19 April, 2009

मेरा नया ऑफिस :)

हमारी जिंदगी बड़े प्यार मुहब्बत से प्ले, रिवाईंड, पौस, स्टाप मोड में चल रही थी...जब तमन्ना हुयी पहुँच गए कॉलेज के दिनों में, तो कभी दिल्ली की गलियों में भटकने चले गए...हाँ कभी कभी लगता जरूर था कि बहुत दिन हुए ठहर गए हैं इस मोड़ पर। ऊपर वाले ने लगता है सुन ली...बस ऐसे ही तफरीह के लिए गए थे, और हाथ में नौकरी का ऑफर लेकर लौटे।

पिछले छः दिनों से मेरी जिंदगी एकदम फास्ट फॉरवर्ड हो रखी है। सुबहें ताजगी भरी और जोशीली होती हैं, जैसे मुझको किसी कारवां की तलाश थी अपनी मंजिल तक जाने के लिए। ऑफिस बड़ा रास आया है मुझे...यहाँ लोग बहुत अच्छे हैं, मिलनसार और खाना खिलाने को तत्पर :) मैं एक advertising एजेन्सी में काम करती हूँ, हमारा काम होता है ब्रांडिंग करना। जैसे हमें एक प्रोडक्ट को लॉन्च करना है मार्केट में, ये दक्षिण भारतीय व्यंजन विशेषज्ञ के रूप में अपने मसालों को पेश करना चाहते हैं।

मैं ठहरी ताज़ा ताज़ा दिल्ली से आई हुयी, अभी तक उन पेचदार गलियों के पराठों में खोयी हुयी हूँ...और यहाँ काम करना था बिसिबेल्ले भात को ब्रांड बनाने के लिए...अब किसी पर काम करने के लिए उसके बारे में तो कुछ जानना तो होगा...तो बस हमने हाथ खड़े कर दिए, जब तक खिलाओगे नहीं ad नहीं बनायेंगे। अगले दिन वो सज्जन व्यक्ति पूरे ऑफिस के लिए घर से बिसेबेल्ले भात बनवा कर लाया। ऐसे भले लोग जहाँ हो, काम करने में अच्छा क्यों न लगे।

इस ऑफिस का architecture मुझे सबसे अच्छा लगता है, हमारे यहाँ लिफ्ट नहीं है, पाँच मंजिला ईमारत है और ऊपर नीचे जाने के लिए घुमावदार सीढियां हैं। हमारे cubicles बाकी जगहों की तरह वर्गाकार नहीं है बल्कि पूरा ऑफिस obtuse और acute angles पर ही बना है। जैसे पहले घरों में आँगन होता था और चारो तरफ़ कमरे, उसी तरह हमारे ऑफिस के बीचोबीच खाली जगह है जिसके तीनो तरफ़ बिल्डिं खड़ी है। बहुत सारे पौधे लगे हुए हैं, बेलें लटकी हुयी हैं...छत पर एक बेहद खूबसूरत बगीचा है...गमलों वाला नहीं, मिट्टी बिछा कर लगायी हुए पौध है। एक छोटा सा उथला पानी का टैंक भी है जिसमें मछलियाँ है। यह सब इतना अच्छा लगता है कि दिमाग अपनेआप दौड़ने लगता है :) आप ख़ुद ही देख लीजिये मेरी सीट से लिया हुआ फोटो, हाँ...मेरा ऑफिस एयर कंडीशंड नहीं है, जरूरत ही नहीं।

घर से ऑफिस जाने में मुझे साढ़े तीन मिनट लगते हैं अगर रेड लाइट नहीं मिली तो...और मैं कभी ४५-५० से ऊपर नहीं चलाती। घर के बिल्कुल पास में है तो थकान भी नहीं होती आने जाने में। ऑफिस में देर रात काम करने का कल्चर नहीं है, जो एक और अच्छी बात है क्योंकि अक्सर सब जगह देखा है कि लोग १२ बजे तक ऑफिस में ही रहते हैं। हम खुशी खुशी सात बजे तक घर आ जाते हैं :)

बस इस हफ्ते थोड़ा वक्त लगा चीज़ें एडजस्ट करने में, कल से सब कुछ आराम से कर लूंगी...और तो और ब्लॉग्गिंग का टाइम भी मैंने सोच लिया है :) तो अभी के लिए...जिंदगी खूबसूरत है।

आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे...बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए...बोलो?

10 April, 2009

सेंटी ब्लॉग पोस्ट...जुगाडू ब्लॉग्गिंग

आज हम सुबह से सेंटी हुए जा रहे हैं...वैसे तो कवि को चौबीसों घंटे सेंटी होने का हक मिला रहता है पर बाकी लोगो की तबियत का ख्याल रखना पड़ता है...तो हम जियो और जीने दो के तहत अपना सारा सेंटी दिल में दफ़न कर लेते हैं। और जब सेंटी होने का दिन आता है तो सारे गड़े मुर्दे उखाड़ कर घोर सेंटी हो जाते हैं।

बात ये है कि किसी कमबख्त ऑफिस वालों ने रिसेशन के ज़माने में भी वैकेंसी निकाल दी, हम भी बैठे ठाले मगजमारी ही कर रहे थे, अब भाई ब्लॉग्गिंग के पैसे थोड़े मिलते हैं...और जिस फ़िल्म की महान स्क्रिप्ट पर हम काम कर रहे थे उसकी एक एक डिटेल किसी को सुनाये बिना चैन ही ना पड़ता था। इस चक्कर में मुझ बेचारी का मोबाइल बिल खाने पीने से ज्यादा महंगा पड़ रहा था। तो हमने सोचा चले जाते हैं इंटरव्यू देने...किसी का दिमाग खायेंगे, थोड़ा खाने के पैसे बचेंगे। मज़े से गए और चूँकि टेंशन कुछ थी नहीं...एकदम बिंदास इंटरव्यू दे दिए...उन बेचारों को शायद हमारी शकल पसंद आ गई...सो उन्होंने अकल टेस्टिंग के लिए एक कॉपी टेस्ट थमा दिया।

ये कॉपी टेस्ट एक ऐसी बला होती है जिसकी तुलना हमें अपने ड्राइविंग लाइसेंस के लिए दिए गए रिटेन एक्साम के अलावा किसी से नहीं कर सकते हैं। कॉपी टेस्ट एक ऐसा टेस्ट होता है जो आपके दिमागी घुमक्कड़पने (पागलपंथी?)को टेस्ट करता है...और बखूबी करता है। मसलन...एक सवाल था...
"Concoct a short story (about 250 words) that starts with Neil Armstrong going on the moon mission, and ends with Mallika Sherawat kissing John F Kennedy। Other characters in the story are a goat, an umbrella, and an undertaker। "

इसका जवाब हम किसी दिन जरूर पोस्ट करेंगे ये वादा है हमारा...और जनाब ऐसे पाँच सवाल थे। सभी सवालों में ऐसी खुराफात मचाई थी हमने कि क्या बताएं, भाई बड़ा मज़ा आया था लिखने में। अब पढने वाले का क्या हाल हुआ था वो हमें नहीं मालूम...पर इसके बाद हमारा एक और राउंड हुआ इंटरव्यू का और फ़िर से तीन सवाल हल करने को दिए गए।

कॉपी टेस्ट घर लाकर करना होता है...यानि कि नींद ख़राब, खाना ख़राब...और सबसे बढ़कर ब्लॉग्गिंग की वाट लग गई, अपना तो ये हाल है कि ब्लॉगर पहले हैं इंसान बाद में तो समझ सकते हैं कि ब्लॉग्गिंग नहीं करने पर कितना गहरा अपराध बोध होता है...लगता है कोई पाप कर रहे हैं, हाय राम पोस्ट नहीं लिखी, कमेन्ट नहीं दिया, चिट्ठाचर्चा नहीं पढ़ी, ताऊ की पहेली का जवाब नहीं ढूँढा...ऐसे ही चलता रहा तो जो भगवान के दूतों ने ब्लॉग्गिंग पर डॉक्टरेट कि डिग्री दे ही वो भी कहीं निरस्त ना हो जाए। अब हम कोई दोक्टोरी पढ़े तो हैं नहीं कि भैया एक बार पढ़ लिए तो हो गए जिंदगी भर के लिए डॉक्टर...हमारा तो दिल ही बैठ जाता है मारे घबराहट के चक्कर आने लगते हैं।

तो मुए ऑफिस वालों ने हमें कह दिया कि मैडम आप आ जाईये हमें आप जैसे पागलों की ही जरूरत है...monday यानि कि १३ बड़ी शुभ तारीख है, तो आप हमारे ऑफिस को कृतार्थ कीजिये। हम तो सदमे में हैं तब से...कहाँ फ्रीलांसिंग का ऐशो आराम और कहाँ साढ़े नौ से छः बजे की खिट खिट उसमें हम ठहरे बहता पानी निर्मला...एक जगह टिक के बैठने में घोर कष्ट होता है हमें।

जले पर नमक छिड़कने को सुबह सुबह एयरटेल वालो का फ़ोन आ गया...हमारे इन्टरनेट कनेक्शन पर 15gb फ्री दे रहे थे डाऊनलोड...मानो उन्हें भी सपना आ गया हो कि हमें अब घर में नेट पर बैठने कि फुर्सत ही नहीं मिलेगी। बस ये आखिरी वार हमारी कमर तोड़ गया...हम तबसे बड़ी हसरतों से अपने लैपटॉप को देख रहे हैं।

मौका है, माहौल है, दस्तूर भी है....सेंटी हो लेते हैं। जाने कैसा होगा ऑफिस और कितनी फुर्सत मिल पाएगी....मेरे बिना अमीबा जैसे प्राणियों पर कौन पोस्ट लिखेगा...उनका उद्धार कैसे होगा। और सबसे बढ़कर मेरा मोक्ष अटक जायेगा...आप तो जानते हैं कि कलयुग में बिना ब्लॉग्गिंग के मोक्ष नहीं मिलता। शायद अगले जनम में फ़िर पोस्टिंग होगी...या हम भी भूत योनि में ही ब्लोग्गिन करने लगें, कौन जाने!

मगर हम हिम्मत नहीं हारे हैं...ब्लॉग्गिंग के गुरुओं से हम माइक्रो पोस्ट लिखना सीखेंगे...या कुछ और उपाय...आज से हम जुगाडू ब्लॉग्गिंग करेंगे। कोई ना कोई जुगाड़ तो होगा ही :)

09 April, 2009

मेरी जिंदगी का एक पन्ना

हम अंग्रेजी गाने आजकल थोड़ा कम सुन रहे हैं...वजह ये है की टीवी देखते ही नहीं हैं, तो ले दे के मेरे लैपटॉप पर जो भी पुराने नए गाने पड़े हुए हैं उन्ही से काम चलाते हैं। वैसे भी आरडी बर्मन के कुछ गाने तो ऐसे हैं की लगता है की पूरी जिंदगी सुन लूँ फ़िर भी मन नहीं भरेगा।

मैं गाने सुनती हूँ तो अक्सर एक ही गीत को बहुत देर तक सुनती हूँ, कई कई बार...और अक्सर नींद आने तक। घर पर सब परेशान हो जाते हैं मुझसे...जब थोड़ी छोटी थी तो मम्मी से इस कारण बहुत डांट खाती थी...बाकी सबका तो मन भर जाता था, पर मुझे अगर कोई गाना सुनना है तो बस...कोई लिमिट नहीं होती थी की पाँच बार सुनकर बंद कर दूंगी या ऐसा ही कुछ।

और दूसरी चीज़ होती थी, कोई गाना सुन लिया तो बस सुर चढ़ गया अब जब तक आकाश पाताल से ढूंढ कर दस बीस बार सुन न लें, खाना हज़म नहीं होता था। हमें तो प्यार भी इसी गीतों के जूनून के कारण हुआ है वरना तो हम कुणाल से कभी मिलते ही नहीं। वो भला मानुस एक ऐसे ही पागलपन में मेरे पसंद का गाना ढूंढ दिया था हमको...बस हम इम्प्रेस हो गए...काफ़ी आसान था :)

कुणाल का सबसे अच्छा दोस्त है रेड्डी...दोनों रूममेट रहे हैं...रेड्डी इतना प्यारा और अच्छा इंसान है कि यकीन नहीं होता कि आज भी ऐसी कैटेगरी के लोग होते हैं। और उसपर सुपर intelligent...अकल देने में भी भगवान ने उतनी ही दरियादिली दिखाई है जितनी शकल देने में :) ऐसा बड़ा कम होता है। इत्ता बड़ा तोप है पर बातें करो तो हवा तक नहीं लगेगी...वैसे कुणाल या उसके सारे दोस्त ऐसे ही हैं। मुझे लगता है IIT ठोक पीट के लड़कों को ये सब सिखा देता है। रेड्डी मुझे बहन मानता है...और गाहे बगाहे ख़बर लेता रहता है कि लाइफ में सब ठीक चल रहा है कि नहीं। अभी तक मिली तो नहीं हूँ उससे, सात समंदर पार जो बैठा है। मज़ा तो तब आता है जब हम बात करते हैं कि रेड्डी के लिए लड़की ढूंढनी है...उसकी पहली कैटेगरी है कि लड़की को डांस करना आना चाहिए, बाकी कैसी भी हो चलेगी :) हम सोचते हैं कि उसे कोई पसंद आ गई तो क्या करेगा...तो उसने कहा है कि सिखा देगा :)
वैसे मैं कई दिनों से उसे कह रही हूँ कि कुणाल को भी कहे कोई डांस सीख लेने को मगर यहाँ उसने भी हाथ खड़े कर दिए, लगता है कुणाल के साथ डांस करने के लिए मुझे दूसरा जनम लेना होगा ;-)

कल रेड्डी ने एक गाने का लिंक दिया...जब से सुना है दिमाग में चल रहा है...बोल इतने प्यारे और सिंपल से...और tune भी बड़ी मस्त है। मूड अच्छा हो जाए सुनकर...और प्यार तो हो ही जायेगा :)

और ये मेरी fav lines हैं...
im so glad i found you.
i love bein around you.
you make it easy,
as easy as 1 2,(1 2 3 4.)
theres only one thing two do three words four you.
i love you.
(i love you)
theres only one way two say those three words
and that's what i'll do.
i love you.
i love you

06 April, 2009

दिल ढूंढता है...फ़िर वोही फुर्सत के रात दिन...

जाने कब तक याद करती रहूंगी उस दिलरुबा दिल्ली को...कि जिसकी पेंचदार गलियों में हम उफ्फ्फ अपना दिल दे बैठे।

जिंदगी की सबसे खूबसूरत यादें किसी कैमरा में कैद नहीं हो सकती...उन्हें दिल से लगा के रखना पड़ता है...उनकी खुशबू किसी अल्फाजों के तिलिस्म में बंधने को तैयार ही नहीं होती.

मुझे जाने क्यों रात हमेशा बड़ी प्यारी और खूबसूरत लगती है...उसपर दिल्ली की वो सर्द कोहरे वाली रातें। इंडिया गेट पर दोस्तों के साथ देर रात बैठ कर अपने स्कूल या कॉलेज के किस्से बयान करना...आहा वो काला खट्टा वाला बर्फ का गोला खाना, उफ़ वो स्वाद भला मैक डी के आइसक्रीम में आएगा कभी। बैलून खरीद कर सबके साथ खेलना, मारा पीटी करना...रेस लगाना और वो टूटे फूटे गानों के साथ अन्त्याक्षरी खेलना...वो गाने जो किसी फ़िल्म के नहीं, वो बोल जो किसी गीतकार ने नहीं लिखे...वो चाँद गाने जो दिल की धड़कनों से उठते थे...वो खोये हुए बोल...वो गुमी हुयी धुनें।

रास्ते भर कार में बजती वो गजलें या कोई शोर शराबा सा पंजाबी गीत...और हाँ उन दिनों...तारे ज़मीन पर का गाना कितना सुना था...तू धूप है...छम से बिखर, तू है नदी ओ बेखबर...अब भी कहीं भी ये गाना बजते सुनती हूँ तो मन उसी nh8 पर पहुँच जाता है। कमबख्त ये दिल्ली पीछा छोड़ती ही नहीं, कहीं भी जाओ।

वो दिन जब आधे दोस्तों की प्रेमकहानी में कोई ना कोई ट्विस्ट चल रहा था, और हम सब मिल कर उपाय ढूंढते रहते थे...वो दिन जब दोस्ती सबसे कीमती चीज़ होती थी दुनिया में और वो चंद लम्हे दिन भर की थकान उतारने का सबब।

पंख लगा के उड़ने वाले वो दिन...जब जिंदगी का नशा हुआ करता था और खुशियाँ सर चढ़ कर बोलती थीं...जब किसी की एक नज़र का खुमार हफ्तों नहीं उतरता था...जब आइना किसी भी हालात में आपपर मुस्कुराता था...जब कुछ भी पहन लो आखों में खिलखिलाहट होती थी।

उफ्फ्फ्फ्फ्फ

दिल्ली तेरी गलियों का...वो इश्क याद आता है

01 April, 2009

अप्रैल फूल कैसे बने?

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ऐसे :D

अब आप हमें गरिया लें...क्या कीजियेगा...भाई हमें तो यही सीधे साधे वाले अप्रैल फूल बनाने में मज़ा आता है.

31 March, 2009

किस्सा अमीबा का...

अमीबा से हमारा पहला पाला बायोलोजी की क्लास में पड़ा था, इस कमबख्त की अंग्रेजी स्पेलिन्ग amoeba होती है और बोलते अमीबा है...यानि ओ साईलेंट रहता है। क्लास के अधिकतर बच्चो ने ग़लत स्पेलिन्ग बता दी थी...हम उस वक्त शायद कक्षा पाँच में पढ़ते थे...तो बस सबको होमवर्क मिल गया ५०० बार लिख के लाने का...उसके बाद मजाल है हम कभी भूलें हों।

तो इस जीव से चिढ़ हमें पहली ही मुकालात में हो गई थी...फर्स्ट इम्प्रेशन इतना ख़राब बनाया था इसने, भई हमारी क्या गलती है। लेकिन एक ही दो साल में हमें यह अमीबा बेचारा बड़ा प्यारा प्राणी लगने लगा...आप भी सोचेंगे क्यों भला...तो ये दर्द वही जाने है जिसने कभी बायोलोजी प्रैक्टिकल में बाकी जानवरों के डायग्राम बनाये हैं। माहौल देखिये...रात के कोई दस ग्यारह बजे हैं...मुहल्ले के कुत्तों का कोरस चालू हो चुका है...बिजली कटी हुयी है और लैंप की रौशनी में कोई बेचारी लड़की किताब से देख कर डायग्राम बनने में जुटी हुयी है, चारो तरफ़ छिली हुयी पेंसिल, रबर, कटर, ब्लेड आदि चीज़ें फैली हुयी हैं। हवा के कारण लैंप की लौ डिस्को कर रही है...लाख चिमनी लगा लो...ये लौ आज की लड़कियों की तरह बाहर की थोड़ी हवा लगते ही थिरकने लगती है। इस थिरकन के कारण कागज पर अजीब आजीब आकृतियाँ बन बिगड़ रही हैं...और इन प्रेतनुमा आकृतियों से घिरे कागज पर उसे उस पेट चिरे हुए मेंढक का रेखाचित्र बनाना है।

उस बेचारे मरे हुए मेंढक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हुए कागज से घमासान जारी है...उस वक्त सोचिये कितना गुस्सा आता होगा...अरे इस नामुराद मेंढक की आंतें होती ही क्यों हैं, और ऐसी टांगें...और ये सड़ी हुयी शकल...गरियाने के क्रम में सब लपेट लिया जाता था, सरकार तक जो जिसके कारण बिजली नहीं है...छोटे भाई को, जो इमर्जेंसी को चार्ज में लगाना भूल गया था, मच्छरों को रात में नींद क्यों नहीं आती और यहाँ तक कि स्कूल पर भी कि गर्मियों में एक्साम होते ही क्यों हैं।

ऐसे माहौल में जब सब जानवरों कि शारीरिक स्थिति का सही सही विवरण देना पड़ता था...यही अमीबा हमें देवदूत लगता था...कुछ करना ही नहीं है, कैसी भी आकृति बना दो...बन गया अमीबा। हम इसके एक सेल और फ्लेक्सिबल आकार के कारण इसे सबसे ज्यादा पसंद करते थे। और जब भी अमीबा बनाना होता खुश हो जाते(आपके लिए भी फोटो दे रखी है, आए हाय देखिये तो कित्ता क्यूट लग रहा है)। पर हमारी बायोलोजी टीचर को जाने क्या खुन्नस थी...होमवर्क में सब कुछ बनवाती थी, अमीबा छोड़ कर। धरती पर वाकई अच्छे लोगो की बड़ी कमी है।

खैर...हमारी डॉक्टरी पढ़ाई का किस्सा तो आप जानते ही हैं, सो हमारा इस प्यारे जीव से नाता टूट गया था काफ़ी सालों से। अभी शनिवार को हम खुशी खुशी अपना ड्राइविंग लाइसेंस के लिए फोटो खिंचाने गए तो लगा कि इतनी बड़ी उपलब्धि पर बाहर खाना तो बनता है...सो हम बड़े आराम से दाल मखनी, तंदूरी रोटी और अचारी पनीर पर टूट पड़े। सोचा रामप्यारी का जवाब थोड़ा आराम से दे देंगे घूमने निकल लिए...रात को घर आते आते पेट में दर्द शुरू। मगर हम इत्ते से घबराने वालों में थोड़े ही हैं, पुदीन हरा पिया, अजवाईन खायी और आराम से कम्बल ओढ़ के सो गए...सुबह उठे तो बुखार। अब तो हमारे पसीने छूट गए...पहले तो सोचा कि रामप्यारी को ही बुलवा लें कैट्स्कैन के लिए, फ़िर डर लगा कि अभी तक उसके सवाल का जवाब नहीं दिया है, पहले जवाब पूछना शुरू कर देगी तो क्या करुँगी।

तो दूसरी डॉक्टर के पास गई...उसने बताया कि इन्फेक्शन है...अमीबा ने किया है. अरे ये वही अमीबा है, और हमारे पेट में घुस के बैठा है। तो हम दुखी हो गए...बरसो की दोस्ती का ये सिला...दवाईयों के साथ हमने अपने दुःख को भी गटका...और सोचा आपको भी किस्सा सुना दें।

एक अच्छा ब्लॉगर वही है जो छोटी से छोटी चीज़ से एक पोस्ट लायक माल निकाल सके। एक सेल के microscopic अमीबा पर लिखी इस पोस्ट के लिए हम अपनी पीठ ख़ुद ठोकते हैं :D

वो...


वो लिखना चाहती है बहुत सारा कुछ, क्यों या किसके लिए ये मालूम नहीं...शायद आने वाली पीढ़ियों के लिए, शायद सिर्फ़ तुम्हारे लिए...तुमसे उसकी जिंदगी शुरू होती है और तुम पर ही आकर ख़त्म हो जाती है।

वो एक अजीब सी लड़की है, जिसे कविता लिखना पसंद है, सूर्यास्त देखना अच्छा लगता है, और किसी ऊँची पहाडी पर खड़े होकर बादलों को देखना भी।

वो लिखना चाहती है उन सारे दिनों के बारे में जब शब्द ख़त्म हो जाते हैं उसके पास से, जब वह बड़ी मुश्किल से तुम्हारी आंखों में तलाशती है जाने किन किन बिम्बों को...और उसे पूरा जहाँ नज़र आता है क्यों आता है ये भी मालूम नहीं।

उसे लिखना ही क्यों चाहिए कौन है जो उसका लिखा पढ़ेगा, वक्त की बर्बादी क्यों करना चाहती है वो. पर फ़िर भी वो लिखती है, इतना लिखती है कि एक दिन उसके सारे कागज ख़तम हो जाते हैं, कलमें टूट जाती हैं, दवात में स्याही नहीं बचती। उसे फ़िर भी लिखना होता है...वह आकाश बिछा कर लिखती रहती है, वो कहानियाँ जो कोई भी नहीं सुनता।

वो लिखती रहती है उन खामोश रातों के बारे में जब उसे अपनी माँ की बहुत याद आती है और उसकी आत्मा चीख उठती है...पर कोई आवाज नहीं आती। वह अपनी माँ को पुकारती रहती है और ये पुकार खामोशी से उसके शरीर के हर पोर से टकरा कर वापस लौटती रहती है। इतने सारे शब्द उसे अन्दर से बिल्कुल खोखला कर देते हैं और इन दरारों में दर्द आके बस जाता है।

वो लिखती रहती है जिंदगी के उन पन्नो के बारे में जो अब धुल कर कोरे हो गए हैं, जिनमें अब कोई याद नहीं है। एक बचपन जो माँ के साथ ही गुजर गया...कुछ सड़कें जो दिल्ली में ही छूट गयीं...कुछ चेहरे जो अब तस्वीरों में भी नहीं मुस्कुराते हैं।

वो लिखती रहती है चिट्ठियां जो कभी किसी लाल बक्से में नहीं गिरेंगी, खरीदती रहती है तोहफे जो कभी भेज नहीं सकती...इंतज़ार करती है राखी पर उस भाई का जिसका एक्साम चल रहा है और आ नहीं सकता। शब्द कभी मरहम होते हैं, कभी जख्म...तो कभी श्रोता भी।

वो लिखना चाहती है नशे के बारे में...पर उसने कभी शराब नहीं पी, वो चाहती है उस हद तक बहके जब उसे मालूम न हो की वो कितना रो रही है...शायद लोग ध्यान न दें क्योंकि नशे में होने का बहाना हो उसके पास। पर उसे कभी ऐसा करने की हिम्मत नहीं होती। वो चाहती है की सिगरेट दर सिगरेट धुएं में गुम होती जाए पर नहीं कर पाती।

वो चाहती है कि उसे कोई ऐसी बीमारी हो जाए जिसका कोई इलाज न हो...वो जीना ऐसे चाहती है जैसे कि मालूम हो कि मौत कुछ ही कदम दूर खड़ी है...और उससे चोर सिपाही खेल रही हो।

वो एक लड़की है...सब उससे पूछते हैं कि उसे इतनी शिकायत क्यों है, किससे है। क्यों है? शायद इसलिए कि वो लड़की है...सिर्फ़ इसलिए। और सबसे है...उन सबसे जो कभी न कभी किसी न किसी रूप में उसकी जिंदगी का हिस्सा बने थे।

उसे शिकायत है उस इश्वर से...और वह रोज उनके खिलाफ फरमान निकलना चाहती है...क्योंकि वह अपना विश्वास ऐसे खो चुकी है कि डर में भी उसे इश्वर याद नहीं आता।

उसका लिखना किसी कारण से नहीं हो सकता...किसी बंधन में नहीं बंध सकता.

वो लिखती है क्योंकि जिन्दा है...और वो जिन्दा है क्योंकि तुम हो।
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जिन्दा होने की गफलत लिए फिरते हैं
मौत आई हमें पता भी ना चला...
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खून में उँगलियाँ डुबोयीं हैं
लोग कहते है शायरी की है...

28 March, 2009

यूँ ही


मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ बहुत सारा कुछ
इसलिए नहीं कि तुम्हें मालूम नहीं है
इसलिए भी नहीं कि
मुझे यकीन हो कि मेरे बताने से तुम भूलोगे नहीं

शायद सिर्फ़ इसलिए
कि किसी दिन झगड़ा करते हुए
तुम ये न कहो कि तुम्हें मैंने बताया नहीं था

झगड़े भी अजीब होते हैं यार
कभी एक किलो झगड़ा, कभी आधा क्विंटल

तुम जानते हो
कभी कभी मेरा मन करता है
कि मेरी आँखें नीली होती
या हरी, भूरी या किसी भी और रंग की होती
लेकिन तुम्हें काली आँखें पसंद है न?

कुछ उँगलियों पर गिनी फिल्में हैं
जो तुम्हारे साथ बैठ कर देख लेना चाहती हूँ
इसलिए नहीं कि मैंने देखी नहीं है
बस एक बार तुम्हारे साथ देखने भर के लिए

गॉन विथ थे विंड मैंने जब पहली बार देखी थी
मुझे पहले से मालूम था कि अंत क्या होने वाला है
मैं फ़िर भी बहुत देर तक रोती रही थी
वो अकेलापन जैसे मेरे अन्दर गहरे उतर गया था
शायद तुम्हारे साथ देखूं...तो वो जमा हुआ अकेलापन पिघल जाए

तुम्हें हमेशा rhett butler से compare जो करती हूँ
शायद मैं कोई आश्वाशन चाहती हूँ
कि तुम मुझे छोड़ कर नहीं जाओगे कभी...

डर सा लगता है
जब सूनी सड़कों पर गाड़ी उड़ाती चलती हूँ
या दसमहले से एकटक नीचे देखती रहती हूँ
या खामोश सी सब्जी काटती रहती हूँ
कभी कभी तो गैस जलाते हुए भी

मौत की वजहें कहाँ होती हैं
वो तो हम ढूंढते रहते हैं
ताकि अपनेआप को दोषी ठहरा सकें
कि हम रोक सकते थे कुछ...हमारी गलती थी

किसी से बहुत प्यार करो
तो खोने का डर अपनेआप आ जाता है

क्या जिंदगी के साथ भी ऐसा ही होता है?

25 March, 2009

बिखरे लफ्ज़

सफ्हों में सारी की सारी उड़ेल कर
चल दिए ऐ जिंदगी, हम फिर तेरी तलाश में
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क्यों तुम्हें भी बाँध दू उम्र भर की मुहब्बत में
सफर के लिए इतना काफी है...तूने कभी मुझे चाहा
----------००००--------००००-------
तुझे तेरा दर मुबारक, मुझे ये सफ़र मुबारक
किसी मोड़ पर मिलें शायद...फिलहाल, अलविदा

20 March, 2009

संदूक


कागजों पर बिखरा दर्द
पुड़िया में बांधकर संदूक में रख देती थी
अब लगभग भर गया है वो पुराना संदूक

क्या करूँ इतने सारे अल्फाजों का
एक एक पुड़िया खोल कर
सारे शब्द हवा में उड़ा दूँ

हर लफ्ज़ कर जाए
आसमाँ की आँखें गीली
और शायद बरस जाए एक बादल

तुम भीगो तो याद आ जाएँ
वो आखिरी लम्हों के आंसू
जिस भी मोड़ पर तुम आज खड़े हो

या इन कागजों को जला कर
एक रात की सिहरन दूर कर दूँ
थोड़ी देर उजाले में तुम्हारी आँखें देख लूँ

या कि हर कागज को
कैनवस बना कर रंग दूँ
हंसती हुयी लड़की, भीगी आंखों वाली

इतना नहीं हो पाये शायद
सोचती हूँ...
एक नया संदूक ही खरीद लूँ.

18 March, 2009

भैंस पड़ी पगुराय


आज हम एक लुप्तप्राय प्रजाति की बात करेंगे...यह प्रजाति है दूधवाला और भैंस, भैंस लुप्त नहीं हो रही है वो तो लालू यादव जी की कृपा से दूधो नहाओ पूतो फलो की तरह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। मैं तो बस इनके आंखों से ओझल होने की बात कह रही हूँ। और ये ख्याल मुझे कल इंडियन क्रिकेट टीम को शेर बचाओ आन्दोलन देख कर आया...भाई क्या जमाना गया है, एक टाइम होता था लोग शेर को देख कर बचाओ बचाओ करते थे...और एक आज का दिन हैकी शेर के पंजों के निशान देख कर दिल बहलाना पड़ता है।

उफ़ ये बड़ी खराबी बनती जा रही है मेरी...आजकल दिन रात बसंती हवा की तरह मनमौजी हुयी जा रही हूँ, बात कर रही थी भैंस की और गई शेर तक...अब भला इन का आपस में क्या सम्बन्ध।

कहानी पर लौटते हैं...मैं पढ़ी लिखी(कितना और कैसे आप तो जानते ही हैं) और बड़ी हुयी बिहार और झारखण्ड में(यार ये नेता कुछ से कुछ खुराफात करते रहते हैं, सोचो तो हमें कितनी मुश्किल होती है बचपन की यादें भी दो राज्यों में बातिन हुयी...उफ़, पर इनकी कहानी फ़िर कभी)। हमारे यहाँ एक स्थायी चरित्र होता था दूधवाले का, जो यदा कदा अपनी भैंस(या गाय) के साथ पाया जाता था। इस दूधवाले के किस्से कितनी भी नीरस गप्पों को रंगीन बना देते थे।

मुझे मालूम नहीं बाकी देश का क्या हाल है, पर हमारे यहाँ इनसे हमेशा पाला पड़ता रहता था। दूधवाला मानव की एक ऐसी प्रजाति है जिसके सारे लक्षण पूरे राज्य में एक जैसे थे...जैसा कि मैंने पहले कहा है देश का मुझे मालूम नहीं। किस्स्गोई में तो ये प्रजाति प्रेमचंद को किसी भी दिन किसी शास्त्रार्थ में धूल चटा सकती थी...या ये कहना बेहतर होगा की छठी का दूध याद दिला सकती थी।

देवघर में मेरे यहाँ एक दूधवाला आता था...बुच्चन, बड़ी बड़ी मूंछें और रंग में तो अपनी भैंस के साथ खरा कोम्पीटिशन कर सकता था...काला भुच्च, दूध के बर्तन में दूध ढारता था तो गजब का कंट्रास्ट उत्पन्न होता था। बुच्चन कभी भी नागा कर जाता था, और हम दोनों भाई बहन खुश कि आज दूध पीने से बचे और बुच्चन के बहाने...भाई वाह। साइकिल पंचर होने से लेकर, बीवी के बाल्टी न धोने के कारण हमारा दूध नागा हो सकता था। फ़िर उसके गाँव में तीज त्यौहार होते थे जिसमें उसकी मेहरारू सब दूध बेच देती थी और फ़िर हम बच्चे खुश। बच्चन सिर्फ़ इतवार को नागा नहीं कर सकता था, जितने साल रामायण और फ़िर महाभारत चलती थी, बुच्चन भले टाइम से आधा घंटा पहले आ जाए पर एक मिनट भी देर से नहीं आ सकता था। और ऐसा कई बार हुआ है कि बुच्चन बिना दूध के आ गया हो और मम्मी उसकी कभी कुछ नहीं बोलती थी, कि टीवी देखने आया है bechara। सारे समय उसके हाथ जुड़े ही रहते थे।

माँ कभी कभी बाद में कहती थी, बुच्चन खाली भगवन के सामने हाथ जोड़ लेते हो और फ़िर दूध में वही पानी...बुच्चन दोनों कान पकड़ कर जीभ निकाल कर, आँखें बंद कर ऐसी मुद्रा बनता कि हम हँसते हँसते लोट पोट हो जाते...उसके बहने भी पेटेंट बहाने थे, मैंने फ़िर कभी कहीं भी नहीं सुने।

  1. दीदी आज भैन्स्वा पोखरवा में जा के बैठ गई थी...बहुत्ते देर बैठे रही, हमार बचवा अभी छोट है, ओकरा निकला नहीं वहां से, पानी में रही ना...इसीलिए दूध पतला होई गवा। माई के किरिया दीदी हम पानी नहीं मिलाए हैं. और मम्मी डांट देती उसे, झूठे का माई का किरिया मत खाओ.

  2. बरसा पानी में दूध दुहे न दीदी, इसी लिए दूध पतला होई गवा...हमरे तरफ बहुत्ते पानी पड़ रहा है। बच्चन का गाँव वैसे तो हमारे शहर से कोई दो तीन किलोमीटर दूर था, पर वहां का मौसम जो बुच्चन बताता था उसके हिसाब से चेरापूंजी से कुछ ही कम बारिश होती थी वहां)

  3. मेहरारू कुछ दर देले दीदी, हमरा नहीं मालूम कि दूध ऐसे पतला कैसे होई गवा। आज ओकर भाई सब आइल हैं, सब दूध उधरे दे देइल. हम का करीं दीदी ऊ बद्दी बदमास हैखन.
आप कहेंगे इस कहानी में भैंस कहाँ है....अरे आपने ऊपर पढ़ा नहीं, गई भैंस पानी में :)

हम पटना आए तो बहुत जोर का नकली दूध का हल्ला उठा हुआ था यूरिया का दूध मिल रहा है मार्केट में ऐसी खबरें रोज सुनते थे, कुछ दिन तक तो घर में दूध आना बंद रहा, पर बिना दूध के कब तक रहे. तो बड़ा खोजबीन के एक दूधवाला तय किया गया. वह रोज शाम को हमारे घर भैंस लेकर आता था और दूध देता था.
हमारे घर में फ्री का नल का पानी वह पूरी दिलदारी से भैंस पर उडेलता था...भैंस को भी हमारा घर सुलभ शौचालय की याद दिलाता था जाने क्या...रोज गोबर कर देती थी, उसपर रोज दूधवाला उसे नहलाता...बहुत जल्दी हमारे घर के आगे का खूबसूरत लॉन खटाल जैसा महकने लगा उसपर मच्छर भी देश कि जनसँख्या के सामान बिना रोक टोक के बढ़ने लगे।

फिर दूधवाले का टाइम बदल दिया गया और उसे सख्त हिदायत दी गयी कि भैंस को नहला के लाया करे, उसके बाद दूधवाला चाहे नहाये या नहीं, भैंस एकदम चकाचक रहती थी. मैंने अपनी जिंदगी में फिर उसकी भैंस से ज्यादा साफ़ सुथरी भैंस नहीं देखी.
लेकिन दूधवाले ने हमारे नल के पानी का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ा...ये और बात थी कि अब वो पानी भैंस के ऊपर न बहा के दूध की बाल्टी में डाल देता था। वह हमें दूध देने के पहले पानी न मिला दे, इसलिए हम बिल्डिंग के लोग पहरा देते थे...इसी बहाने हमें खेलने और गपियाने का एक आध घंटा और मिल जाता था.

जिसने इस महात्म्य को देखा है वही जानता है, भैंस और दूधवाले की महिमा अपरम्पार है :)

कहानियों का अम्बार है, भैंस का कालापन बरक़रार है...बस इतना इस बार है :)

बाकी फिर कभी.

17 March, 2009

अजन्मी कविता


कविता तो अजन्मी होती है
मर ही नहीं सकती...

जो लोग कह रहे हैं की कविता मर चुकी है
छलावे में रह रहे हैं

जब तक स्त्री के ह्रदय में स्पंदन है
जीवित है कई अजन्मी कवितायेँ
साँसों के राग में...दिन-रात, सोते जागते

अपने पति के माथे पर थपकियाँ देते
हाथों के ताल में उठते गिरते
होठों पर किसी पुराने गीत की तरह

कविता जी उठती है हर सुबह
अल्पना के घुमावदार रास्तों में
पैरों में रचाई महावर में

त्योहारों में अतिथियों के कलरव में
गोसाईंघर में आरती करती दादी के कंठ में
आँगन में छुआ छुई खेलती बेटी की किलकारी में

सांझ देते तुलसी चौरा के दिये की लौ में
गोधूली में घर लौटती गायों की घंटियों में
चूल्हे में ताव देती माँ की चूड़ियों की खनक में

कुएं से बाल्टी खींचती दीदी के हाथों की फुर्ती में
सिलबट्टे पर मसाला पीसती चाची के माथे पर झूलती लटों में
लिपे हुए आंगन के अर्धचन्द्राकार pattern में

मैं स्त्री हूँ
जो भी मैंने छुआ, देखा, जिया
कविता बन जाता है

कविता को शब्दों की बैसाखियों की जरूरत नहीं
हर स्त्री अपनेआप में होती है एक कविता
सिर्फ़ अपने होने से...
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मेरी पिछली पोस्ट पर डॉक्टर अनुराग की टिप्पनी आई:
"कुश पहले की कहता है की हिंदी ब्लॉग अन्दर के कवि को धीरे धीरे मार देता है आपको ख़त्म किया देखिये पूजा की कविता को भी कर रहा है........क्या सचमुच ??????जवाब स्पीड पोस्ट से दीजियेगा ..."

डॉक्टर अनुराग...ये मेरा जवाब है :) उम्मीद है आपको पसंद आएगा.

16 March, 2009

नाम में बहुत कुछ रखा है भाई :)

मेरे साथ समस्या है कि एक चीज़ में ज्यादा दिन मन नहीं लगता...चाहे कितना भी पसंद क्यों हो कुछ दिन में मैं उब जाती हूँ और फ़िर कुछ नया करने को खुराफात की खुजली होने लगती है कहते हैं की ये gemini लोगो का मुख्य गुण है, इन्हें एक जगह टिक के बैठना नहीं आता

आप कहेंगे ये तो नेताओं का गुण भी है...पर थाली के बैगन और बेपेंदी के लोटे से इतर भी एक प्रजाति होती है...ये प्रजाति मुझ जैसे कुछ लोगो की होती है खैर छोड़िये एक छोटी कहानी सुनिए ...

एक
लड़के को एक बार एक पुराना चिराग मिल गया...उसने जैसे ही चिराग को घिसा उसमें से एक जिन्न निकला लड़का खुश...क्यों हो गरीब तो होगा ही, आज तक किसी दंतकथा में आपने किसी रईस को चिराग मिलते सुना है, नहीं ? अब जिन्न ने कहा हुक्म दो मालिक...लड़का खुश, फटाफट खाना मंगवाया, जिन्न के लिए ये कौन सा मुश्किल का काम था फ़ौरन ले आया...लड़के ने खाना खाया। जिन्न ने फ़िर पूछा हुक्म दो मालिक...लड़के ने एक महल की फरमाइश की, फटाफट जिन्न ने महल भी तैयार कर दिया महल में खूब सारे नौकर चाकर और अच्छे कपड़े खाना पीना सब था बस लड़के को और कुछ तो चाहिए नहीं था, उसने अपने घरवालों को महल में बुलवा लिया और पसंद की लड़की से शादी कर ली

पर मुसीबत जिन्न था...उसने कहा की अगर लड़के ने उसे काम नहीं दिया तो वह उसे खा जायेगा...अब लड़का बड़ी जोर से घबराया...उसे कोई हल ही नहीं सूझ रहा था जिन्न की समस्या से छुटकारा पाने का उसने सबसे पूछा पर वो कोई भी काम दे जिन्न तुंरत उसे पूरा कर देता था और फ़िर सर पे स्वर हो जाता था की काम दो मालिक आख़िर में उसकी बीवी अपने भतीजे को लेकर आई जो कुछेक साल का था...जिन्न ने फ़िर सवाल किया बच्चे ने कहा मुझे एक अंगूठी चाहिए...जिन्न ने तुंरत हाजिर कर दी, फ़िर बच्चा बोला मुझे एक हाथी चाहिए, वो भी जिन्न ने तुंरत हाजिर कर दिया...अब बच्चा बोला इस हाथी को अंगूठी में से घुसा के निकालो जिन्न बेचारा परेशां, कितना भी कुछ और देने का प्रलोभन दिया बच्चा माने ही , एकदम पीछे पड़ गया रो रो के जिन्न का दिमाग ख़राब कर दिया की हाथी को बोलो अंगूठी में से घुस कर निकले

जिन्न को कुछ नहीं सूझा तो लड़के के पास गया की मैं हार गया इस बच्चे का काम मैं पूरा नहीं कर सका, मैं क्या करूँ। लड़के ने कहा की तुम वापस चिराग में चले जाओ। इस तरह लड़के को जिन्न से छुटकारा मिल गया। :) कहानी ख़तम, ताली बजाओ।

तो मैं कविता लिख कर और गद्य लिख कर बोर हो गई थी, ब्रेक ले कर भी क्या करती...और बोर होती मैंने सोचा कुछ और काम करती हूँ...मुझे मेरे मित्र टेक्निकली चैलेन्ज्ड बोलते हैं जरा सा लैपटॉप पे कुछ इधर उधर हुआ की मेरी साँस अटक जाती है हालाँकि कभी कभार मैं अपने इस फोबिया से उभरने की कोशिश करती हूँकल पूरी दोपहर मैंने यही किया वैसे तो आप अक्लमंद लोग इसे मगजमारी कह सकते हैं पर हम इसे अपने लिए मैदान मारना और किला फतह करने से कम नहीं समझते हैं

मेरा ब्लॉग खोलने पर आप देखेंगे की ब्लॉग url के पहले P लिखा हुआ है, इसे favicon कहते हैं. जीमेल का लिफाफा, या गूगल का g और कई साइट्स पर अक्सर छोटी फोटो भी नज़र आती है. इसे personalisation या ब्रांडिंग का एक हिस्सा कह सकते हैं. चिट्ठाजगत का लोगो न सिर्फ ब्लॉग के नाम में बल्कि favicon में भी नज़र आता है.
वेबसाईट की पहचान me कई एलेमेंट्स का योगदान होता है, इसमें सबसे महत्वपूर्ण होता है उसका पता, यानि कि वेब एड्रेस. हम इसलिए ब्लॉग के कई अलग अलग से एड्रेस देखते हैं...ये एड्रेस या तो वेब पोर्टल की सामग्री से जुड़ा हुआ होता है जैसे की चिट्ठाजगत या फिर अगर कला से जुड़ा कोई ब्लॉग है तो कोई रोचक नाम होता है जो उसे अलग पहचान देता है. इसी अलग पहचान की कड़ी है favicon. यह एक ऐसा चित्र या अक्षर होता है जिसे लोग ब्लॉग से जोड़ कर देख सकें और याद रख सकें.
मैंने अपना favicon बनाने में हिंदी ब्लॉग टिप्स की मदद ली, आशीष खंडेलवाल जी ने एक बेहद आसान और पॉइंट by पॉइंट अंदाज में favicon बनाया क्या नामक पोस्ट में बताया है. इसके अलावा थोडा गूगल सर्च भी मारना पड़ा...दिन भर माथापच्ची की पर आखिरकार मैंने अपना favicon बना ही लिया.

मेरा आइकन P है...यह मेरे नाम का पहला लैटर भी है और इंग्लिश में कवितायेँ पोएम ही कहलाती हैं इसलिए भी. मुझे P इसलिए भी अच्छा लगता है की यह इसके हिंदी अक्षर प जैसा ही लगता है. shakespear ने गलत कहा था कि नाम में क्या रखा है...हमें तो बहुत कुछ रखा मिलता है भाई :)


एक बात और, किसी को चिढ़ाने वाला smiley ऐसा ही होता है न :P

14 March, 2009

मेरा पुराना बचपन :)


याद आते हैं वो फोकट में मुस्कुराने के दिन
दिन भर बाहर खेलने वाले बहाने के दिन

याद आती है वो राखी पर मिली टाफियां
और उसे सबको दिखा कर चिढ़ाने के दिन

वो तितिलियों से दोस्ती वो चिड़ियों सा गाना
पिल्लों और बिल्लियों से याराने के दिन

बारिशों में दिन भर सड़कों पे खेलना वो
वो शाम को मम्मी से डांट खाने के दिन

कित कित की गोटियाँ थी सबसे बड़ा खजाना
जमीं में गाड़ कर भाइयों से छुपाने के दिन

चिनियाबदाम में खुश हो जाने वाले लम्हे
कुल्फी के लिए रोज मचल जाने के दिन

तस्वीरों सा धुंधला है बचपन का वो मौसम
उफ़ वो बेफिकर उठने और सो जाने के दिन

नोट: फोटो में मैं अपने छोटे भाइयों के साथ हूँ। clockwise मैं चंदन, जिमी और कुंदन हैं। (कुणाल कहता है की मैं सबमें सबसे ज्यादा बदमाश लगती हूँ)

13 March, 2009

और भी गम हैं ज़माने में ब्लॉग्गिंग के सिवा...

पिछली पोस्ट में हम दुखी थे, फ़िर शिव कुमार जी ने समझाया की देश बेगाना नहीं है बहुत से लोग हमारी पोस्ट का समर्थन कर रहे हैं...और उन्होंने पुलिस को एक एक गिलास ठंढई भेजने की भी जरूरत बताई...अब उसके बाद अनूप जी आए, और उन्होंने कहा की शिवजी ठंढई भेज रहे हैं उसे पियो और पोस्ट लिखो...वैसे तो शिव जी पुलिस वालों के लिए ठंढई भेज रहे थे पर हम अनूप जी की बात कैसे टाल सकते हैं...तो हम आज पहली बार ठंढई पी कर पोस्ट लिख रहे हैं। तो आज पहले बता देते हैं की इस पोस्ट में लिखी चीज़ों के लिए हमें नहीं अनूप जी को दोषी ठहराया जाए। वैसे आप पूछ सकते हैं की आज पहली बार क्या हुआ है, पहली बार ठंढई पी है या पहली बार ठंढई पी कर पोस्ट लिख रहे हैं। तो ये बात हम साफ़ नहीं करेंगे....ये राज़ है :) (राज ठाकरे वाला नहीं)

मिजाज प्रसन्न है तो हमने सोचा क्यों न ये ही लिख दिया जाए की ब्लॉग पोस्ट लिखी कैसे जाती है...तो भैय्या मैं नोर्मल ब्लॉग पोस्ट की बात कर रही हूँ, मेरी इस वाली जैसे पोस्ट की नहीं की भांग चढ़े और कुर्सी टेबल सेट करके लैपटॉप पर सेट हो गए...कि जो लिखाये सो लिखाये डिस्क्लेमर तो पहले ही लगा दिए हैं। क्या चिंता क्या फिकर...

आजकल ब्लॉग पर भी बड़ा सोच समझ के लिखना पड़ता है...क्या पता पुलिस पकड़ के ले जाए, वैसे भी आजकल पुलिस को ऐसे निठल्ले कामों में ही मन लगता है...मैं तो सोच रही हूँ पुलिस वालो को ब्लॉग्गिंग का चस्का लगवा दिया जाए, एक ही बार में मुसीबत से छुटकारा मिल जायेगा। तो आजकल डर के मारे ब्लोग्स के ज्यादा आचार संहिता पढ़ती हूँ, सोचा तो था की लॉ कर लूँ पर शायद कोई फरमान आया है की २५ साल से कम वाले ही admission ले पायेंगे(इस ख़बर की मैंने पुष्टि नहीं की है) "शायद" लिखने से या फ़िर "मैं ऐसा सोचती हूँ" लिखने से आप कई मुसीबतों से बच जाते हैं इसलिए मैं इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हूँ। वैसे तो मेरी सारी मुसीबत इस मुए ब्लॉग की वजह से है और इस बीमारी का कोई इलाज मिल नहीं पाया है अब तक तो खुन्नस में सारी पोस्ट्स ब्लॉग पर ही लिखे जा रही हूँ।

अब इस सोच समझ के लिखने वाली पहली शर्त के कारण हम जैसे लोगों का जो हाल होता है वो क्या बताएं...कविता लिखने से बड़ी प्रॉब्लम कुछ है ही नहीं...अब मैं लिखूंगी कि आजकल धूप कम निकलती है मेरे आँगन में और सोलर पैनल वाले आ जाएँ झगड़ा करने कि मैडम आपलोगो को सोलर एनर्जी इस्तेमाल करने से रोक रही हो। अब लो, अर्थ का अनर्थ, बात का बतंगड़। या फ़िर मैं लिखूं कि आजकल रोज आसमान गहरा लाल हो जाता है और बीजेपी वाले चढ़ जाएँ त्रिशूल लेकर कि आप गहरा लाल कैसे लिख रही हैं आसमान तो केसरिया होता है, आप ऐसे कवितायेँ करके कम्युनिस्टोंको खुल्लेआम सपोर्ट नहीं कर सकती। कविता में से तो कुछ भी अर्थ निकले जा सकते हैं, अब आप चाहे कुछ भी समझाने कि कोशिश कर लो...मुसीबत आपके सर ही आएगी। और हम ठहरे छोटे से ब्लॉगर कम से कम जर्नलिस्ट भी होते तो कुछ तो धमकी दे सकते थे।

अब इतना सोच समझ के कविता किए तब तो हो गया लिखना...भाई कविता लिखने का तरीका है कि बस धुंआधार कीबोर्ड पर उँगलियाँ पटके जाओ, थोड़ी थोड़ी देर में इंटर मार दो...बस हो गई कविता। अब सोचे लगे तो थीसिस न कर लें जो कविता लिख के मगजमारी कर रहे हैं। हमारा तो कविता लिखने का स्टाइल चौकस है, हम तो बस चाँद, बादल, प्यार, बारिश या फ़िर दिल्ली पर लिखेंगे इससे ज्यादा हमसे मेहनत मत करवाओ जी...कभी कभी बड़े बुजुर्गों का आदेश हो तो कुछ और पर भी लिख लेते हैं, जैसे देखिये शिव जी के गुझिया सम्मलेन में हमने गुझिया पर कविता लिखी।

कवियों को कहीं भी ज्यादा भाव नहीं दिया जाता, उसपर कोई भी टांग खींच लेता है, लंगडी मार देता है...कवि का जीवन बड़ा दुखभरा होता है उसपर ऐसा कवि जो ब्लॉगर हो...उसे तो जीतेजी नरक झेलना पड़ता है जी, अपनी आपबीती है, कितना दुखड़ा रोयें, वैसे भी और भी गम है ज़माने में ब्लोग्गिन के सिवा।

समाज के बारे में पता नहीं लोग कैसे इतना लिख लेते हैं, हमारे तो कुछ खास पल्ले नहीं पड़ता...अब पिछली पोस्ट लिखी थी कि भैय्या हमें अपना देश बिराना लग रहा है...कोई योगेश गुलाटी जी आकर कह गए कि एक बार फ़िर विचार कीजिये, देश पराया हो गया है कि आपकी सोच विदेशी हो गई है? डायन, आधुनिक लड़कियां, छोटे कपड़े, जाने क्या क्या कह गए जिनका पोस्ट से कोई सम्बन्ध नहीं था...कहना ही था तो शिष्टाचार तो बरता ही जा सकता था चिल्लाने की क्या जरूरत थी...इन्टरनेट पर रोमन में कैपिटल लेटर्स में लिखना चिल्लाना माना जाता है. इतना लम्बा कमेन्ट वो भी मूल मुद्दे से इतर, भई इससे अच्छा आप पोस्ट ही लिख देते अपने ब्लॉग पर...मेरे कमेन्ट स्पेस को पब्लिक प्रोपर्टी समझ कर इस्तेमाल करने की क्या जरूरत थी. मेरे होली पर जो विचार थे मैंने लिखे आप असहमत थे आप लिखते, बाकी चीज़ें क्यों लपेट दी?

तो समाज के प्रति लिखने का ठेका कुछ लोगो ने ले रखा है, जिनका अपने ब्लॉग पर लिखने से मन नहीं भरता तो दूसरो के कमेन्ट स्पेस भरते चलते हैं...वैसे मेरा पाला इन लोगो से कम ही पड़ा है. कह तो देती की इनसे भगवान बचाए पर भगवान ने इनसे बचने का सॉफ्टवेर अभी तक इजाद नहीं किया है, शायद कुछ दिन बाद ऐसी अर्जियां वहां एक्सेप्ट होने लगें. तब तक इनको झेलना तो हमारी मजबूरी है.


हम वापस आ कर कविता पर ही टिक जाते हैं...इसपर हमें गरियाया जाए तो क्या कर सकते हैं.

ये वाली पोस्ट हमारी रिसर्च का hypothesis है आगे आगे देखें क्या नतीजा निकलता है।

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