27 January, 2009

ख्वाहिशों का आँगन

ख्वाहिशों के आँगन में
एक पौधा मेरा भी...

दूसरे महले पर तुम्हारा कमरा है
उसकी खिड़की तक पहुंचना है
रात को तुम्हारे ख्वाबों में
खुशबू बन आने के लिए...

सूरज से झगडा कर
तुम्हारी आंखों पर
एक भीना परदा डालने को
उस खिड़की पर फूलना है मुझे...

बारिश की फुहार
मुझे छू कर ही तुम तक पहुंचे
उस हलकी बहती हवा में
यूँ ही झूमना है मुझे...

जाडों में तुम्हारे साथ
थोडी धूप तापनी है मुझको भी
गर्मियों में तुम्हारे लिए
वो चाँद बुलाना है...
ये ख्वाहिशों का आँगन क्या
तुम्हें जीने का बहाना है...

25 January, 2009

मुकम्मल


कोई तो बात होगी तुममें

जो तुमसे मिलकर...

जिंदगी मुकम्मल लगने लगी


हाशिये पर बिखरे पड़े अल्फाज़

खतों की मानिंद सुकून देने लगे

जिस रोज़ तुमने इन पन्नो को हाथ में उठाया


वो आधी नींद की बेहोशी में खटके से उठना

रुक गया है...

मैं पुरसुकून ख्वाबों के आगोश में ही जागती हूँ


वो लब जिनपर आंसू थामे रहते थे

तेरे नाम की सरगोशी से

मुस्कुराने लगे हैं...


तुममें ऐसी कितनी बातें हैं जान...

कि तुमसे मिलकर

जिंदगी मुकम्मल लगने लगी है।






24 January, 2009

किसी मोड़ पर



बहुत जरूरी है कि हमें याद रहे

भूलना...

ताकि वक़्त वक़्त पर

हम एक दूसरे को उलाहना दे सकें

पैमानों में नाप सकें प्यार को

और हिसाब लगा कर कह सकें

कि किसका प्यार ज्यादा है...


बहुत जरूरी है

किसी मोड़ पर बिछड़ना

ताकि फ़िर किसी राह पर

मिलने कि उम्मीद बरक़रार रहे

और हम अपने कदम दर कदम बढ़ते रहे

चाहे उन क़दमों से फासले ही क्यों न बढें


बहुत जरूरी है

अपने दरमयान एक दूरी रखना

अपने वजूद को जिन्दा रखने के लिए

क्योंकि अगर जिन्दा रहेंगे हम दोनों

तभी to रहेगा प्यार...हमारे बीच

अगर ये बीच की दूरी ही न रहे

प्यार का वजूद भी नहीं होगा...


इसलिए मेरे हमसफ़र
आज दो नई राहें चुनते हैं
और उनपर बढ़ते हैं

ताकि अगर कहीं हम आगे जा कर मिले

तो हमारे पास दो कहानियाँ होंगी

और अगर हम बहुत दूर चले गए

तो वापस आ जायेंगे

बस हमें अपने प्यार पर भरोसा रखना होगा

कि हम लौट कर आ सकें

और अगर कोई पहले पहुँच जाए

तो इंतज़ार करे

प्यार में सबसे खूबसूरत

इंतज़ार ही तो होता है...नहीं?

22 January, 2009

बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल...और हम :)


कल बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल का समापन था .कुछ अपरिहार्य कारणों ने मुझे रोक दिया...वरना मैं जरूर जाती। गुलाबी टाकीस देखने का मेरा बड़ा मन था। और कुछ और भी अच्छी फिल्में आ रही थी ।

बरहाल...वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। लालबाग के पास विज़न सिनेमा में फेस्टिवल चल रहा था। रजिस्ट्रेशन फी ५०० रुपये थी रजिस्टर होने के बाद एक आई कार्ड और एक बुकलेट मिली जिसमें प्रर्दशित होने वाली सभी फिल्मो के बारे में जानकारी थी...खास तौर से कौन से अवार्ड्स मिले वगैरह और कहानी के बारे में थोड़ा आईडिया...ये काफ़ी अच्छी था क्योंकि एक साथ दो फिल्में प्रर्दशित हो रही थी, तो ये निश्चय करना की कौन सी देखूँ आसान हो जाता था।


मुझे आश्चर्य लगा ये देखकर कि हॉल लगभग हाउसफुल था, मुश्किल से कुछ ही सीट खाली होंगी। मैंने नहीं सोचा था कि बंगलोर में ऐसे फिल्मों के लिए भी दर्शक मौजूद हैं। ये मेरा किसी फ़िल्म फेस्टिवल का पहला अनुभव था, और पहली बार अकेले फ़िल्म देखने का भी। दोनों अनुभव अच्छे रहे मेरे :) तो मैं निश्चिंत हूँ, कि फ़िर से कहीं ऐसा हो तो मैं जा सकती हूँ। फ़िल्म देखने वाले लोगों में महिलाएं भी बहुत थी और बाकी की भीड़ में कॉलेज स्टुडेंट से लेकर वयोवृद्ध पुरूष और महिलाएं भी दिखी। इतने सारे लोगों के बीच होना भी अच्छा लगा। बहुत दिन बाद फ़िर से लगा कि IIMC के दिन लौट आए हैं, जैसे इस वक्त कोई फ़िल्म देख कर निकलते थे तो लगता था कि कुछ तो अलग है...ये सोच कर भी मज़ा आता था कि इन लोगो के दिमाग में क्या चल रहा होगा।

आज एक फिल की चर्चा करना चाहूंगी...फ़िल्म बंगलादेश की थी...नाम था रुपान्तर. फ़िल्म में एक डाइरेक्टर एकलव्य पर एक फ़िल्म बना रहा है, गुरुदक्षिणा, कहानी जैसा कि हम सभी जानते हैं महाभारत काल की है और द्रोणाचार्य के एकलव्य के अंगूठे को गुरुदक्षिणा के रूप में मांगने की है. डायरेक्टर शूट करने एक संथाल गाँव के पास की लोकेशन पर जाता है, वहां शूटिंग देखने गाँव से कई लोग आए हुए हैं. पर जब शूटिंग शुरू होती है और एकलव्य तीर चलाता है तो लोग प्रतिरोध करते हैं और कहते हैं कि उसका तीर पकड़ने का तरीका ग़लत है, तीर को अंगूठे और पहली अंगुली नहीं, पहली ऊँगली और बीच की ऊँगली से पकड़ते हैं. यह सुनकर डायरेक्टर चकित होता है और इस बारे में रिसर्च करता है. वह पाता है कि वाकई तीरंदाजी में अंगूठे का कोई काम ही नहीं है. इससे उसकी पूरी कहानी ही गडबडाने लगती है...और शूटिंग रुकने वाली होती है.

शाम को इसी समस्या पर यूनिट के लोग भी मिल कर चर्चा करते हैं , पुराने ग्रंथों में भी कहीं भी तीर को कैसे पकड़ते हैं के बारे में जानकारी नहीं है. इस चर्चा के दौरान एक लड़की सुझाव देती है कि हो सकता है समय के साथ तीरंदाजी करने के तरीकों में बदलाव आया हो, उसकी ये बात निर्देशक को ठीक लगती है और वह उसपर सोचने लगता है. और आख़िर में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हो सकता है तीरंदाजी वक्त के साथ बदली हो. इसी बदलाव को वह फ़िल्म का हिस्सा बनाता है...कहानी ऐसे बढती है...

जब एकलव्य के बाकी साथियों को पता चला कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में लिया है और अब एकलव्य तीर नहीं चला सकता तो वो निर्णय लेते हैं कि वो भी तीर धनुष नहीं उठाएंगे. इस बात पर एकलव्य उन्हीं रोकता है और वो वचन देते हैं कि वो उसकी आज्ञा का पालन करेंगे. यहीं पर बाकी के भील निर्णय लेते हैं कि वो भी बिना अंगूठे का इस्तेमाल किए तीर चलाएंगे. उनके लिए ये बहुत मुश्किल होता है, वो बार बार असफल होते हैं...पर उनका कहना है कि अगर हम असफल हुए तो हमारे बेटे कोशिश करेंगे अगर वो भी असफल हुए तो भी आने वाली पीढियां इसी तरह से तीरंदाजी करेंगी, अंगूठे का प्रयोग वर्जित होगा.

इतिहास में कहीं भी दर्ज नहीं है कि पहली बार सफलता किसे मिली, पर उनकी कोशिशों के कारण आज एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बदला ले लिया गया है. और तीरंदाजी में कहीं भी अंगूठे का इस्तेमाल नहीं होता.

कहानी बहुत अलग सी लगी इसमें निर्देशक कहता भी है...कि वास्तव में क्या हुआ ये पता करना इतिहासकारों का काम है...पर मैं एक कल्पना तो दिखा ही सकता हूँ. यह एक फ़िल्म में फ़िल्म की शूटिंग है. पात्र और उनकी एक्टिंग बिल्कुल वास्तविक लगती है. कहानी की रफ़्तार थोडी धीमी है पर इसे बहुत बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.

बॉलीवुड फिल्मो की चमक दमक के बाद ऐसी यथार्थपरक फ़िल्म देखना एक बेहद सुखद अनुभव रहा. अगर आपको भी ये फ़िल्म किसी स्टोर पर मिलती है तो देखें, वाकई अच्छी है.

21 January, 2009

दर्द-ऐ लैपटॉप

मेरा लैपटॉप आजकल दर्दे दिल दर्दे जिगर हो गया है...बिल्कुल निर्मोही है, बिल्कुल ख्याल नहीं करता की बिना ब्लॉग्गिंग किए मेरा क्या हाल होगा। सारे webpages खोलता है बस ब्लॉगर देखकर ऐसे भड़क जाता है जैसे लाल कपड़ा देखकर सांड...ऐसा हैन्ग होता है जैसे कविता सुनकर चने के झाड़ पर चढा हुआ कवि...बस वही अटक के रह जाता है, नीचे उतरने का नाम ही नहीं लेता।

कितने मान मनुहार करूँ, बाज नहीं आता...सारे घर में झाडू पोछा हो या नहीं इसका स्क्रीन हमेशा साफ़ रखती हूँ, और तो और ब्रश लेकर keypad तक साफ़ करती हूँ...इतने प्यार से अपने डेस्कटॉप को रखा होता तो गुलामी करता मेरी और ये कमबख्त भाव खा रहा है।

उसपर दिल है की मानता नहीं...कितनी बार सोचा कि कॉपी पर लिख कर काम चला लूँ, आख़िर कलम पकड़े बरसों बीत जाते हैं, डायरी बस देखती है और आहें भरती है, उसे अपने हालात का पूरा अहसास है, बेचारी अब तो शिकायत भी नहीं करती। और एक जमाना हुआ करता था जब हमारी जान रहती थी उन जर्द पड़े पीले पन्नों में। कितने लोग ये सोचते सोचते उम्र गुजर देते हैं कि आख़िर उस डायरी में था क्या...अब पीडी को ही देख लीजिये और सब जानते हैं कि डायरी उड़ा कर पढने में जो मज़ा है वो लैपटॉप का पासवर्ड क्रैक कर के पढने में कहाँ। और हम जो ये भी नहीं जानते कि लड़कियां हिडेन फाइल बना कर अपने दिल कि बात लिखती हैं या नहीं...या पर्सनल ब्लॉग पर...इसके बारे में शायद हमें पता है।

इस मुश्किल से पिछली बार पाला पड़ा था तो लम्बी चौडी मुहिम छेडी थी बड़ी मुश्किल से टेम्पलेट बदल वदल के हालत कुछ काबू में आए थे...पर इस बार मुझे कोई उपरी चक्कर लगता है।

बरहाल मैंने कुछ उपाय सोचे हैं इस समस्या से निजात पाने को...आपको जो सही लगे कृपया वोट करें, जिस अन्स्वेर को मक्सिमुम वोट मिलेंगे हम वही करेंगे। आप अपने उपाय भी दे सकते हैं...कौन जाने किस उपाय से ये ब्लॉग्गिंग ठीक से होने लगे...

तो ये रहे ऑप्शंस
  1. बाल्टी में गुनगुना पानी लें, उसमें दो चम्मच सर्फ़ एक्सेल डाल दें अब इसमें लैपटॉप को तब तक डुबाये रखें जब तक उसमें लहरें न उठने लगें। ध्यान रहे लैपटॉप पूरी तरह पानी के अन्दर होना चाहिए।
  2. लैपटॉप को बालकनी से बन्जी जम्पिंग कराएं। इसके लिए आप लैपटॉप चार्जर कॉर्ड का भी इस्तेमाल कर सकते हैं वरना अलगनी पर की रस्सी भी चलेगी।
  3. लैपटॉप के ऊपर नीम्बू और मिर्चें लटकाएं।
  4. (और ये साउथ इंडियन तरीका बंगलोर आने के बाद inspired होकर )कीबोर्ड पर एक नारियल फोडें
  5. नया लैपटॉप खरीद लें :)
personally मुझे ५ नम्बर पसंद है :)
तब तक के लिए....इंतज़ार इंतज़ार और इंतज़ार :D

20 January, 2009

ख़त जो लिखे नहीं गए...



दोपहर के लगभग तीन बजे


डाकिया के आने का वक्त होता था


मैं रोज इंतज़ार करती थी


जाने कितने ख़त आने थे मुझे


अब uske रोज आने का सिलसिला तो ख़त्म हो गया है


इंतज़ार अब भी बदस्तूर जारी है...

13 January, 2009

दरख्वास्त

कहाँ दरख्वास्त दूँ...

खुदा के पास

मैं एक कतरा आवाज के लिए तरस रही हूँ

ऐसी खामोशियाँ क्यों लिख दी हैं

तकदीर शायद एक पन्ना है

फ़िल्म की तरह नहीं लिखी जाती

इसलिए कोई आवाज नहीं है...

बस एक खामोशी है

ए खुदा

मैं एक आवाज के कतरे के लिए तरस रही हूँ

तुम कब सुनोगे मेरी आवाज़?

06 January, 2009

मायका

एक शब्द है
जो माँ से बना है...मायका

सोचती हूँ
जब माँ ही नहीं है
तो मायका भी नहीं
तो क्या छूटेगा?

फ़िर दर्द क्यों
क्या शहर भी कभी मायका हो सकता है?
अगर चंदा मामा हो सकता है
तो...शायद हाँ

कुछ रिश्ते
अजन्मे होते हैं
जैसा उस शहर के साथ
जिसने इस बिन माँ की बच्ची को
सीने से लगाया...

मेरे शहर
तुम मेरे क्या हो?

05 January, 2009

समय के परे

साल के आने के एक दिन पहले
कुछ पुराने रिश्तों को एल्बम से उठाया
थोडी धूल लगी थी, झाड़ दी
और फ़िर से एल्बम उसी ताक पर रख दी
फ़िर जाने कितने सालों की धूल जमने के लिए...
कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं...जिनमें बस मैं हूँ
साथ के लोग जाने कब का हाथ छोड़ कर जा चुके हैं
फ़िर भी
मैं तो हूँ...
और जब तक मैं हूँ...ये रिश्ते जिन्दा हैं।


नए साल में
कुछ नए रिश्ते
जाने कब हाथ पकड़ कर चलने लगे
मेरी मुस्कराहट में हंसने लगे
मेरे गीतों में ताल देने लगे
मेरे साथ हवाओं में उड़ने लगे

पुराने और नए साल के बीच
एक लम्हा था
जो न नया था न पुराना
उस लम्हे में मैंने तुमको देखा
और जाना...फ़िर से
तुम
न आए थे, न जाओगे
तुम बस हो
मुझमें...हममें।



मुझसे इतना प्यार करने का शुक्रिया...
तुमने कहा था न, इस साल मैंने तुम्हें कोई तोहफा नहीं दिया...साल की पहली पोस्ट तुम्हारे लिए.

24 December, 2008

नव वर्ष मुबारक हो...मैं चली छुट्टी मनाने

सबको मेरी तरफ़ से merry christmas and a very happy new year

ऐसा है की हम छुट्टी पर जा रहे हैं। एक हफ्ता...लगभग। ७ जनवरी को वापस आयेंगे...तब तक नया साल आ चुका होगा।

तो ऐसे भी कह सकते हैं कि अब एक साल बाद मिलेंगे। ३१ दिसम्बर के बारे में कुछ मजेदार लाइनें
  1. हम कहते थे कि आज नहा लो, नहीं तो साल भर बिना नहाये रहना पड़ेगा।
  2. आज झगड़ा किया है तो मना लेना जरूरी है, वरना वो साल भर रूठा रहेगा...और जाहिर है साल भर बहुत लंबा अरसा होता है। तो हम अपने झगड़े आज सुलझा लेते थे। अगर मेरी किसी बात से कहीं किसी को कोई दुःख हुआ है तो इसी साल मान जाइए...मैं please भी कह रही हूँ
  3. रात को पढ़ाई नहीं करते थे, बड़ा मज़ा आता था, जैसे कि साल भर वाकई पढ़ाई से छुट्टी हो।

बाकी अभी कुछ याद नहीं आ रहा, फ़िर कभी लिखूंगी।

वैसे आज मेरे बारे में राजस्थान पत्रिका में एक article आई थी। सोचा आपको भी लिंक दे दूँ।

आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं। आशीष जी को हार्दिक धन्यवाद.

23 December, 2008

एहतेशाम...ईद...और वो चाँद

आज बस एक खूबसूरत शाम का जिक्र...

हमें IIMC छोड़े लगभग एक साल हो गया था, नई नई जॉब में सब बिजी थे...हफ्ते में एक भी दिन छुट्टी नहीं मिलती थी। ऐसे में दोस्त हैं, जेएनयू है या गंगा ढाबा नाम की किसी जगह को हम भूल चुके थे। और ये लगभग सबकी कहानी थी, मैं भी कभी कभी अगर PSR जा भी पाती थी तो अकेले डूबते सूरज को देख कर चली आती थी।

ऐसे में ईद आई और साथ में एहतेशाम का न्योता की तुम्हें आना है, और सबसे पहले आना है और सबसे देर से जाना है। वो मेरा बहुत प्यारा दोस्त है , न बोलने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। उस दिन ऑफिस में बड़ी मिन्नत कर के मैं ७ बजे भागी थी वहां से। एहतेशाम के घर पहुँची तो एकदम कॉलेज के दिन याद आ गए, सारे लोग वहां थे, एक एक दोस्त।

वो ईद मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत ईद थी, गई तो देखा एहतेशाम और राजेश ने मिल के बहुत ही बढ़िया सेवैयाँ बनाई थी, और साथ में कबाब और पनीर टिक्का। साथ में शायद रूह अफजा था, मुझे याद नहीं...याद है की कितने प्यार से जिद कर कर के हमने सब को खिलाया था। उस दिन मुझे एक प्रोजेक्ट पर भी काम करना था, पर शुक्र था की मेरा बॉस भी ईद मनाने गया हुआ था, उसने कॉल किया की पूजा काम की हो...मैंने डरते डरते कहा की मैं ईद मना रही हूँ, काम कैसे करुँगी। और उस दिन हमारे बिग बॉस यानि सीईओ का फ़ोन आने आला था मुझे, काम की प्रोग्रेस देखने के लिए मैंने पूछा की सर कॉल करेंगे तो क्या कहूँगी...और मुझे यकीं नहीं हुआ, उसने कहा की फ़ोन काट देना, पिक मत करना। और मैंने ऐसा ही किया।

देर रात तक किस्से चलते रहे, सबने अपने अपने ऑफिस की कहानी सुनाई जो की कमोबेश एक ही जैसी थी, फ्रेशेर होना शायद एक जैसा ही होता है। धीरे धीरे सब आपने अपने खेमे में बढ़ने लगे, पर मैंने वादा किया था की सबसे आख़िर में जाउंगी...तो निभाया।

मुझे आज भी ईद पर वो रात याद आती है...सड़क पर चलते हुए चाँद देखना। उस दिन एहतेशाम बहुत अच्छा लग रहा था, उसे कुरते में पहली बार देखा था। उस दिन जिंदगी थोडी अपनी सी लगी थी... लौटते हुए जान रही थी की शायद ऐसी ईद अब कभी नसीब नहीं होगी...पर फ़िर भी दिल ने यही दुआ मांगी चाँद को देख कर। खुदा ये दोस्ती सलामत रखना...ये ईद सलामत रखना। कहीं और नहीं तो मेरे दिल में वो रात आज भी जिन्दा है...साँसे लेती है, ख्वाब देखती है।

22 December, 2008

एक मुलाकात जिंदगी से...

"आई थिंक आई ऍम फालिंग...फालिंग इन...लव विथ यू", गुनगुना रही थी और बस हंस रही थी उसे देख कर...उसकी आँखें जैसे रूह तक झांक सकती थीं, ज्यादा देर तक उसे लगातार देख नहीं पा रही थी, जब कि ऐसा कुछ भी नहीं था जो छुपाना था उससे। या शायद छुपाना था...

उसने कहा कि मैं उससे पिछले एक महीने से बात कर रही हूँ, क्या वाको? मुझे यकीन नहीं हुआ, पता ही नहीं चला इतनी दिन हो गए। जैसे रूह पहचानती है उसको भले चेहरा याद नहीं, शायद हम मिलें हो पहले कभी, समय कि सीमाओं से परे....शायद अंतरिक्ष में साथ भटकें हों...अनगिनत सवाल, और इनके जवाब ढूँढने ki जरुरत नहीं लगती, जैसे कि हम दो लोग नहीं हैं, कुछ समझाने की जरुरत नहीं होती उसे.

कि मुझे सिगरेट से कोई दिक्कत थी, पर उसे नर्वस देख कर थोड़ा घबराने लगी थी मैं भी। पर फौजी ने जब उसे डांटना शुरू किया कि देखो सरे लोग तुम्हें सिगरेट पीने से मन करते हैं तो जाने क्यों मैं बिल्कुल उसके तरफ़ से झगड़ने लगी...मेरा बस चलता तो मैं ख़ुद उसे एक सिगरेट जला के दे देती. बड़े टेनसे से लम्हे थे वो, बड़ी मुश्किल से कटे. रेस्तौरांत से बहार आके बड़ा सुकून महसूस हुआ, मैं लगभग साँस रोके बैठी थी.

फौजी ने बाहर आके कुछ कहा नहीं पर उसकी मुस्कान बहुत सरे वाक्य कह गई, अब मैं चीख तो नहीं सकती न कि वो मेरा बॉयफ़्रेन्ड नहीं है...इन फैक्ट वो मेरा कुछ भी नहीं है। कार में बैठ कर भी टेंशन हो रही थी...मैंने सिगरेट के तीन चार काश लगाये. अच्छी लगी पर ये भी जान गई मैं कि जो लोग कहते हैं कि सिगरेट पीने से टेंशन कम होती है...फत्ते मरते हैं. उसने कहा मैंने उसकी सिगरेट गीली कर दी. बड़ा बेवकूफ की तरह महसूस किया मैंने ख़ुद को...जैसे सिगरेट पीने से बड़ी कला दुनिया में नहीं है.

उससे बहुत सी बातें करने का मन कर रहा था, या अगर सही कहूँ तो उसकी बहुत सारी बातें सुनने का मन कर रहा था। चाहती थी कि वो बोले और मैं चुप रहूँ, बस सुनूं कि वो क्या सोचता है, क्या चाहता है...कुछ भी. उसे अच्छी तरह जाने का मन कर रहा था, उतनी अच्छी तरह जैसे शायद वो मुझे जानता है. कैसे जानता है, मालूम नहीं

बालकोनी पे हलकी सी ठंढ बड़ी अच्छी लगी, कोहरे का झीना दुपट्टा गुडगाँव कि ऊँची इमारतों ने ओढा हुआ था, उसमें से कहीं कहीं गाँव की किसी अल्हड किशोरी की आँखों की तरह किसी की बालकनी में लाइट्स जल रही थी। मीठी मीठी ठंढ जब साँसों में उतर गई तो बालकोनी का मोह छोड़ना पड़ा.

उसे अपनी कवितायेँ पढ़ाई मैंने, अच्छा लगा। वो सारे वक्त आराम से नहीं बैठा था...एक हरारत दिख रही थी उसमें. मैं आधे वक्त बस हंसती रही थी, किसी तकल्लुफ के बगैर. कुछ कहना नहीं चाहती थी, बस देखना चाहती थी उन आंखों में क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था मैं किसी कि आँख से आँख मिला के बात नहीं कर पा रही थी, और मुझे बड़ा अजीब लग रहा था.

सिगरेट का धुआं मुझे अच्छा नहीं लगता...फ़िर आज क्यों लग रहा था। मुझे इतना तो पता था कि ये गंध मैं बस उससे जुड़े शख्स के कारण पसंद कर सकती हूँ. तो क्यों अच्छा लग रहा था अल्ट्रा माईल्ड का धुआं? उसके कारण? मेर दिल कर रहा था एक काश लेने का, मगर उस सिगरेट का जो वो पी रहा था, क्यों? पता नहीं. वैसे मेरा मन कभी नहीं करता कि मैं सुट्टा लागों, पर उस वक्त कर रहा था. मैंने मग भी पर उसने मना कर दिया. कि मैं फ़िर उसकी सिगरेट ख़राब कर दूंगी, थोड़ा दुःख हुआ. शायद आज तक जो चाहा लेने की आदत बन गई है, चाहे किसी कि उँगलियों में अटका अल्ट्रा माईल्ड क्यों न हो...

उसकी नज़रें बड़े गहरे कुछ तलाशती हैं, जैसे मेरा पूरा वजूद मेरी आंखों में दिख जायेगा। अहसास हुआ कि उससे कुछ भी छुपाना बड़ा नामुमकिन है और ख्वाहिश हुयी उसे वैसी ही नज़रों से देखूं...पर देख नहीं पायी.


डर लगा मुझे, कहीं उसने सुन तो नहीं लिया मेरी आंखों में, "आइ थिंक आई ऍम फालिंग फालिंग इन लव विथ यू।"




Janno Gibbs - Fall...

21 December, 2008

छुट्टियाँ

हमारे घर में शीशम के बहुत सारे पेड़ थे...गर्मियों में इनके कारण छाया मिलती थी और जाडों में लकड़ी। और घर में जब काम होता था तो लकड़ी की छीलन, जिसे हम कुन्नी कहते थे...बोरों में भर कर रख लेते थे। देवघर ऊँची जगह पर स्थित है तो वहां ठंढ भी थोडी ज्यादा पड़ती है। हर साल दिसम्बर आते ही कहीं से कोई पुराना धामा, या ताई (लोहे का बड़ी कटोरी जैसा पात्र जिसमें घर बनने वक्त सीमेंट या बालो उठाया जाता है) निकाल कर रख लेते थे। शाम होने के थोड़ा पहले बाहर आँगन के तरफ़ घूम घूम कर सूखी लकडियाँ चुन लेते थे, शीशम की डाली बहुत अच्छे से जलती थी।

गौरतलब है कि लगभग इसी समय आलू निकलने का भी वक्त होता है। हमारे यहाँ घर की बाकी जमीन, जिसे हम फिल्ड कहते थे में आलू की खेती होती थी। क्यारियों में आलू के पेड़ लगे होते हैं, मिट्टी हटा कर आराम से आलू निकाल लेते थे हम। लगभग सात बजे घर में अलाव जलता था, जिसे थोडी देर ताप कर मम्मी खाना बनाने चली जाती थी और हम दोनों भाई बहन पढने बैठ जाते थे, लैंप की रौशनी में। ९ बजे के लगभग पापा के आने का टाइम होता था और मम्मी अलाव सुलगा के रखती थी, पापा आते थे और खाना लग जाता था १० मिनट में। इतने देर में हमारा homework ख़त्म हो जाता था।

फ़िर पापा के sath खाना खाते थे, और पापा हर रोज हमें कहानी सुनते थे, हातिमताई की...हम बेसब्री के पापा के आने का इंतज़ार करते थे। और हर रोज़ सारी कहानी सुन लेने का मन करता था पर पापा रोज़ थोडी कहानी सुनाते थे, जैसे हर रात हातिमताई हुस्न्बनो के एक सवाल का जवाब dhoondhne कैसे गया और सवाल का जवाब क्या था। इस बीच हम अलाव में आलू घुसा देते थे, आलू पाक जाते थे और खाने में इतना सोन्हा स्वाद आता था कि क्या बताएं। हम झगड़ते रहते थे कि कौन सा आलू किसका है अक्सर बड़े wale आलू के लिए खूब झगडा होता था। और आप यकीं नहीं करेंगे कि हमने इसका क्या उपाय निकाला...कच्चे आलू पर ही हम अपने अपने नाम का पहला लैटर लिख देते थे, मेरा P और जिमी का J

ऐसे ही जाड़े कि छुट्टियाँ ख़त्म हो जाती थी, हम रोते पाँव पटकते स्कूल जाना शुरू कर देते थे।

19 December, 2008

दिल ढूंढता है...

घर
ये एक शब्द जाने कैसे
अजनबी, अछूता सा हो गया है
वो घर जहाँ शीशम के पेड़ थे
आसमान तक जाती झूले की पींगें थी
क्यारियों में लगी रजनीगंधा थी
कुएं में छप छप nahata चाँद था
पोखर में उछलते कूदते मेंढक थे
बारिशों में कागज़ की नाव थी
धूप में अमरुद का पेड़ था
छोटी सी चारदीवारी थी
जिसे सब फांद जाते थे
खूब सारे पीले फूलों से ढका पेड़ था
गुलमोहर के फलों की तलवारें थी
बालू के घरोंदे थे
गिट्टी के पहाड़ और किले
बुढ़िया कबड्डी थी
खाली खाली सड़क थी
हाफ पेडल साईकिल थी
११ सालों में बड़ा हुआ बचपन था
जो ६ सालों से खोया हुआ है...


जाने कैसी कैसी यादों ने आ घेरा, शब्द कबड्डी खेलने लगे, परेशान हो गई मैं। इस पोस्ट की पोटली में बाँध दिया, अब शायद इनकी शरारत थोडी कम हो।

आज से महेन के ब्लॉग चित्रपट पर भी लिख रही हूँ। फिल्मों को एक अलग नज़र से देखने का शौक़ वो भी रखते हैं उन्होंने अपने कारवां में साथ चलने का आमंत्रण दिया...और हम चल पड़े। अलग सी फिल्मों के बारे में बहुत अच्छी जानकारी है इस नवोदित ब्लॉग पर।

18 December, 2008

तुम

इक दुआ सी कैसी
कल शाम तेरी याद आई
कि जिंदगी फ़िर से...जिंदगी लगने लगी

एक लम्हे को छुआ जब
तेरे लबों की तपिश ने
बादलों में फ़िर से...आग सी लगने लगी

तनहाइयों के घर में
डाले थे कब से डेरा
तेरा नाम लिया जैसे...चहलकदमी होने लगी

टूटा हुआ था मन्दिर
रूठे थे देव सारे
जिस दिनसे तुझे माँगा...फ़िर बंदगी होने लगी

तुम सामने हो कब तक
यूँ होश सम्हालें हम
एक नज़र ही देखा...दीवानगी होने लगी

मर ही गए थे हम तो
यूँ तुमसे दूर रह कर
तुम आ गए हो फ़िर से...जिंदगी होने लगी

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