15 May, 2007

धधकते ज्वालामुखी

एक छटपटाहट, एक बेबसी और अजीब सा खालीपन जिंदगी में भर गया है...सोच रही हूँ की क्या इसको ही जीना कहते हैं पहले तो बड़ी बड़ी बातें करेंगे लोग...पर जहाँ वक़्त आएगा एक लडकी के कुछ भी फैसला लेने का सब सामने खडे हो जायेंगे...चाहे वो उसके कितने भी अपने क्यों ना हो



मैं सोचती थी शोषण सिर्फ अनपढ़ गंवार लोगो के यहाँ होता होगा...to a certain extent caste ki bhi sochti थी छोटी जाति के लोगों मे होता होगा...जहाँ लड़कियों को पढाया लिखाया नहीं जाता है...आज जब बड़ी हो गयी हूँ तो लगता है कितनी गलत थी मैं...मैं एक पढी लिखी लडकी हूँ PG किया हुआ है और कहीँ से भी उस category में नहीं आती जिसका कुछ भी शोषण हो सकता है...घर से बाहर दिल्ली में रहती हूँ अच्छी खासी salary है...कोई भी कहेगा की मैं आज़ाद हूँ अपनी मरजी से अपनी जिंदगी के फैसले ले सकती हूँ या दूसरे शब्दों में कहें तो मेरा मेरी जिंदगी पे पूरा हक है ऐसा दिखता है...बिल्कुल आज की लडकी independent, free minded, free spirited...देखती हूँ कितने खोखले लगते हैं ये शब्द...freedom...हमारे यहाँ लडकी जो जन्म देते ही गला घोंट कर मार दें वही बेहतर है॥

पता है सबसे बुरा क्या होता है...किसी को उड़ान दे दो और फिर उसके पर कतर दो...या पिंजडे में बंद कर दो...ऐसा ही कुछ अपने साथ महसूस कर रही हूँ...और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है...for heavens sake मेरी माँ कहेगी और कितनी आजादी चाहिऐ तुमको बचपन से तो जो मन किया है वही करते रही हो...मेरी प्यारी माँ कैसे समझायें की बचपन से जिसको तुम आजादी कहती हो उतना तो मेरा basic right था खाना पीना की तरह...इसके अलावा कौन सी आजादी मिली है

girls school और कालेज में क्या उम्मीद है की किसी की क्या growth होगी...समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्से से कट कर कैसे कुछ हो सकता है...लडकियां...वजह है कि उनकी सोच घर परिवार और बच्चों से आगे नहीं जाती है...आज मैं सोचती हूँ तो क्या फर्क पड़ता है किसी को...

कौन रहना चाहेगा मेरे जैसी लडकी के साथ ... जिसके पास अपना दिमाग है अपनी सोच है...आज अपने आप को बहुत ग़ुस्से में महसूस कर रही हूँ...इस दोगले समाज के प्रति जिसमें ऐसे लोग पैदा होते हैं जो लडकी को उड़ान तो देते हैं पर थोड़ी सी...

आकाश तो देते हैं पर थोडा सा...उड़ने तो देते हैं पर कह देते है की बेटा आख़िर तुम्हें अपना घर बसाना है वापस लौट के आना है
आज मैं समाज के इन सारे नियम कानून बनाने वाले लोगों से पूछती हूँ कि घर कहॉ होता है...कहॉ...वो कौन सी जगह होती है जहाँ लडकी अपने मन के हिसाब से जी सकती है...मैं आज अगर अपनी जिंदगी का कोई फैसला लेना चाहती हूँ तो क्यों मुझे पूरे समाज की इजाजत चाहिऐ...भाड़ में जाये ये सारा समाज मैं नहीं मानती ऐसे समाज के किसी भी फैसले को...कल को मेरे साथ कोई परेशानी होगी तो कौन उठ के आएगा कोई नहीं हंसने में सबको मन लगेगा...नकारती हूँ मैं समाज के इस पूरे अस्तित्त्व को जो एक लडकी को उसका वजूद नहीं बनाने देता है।

मेरा पूरा जिस्म जैसे विद्रोह कर उठा है...ये कौन सी उष्मा है जिसमें सब जला देना चाहती हूँ ...ये कौन सा दावानल है जो सब भस्म कर देना चाहता है...इस समाज के खोखले कानून को पुराने नियमों को ... मैं ठोकर मारती हूँ

जाति...जब लडकी की अपनी कोई जाति नहीं होती तो फिर इतनी नौटंकी क्यों...अगर में अपने पापा की जाति के साथ पैदा हूई हूँ तो इसमें मेरा अपना क्या है...अगर जाति मेरी अपनी है तो क्यों बदलेगी...अगर लड़के की जाति नहीं बदलती तो मेरी क्यों...जो चीज़ मेरी नहीं है सिर्फ किसी से जुड़ने से मिलती है तो क्यों मैं परवाह करूं कि मैं किस जाति में हूँ ...


क्यों क्यों क्यों विद्रोह कर उठता है मेरा पूरा वजूद और मैं अचानक से अपने पूरे अस्तित्त्व को नकार देना चाहती हूँ

हज़ार सवाल हैं जो मथ रहे हैं मुझे पर हमको मालूम है इनका जवाब देने की औकात किसी के पास नहीं है...डरते हैं सारे कायर लोग हैं

हर बार बेटी की बलि लेने वाले इस ब्रह्मण समाज पर थूकती हूँ मैं धिक्कार है इनपर...अगर नहीं चाहते हो की बेटियाँ बोलें तो इनके जबान काट ली जाये जन्मते ही
अगर नहीं चाहते हो की इनके दिमाग में कोई भी क्रान्ति का कीडा आये तो इन्हें अँधेरी कोठरियों में बंद कर दो ताकि कोई भी रोशनी की किरण नहीं पहुंचे इन तक ...इन्हें सोचने मत दो...पर फिर भी...फिर भी एक दिन अँधेरे कमरे में से एक ज्वाला निकलेगी और इस पितृसत्तात्मक समाज के चीथड़े उड़ जायेंगे...

उस दिन तक मेरे जैसी चिनगारियां पलती रहेंगी...सुलगती रहेंगी...इंतज़ार करेंगी...और जब यातनाएँ हद से गुजर जायेंगी तब इन्कलाब आएगा और उसे कोई रोक नहीं पायेगा

नारी शक्ति होती है...

या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता नमस्त्सयै नमस्त्सयै नमस्त्सयै नमो नमः

1 comment:

  1. हाँ ! इतना पढने-लिखने के बाद भी अलग अलग सामाजिक, पारिवारिक कानून.......छि: कितने दोगले परिवार और समाज में रहते हैं हम....जी चाहता है जला डालूँ इस सोच को.....जों बाहर से तो मॉडर्न होने के लिए बराबरी का ढोंग करते हैं.....और अन्दर से खोखले हैं....कन्फ्यूजन में जी रहे है...जानते भी नहीं के ऐसे कब तक जीना ....कुछ ज्यादा इमोशनल हो गई

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