23 February, 2010
टहलती हुयी एक शाम के लफ्ज़
मेरी कोई सजा हो
15 February, 2010
बदमाश वाले भूत और हनुमान जी
अगर शब्दों की समझ होने के बाद जानती तो शायद समझ के जानती की "भूत पिसाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे" का मतलब ही हुआ की भूत वगैरह पास नहीं आयेंगे। साल बीते ठीक उस बाँस के झुरमुट के नीचे हनुमान जी का मंदिर भी बन गया...पर हमको उस मंदिर की मूर्ति से ज्यादा अपने चालीसा पर विश्वास था...तो रात के समय वहां से गुजरना होता था तो साक्षात् हनुमान जी का कोई आसरा नहीं होने पर हम मूर्ति से काम नहीं चलते थे...अपना हनुमान चालीसा पढ़ते जाते थे। अरे हाँ, ये तो बताना ही भूल गए की हमें चालीसा भी इसी लाइन तक याद थी, तो कभी कभार डर भी लगता था की कहीं हनुमान जी बीच में ही अटक गए तो...इस डर का कारण एक चुटकुला था...वो ये रहा, वैसे तो हमको चुटकुले कभी याद नहीं रहते पर ये है...
एक भक्त था उसको भगवान पर बहुत भरोसा था, एक बार उसको रास्ते में डाकू सब पकड़ लिया, वो डर गया और भगवान से हाथ जोड़ के प्रार्थना करने लगा बचाने के लिए, पहले उसने कहा हे भोले बाबा बचाइए, फिर थोड़ी देर में कहता है हे राम जी मेरी रक्षा कीजिये, फिर थोड़ी देर में कहता है हे हनुमान जी बचाईये...पर उसको कोई भगवान नहीं बचाने आये और उसको डाकू ने मार दिया। वो ऊपर गया तो भगवान से पूछा की हमको बचाने काहे नहीं आये...तो भगवान बोले की पहले तुमने शंकर भगवान का नाम लिया, हम शंकर भगवान बनकर आ ही रहे थे की तुम राम जी को पुकारने लगे, हम जल्दी से जाके राम का वेश धारण किये उसके बाद भी हम तुमको बचा ही लेते की तुम बोले हे हनुमान जी बचाईये...हम लगभग तुमको बचा ही लिए थे, बस पूंछ लगाने में देर हो गयी।
ये सुनके हमारी सिट्टी पिट्टी गुम थी, की भाई बड़ा रिस्क है एक साथ कई भगवान को बुला नहीं सकते हैं...तो बस हमारे देवघर में दो ही भगवान थे....एक तो अपने भोले बाबा और दुसरे हनुमान जी। इन दोनों के सहारे हमारा बचपन आराम से गुजर गया बिना किसी भूत के पकडे हुए। थोड़ा बड़े होने के बाद तो हम ऐसे निडर हुए कि भूत प्रेत हमसे डरते होंगे ऐसा समझने लगे। ऐसी हालत आराम से दिल्ली तक थी। फिर मम्मी का अचानक चले जाना...मैं आखिरी वक़्त तक उसका हाथ लिए जितने मन्त्र मुझे आते थे, गायत्री मन्त्र, महा मृत्युंजय मन्त्र, हनुमान चालीसा...सब पढ़ गयी...मगर वो नहीं रुकी।
उस दिन के बाद से हनुमान चालीसा नहीं पढ़ी मैंने...और अस्चार्यजनक रूप से डरने लगी बहुत चीज़ों से...समझ में ये नहीं आता था कि ज्यादा ख़राब क्या है...ये डर जो दिल की तहों में भीतर तक घुस कर बैठा है या हनुमान चालीसा जिसका पहला दोहा आते ही aiims का वो वार्ड याद आने लगता है। डर दोनों हालातों से लगता था।
और दुर्भाग्य से हमको ऐसा और कुछ पता नहीं था जो भूतों को भगा सके...कुणाल से भी पूछा कि यार और कोई भगवान हैं जिनसे भूत डरें तो उसने भी यही कन्फर्म किया कि भूतों का डिपार्टमेंट एक्स्क्लुसिव्ली हनुमान जी के पास है। अब हम ऐसे थेथर कि डरेंगे भी और भूत वाला पिक्चर भी देखेंगे और घबराएंगे और बिचारे को रात में जगाते रहेंगे कि डर लग रहा है...अच्छे खासे भले आदमी की नींद ख़राब।
सोचा आप लोगों से ही पूछ लें...कोई और तंतर मंतर है तो बताइए...अब ईई मत कहियेगा कि भूत उत होता ही नहीं है, बेकार सोच रही हो...आता है तो बतईये...नहीं तो हम थोड़ा बहुत हनुमान चालीसा से काम चला रहे हैं। आजकल ठीक हो गयी है हालत फिर भी...परसों पैरा नोर्मल एक्टिविटी देखने कि कोशिश की, नहीं देखी ...पर हनुमान चालीसा जरूर पढ़ी...अब धीरे धीरे वार्ड का डर निकल रहा है दिमाग से। उम्मीद है जल्दी ही भूत का डर भी निकलेगा।
तब तक...
बोलो हनुमान जी की जय!
11 February, 2010
आधा दिन और तीन जिंदगियाँ
एक हलकी नीली शाम, बादलों के कुछ टुकड़े
आधे दिन में दो जिंदगियां पढ़ी
"रसीदी टिकट" और "सूरज का सातवाँ घोडा"
कुछ वाक्य बादलों की तरह आसमान में उड़ रहे थे
और मैं एक सरफिरे कवि से बात कर रही थी
जिसे शब्दों को सुघड़ बनाना नहीं आता
वो अगर चित्र बनाता तो यक़ीनन
उसके कपड़े भी उसके कैनवास का हिस्सा होते
एक ही दिन मंटो की १९ कहानियां पढ़ीं
उसे बताया तो उसने पूछा, कैसी लगी
कोई उसे समझाए कि कैसे पढ़ सकता है कोई
लगातार उन्नीस खराब कहानियाँ
शायद उसे लगता होगा वैसे ही
जैसे इस हाद्सातों भरी जिंदगी में
एक कवि जिन्दा रहता है
कहता है "बोलती हो तो लगता है कि जिन्दा हो"
नहीं जानती तो सोचती
कि किस मिट्टी का बना है वो
ऐसी तपी हुयी कवितायेँ लिखता है
पढ़ने में आंच आती है
शायद ऐसी मिट्टी बिहार की ही हो सकती है
गंगाजल से सनी, जिंदगी की भट्ठी में झोंकी गयी
मूरत की भी जबान सलामत और तेज
जिसके लिए सत्य का सुन्दर होना अनिवार्य नहीं
कमरे में जलती तीन मोमबत्तियां
सांझ दिए गए धूप की महक
डूबे हुए सूरज का थोड़ा सा टुकड़ा
और राहत की साँस कि "सोच को मरने नहीं दिया जाएगा "
04 February, 2010
अरसा पहले
पहला सीन
दोस्त के कान में फुसफुसाते हुए, "पता है पता है, आज उसने मुझे मुड़ कर देखा"। उसके चेहरे पर ऐसा भाव आता है जैसे ये राज़ वो मरते दम तक किसी को नहीं बताएगी, ख़ुशी ऐसी जैसे अचानक से एक्साम कैंसिल हो गए हों।
दूसरा सीन
लंच के बाद की एक हिस्ट्री क्लास, सब बैठे हुए खुद इतिहास हो जाने की मुद्रा में हैं। आगे से पीछे एक चिट पास होती है, मुड़ी हुयी। ये लड़कियां ही कर सकती हैं की बिना खोले कोई चिट ऐसे पास कर दें। चिट में लिखा हुआ है "वो तुमको देख रहा है, कब से"। पढ़ने वाली एक चोर नज़र से देखने की कोशिश करती है, पर नाकामयाब, वो एकदम पीछे वाली सीट पर बैठा है। पेंसिल गिरती है, और शांत अनमने ऊँघे हुए क्लास में लगता है पटाखे चल गए...एक एक आवाज जैसे उसे याद है बहुत अच्छी तरह से। क्योंकि इसी आवाज से जुडी हुयी है उसकी धड़कनें और वो लम्हा जब वो उसे पहली बार देख कर एक झेंपी हडबडाई सी हँसी हँसा था। वो लड़का है, हँस सकता है उसे देख कर। पर वो कैसे दिखा दे, उसने झटके से मुंह फेर लिया, जैसे कोई मतलब ही नहीं है।
तीसरा सीन
उसकी डेस्क पर बहुत सी फूल पत्तियां बनी हैं...पर अगर गौर से देखा जाए तो उसमें एक अक्षर दीखता है बार बार। एक जगह उसने अपना नाम भी लिखा है। उसपर दो लड़कियां झुक कर देख रही हैं कुछ, किसी ने उसका नाम वहां लिखा है, दोनों नाम साथ में अच्छे लग रहे हैं। ये भी लंच के तुरंत बाद वाला क्लास है। "क्या लगता है उसी ने लिखा होगा?" दोस्त पूछती है। "पागल हो क्या", छोटा सा जवाब और बात वहीं ख़त्म.
(इश्क की हर कहानी में ये जुमला इतनी बार इस्तेमाल हुआ है की बस घिस गया है, पर ये घिस कर पुराना नहीं लगता, अपना लगता है)
चौथा सीन
टेंथ के एक्साम का आखिरी दिन। दोनों दोस्त चापाकल पर हैं, एक चला रही है दूसरी पीने के लिए ओक में पानी लेती है और आँखों पर मारे जाती है, उसे किसी को भी नहीं बताना की वो रो रही है। पर एक दोस्ती ऐसी भी होती है जिसमें कुछ बताना नहीं पड़ता। "अब?"
आखिरी सीन
आज वो शहर छोड़ के जा रही है, दोस्त से मिलने आखिरी बार उसके घर गयी है, शाम का वक़्त है हलकी धूप है और उसका रोना रुक ही नहीं रहा है। दोनों छत के एक कोने पर बैठी हुयी हैं।
"तुझे क्या लगता है मैं उसे कभी भूल पाउंगी?"
"हाँ रे, आराम से भूल जायेगी ऐसा है ही क्या उसमें"
"तुझे क्या लगता है, उसे कभी पता चलेगा की मेरे दिल में उसके लिए कुछ था, बोल ना उसे मालूम तो होता होगा ना?"
"हाँ रे, उसे सब मालूम होगा, पर तू उसे भूल जाना, समझी"
"नहीं भूल पाउंगी, देखना एक दिन होगा, बहुत सालों बाद, हम यहीं खड़े होंगे, तेरी शायद शादी हो रही होगी, मैं तब भी तुझसे यहीं कहूँगी की मैं उसे आज भी याद करती हूँ"
"तू एकदम पागल ही है"
"वैसे मोटी, पता है, मैं तुझे उससे भी ज्यादा प्यार करती हूँ, और तुझे उससे ज्यादा मिस करुँगी"।
कई सालों बाद...
वही छत, वही दो दोस्त
"अब बता"
"अरे मैंने कहा थ ना...मैं तुझे उससे भी ज्यादा प्यार करती हूँ और तुझे उससे ज्यादा मिस करुँगी, सच कहा था।"
डिस्कलेमर: इस पोस्ट के सारे पात्र असली हैं, जगह असली है बस कहानी नकली है। इसे पढ़कर अगर कोई सेंटियाता है तो लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं है :)
जरूरत है एक अदद फोन की
बहुत दिन हो गए हमने अपना फोन नहीं बदला है, जब ख़रीदा था तो सोचा था कि साल के अंदर बदल लेंगे. और देखते देखते तीन साल होने को आये. वक्त के साथ मेरी जरूरतें भी बदली, प्राथमिकताएं भी और ध्यान ही नहीं गया कि इस मुए फोन का और कोई इस्तेमाल भी है.
अभी भी याद आता है वो नयी नयी सैलरी से फोन खरीदना, वो वक्त था जब पहली रिक्वायरमेंट थी कि फोन दिखने में खूबसूरत होना चाहिए. कहीं रखा रहे तो लोग उठा के देखें. और वाकई उस वक्त ये फोन इतना खूबसूरत दीखता था कि बस दिल आ जाए. दुष्यंत कुमार का शेर याद आता था “किसी जंगल में आग लग जाए, हम कभी इतने खूबसूरत थे”, खैर ये शेर खुद के लिए बोलने लायक तो हम कभी न हुए, अलबत्ता फोन जरूर ऐसा लिया था.
वक्त बीतते कब इन्टरनेट जीवन का ऐसा हिस्सा हो गया पता ही नहीं चला. ब्लॉग जब सबसे पहले लिखा था तो रोमन में हिंदी लिखी थी, उस वक्त IIMC में पढते थे और देवनागरी में लिखने का काम हमारे यहाँ सिर्फ हिंदी जर्नलिस्म के छात्र कर पाते थे. हम बड़ी हसरत से देखते थे वो कीबोर्ड पर कभी सीखने कि हिम्मत न कर सके. कुछ बहुत जरूरत हुयी तो किसी से सिफारिश कर दी लिखने की. भले लोग हुआ करते थे, हमेशा मान जाते थे.
अब फोन लेना है तो सबसे जरूरी है ये देखना कि उसमें इन्टरनेट कैसे चलता है, उसपर दूसरी जरूरी चीज़ कि हिंदी वेबसाइट कैसे खुलती है, और हिंदी में लिखना कैसे होता है. क्या ठीक ठाक हो जाता है या कुछ इंतज़ाम करना होता है. कुछ लोड करने या बदलने के मामले में हम अभी तक तकनीकी अपंग हैं. इतने दिन हो गए एक हिंदी फॉण्ट कैसे लाना है फोन में नहीं समझ पाए.
मुझे इस समस्या का जहाँ तक समाधान दीखता था वो ये था कि नोकिया का ही कोई फोन खरीद लूं, हिंदुस्तान के लिए बने फोन में हिंदी बाय डिफाल्ट रहता है तो कोई चिंता नहीं होगी. पर एक दिन नोकिया का एक्सप्रेस म्यूजिक फोन देखा तो उसमें सारी भाषा कि टांग टूटी हुयी थी. मात्राएं एकदम आवारा, किसी का कुछ ठिकाना नहीं...हम घबराये, नैय्या डूबती नज़र आई.
यूँ मुझे सैमसंग कार्बी बड़ा पसंद आया है, उसके पहले एचटीसी टच अच्छा लगा था...पर इन दोनों फोन के बारे में मुझे ये नहीं पता चल पाया कि हिंदी फॉण्ट सपोर्ट है कि नहीं. पूछने पर यहाँ बंगलोर में दुकान पर बंदे ने ऐसे घूर के देखा जैसे कि मैंने सैमसंग कि शॉप में नोकिया का कोई मोबाइल मांग लिया हो...खैर भूल चूल माफ.
आपमें से कई लोग अपने मोबाइल का इस्तेमाल ब्लॉग्गिंग के लिए करते होंगे, क्या मुझे एक फोन सुझा सकते हैं?
03 February, 2010
कार चलाने का पहला दिन
वैसे कायदे से कहें तो ये पहला दिन नहीं होगा, पहला दिन तो वो था जब अपनी कार में निकली थी और कमबख्त नामुराद बिल्ली ने रास्ता काटा था और वापस आ गयी थी. मारुती ड्राईविंग क्लास्सेस ज्वाइन किये हुए बहुत दिन हो गए. इन दिनों में थ्योरी पढ़ी खूब सारी...आधे ऑटोमोबाइल इंजीनियर तो बन ही गए हैं...या कमसेकम मोटर मेकैनिक तो बन ही जायेंगे.
अभी तक क्लच का काम बस गेयर भर बदलना होता है हमको पता था, पर उसके पीछे क्या सिस्टम है ये मालूम नहीं था हमको. अब पता चला की क्लच असल में दो प्लेट का होता है और गाडी के मोटर और गाडी के गियर और पहियों के सञ्चालन के बीच एक स्विच की तरह काम करता है. इससे मुझे ये पता चला कि बहुत तेज रफ़्तार गाडी को रोकने के लिए क्लच का इस्तेमाल करना घातक हो सकता है. और भी बहुत से फंडे, हालाँकि मैं जानती हूँ कि जब गाडी के सामने बिल्ली आ जाये तो आराम से सारा ज्ञान भूल कर उसको चीपने पर ध्यान लगाना है J
आज हम सुबह साढ़े आठ बजे क्लास करने गए(सुबह कैसे उठे ये मत पूछिए, वैसे ही बंगलोर में सुबह उठने पर लगता है सजा मिल रही हो). एक अच्छी सी स्विफ्ट में इंस्ट्रक्टर आये, श्री पाटिल...बहुत अच्छे और भले व्यक्ति हैं. उन्होंने पहले गाड़ी को चेक करने के सरे नियम बताये और फिर मैं ड्राईवर सीट पर बैठी. ड्राइविंग स्कूल से सीखने का फायदा ये है कि टेंशन नहीं होती कि ब्रेक की जगह अक्सीलेरेटर दब गया तो किसका क्या होगा J
मुश्किल से १०० मीटर चलाये होंगे कि सड़क के बीच लंगड़ा कुत्ता...और एकदम से नयी गाड़ी पर बैठने पर होर्न भी नहीं दीखता है एकदम से, पर होर्न बजते ही कुत्ता एकदम साइड हो गया. मुझे हंसी आ गयी कि होर्न सुनकर कुत्ता भी साइड देता है. अब फुर्सत में सोचती हूँ तो लगता है, हो न हो उस कुत्ते की टांग किसी ऐसे ही नौसिखिए ड्राईवर से तोड़ी होगी...इसलिए होर्न सुनते ही फटाफट साइड हट जाता है.
*ये सारा मसाला गूगल के ऑफलाइन टाइपिंग औज़ार से हुआ है. दोपहर को रोज लोड शेडिंग होती है, उस समय का सही इस्तेमाल ब्लॉग्गिंग के लिए J
02 February, 2010
सबसे अच्छा ऑफलाईन हिंदी टूल आ ही गया :)
ऑफलाईन टाइपिंग के अच्छे टूल की बहुत दिन से तलाश थी, क्योंकि ऐसा कई बार होता था की कुछ लिखने का मन करता था पर इन्टरनेट नहीं होने के कारण नहीं लिख पाती थी. यहीं नहीं कई बार ऐसी जगह जहाँ इन्टरनेट न हो लिखना ही बंद हो जाता था. और एक बार हिंदी के लिए देवनागरी देखने की आदत लगने के बाद रोमन देखना एकदम बर्दाश्त से बाहर हो जाता है. पर मुझे यकीन नहीं हो रहा की फिर से गूगल सहायता के लिए आया है. मैंने पहली बार २००५ में ब्लॉगर पर हिंदी की ये सुविधा देखी थी और तब से हिंदी को रोमन में लिखना लगभग बंद ही कर दिया है. यही नहीं आदत अब वाकई ऐसी पड़ गयी है की रोमन में लिखा कुछ पढ़ने पर दिमाग पर बहुत जोर पड़ता है और अक्सर मैं नहीं ही पढ़ती हूँ.
तो आज गूगल के भले काम को प्रोत्साहन देने के लिए ये पोस्ट. मैंने इससे पहले बारहा पर लिखने की कोशिश की थी, पर वो असंभव रूप से कठिन था, उसपर लिखना एक तरह से सारी वर्णमाला फिर से सीखने के बराबर लगा मुझे. तो मैंने बारहा के बारे में सोचा भी नहीं, कट पेस्ट से काम चल ही जाता था. बस कभी कभार अखर जाता था.
आप भी देखें, इसको डाउनलोड करना बहुत आसान है और सेट उप भी, क्योंकि मुझे कोई भी दिक्कत नहीं आई. आप इसे यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं. मुझे पूरी उम्मीद है की मेरी तरह तकनीकी दृष्टि से कमजोर लोग भी इसका इस्तेमाल कर सकेंगे.
28 January, 2010
उससे कह कभी मेरे गाँव भी आये...
सुना है तेरे गाँव में
एक ऐसा फ़रिश्ता है
जो मरहम से गीत गाता है
कि जिसके क़दमों की आहट से
वसंत बागों में उतर आता है
ए खुदा!
क्या कहीं कोई दरख़्त है
जिससे गले लग कर
तन्हाई ख़त्म सी हो जाती हो
कि जिसकी छाँव तले
इश्क फिर से पनपता है
ए खुदा!
कहते हैं तेरा दिल बड़ा है
तेरे दिल में मेरे लिए
बस थोड़ी सी रहमत नहीं हो सकती
जिंदगी जब मौत से मिलती हो
उस वक़्त मुझे थोड़ी सी खुशियाँ दे सकेगा
ए खुदा!
सब्र करने को, जज़्ब करने को
पल जीने, पल पल मरने को
बहुत लम्बी उम्र दिखती है
मेरे लिए दुआ मांगने
किसी को नहीं भेजा तूने
ए खुदा!
सुना है तुझे वो फ़रिश्ता
बहुत अजीज़ है
मेरी फरियाद सुन...
उससे कह कि वो गीत गाये
उससे कह कभी मेरे गाँव भी आये...
22 January, 2010
जिंदगी का एक दिन
१२ बजे इंटरव्यू (जिसमें सवा बारह बजे पहुंची, कर्टसी एक लोकल नेता जो फुल लाल बत्ती में चिल्ला चिल्ला के जा रहा था, सोचती हूँ, ऐसे किसी अमबुलंस के किये ट्राफिक क्यों नहीं रुकता कभी)
एक बजे घर पहुंची, दो ब्रेड टोस्ट कर के चोखा के साथ खायी(जिनको चोखा का मतलब मालूम नहीं हैं, मेरा ब्लॉग पढ़ना अभी बंद करें, किसी बिहारी दोस्त के यहाँ धावा बोलें और लिट्टी चोखा, या खिचड़ी और चोखा बनवा के खाएं, खिचड़ी खाने के लिए शनिवार शुभ दिन है, गृह कटता है पर लिट्टी चोखा कभी भी चलेगा और वैसे भी वीकेंड है)
२:०० ड्राइविंग क्लास्सेस मारुती ड्राईविंग स्कूल में(वो कमबख्त बिल्ली जिसने दो बार मेरा कार सीखते समय रास्ता काटा, कहीं मिल जाए तो कार से चीप ही देंगे अबरी पक्का...या उसका मालिक अगर हो और अगर हमको मिल जाए तो पांच हज़ार दो सो पचास रुपये उससे वसूल लेंगे)
पहुंचे सवा दो के लगभग और बिल्ली की तरह दबे पांव घुसे क्लास में, प्रेजेन्टेशन के लिए किये गए अँधेरे का भरपूर फायदा उठाते हुए सीट पर विराजमान हुए। एयर कंडिशनर से आती मंद मंद पवन, अँधेरा और पेट में हाल फिलहाल पहुंचा खाना, ऐसी नींद आ रही थी की क्या बताएं। बमुश्किल क्लास पर ध्यान दिए, थ्योरी क्लास बहुत दिन बाद कर रहे थे।
साढ़े चार में क्लास ख़त्म हुआ और simulator पर आधे घंटे का क्लास करने गए। simulator एक डब्बेनुमा डब्बा होता है जिसमें कार का इंजन फिट होता है और बाकी कंट्रोल्स कार के ही होते हैं, सामने विडियो स्क्रीन होती है जिसपर रास्ता आता है। विडियो गेम की तरह...बस ये गेम मज़ेदार नहीं होके बड़ा पेनफुल एक्सपेरिएंस होता है...क्लच गियर वगैरह बदलने में इतनी मेहनत करो और डब्बा वहीं का वहीं। (उसमें पहिये नहीं होते)
सवा पाँच में घर पहुंची, भूख के बारे पेट में चूहे और बिल्ली दोनों दौड़ रहे थे फटाफट आलू पराठा बनाये तो देखे फ़ोन में पीडी का मिस कॉल था...भूख ऐसी लगी थी की पहले एक पराठा खाए साथ में पीडी से बतियाये भी, फिर फ़ोन पर ही दूसरा पराठा बनाये.(मतलब पराठा बनाते टाइम भी बात कर रहे थे) वो भला इंसान मेरे लिए परेशान हो रहा था, और हम खाने के लिए हलकान हो रहे थे...तो दोनों काम एक साथ कर लिए।
६ बजे से गिटार क्लास थी, आज दिन भर में टाइम ही नहीं मिला प्रक्टिस करने का, दुखी आत्मा टाईप निकल लिए की आज तो धोपन खायेंगे ही सर से...और खाए भी। कल का होमेवोर्क नहीं किये थे...कुछ बजा ही नहीं ठीक से। पर धीरे धीरे बजेगा ऐसा मुझे भरोसा है :)
दिन भर आना जाना लगा रहा...अभी हवा पी रहे हैं।
इसी दिन भर में सागर को PR के बारे में ज्ञान भी दे दिए, उस ज्ञान का उपयोग करते हुए वो हमको एक लिंक भी भेज मारा, तो पोस्ट भी पढ़ लिए...गज़ब लिखता है लड़का, एकदम्मे गज़ब।
कुल मिला के आज बहुत काम किये हैं हम। शाब्बाश!
20 January, 2010
उलझनें
जिसके पात्र अचानक से कहीं चले गए हैं
और मैं स्टेज पर मौन हूँ
अकेली भी हूँ, और कहने को कुछ ढूंढ रही हूँ
फिल्म विथिन अ फिल्म
जब शब्द ना हों तो मुझे बहुत परेशानी होती है
ये शब्द ही इस दुनिया से जुड़े तंतु हैं
अचानक से माईम आर्टिस्ट कैसे बन जाऊं मैं
मैं चाहती हूँ कोई समझे
कि मैं क्यों बाईक ८० पर चलाती हूँ
कभी कभी
और गाने क्यों सुनती हूँ अँधेरे कमरे में
क्यों साफ़ करने लगती हूँ अलमारियां
क्यों बाल्टी भर कपड़े धो डालती हूँ
क्या ये मौन पात्र नहीं हैं
जिंदगी की फिल्म के फ्रेम का हिस्सा
जब बोलती नहीं हूँ
कलम भी नहीं चलती है
जब सोच में शब्द नहीं होते हैं
कोहरे में छिपे दृश्य होते हैं बस
इन्हें किसी कैनवास पर उतार दूं शायद
क्या मुझसे पेंटिंग हो पाएगी?
रंगों को देखती हूँ तो अचानक से
सब ब्लैक वाईट और ग्रे में बदल जाते हैं
अचानक से मैं खो देती हूँ अपनी आँखें
क्या रंगों को छू कर अलग रंगों का पता चल सकता है?
संगीत अपनी लय खो देता है
मुझे वक़्त का आभास होना बंद हो जाता है
इसलिए ताल नहीं दे सकती मैं
तीनताल, दादरा, कहरवा, दुगुन, तिगुन
सब अनजान हो जाते हैं मेरे लिए
खोयी हुयी दुनिया के खोये शब्द
मैं सृजन करना चाहती हूँ
शायद माँ बनना भी चाहती हूँ
ताकि अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ कर
मैं अपनी दुनिया वापस पा सकूँ
जब कोई किरदार नहीं रहे मेरी फिल्म में
मैं एक किरदार पैदा करना चाहती हूँ
औरत हूँ मैं, जिंदगी जन्म दे सकती हूँ
और उसके इर्द गिर्द काट सकती हूँ बाकी समय
बिना गिने हुए, बिना देखे हुए
सिर्फ छू कर...
राधा का भी प्रेम था, यशोदा का भी
कृष्ण ने दोनों को बिछोह दिया
मैं अपने कृष्ण को कहाँ ढूंढ रही हूँ...
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मुझे लगता है मैं पागल हो जाउंगी बहुत जल्दी।
18 January, 2010
यूँ जिंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
ऐसे में अचानक से, बस ऐसे ही सिगरेट पीना चाहती हूँ। मुझे अब इस बात पर यकीन होने लगा है की लोग सिगरेट सबसे ज्यादा बोरियत में पीते होंगे। शायद ऐसा भी लगता है की सिगरेट पीना कहीं ना कहीं खुद को किसी बात के लिए सजा देने के लिए भी पी जाती है। जहर पी के जिन्दा रहना मुमकिन नहीं है ना, इसलिए...धीमा जहर। जो एकदम से मौत नहीं देता, पर इस बात की गारंटी देता है की एक ना एक दिन मौत चुपचाप आके अपने आगोश में ले लेगी।
मुझे शब्द शोर सा लगने लगे हैं, नाकाबिले बर्दाश्त...पढ़ना मुश्किल हो रहा है। एक अजीब सा निर्वात है जिसे किसी चीज़ से भरने में खुद को असफल पा रही हूँ। पहले संगीत या किताबें बिलकुल से ऐसे अजीब विचार मुझे से दूर रखती थीं पर अब नहीं हो पा रहा है। कोई ब्रेक चाहिए मगर किस चीज़ से...क्या अपनेआप से?
कितना आसान होता अगर कभी हम किसी और की जिंदगी जी सकते किसी से यादें स्वैप कर सकते। मैं कुछ पल कुछ और सोच सकती, कोई और सपने देख सकती...
मार्लबोरो लाईट्स का नया डब्बा रखा हुआ है मेज की दराज में कई कागजों के नीचे...उस भरी दराज में बहुत कुछ है, तसवीरें, बिल्स, atm की रसीदें, खुदरा सिक्के, और ढेरों आलतू फालतू चीज़ें। जिस दिन मैं अपने आलस को दूर कर सकुंगी, वो डिब्बा ढूंढ सकुंगी...मगर उसके बाद शायद मेरे बिखरे पड़े घर में लाईटर या माचिस ढूंढना आसान नहीं होगा। बहुत साल हुए उस दिन को...जब लाईटर ख़रीदा था और सिगरेट सुलगाई थी, उसी दिन ये वादा भी तो किया था की इस लाईटर के ख़त्म होने के बाद कभी कोई सिगरेट नहीं पियूंगी। तभी घर के किसी कोने में फेंका था उसे...
पुरानी डायरियों में ये भी देखा था की मुझे भगवान पे बहुत विश्वास था...और बहुत सपने भी थे।
पैक में २० सिगरेट हैं जो पी नहीं, पर साथ में लाये १० चुईंग गम कब के ख़त्म हो चुके हैं, चलूँ कुछ चिल्गम खरीद के रखती हूँ, अगली बार जब सिगरेट पीने की इच्छा जागे उसके लिए।
ये एक शेर, जाने किसका है...उस बेतरह आती याद के लिए जो मुझे जीने नहीं देती।
यूँ जिंदगी गुजार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं।
15 January, 2010
उसका नाम पम्मी था
अब इस नाम को सुने इतने दिन बीत जाते हैं की आश्चर्य होता है, शायद कुछ दिन बाद मैं भूल ही जाऊं की मेरा कोई और नाम भी है...कोई अपना सा नाम...जिससे शीशम के पेड़ों की याद आती है, झूले की भी। पर इस नाम से सबसे ज्यादा याद आती है मम्मी की। मैं मम्मी को increasing आर्डर में अगर चिल्ला के बुला रही होती थी तो शुरू होता था मम्मीS , माँSS और आखिर में बस मीSSSS . और ये चिल्लाना हल्ला करना लगभग एक बार रोज तो हो ही जाता था।
दिल्ली आने के बाद रोज आधा घंटा सुबह, और लगभग एक घंटा रात को बात करते ही थे मम्मी से। जब से मम्मी नहीं है, रोज रात को छटपटा जाते हैं बात करने के लिए। कितना भी चाहूँ किसी और बात पर ध्यान लगाना, नहीं कर पाती। कई बार सोते वक़्त लगता है बहुत दिन हो गए मम्मी से बात नहीं किये हैं। फिर अचानक से याद आता है की अब जहाँ मम्मी है वहां तक कोई नेटवर्क नहीं जाता है।
जो लोग कहते हैं की वक़्त के साथ जख्म भर जाते हैं, झूठ कहते हैं...कुछ जख्म कभी नहीं भरते वक़्त के साथ और गहरे हो जाते हैं, हलकी सी चोट पहले से कहीं ज्यादा दर्द देती है। और दर्द की कोई दवा मुझे मालूम नहीं है। मुझे नहीं पता की ये पहाड़ सी दिखती जिंदगी मैं मम्मी के बिना कैसे काटूँगी...हर चीज़ में उसकी याद आती है।
मुझे ना तो उसके जैसी बादाम की चटनी बनानी आई इतने दिनों में, ना बादाम की चटनी के बिना आलू पराठा खाना आया...ना मुझे सांभर पसंद आता है ना कढ़ी...ना भुजिया ना मूढ़ी। परेशान हो गयी हूँ, खाने में से स्वाद आखिर कहाँ चला गया है?
किसी को खूबसूरत सा स्वेटर पहने देखती हूँ तो टीस उठती है की अभी मम्मी होती तो बस दिखाना भर था और स्वेटर बन के आ जाता। हर ठंढ में कितने स्वेटर, मोज़े, स्कार्फ सब बना देती थी। अब जबसे मम्मी नहीं है, ठंढ ही लगनी बंद हो गयी है। ठंढ का मौसम भी कितना रूखा सा हो गया है। पहले ठंढ का मतलब होता था मम्मी से जिद करके ऐसा कुछ बनवाना जो किसी के पास ना होता हो।
कोई परेशानी, दुःख, ख़ुशी...सब कुछ तो बात कर सकती थी माँ से। अब जैसे अचानक से कुछ नहीं रहा। सब टूट के बिखर गया है।
जो लोग कहते हैं की प्यार सब कुछ होता है जिंदगी में, झूठ कहते हैं। जिंदगी में सब कुछ बस माँ होती है। बस।
तुम्हारी बहुत याद आती है मम्मी।
11 January, 2010
बस इक उस के जैसा दूसरा चाहता है
बस इक उस के जैसा दूसरा चाहता है
जख्म कितने मिलें मुझको परवा नहीं
उसके होठों पे मेरी दुआ चाहता है
कब रही जिंदगी अपने अरमानों सी
मौत वो एक हसीं ख्वाब सा चाहता है
हर शख्स से कुछ मिलता है उसका तसव्वुर
वो अपनी आँखों में पर्दा नया चाहता है
बहुत दिन हुए तेरा नाम होठों पे आये
बीता अरसा अब धड़कनें सुनना चाहता है
कल खोले थे मैंने डायरी के पन्ने
हर लफ्ज़ अब ग़ज़ल बनना चाहता है
तुम पुकारो नहीं फिर भी लौट आऊं मैं
कोई ऐसी वजह ढूंढना चाहता है
कतरे कतरे में बिखरा हुआ इश्क है
दिल्ली में वैसे ही बिखरना चाहता है
07 January, 2010
सोचिये तो लगता है भीड़ में हैं सब तनहा
फ्लाईट पर खिड़की से कोहनी टिका के
कमबख्त चाँद भी तुम्हारी तरह पास होने का धोखा देता है
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हवाईजहाज से आसमान भी space जैसा दिखता है रात को
चांदनी में लिपटे बादल शनि के छल्लों जैसे
और अचानक जैसे हवाईजहाज टाईम मशीन हो जाता है
लगता है स्वर्ग यहाँ से कुछ ज्यादा नज़दीक होगा
सोचती हूँ भगवान के हाथ एक मेसेज भिजवा दूं
"तुम बहुत याद आती हो मम्मी, इतने दिनों बाद भी उतनी ही"
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मेरे बचपन के भी किस्से रहे होंगे
कुछ खूबसूरती के, कुछ शैतानियों वाले
कुछ कपड़े लत्तों के, पसंदीदा मिठाइयों के
घूमने फिरने के, रोने धोने के
माँ के जाने के साथ बचपन के सारे किस्से चले जाते हैं।
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आज मैंने भी डायरी के कुछ पुराने पन्ने पढ़े, और जी भर के उन सारे लोगों को एक सिरे से कोसा जो कहीं खो गए हैं, गुमशुदा से कुछ लम्हे मिले आँखें नाम करने वाले। dairy मिल्क के कुछ rappers, कुछ स्टिकर्स, एक सूखा हुआ फूल...कुछ मरे कॉकरोच।
और मिली माँ की ढेर सी चिट्ठियां, हिम्मत नहीं हुयी उन्हें खोल कर पढने की...बस लिखावट को देखा और टीसते दर्द को डायरी के साथ बंद कर दिया।
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किसी ज़माने में एक सीरियल आता था, तनहा...उसका टाइटल गाना बहुत ढूँढा और आज मिल ही गया...मुझे बेहद पसंद है, शायद आपको भी हो...
देखिये तो लगता है, जिंदगी की राहों में,
एक भीड़ चलती है...
सोचिये तो लगता है, भीड़ में है सब तनहा...