23 February, 2010

टहलती हुयी एक शाम के लफ्ज़

सड़क पर बहुत से पत्ते गिरे हुए हैं
और इनकी अजीब सी खुशबू में चल रही हूँ

पैर घसीटते, किसी ख्याल में गुम
किसी याद को पकड़ रही हूँ, कमबख्त
हाथ ही नहीं आ रही मेरे...

आँखों में भर लूं कुछ खुशियों के लम्हे
बंगलोर का ये उदास और तनहा मौसम
जो अब बेहद रास आने लगा है मुझे

अपनी बाइक. खुले बाल
महीन सी काजल की रेखा
और एक घड़ी, सफ़ेद बेल्ट वाली

ढेर सारी किताबों वाला रैक
याद करने की कोशिश करती हूँ
किताबों की अपनी अपनी जगह

पार्क की सीढ़ियों पर
कल ही तो बैठे थे
हम, मूंगफली खाते हुए

सूखने के पहले पत्ते लाल,
और फिर जाके पीले होते हैं
शाम की धूप में नए दीखते हैं

और पत्तों का गिरना जैसे जादू
गीत के बोल आपस में गुंथ गए हैं
कदम ताल में मिलने की कोशिश में

रात दूर तक कार चलायी
सब के साथ, रेडियो के साथ भी
ढाई बजे की हवा भी बड़ी प्यारी थी

कुछ आधे घंटे भर चली होउंगी मैं
पार्क के पास वाले पेवमेंट पर
और कितना कुछ याद रह गया

बीता हुआ लम्हा लौट आता है
कितना कितना कुछ लेकर
सहेज देती हूँ...बाद में अच्छा लगे शायद

आखिर जिंदगी की रील में
कुछ ही तो शोट्स होते हैं
दोहराने लायक...आगे पीछे...बार बार

11 comments:

  1. बहुत सहजता से लिखीं हैं यादें...खूबसूरत

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  2. बहुत अच्छी रचना। बधाई।

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  3. बंगलोर का मौसम सम तो है पर उदास नहीं | सबको उन्मुक्तता से आमंत्रित करता है पूरे २४ घंटे दिन में | न कंपकपाती ठण्ड और न ही लू के थपेड़े मारती गर्मी | यहाँ रह कर ऐसा लगता है की मौसम ने किसी को disturb न करने का मन बना लिया है | जूझने के लिए सब कुछ है मौसम के सिवाय |

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  4. तुम्हारे ही शब्दों में, "बैंगलोर का मौसम हमेशा जैसे पहले इश्क कि याद दिला जाये".. तभी मुझे बैंगलोर पसंद नहीं है.. और वैसे भी तब जब पहला इश्क वही उसी पहाड़ी वाले शहर के इर्द-गिर्द बुना गया हो..

    वैसे कविता खूब कही..

    ऊपर तुम्हारी तस्वीर देख कर तुम्हारा ही एक पोस्ट याद आ गया.. शायद "फिदा" नाम था उस पोस्ट का.. आज से २-३ साल पहले लिखी थी.. वो चश्मा इस फोटो में नहीं दिख रहा है?

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  5. सेंटियाना एक सामजिक अपराध है ....इन्फेकशीयस होता है

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  6. अरे बाप रे ! एकदम मूड में हो ... टोकना ठीक नहीं होगा ऐसे में...

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  7. हर रंग को आपने बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  8. achha laga jaankar ki banglore pasand aa raha hai..warna delhi delhi hi sunta tha ;)

    wasie mujhe bhi aajkal bombay pasand aa raha hai..hota hai shayad..hum dhhere dheere dhalte jaate hain..pahle resisit karte hain fir dhhere dheere ghulte jate hain...

    tumhre tarkash se nikli ek aur bahut pyari kavita :)

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  9. पता नहीं आपके ब्‍लॉग पर पहली बार आये हैं या फि‍र से पर दि‍ल चाहता है उस टेग पर कहूं जि‍से आपने 'कवि‍ता सा कुछ' कहा है। मैंने भी उसे गजलनुमा और कई तरह के शब्‍द दि‍ये हैं। क्‍या पता कौन कब सवाल कर बैठे कि‍ गजल में गजल नहीं है, कवि‍ता में अकवि‍ता है, और यहां अपने पर यकीन भी कम है इस बात के लि‍ये कि‍ लोगों से कुछ अपेक्षा भी कि‍ जाये और उनका ध्‍यान भी ना रखा जाये। खैर आपके ब्‍लॉग पर दि‍ल की बात कहने का जी कि‍या और कुछ अपनापन सा महसूस हुआ... खुद से आशा करते हैं कि‍ आपको पढ़ने में बुरा नहीं लगेगा...

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