आपके साथ कभी हुआ है कि आप अन्दर से एकदम डरे हुए हैं...कहीं से दिमाग में एक ख्याल घुस आया है कि आपके किसी अजीज़ की तबियत ख़राब है...या कुछ अनहोनी होने वाली है...और आपको वो वक़्त याद आने लगता है जब आपको पिछली बार ऐसा कुछ महसूस हुआ था...नाना या दादा के मरने से कुछ दिन पहले...कुछ एकदम बुरी आशंका जैसी.
ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.
मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.
जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.
ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.
यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.
एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?
मम्मी का हाथ पकड़ने की कोशिश करती हूँ...वो दिखती है, एकदम साफ़...हंसती हुयी...मगर उसका हाथ पकड़ में नहीं आता...फिर से पानी में गोता खा गयी हूँ. उफ्फ्फ....सर्दी है बहुत. दांत बज रहे हैं.
आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड.
ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.
मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.
जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.
ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.
यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.
एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?
आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड.










