11 November, 2009

दुनिया की इस भीड़ में...सबसे पीछे हम खड़े

SABSE PEECHE HUM K...


आज सबसे पहले ये गाना...बहुत दिन बाद कोई ऐसा गीत सुना है जो सुबह से थिरक रहा है मन में...वैसे तो ये गाना पहले भी सुना है, पर आज बहुत दिनों बाद फ़िर सुना...सिल्क रूट ने गाया है और गीत के बोल कुछ यूँ शुरू होते हैं...
जरा नज़र उठा के देखो
बैठे हैं हम यहीं
बेखबर मुझसे क्यों हो
इतने बुरे भी हम नहीं

ज़माने की बातों में उलझो ना
है ये आसान जानना
ख़ुद से अगर जो तुम पूछो
है हम तुम्हारे की नहीं
तेरी आंखों का जादू पूरी दुनिया पे है
दुनिया की इस भीड़ में, सबसे पीछे हम खड़े...


बिल्कुल फुर्सत में इत्मीनान से गाया हुआ गीत लगता है, कोई बनावटीपन नहीं, शब्द भी जैसे अनायास ही लिखे गए हैं...जैसे दिल की बात हो सीधे, कोई घुमा फिरा के नहीं कहना...बिल्कुल सीधा सादा सच्चा सा। और मुझे इस गीत का गिटार बहुत अच्छा लगता है, और माउथ ओरगन भी।

आज पूरे दिन सुना...कभी कभी सोचती हूँ की अगर मैं एक दिन अपना headphone गुमा दूँ तो मेरे ऑफिस के बेचारे बाकी लोगों का क्या होगा :)

सुबह बंगलोर में बारिश हो रही थी...बारिश क्या बिल्कुल फुहार...ऐसी जो मन को भिगोती है, तन को नहीं। बहुत कुछ पहले प्यार की तरह, उसमें बाईक चलाने का जो मज़ा था की आहा...क्या कहें। और आज सारे ट्रैफिक और बारिश और सुहाने मौसम के बावजूद मैं टाईम पर ऑफिस पहुँच गई तो दिल हैप्पी भी था। उसपर ये प्यारा गीत, काम करने में बड़ा मज़ा आया...जल्दी जल्दी निपट भी गए सारे।

वापसी में कुछ ख़ास काम नहीं था, सब्जी वगैरह खरीद कर घर तक आ गई...बस घर का यही एक मोड़ होता है जहाँ एक कशमकश उठती है...समझदार दिमाग कहता है, घर जाओ, जल्दी खाना बनाओ...और जल्दी सो जाओ, इतनी मुश्किल से एक दिन तो ऑफिस से टाइम पर आई हो...थोड़ा आराम मिलेगा शरीर को...मगर इस शरीर में एक पागल सा दिल भी तो है, एक बावरी का...तो दिल मचल जाता है...मौसम है, मूड है, पेट्रोल टंकी भी फुल है...यानि कोई बहाना नहीं।

तो आज मैं फ़िर से बाईक उडाती चल दी सड़कों पर, होठों पर यही गीत फुल वोल्यूम में, और गाड़ी के एक्सीलेटर पर हाथ मस्ती में, ब्रेक वाली उँगलियाँ थिरकन के अंदाज में। कुछ अंधेरे रास्ते, घर लौटते लोग...हड़बड़ी में...सबको कहीं न कहीं पहुंचना है। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं है, मेरी कोई मंजिल नहीं है जहाँ पहुँचने की चाह हो...ऐसे में सफर का मज़ा ही कुछ और होता है। ऐसे में खास तौर से दिखता है की बंगलोर में लोग घर कितने खूबसूरत बनाते हैं, कितना प्यार उड़ेलते हैं एक एक रंग पर...

कम सोचती हूँ...पर कभी कभार सोचती हूँ, ख़ुद की तरह कम लड़कियों को क्यों देखा है...जो इच्छा होने पर जोर से गा सके, सीटी बजा सके, लड़के को छेड़ सके ;) उसके बगल से फर्राटे से गाड़ी भगा सके...कहाँ हैं वो लड़कियां जो मेरी दोस्त बनने के लिए इस जहाँ में आई हैं। जिन्हें मेरा पागलपन समझ में आता है...जो मेरी तरह हैं...जो इन बातों पर हँस सके...छोटी छोटी बात है...पर कई बार छोटी सी बात में ही कोई बड़ी आफत छिपी होती है। खैर, उम्मीद है मेरी ये दोस्तें मुझे इसी जन्म में कभी मिल जायेंगी।

इस सिलसिले में ऐसे ही एक लड़की से मिलने का किस्सा याद आता है...जेएनयू में मेरा तीसरा दिन था...और जोर से बारिश हुयी थी। बारिश होते ही सारे लड़कियां भाग कर हॉस्टल में चली गई थी, एक मैं थी की पूरे कैम्पस में खुशी से नाच रही थी, पानी के गड्ढों में कूद रही थी, बारिश को चेहरे पर महसूस कर रही थी। IIMC कैम्पस की वो बारिश जब सब स्ट्रीट लैंप की पीली रौशनी में नहा गया था, चाँद भीगी लटों को झटक रहा था, उसकी हर लट एक बादल बन जाती और बारिश थोडी और तेज हो जाती। तभी बारिश में मैंने एक और लड़की को देखा...वैसे ही भीगती हुयी, खिलखिलाती हुयी, खुश अपनेआप से और बारिश से...हमने एक दूसरे को देखा और मुस्कुरा दिए...वहीँ से एक दोस्ती की शुरुआत हुयी, मेरी दिल्ली में पहली दोस्त।

और उस वक्त मैं उसके नाम को महज एक अलग नाम के होने से जान सकी थी...पर आज जानती हूँ की वो वैसी क्यों थी...उसका नाम था 'बोस्की'

गुलजार की नज्मों की तरह...एक अलग सी, मुझ जैसी लड़की...

आज जाने वो कहाँ है, पर आज भी बारिश होती है रात को, और पूर्णिमा होती है तो मुझे उसकी याद आ जाती है। आज ऐसी ही एक रात थी। तुम जाने कहाँ हो बोस्की...पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...उम्मीद है तुम वैसी ही होगी...और दिल्ली की बारिशों में शायद तुमने भी मुझे याद किया होगा।

05 November, 2009

बहुत शुक्रिया :)


सबसे पहले आप सब लोगों को एक बड़ा सा धन्यवाद...थैंक यू :D आपने मुझे वोट दिया।
Indiblogger पर ब्लोग्गर ऑफ़ था मंथ में इस पर कविता के अर्न्तगत प्रतियोगिता थी। मैंने भी अपने दोनों ब्लॉग नोमिनेट किए थे। कुल १८३ प्रविष्टियाँ थी और एक हफ्ते का वक्त था वोटिंग के लिए। मुझे इतनी प्रविष्टियाँ देख कर लगा था, जाने लोग किस आधार पर वोट करेंगे। नेट्वर्किंग के नाम पर कम ही लोगों को इतना जानती हूँ की पर्सनली कह सकूँ कि भई हमारे लिए वोट कर दो...अच्छा बुरा जो लिखा है बाद में पढ़ते रहना ;)

पर आप सब का बहुत सहयोग मिला, और वोट भी तो तीसरे पायदान पर आई हूँ बहुत दिन बाद किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था, और डरते डरते ही लिया था। कुछ वोट तो मिल ही जायेंगे इस भरोसे पर लिया था कि चलो जीरो पर आउट नहीं होंगे :)

सबसे पहले कुश को पकड़ा...तो वो भला आदमी पहले ही वोट कर चुका था मेरे लिए, हम भी बदला टिका आए वोट करके :D अच्छा फील हुआ, काफ़ी और लोगों को पढ़ा। कुछेक ब्लॉग खास तौर से पसंद आए...खास तौर से इंग्लिश के ब्लॉग, क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि मैं हिन्दी ज्यादा पढ़ती हूँ। अंग्रेजी में एक तो स्तरीय लेखन कम मिलता है ब्लॉग पर और दूसरा लम्बी पोस्ट हमको झेली नहीं जाती। आदत डालनी पड़ती है...जो अभी तक हमने डाली नहीं है। अंग्रेजी ब्लोग्स कि संख्या भी इतनी अधिक है कि एक अच्छा ब्लॉग ढूंढ़ना माने भूसे के ढेर में सुई ढूंढ़ना हुआ, ऐसे में कोई खोज खाज के बता दे तो पढ़ लेते हैं। हिन्दी में फ़िर भी आसान है, अपने पसंद के ब्लोग्स से बाकी लिंक देखती रहती हूँ।

ऐसे में एक चीज़ पर ध्यान गया, चूँकि advertising से जुड़ी हूँ तो अक्सर मार्केटिंग के अलग पक्षों पर ध्यान चला ही जाता है। १८३ ब्लोग्स में से बहुत कम लोगों ने अपनी तस्वीर लगायी थी, एक बार में सीधे ध्यान तस्वीर पर जाता है, चाहे वो किसी की ख़ुद कि हो, या और कोई भी कार्टून या फूल पौधा। तस्वीर ब्लॉग को दोबारा ढूँढने के भी काम आती है तो मुझे लगा कि कमसे कम एक तस्वीर तो होनी ही चाहिए। इसके बाद पहली बार किसी और चीज़ पर ध्यान गया, ब्लॉग का नाम...जीतने वाले ब्लॉग का नाम भी काफ़ी अलग सा है। कुछ अलग से नाम वाले ब्लोग्स को न सिर्फ़ पढने कि उत्सुकता हुयी बल्कि बाद में भी एक बार में याद आ गया।

मुझे ब्लोग्स के नाम अक्सर वो अच्छे लगते हैं जो किसी का असली नाम न हो के कुछ और हो...या फ़िर नाम से जुड़ा एक शब्द हो...इसी तरह मैंने देखा कि मुझे तसवीरें वो अच्छी लगती हैं जिनमें पूरा चेहरा न दिखे, या फ़िर एक हलकी सी झलक भर हो।

मज़ा आया बहुत, खूब से ब्लॉग पढ़े, कुछ अच्छे कुछ बोरिंग, कुछ मजेदार...वोट किया...अच्छा लगा, वोट मिले और भी अच्छा लगा। :D

Indiblogger और आप सबको एक बार फ़िर से धन्यवाद।

03 November, 2009

बरहाल जिन्दा रहता हूँ

सूनी घाटी पर्वत पर्वत
दरिया सा भटका करता हूँ

किसी मुहाने पल भर रुक कर
जाने ख़ुद से क्या कहता हूँ

तुमसे जुदा कैसे हो जाऊं
मैं तुम में तुम सा रहता हूँ

आँसू की फितरत खो जाना
मैं गम को ढूँढा करता हूँ

जख्म टीसते हैं सदियों के
नीम बेहोश सदा रहता हूँ

जली हुयी अपनी बस्ती में
चलता हूँ, गिरता ढहता हूँ

घुटी हुयी लगती हैं साँसे
ख़ुद से जब तनहा मिलता हूँ

ख़त्म हो गई चाँद की बातें
चुप उसको ताका करता हूँ

मर जाना भी काम ही है एक
बरहाल, जिन्दा रहता हूँ

30 October, 2009

मुस्कुराने के कुछ मज़ेदार तरीके


कभी कभार काम के सिलसिले में फोंट्स डाउनलोड करती रहती हूँ...तो इनपर नज़र गई...ये स्माइली नहीं हैं, फोंट्स हैं। मुझे बहुत प्यारे लगे, तो सोचा आपके साथ शेयर कर लूँ । इनका नाम है chickabiddies और आप इन्हें यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं to jara मुस्कुराइए

29 October, 2009

भागता सूरज...मैसूर...स्कोडा फाबिया

डूबने की हड़बड़ी में सूरज
बड़ी तेज भाग रहा था
मैंने पकड़ा...इस तस्वीर में
और तब से बातें कर रही हूँ उससे

नए शहर की गलियां पहचानी लगीं
अजनबी लोगों ने भी सही रास्ता बताया
मैसूर महल बचपन में बहुत बड़ा लगा था
इस बार बहुत खाली खाली लगा, उदास भी

कुछ पुराने गानों को नए नज़ारे मिले
नारियल के पेड़ भी जैसे झूम रहे थे
सड़क किनारे बैलगाडियां, खेतों के साथ नहर
जैसे सब एक ख्वाब था...यकीं की हद तक खूबसूरत

तीन सौ किलोमीटर आने जाने के बाद
फ़िर से प्यार हो गया...
तुमसे और अपनी रेड स्कोडा फाबिया से भी
प्यार बार बार होना भी चाहिए :)

21 October, 2009

मुझे वोट दें :) :)


भाइयों, बहनों...वरिष्ट ब्लागरों....नए ब्लागरों...नवेले ब्लोग्गरों
सबसे अनुरोध है...विनम्र निवेदन है...इस महीने का ब्लॉगर ऑफ़ दा मंथ में कविता लिखने वाले ब्लॉगर को वोट करना है...वैसे तो मैं नहीं कहती, पर आप ही लोगों ने तारीफ़ कर कर के झाड़ पर चढा दिया है, आपके भरोसे प्रतियोगिता में हिस्सा ले लिया है। अपने हिस्से का काम मैंने कर दिया है...अब आपकी बारी है...

वर्चुअल identity है इसलिए विनम्र निवेदन ही कर सकते हैं...तो आप सबसे अनुरोध है...अगर आप मुझे अच्छा कवि समझते हैं तो यहाँ वोट दें...

इस लिंक पर और भी १८३ लोग हैं, आप पॉँच ब्लोग्स को वोट कर सकते हैं।

वोटिंग में एक हफ्ता और बचा है...यही वक्त है, जाइए जाइए इंतज़ार किसका है...वोट कीजिए...फ़िर बाद में मत कहियेगा की बताया नहीं था :D

13 October, 2009

एक लॉन्ग ड्राइव से लौट कर


जाने क्या है तुम्हारे हाथों में
कि जब थामते हो तो लगता है
जिंदगी संवर गई है...

बारिश का जलतरंग
कार की विन्ड्स्क्ररीन पर बजता है
हमारी खामोशी को खूबसूरती देता हुआ

कोहरा सा छाता है देर रात सड़कों पर
ठंढ उतर आती है मेरी नींदों में
पीते हैं किसी ढाबे पर गर्म चाय

जागने लगते हैं आसमान के बादल
ख्वाब में भीगे, रंगों में लिपटे हुए
उछल कर बाहर आता है सूरज

रात का बीता रास्ता पहचानने लगता है हमें
अंगड़ाईयों में उलझ जाता है नक्शा
लौट आते हैं हम बार बार खो कर भी

अजनबी नहीं लगते बंगलोर के रस्ते
घर भी मुस्कुराता है जब हम लौटते हैं
अपनी पहली लॉन्ग ड्राइव से

रात, हाईवे, बारिश चाय
तुम, मैं, एक कार और कुछ गाने
जिंदगी से यूँ मिलना अच्छा लगा...

09 October, 2009

पानियों के रंग

बिखेर दूँ कुछ रंग बहते पानियों में
हमको भी जीने का गुमां हो जाए

ऐसे बरसे अबके बार का सावन
तेरे संग भीगने का गुमां हो जाए

कोयल ऐसे कूके मंजर आते ही
बचपन के गाने का का गुमां हो जाए

उड़ती फिरूं दिल्ली की हवाओं में ऐसी
यादों के जीने का गुमां हो जाए

मन्दिर में कोई ऐसी आरती गाएं सब
किसी भगवान के होने का गुमां हो जाए

सड़कों सड़कों क़दमों की आहट चुन लूँ
फ़िर तेरे लौट आने का गुमां हो जाए

तेरी आंखों में हँसता ख़ुद को देखूं
यूँ जिंदगी जीने का गुमां हो जाए

04 October, 2009

कार ड्राइविंग और बिल्ली

कार के डैशबोर्ड पर
जिद्दी जिद्दी टाइप के शब्द लटक जाते हैं
गियर, एक्सीलेटर, क्लच
पांवों के पास नज़र आते ही नहीं

बहुत तंग करते हैं मुझे
गिरगिटिया स्पीडब्रेकर
अचानक से सामने आ कर
डरा देते हैं...और इसी वक्त ब्रेक
चल देता हैं कहीं और
महसूस नहीं होता पांवों के नीचे

शायद पैरों तले जमीन खिसकना ऐसा ही होता होगा

खटके से बंद हो जाती है गाड़ी
जीरो से एक गियर पर चढ़े बिना
भागने लगते हैं सड़क के सारे खम्भे
मेरी कार शुरू होने के पहले ही
बताओ भला, खम्भे में जान थोड़े होती है जो वो डरे!

हर चैनल पर बजते हैं सिर्फ़ कन्नड़ गाने
मेरी समझ से बाहर, जैसे कि गियर की डायरेक्शन
आगे पीछे, ऊपर नीचे....उफ्फ्फ्फ्फ्फ
जरा सा छूते ही एक साथ जलने लगती है बत्तियां
कभी वाइपर चलने लगता है अपने आप से
गाड़ी अपना दिमाग बहुत चलती है लगता है

घंटी बजाते गुजरता है एक साइकिल वाला
हँसते हुए ओवर टेक करता है
चौराहे पर एक बिल्ली मुझे घूरने लगती है
मैं उसके भी सड़क पार करने का इंतज़ार करती हूँ

और फ़िर बिल्ली के कटे हुए रास्ते में गाड़ी कैसे सीखूं...
घर आ जाती हूँ वापस
दिल ही दिल में बिल्ली को दुआएं देती हुयी
ड्राइविंग सीखने का एक और घंटा यूँ गुजर जाता है...

भगवान् उस बिल्ली को सलामत रखे!

22 September, 2009

टकराने के नए आयाम...और सिद्धांत

मैं सोच रही हूँ, कार चलाना सीख लूँ...स्कोडा फाबिया रेड पर दिल आ गया है :)
उसपर से जब कुणाल ने टेस्ट ड्राइव लिया और कहा कि मक्खन जैसी चलती है तो बस...फिसल गए हम।

अब थोड़ा इतिहास...
मैंने अपने जैसे लोग बहुत कम देखे हैं। बोले तो, एकदम नहीं, आजतक किसी से नहीं टकराई जो लगे कि मेरे दुःख दर्द से यह इंसान गुजरा हो। पटना में हमारा एक हाल और तीन कमरे का घर था, उसकी दीवारें अलबत्ता घर के बाकी लोगों के लिए स्थिर ही रहती थी, बस मुझपर खुन्नस निकालती थीं...बहुत कम ऐसा हुआ है कि मैं अपने bed से उठ कर बाहर निकली हूँ और दीवार मुझ से टकराए बिना रही हो। किस्सा कोताह ये कि दीवारें मुझे देखकर अपनी जगह छोड़ देती थीं, और कहीं और चली जाती थीं। मेरे लिए पॉइंट अ से पॉइंट बी तक जाने का एक ही रास्ता होता था, और वो रास्ता एक बार चलने के बाद बदला नहीं जा सकता था...तो पॉइंट बी जो कि दीवार का हिस्सा होता था, दीवारों की मुझसे खुन्नस के कारण अपनी जगह से हट जाता था...बस हो जाती थी टक्कर।

आम इंसानों को इस बात को समझने में जिंदगी लग जाए...मम्मी, भाई, पापा सब एक सिरे से डांटते थे कि कोई दीवार से कैसे टकरा सकता है...मैं कितना भी बोलूं कि दीवार हिली है और मुझसे टकराई है, मेरा कोई दोष नहीं...कोई मानने को तैयार नहीं। बताओ भला दीवारों पर भरोसा है, अपनी ही बेटी पर नहीं...बड़ी नाइंसाफी है।

इनकी आपसी साजिशों के कारण, मैं दीवार, दरवाजा, फ्रिज टेबल, सबसे चोट खाती रही...सारे कमबख्त मेरे रास्ते में आ के खड़े हो जाते थे मुझसे टकराने को। एक तो चोट लगती थी, उसपर डांट खाती थी कि देख कर चला करो। और मेरे दुश्मनों का नेटवर्क सिर्फ़ घर तक ही नहीं कॉलेज तक फैला था, कहीं भी गिरने टकराने की कोई आवाज होती थी, बिना देखे सब निश्चिंत रहते थे कि मेरा ही कारनामा होगा। स्टेज डेकोरेशन वगैरह से मुझे यथा सम्भव दूर रखने की कोशिश की जाती थी। इसलिए नहीं कि उन्हें मेरी बड़ी चिंता थी...मुझे आस पास देखकर सीढियाँ मचल जाती थी मुझसे टकराने को, और उनपर चढ़ कर डेकोरेशन करने वालो की साँस अटक जाती थी...या फ़िर कई बार लोग हवा में लटके भी हैं मेरे कारण। टार्ज़न के कई करतब हुए हैं हमारे ड्रामा प्रोग्राम में मैं रही हूँ तो :) ऐसा बिना स्क्रिप्ट का ड्रामा मेरे जाने के बाद लोग कितना मिस करते होंगे!

बहुत सोच समझ कर हम इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे लिए स्पेस और टाइम constant नहीं रहता, हमारा फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस शायद किसी और आयाम का होता है इसलिए हम चलते कहीं हैं, पहुँचते कहीं और हैं और टकराते किसी और चीज़ से हैं। ऐसी स्थिति में जब तक खतरा हमारे ऊपर मंडरा रहा है, कोई बात नहीं...पर बाकी गरीब इंसानों का कुछ तो सोचना चाहिए इसी एहतिहात में हम आज तक कार वार से दूर ही रहे।

पर अब...दिल आ गया है...तो गाड़ी भी आ जायेगी...

सोच रही हूँ एक बार आँखें टेस्ट करवा लूँ...दिमाग टेस्ट करवाने में बहुत लफड़ा है तो उस फेर से दूर ही अच्छे हैं हम। किसी को अगर बंगलोर से ट्रान्सफर कराना है तो आप यह पोस्ट अपने बॉस को पढ़ा सकते हैं :D मैं इसी शुक्रवार से सीखने वाली हूँ...तब तक शुक्र मनाईये :)

20 September, 2009

विराम

शब्द कुछ नाराज हैं मुझसे
ठुड्डी पर हाथ रखे सोच रहे हैं
पास आयें कि नहीं
अपने संग खेलाएं कि नहीं

अजनबी हो गई हूँ मैं उनके लिए
इधर कुछ दिन से मेल बुलाकत बंद थी न
इसलिए
रूठ गए हैं, छोड़ कर चले गए हैं

अलग गुट में खड़े हैं
कि जाओ तुमसे बात नहीं करते
उनका बचपना बहुत सी कट्टियों की याद दिला रहा है
और उनकी खामोशी बहुत से अबोलों की

कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती...
जैसे कि झगड़ा करने का अंदाज

कुछ लोग हाथ पैर पटकते हैं
कुछ दूसरों को उठा कर पटकते हैं
कुछ चुप हो जाते हैं
और बाकी औरों को चुप करा देते हैं

मैं दूसरी कैटेगरी में से हूँ
तो कुछ लफ्जों को गुस्से में आग लगा दी
कुछ लफ्जों की चिन्दियाँ हवा में उड़ा दीं
बाकी लफ्ज़ सहमे खड़े हैं, मुंह फुलाए से

हालाँकि गुस्सा अभी उतरा नहीं है मेरा
तो फिलहाल सिर्फ़ युद्ध विराम है...
तूफ़ान के पहले की शान्ति

01 September, 2009

लाइफ को सेकंड चांस देना चाहिए

हम नॉर्मली थोड़ा जिद्दी किस्म के इंसान हैं, एक बार कुछ नापसंद हुआ तो कभी मुड़ के भी नहीं देखेंगे। कमोबेश यही अंदाज लोगों के साथ बने रिश्तों में भी होता है एक बार कुछ ख़राब लग गया तो चाहे बरसों की दोस्ती हो, एक मिनट नहीं लगती टूटने में। कहीं पढ़ा था बचपन में "Forgive your enemies, but never forget their names" बस हमने गाँठ बाँध के रख ली...मजाल किसी की जो हमसे दुश्मनी ले...

बचपन तक तो चला, कॉलेज लाइफ तक भी चला...अब सोचती हूँ इस नज़रिए पर पुनर्विचार कर लूँ। किसी की एक गलती तो माफ़ की ही जा सकती है, खास तौर पे तब जब वो इंसान रो पीट के माफ़ी मांग रहा हो( अभी तक इत्ता बड़ा दिल नहीं हुआ है की अपने ही माफ़ कर दें)।

बंगलोर आई थी तो शुरू शुरू में आसपास की जगहों का खाना ट्राय मारा था...और भैय्या हम बड़े ब्रांड कौन्शियस हैं एक बार जो पसंद आया उसमें जल्दी फेर बदल नहीं करते...और एक बार कुछ ख़राब निकला तो कभी ट्राय नहीं करेंगे दोबारा। इस श्रेणी में दुकानें आती हैं, सब्जीवाले आते हैं, रेस्तरां आते हैं...सब कुछ जो मैं ख़ुद खरीदती हूँ।

खैर कहानी थी एक रेस्तरां की, काटी ज़ोन, यहाँ जो रोल्स खाए हमने वो चिम्मड़ थे...इस शब्द का उद्गम शायद चमड़े से हुआ होगा...यानि ऐसी हालत की दांतों ने खींच खींच कर हार मान ली। उस दिन के बाद हमने कभी वहां से आर्डर नहीं किया। अब ऑफिस में अगर खाना नहीं लाये तो लंच मंगवाना पड़ता है...और आख़िर कितने दिन डोसा इडली पर जियेंगे...हालत ख़राब होने लगी, उसपर तुर्रा ये की पिज्जा और बर्गर से भी जी उब गया...हमारा टेस्ट एकदम नॉर्थ इंडियन है कुछ चटपटा, नमकीन मसालेदार टाईप खाना चाहिए हमें।

ऑफिस में सबने कहा की काटी ज़ोन का खाना अच्छा होता है...हम भला मानने वाले थे, एक साल पुराना दांतों का दर्द दुहाई देने लगता, कि ऐसे मत करो हमारे साथ, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। बस हम अड़ियल घोडे की तरह अड़ जाते...मर जायेंगे पर वहां का खाना नहीं खायेंगे।

कुछ दिनों में वाकई मरने मरने वाली हालत आ गई, कहते हैं मुश्किल में ही इंसान को जिंदगी के बड़े बड़े फलसफे सूझते हैं...सो हमें भी सूझा...कि यार कित्ती बार हमने चाहा है की एक मौका और मिलता तो क्यों न एक मौका बेचारों को भी दिया जाए...कौन जाने उन्होंने सच में कुछ किया हो। टेस्ट करने का समय भी ऐसा चुना कि रिव्यू में कोई बायस न आए...पक्षपात से हमें बड़ी चिढ़ है। कुणाल को एअरपोर्ट छोड़ने गए थे...वहीं सोचा आज इस दुःख के मौके पर खा लिया जाए भर दम...कुणाल के बिना खाना पीना तो अच्छा लगता नहीं है हमें...आने वाले एक महीने के बदले आज ही सही।

विरही नायिका के मरियल सूखे रोल में ढलने के पहले हम टुनटुन इस्टाइल खाना चाहते थे...सो भांति भांति के रोल आर्डर किए...और हमें सुखद आश्चर्य हुआ उन्होंने वाकई अपनी कायापलट करली थी। और बेचारी दिल्ली के तरसे हुए, सीपी के काटी रोल्स खाए हुए भटके दुखी प्राणी, जैसे रेगिस्तान में पानी मिल गया हो...तवा पनीर रोल्स में जो हरी चटनी लिपटी हुयी की क्या कहें...आहा...क्या चटाखेदार स्वाद...तीखा, खट्टा, और प्याज के करारे लच्छे भाई वाह...और गरमा गरम पेश हुआ था तो खुशबू जैसे दिल्ली खींच ले गई वापस और हमें मूंग के पकोड़े, चाट और जाने क्या क्या याद आने लगा।

तो हम उस दिन अपनी गलती माने की हमें बिचारों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था...ऐसे में हमने एक साल कष्ट उठाया आख़िर हानि किसकी हुयी...हमारी। उन्हें क्या पता यहाँ कोई दिल्ली की भुखमरी लड़की रहती है, जिसे बस बहाना चाहिए होता है दिल्ली को याद करके बिसूरने का। बरहाल...हम अब से सेकंड चांस देने का सोच रहे हैं, किसी को भी पूरी तरह खारिज करने के पहले।

नोट: यह पोस्ट काटी ज़ोन से कड़ाही पनीर रोल आर्डर करने के बाद लिखी गई है। चूंकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि रोल आर्डर करने के बाद रोल्स आने के पहले हम कुछ काम नहीं कर सकते...समय का इससे अच्छा सदुपयोग क्या होगा :)

29 August, 2009

quizas...शायद

छुट्टी का दिन है आज अधिकतर लोगों के लिए...सारे घर में चादर तान के सो रहे होंगे...कम से कम हम तो ऐसा ही सोचते हैं....आज सुबह इत्ती प्यारी थी की उठने का मन ही नहीं कर रहा था। इस चक्कर में फ़िर लेट हो गई, और रजिस्टर में लिखने की नौबत आ गई...लिखा तो कुछ नहीं, पर सहेरा को बोल जरूर दिए, क्या लिखें, मन नहीं है ऑफिस आने का ☺पर अफ़सोस हमने ऐसा लिखा नहीं।

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फ़िर कल से ये गाना सुन रही हूँ...पोस्ट किए बिना दिल नहीं माना...इसी बहाने कहीं रहेगा तो सही, जो वाला सुन रही थी वो Nat King Kole का है...उफ़ क्या कमाल की आवाज है, बिल्कुल मखमल सी फिसलती हुयी, गाना सुन के पैर ऐसे थिरकते हैं कि लगता है बाँध के रखना पड़ेगा आख़िर ऑफिस में जो हैं ☺आपमें से किसी कि इच्छा होतो इसे घर में बजाइए, डांस कीजिये...हमको धन्यवाद दीजिये...हम तो वैसे प्राणियों में से हैं कि कुछ अच्छा सुनानहीं कि शुरू हो जाते हैं, हालाँकि कुणाल को धमकाते जरूर हैं कि शादी की, लाइफ पार्टनर तुम हो तो अब डांसपार्टनर कहाँ ढूँढने जाएँ, लेकिन चल जाता है...वो बेचारा भला प्राणी मेरे आए दिन बदलते म्यूजिक को झेल जाता हैइतना काफ़ी है। मैं जब भी कोई ऐसा गीत सुनती हूँ, या कोई फ़िल्म देखती हूँ, या किसी किताब का अंश कहीं पढ़तीहूँ तो अचानक से लगने लगता है, जिंदगी कितनी छोटी है और कितना कुछ है देखने को, पढने को गुनगुनाने को...

और कहाँ हम ऑफिस के जंजालों में जकड़े हुए हैं...मन का भटकता यायावर फ़िर हल्ला मचाने लगता है...मैंने अपने जैसी कम लड़कियाँ देखी हैं। हर कुछ दिन मुझे ऐसा लगने लगता है...एक अच्छा कैमरा होता SLR, एक नोर्मल सा ही videocam होता, बहुत सारे अच्छे गाने आईपॉड में और एक बाइक अच्छी वाली, और मेरा देश कुछ अच्छा होता जो मैं ये सारा सामान उठा के कहीं घूमने चल देती। बाइक न हो तो जिप्सी चलेगी...बिल्कुल बंजारों सी, जानती हूँ एक लड़की होते हुए मेरा ऐसी कोई कल्पना करना ही बेमानी है। पर कभी जिंदगी में मौका लगा तो अपने इस सपने को जरूर जियूंगी। चले जा रहे हैं मीलों मीलों कुछ नहीं, पेड़ पौधे, बंजर खाली सड़क साथ में कोई नहीं बस कोई सुरूर छाया हुआ सा गीत बज रहा है...और हमें लग रहा है कि हम अपनेआप के साथ चल रहे हैं।

कुणाल मुझे "a man trapped in a woman's body" कहता है...पता नहीं कैसे बंधन बिल्कुल पसंद नहीं हैं मुझे...कुणाल इसलिए सबसे अच्छा लगता है मुझे, समझता है बिल्कुल परफेक्टली और उड़ने का खुला आसमान देता है मुझे। मुश्किल होता है कि कोई ऐसा मिल जाए जो आपकी हर जरूरत को समझे, हर पागलपन को समझने की कोशिश करे...इसी को तो सोलमेट कहते हैं :)

बरहाल गाने का अंग्रेजी अनुवाद कुछ इस तरह से होता है:
You won't admit you love me and so
How am I ever to know
You only tell me
Perhaps, perhaps, perhaps
A million times I ask you and then
I ask you over again
You only answer
Perhaps, perhaps, perhaps
If you can't make your mind up
We'll never get started
And I don't want to wind up
Being parted, broken hearted
So if you really love me say, "yes"
But if you don't, dear, confess
And please don't tell me
Perhaps, perhaps, perhaps
If you can't make your mind up
We'll never get started
And I don't want to wind up
Being parted, broken hearted
So if you really love me say, "yes"
But if you don't, dear, confess
And please don't tell me
Perhaps, perhaps, perhaps
Perhaps, perhaps, perhaps
Perhaps, perhaps, perhaps

and this is the original sung by Nat King Kole

Nat King Cole - Qu...

21 August, 2009

ब्लॉग जगत के कबाब की हड्डी...

अजी नहीं नहीं...शीर्षक पर मत जाइए...ये शीर्षक तो लिखा ही गया है ग़लतफ़हमी के कारण।
तो ऐसा हुआ की कल हमारे अपने फुरसतिया जी ने पाँच साल पूरे कर लिए...हम भी गए ताली वाली बजाने, सुबह.
पोस्ट भी पूरे फुरसतिया स्टाइल थी...और टिप्पणियां भी थोक से भाव में लोगों ने फुर्सत से लिखी थी...तो एक साँस में पढ़ते आ रहे थे ऊपर से नीचे कि एक टिप्पणी पर नज़र अटकी...आख़िर क्यों न अटकती, डॉक्टर अनुराग जो कह रहे थे...
ब्लॉग जगत के कबाब में अगर कुछ हड्डियाँ हैं तो यकीनन आप उनमें से एक हैं

हम घबराए, दाएं बायें देखे...और मन ही मन बोले...चलो आज फाईनली अनुराग जी ने अपने दिल की बात बोली है और जैसा की हमेशा होता है...उनके दिल की बात कईयों के दिल की बात होती है...मेरी भी थी जो हम न कह सके, किसी ने तो कहा ;)

नीचे ए तो देखा कुश को बुखार चढ़ गया अनूप जी पोस्ट पढ़ के...अनूप जी ने इतना हड़काया की बिचारा बुखार में टिप्पणी देने चला आया...इससे पता चलता है, अनूप जी से कित्ता डरता है भला मानुस। उसपर भारत रत्न दिलवाने की बात हमको तो लगता है किसी ने उसे धमकी वम्कि भी दी है...कौन जाने। अब तो बुखार ठीक होने के बाद ही कुछ पता चलेगा। वैसे चुपके से कुश ने भी सच्चाई बयां करने की कोशिश की है...बधाई आपको दूँ या आपको झेलने वालों को दूँ...हम तो इस बात के लिए कुश को बधाई देते हैं...मेरे भाई, सच्चाई में बहुत ताकत होती है, चिंता मत करो...और बधाई का टोकरा इधर भेज दो...हम भी काफ़ी दिन से झेल रहे हैं जी.

एतना पढ़ उढ़ के हम भी टिप्पणी चिपकाये दिए...मगर जवाब कहाँ से आता, अनूप जी तो जैसे ही सुने की ज्ञान जी उनके पंखे हैं, बस पंखे की हवा में उड़ लिए...जमीन पार आयें तब तो हम बेचारे गरीब लोगों को प्रति टिप्पणी मिले...फ़िर दिन भर जा जा के देखत रहे, अब जवाब आया , न अब जवाब आया.

ई चक्कर में पीडी भी आया...जरूर ऑफिस से बीच में कल्टी मार के पढ़ रहा होगा हल्ला कर रहा था की एतना लंबा पोस्ट काहे लिख मारे हैं...तो अनूप जी उसको हड़का दिए...की बेटा सुस्ता के पढ़ा करो, एक साँस में bottoms up करने की कौनो जरूरत आन पड़ी है।

समीर लाल जी तो वीआईपी हैं, फ़िर भी स्माइली चिपकाना भूल गए, इसलिए दू ठो टिप्पणी किए, अनूप जी भी बड़े आदमी हैं, पाँच साल की साल गिरह पर दू दू ठो टिप्पणी मिली समीर जी की...हमको लगता है ऐसा इसीलिए की समीर जी जबसे अनूप जी को मिले थे तो अनूप जी दू साल के हुए रहे बस्स।

ढेर सारे लोग आए...एतना बधाई मिला है की टोकरा दर टोकरा अनूप जी का घर भर गया है...कोई कानपूर जाए तो उनके घर में कैसे ठहरे भला, इसलिए हम एक गिलास बधाई देने का सोच रहे थे, की कोई बधाई देने घर पहुच जाए तो अनूप जी बाहर से एक गिलास पानी पिला के विदा कर दें।

बहुत बड़ा तीर मारे हैं...उ भी पाँच पाँच ठो...एक साल का एक...सबने अनूप जी को बधाई दी...हम बाकी लोगों को देते हैं...धन्य भाग हमारे की ऐसे ऐसे ब्लॉगर हैं ब्लॉग जगत में...

डॉक्टर अनुराग ठीक कह रहे थे:
हिंदी ब्लॉग जगत की रीड में अगर कुछ हड्डियाँ है…तो यकीनन आप उनमे से एक है…

डिस्क्लेमर: इस पोस्ट को लिखने की लिखित परमिशन हमको अनूप जी ने दी है...और जो बाकी लोग लपेटे गए हैं इसलिए लपेटे गए हैं की हमको उनसे डर नहीं लगता...मतलब कि भले लोग हैं, थोड़ी बहुत जान पहचान है तो बस ग़लत फायदा उठाय लिए हैं :)

20 August, 2009

कैमरा...शौक़ और कोशिश

IIMC में पढ़ते हुए मैं कुछ बेहतरीन लोगों से मिली...कुछ से रिश्ते अभी भी कायम हैं, कुछ से टूट गए...कुछ लोग खो गए और कुछ की मंजिलें बिल्कुल अलग थीं तो फ़िर किसी मोड़ पर टकरा नहीं पाये।

IIMC में जर्नालिस्म के तीन डिपार्टमेन्ट हैं, हिन्दी, इंग्लिश और रेडियो & टीवी...शुरुआत के एक महीने सबकी क्लास एक साथ ऑडिटोरियम में होती है। मेरे अधिकतर दोस्त इसी ऑडिटोरियम में बने...आते जाते मिलते हुए।

कुछ लोग बाद में मिले...अनजाने जिनसे शायद ही कभी बात की हो एक साल के दौरान...सनी इन लोगों में से एक था...गाहे बगाहे टकरा जाते थे, पर कभी बैठ कर बहुत सी बातें नहीं की...उसके ऑरकुट पर एक से एक बेहतरीन फोटोग्राफ अपलोड होते रहते थे...इसी से मेरा ध्यान गया...फ़िर बात शुरू हुयी। मुझे भी फोटोग्राफी का बहुत शौक़ था, आज भी है...सनी ने उस वक्त एक ग्रुप ज्वाइन किया था और ये लोग मिल कर पुरानी दिल्ली की
गलियों में भटकते रहते थे, गले में कैमरा लटकाए...मैंने कितनी बार सोचा की मैं भी चलूँ...पर सोचा भर...गई कभी नहीं।

हम सबके अपने अपने शौक़ होते हैं...जिन्हें करने में एक अजीब तरह की मानसिक शान्ति मिलती है...एक सुकून, की ये मैंने ख़ुद के लिए किया है। अपने शौक़ के साथ वक्त बिताने का मतलब होता है हम अपने आप से कितना प्यार करते हैं क्योंकि ये हमें ख़ुद से जोड़े रखता है।

सनी जर्नलिस्ट है...वक्त का रोना उससे बुरा कोई नहीं रो सकता...मगर आज देखती हूँ तो अच्छा लगता है...कोई अपने सपनों की राह पर चल पड़ा है...अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वक्त निकालना बेहद मुश्किल का काम है...पर उसने ऐसा किया...

ये पोस्ट आज मैं उसके इस जज्बे को सलाम करते हुए लिखती हूँ...इस हफ्ते से उसका exhibition लगा है...दिल्ली में इंडिया हैबिटैट सेंटर में...पहला फोटोग्राफी exhibition, काश मैं दिल्ली में होती तो जरूर जाती देखने...पीठ ठोकने...कि शाब्बाश...जिंदगी जीना इसे कहते हैं...

आपमें से किसी को फुर्सत हो तो एक शाम बिताएं...इंडिया हैबिटैट सेंटर वैसे भी मेरे दिल्ली कि पसंदीदा जगहों में से है...उसपर से फोटोग्राफी जैसे और क्या चाहिए एक शाम से...बस लिखने में देर हो गई मुझे...बस कल भर ही है...१७ से २१ अगस्त टाइम था...ऐसी फंसी रह गई कि लिख ही नहीं पायी।

बधाई हो दोस्त! जिंदगी के रंग तुम्हारे कैमरा से गुजर के एक नई सोच, एक नई दृष्टि दें...मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं.

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