06 November, 2008

यादें जो दबे पाँव आती हैं

डायरी के पाने उलटती हूँ तो एक अजीब सा अहसास होता है, इतने साल हो गए...वो लम्हा आज भी जैसे उतना ही जीवंत है, जैसे पाटलिपुत्र में कतार से लगे गुलमोहर के पेड़। होली के वक्त उत्साह बरसाता अमलतास, गुनगुनाती हुयी मालती और चहकती हुयी मैं।
ये वो वक्त था जब मेरी हैन्डराईटिन्ग काफ़ी खूबसूरत मानी जाती थी, मेरी कविताओं से ज्यादा नहीं, पर फ़िर भी मेरी कुछ दोस्तों को मेरी कवितायेँ बड़ी पसंद आती थी। शायद वो उम्र ही ऐसी होती है, जब रूमानियत किसी भी फॉर्म में अच्छी लगती है, प्यार किसी भी लफ्ज़ में अच्छा लगता है। मुझे आज भी याद है मैंने कुछ कवितायेँ लिख कर दी थी...ताकि वो हमेशा उनके पास रहे। आज जाने कहाँ हैं वो लड़कियां...और जाने कहाँ होंगे वो पन्ने, जो शायद उस वक्त इसलिए सहेजे जाते थे की किसी और को चिट्ठी लिखते वक्त quote करने में काम आयेंगे। जाने वो ख़त लिखे गए की नहीं, और पता नहीं मेरे किसी शेर ने किसी को किसी और की मुहब्बत का यकीं दिलाया की नहीं। आज बहुत से सवाल जेहन में यूँ ही चहलकदमी करने लगे।
१६ साल का प्यार होता भी ऐसा ही है, जिसमें कुछ कहने की जरूरत नहीं रहती। किसी को बताने की भी नहीं, ये भी नहीं कि वो मुझे सोचता है की नहीं...बस इसमें खुश कि मैं किसी को चाहती हूँ। अब वो बचपना लगता है, पर सच में बचपन कितना मासूम होता है, और वो प्यार कितना निष्पाप। उस प्यार में ये चिंता नहीं रहती की आगे क्या होगा? वो वाकई प्यार होता है, रिश्ते के बिना बंधन के बिना...
आज यूँ ही पुरानी डायरी निकाल के पढ़ रही थी...बहुत कुछ घूमने लगा दिमाग में। कागज पर लिखे शब्दों की बात ही कुछ और होती है, handwriting से ही पता चल जाता कि किस मूड में लिखी गई है...हाशिये पर उकेरी लकीरों से समझ आ जाता है की किसकी मुस्कराहट को शब्दों में ढालने की कोशिश चल रही थी। इतना कुछ ब्लॉग की पोस्ट में थोड़े दीखता है।

शायद इसलिए डॉ anuraag कहते हैं "सुनो....इतनी ईमानदारी कागजो में मत उडेला करो ......"

17 comments:

  1. ये पुरानी डाय रिया होती ही ऐसी है.. जब हाथ में लगती है तो आँसू छलका देती है.. हा मगर खुशी के..

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  2. पड़ कर अपने अतीत मैं लौट गया
    बहुत खूब लिखा है

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  3. handwriting से ही पता चल जाता कि किस मूड में लिखी गई है...

    beautiful!

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  4. बहुत सुन्दर:

    handwriting से ही पता चल जाता कि किस मूड में लिखी गई है...

    क्या बात है!!

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  5. शायद वो उम्र ही ऐसी होती है, जब रूमानियत किसी भी फॉर्म में अच्छी लगती है, प्यार किसी भी लफ्ज़ में अच्छा लगता है।

    bahut sahi kaha aapne..


    New Post : खो देना चहती हूँ तुम्हें.. Feel the words

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  6. Bah gaye pooja jii hum to aapki kavitao mein... pata nahi jaha pyar ki batein hoti hai mann waha bahut lagta hai.. itti pyari pyari pyar se bhari kavitaye likh dali hai aapne ki mann hi nahi bharta... khuda kuch logo ko shbdo ke jariye logo ke dil tak pahuchne ki kuwwat deta hai.. aap unhi mein se ek hai.. jadui shabd hai aapke khich late hai baar baar.. shabdo mein jaise jadu mantar kar rakha ho. turant band leti hai.. very nice . baya nahi kar sakta shabdo mein ki kitni achi lagi sabhi kavitaye.. aaj akela hu... hamesha ki tarah.. akele mein aapki yeh kabitaye sathi bani hai meri.. pata nahi kis liye lekin 2 boond aansuo ki bahai hai maine aapki kavitao ko padhne ke baad.. bahut sundar
    Aur haan hum "http://bhataktehuye.blogspot.com/" yeh blog to padh hi nahi pa rahe hai aapka. kah raha hai ki for invited readers only :-)

    Rohit Tripathi

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  7. हर इंसान के अतीत मे होते है
    कुछ काग़ज़ के टुकड़े
    कुछ मुड़े-टुडे
    कुछ सहेज़ कर रखे हुए
    हर एक की यादो का संदूक
    किसी लॉकर मे सुरक्षित पड़ा है

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  8. यादें ईमानदार होती है ..तभी छलक कर कागज पर बिखर जाती है ..:) अच्छा लिखा है आपने

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  9. पुरानी यादें महकाती हैं।
    कागज पर लिखे शब्दों की बात ही कुछ और होती है, handwriting से ही पता चल जाता कि किस मूड में लिखी गई है

    सही सच कहा।

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  10. bahut jahan yaadein yaad karadi aapne,sundar

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  11. नौस्टाल्जिक होकर आप बहुत खूबसूरत लिखती हैं.. चाहे कागज पर लिखें या चिट्ठे पर.. सच तो कहा है उन्होंने, इतनी ईमानदारी कागजों के लिये भी अच्छा नहीं होता है..

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  12. baat sahi hai...magar aapki post se bhi aapke dil ki baat pata chal jati hai :)

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  13. ..बहुत कुछ घूमने लगा दिमाग में। कागज पर लिखे शब्दों की बात ही कुछ और होती है, handwriting से ही पता चल जाता कि किस मूड में लिखी गई है...हाशिये पर उकेरी लकीरों से समझ आ जाता है की किसकी मुस्कराहट को शब्दों में ढालने की कोशिश चल रही थी।
    बिल्कुल सहमति! शायद कुछ और भी... लिख कर खूब यत्न से काटे गये शब्द, वाक्य भी। जानबूझ कर ख़राब (अपठनीय) लिपि में लिखा भी बिलकुल पठनीय रहता है, साल दर साल.. कागज़ पर मोड़े गये, फ़ाड़े गये हिस्से नष्ट हो कर भी वहीँ रहते है - अदृश्य। वे मात्र शब्द नहीं होते, सम्पूर्ण काल-खण्ड और दृष्य, संवाद भी। कागज़ के वे हिस्से उसी भाव से विस्मृति (यदि हो तब भी) के विरोध में coup कर देते हैं। उन शब्दों की सामर्थ्य नहीं होती, वे तो सिर्फ ट्रिगर होते हैं, उन क्षणों को पुनर्जीवित करने के। ब्लॉग उस दिशा में तो है - पर बहुत दूर अभी। जब तक कि एकाध पीढी और न हो जाएं जो कि सिर्फ कम्प्यूटर ही जानती हों... शायद तकनीक भी और कुछ दे तब।

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