02 March, 2009

गायक, कवि और जलन्तु ब्लॉगर

कुछ लोगो को जिंदगी भर खुराफात का कीड़ा काटे रहता है। हम अपनेआप को इसी श्रेणी का प्राणी मानते हैं जिन्हें कुछ पल चैन से बैठा नहीं जाता है...

आज हम अपने पसंदीदा रिसर्च को पब्लिक की भलाई के लिए पब्लिक कर रहे हैं...ये रिसर्च २५ सालों की मेहनत का परिणाम हैइसे पूरी तरह सीरियसली लेने का मन है तो ही पढ़ें, नहीं तो और भी ब्लॉग हैं ज़माने में हमारे सिवा :)

हमारे रिसर्च का विषय है आदमी का दिमाग...हम यहाँ फेमिनिस्ट नहीं हो रहे इसी श्रेणी में औरत का दिमाग भी आना चाहिए कायदे से, पर वो थोड़ा काम्प्लेक्स हो जाता इसिलए सिम्प्लीफाय करने के लिए हमने उन्हें रिसर्च से बाहर रखा है। आप दिमाग के झांसे में मत पड़िये, रिसर्च सुब्जेक्ट सुनने में जितना गंभीर लगता है वास्तव में है नहीं...हमने कोई बायोलोजिकल टेस्ट नहीं किए हैं, किसी का भेजा निकाल के उसका वजन नहीं लिया है सबसे बड़ी बात की इस रिसर्च में जानवरों पर कोई अत्याचार नहीं किया गया है...जो भी किया गया है सिर्फ़ आदमी पर किया गया है तो एनीमल लवर्स अपना सपोर्ट दें।

हमारी रिसर्च में आदमी का सोशल व्यवहार पता चला है...तो आइये हम आपको कुछ खास श्रेणी के इंसानों के मिलवाते हैं...हमारे रिसर्च का बेस यानि कि आधार है की दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं...और इस रिसर्च की प्रेरणा हमें हिन्दी फिल्में देख कर मिली...



  1. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं...(ये वाक्य पूरी रिसर्च में रहेगा अब से इंविसिबल रूप में दिखाई देगा...यानी कि दिखाई नहीं देगा आप समझ जाइए बस)... शुरुआत करते हैं संगीत से...इनमें से पहली कैटेगोरी होती है उन लोगो की जो आपको हर जगह मिल जायेंगे यानी कि मेजोरिटी में...जैसे कि गरीबी, भ्रस्टाचार, कामचोरी वगैरह, खैर टोपिक से न भटका जाए पहली कैटेगरी के लोग होते हैं अच्छे गायक...इनसे किसी भी फिल्म का गाना गवा लीजिये, हूबहू उतार देंगे, आलाप अलंकार दुगुन तिगुन सब बिना रोक टोक के कर लेंगे, गाना सुना और इनके दिमाग में रिकॉर्ड हो गया अब जब भी बजने को कहा जायेगा एकदम सुर ताल में बजेंगे. इनकी हर जगह हर महफ़िल में मांग रहती है...छोटे होते हैं तो माँ बाप इन्हें गवाते हैं हर अंटी अंकल के सामने और आजकल तो टीवी शो में भी दिखते हैं...बड़े होने पर ये गुण लड़कियों को इम्प्रेस करने के काम आता है. इन लोगो से आप कई बार और कई जगह मिल चुके होंगे.अब आते हैं हमारी दूसरी और ज्यादा महत्वपूर्ण कैटेगोरी की तरफ...इन्हें underdog कहा जाता है, या आज के परिपेक्ष में लीजिये तो स्लमडॉग कह लीजिये...ये वो लोग होते हैं जिन्हें माँ सरस्वती का वरदान प्राप्त होता है, इनमें गानों को लेकर गजब का talent होता है और ये पूरी तरह ओरिजिनालिटी में विश्वास करते हैं...नहीं समझे? ये वो लोग हैं जिन्हें हर गाना अपनी धुन में गाना पसंद होता है, गीत के शब्द भी ये आशुकवि की तरह उसी वक़्त बना लेते हैं...आप कभी इन्हें एक गीत एक ही अंदाज में दो बार गाते हुए नहीं सुनेंगे, मूर्ख लोग इन्हें बाथरूम सिंगर की उपाधि दे देते हैं...माँ बाप की इच्छा पूरी करने के लिए ऐसे कितने ही talented लोग बंगलोर में थोक के भाव में सॉफ्टवेर इंजिनियर बने बैठे हैं...अगर इन्हें मौका मिलता तो ये अपना संगीत बना सकते थे, गीतों में जान फूंक सकते थे, और अभी जो घर वालो का जीना मुहाल किये होते हैं गीत गा गा के, दोस्त इनका गाना सिर्फ चार पैग के बाद सुन सकते हैं...ऐसे लोग आज ऐ आर रहमान बन सकते थे, भारत के लिए ऑस्कर ला सकते थे...मगर अफ़सोस। ये वो हीरा है जिन्हें जौहरी नहीं मिला है...आप इन लोगो से बच के भागने की बजाये इन्हें प्रोत्साहित करें यही मेरा उद्देश्य है। उम्मीद है आप लोग मुझे नाउम्मीद नहीं करेंगे।

  2. ये एक बहुत ही खास श्रेणी है...इस श्रेणी को कहते हैं कवि...इनकी पहुँच बहुत ऊँचे तक होती है, बड़े लोग तो यहाँ तक कह गए हैं की जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. ये बड़े खतरनाक लोग होते हैं कुछ भी कर सकते हैं, आम जनता इनके डर से थर थर कांपती है. इनके बारे में श्री हुल्लड़ जी ने ऐसा कहा है "एक शायर चाय में ही बीस कविता सुना गया, फोकटी की रम मिले तो रात भर जम जायेगा", हुल्लड़ जी के बारे में फिर कभी, आप कवि की सुनाने की इच्छा देखिये...गजब की हिम्मत है, इन्हें किसी से डर नहीं लगता न बिना श्रोताओं वाले कवि सम्मलेन से, न अंडे टमाटर पड़ने से(वैसे भी महंगाई में कौन खरीद के मारे भला). और मैं एक राज़ की बात बता देती हूँ...ये तो चाँद पर चंद्रयान भेजा गया है सिर्फ इसलिए की आगे से कवियों को चाँद पर भेजा जा सके ताकि बाकी हिन्दुस्तान चैन की नींद सो सके। चाँद की खूबसूरती में दाग या गोबर ना आये इसलिए ताऊ ने भी अपनी चम्पाकली को चाँद से बुलवा लिया है...अब दूसरी कैटेगोरी के लोगों की बात करते हैं...जो कविता झेलते हैं, ऐसे लोग आपको मेजोरिटी में मिल जायेंगे. ये वो लोग हैं जिन्होंने पिछले जनम में घोर पाप किये हों...इन्हें अक्सर कवि मित्रों का साथ भाग्य में बदा होता है, इनके पडोसी कवि होते हैं, दूध मांगने के बहाने कविता सुना जाते हैं...अगर कहीं पाप धोने का कोई यत्न न किया हो कभी तो उसे कवि बॉस मिलता है। अगर आप कवि हैं और इनके घर पहुँच जाएँ तो आपको एक गिलास पानी भी पीने को नहीं मिलेगा, ये जिंदगी से थके हारे दुखी प्राणी होते हैं. इन्हें हर कोई सताता है, इन्हें न बीवी के ख़राब और जले हुए खाने पर बोलने का हक है न गाड़ी लेट आने पर ड्राईवर को लताड़ने का...ये सबसे निक्रिष्ट प्राणी होते हैं इनसे कोई दोस्ती नहीं करना चाहता की कहीं इनके कवि मित्र गले न पड़ जाएँ, इनके घर पार्टी में जाने में लोग डरते हैं. और यकीं मानिए ऐसे लोग अपना दुःख किसी से बता भी नहीं सकते. मुझे इनसे पूरी सहानुभूति है.

  3. अब मैं आपको बताती हूँ एक उभरती हुयी कैटेगरी के बारे में...इन्हें कहते हैं ब्लॉगर...जी हाँ इनका नाम सम्मान से लिया जाए ये आम इंसान नहीं हैं बल्कि एवोलुशन की कड़ी में एक कदम आगे बढ़े हुए ये परामानव हैं, मैंने रिसर्च करके पाया है कि सभी superheroes ब्लॉग्गिंग करते हैं छद्म नाम से...हमारे हिंदुस्तान में हीरो तो ब्लोगिंग करते ही हैं अमिताभ बच्चन से लेकर आमिर खान तक...सभी ब्लॉग लिखते हैं. इससे आप समझ सकते हैं कि ये कितना महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं. ये असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति होते हैं...या साधारण रूप से असाधारण व्यक्ति होते हैं. इनका लेखन क्षेत्र कुछ भी हो सकता है, कविता से लेकर शायरी तक और गीत से लेकर कव्वाली तक, मजाक से लेकर गाली गलोज तक ये किसी सीमा में नहीं बांधे जा सकते. स्वतंत्रता की अभूतपूर्व मिसाल हैं. शीघ्र ही संविधान में इनके लिए खास अध्याय लिखा जाने वाला है. वर्चुअल दुनिया में पाए जाने वाले ये शख्स मोह माया से ऊपर उठ चुके होते हैं, ब्लॉग्गिंग ही उनका जीवन उद्देश्य होता है और इसी के माध्यम से वो परम ज्ञान और परम सत्य को पा के आखिर अंतर्ध्यान हो जाते हैं. ब्लॉगर की महिमा अपरम्पार है.
    इसके ठीक उलट आते हैं वो इंसान जिन्हें टाइप करना नहीं आता...जी हाँ यही वह एक बंधन है जो किसी इंसान को एक ब्लॉगर से अलग करता है. जिसे भी लिखना आता है वो ब्लॉगर बन सकता है...यानि कंप्यूटर पर लिखना. ये आम इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीते हैं इनके मुंह में जबान नहीं होती, इनकी उँगलियों में समाज को बदलने की ताकत नहीं होती, ये चुप चाप गुमनामी में अपनी जिंदगी गुजार कर चले जाते हैं...किसी को इनके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता. कोई नहीं जानता कि इन्होने दुनिया के किस किस कोने में भ्रमण किया है, न कोई इनके पालतू कुत्ते बिल्लियों के बारे में जानता है और तो और कोई ये भी नहीं जान पाता कि इनकी कोई प्रेमिका रही थी जिसकी याद में हर अब तक कविता लिखते हैं...किस काम की ऐसी जिंदगी? ये न टिप्पणियों के इंतजार में विरह का आनंद ले पाते हैं न visitors कि गिनती में कुछ हासिल करने का भाव जान पाते हैं और तो और ये इतने साधारण होते हैं कि इन्हें फोलोवेर मिलते ही नहीं. ये underprivileged लोग होते हैं जिनका पूरा जीवन ब्लॉग्गिंग के अभूतपूर्व सुख के बगैर अधूरा सा व्यतीत होता है और मरने के बाद ये अपने अधूरी इच्छाओं के कारण नर्क से ब्लॉग्गिंग करते हैं.
    चूँकि ये खास कैटेगरी है इसलिए इसमें तीसरे प्रकार के इंसान भी होते हैं...इन्हें कहते हैं जलंतु...यानि जलने वाले. ये वो लोग होते हैं जो अपना ब्लॉग खोल कर एक दो पोस्ट लिख कर गायब हो जाते हैं...कभी साल छह महीने में एक पोस्ट ठेलते हैं...ये सबके ब्लॉग पर जाते हैं पर कहीं टिप्पनी नहीं करते बाकी ब्लोग्गेर्स की लोकप्रियता देखकर जलते हैं...बेनामी टिप्पनी लिखकर लोगो को दुःख पहुँचने का काम करते हैं और हर विवाद में घी झोंकते हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें ढूंढ़ना हम सबका कर्त्तव्य बनता है. ये भटके हुए लोग हैं, इन्हें ब्लोग्गिन का मुक्तिमार्ग दिखाना हमारा फर्ज बनता है. हमें इनका हौसला टिप्पनी दे दे कर बढ़ाना चाहिए...प्यार से निपटने पर ये सभी रास्ते पर आ जायेंगे. इसलिए आप सबसे अनुरोध है कि इनकी मदद करें आखिर इसलिए तो हम ब्लॉगर साधारण मनुष्य से ऊपर हैं.
आज के लिए इतना काफी है...हम अपनी रिसर्च के गिने चुने मोती लाते रहेंगे और आपको समाज को बेहतर समझने में मदद करते रहेंगे.

चेतावनी: उपरोक्त लिखी सारी बातें एक ऐसे व्यक्ति ने लिखी है जो split personality disorder(SPD) से ग्रस्त है इसलिए इस लिखे की जिम्मेदारी किसी की नहीं है...SPD के बारे में ज्यादा जानने के लिए हिंदी फिल्में देखें.

28 February, 2009

क्या तुमने है कह दिया

देखती हूँ तुम्हें
जाने किनसे बात करते हुए
खिलखिलाते रहते हो जाने किस बात पर
दिल चाहता है एक वैसा लम्हा चुरा लूँ

जब तुम नींद में मुस्कुराते हो
और जाग कर कुछ याद नहीं रहता
कुछ टूटा टूटा सा बताते हो
सोचती हूँ उस मुस्कराहट को काश
किसी डिब्बी में बंद कर रख सकती

क्रिकेट देखते समय खाना भूल जाते हो
एक एक कौर तुम्हें खिला देने का मन करता है
चुपचाप थाली में पांचवां पराठा दाल देती हूँ
और जब तुम देखते हो गिनती पर झगड़ती हूँ
वो झगड़े प्यार से मीठे होते हैं...

तुम्हारे साथ बाईक पर पीछे बैठे हुए
जाने किन किन भगवानों को याद करती चलती हूँ
तुम कहते हो भरोसा नहीं है
पूछती हूँ कि किसपर? भगवान पर या तुमपर
तुम पर तो है... :)

पर क्या? यही कि तुम गिरा दोगे :)


कुछ खास नहीं...बस कुछ बिखरे हुए शब्द हैं...ऐसे ही, बुलबुलों की तरह एक पल की जिंदगी।



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27 February, 2009

आखिरी बार कहे देत हैं की ई हमार बिलोग नाही है

कल ही बाबूजी अखबार पढ़ कर बताये रहे "अब ब्लॉग लिखने वाला भी कानून के चंगुल से बाहर नहीं है"...हम पूछे कि बाबूजी जी ये बिलाग क्या होता है और अगर कोई लिख deve तो? तो हमको हमरे बाबूजी बताये रहिस कि ब्लॉग लिखे वाले को पुलिस ले जाएब ...हाय रे मुआ कोई लिखाई पढ़ाई करता ही काहे है। अब बताओ, भैंस से अंग्रेजी में बात करे से बेसी दूध देगी का? हम तो बस एक ही बार में मैट्रिक फेल हो के आराम से बैठल थे...कि इनका बुलावा आ गया, गौना करा के भेज दी हमार माई हमको। तब्बे से यहीं रोज घर का सारा साना पानी देखते हैं, चूल्हा चौका और रोज सास के पैर दबाय रहे हैं...कभी कभार बाबूजी का मन हो जाए है तो अखबार सुना देत हैं। वैसाहों अख़बार में धरा का है, रोजे एक्के चकल्लस, एकरा मार देला, ओकरा लूट लेले...औरो का। अब बतावा ये नया बखेड़ा हो गइल बिलोग वाले...ऐसाही का कम बदमास लोगन था की अब ई बिलोग वाला भी आ गइल।

हमका का है हम अपना घर गिरस्थी में ठीक बानी...हम अब तनी झाडू मार के आवतानी. हियाँ उनके कम्पूटर है...दिन भर खितिर पिटिर करह रहे...हमरो आवे है थोडा बहुत मेल उल देखे लायक...उ का कहत है, हम भी इ-लिटरेट हैं. हम चौका में रही की इ(नाम नहीं लेवे हैं मरद का) हमरा बुलाय रहे...कंप्युटर में कोई काम कर रहे, हमका दिखाए तो हम तो हाय राम मर ही गए...इ पुतुरिया कौन है जी...एकदम हमार बहिन laage है kaisan बन ठन के खड़ी है धुप चस्मा लगाय के, कौन है जी?

अब इ हमरा ऐसन डांटे सुरु किये की हम का बताएं...ई छम्मकछल्लो बन के कहाँ फोटो खिचाये रही, हमरा बतावा अभी...हमरा से छुपे के बिलागिंग करत रही, अभी तोहरा पुलिस में डाल देबे बताये है की ना? इ बिलागिन का भूत चढ़ा है...छि छि का का लिखत रही...सिगरेट, दारु...उ भी बिदेसी...दिल्ली...तोरे सात पुश्त में कोई दिल्ली देखे है? अभी बतावा वर्ना ऐसन मार लागत की सब भूते भाग जैता।

नाही जी...हमरा ई सब नहीं आवे है...ई पूजा मेमसाब कोई और रही...हम तो यही चौका बासन में खटे रही दिन भर, लिखा पढ़ी कैसे करी...हम तो मैट्रिक फेल रही ना। बहुत्ते हाथ पैर जोड़े गोसाई देवता के सौगंध खाए तब जा कर उ माने की इ हमार बिलोग नहीं है. नाही तो हम अभी थाने होते...तब इ बिलोग कौन लिखता.

हम ई आखिरी बार लिख रहे हैं की ई हमार बिलोग नाही है...ई सब जो लिखा है ऊ कोई और है...कोई पुलिस वाले भैय्या हमार गाँव नाही आये...वैसाहों बड़ी रास्ता खराब है...आप सबको हमार नाम से जो भरमाया उकार ऊँगली दुखे...माथा दुखे...ऊ चार बार मैट्रिक फेल करे।

बस...अब जावत हैं, गोसाई देवता आप सब पर किरपा करे.

26 February, 2009

सावित्री...अंधेरे से रोशनी की ओर

बहुत सी चीज़ें ऐसी होती हैं जो अचानक से आती हैं और जिंदगी में कई मोड़ों पर बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सहायक होती है। इसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं जो एक लम्हे में ही कुछ ऐसा रिश्ता कायम कर लेते हैं कि लगता है उन्होंने हमारी रूह को छू लिया है...और हम अन्दर से कुछ एकदम नए हो जाते हैं...जैसे कि पहले कभी नहीं थे। किसी एक शख्स का आना जैसे गहनतम अन्धकार में रोशनी की एक किरण जैसा होता है, भले उसके आने से अँधेरा पूरी तरह न मिट पाये पर वो पहले की तरह का अँधेरा नहीं रह जाता...

सावित्री और सत्यवान की कहानी लगभग हम सब लोग जानते हैं...मुझे न जाने क्यों बचपन से ये कहानी बड़ी आकर्षित करती है...कुछ बड़े होने पर थोड़ा अंदाजा हुआ कि क्यों...हमारे बिहार में एक व्रत रखा जाता है वट-सावित्री, आम बोलचाल की भाषा में इसे बरसाएत कहते हैं, मेरा जन्म इसी व्रत के पारण के दिन हुआ था। यानि व्रत रखने के दूसरे दिन, जब सुबह को औरतें वट वृक्ष की पूजा कर के पारण करती हैं यानि अन्न जल ग्रहण करती हैं।

सावित्री के बारे में सोच कर लगता था, कैसी होगी वह स्त्री जो यमराज से अपने पति को जीत लाती है...उसकी विद्वता और उसकी अदम्य इच्छाशक्ति प्रेरक लगी है मुझे...और सबसे बढ़कर उसका प्रेम जो नारद की इस भविष्यवाणी पर भी अटल रहता है कि जिससे वह शादी करने जा रही है वह एक साल में मृत्यु को प्राप्त होगा।

सावित्री से दूसरी बार परिचय कराया कुणाल ने...या यूँ कहूँ कि सावित्री ने हमारा परिचय कराया तो ग़लत न होगा...शुरुआत इस पंक्ति से हुयी
"I am the static oneness and you are the dynamic power"
यह पंक्ति इतनी सुनी सुनी सी लगी जैसे आत्मा के अन्धकार में कहीं ज्ञान की कोई दीपशिखा जल उठी हो...इस एक पंक्ति के रहस्यों को खोजते हुए मैं श्री अरविन्द की सावित्री के पन्ने पढ़ती गई।
श्री अरविन्द के बारे में इससे पहले बस इतना ही पता था की वो एक स्वंत्रता सेनानी रहे हैं, पर उनके जीवन का ये आध्यात्मिक पक्ष बिल्कुल नहीं पता था मुझे।
सावित्री की पहली लाइन है
"It was the hour before the gods awake."
एक वाक्य जैसे सदियों से मन में घूमते सवालों का जवाब बन कर खड़ा था...भगवान भी सोते हैं...शायद इसलिए कई बार हमारी प्रार्थना सुन नहीं पाते। सावित्री सिर्फ़ एक किताब नहीं है, एक कविता नहीं है इसे पढ़ना जैसे किसी और आयाम में ले जाता है...ऐसे अनुभव जो शायद बिल्कुल अनछुए हैं नए हैं और शायद धरती पर रहकर महसूस नहीं किए जा सकते।

कई बार जब मुश्किलों का कोई रास्ता नही मिल पाता मैं सावित्री खोल लेती हूँ...इसके शब्दों में अजीब शान्ति है, मानो ये शब्द नहीं श्लोक हों...परम सत्य को शब्दों में लिख दिया गया हो जैसे।

मैं कुछ वो पंक्तियाँ लिख रही हूँ जो मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं...

A point she has reached where life must be in vain
Or in her unborn element awake
Her will must cancel her body's destiny
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The fixity of the cosmic sequences
Fastened with hidden and inevitable links
She must disrupt, dislodge by her soul's force
Her past, a block on Immortal's road
Make a rased ground and shape anew her fate.
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Her being must confront its formless cause
Against the universe weigh its single self.
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On the bare peak where Self is alone with Naught
And life has no sense and love no place to stand
She must plead her case upon extinctions's verge
In the world's death-cave uphold life's helpless claim
And vindicate her right to be and love.
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25 February, 2009

स्कूल की कुछ यादें

होली आ रही है...कायदे से तो अभी उसके आने में दो हफ्ते हैं पर हमारा मूड अभी से होलिया रहा है...कारण है की स्कूल के दिन याद आ रहे हैं।

फरवरी में हमारे फाईनल एक्साम होते थे...ये तो मत पूछिए की एक्साम कैसे होते थे...जरूरी ये जानना है की आखिरी एक्साम कैसा होता था। हमारा एक दिन में एक ही पेपर होता था और स्टडी लीव नहीं मिलती थी यानि हम जैसे टेबल पर सर रख के सोने वाले लोगों की आफत होती थी। बचपन से ही हमपर पढ़ने का बड़ा प्रेशर रहता था...ऐसा नहीं की इससे कुछ होता था। बस इतना की दोनों भाई बहनों में से किसी ने भी शैतानी की तो थोक के भाव में दोनों को डांट पड़ती थी। अगर मैं नहीं पढ़ रही हूँ...तो मेरे कारण छोटे भाई पर बुरा असर पड़ेगा, कुछ सीखने को कहाँ से मिले उसको, जब दीदी ही पढ़ाई लिखाई से भागती है तो वो तो छोटा है उसको कितना समझ है। और अगर वो किसी खुराफात में पकड़ा गया तो उसे डांट पड़ती थी की दीदी पढ़ रही है और तुम डिस्टर्ब कर रहे हो।

एक्साम के बारे में एक चीज़ बड़ी अच्छी लगती थी, सुबह सुबह दही चूड़ा खाने को मिलता था...उस वक्त ये ब्राह्मण का गुण हममें जोरो से विराजमान था, और हम तो अपने एक्साम के ख़राब होने का दोष भी खट्टे दही पर दाल देते थे। ऐसा दही खाकर भला एक्साम अच्छा जाता है किसी का...तुम जान के मेरा एक्साम ख़राब की मम्मी!

बस से स्कूल जाते वक्त हमारे शहर में एक वीआईपी मोड़ नाम की जगह आती है, वहां मछलियाँ बिकती थी...और नॉर्मली तो हमें मछली देख के उलटी आती थी पर एक्साम के समय चूँकि कहा जाता था कि मछली देखने से एक्साम अच्छा जाता है पूरी की पूरी बस के बच्चे बायीं तरफ़ की खिड़कियों पर झुक जाते थे बस एक झलक के लिए, कई बार तो लगता था बस ही उलट जायेगी।

हम बात कर रहे थे होली की...खैर, ये उन दिनों की बात है जब फाउंटेन पेन से लिखते थे, सुबह सुबह पेन की निब धो धा के रेडी और अक्सर इंक की बोतल भी साथ लेकर ही जाते थे। हालाँकि ६ सालों के अपने स्कूल में जब हमने पेन से लिखा कभी भी पेन का इंक ख़तम नहीं हुआ। हमें बाकी लोगो को देख कर आश्चर्य होता था की आख़िर क्या लिख रहे हैं की पेपर पर पेपर लिए जा रहे हैं...हाँ हर बार इंक की बोतल को निकाल कर डेस्क पर जरूर रख देते थे, अपने मन की तसल्ली के लिए।

मैंने बात शुरू की थी मन के होलियाने को लेकर...तो हमारे स्कूल का सेशन ऐसा था कि फरवरी में एक्साम ख़तम और फ़िर अप्रैल में नए क्लास शुरू होते थे। इस बीच होली आ कर गुजर जाती थी...स्कूल के अलावा हम लोगो का मिलना जुलना कम ही होता था। तो फाइनल एक्साम में न सिर्फ़ पेपर का डर था बल्कि ये भी strategy बनती थी की किसको कहाँ रंग लगाना है। और रंग यानि इंक....रंग लाना स्कूल में allowed नहीं था। और उसपर आलू वाले छापे...divider से खोद खोद कर लिखे गए वो ४२० या चोर या गधा....और वो मासूम अल्हड़पन अब बड़ा याद आता है।

लास्ट दिन वाला एक्साम लिखने का मन नहीं करता था...दिमाग तो शुरू से बाहर दौड़ते रहता था, बस किसी तरह पेपर निपटते थे और पूरा स्कूल जैसे होलिया जाता था। इंक और चौक का धड़ल्ले से प्रयोग होता था...पानी जैसी निरीह चीज़ भी वाटर बोतल में होने से खतरनाक अस्त्र का दर्जा हासिल कर लेती थी। भीगे रंगे थके हुए हम घर पहुँचते थे तो लगता था कितना बड़ा किला फतह कर के आए हैं।

फ़िर से फरवरी लगभग ख़त्म हो रही है, माहौल बिल्कुल से वही हो रहा है...बस वो बड़ा सा मैदान नहीं है जहाँ एक थर्मस पानी से भिगोने के लिए कोई १० राउंड दौड़ा दे। स्कूल की याद आ रही है...और उन चेहरों की भी.

23 February, 2009

बैद्यनाथ धाम की कहानी


मेरा बचपन देवघर में बीता...देवघर भोले बाबा की नगरी कहलाती है, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा बैद्यनाथ धाम है...हम कई किम्वदंतियां सुन कर बड़े हुए। देवघर मन्दिर के बारे में कथा है की एक रात में स्वयं विश्वकर्मा ने उसे बनाया है।

आज मैं देवघर शिवलिंग की कहानी आपको सुनाती हूँ जो शिव पुराण में सुनने को मिलती है...रावण भगवान् शिव का बहुत बड़ा भक्त था...उसे बहुत कठिन तपस्या की और एक एक करके अपने मस्तक भगवन शिव को अर्पित कर दिए...उसकी इस तपस्या से शंकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और उसके दसो मस्तक वापस ठीक कर दिए...यहाँ वैद्य की तरह शंकर भगवन ने उसके सर जोड़े इसलिए उन्हें भगवन वैद्यनाथ कहा गया। रावण ने वरदान माँगा की आप मेरे यहाँ लंका में चलकर रहिये। भगवन शंकर ने कहा तथास्तु, लेकिन तुम यहाँ से मुझे लेकर चलोगे तो जहाँ जमीन पर रखोगे मैं वहीँ स्थापित हो जाऊँगा तुम मुझे फ़िर वहां से कहीं और नहीं ले जा सकोगे। रावण खुशी खुशी शिवलिंग लेकर लंका की ओर चला।

यह समाचार जानते ही देवताओं में खलबली mach गई, अगर भगवन शिव लंका में स्थापित हो जायेंगे तो लंका अभेद्य हो जायेगी और रावण को कोई भी नहीं हरा सकेगा। इन्द्र को अपना आसन डोलता नज़र आया (हमेशा की तरह) तो सब विष्णु भगवान के पास पहुंचे की हे प्रभो अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। भोले नाथ तो भोले हैं उन्होंने रावण को वरदान दे दिया है और वो शिवलिंग लेकर लंका की तरफ़ प्रस्थान कर चुका है।

विष्णु भगवान ने देवताओं को चिंतामुक्त होने को कहा और वरुण देव को आदेश दिया की वो रावण के पेट में प्रवेश कर जाएँ । और विष्णु भगवान् एक ब्राह्मण का वेश धारण करके धरती पर चले आए। जैसे ही वरुण देव रावण के पेट में घुसे रावण को बड़ी तीव्र लघुशंका लगी, लघु शंका करने के पहले रावण को शिवलिंग किसी के हाथ में देना था, तभी वहां से ब्राह्मण वेश में विष्णु भगवान गुजरे रावण ने उन्हें थोडी देर शिवलिंग पकड़ने का आग्रह किया और वह ख़ुद लघुशंका करने चला गया...पर उसके पेट में तो वरुण देव घुसे हुए थे...बहुत देर होने से ब्राह्मण ने शिव लिंग को नीचे रख दिया। जैसे ही शिवलिंग नीचे स्थापित हुआ वरुण देव रावण के पेट से निकल आए।

रावण जब ब्राह्मण को देखने आया तो देखा कि शिवलिंग जमीन पर रखा हुआ है और ब्राह्मण जा चुका है...उसने शिवलिंग उठाने की कोशिश की लेकिन वरदान देने वक्त शिव जी ने कहा था की शिवलिंग जहाँ रख दोगे वहीँ स्थापित हो जाऊँगा। आख़िर में गुस्सा होकर रावण ने शिवलिंग पर मुष्टि प्रहार किया जिससे वह जमीन में धंस गया। फ़िर बाद में रावण ने क्षमा मांगी...और कहते हैं वह रोज़ लंका से शिव पूजा के लिए आता था।

जिस जगह ब्राह्मण ने शिवलिंग रखा वहीँ आज शंकर भगवान का मन्दिर है जिसे बैद्यनाथ धाम कहते हैं। मन्दिर के बारे में कई किम्वदंतियां प्रचलित हैं....जैसे की मन्दिर के स्वर्ण कलश को चोरी करने की कोशिश करने वाला अँधा हो जाता है। और मन्दिर के ऊपर में एक मणि लगी है....और मन्दिर के खजाने के बारे में भी कई कहानिया हैं। मन्दिर से थोडी दूर पर शिवगंगा है जिसमें सात अक्षय कुण्ड हैं...कहते हैं कि उनकी गहराई की थाह नहीं है और वो पाताल तक जाते हैं।

बाबा मन्दिर में संध्या पूजा के लिए जो मौर(मुकुट) आता है वो फूलों का होता है और उसे देवघर सेंट्रल जेल के कैदी ही रोज बनाते हैं। आज शिवरात्रि के दिन बहुत भीड़ होती है मन्दिर में और देवघर में बच्चे से लेकर बूढे तक व्रत रखते हैं. शाम में शिवजी की बारात निकलती है जिसमें भूत प्रेतों होते हैं बाराती के रूप में...अलग अलग वेश भूषा में सजे बारातियों और नंदी का नाच देखते ही बनता है.

मुझे आज के दिन मिलने वाली आलू की जलेबी बड़ी याद आ रही है :) सिंघाडा का हलवा भी कई जगह मिलता है...आप समझ सकते हैं की बच्चे ये मिठाइयां खाने के लिए ही व्रत रखते हैं. कुंवारी लड़कियां अच्छा पति पाने के लिए व्रत रखती हैं...ताकि उन्हें भी शिव जी जैसा पति मिले जैसे कि माँ पार्वती को मिला था.
आज के लिए इतना ही।

ॐ नमः शिवाय

22 February, 2009

भागलपुरी या अंगिका...एक विवेचना

मैंने पिछली पोस्ट में अंगिका या भागलपुरी भाषा का जिक्र किया था...इस बारे में ज्ञान जी का सवाल था कि भागलपुरी को अंगिका क्यों कहते हैं। मैं आज इसी का जवाब देने को कोशिश करुँगी। थोड़ा सा इतिहास में चलते हैं और मिथकों में तलाशते हैं...अंगिका अंग देश की भाषा है।

अंगिका के बारे में बात करने से पहले अंग प्रदेश की बात करते हैं। अंग का पहला जिक्र गांधारी, मगध और मुजवत के साथ अथर्व वेद में आता है। गरुड़ पुराण, विष्णु धर्मोत्तर और मार्कंडेय पुराण प्राचीन जनपद को नौ भागों में बांटते हैं...इसमें पूर्व दक्षिण भाग के अंतर्गत अंग, कलिंग, वांग, पुंडर, विदर्भ और विन्ध्य वासी आते हैं।

बुद्ध ग्रन्थ जैसे अंगुत्तर निकाय में अंग १६ mahajanpadon में एक था (चित्र देखें)





अंग से जुड़ी हुयी सबसे prasiddh kahani महाभारत काल की है। पांडव और कौरव जब द्रोणाचार्य के आश्रम से अपनी शिक्षा पूर्ण करने लौटते हैं तो अर्जुन के धनुर्विद्या कौशल का प्रदर्शन देखने के लिए प्रजा आती है...यहाँ वे अर्जुन का प्रदर्शन देख कर दंग रह जाते हैं. पर तभी भीड़ में से एक युवा निकलता है और अर्जुन के दिखाए सारे करतब ख़ुद दिखाता है और अर्जुन से प्रतियोगिता करना चाहता है. द्रोणाचार्य ये देख चुके थे कि वह युवक बहुत प्रतिभाशाली है और अर्जुन को निश्चय ही हरा देगा...इसलिए वह उससे उसका कुल एवं गोत्र पूछते हैं यह कहते हुए कि राजपुत्र किसी से भी नहीं लड़ते...

दुर्योधन ये देख कर अपनी जगह से उठता है और उसी वक्त कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करता है...यह कहते हुए कि अब तो प्रतियोगिता हो सकती है। द्रोणाचार्य तब भी उसके कुल के कारण उसे एक राजपुत्र का प्रतियोगी नहीं बनने देते हैं. कर्ण को सूतपुत्र कहा जाता है जबकि वास्तव में वह कुंती का पुत्र होता है जिसका कुंती ने परित्याग कर दिया था क्योंकि वह उस समय पैदा हुआ था जब कुंती कुंवारी थी. यहाँ से दुर्योधन और कर्ण की मैत्री शुरू होती है जिसे कर्ण अपनी मृत्यु तक निभाता है...क्योंकि दुर्योधन ने उसका उस वक्त साथ दिया था जब सारे लोग उसपर ऊँगली उठा रहे थे.

महाभारत और मसत्य पुराण में लिखा है की अंग प्रदेश का नाम उसके राजकुमार (कर्ण नहीं) के कारण पड़ा...जिसके पिता दानवों के सेनापति थे। प्राचीन काल में अंग प्रदेश की राजधानी चंपा थी...भागलपुर के पास दो गाँव चम्पापुर और चम्पानगर आज उस चंपा की जगह हैं। रामायण और महाभारत काल में अंग देश की राजधानी भागदत्त पुरम का जिक्र आता है...यही वर्तमान भागलपुर है। अंग प्रदेश वर्तमान बिहार झारखण्ड और बंगाल के लगभग ५८,००० किमी स्क्वायर एरिया के अंतर्गत आता है।

तो ये हुयी अंग प्रदेश की बात...यहाँ की भाषा को अंगिका कहते हैं। अंगिका भाषी भारत में लगभग ७ लाख लोग हैं. इस भाषा का नाम भागलपुरी इसकी स्थानीय राजधानी के कारण पड़ा इसके अलावा अंगिका को अंगी, अंगीकार, चिक्का चिकि और अपभ्रन्षा भी बोलते हैं. अंगिका की उपभाषाएं देशी, दखनाहा, मुंगेरिया, देवघरिया, गिध्होरिया, धरमपुरिया हैं. अक्सर भाषा का नामकरण उसके बोले जाने के स्थान से होता है...यही हम यहाँ भी देखते हैं. इसमें देवघरिया भाषा तो मैंने काफ़ी करीब से देखी और सुनी है क्योंकि देवघर में ही मेरा पूरा बचपन बीता है...यह उपभाषा यहाँ के पण्डे बोलते हैं. ये देवघर मन्दिर के पुजारी होते हैं. देवघरिया के सबसे मुख्य संबोधनों में से है " की बाबा!" जो मेरे ख्याल से मन्दिर का स्पष्ट प्रभाव है. शंकर भगवान के इस मन्दिर को बाबा मन्दिर भी बोलते हैं. वैद्यनाथ धाम बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है.

अंगिका कुछ उन चुनी हुयी भाषाओँ में से है जिसका गूगल में अपना सर्च इंजन है २००४ से, गूगल अंगिका श्री कुंदन अमिताभ के सहयोग से बना है

इस लेख में हो सकता है कुछ गलतियाँ हो क्योंकि ये मैंने अपनी जानकारी और यथासंभव रिसर्च करके लिखी है. किसी को अगर कोई बात ग़लत लगे तो मुझे बता सकते हैं.

21 February, 2009

उफ़ दिल्ली...फ़िर से

कभी कभी अचानक से कमरा बड़ा छोटा लगने लगता है...और अकेलेपन को लाउडस्पीकर से आता हुआ गीत का शोर कम नहीं कर पाता है। दीवारें बेजान सी लगने लगती है और किसी मुस्कराहट को देखने को जी चाहता है। जाने लोग कैसे कहते हैं की बंगलोर में भाषा की कोई समस्या नहीं होती। मुझसे पूछे कोई...लगता है हिन्दी सुनने के लिए तरस गई हूँ...जिससे मिलो अंग्रेजी में बात।

याद आता है दिल्ली के ऑटो में बजता एफएम रेडियो और उससे भी ज्यदा वहां के ऑटो वालों का हर टोपिक पर बातें करना "पता है मैडम आज गांगुली को टीम से निकाल दिया, ये सेलेक्शन वाले अजीब हैं, इनको तो कुछ पता ही नहीं है क्रिकेट के बारे में...या फ़िर मैडम सरकार कुछ करती क्यों नहीं है, देखिये न महंगाई कितनी बढ़ गई है"। इस सब के बीच याद आता है अगर अपने बिहार के किसी मित्र के साथ चल रही हूँ तो वो जरूर पूछता था "कहाँ के हो भैया...अच्छा अच्छा छपरा के...अरे हम भी वहीँ से हैं...चार कोस पर गाँव है हमारा...और खेती बाड़ी कैसी चल रही है"। रेड लाइट पर ऑटो वाले अपने दुःख सुख की बातें कर लेते और हम सुन कर मुस्कुरा देते थे। बातें कई बार घर की होती थी...या घरवाली और बच्चो की। यहाँ पर तो बस एक लाइन...फलाना जगह जाना है...चलो। यहाँ पता नहीं क्यों रेडियो नहीं बजता ऑटो में, बहुत कम ही सुना है, और सुनती भी हूँ तो कुछ समझ में नहीं आता।

आस पास सारे लोग जिस भाषा में बात कर रहे हैं उसका कोई आईडिया ही नहीं...एकदम आइसोलेशन लगता है। और भाषाएँ सीखने में बहुत कमजोर हूँ...आज तक अपने घर की भाषा नहीं सीख पायी...उसे हम लोग भागलपुरी कहते हैं या परिष्कृत भाषा में अंगिका। समझ तो लेती हूँ आराम से, बोलचाल में उधर के शब्दों का भी प्रयोग करती हूँ पर बोल नहीं सकती...बचपन में इस कारण इतनी टांग खिंचाई होती थी की बस्स। गाँव गए नहीं की सबकी फरमाइश शुरू...और पहला वाक्य निकलते ही सब लोटपोट। हम कोई मनोरंजन चॅनल हो गए थे उनके लिए।

कल मैं पार्क गई थी...वसंत कभी धीरे धीरे नहीं आता...एक दिन अचानक से देखते हैं की पेड़ के सारे पत्ते एकदम हरे हो गए हैं, कुछ लताओं में अनगिन फूल खिल गए हैं। खास तौर से बोगनविलिया इस वक्त जेएनयू में चारो तरफ़ गहरे गुलाबी बोगनविलिया नज़र आते थे...मंज़र बड़ा सुकून देता था आंखों को। आज पेड़ पर सफ़ेद बोगनविलिया की लत चढी देखी बहुत खूबसूरत लगा।

पार्क में बच्चो को खेलते देखा...और लगा की मिट्टी में हाथ गंदे करने में कितना संतोष होता होगा। एक बच्ची बड़े मन से मिट्टी उठा उठा के शायद घर जैसा कुछ बना रही थी...उसे तन्मय देख कर मन किया की थोड़ा करीब से देखूं की उसके होठों की हँसी कैसी है, या उसके आंखों की चमक कितनी है...पर गई नहीं की कहीं खेल छोड़ कर भाग न jaaye , वहीँ कुछ बच्चो के खेल में अपनी तरफ़ के गीत सुनाई दिए...हिन्दी में। दिल एक सुकून पा गया।

इस सुकून और मिट्टी से khelne की याद लिए...मैं फ़िर से वापस।

आज ट्रेक्किंग करने जा रही हूँ...जिंदगी में पहली बार। देखें कैसा अनुभव होता है :)

Update: trekking trip cancelled. me down with fever :( :( :( :( :(

20 February, 2009

चढी नस बड़ी नकचढ़ी होती है :)

बात बहुत पुराने ज़माने की है...हम उस वक्त पटना में रहा करते थे...बहुत ही होनहार छात्र थे, सारा वक्त किताबों पर ही बिताते थे, सच में। या तो किताबें टेबल पर खुली रहती थी और हम उनपर सर रख के सोते रहते थे, या बेड पर तकिया की जगह किताबें। हमारा इस बात में पूरा विशवास था की अगर किताबों के ऊपर सर रख के सोयेंगे तो सारी इन्फोर्मेशन अपनेआप दिमाग में पर्कोलेट हो जायेगी।

बायोलोजी में ओसमोसिस पढ़े थे (ये क्या होता है हम नहीं बताएँगे, try मारे पर बड़ा मुश्किल है, जिनको नहीं आता गूगल ko कष्ट दें) तो हमें लगता था की ज्ञान भी जहाँ पर ज्यादा है वहां से जहाँ कम हो उस दिशा में बहता है...आख़िर फिजिक्स में पढ़े थे न...पानी हमेशा ऊँची जगह से नीची जगह पर जाता है। तो हमारे हिसाब से हर थ्योरी के हिसाब से किताब से जानकारी लेने का सबसे आसान तरीका यही था।

अब सवाल ये उठता है की इस बुढापे में ये पढ़ाई लिखी की बातें कहाँ से याद आने लगी? तो हुआ ये की आज हमारे एक मित्र को गर्दन में दर्द उठ गया और हम चल दिए दादी अम्मा की तरह सलाह देने, ये करो वो करो। तो इसी सिलसिले में हमें एक बरसों पुराना किस्सा याद आ गया तो हमने सोचा सुना ही दें।

तो खैर इस तरह पढने की आदत बरक़रार रही...डांट पिटाई के बावजूद और फ़िर जाने कैसे हमें नम्बर भी अच्छे आ जाते थे...तो हमने अपनी खास पद्दति से पढ़ाई जारी रखी। एक शाम ऐसे ही हम फोर्मुलास अपने दिमाग में एडजस्ट कर रहे थे...की मम्मी की आवाज आई...खाने का टाइम हो गया था। उठे तो गर्दन में भीषण दर्द...न दाएं देखा जा रहा न बायें, सामने रखो तो भी दर्द, करें तो क्या करें...मम्मी को बोलेंगे तो खाने के साथ डांट का डोज़ फ्री में मिलेगा। मरते क्या न करते...मम्मी को बताये...अब एक राउंड से पापा मम्मी दोनों की डांट पड़नी शुरू हो गई, बीच बीच में दादी भी कुछ नुस्खा बता देती थी, छोटे भाई को तो इस पूरे प्रकरण में ऐसा मज़ा आ रहा था जैसे की चूहेदानी में चूहा फंसने पर भी नहीं आता।

डांट का दौर ख़त्म हुआ तो हमने घर आसमान पर उठा लिया...दर्द हो रहा है...मशीनगन की तरह आँखें दनादन आंसू दागे जा रही थीं। घरेलु उपाय शुरू हुए, कभी बर्फ से सेका जा रहा है कभी गरम पानी से, कहीं चूने का लेप लग रहा है तो कभी हल्दी का। और इतनी चीज़ें पिलाई गई कि उनपर एक पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है अलग से। पर कहीं कोई राहत नहीं। अब गंभीर बैठक बुलाई गई, इसमें पास कि एक दो आंटी भी शामिल थी(शायद वो वनस्पति विशेषज्ञ या ऐसी ही कुछ होंगी) सर्वसम्मति से ये फ़ैसला हुआ कि मेरी नस चढ़ गई है।

अब चढ़ गई है तो कोई उतरने वाला भी तो चाहिए( अब नस चढी है कोई ताऊ की भैंस थोड़े चाँद पर चढी है कि अपने आप आजायेगी नीचे)। खोजना शुरू हुआ, कहाँ मिलता है ये नस उतारने वाला इस बीच हमारी हालत तो पूछिए मत, जैसे सीजफायर होने के बाद भी एक दो गोले गिरा देते हैं कि हम हैं अभीभी , भागे नहीं है एक दो आंसू हम भी टपका देते थे।

अफरा तफरी में सब जगह फ़ोन भी घुमाये जा रहे थे...फाइनली ये सर्च अभियान समाप्त हुआ और ख़बर मिली कि हमारे नानीघर में जो दूधवाला है वो काफ़ी अच्छा नस बैठाता है। ये सुनकर हमारी तो रूह काँप गई, वो काला भुच्च बिल्कुल भैंस की ही प्रजाति का लगता था हमें, और महकता था इतना कि हम देखते भागते थे उसको। हमारे सोचने से क्या होता है अगली सुबह वहां जाने कि बात करके सभा स्थगित हुयी।

अगली सुबह हम रोते पीटते तैयार हुए और सपरिवार ननिहाल धमक गए...मस्त खाना बना था, पर हमको दर्द में खाना सूझेगा...दूध वाला आया, और उसने गर्दन को हल्का सा दबाया ही था कि हम ऐसे जोर से चिलाये कि सबको लगा कि गर्दन ही टूटी है। हमने वहीँ पैर पटकना शुरू कर दिया, हम इससे नहीं दिखायेंगे। इससे और दर्द बढ़ गया वगैरह वगैरह।

फाइनली हमारे आर्मी डॉक्टर के पास ले गए हमें...वो हमारे खानदानी डॉक्टर थे, हम सब भाई बहन हमेशा कोई न कोई खुराफात में कभी हाथ तोड़ते थे कभी पैर ...वो बड़ा मानते थे हमसब लोगो को बहुत प्यार से बेटा बेटा बोल के बात करते थे ...हम इतने शैतान कि शिकायत कर दिए...पता है डॉक्टर अंकल ये लोग एक दूधवाले से मेरा गला दबवा रहे थे..वो ठठा कर हँस पड़े। खैर उन्होंने मेरी नस उतारी और समझाया भी कि कैसे वर्टीब्रा में नस अटक जाने से ऐसा भीषण दर्द होता है।

उस दिन के बाद से हम उस दूध वाले को देख कर ऐसे चार फर्लांग भागते थे कि जैसे सच में गला दबा देगा। भाई लोग अटेंशन मोड में रहते थे...और कई दिनों तक अगर मुझे पैरों पर उड़ते देखना है तो बस यही कोड होता था...दीदी!!! दूधवाला!!! और हम फुर्र

जाने कहाँ गया वो बचपन...अब न तो घर पर भैंस बाँध के दूध देने वाले भैया हैं और माँ बाप तो सोच ही नहीं सकते कि कोई गंवार दूधवाला उनके बच्चे को हाथ लगायेगा। मैं अपोलो में जाती हूँ तो सोचती हूँ कहाँ है वो प्यार भरे हाथ जो कभी काढा बनते थे कभी गरम सेक...और कहाँ हैं ऐसे पड़ोसी जो रात के दस बजे चले आयें सिर्फ़ ये देखने किए कि कोई बच्चा रो रहा है तो क्यों...

गुजरी हुयी जिंदगी कभी कभी फ़िल्म गॉन विथ द विंड की तरह लगती है...

19 February, 2009

पुराने दोस्त

आज एक पुराने दोस्त से बात हुयी
और जाने कैसे जख्मों के टाँके खुल गए

सालों पुरानी बातें जेहन में घूमने लगीं
खुराफातों के कुछ दिन अंगडाई लेकर उठे

बावली में झाँकने लगी कुछ चाँद वाली शामें
पानी में नज़र आई किसी की हरी आँखें

सड़कों पर दौड़ने लगी कुछ उंघती दुपहरें
परछाई में मिल गया एक पूरा हुजूम

सीढियों पर हंसने लगे कुछ पुराने मज़ाक
फूलों पर उड़ने लगी मुहब्बत वाली तितली

बालकनी में टंग गया तोपहर का गुस्सैल सूरज
गीले बालों में उलझ गई पीएसार की झाडियाँ

सड़कों पर होलिया गई फाग वाली टोली
रंगों में भीग गया पूरा पूरा हॉस्टल

चाय की चुस्कियों में घुल गए कितने नाम
पन्नो के हाशियों पर उभर गई कैसी गुफ्तगू

गानों का शोर कब बन गया थिरकन
फेयरवेल बस उत्सव सा ही लगा था बस

पर वो जाने पहचाने चेहरों की आदत
कई दिनों तक सालती रही...

उस मोड़ से कई राहें जाती थी
और हम सबकी राहें अलग थी

कभी कभी लगता है
जेअनयू के उसी पुल पर
हम सब ठहरे हुए हैं...
जिसके पार से दुनिया शुरू होती थी

आज हम सब इसी दुनिया में कहीं हैं
पुल के उस पार के जेअनयू को ढूंढते हुए

यूँ ही कभी कभी
कोई दोस्त मिल जाता है

तो चल के उस पुल पर कुछ देर बैठ लेते हैं
इंतज़ार करते हैं...शायद कुछ और लोग भी लौटें

जाने उस पुल पर अलग अलग समय में
हम में से कितने लोग अकेले बैठते हैं...

कभी इंतज़ार में...और कभी तन्हाई में।

18 February, 2009

जिंदगी का तिमिरपाश

तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुस्काने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
-दुष्यंत कुमार

कल मन बहुत व्यथित था...रात के दस बज रहे थे पर मन के शांत होने का कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था। मैं अपनी बाईक लेकर चल पड़ी...फ़िर से सड़कों पर निरुद्देश्य घूमने। थोड़ा डर भी लगा...आजकल बंगलोर का माहौल अच्छा नहीं है, हमेशा किसी न किसी मर्डर की ख़बर आती रहती है। पर लगा कि दम घुट जायेगा अगर थोडी देर और घर पर रुकी।

सड़कें बिल्कुल सुनसान...यहाँ लोग जल्दी सो जाते हैं साढ़े नौ बजते बजते दुकानें बंद हो जाती हैं फ़िर मुख्य सड़कों पर भले लोग नज़र आ जाएँ कालोनी की सड़कें बिल्कुल खाली। पार्क के इर्द गिर्द कुछ लोग शायद पोस्ट डिनर वाक् कर रहे थे...मुझे मालूम नहीं था कौन सी सड़क लूँ, तेज़ी से चलूँ या ठहरूं थोडी देर। किन्ही सीढियों पर बैठ जाऊं।

पर मैं रुकी नहीं...आज बहुत तेज चलाने का मन नहीं था, न धीरे तो लगभग ५० पर चला रही थी। रात के सुनसान अंधेरे में उतना भी काफ़ी होता है...ठंढ से आंखों में हल्का पानी आ रहा था। चलने के थोडी देर पहले ही नहाई थी, बाल गीले ही थे थोड़े थोड़े शायद इसलिए भी ठंढ लग रही थी। उसपर जैकेट भी नहीं डाली जो मैं अक्सर ठंढ और सुरक्षा दोनों के कारण पहनती हूँ।

कुछ कुछ असुरक्षित महसूस किया ख़ुद को मैंने, किसी को बता के भी तो नहीं आई थी कि कहाँ जा रही हूँ...और मुझे ख़ुद भी कहाँ पता था कि किधर जाउंगी। शायद इसी तरह महसूस करना चाहती थी ख़ुद को...थोडी देर में हवा जैसे काट डालने वाली ठंढी हो गई, गाड़ी की रफ़्तार भी खतरनाक ढंग से बढती जा रही थी, और मैंने स्पीडोमीटर की तरफ़ भी नहीं देखा, जो मैं अमूमन करती हूँ ताकि कहीं ज्यादा तेज़ न चलाऊँ...पर आज जाने क्या देखने का मन कर रहा था...

शायद डर को प्रत्यक्ष देख कर ही उससे दूर जाया जा सकता है। जिंदगी के कुछ हादसों से आगे जाने के लिए उन हादसों को एक बार फ़िर जीना पड़ता है। मृत्यु एक ऐसा तथ्य है जिसे करीब से छूने पर एक सर्द अहसास जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता है। जलती हुयी चिता की लपटें भी उस सर्द अहसास को पिघला नहीं सकती हैं...भले बाहर से जला दें।

ये कौन सा तांडव मेरी आंखों में नाच रहा था मुझे मालूम नहीं...मैं किसे छूना चाहती थी मुझे मालूम नहीं था...मैंने चश्मा उतार दिया...आँखों में -२ पॉवर होने के कारण मुझे धुंधला दीखता है...और मैं बिना चश्मे के गाड़ी कभी नहीं चलाती हूँ पर जाने क्या हो रहा था मुझे। विशाल हवा में झूमते पेड़, रौशनी बिखेरते स्ट्रीट लैंप, काली स्याह सड़क...मैं क्या मृत्यु का पीछा करने ही निकल पड़ी थी?

एक विचारशून्यता घेर रही थी मुझे...सामने की चीज़ें दिख नहीं रही थी, ठंढ के कारण कुछ महसूस नहीं हो रहा था, और सन सन निकलती हवा में कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था...जिंदगी का एक क्षण ऐसा आता है जब शरीर होता है पर आत्मा नहीं...मौत के सबसे करीब यही क्षण होता है। हर अहसास से परे...हर बंधन से अलग...रिश्ते, मोह, दर्द, खुशी, कुछ भी महसूस नहीं होता। एक क्षण जब कुछ भी होना नहीं होता है...जब सब ख़त्म हो जाता है।

मैं इस क्षण को छू चुकी थी...अचानक से ठंढ महसूस हुयी और लगा कि सब धुंधला क्यों है...चश्मा पहना और स्पीडोमीटर पर नज़र दौडाई...सब कुछ जैसे स्थिर हो गया था वक़्त रुक गया था...और मैं कहीं स्पेस टाइम लाइन पर फ्रीज़ हो गई थी।

इससे आगे जाना सम्भव नहीं था...मैं लौट आई।

17 February, 2009

अजनबी शख्स

वो शख्स जो अब अजनबी है

जाने कब हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गया

और हम हर मोड़ पर पशोपेश में पड़ जाते हैं

किधर जायें...जाने किधर का रुख किया होगा उसने

वो शख्स अब भी अनजाने चेहरों से झाँकता है

कई बार भीड़ में लगा है कि वोही है

और हम तेज़ी से चल कर उसे करीब से देखना चाहते हैं

मगर वो तो जैसे जिंदगी की तरह...भागता जाता है

किसी रोज मिलेगा तो पूछूंगी उससे

थकते नहीं हो? यूँ भागते भागते

भला मंजिल से भी यूँ पीछा छुड़ाता है कोई!

16 February, 2009

बंगलोर एयर शो


ये मेरा एयर शो देखने का पहला मौका था...घर से लगभग साढ़े बारह बजे निकले...जानकारी यही थी कि शो सुबह दस बजे शुरू हुआ है और शाम के पाँच बजे तक चलेगा।


हमारे टैक्सी वाले ने पार्किंग में गाड़ी मोड़ दी...उसे बोला कि गेट पर छोड़ दो फ़िर यहाँ पार्क कर देना पर माना ही नहीं, इधर साउथ में जब लोग जान बूझ कर नहीं समझने का अभिनय करते हैं तो गुस्से के मरे बुरा हाल हो जाता है। खैर हम पैदल चले...पुलिस वाले ने बताया कि डेढ़ किलोमीटर दूर है।


धूप इतनी कड़ी थी कि चलने में हालत ख़राब, उसपर टिकेट में लिखा था कि खाना या पानी कुछ भी लाना मन है तो हम पानी के बिना चले गए थे...उस कडकडाती धूप में चलने में जो हालत ख़राब हुयी कि पूछिए मत...एक जगह नारियल पानी मिला तो कुछ राहत हुयी...रास्ते भर जी भर के गरियाये उस ड्राईवर को...कि गाड़ी से आने का फायदा क्या हुआ जब इतनी दूर पैदल चलना पड़ रहा है।


गुस्सा इसलिए भी आया कि सोचा नहीं था कि पैदल भी चलना होगा, उसपर रास्ते भर न कोई पेड़ न झाडी...तो बिल्कुल सर पे धूप लग रही थी और हमने छाता टोपी वगैरह कुछ भी नहीं ली थी...तो सच में लग रहा था कि पूरा खून गर्म हो गया है...थोडी देर में चक्कर से आने लगे...उसपर हमारा ड्राईवर इतना बदमाश कि जब उसको बोले कि तुम आ जाओ...और हमको पहले गेट पर पहुँचा दो तो आने को ही तैयार नहीं।


लंबा रास्ता तय कर कर मुख्य्स्थल पर पहुंचे...वहां पानी मिला तो पी कर कुछ राहत हुयी, वरना तो लग रहा था कि अब बेहोश हुए कि तब...


सुरक्षा जांच कुछ भी नहीं थी, न किसी तरह का बैग चेक किया गया न कोई मेटल डिटेक्टर...ऐसे में अगर कहीं कुछ होता तो फ़िर हल्ला उठता। एक जगह शामियाना लगा हुआ था और दरी बिछी हुयी थी काफ़ी सारे लोग बैठे हुए थे वहां पर...बाकी लोग मैदान में रनवे के पास खड़े थे...एक तो इतनी गर्मी और धूप में चल कर आए थे...उसपर कहीं कुछ देखने को नहीं मिला...प्रबंधन बहुत ही ख़राब था...कहीं भी कोई जानकारी नहीं। कम से कम बुलेटिंग बोर्ड पर कार्यक्रम तो लिखा जा सकता था...लगभग एक घंटे इंतज़ार करने के बाद हमने सोचा कि वापस चलते हैं...कुछ होने वाला नहीं है, शायद शो सिर्फ़ सुबह होता है।


न तो लाऊडस्पीकर पर कोई अन्नौंसमेंटकी गई...वहां इंतज़ार करना इतना बुरा लग रहा था क्योंकि मालूम ही नहीं था कि कब कुछ होगा, या होगा भी कि नहीं। खैर, हमने सोचा कि वापस चलते हैं, अब ड्राईवर को फ़ोन किया तो फ़िर लगा नौटंकी करने कि आप पार्किंग एरिया में आ जाओ...गुस्सा तो इतनी जोर का आया कि क्या कहिएं...फ़िर हमने टैक्सी ओव्नेर को फ़ोन किया...कि ये नाटक चल रहा है यहाँ पर...दो किलोमीटर धूप में चल कर आए हैं, और अब वापस दो किलोमीटर चल कर जाएंगे तो टैक्सी लेने का फायदा क्या हुआ...हम एक पैसा नहीं देंगे अगर उसने गेट से आकर हमें पिक नहीं किया। फ़िर ड्राईवर ने बोला कि वो आ रहा है।


अब हमने देखा कि विमान भी उड़ने लगे हैं....सुखोई जब हवा में उड़ा तो हमारा सारा इंतज़ार सफल हो गया। सीधा ऊँचा उठता गया और ऊंचाई पर जा कर बिल्कुल रुक गया...बीच आसमान में..वो इतना रोमांचक था...भीड़ में सारे लोग तालियाँ बजाने लगे। सुखोई के करतब कमाल के थे...nosedive करते हुए बिल्कुल जमीन की तरफ़ ऐसे आ रहा था की मुझे लगा सीधे मुझपर गिर जायेगा...और फ़िर बिल्कुल नजदीक आकर फ़िर से ऊपर उठ जाना. मुझे बहुत अच्छा लगा वह प्रदर्शन.


सबसे खूबसूरत रहा सूर्यकिरण का प्रदर्शन...रनवे पर से तीन तीन कर के छः एयरक्राफ्ट उडे...एक तो उनका टेकऑफ़ इतना रोमांचक था...कभी भी रनवे पर एक साथ तीन जहाज उड़ते नहीं देखे थे हमने. और फ़िर आसमान में जो करतब दिखाए की भीड़ तो जैसे खुशी से पागल ही हो गई...जोरदार तालियाँ और सीटियाँ बज रही थी. तीन रंग का धुआं...केसरिया , सफ़ेद और हरा छोड़ते हुए...तिरंगे की तरह ...कई कलाबाजियां दिखाई उन्होंने. मैं तो ऐसे खो कर रह गई थी की तस्वीर लेना भी भूल गई, फ़िर अचानक याद आया तो निकाला और फोटो खींचे.

वाकई इनको चलाने वाले पायलट अद्भुत साहसी होते होंगे...आसमान में बिल्कुल वर्टिकली उड़ना और फ़िर पल्टी खाना और वो भी टीम के साथ, कमाल का सामंजस्य था। मुझे सबसे अच्छा लगता था जब आर्क बनाकर सारे प्लेन्स उड़ते थे.


ये देखने के बाद लगा की अब वापस होना चाहिए...साढ़े चार बज चुके थे, थोडी देर में ट्रैफिक में फंस जाते...तो हम वहां से चल दिए...हमने पैराजम्पिंग मिस किया...पर खैर कुछ अगली बार के लिए भी सही.
ड्राईवर अभी भी नहीं आया था...और आख़िर में वो गाड़ी लेकर नहीं ही आया...हमें फ़िर से लगभग आधा किलोमीटर पैदल चल कर पार्किंग में जाना पड़ा. और फ़िर हम वापस आ गए...सबसे ज्यादा गुस्सा तो तब आया जब हमने देखा कि कुल दूरी ७४ किलोमीटर है...इंदिरानगर से येल्लाहंका कि दूरी बीस किलोमीटर है...ये किसी भी तरह से ७४ किलोमीटर नहीं हो सकता था आना जाना. हमें पूरा यकीं था कि जब हम वहां उतर गए थे, वो किसी और सवारी को लेकर गया होगा इसलिए बार बार बुलाने पर भी आने को तैयार नहीं था. पर हम कर भी क्या सकते थे...हमने शुरुआत में तो मीटर देखा था पर वहां पहुँच कर नहीं देखा था...हमने सोचा ही नहीं कि कोई ऐसा भी कर सकता है...लगभग १००० रुपये देने पड़े...अब से उस टैक्सी वाले से कभी नहीं लेंगे यही सोचकर वापस घर आये.


एक दिन के लिए काफ़ी अड्वेंचर हो गया था...कुर्सी में बैठ कर गरम पानी में पैर डाले...और अगले वीकएंड के लिए हिम्मत जुटाने कि सोचने लगे...हम अगले हफ्ते ट्रेक्किंग करने के लिए स्कंद्गिरी जा रहे हैं.

15 February, 2009

हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू

उन आंखों में ख़ुद को देखकर ख़ुद के जिन्दा होने का अहसास होता है...
और अक्सर जाने अनजाने चाय की चुस्कियों में
तुम कह देते हो कि तुम्हें मुझसे कितना प्यार है...

प्यार बस कहने भर को तो नहीं होता...
वो भी तो प्यार है जब जली हुयी सब्जी चुप चाप खा लेते हो
या कपड़े इस्तरी नहीं होने पर ऑफिस जाने की जल्दी नहीं मचाते
या मोजे खो जाने पर मेरे साथ मिल कर ढूंढ लेते हो...

वो भी तो प्यार है न...
मेरी कोई फ़िल्म आ रही होती है तो ख़ुद से मैगी बना लेते हो
भूत वाली फिल्मों के बाद कुछ हलकी फुलकी बातें करते हो
मेरे साथ कभी कभी बाईक पर पीछे भी बैठ लेते हो...

मुझे नींद आती रहे तो कभी नहीं उठाते हो
रात के teen बजे मेरी कवितायेँ सुनते हो
मेरी पसंद के कपड़े पहनते हो...

हर दिन के कुछ नन्हे नन्हे लम्हों में
हम मिल कर वैलेंटाइन मनाते हैं
फगुआ की मीठी मस्ती सी तुम
और होली के रंगों रंगों सी मैं

फ़िर भी अच्छा लगता है...
जब तुम बिना याद दिलाये
एक लाल गुलाब और क्यूट टेडी लाते हो...

I am still a hopeless romantic...euphoric to get a teddy and a rose :)

14 February, 2009

वैलेंटाइन

वो कौन सी मेमोरी डिस्क है

जिसमें रिकॉर्ड हो जाता है

एक ही बार कहने के बाद

कि घर में किसे कौन सी सब्जी पसंद है

कौन भिन्डी या तोरई बनने पर

एक ही रोटी में उठ जाता है

किसे पसंद हैं काढे हुए रूमाल

या अपनी चोटी उससे गुन्थ्वाना

कलफ लगी साडियां

चौराहे वाले समोसे

उसे सब पता है

वो पत्नी है, माँ है, बेटी है, बहन है, बहू है

हाँ शायद उसे वैलेंटाइन का मतलब नहीं पता
पर क्या सिर्फ़ न कहने भर से प्यार होता नहीं?

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