याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.
भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.
कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.
ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.
मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.
रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.
सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.
भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.
कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.
ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.
मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.
रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.
सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा.