SABSE PEECHE HUM K... |
आज सबसे पहले ये गाना...बहुत दिन बाद कोई ऐसा गीत सुना है जो सुबह से थिरक रहा है मन में...वैसे तो ये गाना पहले भी सुना है, पर आज बहुत दिनों बाद फ़िर सुना...सिल्क रूट ने गाया है और गीत के बोल कुछ यूँ शुरू होते हैं...
जरा नज़र उठा के देखो
बैठे हैं हम यहीं
बेखबर मुझसे क्यों हो
इतने बुरे भी हम नहीं
ज़माने की बातों में उलझो ना
है ये आसान जानना
ख़ुद से अगर जो तुम पूछो
है हम तुम्हारे की नहीं
तेरी आंखों का जादू पूरी दुनिया पे है
दुनिया की इस भीड़ में, सबसे पीछे हम खड़े...
बिल्कुल फुर्सत में इत्मीनान से गाया हुआ गीत लगता है, कोई बनावटीपन नहीं, शब्द भी जैसे अनायास ही लिखे गए हैं...जैसे दिल की बात हो सीधे, कोई घुमा फिरा के नहीं कहना...बिल्कुल सीधा सादा सच्चा सा। और मुझे इस गीत का गिटार बहुत अच्छा लगता है, और माउथ ओरगन भी।
आज पूरे दिन सुना...कभी कभी सोचती हूँ की अगर मैं एक दिन अपना headphone गुमा दूँ तो मेरे ऑफिस के बेचारे बाकी लोगों का क्या होगा :)
सुबह बंगलोर में बारिश हो रही थी...बारिश क्या बिल्कुल फुहार...ऐसी जो मन को भिगोती है, तन को नहीं। बहुत कुछ पहले प्यार की तरह, उसमें बाईक चलाने का जो मज़ा था की आहा...क्या कहें। और आज सारे ट्रैफिक और बारिश और सुहाने मौसम के बावजूद मैं टाईम पर ऑफिस पहुँच गई तो दिल हैप्पी भी था। उसपर ये प्यारा गीत, काम करने में बड़ा मज़ा आया...जल्दी जल्दी निपट भी गए सारे।
वापसी में कुछ ख़ास काम नहीं था, सब्जी वगैरह खरीद कर घर तक आ गई...बस घर का यही एक मोड़ होता है जहाँ एक कशमकश उठती है...समझदार दिमाग कहता है, घर जाओ, जल्दी खाना बनाओ...और जल्दी सो जाओ, इतनी मुश्किल से एक दिन तो ऑफिस से टाइम पर आई हो...थोड़ा आराम मिलेगा शरीर को...मगर इस शरीर में एक पागल सा दिल भी तो है, एक बावरी का...तो दिल मचल जाता है...मौसम है, मूड है, पेट्रोल टंकी भी फुल है...यानि कोई बहाना नहीं।
तो आज मैं फ़िर से बाईक उडाती चल दी सड़कों पर, होठों पर यही गीत फुल वोल्यूम में, और गाड़ी के एक्सीलेटर पर हाथ मस्ती में, ब्रेक वाली उँगलियाँ थिरकन के अंदाज में। कुछ अंधेरे रास्ते, घर लौटते लोग...हड़बड़ी में...सबको कहीं न कहीं पहुंचना है। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं है, मेरी कोई मंजिल नहीं है जहाँ पहुँचने की चाह हो...ऐसे में सफर का मज़ा ही कुछ और होता है। ऐसे में खास तौर से दिखता है की बंगलोर में लोग घर कितने खूबसूरत बनाते हैं, कितना प्यार उड़ेलते हैं एक एक रंग पर...
कम सोचती हूँ...पर कभी कभार सोचती हूँ, ख़ुद की तरह कम लड़कियों को क्यों देखा है...जो इच्छा होने पर जोर से गा सके, सीटी बजा सके, लड़के को छेड़ सके ;) उसके बगल से फर्राटे से गाड़ी भगा सके...कहाँ हैं वो लड़कियां जो मेरी दोस्त बनने के लिए इस जहाँ में आई हैं। जिन्हें मेरा पागलपन समझ में आता है...जो मेरी तरह हैं...जो इन बातों पर हँस सके...छोटी छोटी बात है...पर कई बार छोटी सी बात में ही कोई बड़ी आफत छिपी होती है। खैर, उम्मीद है मेरी ये दोस्तें मुझे इसी जन्म में कभी मिल जायेंगी।
इस सिलसिले में ऐसे ही एक लड़की से मिलने का किस्सा याद आता है...जेएनयू में मेरा तीसरा दिन था...और जोर से बारिश हुयी थी। बारिश होते ही सारे लड़कियां भाग कर हॉस्टल में चली गई थी, एक मैं थी की पूरे कैम्पस में खुशी से नाच रही थी, पानी के गड्ढों में कूद रही थी, बारिश को चेहरे पर महसूस कर रही थी। IIMC कैम्पस की वो बारिश जब सब स्ट्रीट लैंप की पीली रौशनी में नहा गया था, चाँद भीगी लटों को झटक रहा था, उसकी हर लट एक बादल बन जाती और बारिश थोडी और तेज हो जाती। तभी बारिश में मैंने एक और लड़की को देखा...वैसे ही भीगती हुयी, खिलखिलाती हुयी, खुश अपनेआप से और बारिश से...हमने एक दूसरे को देखा और मुस्कुरा दिए...वहीँ से एक दोस्ती की शुरुआत हुयी, मेरी दिल्ली में पहली दोस्त।
और उस वक्त मैं उसके नाम को महज एक अलग नाम के होने से जान सकी थी...पर आज जानती हूँ की वो वैसी क्यों थी...उसका नाम था 'बोस्की'
गुलजार की नज्मों की तरह...एक अलग सी, मुझ जैसी लड़की...
आज जाने वो कहाँ है, पर आज भी बारिश होती है रात को, और पूर्णिमा होती है तो मुझे उसकी याद आ जाती है। आज ऐसी ही एक रात थी। तुम जाने कहाँ हो बोस्की...पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...उम्मीद है तुम वैसी ही होगी...और दिल्ली की बारिशों में शायद तुमने भी मुझे याद किया होगा।