

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  2. ग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला।

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  3. अंधेरे की कविता अक्‍सर अवसाद और आतंक के बीच का कुछ रचती है, यही शायद हदास या हदस है. अंधेरे की दुर्लभ सघनता मुक्तिबोध की लंबी कविता 'अंधेरे में', याद आ रही है. हादस का अंधेरा-आभास, अरुण-आस के साथ ही घुल कर गायब होता है.

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  4. see your new dimension.....and love it....keep flowing...

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  5. अँधेरे को खूब परिभाषित किया है ...

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  6. स्वेटर बुनना आसान है. इस तरह शब्दों को बुनना बहुत कठिन है. बधाइयाँ.
    आप के आज के पोस्ट में टिपण्णी के लिए कोई प्रावधान ही नहीं मिल रहा है.
    चिट्ठी तो मम्मी को पहुँच गयी होगी.

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