28 May, 2007

silent screams

"अपनी सोच को बदलो" मम्मी कह रही थी..."हम जो करेंगे तुम्हारा अच्छा ही करेंगे"

मैं फिर से विचारों के झंझावात मे घिर जाती हूँ...सोच को बदलूं या सोचना छोड़ दूँ, कुंद पड़ जाने दूँ अपने दिमाग को ताकि वो इस लायक ही ना रहे की तुमसे कोई भी बात कर सके, अपना कोई भी तर्क दे सके। इसलिये लड़की को पढाना नहीं चाहिऐ, सच मे माँ तुम कभी समझ नहीं पाओगी हमको...क्योंकि तुमने कभी समझने की कोशिश नहीं की...जो बातें साफ कहती हूँ उन्हें भी तुम मानने से इन्कार करती हो...ऐसे में मैं क्या करूं कौन बतायेगा मुझे...

पापा आपने मुझे निराश किया है....हमेशा एक विश्वास मन में रहा था कि कोई नहीं तो कम से कम आप मुझे समझने की कोशिश करेंगे, मैं गलत थी, आप भी मम्मी जैसे ही हैं और कोई भी अंतर नहीं है...आख़िर किससे सवाल करूं मैं,कहॉ जाऊं मदद के लिए

मेरी बात सुनने को कोई तैयार नहीं है अगर इसमें मैं कोई कदम उठाती हूँ तो इसका जिम्मेदार कौन होगा..क्या मैं, नहीं बिल्कुल नहीं मैं इसकी जिम्मेदार नहीं हूँ...इसके जिम्मेदार हैं आप जैसे लोग...और आपका समाज...जिनके हिसाब से सबसे बड़ा जुर्म है सोचना...

मूक रहकर सब सहन करना नियति है...और इसमें ही हर लड़की के जीवन की सम्पूर्णता भी...पड़ जब भी कोई प्रारब्ध को बदलने की कोशिश करता है सबसे पहले उसके अपने उंगली उठाते हैं...

आख़िर क्यों करूं मैं वही जो आप चाहते हैं...जिस फैसले का सबसे बड़ा असर मुझपर होगा उसमें मेरी सहमति लेने की कोई कोशिश नहीं...आप पर विश्वास करूं...क्यों...कितना जानते हैं आप हमको...जरा भी नहीं...
अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर मैं कहूँ कि आप दोनो में से कोई भी मुझे नहीं जानता क्योंकि किसी ने जानने कि कोशिश नहीं की...और अगर मैं अपनी जिंदगी में आये सारे लोगों को देखती हूँ तो पाती हूँ कि किसी ने भी नहीं की...इतना आसान नहीं होता है किसी को जानना और वो भी अगर मेरी जैसी कोई लडकी है जिसका अपना दिमाग चलता है तब तो वैसे भी कोई उम्मीद नहीं है कि कोई समझने की कोशिश करना भी चाहेगा...

काश तुम एक कोशिश करते...एक बार सुनती तो कि मेरे मन में क्या चल रहा है...कम से कम पूछती तो कि क्या बात है...पर तुम्हारे सवाल सवाल नहीं होते...statements होते हैं जिनके बाद कहने का कोई scope नहीं रहता, कोई मायना नहीं होता...

ये ऐसी कोर्ट है जहाँ कोई दलील नहीं ली जाती और लेने कि बात तो भूल जी जाओ जिसकी जिंदगी का फैसला सुनाया जा रहा है उसका कोर्ट में रहना भी जरुरी नहीं है ....आपस में बैठ कर सोच लेंगे कि क्या करना है....

चीखता है मन अंतरात्मा क्रन्दन कर उठती है पर परवाह है तुम्हें...बिल्कुल नहीं एक झूठा अहम, एक बार सोचते भी नहीं


क्यों
क्यों
क्यों
अनगिन सवाल और जवाब देने वाला कोई नहीं

आग लगी हुयी है ...ज्वालामुखी सा अन्दर में लावा घुल रहा है...आंखों से भाप बन कर उड़ रहे हैं आँसू मगर तुम दूर बैठ कर आराम से सोच रहे हो कि क्या करें

इस दोगलेपन से नफरत है मुझे

please leave me alone

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